शिवपुत्र का इंद्रधनुष मराठी से हिंदी अनुवाद: गोरख थोरात |
अक्षांश-रेखांश
यह वर्ष कुमार गंधर्व (8 अप्रैल 1924 से 12 जनवरी 1992) का जन्मशती वर्ष है और संगीत महफिलों, संगोष्ठियों, व्याख्यानों, ग्रंथ प्रकाशनों आदि अनेक उपक्रमों के जरिए देश के कोने-कोने में यह जन्मशती बड़ी धूमधाम के साथ मनाई जा रही है.
कुमार एक गायक तो थे ही, साथ ही वे नायक और चिंतक भी थे. उन्हें हार्दिक और व्यावहारिक श्रद्धांजलि अर्पित करना इस लेख का उद्देश्य है. उनके विराट कार्य का सरसरी निगाहों से जायजा लेने के बजाय मैं उनके संगीत प्रयोग ‘गीतवर्षा’ पर ही विचार केंद्रित करना चाहता हूँ.
कई बार संगीत चर्चा केवल भावनात्मक स्तर पर चलती है या फिर कलाकार के बारे में कुछ किस्से सुनाए जाते हैं. लेकिन ये बातें इतनी तकनीकी होती हैं कि चर्चित मुद्दों के पत्ती की नस की प्रत्येक रेखा आत्मीयता के कारण प्रतिभाविष्कार के विशाल वृक्ष दृष्टि की परिधि में आती ही नहीं.
‘गीतवर्षा’ की चर्चा का एक खास कारण है. ‘गीतवर्षा’ कुमार की अत्यंत नाविन्यपूर्ण संगीत निर्मिति का पहला प्रयोग था. वह अनेक आनुषंगिक प्रयोगों का बीजरूप था. दूसरी बात, ‘गीतवर्षा’ के प्रति एक गलतफहमी थी कि वह केवल बरसाती गीत या लोक गीतों का संग्रह है. इस कारण उसके अद्वितीय संगीत शिल्प की लगभग पूरी तरह से उपेक्षा हुई.
‘गीतवर्षा’ का न केवल सांगीतिक महत्व है, बल्कि उसका सामाजिक महत्व भी है. जाति संस्थागत उच्च-नीच श्रेणी व्यवस्था की यह विचार पद्धति अन्य क्षेत्रों में भी फैल गई है. कई संगीतकार यानी शास्त्रीय संगीतकार अपने आप को संगीत की उच्चतम जाति के सदस्य मानते हैं और बाकी संगीत को निम्न दर्जा देते हैं. कुछ तो फिल्म-संगीत को अछूतों की कतार में बिठा देते हैं. लेकिन कुमार के संगीत संबंधी विचारों में और आचार में भी यह संगीत जातीय भेदाभेद नहीं है. कुमार का लता मंगेशकर पर लिखा आलेख जितने प्यार, निर्भीकता और निष्पक्षता से लताजी के व्यक्तित्व और संगीत की विशिष्टता को व्यक्त करता है, उसमें न केवल कुमार की उदारवादी दृष्टिकोण की अनुभूति होती है, बल्कि कुमार की फिल्म-संगीत की गहरी समझ भी नजर आता है.
एका जाना माना शास्त्रीय गायक लोकगीतों की संपूर्ण महफिल रचता है, यह घटना भी संगीत जाति-पाति के विरुद्ध विद्रोह का हुंकार है. इसलिए ‘गीतवर्षा का जितना सांगीतिक महत्व है, उतना ही सामाजिक भी है.
संगीत कृति का शिल्प समझ में न आए तो उसकी ओर सुखद ध्वनि, मिठासभरे गीत के रूप में देखा जाता है. इसके विपरीत, स्वरतालों की प्रायः दुष्कर और शुष्क चर्चा भी पाई जाती है. शिल्प के विचारों और कला प्रभावों के संदर्भ में अन्य क्षेत्रों की कलाकृतियों से विशिष्ट संगीत कृतियों का नाता समझ में आ सकता है. वर्तमान रूपी कालपुरुष के मुखड़े का नाकनक्श और अन्य विशेषताएँ महसूस होती हैं और समझ भी बढ़ता है. इतिहास के दीर्घसूत्र दिखाई देने लगते हैं और और क्वचित भविष्य का धुंधला-सा मुखड़ा भी सूचित होता है.
अद्भुत
भारतीय लोक संगीत का प्रयोग कर वैविध्य, विस्तार और भावना की गहराई आदि सभी की अनुभूति देने वाले और देखते ही देखते श्रोताओं के इर्दगिर्द एक नया भव्य स्वरविश्व रच कर उन्हें बाँधे रखने वाले संगीत कथन का मेरा पहला अनुभव यानी कुमार गंधर्व का द्वारा रचित ‘गीतवर्षा’. सन 1966 के अगस्त महीने में दक्षिण मुंबई के भुलाभाई देसाई सभागार में मैंने यह कार्यक्रम सुना था. एक ही प्रतिपादन विषय ‘वर्षा’ और उसके इर्दगिर्द कुमार गंधर्व की लगभग ढाई घंटे की एक सांचे में ढली महफिल- ‘गीतवर्षा’. यह महफिल एक अद्भुत अनुभव था.
भारतीय कला संगीत में कुछ रागों का विस्तार सुनने को मिलता है. गायक की प्रतिभा के अनुसार उसकी विभिन्न ताल-सुर रचनाओं का आनंद अनुभव किया जा सकता है. लोक संगीत, फिल्म संगीत या संगीत के सीमित विस्तार वाले अन्य प्रकारों में उत्कट संगीतानुभवों की तीव्रता महसूस होती है, लेकिन उसका विस्तार महसूस नहीं होता.
पाश्चात्य कला संगीत में सन 1750 के आसपास उदित सिंफनी कला प्रकार में एक प्रदीर्घ और वैविध्यपूर्ण संगीतानुभव प्राप्त होता है. लेकिन वह है वाद्य संगीत. लगभग बीस से लेकर पचास से भी अधिक वाद्यों के नाद के वैचित्र्य के कारण उसमें स्वर-रंगों की विपुलता अभिप्रेत ही होती है. योहान सेबस्टियन बाख (सन 1685 से 1750) नामक संगीतकार ने कंठ्य और वाद्य संगीत का प्रयोग कर विभिन्न संतों द्वारा बाइबिल में निवेदित किए गए ईसा मसीह के दुखद अंत के अंशों को लेकर रचे ‘पैशन’ नामक संगीत प्रकार से वैविध्य, विस्तार और तीव्रता का एकत्रित अनुभव प्राप्त होता है. ऐसा अनुभव भारतीय संगीत के किसी भी प्रकार में या प्रयोग में अमूमन नजर नहीं आता.
कुमार ने अपना कंठस्वर, श्रीमती वसुंधरा कोमकली और मीरा राव का कोरस, तानपूरा और वसंतराव आचरेकर का तबला; केवल इन्हीं साधनों का प्रयोग कर ‘गीतवर्षा’ की विराट रचना बनाई थी. आवाज की पुकार, कहवा, फेंक, जाड़ी, पोत, आघात, तरलता, अनपेक्षितता आदि अनेक गुणों और कलाकारों के द्वारा भिन्न-भिन्न स्वरावकाश उत्पन्न किए. इन अवकाशों के वैविध्य के कारण वाद्य संख्या की कमी कहीं भी महसूस नहीं होती.
कुमार का महत्वाकांक्षी उद्देश्य था उस विशिष्ट भूभाग के वर्षा ऋतु का संपूर्ण भावचित्र बनाना, जहाँ वे रहते थे. एक बार संगीतवाह्य हेतु (भावना, घटना) आदि को मन में रखकर उसके अनुसार की गई संगीत रचना को प्रोग्राम म्यूजिक कहा जाता है. बेथोव्हन की ‘पेस्टोरल’ नामक छठी सिंफनी की इसमें गणना की जाती है. इसके पीछे की परिकल्पना यह थी कि एक विशिष्ट प्राकृतिक घटना के अनुभव का संगीत के द्वारा पुनरानुभव हो. लेकिन कुमार के ‘गीतवर्षा’ कार्यक्रम को इस चौखट में नहीं बिठाया जा सकता. प्रस्तुत लेख का मुख्य उद्देश्य ही कुमार की रचना का स्वरूप तय करना है.
‘गीतवर्षा’ महफिल का कुल अनुभव मेरे संगीत अनुभव के उस दौर तक का एक शिखर बिंदु था. आश्चर्य की बात है कि बीते पैंसठ सालों में विभिन्न संस्कृतियों का विपुल संगीत सुनने के बाद आज भी उसकी ऊंचाई मेरे हिसाब से जरा भी कम नहीं हुई है, बल्कि बढ़ गई है. कुमार की जन्मशती के बहाने यह ‘गीतवर्षा’ में झांकने का प्रयास है कि इस मोहनी के पीछे कौन सा जाल रचा गया है.
कल परसों
‘गीतवर्षा’ पर गौर करते समय मुझे याद आया कि कार्यक्रम के समय पोथी के आकार की एक छोटी-सी और सुंदर पुस्तिका वितरित की गई थी. वह मुझे गीतों के शब्दों के लिए और अन्य जानकारी के लिए आधार स्वरूप चाहिए थी. मेरी प्रति कोई ले गया था और बडी आत्मीयता से उसने अपने पास ही रख ली थी. आखिरकार बड़े प्रयास से मुझे उसी कार्यक्रम के ‘गघ गरजन आए’ शीर्षक से संपन्न हुए पहले प्रयोग की वितरित पुस्तिका मिल गई.
उसी पुस्तिका में कुमार द्वारा लिखी गई ‘गीतवर्षा’ की प्रस्तावना है. उसके बाद प्रस्तुतीकरण के क्रम से पेश की गई ‘बौछार’, ‘झड़ी’ और ‘फुहार’ आदि तीन भागों में कुल तीस गीतों का समान वितरण है. प्रत्येक भाग के लिए एक छोटा-सा परिच्छेद है. साथ ही, प्रत्येक गीत के शब्द, राग और ताल आदि के बारे में जानकारी भी है.[1]
इस पुस्तिका का कागज बिल्कुल सामान्य दर्जे का है. अब वह इतना जीर्ण हो गया है कि उस पर उचित संस्कार न किए गए तो वह कुछ ही दिनों का साथी होगा. लेकिन पुस्तिका पढ़ने के बाद मेरे मन में तनिक भी संदेह नहीं रहा कि यह भारतीय संगीत के इतिहास का अति मूल्यवान दस्तावेज है.
इस पुस्तिका में एक महान कलाकृति के निर्माता ने उसके बीज रूप से उसकी भव्यता की ओर जाने की प्रक्रिया की वर्धिष्णु रेखाएँ अंकित की हैं. इस पुस्तिका का ऐतिहासिक महत्व आज तक महसूस नहीं हुआ होगा. इसका कारण शायद वह मोहक और सादगी भरी भाषा है, जो तकनीकी शब्दावली से विहीन है. मुझे ‘गीतवर्षा’ के बीज रूप विचारों की महत्ता घोषित कर उसे विशद करना आवश्यक प्रतीत होता है. कुमार की जन्मशती तक यह काम न होने से अब वह अधिक जरूरी हो गया और इसी भाव से इस लेख का जन्म हुआ है.
निर्मिति बीज
कुल पुस्तिका बारह पृष्ठों की है. लेकिन इन बारह पृष्ठों में संगीत वृक्ष के बीज लिपटे हुए हैं. उन्हें निहारते-निहारते कुमार की प्रतिभा का ‘जहाँ बैठा वहाँ छाया दी’ का महावृक्ष मेरे सामने खड़ा हो गया.
‘रामायण’ महाकाव्य की निर्मिति के लिए जिस प्रेरक प्रसंग का वर्णन है, वह हमें महाकवि के ही शब्दों में पढ़ने को मिल जाता है. क्रौंच पक्षियों के मैथुन प्रसंग में नर को बाण से मारने वाले निषाद को वाल्मीकि ने तड़पकर अभिशाप दिया, जिसका वर्णन वे स्वयं करते हैं. बालकांड के द्वितीय सर्ग में वे शोक से अभिशाप की तरफ और अभिशाप से वह श्लोक की ओर जाते समय के सभी अवस्थाओं वर्णन करते हैं. अब हम कुमार जी की ओर मुड़ेंगे.
कुमार ने ‘गीतवर्षा’ की अपनी निर्मिति प्रेरणा के बारे में लिखते समय पहले कालिदास के प्रकृति-प्रति प्रेम के लिए विख्यात मेघदूत, रघुवंश का संदर्भ दिया है. फिर आगे कहते हैं,
‘हिमस्राव से सदा प्रवाही सलिलाओं के आंचलम के निवासी सचमुच सौभाग्यशाली हैं. लेकिन चंबल, नर्मदा, ताप्ती, कृष्णा, कावेरी और गोदावरी आदि का क्षेत्र केवल और पूरी तरह से वर्षा पर निर्भर है.’
इस भूभाग में रहने वालों के लिए रौद्र-रम्य वर्षा ऋतु जैसे जीवन-मृत्यु की समस्या है. इसे विशद करते समय वे एक लोककथा का आधार लेते हैं:
एक राजा को अपने राजकाज में सहायता के लिए एक मंत्री की जरूरत थी. उम्मीदवार अनेक थे. राजा ने सभी को बुलाया. उनसे गपशप की और पूछा, ‘बारह घटे चार, बताओ कितने बचे?’ सभी ने कहा आठ, लेकिन एक ने जवाब दिया – ‘शून्य!’ राजा ने उसी का चयन किया. बाकी लोगों ने आपत्ति उठाई कि जिस प्रश्न का उत्तर एक छोटा बच्चा भी दे सकता है, उसका गलत उत्तर देने वाले का चयन क्यों किया गया? राजा ने कहा, बारह महीनों से वर्षा के चार महीने घटा दें, तो बाकी पूरा साल शून्यवत् ही हो जाता है.
कुमार की जिंदगी का महत्वपूर्ण दौर जिस भूभाग से संबंधित है या जहाँ उनका व्यक्ति और कलाकार के रूप में पुनर्जन्म ही हुआ है, वहाँ की वर्षा ऋतु लगातार जल धाराओं का वरदान नहीं देती है. उसका एक मुख सूखे और रौद्र कठोर कालभैरव का है. वह जब इस भूभाग की तरफ मुड़ता है, तब मनुष्य ही नहीं, सभी जीव-जंतु तेज धूप की गर्मी में सूख जाते हैं. यह उदार-कठोर प्रकृति कुमार के ‘गीतवर्षा’ की नायक है. उसका दूसरा मुख लालित्यपूर्ण उमावामदेव का है. वह जब इस भूभाग की तरफ मुड़ता है, तब उसमें नवजीवन के अंकुर फूटते हैं.
आगे कुमार कहते हैं, ‘किंतु एक कृषि सभ्यता में वर्षा का स्वयंसिद्ध महत्व को देखते हुए तथा देश के सांस्कृतिक जीवन में उसके स्थान पर गौर करने पर सचमुच आश्चर्य होता है कि लोकगीत और शास्त्रीय संगीत में बरखा को स्थान अत्यंत नगण्य है. न तो जेठ-बैसाख की झुलसा देने वाली गर्मी का विवरण है, जो वर्षा के आगमन की उत्कंठा को तीव्र बना देती है, और न उस निरभ्र ज्योत्स्ना की पुलक का उल्लेख है, जो खेत में खड़ी फसल को रोमांचित कर देती है.’
कुमार गंधर्व परम दर्जे के प्रकृति प्रेमी थे. इस प्रेम के पीछे प्रकृति के चिरनूतन और परिवर्तनशील रूपों का सूक्ष्म और गहरा निरीक्षण था. सहृदय प्रकृति की भावनाएँ उनकी संगीत रचनाओं में सहज प्रवेश करती थीं. साथ ही तीव्र और भावोत्कट क्षणों की अभिव्यक्ति के लिए वे प्रकृति की ओर उचित संगीत रूपों के लिए दया की याचना करते थे. फिर उन रूपों को राग या धुन के अनुरूप बनाकर निर्मिति करते थे.
अपने भूभाग के इस विशिष्ट वर्षा ऋतु का पूर्णचित्र बनाने की कुमार को तीव्र इच्छा हुई और अपनी प्रिय संगीत कला के विराट रूप की यह कमी पूरी करने के लिए वे कार्यरत हुए. सालोंसाल लोकगीतों का संग्रह किया, उन पर आधारित रचनाएँ बनाईं. लेकिन जो कुछ उन्हें करना था, वह काम बहुत बड़ा था.
कुमार लिखते हैं,
‘विभिन्न लोकगीतों, धुनों, रागों तथा रचनाओं के संकलन के द्वारा समूची पावस ऋतु और उस ऋतु में जागने वाली भावनाओं का एक पूर्ण चित्र प्रस्तुत करने की कोशिश है…. अलग-अलग रंगों और ढंगों के भिन्न-भिन्न ताल और चाल की ये बंदिशें… तीस बंदिशों के इस संकलन की विशेषता है कि यह समूचा आयोजन न केवल संगीत की एक महफ़िल जैसा प्रतीत होता है, बल्कि एक महफिल ही है.’
बरसात के विभिन्न रूपों के पीछे इस ऋतु की एकता है, मगर संगीत रचना में उसका रूपांतरण कैसे करें? शब्दों में किए गए वर्णन का संगीत रचना में रूपांतरण करते समय इस एकात्म भाव को सेंद्रिय अनुभव में कैसे रूपांतरित करें, यह जटिल प्रश्न है. देखते हैं, कुमार ने उसका क्या तोड़ निकाला है.
तीन भंगिमाएँ
कुमार ने जिंदगी भर लोक संगीत का अध्ययन किया. संगीत उनकी आत्मा का एक हिस्सा था. मिट्टी में खटने वाले मेहनतकश लोगों के सुख-दुख उन लोगों के गीतों में प्रतिबिंबित होते हैं. कुमार ने अपनी जिंदगी की अत्यंत विकट दशा में इन गीतों का बहुत बड़ा संग्रह किया था. मौत की खाई पर बंधी रस्सी पर चलकर जिंदगी की तरफ जाते समय जिन जिन तत्वों ने उनका साथ निभाया, उन गीतों से उन्हें अपने बच्चे-पोतों जैसा प्यार था. उनमें से प्रत्येक का स्वभाव और शरारत उन्हें पता थी. अपनी वर्षारचना के लिए उनमें से कुछ का चयन करना, उनके काम की पहली सीढ़ी थी.
दूसरी सीढ़ी थी, उनकी क्रमबद्ध रचना करना. लेकिन कुमार को बरसाती गीतों का कार्यक्रम पेश नहीं करना था, बल्कि अपने श्रोताओं को बरसात का संपूर्ण चित्रानुभव कराना था. गीतों के अंशत्व से विशिष्ट भूभाग के बरसात की पूर्णत्व की ओर जाना था. इसके लिए उन्होंने सबसे पहले बरसात की तीन भंगिमाएँ चुनीं. उसका अभाव यानी गर्मी और वर्षा के प्रारंभ को अभिव्यक्त करने वाली पहली भंगिमा, उसके विस्तार का चरम बिंदु दर्शाने वाली दूसरी भंगिमा और उसका समापन होते समय की तीसरी भंगिमा.
बरसात के महीने यानी जेठ, आषाढ़, सावन, भादो और आश्विन. उनका संपूर्ण चित्र दिखाने के लिए कोई आम कलाकार अपनी रचना को महिने के अनुसार विभाजित करता. लेकिन कुमार ने वर्षा ऋतु के महीनों को तीन ही भागों में विभाजित किया है. इससे उन्होंने क्या पाया?
किसी भी महत्वपूर्ण अनुभव की तीन अवस्थाएँ होती हैं- प्रारंभ, वृद्धि और अंत. (बतौर उसकी पृष्ठभूमि न होनेपन की अवस्था भी प्रारंभ में गृहित होती है.) तभी उस अनुभव का पूर्णत्व हमें महसूस होता है.
कुमार ने अपने प्रदेश की प्राणदायी और प्राणहर्ता वर्षा के अनुभव की ऐसी ही अवस्थाएँ संगीत कृति के ढांचे के रूप में ली हैं. वे उनका वर्णन करते हैं: ‘जेठ के अंतिम दिनों में अनुभव होने वाली उत्कंठा, फिर पहली बौछार, तत्पश्चात लगातार बरसने वाली झड़ी और अंत में चारों और हरियाली, खुशहाली का वातावरण.’
अब बरसात के महीनों का कुमार द्वारा किया गया तीन हिस्सों में विभाजन देखिए:
बौछार में जेठ और आषाढ़ हैं.
झड़ी में आषाढ़ और सावन हैं.
फुहार में भादो और असोज यानी अश्विन आदि महीने हैं.
एक महीना और उस पर आधारित संगीत रचना का एक भाग – ऐसा आसान गणित छोड़कर पाँच महीनों को तीन हिस्सों में विभाजित करने की जहमत कुमार ने क्यों उठाई होगी? साथ ही, आषाढ़ महीना बौछार और झड़ी, आदि दोनों भंगिमाओं में आता है. महीना एक, मगर उसे दो भागों में क्यों बांटा गया होगा? सतही दृष्टि से देखने पर ऐसे कई प्रश्न मन में आते हैं. लेकिन उनके पीछे की कुमार की जो भूमिका रचनाओं से महसूस होती है, वह इन सभी सवालों को लाजवाब कर देती है.
वर्षा चाहे पाँच महीने बरसती हो, मगर उसका जोर आषाढ़-सावन में ही महसूस होता है. किसी घटना का पूरा विस्तार महसूस होना, उस घटना के अनुभव का उच्चतम बिंदु होता है. इस दृष्टि से वर्षाऋतु का विस्तार महसूस होने के लिए आषाढ़ की द्विरुक्ति न केवल उचित है, बल्कि जरूरी भी है.
गणितीय समतोल और प्राकृतिक समतोल में अंतर है. प्रकृति और विशेषतः उसका सौंदर्य गणितीय समतोल में नहीं बैठता. इसलिए गणितीय समतोल को यांत्रिक समतोल भी कहा जाता है.
इसके विपरीत प्रकृति में समतोल द्विरूक्ति से नहीं साधा जाता. मानवीय शरीर में अथवा अधिकांश सजीवों में दाईं और बाईं बाजुओं में समतोल है, लेकिन इसमें द्विरूक्ति नहीं है, बल्कि एकरसता है.
सम संख्याओं के गुणधर्मों के विपरीत गुणधर्म रखने वाली संख्या यानी विषम संख्या. सबसे छोटी विषम संख्या है तीन. प्राकृतिक समतोल बनाने के लिए तीन इस संख्या का उपयोग त्रिलोक, त्रिमूर्ति, तिहाई इत्यादि अनेक रचनाओं में किया जाता है. स्थापत्यशास्त्र में भी दो खिड़कियाँ और दो दरवाजे एक तरफ, ऐसा घर विद्रूप लगता है. मध्यभाग के एक दरवाजे के इस-उस ओर एकेक खिड़की वाला छोटा-सा घर भी सुंदर दिखता है.
कुमार की संगीत रचना में तीन संख्या का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है. लेकिन फिलहाल हम तीन संख्या को अलग रख कर ‘गीतवर्षा’ रचना की अगली सीढ़ी की ओर जाएँगे.
गीतरूप और नाट्यरूप
‘गीतवर्षा’ संगीत रचना का सबसे छोटा अंश या कोशिका यानी गीत. यह एक साहित्यिक विधा भी है. काव्य के विविध रूपों में गीत ऐसी खास विधा है जो दिखने में साधारण और रचने के लिए कठिन है. उसमें सामान्यतः एक ही भाव अभिव्यक्त किया जाता है अथवा उस भाव की छटाएँ घनी या तरल की जाती हैं. उसके भाव अथवा मूड एक से अधिक होने पर गीत के शिल्प की हल्की और नाजुक साँसें घुटने लगती हैं.
गीत यद्यपि साहित्यिक या गेय होने के कारण संगीत का एक प्रकार है, मगर फिर भी कई बार एकल भावना व्यक्त करने वाली द्रृककला की अनेक कलाकृतियों के रूप को भी गीत ही कहा जाता है. विशेषतः एक शिल्प के रुप में प्रकृति चित्र गीतों के आसपास आते हैं. प्राचीन चीनी चित्रकला में तो मानवीय भावनाओं के वहन के लिए मनुष्याकृति विहीन प्रकृति चित्रों का इस्तेमाल किया जाता था.
नाटकों में गीतों के प्रयोग की परंपरा प्राचीन है. यह परंपरा भारत के बाहर विभिन्न संस्कृतियों में भी पाई जाती है. नाट्यमय संघर्ष की तरफ ले जाने वाली भावनात्मक सीढ़ी का पायदान संवाद के साथ गीत भी होता है. एक के बाद एक आने वाले गीतों के भावनात्मक विरोधों का कुशलता से उपयोग कर नाटक का ताना-बाना बुना जाता है. इसलिए नाट्यरूप की आत्मा उसके गीतों के संकलन में है.
कुमार ने ‘गीतवर्षा’ में नन्हे-नन्हें गीतों के साम्य-विरोध को एक विशिष्ट संकलन परिकल्पना से रचकर उसमें वर्षा ऋतु की विशिष्ट अवस्था का अथवा भंगिमा का नाट्य रचा है, जो न केवल श्रवणीय है, बल्कि उसकी सांगीतिक शब्दरचना के चलते आँखों के सामने आने वाले दृश्यों के कारण उतना ही दर्शनीय भी है.
‘गीतवर्षा’ के पहले भाग ‘बौछार’ का प्रारंभ होता है – ‘घाम परो रे’ गीत से. इस गीत में वर्षा ऋतु के वर्णन के बजाए उसके आगमन से पहले वाली दारुण ग्रीष्म ऋतु का वर्णन है. वर्षा ऋतु के स्वभाव का न होकर उसके अभाव का वर्णन है. यह गीत मारवा राग में और गजब की बिलंपत लय में है. कुमार की दूर से आती प्रतीत होने वाली एकल आवाज, उसका स्तब्ध हवा में तैरना और उसकी पुकार. ये सब कुमार द्वारा अनुभूत वर्षा की वेदना को अभिव्यक्त करता है.
इस गीत की ध्वनि लहरियाँ पूरी तरह से विलीन होने से पहले ही अचानक, ‘नयो नयो मेघा जेठसंग निकरे’ गीत का प्रारंभ होता है. दूसरे गीत का आनंददायी भाव, यथोचित शब्द और लय में अचानक हुई उत्साह की वृद्धि आदि सभी के कारण भावना का पैंडुलम निराशा की गर्त से उत्कंठा की राह पाता हुआ एक छलांग में आनंद के उच्चबिंदु को स्पर्श करता है.
मारवे का ठेका इतना धीमा है कि ठीक से सुनाई भी न दे, लेकिन नया मेघ देखने के आनंद के साथ-साथ वसंतराव आचरेकर ने तबले के बोल ऐसी घुमारी में गूँजा डाले हैं कि बरसात का ताल वाद्यों से कितना करीबी संबंध है, यह तुरंत महसूस होता है. पखावज की भव्यता उसमें न हो, फिर भी वसंतराव की बाया का विस्तार और आस पखावज की कमी महसूस होने नहीं देता. सभी वर्षागीतों में वसंतराव का गीतों के भावों का पक्का ज्ञान तबले के ठेके और श्रोताओं की नाड़ी के स्पंदन, दोनों को अपने काबू में रखता है.
‘बौछार’ में जिस तरह भावनात्मक झोंके हैं, उसी तरह अन्य दो हिस्सों में भी है. अब ‘झड़ी’ का प्रारंभ देखिए:
कारे मेघा बरसत नाही रे
हरी दूब सूख रही रह्यो
हाहाकार मचा चहू ओर
सूख गयो रे ताल तलैया
यह मियाँमल्हार की बंदिश है. ताल बिलंपत त्रिताल. राग की भावनात्मक गहराई और व्यापक विस्तार के कारण बरसात के दूसरे हिस्से या भंगिमा का प्रारंभ करने के लिए यह आदर्श रचना है. लेकिन उसके शब्द बरसात का अभाव अभिव्यक्त करते हैं. बौछार के बाद वर्षा क्रमशः बढ़ने के बजाय रुकी हुई है. काव्यशास्त्र में ऐसे अनपेक्षित विश्राम को ceasura कहते हैं.
कुमार ने प्रत्येक भंगिमा में दस गीतों की योजना की है. दो भंगिमाओं के बाद मध्यांतर आता है. दो भागों के बीच आने वाला यह सेझ्युरा या अनपेक्षित विराम एक अल्प मध्यांतर जैसा महसूस होता है. इस योजना में कुमार में अनेक महफिलें रोशन करने वाले प्रतिभाशाली गायक की और नायक की एकवाक्यता नजर आती है.
मियाँमल्हार की रचना के बाद बारहमासा गीत आता है –
लागो सावन मास
पधारो प्रभु पामेणा
यह बारहमासा गीत आता है. बारहमासा गीत बारह महीनों से संबंधित गीतमाला का एक अंश है. इसमें सभी गीतों और सभी महीनों के लिए एक ही तर्ज होती है और ये गीत धीमी लय में गाए जाते हैं. मियाँमल्हार जैसे प्रसरणशील राग के विस्तार के बाद लय में अचानक बदलाव करने से झटका महसूस होने की संभावना होती है. इसे टालने के लिए कुमार ने इस बिलंपत लय के बारहमासा गीत का झटके का धीमा करने वाले शॉक ऑब्जर्वर की तरह इस्तेमाल किया होगा.
मल्हार और बारहमासा की धीमी लय से हम विश्राम पाते ही हैं कि तभी मध्य लय के ‘चंद्रसखी’ भजन से संगीत प्रवाह में नाट्यमय कलकल उत्पन्न होती है. इस भजन के बोल हैं:
ऋत आयी बोले मोरा रे
मोरा श्याम बिना जिव डोला रे
यह गीत झट् से मनोदशा में परिवर्तन कर उत्साह का माहौल बनाता है.
‘बौछार’, ‘झड़ी’ और फुहार – तीनों भाग इस तरह अलग-अलग नाट्यमयी मोड़ों से दर्शक को लगातार बाँधे रखते हैं. इन्हें ऐसी कुशलता से रचा गया है कि ये भावनात्मक बदलाव संगीत का विशेष ज्ञान न रखने वाले श्रोता को भी सहज ही महसूस होंगे. इसका प्रत्येक हिस्सा वर्षा ऋतु की विभिन्न अवस्थाओं की एक विशिष्ट भंगिमा दिखाता हो, फिर भी अपनी दृष्टि से वह परिपूर्ण है. यानी उस विशिष्ट भंगिमा का प्रारंभ, विकास और समापन उसमें साफ-साफ दिखाई देता है. प्रत्येक भंगिमा एक दृष्टि से पूर्ण नाट्य बनती है, तो दूसरी ओर से वह वर्षा ऋतु के पूर्ण रूप का एक अंश बनती है.
तीन भंगिमाएँ और प्राकृतिक एकत्व
ऊपर हमने देखा कि प्रत्येक भंगिमा का सबसे छोटा अंश गीत बाद में आने वाले गीत की अपेक्षा न केवल शब्द रूप से बल्कि सांगीतिक तत्वों की तुलना में भी कैसा अलग लगता है. इसके साथ-साथ ‘बौछार’ और ‘झड़ी’ इन दोनों अलग भंगिमाओं के प्रारंभ में दो गीतों में होने वाला अंतर्विरोध या अंतर एक समान होने के कारण गीतों के अंतर का ही दो भंगिमाओं के साम्य में रूपांतरण होता है. इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए हम ‘फुहार’ भंगिमा के शुरूआती दो-तीन गीत देखेंगे. पहला गीत पीलू खमाज की मध्यम चाचड़ ताल की ठुमरी है.
मैं कैसे आऊं बालमा,
बूंदन भीजै मोरी सारी. मैं कैसे…
एक तो मेह झमाझम बरसे,
अरे दूजे पवन झकोरी. मैं कैसे…
‘बौछार’ और ‘झड़ी’ के पहले गीत का ताप ग्रीष्म का ताप है और यहाँ वह विरह का है. ठेका धीमा है. शारीरिक ताप से अब हम मानसिक स्तर पर आते हैं. इसके बाद आता है भादो का बारहमासा गीत.
लागो भादव मास
आँबा में चमके बिजली
नदिया में खलकेयो नीर,
गंगा जल खल हले.
यह गीत बारहमासे जैसा ही धीमा है, लेकिन ‘चमके’, ‘खलकेयो’ और ‘खल हले’ आदि शब्दों से हम प्रवाह की अपेक्षित छटाओं का अनुभव पाते हैं. इसके बाद के सतवा ताल के सूरदासी भजन में कृष्णजन्म का वर्णन है.
गोकुल प्रकट भए हरि आइ
अमर उधाहन असुर संहारन
अंतर जामी त्रिभुवन राइ II
माथै वसुदेव ज्यु लाये
नंद महर घर गये पहुँचाइ II
पहली और दूसरी भंगिमाओं में सीधे-सीधे साम्य दिखाते-दिखाते कुमार अपने श्रोताओं में एक अलग कालचक्र का एहसास जगाते हैं. यह वार्षिक कालचक्रों को समा लेने वाला दैवी घटनाओं का मिथकचक्र है. प्रकृति के महत्वपूर्ण परिवर्तन के साथ ये मिथक कुशलता से जोड़े गए हैं. महासागर में शेष पर विराजमान होने वाले विष्णु का पीपल के पत्ते पर बाल कृष्ण का अवतार है. उसका जन्म बरसाती महीने में माने जाने से शेषशाही प्रतिमा की पुष्टि होती है.
तीन भंगिमाओं में प्राकृतिक ऐक्य साधने का यह कुशल प्रकार है. कुमार ने इस अंतिम भंगिमा को त्रिभंगी रचना में केवल महाभूतों की लीलाओं के ऊपरी स्तर पर ले जाकर भक्तिभाव से जोड़ दिया है.
तीसरी भंगिमा में यह गुणात्मक अंतर हो, लेकिन प्रत्येक भंगिमा में मात्र दस गीत समाविष्ट होने के कारण उनमें संख्यात्मक समभाव है. प्रत्येक भंगिमा का प्रस्तुतीकरण समय लगभग पचास मिनट होने के कारण तीनों भागों में साम्य पाया जाता है. दो गीतों के एक ही जोड़ का उपयोग विरोध और साम्य दिखाने के लिए करना, कुमार की कुशल कारीगरी का प्रमाण है.
वर्षा के विशाल प्रवाह पर कुमार द्वारा बनाई प्रत्येक भंगिमा एक मेहराबी हिस्सा है. ‘बौछार’ मेहराबी धरती से जेठ-आषाढ़ की वर्षा को ऊपर उठाते हुए पहले मेघ तक ले आती है. ‘झड़ी’ आषाढ़ और सावन में वर्षा के बढ़ने के साथ ऊपर चढ़ती है और सावन के अंत में आहिस्ता से नीचे उतरने लगती है. ‘फुहारे’ उसका जल भार कम करते-करते उसे जमीन पर लाती हैं. यह जमीन धूप से चटकी नहीं है, बल्कि अब सुजलाम-सुफलाम है. तूफान का स्थान अब मलयज हवाओं ने ले लिया है और…
‘हीरा मोती निवजे है
मन फूला चौदिस बन फूला रे II
हरख भयो, सब जीव भौमरी
नदिया ताल भरिग्यो जलसो फूला रे II
खूब बरसात होने से जमीन से अब हीरा-मोती की फसल आने वाली है. चारो दिशाएँ और जंगल पूरी तरह खिलकर विकसित हुए हैं. धरती के सभी जीव खुशी से झूम उठे हैं. नदियाँ, तालाब और सरोवर, सभी पानी से लबालब भरे हुए हैं.
गीत और नाट्य से नए शिल्प की तरफ
अब तक के विश्लेषण में हमने देखा है कि गीत जैसा नन्हा प्रकार जब दस गीतों के परस्पर विरोधी क्रम से जोड़ा जाता है, तब प्रत्येक भंगिमा का नाट्य में कैसे रूपांतरण करता है. प्रत्येक हिस्से में यदि एक नाट्य है, तो तीन नाट्यमय भंगिमाओं को समा लेने वाला ऐसा कौन-सा शिल्प है?
कुमार के लिए ‘गीतवर्षा’ का प्रयोजन परिचित विशिष्ट भूभाग के वर्षा ऋतु का और उसके साथ-साथ जनपद के मन में उठने वाली भावनाओं का चित्रण करना है. इसलिए संगीत विशेषज्ञों को लग सकता है इसे ‘प्रोग्राम म्यूजिक’ कहा जाए. और ऐसा लगने में कुछ अनुचित भी नहीं है. लेकिन कुमार के ‘गीतवर्षा’ ने क्या केवल यही साध्य किया है?
अपनी प्रस्तावना में कुमार कहते हैं,
‘भारतीय प्रतिभा की अपनी एक विशेषता है. प्रत्येक भौगोलिक तथ्य को कलात्मक स्वरूप प्रदान कर उसे एक त्यौहार बना दिया जाता है. वर्षा का आगमन और उसके विभिन्न पहलू इस प्रतिभा के कारण परिष्कृत होकर सांस्कृतिक त्योहारों में बदल गए और सामाजिक रीति-रिवाजों में समा गए. सावन में झूले पड़ते हैं. नई बहू को उसके पीहर जाने से रोकना कठोर से कठोर सास को भी नहीं सुहाता. सावन की तीज, पूनम, अमावस्या सभी तो त्यौहार हैं. कैसे संभव था कि ऐसी ऋतु भारतीय संस्कृति की एक अत्यंत परिष्कृत प्रवृत्ति, संगीत में स्थान पाने से वंचित रह जाए?’
कुमार ने प्रस्तावना में शुरू में ही कहा है कि उन्हें वर्षा ऋतु के महाप्रवाह का पूर्ण चित्र देना था. इसलिए यह जरूरी नहीं कि कुमार द्वारा एकत्रित किए गए गीतों के विषय वर्षा से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित ही हों. लेकिन अगर ये गीत हटाए जाते तो बरसात के दौर में गाए जाने वाले इन गीतों में …
‘तमे तो गवेरा का पूत गणेश, तमे बिना घड़ी न सदे.
तमे तो बेगा बेगा आवो गणेश, तमे बिना घड़ी न सदे’[2]
इस तरह गणेश का जन्म वर्णित नहीं होता. साथ ही…
‘जसोदा के मंदिर बेगी चलो री. हाथे नहन्नि नयन भर सुरमा,
जसोदा के नाव्हन फिरै दौड़ी दौड़ी.[3]
इस तरह उत्साह में नंद के घर की जन्मोत्सव की धूम धाम भी नहीं होती. इसके अलावा
‘पुरवज किने बंधायो, चोरस चौतेरे II
पुरवज किने बंधायो, सरवर चाले
म्हारा गेरा पुरवज आई ने
ऊबा हो इना आंगणो II [4]
इस पुकार की पितृपूजा भी नहीं हो सकती थी. फिर बैल की पूजा भी नहीं होती…
‘तमारी कमाई मैरे धोरी म्हने बागे लगाया.
बागे लगायाने, गेंद बुवायारे चालर का जाया II
सोना जड़ाऊं रे धोरी थारी सिंगेड़ी[5]
ये उदाहरण और भी बढ़ाए जा सकते हैं. लेकिन मुद्दा यह है कि ‘प्रोग्राम म्यूजिक’ परिकल्पना का हम चाहे जितना विस्तार करे, फिर भी उसमें यह वैविध्य और वैचित्र्य समाया नहीं जा सकेगा. इसलिए हमें दूसरा मार्ग खोजना चाहिए.
शून्य का एक फेरा
यहाँ तनिक विषयांतर करता हूं और ‘गीतवर्षा’ की रचना के बारे में मेरे मन में खटक रहा मलाल को आपके सामने रखता हूं. ‘नयो नयो गेंह जेठ संग निकले’ गाने के बाद आता है आषाढ़ का बारहमासा गीत –
‘लागो इंद्र असाड़
…धरऊ दिसा गाजीयो
बोल्या दादुर मोर, पपैया बोलियो.’
कुमार लिखते हैं, ‘आषाढ़ इंद्र का महीना है. वर्षा का पहला चरण. आषाढ़ की पूर्णिमा गुरु पूर्णिमा है. कुछ क्षणों के लिए सारी अकुलाहट बिसर जाती है, गुरु की शीतल छाया में वह बाधाओं से मुक्त करने वाली ज्ञान की जड़ी मिलती है.’
इसके बाद कुमार द्वारा गाए गए अत्यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय निर्गुण भजन आते हैं. पहला है,
‘गुरुजी जहाँ बैठूं वहाँ छायाजी’
और दूसरा है,
‘गुरातोजी ने ग्यान की जड़िया दई
वाह जड़ी तो म्हाने प्यार जो लागी
अमरित रस की भरी..’
ये रचनाएँ कुमार ने शायद पहली बार ‘गीतवर्षा’ में प्रस्तुत की होंगी. कुमार ने उनको जिस श्रद्धा और जिस संवदेना से गाया है, इसी कारण आज भी उनकी गिनती चिरयुवा रचनाओं में होती है.
लेकिन फिर भी…प्रकृति के बदलते रंग-ढंग और हाड़-मांस के मनुष्य के जीवन से जुड़े गीतों की लघुता से शायद इन विस्तृत भजनों का बोझ सहा नहीं जाता. कुमार की आवाज में और कोरस की सहायता से जुड़े समष्टि के चलत् चित्र को व्यष्टि के स्थिर चित्र की शून्यता को कम से कम मैं सहजता से समा नहीं सका.
सतवा ताल के ये मालवा के भजन यानी कुमार की शून्य के इर्द-गिर्द भक्तिभाव से की गईं प्रदक्षिणाएँ हैं. यहाँ कुमार के कथन सूत्र अलग होते हैं. कुमार द्वारा प्रस्तुत गुरु पूर्णिमा की परिकल्पना शब्दों में रहती है, लेकिन गीत संकलन में नहीं आती.
कभी-कभी अति सुंदर शॉट्स का संकलन करते समय उन्हें उचित स्थान नहीं मिलता और उन्हें अलग रखना पड़ता है. इससे मुझे लू काह्न नामक विख्यात वास्तु कलाकार द्वारा सुनाई गई ईंट की कहानी याद आती है.
ईंट से आप पूछते हो, ‘ईंट बहन, ईंट बहन, तुम्हें क्या चाहिए? वह कहती है, ‘मुझे मेहराब चाहिए.’ आप ईंट को समझाते हैं, ‘ईंट बहन, मेहराबें बहुत महंगी होती हैं. मैं वहाँ सीमेंट की आड़ी धरन डाल सकता हूं. तुम क्या सोचती हो?’ ईंट कहती है, ‘मुझे तो मेहराब ही पसंद है.’[6]
शायद इन भजनों ने कुमार से कहा होगा कि हमें निर्गुण भजन ही अच्छे लगते हैं. क्योंकि ये दोनों भजन कालांतर में ‘गीतवर्षा’ से गायब हो गए और अन्य निर्गुणी भजनों की संगत में शून्य के इर्दगिर्द नाचने लगे.
गीतवर्षा: महाकाय रचना, नाट्यत्रयी, महाकाव्य या…
यहाँ तक का सफर करते-करते हमने वर्षा ऋतु की भंगिमाएँ देखीं. अभाव से लेकर पूर्णाभाव तक की उसकी अवस्थाएँ देखीं. भंगिमाओं का परस्पर साम्य देखा और अंतर्विरोध देखें. विषयों और संगीत शिल्पों में गजब का वैविध्य देखा. इन सभी को समा लेने वाले दो ही शिल्प हैं – नाट्यत्रयी और महाकाव्य. दोनों का उगम हुआ है ग्रीक रंगमंच और ग्रीक काव्यशास्त्र में.
‘गीतवर्षा’ के कुल गुणों और विस्तार पर गौर करते हुए यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि वह एक महाकाय संगीत रचना है. लेकिन उसे वर्षानाट्यत्रयी कहा जाए, वर्षामहाकाव्य कहा जाए या कुछ और, यह भी एक जटिल प्रश्न है.
इसका उत्तर खोजने के लिए हम कुछ मुद्दों पर चर्चा करेंगे.
संख्यात्मक महत्ता
महाकाय रचना, यदि यही एक निकष लगाया जाए तो हॉलीवुड-बॉलीवुड के अनेक सितारों और सनसनीखेज घटनाओं से भरी, खर्चीली और बेकार फिल्में भी महाकाव्य की परीक्षा को पास करेंगी. ‘गीतवर्षा’ में समाविष्ट तीस गीतों और कुल प्रस्तुति समय पर गौर करें तो वह एक प्रदीर्घ और जबरदस्त महफिल बनती है. इसलिए इस निकष को ‘गीतवर्षा’ सहज ही पूरा करेगी.
महाकाव्य और नाट्यत्रयी, दोनों शिल्प संख्यात्मक महत्ता रखने वाले शिल्प हैं. एक दूसरे से तुलना करने पर महाकाव्यों की घटनाओं की और चरित्रों की संख्यात्मक महत्ता निश्चित ही नाट्यत्रयी से अधिक है. नाट्यत्रयी में साधारणतया एक ही व्यक्ति समूह के जीवन के, फिर चाहे वह परिवार हो या इधर के सिनेमात्रयी की कारपोरेट कंपनी हो, कुछ दौर दिखाए जाते हैं. इसलिए उसकी व्याप्ति में स्वाभाविक रूप से कुछ सीमाएँ आ जाती हैं.
लेकिन इस महत्ता से जोड़कर दूसरा एक संख्यात्मक और गुणात्मक निकष आता है. वह है एक शिल्प की अन्य शिल्पों को समा लेने की शक्ति.
विस्तृत व्याप्ति
नाट्यत्रयी के शिल्प की व्याप्ति महाकाव्य की तुलना में कम होती है. फिर भी गीत और नाटक, दोनों प्रकार नाट्यत्रयी में समाए जाने के कारण मात्र व्याप्ति के निकष से न केवल महाकाव्य, बल्कि यही विधा नाट्यत्रयी के ऊपरी दर्जे की साबित होती है.
‘गीतवर्षा’ की रचना एक ही ऋतु की भंगिमा पर की गई है. अतः उसकी व्याप्ति एक दृष्टि से सीमित है, लेकिन नवरसों के कारण केवल श्रृंगार को सीने से लगाए बैठे कालिदास के ‘ऋतुचक्र’ जैसी दीर्घ कविता की तुलना में वह बड़ी है और उसमें व्यस्त होने वाली मानवता भी वैसी ही विशाल है.
‘गीतवर्षा’ के कुल व्यक्ति-चित्र, चाहे वह बैल की पूजा करने वाला व्यक्ति हो या पूर्वजों के गुण गाने वाला व्यक्ति, एक बड़ा पार्श्वरंगपट हमारे सामने तैयार करते हैं. नवरसों में से केवल बीभत्स रस का ही यहाँ अभाव है. इसलिए महाकाव्यों की गोष्ठी में ‘गीतवर्षा’ को एक आसन मिल सकता है.
महाकाव्य की तुलना में कम हो, लेकिन नाट्यत्रयी में घटनाओं, व्यक्तियों और मनोदशाओं की बहुतायत होती है. साथ ही ‘गीतवर्षा’ की तीन भंगिमाओं के कारण वह रचना नाट्यत्रयी के आसपास जाती है. नाट्यत्रयी के एक हिस्से के क्रम से आने वाले नाट्य प्रसंग में (सीन्स) अंतर या बिल्कुल परस्पर विरोधी घटनाएँ या भावनाएँ न केवल आ सकतीं हैं, बल्कि वे आवश्यक होती हैं. महाकाव्य अनेक केंद्री रचना होने के कारण उसकी शिल्प रचना के नियम तय करना कठिन होता है. हमारी रचना के ठीक-ठीक विभाजन के कारण और नियमित विकास के कारण ‘गीतवर्षा’ का नाट्यत्रयी से अधिक करीबी नाता है.
एक सर्जक और अनेक सर्जक
महाकाव्य और नाट्यत्रयी, दोनों में समाविष्ट अनेक कथाएँ और उपकथाएँ संबद्ध संस्कृति की साहित्य परंपरा का हिस्सा होती हैं. बल्कि अधिकांश श्रोताओं/पाठकों/दर्शकों को वे ज्ञात होने के कारण कथाकार का रचना कौशल अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. जो कहानी सुनाई जा रही है, वह पहले से पता होने के कारण उसमें चौंकाने का भाव केवल रचना कौशल से ही आ सकता है. इसलिए शिल्प का मान बड़ा होता है.
महाकाव्य में अनेक पीढ़ियाँ अपनी अपनी पर्तें चढ़ाती जाती हैं. उपकथाएँ जोड़ती जाती हैं. उसमें बदलाव करती जाती हैं. इसलिए महाकाव्य अनेक हाथों से बनी हुई रचना होती है और उसके पोत में ऊबड़खाबड़पन होता है. इसके विपरीत नाट्यत्रयी एक ही लेखक या आधुनिक दौर के समूह द्वारा लिखी जाने के कारण उसकी रचना अधिक सावधानी से की जाती है.
यह निकष ‘गीतवर्षा’ पर लगाने से एक मजेदार विसंगति महसूस होती है. प्रयुक्त गीत प्रायः अनेक हाथों द्वारा लिखे गए होने के कारण रचना के स्तर पर ‘गीतवर्षा’ में और महाकाव्य में साम्य है. लेकिन वह एक ही सर्जक द्वारा चुनी गई, एक ही सर्जक द्वारा क्रमबद्ध की गई और एक ही सर्जक द्वारा अंतर्रचना को बदलकर संकलित की जाने के कारण ‘गीतवर्षा’ और नाट्यत्रयी के मुखड़े में समानता होने का आभास होता है.
जीवनभाष्य
महाकाव्य विशाल और सर्वस्पर्शी होता है. सामान्यतः जीवन का एक भी अंग ऐसा नहीं होता, जिसे महाकाव्य में स्पर्श न किया गया हो. इसीलिए कहा जाता है, ‘व्यासोच्छिष्टम जगत् सर्वम्.’ यानी व्यास ने सारे संसार को जूठन बना दिया है.
नाट्यत्रयी में भी जीवनभाष्य होता है. मातृविवाह जैसा निषिद्ध कृत्य के कारण ही, चाहे वह अनजाने में हुआ हो, फिर भी राजा ईडिपस का सर्वनाश होता है और उसकी अगली पीढ़ियों को भी इस अभिशाप की कीमत चुकाते चुकाते अपने जीवन का समापन करना पड़ता है.
‘गीतवर्षा’ के शब्दों से अभिव्यक्त सामग्री जीवनभाष्य नहीं है. लेकिन कुमार की यह अनुभवसिद्ध निष्ठा थी कि एक विशिष्ट प्रांत में यह ऋतु यानी जीवन ही है. पूर्वोल्लिखित लोककथा में ‘बारह घटे चार बराबर शून्य’ कहा गया है. इसीलिए कुमार को इस ऋतु के पूर्ण चित्र का अनुभव कराते समय उसमें छिपा जीवन चित्र भी अपने श्रोताओं तक पहुँचाना था.
‘गीतवर्षा’ के बहाने कुमार को भारतीय संगीत का बाहरी और बुनियादी जीवन के एक बहुत बड़े किंतु उपेक्षित हिस्से को अपनी आगोश में लेना था. संगीत में समा लेना था. वर्षा ऋतु के संगीत चित्र के बिना जनपद जीवन का चित्र अधूरा रहा जाता था. इसलिए उन्होंने जनपद के गीतों की कूंची हाथ में ली. मिट्टी के रंग लिए. कूंची उनकी नहीं थी. रंग उनके नहीं थे. लेकिन रेखाओं के प्रवाह और रंग भरना उनका था. इस तरह यह चित्र एक ही आदमी के द्वारा पूरा किए जाने के कारण ‘गीतवर्षा’ यकीनन नाट्यत्रयी के करीब जाती है.
काल रचना
महाकाव्य का काल फिसलन से भरा होता है. जब कोई घटना होती है, तब कोई पात्र अपने उपकथानक से फिसल कर पल भर में भूतकाल ही नहीं बल्कि अलग युग में घुस जाता है. उतनी ही सफाई से गुड़िया के भीतर छोटी गुड़िया के पेट की गुड़िया की तरह ये कथाएँ खुलती बंद होती रहती हैं. पृष्ठभूमि में जब यह काल का नाट्य चल रहा होता है, तब सभी श्रोताओं को युगों के मिथक कालों और ऋतु-कालों के चक्र ज्ञात होते हैं. इन चक्रों की लगातार घूमने वाली गोलाकार छायाओं के तंबू में ही महाकाव्य के फिसलन भरे काल पर गुड़िया की पेटियाँ और आँखें मटकाने का खेल जारी रहता है.
तुलना में नाट्यत्रयी का काल उस विशिष्ट पात्रों के मानव समूह के जीवन से बहुत ज्यादा आगे नहीं जाता. वह सामान्यतः एक रेखा में चलता है, लेकिन जब नाट्यमय गुत्थी सुलझाने का निर्णयात्मक क्षण आता है, तब वह इडिपस को मिले अभिशाप की तरह अचानक भूतकाल में किसी तीर की तरह धँसता है और तीक्ष्ण नोक से ही गुत्थी को सुलझाता है.
‘गीतवर्षा’ का काल चंद्र-काल-गणना (Lunar calander) के अनुसार तय किया जाता है. ऋतुचक्र के अनुसार की जाने वाली खेती की क्रियाएँ और परिवर्तन चंद्र-काल-गणना से जुड़े होते हैं. बरसात के मौसम में त्योहार के अवसर खूब होते हैं. कुमार ने दैनंदिन जीवन के और ऋतुओं के वार्षिक चक्र में इन त्योहारों का समावेश किया, जिससे उसमें मिथक कालचक्र आया है. अवतार आ गए हैं. जैसे, कृष्णावतार और गणेशजन्म.
‘गीतवर्षा’ में क्रम से आने वाले गीतों में भावनाओं की छटाओं की अपेक्षा सांगीतिक रचना तत्वों के विरोध से नाट्य उत्पन्न होता है. हालांकि इन दोनों की ओर ‘यह’ अथवा ‘वह’ के रूप में नहीं देखा जा सकता. कभी-कभी ये बदलाव केवल सांगीतिक हो सकते हैं, तो कभी शब्दों और बिल्कुल उनकी ध्वनियों के द्वारा भी रेखांकित किए जा सकते हैं.
वर्षागीत : संलग्न शिल्प
अब तक के विवेचन और जांच-पड़ताल से महाकाव्य या नाट्यत्रयी का ठोस उत्तर हमारे हाथ आया नजर नहीं आता. लेकिन यह खोज करते समय ग्वालियर घराने के महान संगीतकार कृष्णराव शंकर पंडित ने एक बार एक जोड़राग की पहचान कराते हुए जिस उपमा का प्रयोग किया था, वह इस पूरे सफर में बीच-बीच में मेरे मन में दमक उठती है.
पंडित जी ने कहा था, ‘अजी, यह जोड़राग धूप-छांव कपड़े जैसा होना चाहिए. धूप में देखो तो कपडे के दमकने वाले रंगों की शोभा अलग, छाया में देखो उसकी धीमी छटाओं की नजाकत अलग. जैसा देखेंगे वैसा अलग दिखता है. मुझे लगता है, ‘गीतवर्षा’ एक महाकाव्य और नाट्यत्रयी का जोड़शिल्प है. भावना के धीमे उजाले में देखो तो वह महाकाव्य जैसा नजर आता है, लेकिन विश्लेषण के प्रखर प्रकाश में वह नाट्यत्रयी जैसा महसूस होता है.
गीतवर्षा: अनेक आयाम
कोरस और ध्वनियों का अवकाश (acoustic space)
मुझे अफसोस होता है कि ‘गीतवर्षा’ के शिल्प की खोज में उसके कुछ आयाम अनदेखे किए गए. उदाहरणार्थ, श्रीमती वसुंधरा कोमकली और मीरा राव की संगत. उन्होंने कुछ एकल गीत गाए होंगे, लेकिन कुमार ने उनका इस्तेमाल मुख्यतः कोरस में किया. कोरस का नाट्यमय उपयोग ग्रीक रंगमंच पर शुरू हुआ. उस नाटक में कोरस एक गायक समूह है. वह नागरिकों की ओर से नाटक की घटनाओं पर कुछ टिप्पणियाँ करता है. उसका अपना व्यक्तित्व नहीं होता. क्योंकि वह एक समूह का प्रतिनिधित्व करता है.
कुमार द्वारा संयोजित यह कोरस ऐसी शाब्दिक टिप्पणियाँ अभिव्यक्त नहीं करता. वह एक भावनात्मक द्वंद्व-गीत गाता है. उसकी प्रायः स्वतंत्र गीतात्मा नहीं होती. मूल गीत का अंश लेकर वह उनके भाव दर्शाता है.
कुमार द्वारा प्रयुक्त लोकगीत में जो व्यक्ति हैं, वे प्रतिनिधि हैं. उनका अपना व्यक्तित्व नहीं है. साथ ही, शेष जनसमुदाय की ओर से भी वे संगीतभाष्य करते हैं. आज की तुलना में सन 1966 की ध्वनि का दौर तकनीकी की दृष्टि से अविकसित था. उस दौर में विभिन्न मानवीय आवाज से ध्वनिअवकाश निर्माण करना एक अत्यंत कठिन काम था. लेकिन कुमार अपनी आवाज के दम पर और कोरस के उचित संयोजन से ऐसे प्रयोग करते थे, जो उच्च तकनीकी योजनाओं के लिए ही संभव होंगे. कभी कुमार की आवाज दूर आकाश से आने जैसी लगती है, तो कभी गहरी खाई से. कभी कोरस में स्त्रीसुलभ मार्दव होता है तो कभी वेदना. चाहे जो हो, कोरस के संपुट में कुमार की आवाज को एक अलग ही लोच प्राप्त होती है और कोरस भी अपने धीमे सुवर्ण तेज से दमकता रहता है.
त्रयी
कुमार में ‘तीन’ संख्या का उल्लेख कई बार आया है. साथ ही संपूर्ण ‘गीतवर्षा’ को ही हम नाट्यत्रयी कहते हैं. इसके अलावा संगीत के ग्रह, अंश और न्याय सूर भी एक त्रयी है. ये तो बंदिश के विकास की तीन सीढ़ियाँ हैं. होली ट्रिनेटी, सदाशिव मूर्ति के तीन सिर, तिहाई आदि सैंकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं. लेकिन कुमार की कुल संगीत यात्रा में तीन संख्या का अच्छा-खासा महत्व है और इसका कारण ज्योतिषशास्त्र में नहीं बल्कि सौंदर्यशास्त्र में है.
जुलाई, 1966 को ‘गीतवर्षा’ का पहला शो हुआ और अक्टूबर, 1967 में सूर, मीरा और कबीर के पदों का विशेष कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया, जिसका नाम था त्रिवेणी. ‘गीतवर्षा’ के बाद ऋतुओं पर आधारित गीत-श्रृँखलाओं के ‘गीत हेमंत’ (दिसंबर, 1968) और गीत बसंत (मई, 1971) आदि दो कार्यक्रम बने और ऋतुओं पर आधारित कार्यक्रमों की भी त्रयी बन गई. सन 1969 में हुए प्रस्तुत किए गए ‘ठुमरी, टप्पा, तराना’ कार्यक्रम में तीन संगीत प्रकार समाविष्ट हैं.
किसी ने कहा है,
‘कोई व्यक्ति कोई काम एक ही बार करता है, तो वह अपघात या अयोजित घटना हो सकती है. दो बार करने पर वह पुनरावृत्ति होती है, लेकिन तीन बार करने से वही बात शैली विशेष मानी जाती है.’
इसमें अतिशयोक्ति या व्यंग को छोड़ दीजिए. कुमार के ‘गीतवर्षा’ के कार्यक्रम का ढांचा ‘कालजयी कुमार गंधर्व’ ग्रंथ के हिंदी-अंग्रेजी खंड में पृष्ठ 67 पर देखने को मिलता है. वह देखकर यह समझ में आता है कि कुमार अपनी निर्मिति के प्रत्येक विवरण की तरफ कितना ध्यान देते थे और अपनी महफिल बिल्कुल अंतिम मिनट तक कैसे सजाते थे.
दो का आँकड़ा सम है. इसलिए दो भागों में जब तुलना होती है, तब ऐसा लगता है, वह वहीं तक सीमित होगी. लेकिन तीन भागों की तुलना के अनेक आयाम होते हैं. इसलिए उनका क्षेत्र सीमित न रहते हुए उसे ग्रहण करने की निर्णय बुद्धि को भी आवाहन प्राप्त होता है.
समभुजा त्रिकोण की तीनों भुजाएँ समान हो, लेकिन उसकी एक भुजा को आधार बना देते ही सामने के कोण को उच्चत्व प्राप्त होता है. समतल पर बैठे तीन लोग समान लगते हैं, लेकिन उनमें से एक खड़ा हो जाए तो वह त्रिकोण के शीर्ष पर जा बैठता है और अन्य दोनों को गौण बना देता है.
द्रृक-कलाओं में तीन का जिस तरह अनन्य साधारण महत्व है, उसी तरह श्राव्य कलाओं में भी है. लय भी विलंबित, मध्य और द्रुत मानी जाती है. कुमार की कुल संगीत रचना में अन्य कलाओं के सौंदर्य तत्व कैसे शामिल होते हैं, तीन संख्या उसका एक खास उदाहरण है.
शिल्प का कायापलट और कलाओं में परस्पर संबंध
मैंने ‘गीतवर्षा’ की निर्मिति के बारे में जो लिखा है, वह अधिकांशतः कुमार के ‘गीतवर्षा’ के प्रथम कार्यक्रम के समय वितरित की गई ‘घन गरजन आये’ शीर्षक पुस्तिका के आधार पर लिखा है. कुछ खाली जगहें भरी हैं. कुछ अल्पोक्तियों का अतिशयोक्ति न होने तक विस्तार किया है. कुछ निरीक्षण रखे हैं. लेकिन अब मुझे ‘गीतवर्षा’ के कार्य का भारत की कुल कला परंपरा में स्थान खोजना है.
‘गीतवर्षा’ के शिल्प के बारे में संगीत क्षेत्र में कितनी चर्चाएँ हुई हैं? और उनमें यह कितने लोगों को महसूस हुआ होगा कि कुमार ने नाट्य, नाट्यत्रयी और महाकाव्य से प्रतिस्पर्धा करने वाली यह जोड़ निर्मिति की या साहित्यिक शिल्पों का कायापलट कर उन्हें संगीता में ले आए.
कलाओं की परस्पर निर्भरता की परिकल्पना भारतीय सौंदर्यशास्त्र में विष्णु धर्मोत्तर पुराण के तीसरे भाग के चित्रसूत्र में प्रस्तुत की गई है. ‘शिल्पों का कायापलट’ यह मेरा शब्द प्रयोग नया होगा, लेकिन इसके पीछे छिपा विचार बहुत पुराना है. बीसवीं शती के सबसे प्रख्यात भरतनाट्यम शैली की नृत्यांगना बालसरस्वती ने अपने भाषण में दक्षिण के मंदिरों की स्थापत्य रचना और भरतनाट्यम के सुंदर कार्यक्रम में प्रदर्शित होने वाली महफिलों के विभिन्न भागों के अनुक्रम से तुलना कर यह दर्शाया है कि महफिल किस तरह मंदिर के अंतरंग में जाने के पथ की कायापलट की गई आवृत्ति है.[7]
कलाओं के परस्पर संबंध कितनी गर्मजोशी और आत्मीयता से भरे हैं, इसका एहसास ही क्या, उसके बारें में तनिक संदेह भी अनेक संगीतकारों और मराठी सौंदर्य शास्त्र के चिंतकों के मन में नहीं आया. कला के प्रत्येक क्षेत्र से कुमार की इस महानिर्मिति की तपस्या, विचार और नवनिर्मिति की प्रतिभा को दाद मिलनी चाहिए थी. दाद का मतलब ‘वाह, क्या बात है’ कहकर गर्दन हिलाना नहीं है. कुमार के इस श्रेणी के चाहने वाले महाराष्ट्र में हजारों हैं. लेकिन उनकी प्रतिभा को संगीत की सीमा में बांधा नहीं जा सकता, यह एहसास रखने वाले लोग उंगलियों पर गिनने लायक ही हैं.
शिवपुत्र द्वारा क्षितिज पर रखे गए ‘गीतवर्षा’ के इंद्रधनुष की कमान में क्या दोबारा डोरी लगाई जाएगी? या कुमार को पन्द्रहवें लुई के समान जवाब देना पड़ेगा?
‘Apre’s moi. Le de’luge’
मेरे बाद बस प्रलय ही बाकी है.
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संदर्भ
[1]. भूषण कोमकली ने मुझे बताया कि मुंबई के प्रयोग से ‘घन गरजन आए’ कार्यक्रम का नाम बदलकर हमेशा के लिए ‘गीतवर्षा’ किया गया. तभी से ‘फुहारे’ का उल्लेख ‘रिमझिम’ के रूप में किया गया है. लेकिन मेरे हाथ बस पहले कार्यक्रम की पुस्तिका लगने के कारण मैंने उसी में प्रतिपादित नामों का इस्तेमाल करना तय किया है.
[2]. मालवी भजन, गणेश स्तुति, सतवा ताल
[3]. भजन, कृष्ण चरित, चौमात्रा ताल
[4]. मालवा लोकगीत, विलंबित सतवा ताल
[5]. मालवा गीत, वृषभ पूजा, सतवा ताल. हे गाय के पेट से जन्म लेने वाले, तुम्हारे बल पर ही मैंने बाग लगाया, महल बनाया. बंजर जमीन को उपजाऊ बनाया. अपनी कन्या का ब्याह किया. मैं तेरे खुर चांदी से और सींग सोने से जड़वाऊंगा.
[6]. You said to brick, “What do you want brick?” Brick says to you, “I like an Arch.” If you said to brick, “Arches are expensive and I can use the concrete lintel over an opening. What do you think of that?” Brick says, “I like an arch.” – Louis Kahn
[7]. Presidential address of Dr. T. Balsaraswati at the third annual conference of Tamil Isai Sangam Madras. 21st December 1975, reproduced in the NCPA journal, vol. V, No. 4, p. 3
गीतवर्षा को आप यहाँ सुन सकते हैं.
लता पर कुमार गन्धर्व का आलेख यहाँ पढ़ें
अरुण खोपकर मणि कौल निर्देशित ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास की प्रमुख भूमिका. सिने निर्देशक, सिने विद् और सिने अध्यापक. फिल्म निर्माण और निर्देशन के लिए तीन बार सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कारों के सहित पंद्रह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. होमी भाभा फेलोशिप से सन्मानित. सत्यजित राय जीवनगौरव पुरस्कार व पद्मपाणी जीवनगौरव पुरस्कार. चार भारतीय और छह यूरोपीय भाषाओं का अध्ययन. महाराष्ट्र सरकार द्वारा सम्मानित प्राक्-सिनेमा का सेतु द्वारा शीघ्र प्रकाशन. arunkhopkar@gmail.com |
वर्षा गीत ने मुझे भिगो दिया । खूब लिखा है खोपकर जी । कहने को लोग वसंत को सर्वश्रेष्ठ मौसम मानते है लेकिन जो लोग मूल सृजन में यकीन करते है ,उनका मत वर्षा के पक्ष में पड़ेगा । कुमार में लोक और शास्त्र का आसव अपने गायन में प्रस्तुत किया है । मैंने कबीर को देखा सुना नही है लेकिन कुमार गंधर्व कबीर के पदों का गायन करते है तो यह शिकायत दूर हो जाती है ।
संगीत की समझ न रखने वाली मुझ जैसों को जो गीतवर्षा सुनने को विकल कर दे उसके लेखक, अरुण खोपकर, को मुझ जैसे अज्ञानी की बधाई का भी क्या अर्थ है? कुमार गंधर्व को सुनती तो रही हूं पर उनकी मौलिकता अब कुछ कुछ समझ में आई।
यह विस्तृत आलेख अपूर्व और अद्भुत तरीक़े से लिखा गया है।
गहरी समझ के साथ। उसके संगीत के साथ। इसे पढ़ना एक संगीत सभा से साक्षात होना है।
मुझ जैसा अनाड़ी भी पढ़ते हुए रस से सराबोर हो गया। बधाई। खोपकर जी के साथ-साथ आप सब को।
मैने गीतवर्षा सुनी। Aldous Huxley का उपन्यास point counterpoint याद आ गया। उसमें एक नास्तिक को एक पात्र यह कह कर घर बुलाता है कि उसे वह ईश्वर के होने का सबूत देगा। जब वह पहुंचता है तो उसका मित्र, जो एक संगीतज्ञ होता है, उसे कोई संगीत सुनाता है। Huxley ने उस संगीत का ऐसा वर्णन किया है कि वह सुनाई देने लगता है। अभिभूत नास्तिक स्तंभित और आत्मविस्मृत सुनता ही रह जाता है। उसे लगता है कि ईश्वर के निकट पहुंच गया है। उपन्यास पढ़े तीस बरस से ऊपर हो गए लेकिन यह प्रसंग मुझे याद है। अंत का प्रसंग है। हो सकता है कि कोई बारीकी मुझसे छूट रही हो। Huxley तो बाद विवाद के महारथी थे और यह उपन्यास उनकी दार्शनिक सोच का बेहतरीन नमूना है।
मुझे ईश्वर के दर्शन तो नहीं हुए, उपासना का भी मन नहीं किया, लेकिन आत्मविस्मृति महसूस हुई।
आपका और अरुण खोपकर का शुक्रिया
कुमार गंधर्व पर इससे पहले इससे अच्छा नहीं पढ़ा था
गीतवर्षा के माध्यम से कुमार गन्धर्व की गायकी पर इस सुविस्तारित आलेख के लिए अरुण खोपकर जी को साधुवाद।