उस यात्रा के दो विचलित करने वाले दृश्य आज भी स्मृति में बने हैं. ‘बिरला तारामण्डल’ के बाहर एक सात-आठ साल की आइसक्रीम खाती लड़की और उसी उम्र की दूसरी लड़की आइस्क्रीम की जमीन पर टपकती बूंदों को चाटती हुई. ‘चौरंगी’ के बाहर कूड़े के ढेर में गिरे अधखाये भोजन के डिब्बे के लिये छोटे बच्चों का समूह और कुत्तों के बीच भिड़त. कभी बच्चे कुत्तों को खदड़ते तो कभी कुत्ते बच्चों को. सम्पन्नता और विपन्नता के दो विपरीत ध्रुवों के बीच झूलता कलकत्ता मुझे आज तक देखे शहरों में इकलौता ऐसा महानगर लगा, जिसमें एक ‘मेग्नेट’ है, जो बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता है. एक ऐसा महानगर है जहाँ अकेले होते हुए भी आप भीड़ का अंग होते हैं, इसके विपरीत दिल्ली, जहाँ भीड़ में होते हुए भी आप अपने को अकेला महसूस करते हैं.
कलकत्ता से वापिस लौटकर मैं उन मित्रों के प्रति, जिन्होंने अपने आत्मीय और स्नेहपूर्ण आतिथ्य से मुझे सिंचित किया, आभार का एक शब्द भी न लिख सका. यह आलेख लिखते हुए मन में एक हूक सी उठ रही है.
सकलदीप सिंह, छेदीलाल गुप्त, कन्हैयालाल सेठिया, शलभ श्रीराम सिंह आज इस दुनिया में नहीं हैं. अक्षय उपाध्याय अपने एकमात्र प्रकाशित कविता संग्रह ‘चाक पर रखी धरती’ के प्रकाशन के कुछ साल बाद ही अपने अच्छे खासे खादी के व्यवसाय से खिन्न फ़िल्म जगत के कलाकारों की संगत में डूब गए. स्मिता पाटिल और ओम पुरी शूटिंग के दौरान कलकत्ता प्रवास के दिनों में उनके अंतरंग मित्र बने. 4 नवम्बर 1994 को कलकत्ता के बाग बाजार में बस से उतरते हुए फिसल कर मृत्यु का शिकार बन गए.
कपिल आर्य के बड़े भाई अलख नारायण, जिनके प्रखर, वामपंथी चिन्तनपरक समीक्षात्मक लेखों ने सातवें-आठवें दशक में लघु पत्रिकाओं में अपनी पृथक पहचान बनायी थी, ‘खलासी टोला’ के अत्यन्त घटिया स्तर के चावल और केले से बनाये गये ठर्रे की लत का शिकार हो, अल्पायु (28 जून, 1991) में चल बसे. ‘राजेन्द्र छात्रा निवास’, जहाँ एक छोटे कमरे में, जिसमें एक तख्त पड़ा होता, उसी निवास स्थली में कलकत्ता प्रवास के दिनों में प्रायः बाबा नागार्जुन का डेरा जमता. अलख नारायण के दिनों में प्रायः बाबा नागार्जुन ने ही अपने पास से पाँच सौ रुपये की व्यवस्था कर उनकी किताब ‘प्रेमचंद और लु-शुन’ के प्रकाशन का बंदोबस्त किया.
मानिक बच्छावत अपनी वृद्धावस्था और मुँह से कुछ भी बोल पाने में असमर्थ अपने घर की चारदीवारी में सिमट कर रह गये हैं. अवध नारायण सिंह, जिनकी कहानियों ने कभी अपनी चमक बिखेरी थी, आज वाराणसी के समीप अपने पैतृक गाँव में आँखों से लाचार निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
उस समय के मित्रों में डॉ. शम्भुनाथ ‘वागर्थ’ का सम्पादन करने में व्यस्त हैं और एकमात्र कपिल आर्य बचे हैं जिनका गाहे-बगाहे फोन आता रहता है और उल्लास भरे स्वरों में वह उन दिनों का स्मरण करते हुए, अतीत की सुप्त परछाइयों को पुनर्जीवित करते रहते हैं.
‘हिन्दी बुक सेन्टर’ छोड़ प्रियदर्शी प्रकाश ने कुछ समय के लिये ‘लिपि प्रकाशन’ में नौकरी की. उसी दौरान उसका पहला (शायद अंतिम भी) कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ, ‘अपरिचित का परिचय’. कलकत्ता की पृष्ठभूमि में रचित ‘गल्प भारती’ और अन्य लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित दस-बारह कहानियों का संग्रह. कोई भी कहानी आठ-दस पृष्ठों से अधिक बड़ी नहीं थी. हिन्दी कहानी के परम्परागत लालित्य और सौन्दर्य शास्त्र के विरुद्ध एक अकेले आदमी के अपरिचय के संत्रास को नये बिम्ब विधानों और भाषा में रचती हुई. कुछ -कुछ ‘एंटी स्टोरी’ की ओर झुकी हुई.
वह रात्रि में हापुड़ आया और विस्मित करते हुए अपनी किताब मुझे पकड़ायी. अपना यह संग्रह उसने मुझे ही समर्पित किया था. ‘‘साहित्य जगत में सिर्फ तुम्हारे साथ ही मेरा सम्पर्क रह गया है,’’ उसने कहा. वह रात हमारे लिए उत्सव की रात थी.
‘लिपि प्रकाशन’ से ‘सरस्वती प्रकाशन’, ‘फिल्मी कलियाँ’ से ‘फिल्मी दुनिया’ तक का अनियतकालीन उसका सफर जारी रहा. एक जगह लम्बे समय तक टिक पाना उसके अराजक स्वभाव में न था. ये प्रकाशन संस्थान और फिल्मी पत्रिकायें अंसारी रोड, दरियागंज, भगीरथ प्लेस, चाँदनी चौक में स्थित थीं. जब तक वह इन स्थलों पर कार्यरत रहा, दिल्ली जाने पर अनिवार्यतः कुछ घण्टे उसके साथ व्यतीत होते. फिर वह करोल बाग के किसी संस्थान में चला गया जहाँ मुलाकात की कौन कहे, फोन तक पर भी प्रतिबंध था. उससे सम्पर्क धीरे-धीरे खण्डित होता चला गया.
वर्ष 1980 की किसी रात वह हापुड़ आया. उदास और अनमना. विभूति भूषण वंद्योपाध्याय के उपन्यास ‘अशनि संकेत’ का उसके द्वारा किया गया अनुवाद प्रकाशित हो गया था. सुबह चलते वक्त बमुश्किल इतना बोल सका कि क्या मैं उसके लिए एक हजार रुपये की व्यवस्था कर सकता हूँ. बरसाती का किराया कुछ माह से बकाया चल रहा था और मकान मालिक ने उसे सख्ती से बरसाती खाली करने को कहा था.
दिल्ली जाने वाली बस में अपनी सीट पर बैठा वह अचानक नीचे उतरा और बोला, ‘‘जब तक ‘अशनि संकेत’ प्रकाशित नहीं हुआ था तुम्हारी जेब पर अपना अधिकार मानता था, और अब… शायद मैं हापुड़ आखिरी बार आ रहा हूँ.’’
…और वह सचमुच हापुड़ दोबारा नहीं आया.
आठ-दस साल पहले ‘विश्व पुस्तक मेले’ में अनायास डॉ. शम्भुनाथ से भेंट हुई. उन दिनों शम्भूनाथ ‘केन्द्रीय हिन्दी संस्थान’ आगरा में निदेशक पद पर कार्यरत थे और ‘विश्व पुस्तक मेले’ में आगरा से आए थे. बातचीत के मध्य अनायास उन्होंने पूछा, ‘‘क्या मुझे प्रियदर्शी प्रकाश के बारे में जानकारी है?’’
मैंने जिज्ञासा से उनकी ओर देखा, ‘‘प्रियदर्शी प्रकाश नहीं रहे,’’ शम्भूनाथ बोले.
‘‘कब… कैसे… अचानक,’’ मैं विस्मित हुआ. ‘‘विशेष जानकारी मुझे नहीं. कुछ माह पहले मुझे किसी से सूचना मिली थी
.’’ क्या कोई इतने गुपचुप तरीके से दुनिया के नक्शे से गायब हो सकता है?
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वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल की सम्पूर्ण कहानियों का संग्रह ‘आधी सदी का कोरस’ तथा ‘किसी वक्त किसी जगह’ शीर्षक से यात्रा वृतांत ‘संभावना प्रकाशन’ हापुड़ से प्रकाशित.
मोब.-८२६५८७४१८6
‘प्रियदर्शी प्रकाश के बहाने कलकत्ता की याद’ पढ़ा। पढ़ कर कुछ समय तक हतप्रभ होकर सोचता रहा कि संस्मरण इतनी अद्भुत स्मरण शक्ति और बारीक दृष्टि से कैसे लिखे जाते होंगे? ऐसा आपका हर संस्मरण पढ़ते समय अनुभव किया फिर चाहे वह बाबा नागार्जुन पर था या लक्ष्मीधर मालवीय अथवा अमितेश्वर पर।
संस्मरण पढ़ते समय पाठक स्वयं उस चरित्र से जुड़ जाता है। यह ध्यान ही नहीं रहता कि वह सब हमें लेखक बता रहा है। लगता है, सब कुछ हमारी आंखों के सामने घटित हो रहा है। यह आपकी क़लम की बहुत बड़ी विशेषता है। इस क़लम को संभाल कर रखिएगा।
प्रियदर्शी प्रकाश की कहानियां उस दौर में हम भी पढ़ते थे लेकिन यह कल्पना नहीं की थी कि उनके जीवन में ऐसे विकट उतार-चढ़ाव रहे होंगे। एक व्यक्ति का पूरा जीवन आपने जीवंत कर दिया।
-देवेन्द्र मेवाड़ी, शहर दिल्ली से
कैसे कैसे लोगों ने यह पतवार थामी है! सबको सलाम!!
यह तो अद्भुत है।कलकत्ता का होने
के नाते कुछ अधिक सराह सका।
छेदीलाल गुप्त से अच्छा परिचय था।मानिक मेरे आत्मीय मित्र है।मेरा पहला कविता संग्रह ‘कविता संभव ‘उन्होंने ही प्रकाशित किया।प्रियदर्शी प्रकाश का प्रेम मुझे भी मिला।मै भी हिन्दी बुक सेन्टर जाया करता था।पर उनके बारे मे यह सब नही जानता था।
अशोक जी को बधाई।
मेरे बड़े भाई रामनारायण शुक्ल की
कहानियाँ तीन खंडों मे छापी ।अब अनुपलब्ध।संभावना से ।मेरा भी
संग्रह छायाओं और अन्य कहानियां।
वे सच्चे साहित्य व्यसनी हैं।
यादों से घिर गया हूं।
शुभकामनाएं।
दिल नहीं भरा…
अशोक की नज़र,कथ्य पर पकड़ और तरल निर्वाह का जवाब नहीं।अपुन पुराने आशिक़ हैं और कभी नाउम्मीद नहीं हुए।
बहुत अद्भुत। पढ़ते हुए ऐसा लग रहा था जैसे कोई फ़िल्म देख रहा हूं और लगभग सभी पात्रों से परिचित हूं। सौभाग्य से संस्मरण में आये बहुत से नामों से परिचय है और साथ ही बहुत से सवालों के अनायास ही जबाब भी मिल गए। आपका तो कैसे शुक्रिया करें अरुण जी। खुश कित्ता सर जी।
एक सांस में पढ़ गया. जीवन के विविध रंगों के बीच नियति मनुष्य के लिए कैसी कैसी कहानियां रचती है.
यादगार संस्मरण
यह भी इतिहास लेखन है।महत्वपूर्ण ।
साहित्य का समाज हर लेखक और पाठक और साहित्यसहचर से मिल कर बनता है।
Kitna itihas hamaaree jankari ke bahar rah gaya…
आत्मीय संस्मरण। यह सिर्फ एक महानगर नहीं देश का दिल भी है। यह शहर खींचता है अपने मानवीय गंध और स्पर्श से जो अन्यत्र (महानगरों में) महसूस नहीं होते। वहाँ की साहित्यिक-सांस्कृतिक हलचलों और उस माहौल में बुर्जुआ मानसिकता के प्रति हिकारत भरी दृष्टि इस शहर को एक अलग पहचान देती है।यहाँ आम आदमी की कद्र है।पैसे की धाक कम है।थोड़ी बहुत मनुष्यता यहाँ अब भी बची है। इन सबका एहसास इससे गुजरते हुए हआ। यह एक उपलब्धि रही।सभी को शुभकामनाएँ !
यह एक ऐसा संस्मरण है जो अभिभूत करता है, झकझोरता है और परेशान भी करता है। इसके केंद्र में सिर्फ एक शख्सियत नहीं, एक पूरी पीढ़ी है जो प्रियदर्शी प्रकाश की ही तरह अपने दुस्वप्नों, संघर्षों और महत्वाकांक्षाओं से जूझ रही थी। मुझे यह बात खास तौर पर पसंद आई कि अशोक ने इसे नैतिक चौखटों से बाहर रखा है। अफसोस कि प्रियदर्शी प्रकाश साहित्य की दुनिया में अपने लिए वह जगह नहीं बना सका जो उसके आसपास के लेखक बना पाए।
बहुत सुंदर एवम मार्मिक संस्मरण । गजब का आदमी है प्रियदर्शी प्रकाश ।अशोक अग्रवाल भी । इतना सुंदर संस्मरण ,इतना डूबकर लिखा हुआ बहुत कम पढ़ने को मिलता है।बधाई अशोक अग्रवाल और ’समालोचन’ को।
प्रियदर्शी के बहाने अशोक जी ने कोलकाता और वहाँ के हिन्दी बांग्ला साहित्यकारों का जीवंत परिचय प्रस्तुत कर दिया है। यह सातवें आठवें दशक का सांस्कृतिक इतिहास है जिसे उस समय के संस्कृति कर्मी निष्ठा पूर्वक बना रहे थे। इसे हमारी आंखों के सामने पुनःसृजित करने के लिए अशोक भाई और समालोचन बधाई के पात्र हैं। – – हरिमोहन शर्मा
अशोक जी ने जिस तरह लेखकों के निजी जीवन में आनेवाली अनेकानेक समस्याओं का जीवंत चित्रण किया है,वह काबिले तारीफ है।
इस दिलचस्प सर्जनात्मक संस्मरण के लिए उन्हें साधुवाद।
झकझोर कर परेशान करने वाला संस्मरण। सचमुच। अशोक अग्रवाल जी ने, अरुण देव द्वारा सही अर्थ में चिह्नित , साहित्य, हिंदी साहित्य के तलघर की कैसी तस्वीर खींची है!अशोक जी की क़लम वाकई अनोखी है, ज्यादातर रुलाने वाली।
Only a professional swimmer can take you deep inside to let you feel the treasure hidden there. Likewise Ashok is such a skilled writer, through whom you can travel and enjoy virtually only by reading his brilliant memoirs on writers, places and things. His style and he himself always induces others to read and write, I know that being his local friend.
कलकत्ते का जीवंत चेहरा ,स्मृतियाँ ,लेखकीय जीवन की विडंबनाएँ -सब कुछ आँखों के सामने- जिसका माध्यम बनी है अशोक अग्रवाल की सहज भाषा .संस्मरण कला का बेहतरीन नमूना .साधुवाद अशोक जी और समालोचन !
अशोक अग्रवाल के संस्मरण सचमुच एक भूली बिसरी किन्तु बेहद जीवंत और दिलचस्प जीवन शैली की सुगंध लिए हुए हैं।जिन दिनों के कलकत्ते की याद उन्होंने की है,वे सचमुच वैसे ही थे।शलभ,कपिल तो मेरे दोस्तों में थे ही,कपिल से अभी कल ही बात हुई,छेदीलाल जी,सकलदीपसिंहआदि तो जा चुके हैं।चौंसठ से सत्तर बहत्तर तक मेरी भी यही दुनिया थी।उन्यासी के बाद शलभ मेरे पास आकर विदिशा रहने लगा और तिरानबे तक रहा।फिर हम दोनों अलग रहनेलगे।था वह वैसे ही जैसा अशोक ने लिखा है।अशोक ने सब कुछ तरोताज़ा और जीवंत करके परोस दिया है।