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Home » विष्णु खरे स्मृति: हरि मृदुल

विष्णु खरे स्मृति: हरि मृदुल

विष्णु जी का प्रस्थान स्तब्ध करने वाला था. जो व्यक्ति अपने लेखन और अपने होने से साहित्य और विचारों की दुनिया को गहरे प्रभावित कर रहा था, देखते देखते उसकी मानवीय अनुपस्थिति के दो साल हो गए. इस बीच उन्हें तरह तरह से याद किया गया. उनकी पुण्यतिथि पर कवि-संपादक हरि मृदुल ने उन्हें आत्मीयता से स्मरण किया है. विश्व सिनेमा में उनकी दिलचस्पी से हम सब परिचित हैं पर सिने संगीत में उनकी रुचि और गति से कम लोग वाकिफ होंगे. उन्हें याद करते हुए. यह संस्मरण. 

by arun dev
September 19, 2020
in संस्मरण
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विष्णु खरे स्मृति: हरि मृदुल

(विष्णु खरे हरि मृदुल के साथ) 

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विष्णु खरे स्मृति

हुई शाम उनका खयाल आ गया                                        

हरि मृदुल 

वह खरखराती-सी आवाज, जो कि मानो मंद्र सप्तक में रहती थी, अब भी कानों में गूंजती रहती है. किसी भी बात की बारीकी तक जाना और उस पर बेबाकी से अपनी राय रखना, यही तो विष्णु खरे की खासियत थी. वह जो भी बोलते थे, दिल से बोलते थे. मीठा, कड़वा, विद्वतापूर्ण अथवा विवादास्पद, वह बिना लाग-लपेट अपनी राय रखते थे. यही वजह है कि जितने उन्हें माननेवाले हैं, उतने ही उनके विरोधी भी हैं. लेकिन मुझ से कोई पूछे, तो मैं बहुत पुरानी अभिव्यक्ति में कहूंगा कि वह उस नारियल जैसे थे, जो बाहर से अति कठोर होता है और भीतर से अति मुलायम. अक्सर याद आते हैं विष्णु जी. 

मुंबई में उनकी दस वर्ष की उपस्थिति बड़ी तेजस्विता के साथ रही. वह अपनी तरह से सर्वदा सक्रिय रहे. कई मराठी रचनाकार मित्रों से मिलते रहे. हिंदी के विविध कार्यक्रमों में भी यथासंभव जाते रहे. हां, इस आने-जाने में उन्होंने स्तरीयता का जरूर खयाल रखा. लेकिन मुंबई की अपनी मित्र मंडली से मिलने के लिए उन्होंने हमेशा ही हामी भरी. मुझे ऐसा कोई वाकया नहीं याद आता कि कभी उन्होंने मिलने से इनकार किया हो. मैं अपनी कहूं, तो इन दस वर्षों में मेरी उनके साथ पचासों मुलाकातें रहीं. जब भी मुलाकात होती, चार-छह घंटे से कम की नहीं होती थी. इन मुलाकातों में साहित्य के अलावा संगीत, सिनेमा, लोकगीत और राजनीति का समावेश खुद-ब-खुद होता चला जाता. हिंदी साहित्य के बारे में कहने के लिए तो उनके पास हजारों बातें होती ही थीं, संगीत, सिनेमा, लोकगीतों की भी उनके पास जैसी स्मृतियां थीं, वे दुर्लभ हैं.

विष्णु जी के बिना हम बहुत सूना महसूस करते हैं. हम मतलब सुंदर चंद ठाकुर, सुरेश चंद्र शर्मा (महासचिव-परिवार पुरस्कार) और मैं. बीच में मराठी और हिंदी कवि प्रफुल्ल शिलेदार भी मुंबई आ गए थे. उनके आने से और भी रौनक बढ़ गई. फिल्मकार और यू ट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के प्रस्तोता मनीष गुप्ता भी कई बार इस मंडली में शामिल हो जाते. जयप्रकाश चौकसे तो उनके कॉलेज के समय के अभिन्न मित्र ही हैं, उनसे भी मुलाकातें होती रहतीं. कभी मंगलेश डबराल या कुमार अंबुज कविता पाठ या अपने निजी कार्यों के लिए मुंबई आते, तो विष्णु जी की खुशी का पारावार नहीं रहता. फिर-फिर बैठकी जमाने का बहाना मिल जाता हम सभी को. कभी निदा फाजली और विजय कुमार भी इस महफिल का हिस्सा बनते. सूर्यभानु गुप्त और शैलेश सिंह से भी उनकी फोन के माध्यम से ही सही, खूब बतकही होती. लेकिन पिछले दो वर्षों से ये महफिलें खत्म हैं. लगता है कि विष्णु जी अपने साथ वे सारी उमंगें-तरंगें ले गए, जो हमें आप्लावित करती रहती थीं. एक नई रचनात्मक ऊर्जा भरती थीं.

कितनी ही शामें गुलजार हुईं प्रेस क्लब में. टाइम्स ऑफ इंडिया के पीछे की तरफ स्थित इस भव्य जगह विष्णु जी के सान्निध्य का फायदा उठाने का मौका हम कभी नहीं छोड़ते. देर तक की बैठकी के बाद जब हम प्रेस क्लब से मालाड के लिए टैक्सी करते और दसेक मिनट बाद ही मरीन ड्राइव पर रोक देते. वहां आधा घंटा तो कम से कम बैठते ही बैठते. यहीं विष्णु जी से इसरार होता कि वह अपना सबसे पसंदीदा फिल्मी गीत फिर से सुना दें. फिर से का मतलब यह कि हम हर लगभग मुलाकात में ही उनसे इस गाने की फरमाइश करते थे 

मैं जो जानती बिसरत हैं सैंया, घुंघटा में आग लगा देती
मैं लाज के बंधन तोड़ सखी, पिया प्यारे को अपने मना लेती….

फिल्म ‘शबाब’ का यह गाना, जो कि नूतन पर फिल्माया गया था और जिसे लता मंगेशकर ने गाया था, विष्णु जी का प्रिय गाना था. वह इसे इतनी तन्मयता से सुनाते थे कि कई बार महसूस होता था, वही इस गाने के लेखक, गायक और संगीतकार हैं. वाकई हम सब भूल चुके थे कि इसे मूलत: लता मंगेशकर ने गाया है. विष्णु जी ओ… ओ… हो जी हो… का आलाप लेकर जब इस गाने के मूल भाव को अपने सुरों में पकड़ते, तो हम सब अभिभूत हो जाते. हम यह गाना उनसे बीसियों बार सुन चुके होते, लेकिन हमारा मन था कि भरता ही नहीं था. एक और गाना उनको प्रिय था- बहारो मेरा जीवन भी संवारो…. यह गाना भी वह बहुत उम्दा गाते थे. मानो कैफी आजमी की पंक्तियों के वह शब्द-शब्द अर्थ खोलते. जब वह बिना सुरों से हिले अपने ही अंदाज में इस गाने को गाते, तो मन भीग जाता. कई बार तो रुलाई ही फूट जाती. एक अलग दृश्य उपस्थित हो जाता. एक अलग समां बंध जाता

तुम्हीं से दिल ने सीखा है तड़पना
तुम्हीं को दोष दूंगी ऐ नजारो. सजाओ कोई कजरा, लाओ गजरा
लचकती डालियो तुम फूल वारो….  

ऐसी ही एक गजल रफी साहब की उन्हें बहुत पसंद थी. इसे भी वह बैठकी के दौरान सुना देते- ‘हुई शाम उनका खयाल आ गया/ वही जिंदगी का सवाल आ गया….’ इस गजल को वह इतनी तन्मयता से गाते कि मानो वह रफी की आराधना कर रहे हों. उनका स्मरण करते हुए ध्यान लगा रहे हों. खास बात यह थी कि वह किसी बड़े और मौलिक गायक की तरह ही गाने गाते, लेकिन उसमें उनका अपना स्पर्श जरूर होता. ऐसी कितनी ही महफिल ‘अशोका बार एंड रेस्टोरेंट’, जो कि मालाड (प.) में रेलवे स्टेशन के एकदम सामने है, में भी सजती थीं. बार के मालिक से लेकर बेयरे तक विष्णु जी का आदर करते थे और उन्हें देखते ही आवभगत शुरू कर देते थे. इस रेस्टोरेंट में विष्णु जी के बैठने की जगह तय थी. यह जगह कुछ साल पहले मैंने और विष्णु जी ने खोजी थी. असल में मालाड रहते हुए विष्णु जी को प्रेस क्लब बहुत दूर पड़ जाता था. घर से प्रेस क्लब तक पहुंचने में उन्हें लगभग दो घंटे लग जाते थे. इसका विकल्प यही तलाशा गया कि मालाड स्टेशन के करीब कोई शोरगुल विहीन जगह खोजी जाए. प्रेस क्लब वाली बैठकी वहीं जमे. ऐसा ही हुआ भी. जब मालाड के इस रेस्टोरेंट में बैठना शुरू हुआ, तो फिर प्रेस क्लब से दूरी बढ़ गई. हालांकि इस बीच सुंदर चंद ठाकुर के घर की अनूठी मेहमाननवाजी वाली बैठकें भी समानांतर चलती रहीं. बकौल मंगलेश डबराल, सुंदर के दिल्ली वाले घर में भी विष्णु जी का रेड कार्पेड सरीखा वेलकम होता रहा है. तो सुंदर जी के घर की खातिरदारी की तो बात ही क्या. वे स्मृति में अमिट हैं.

विष्णु खरे मोहम्मद रफी के बहुत बड़े फैन थे. उनका कहना था कि ऐसे खुदा के बंदे बार-बार जन्म नहीं लेते. कितना निर्दोष चेहरा है रफी का. बाल सुलभ मुस्कराहट तिरती रहती है चेहरे पर…. वह लता मंगेशकर और दिलीप कुमार के भी बहुत बड़े प्रशंसक थे. जहां वह लता के कई गाने अपनी युवावस्था से अंतिम पड़ाव तक गाते रहे, वहीं दिलीप कुमार की फिल्मों के कितने ही संवाद भी वह जब-तब दोहराते रहे. कई बार तो लगता था कि दिलीप कुमार अपनी देह भंगिमा के साथ उनमें समाए हुए हैं. मुझे याद है कि हिंदी फिल्मों पर आयोजित एक सेमिनार में विष्णु जी ने अभिनय पर लंबा वक्तव्य दिया था. इसी दौरान उन्होंने बाकायदा दिलीप कुमार के अभिनय की बारीकियां मंच पर ही अभिनीत कर दिखाई थीं. दरअसल विष्णु खरे हिंदी के उन कवियों में नहीं थे, जो फिल्म का नाम लेते ही नाक-भौं सिकोड़ना शुरू कर देते हैं. वह तमाम कलाओं के अंतर्संबंधों का महत्व समझते थे कि इसी तरह ही संवेदनाओं और अभिव्यक्ति का विस्तार संभव है. वह हिंदी फिल्मों के रसिक, गीतों के गुण ग्राहक और जागरूक दर्शक थे. 

उनका स्पष्ट मानना था कि इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी रचनात्मकता फिल्मों के जरिए ही सामने आएगी. ‘नवभारत टाइम्स’ के मुंबई संस्करण में उनका फिल्मों पर लिखा जानेवाला पाक्षिक स्तंभ ‘सिने समय’ बेहद चर्चित था. उनके इस स्तंभ को बॉलीवुड के कितने ही मेनस्ट्रीम और कलात्मक फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्री और निर्देशक नियमित पढ़ते थे और उनकी लेखनी का लोहा मानते थे. उनके निधन के बाद इतनी गहराई से लिखनेवाला कोई न था, तो हमें यह स्तंभ बंद करना पड़ा.

एक ऐसी ही महफिल सजाए हम सभी बैठे थे कि उन्होंने ब ड़ी धीर-गंभीर आवाज में घोषणा की कि वह यह शहर छोड़ रहे हैं. अब वह छिंदवाड़ा रहेंगे. वहीं बचा जीवन बिताएंगे. जिस उम्र में लोग अपने परिवार के साथ रहना चाहते हैं, उस उम्र में विष्णु जी अकेले छिंदवाड़ा रहना चाहते हैं. यह क्या बात हुई? उनके इस निर्णय से मंडली के हम मित्रों में कोई सहमत नहीं था. वह ऐसा बेतुका निर्णय कैसे ले सकते हैं? दरअसल उनके पास कई तरह के प्रोजेक्ट थे, जिन्हें वह अपने उसी शहर में पूरा करना चाहते थे, जहां उनका जन्म हुआ था और बचपन बीता था. बचपन की स्मृतियां उन्हें बार-बार छिंदवाड़ा की ओर खींच रही थीं. जाहिर है कि इस उम्र में उनके अकेले ही छिंदवाड़ा रहने जाने के निर्णय से घर वाले बहुत परेशान थे. हम लोग भी उद्विग्न थे कि इस उम्र में क्या यह सब सही है? उन्होंने किसी की नहीं सुनी, आखिरकार वह छिंदवा़ड़ा रहने चले गए. लेकिन किसी न किसी कार्यक्रम के बहाने उनका मुंबई लौटना होता रहा. हर दो-तीन महीने के अंतराल में वह मुंबई आते और पंद्रह-बीस दिन रहते. जब भी वह मुंबई आते, मुलाकात होती. उनके चेहरे पर एक थकान दिखती, जिसे वह कतई जाहिर नहीं करते. लेकिन सच यही था कि वह बड़े उद्विग्न नजर आने लगे थे. एक दिन उन्होंने बिना किसी संदर्भ के कहा- वह मुंबई में नहीं मरना चाहते.

इस बीच विष्णु जी की सेहत ने साथ देना कम कर दिया था. छिंदवाड़ा में अकेले रहते हुए वह अपनी सेहत पर ध्यान नहीं दे पा रहे थे. न समय पर खाना और न सोना. पता नहीं, दवाइयां भी वह नियमित ले पाते होंगे या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता. फिर एक दिन उन्होंने फोन पर चौंकाते हुए खबर दी कि अब फिर से वह स्थाई तौर पर मुंबई आ गए हैं. अभिनेत्री बेटी अनन्या खरे ने उन्हें अपना फ्लैट रहने के लिए दे दिया है, जिसमें उन्हें पर्याप्त एकांत मिल रहा है. सबसे बड़ी बात कि यह उस फ्लैट के नजदीक ही है, जिसमें उनकी धर्मपत्नी और बेटी-बेटा रहते हैं. चलिए, यह सही इंतजाम हो गया. अब उन्हें घरवालों की देख-रेख का लाभ मिल सकेगा. हम सभी आश्वस्त हो गए. सचमुच अब विष्णु जी की मुंबई के स्तरीय मराठी और हिंदी कार्यक्रमों में उपस्थिति भी बढ़ने लगी. सब ठीक चल रहा था कि एक दिन उन्हें ब्रेन स्ट्रोक का सामना करना पड़ गया. वह मुंबई के नजदीक एक उपनगर डोंबिवली में ‘अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन’ का उद्घाटन करने गए हुए थे कि यह हादसा हो गया. प्रफुल्ल शिलेदार साथ थे, सो उन्होंने तत्काल संभाला और त्वरित गति से ट्रीटमेंट हुआ. दो-तीन महीने के बाद विष्णु जी काफी हद तक स्वस्थ हो गए. लेकिन उनका वजन काफी गिर गया था और पहले जैसी शारीरिक सामर्थ्य बची नहीं थी.

लेकिन हम सबसे उनका मिलना जारी रहा. वह पहले की तरह ही अपने काम में व्यस्त हो गए. अनुवाद कर रहे थे. कविताएं लिख रहे थे. एक बार फिर महाभारत पढ़ रहे थे और उस पर कई नई कविताएं लिखने की सोच रहे थे. अपने फिल्मों पर लिखे आलेखों को एक जगह इकट्ठा कर रहे थे. इस बीच उन्होंने गुजरे जमाने के अभिनेता और फिल्मकार किशोर साहू की आत्मकथा को खोज निकाला और बहुत रुचि लेकर उसे प्रकाशित करवाने में मदद भी की. वह अपने इस काम से बहुत खुश थे और इसे वह बड़ी उपलब्धि मान रहे थे. इसी बीच उन्हें दिल्ली की आप सरकार की ओर से हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने का ऑफर मिल गया. आश्चर्य की बात कि उन्होंने इसे स्वीकार भी कर लिया. हम सब विष्णु जी के इस व्यवहार से बहुत चकित थे. हम सभी ने उन्हें बहुत कहा कि इस चक्कर में मत पड़िए. आपकी उम्र और सेहत इस काम में आपका साथ नहीं दे रही. लेकिन वह नहीं माने.

उनका कहना था कि वहां ज्यादा दिन नहीं रहूंगा. ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ के तीन विशेष अंक, जो कि चंद्रकांत देवताले, केदारनाथ सिंह और शायद कुंवर नारायण पर थे, उन्हें निकालना चाहते थे. उन्होंने अपने घरवालों से भी वादा किया था कि वह दिल्ली ज्यादा ठहरेंगे नहीं. लेकिन सच्चाई यह थी कि उन्हें दिल्ली का मोह बेतरह खींच रहा था. मैंने देखा था कि जब भी कभी उन्हें दिल्ली जाने का बहाना मिलता, वह अवश्य ही जाते. कई बार तो वह दिल्ली जाने के बहाने खोजते. सच तो यह है कि मुंबई उन्हें कभी पसंद नहीं आया था. वह अपने बच्चों के कारण इस शहर में आए थे और अपने को अजनबी महसूस करते रहे थे. छिंदवाड़ा के बाद अगर कोई शहर उन्हें अपना लगा था, तो वह दिल्ली ही थी.

वाकई वह दिल्ली ही थी, जिसमें रहते हुए उन्हें पद-प्रतिष्ठा और सम्मान मिले. उनका कवि व्यक्तित्व निखरा और फिर देखते ही देखते वह बड़े कवि के रूप में स्थापित हो गए. एक ऐसे कवि जिनका अनुकरण नई पीढ़ी करने लगी. लेकिन यह सब ऐसे ही नहीं हुआ था. खुद विष्णु जी भी नए कवियों पर हमेशा नजर रखते थे. जिसकी कविता उन्हें अच्छी लगती, वह उसे फोन करते. उसे प्रोत्साहित करते. उसे गाइड करते. देश में ऐसे बीसियों युवा हैं, जिन्हें विष्णु जी का मार्गदर्शन मिला है. खुद मेरा विष्णु जी से कुछ इसी तरह परिचय हुआ. लगभग पच्चीस साल पहले की बात है, जाहिर है कि तब वह दिल्ली में रहते थे. अपने किसी काम से मुंबई आए, तो ‘जनवादी लेखक संघ, मुंबई’ ने इसका लाभ उठाया और चर्चगेट स्थित सेंट जेवियर्स बॉयज एकेडमी में उनके काव्य पाठ का आयोजन किया. काव्य पाठ से पहले उन्होंने युवा रचनाशीलता पर बात की, जो कि हमेशा ही उनका प्रिय विषय रहा है. इसी संदर्भ में उन्होंने कहा कि मुंबई में एक लड़का है, जिसकी कविता हाल ही में मैंने ‘दस्तावेज’ में पढ़ी. बहुत अच्छी कविता है. मुझे यह कविता तो याद है, लेकिन कवि का नाम याद नहीं. कविता है ‘स्पॉटबॉय’. तभी मंचासीन वरिष्ठ कवि और आलोचक विजय कुमार ने कहा- यह तो हरि मृदुल की कविता है. वह सामने ही बैठे हैं. मैं तो जैसे उस कार्यक्रम का हीरो हो गया था…. लेकिन मैं यहां अपना हीरो बनना दर्ज नहीं कर रहा हूं. मैं यह कहना चाह रहा हूं कि विष्णु जी किस तरह युवाओं की रचनाशीलता पर तेज नजर रखते थे.

युवाओं ही नहीं, अपने समकालीन या अपने से अगली पीढ़ी के कवियों पर भी उनकी गहरी दृष्टि रहती थी. चंद्रकांत देवताले हों या विनोद कुमार शुक्ल या फिर नरेश सक्सेना, वह इन कवियों की रचनाशीलता के बड़े प्रशंसक थे. कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह का बहुत सम्मान करते थे. वीरेन डंगवाल को बहुत पसंद करते थे और उन्हें हिंदी ही नहीं भारतीय भाषाओं के बेहतरीन कवियों में एक मानते थे. जब वीरेन डंगवाल जी को कैंसर हो गया, तो अक्सर मुझ से उनकी सेहत की जानकारी लेते थे. एक दिन जब हमारी मुलाकात हुई, तो सबसे पहले उन्होंने यही कहा कि वीरेन को फोन लगाओ. तब उन्होंने न केवल वीरेन जी से लंबी बात की थी, बल्कि उनकी हॉस्पिटल से लिखी नई कविताओं की बहुत तारीफ की और उन्हें हिम्मत बंधाई. हालांकि वह समझ चुके थे कि वीरेन जी का आखिरी वक्त आ चुका है. उनकी आंखों में आंसू थे.

(हरि मृदुल, विष्णु खरे, सुंदरचंद ठाकुर)

समकालीन कविता के तो वह पारखी थे ही, कविताओं का पाठ कैसे किया जाता है, इसके भी वह अन्यतम उदाहरण थे. मुंबई के भवंस कॉलेज में एक आयोजन था कविता पाठ का, जिसमें समकालीन कविता के कवियों में विष्णु जी, सुंदर चंद ठाकुर औरमेरा नाम शामिल था. समकालीन कविता के अलावा कुछ गीतकार और हास्य कवि भी मंच पर थे. यह आयोजन गीतकार माया गोविंद ने किया था. मैं आशंकित था कि मंच बहुत बेमेल है. हास्य कविता और गीतों के बीच हमारी कविताएं पता नहीं कितनी स्वीकारी जाएंगी. लेकिन विष्णु जी निश्चिंत थे. मुझे अच्छी तरह याद है कि विष्णु जी ने ‘गुंग महल’और ‘डरो’ जैसी कई कविताओं का जैसा पाठ किया, मंचीय हास्य कवि और गीतकार भी उनके भक्त हो गए. खास तौर पर ‘गुंग महल’ को जैसा सराहा गया, वह अभूतपूर्व था. एकाध आयोजनों में मैंने उनका ‘परशुराम’ स्वरूप भी देखा है. मुंबई यूनिवर्सिटी के एक आयोजन में उन्होंने एक संचालक को ऐसा लताड़ा कि उसकी शेरो-शायरी ठिकाने लग गई. यह समकालीन कविता पर अखिल भारतीय स्तर का आयोजन था. इसमें भाग लेने के लिए दिल्ली से मंगलेश डबराल विशेष रूप से पधारे थे. अन्य शहरों के कवि भी थे.

कार्यक्रम का संचालन विजय कुमार जी को करना था, लेकिन किन्हीं कारणों से शामिल नहीं हो पाए. यही वजह है कि संचालन की जिम्मेदारी उक्त गजलकार को मिल गई. समकालीन कविता के कार्यक्रम का संचालन करते हुए संचालक ने बड़ी संख्या में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति को देखकर इश्क-मुश्क वाली शायरी की झड़ी लगा दी. ‘एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा’ कहावत तब चरितार्थ हो गई, जब संचालक ने मिल रही तालियों के जोश में यहां तक कह दिया कि समकालीन कविता किसी की समझ में नहीं आती है, लेकिन गजल सबकी समझ में आती है. तो ऐसे में विष्णु जी को परशुरामी गुस्सा आना स्वाभाविक था. खैर, संचालक को अपनी अराजकता छोड़नी पड़ी. हालांकि मजे की बात यह कि सस्ती शायरी का आनंद उठा रहे हिंदी के कई लेक्चरर और प्रोफेसर संचालक महोदय के प्रति सहानुभूति दिखाने लगे थे.

विष्णु जी से मेरी वह आखिरी मुलाकात थी, जब उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया था. नौकरी की व्यस्तता के चलते मैं कई बार बुलाने पर भी उनके पास जा नहीं पाया, तो उन्होंने बड़े स्नेह से कहा कि जल्द नहीं आओगे, तो पछताओगे. आखिर एक रविवार की दोपहर मैं उनके घर मौजूद था. दुनिया-जहान की खूब बातें हुईं. दोपहर और रात का खाना उन्हीं के साथ खाया. जब मैं अपने घर लौटने लगा, तो उन्होंने मुझे एक बड़ा ब्रीफकेस पकड़ा दिया, यह कहते हुए कि इतना माल तो मैंने कभी अपने किसी दामाद को भी नहीं दिया. मैं जब ब्रीफकेस खोलने लगा, तो उन्होंने मना कर दिया कि घर जाकर खोलना. उनका कहना मानना पड़ा. रास्ते भर सोचता रहा कि आखिर इसमें है क्या? घर पहुंचकर सबसे पहले ब्रीफकेस ही खोला. उसमें पांच जींस, चार शर्ट, चार कुर्ते, चार पैजामे, तीन टी शर्ट. एक कैप. कुछ शर्ट-पेंट के पीस. दो शॉल. मैं आश्चर्यचकित था. सभी कपड़े नए थे. उनके कई सारे ऐसे स्नेही थे, जो उन्हें कपड़े गिफ्ट करते थे. ऐसा एक बार उन्होंने मुझे बातचीत में बताया था. खैर, मैंने उन्हें तत्काल फोन किया, तो उन्होंने कहा कि अब ये मेरे काम के नहीं हैं. वजन काफी गिर चुका है. इन्हें पहनने का मौका अब कभी नहीं मिलने वाला. इन्हें बेमतलब क्यों घर में रखे रहूं. मेरा बेटा छरहरा है. ये कपड़े उसे फिट नहीं हो सकते. वैसे भी उसकी पसंद अलग है. मन में विचार आया कि तुम भी बेटे ही तो हो. तुम्हें दे दूं…. मैंने सवाल किया, ‘ब्रीफकेस लौटाने कब आऊं?’ जवाब मिला, ‘लौटाने की जरूरत नहीं. रख लो.’

इन दो सालों में मैंने विष्णु जी के दिए कई कपड़े निरंतरता में पहने हैं. विशेष रूप से जींस और टी शर्ट.  उनके दिए शर्ट-पेंट पीस सिलवा चुका हूं. उन्हें भी पहन ही रहा हूं. लेकिन उनकी दी हुई कैप एक बार भी नहीं पहनी. विष्णु जी की कैप पहनना मेरे बूते की बात नहीं. किसी के भी बूते की बात नहीं. शायद आप मेरी बात समझ रहे होंगे. शायद आप मेरी बात से सहमत हो जाएं.

और अंत में कविता

विष्णु खरे की कैप

मेरी मां के देहांत को
महीनाभर ही हुआ था
मूड़े हुए सिर पर अभी बाल छोटे ही थे
सो, मुझे कैप लगानी पड़ी 

एक कार्यक्रम में जब मैं कैप पहने था और
विष्णु जी के साथ ही खड़ा था
किसी ने मेरे लिए तंज कसा-
‘कैप पहन लेने भर से कोई विष्णु खरे थोड़े ही हो जाता है’ 

उस आदमी को मैं जानता था
वह ऐसी बात कतई नहीं बोलता
अगर उसे पता होता कि मेरी मां का देहांत हाल ही में हुआ है
मैं उसकी बात से नाराज नहीं हुआ
उल्टे मुझे अच्छा ही लगा कि चलो इसी बहाने ही सही,
विष्णु खरे का महत्व तो स्वीकार किया जा रहा है 

लेकिन मेरे साथ विष्णु जी ने भी यह कैप वाली बात सुन ली थी

सो, वह तत्काल तमतमाकर पलटे
और अपनी खरखराती आवाज में बोले-
‘कैप का क्या है, वह तो सौ-डेढ़ सौ रूपये में
हर होजरी की दुकान पर मिल जाती है
लेकिन इस बात को समझिए कि कैप पहनने भर से
मैं खुद भी तो विष्णु खरे नहीं हो जाता.’
_________________________________________________

हरि मृदुल
उत्तराखंड के चंपावत जिले के ग्राम बगोटी में ४ अक्टूबर १९६९ को जन्म.
दो कविता संग्रह- ‘सफेदी में छुपा काला’ और ‘जैसे फूल हजारी’ प्रकाशित. कुछ कविताओं और कहानियों के अंग्रेजी, कन्नड़, मराठी, पंजाबी, उर्दू, असमिया, बांग्ला और नेपाली में अनुवाद प्रकाशित. लोक साहित्य में रुचि और गति.

संप्रति:
‘नवभारत टाइम्स’, मुंबई में सहायक संपादक.
harimridul@gmail.com

Tags: विष्णु खरेसंस्मरण
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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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