तीन
लोभदेव, मानभट, मायादित्य, चंडसोम और मोहदत्त की आयु समाप्त हो गयी. पाँचों अपनी आयु पूर्ण कर क्रमशः पद्मप्रभ, पद्मसार, पद्मवर, पद्मचंद्र और पद्मकेशर नाम के देव हुए. एक बार इन्द्र के सेनापति ने घंटा बजाया. घंटे का शब्द सुनकर पाँचों ने तत्काल ही अपने सेवकों से पूछा- “यह घंटा किस लिए बजाया गया है?” उन्होंने उत्तर दिया- “देव! जंबू द्वीप के भरतक्षेत्र में मध्य खंड में धर्मनाथ तीर्थंकर को कैवल्य ज्ञान हुआ है. यह उत्तर सुनकर पाँचों देवों ने भक्ति से धर्मनाथ को प्रणाम किया. पाँचों देव इन्द्र के साथ चंपापुरी में आए. उनमें से पद्मासर ने इन्द्र से निवेदन किया कि- “ यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं अकेला ही श्री धर्मनाथ का समवसरण रचूँ.” इंद्र ने आज्ञा दे दी. पद्मसार ने समवसरण रचा. पद्मप्रभ ने खड़े होकर हाथ जोड़कर भगवान से पूछा कि- “पूज्य! हम पाँचों कब मोक्ष पाएँगे, तो उन्होने उत्तर दिया कि- “तुम पाँचों इस भव से चौथे भव में मोक्ष पाओगे. उन्होंने आगे कहा कि– “यहाँ से आयु पूर्ण कर तुम वणिक पुत्र होओगे, पद्मवर राजकुमारी होगा, पद्मसार राजकुमार होगा, पद्मचन्द्र विन्ध्य पर्वत पर सिंह होगा और केशर भी राजपुत्र होगा.”
पाँचों देव अपने विमान में पहुँच कर आपस में बातचीत करने लगे. पद्मकेशर ने कहा कि- “भगवान ने जो कुछ कहा है वह तो हमने सुना ही है. अब सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए?” केशर की बात सुनकर चारों बोले- “तुमने यह अच्छी याद दिलाई. अभी इसका उपाय करना चाहिए. अपने पूर्व भव के मनुष्य के आकार बनाकर एक जगह रख देना चाहिए. वे आकार मौका आने पर हमें दिखलाना, जिससे से शायद पूर्व जन्म का स्मरण हो जाए और धर्म में प्रीति हो जाए.” उन्होंने उसी वन में, जहाँ सिंह उत्पन्न होने वाला था, अपने आकार एक गुफा में रख दिए और उस गुफा के द्वार पर एक बड़ी भारी शिला रख दी. फिर पाँचों अपने विमानों में आकर लक्ष्मी को भोगने लगे. इसके बाद पाँचों में से पद्मप्रभ के शरीर की कान्ति क्षीण हुई और वह मर गया.
1.
देव पद्मप्रभ ने जंबू द्वीप के भरत क्षेत्र में चंपा नाम की नगरी के धनदत्त नाम के सेठ के लक्ष्मी नाम की प्रिया की कोख से जन्म लिया. जन्म के बाद उसका नाम सागरदत्त नाम रखा गया. उसके पिता ने उसका एक वणिक की श्री नाम की कन्या से विवाह कर दिया. वह उसके साथ इच्छानुसार विषय सुख भोगता था. एक बार शरद् ऋतु के समय में सागरदत्त अपने मित्रों के साथ नगरी के बाहर गया. वहाँ कौमुदी का महोत्सव देखकर वह जब वापस लौट रहा था, तो किसी चौराहे पर, एक नट ने किसी कवि का बनाया हुए एक श्लोक सुनाया. सुभाषित काव्य से सागरदत्त का चित्त प्रसन्न हो गया. उसने कहा- “भरतपुत्र! तेरी कविता से प्रसन्न होकर तुझे एक लाख का धन देता हूँ.” वहाँ मौजूद दूसरे लोग बोले कि- “इसके पुरुखो ने धन कमाया है और वह इसे याचकों को दे रहा है.” यह सुनकर सागरदत्त ने सोचा कि- “लोग मेरी हँसी उडाते हैं.” रात को वह सोने का बहाना करता रहा. जब उसकी स्त्री सो गयी तो वह धीरे-धीरे उठा और एक कपड़े का टुकड़ा पहनकर और एक टुकड़ा कन्धे पर रखकर बाहर निकल गया. उसने संकल्प लिया कि- “यदि मैं एक वर्ष में सात करोड़ धन नहीं कमा सकूँगा, तो अग्रि में प्रवेश करूँगा.” सागरदत्त घर से बाहर निकल कर, विभिन्न देशों का हाल जानता हुआ, दक्षिण समुद्र के किनारे जयश्री नाम की नगरी के पास आया. कई संकल्प-विकल्पों से सागरदत्त का मन बहुत व्याकुल हो गया. उसे एक जगह नारियल के वृक्ष के नीचे उगता हुआ एक नवीन अंकुर दिखाई दिया. उसे देखकर सागरदत्त ने नया सीखा हुआ मंत्रोच्चार किया. उसने वहाँ जमीन खोदी, तो उसे एक ख़जाना दिखायी पड़ा. ज्यों ही उसने इसको लेने का विचार किया, त्यों ही आकाशवाणी हुई कि– “वत्स! यद्यपि तूने समस्त ख़जाना देख लिया है, तो भी तू इसमें से थोड़ा- केवल एक खोवा भर धन पूँजी के लिए ले.”
यह सुनकर सागरदत्त ने उसमें से सिर्फ़ एक खोवा रूपए लिए. वह ख़जाना भी तत्काल गायब हो गया. उसने उस धन को कंधे के कपड़े के छोर में बाँध लिया और उस नगरी में प्रविष्ट हुआ. उसने नगरी में सरल स्वभाव वाले एक वृद्ध वैश्य को देखा. सागरदत्त ने उसे प्रणाम किया और उसके पास बैठ गया. बूढे सेठ ने भी अत्यन्त आदर के साथ उसका स्वागत किया. उस समय नगरी में कोई उत्सव था, इस कारण सेठ की दुकान पर आस-पास के गाँवों के लोग चीज़ें खरीदने आए. सेठ का शरीर बुढ़ापे के कारण शिथिल हो गया है, इसलिए वह तत्काल बहुत चीज़ें देने में समर्थ नहीं थे.. सागरदत्त उनकी मदद की. वह तौल-तौल कर चीज़ें देने लगा. यह आदमी जल्दी माल देता है, यह देखकर सभी ग्राहक उसी दुकान पर आने लगे. सागरदत्त ने उन सबको तत्काल माल देकर विदा किया. उस माल के बेचने में सेठ को बहुत ज़्यादा लाभ हुआ. सेठ ने सोचा कि- “यह लड़का किसी बड़े कुल में पैदा हुआ और पुण्यात्मा जान पड़ता है, इसलिए यदि मेरे ही घर रहे, तो बहुत अच्छा हो.” वह बोला-” बेटा! तू कहाँ से आया है?” सागरदत्त ने जवाब दिया कि– “पिताजी! मैं चंपा नगरी से आया हूँ.” सेठ ने कहा- “तू मेरे घर पर रह.” वह सेठ के साथ उसके घर चला गया. सेठ ने अपने पुत्र की तरह प्रेमपर्वूक भोजन आदि से उसका सत्कार किया.
कुछ दिन व्यतीत हुए. सागरदत्त के गुणों से सेठ का मन सन्तुष्ट हो गया. उसने अपनी यौवना कन्या का विवाह सागरदत्त से करने प्रस्ताव किया, लेकिन सागरदत्त ने उसके साथ विवाह करना स्वीकार नहीं किया. उसने कहा कि- “मैं अपने घर से किसी प्रयोजन से निकला हूँ. यदि मेरा वह कार्य सिद्ध हो गया, तो आप जो कहेंगे करूँगा. आप मुझे आप मुझे समुद्र पार माल ले जाने के लिए धन दीजिए.” सेठ ने ऐसा ही किया. सेठ की आज्ञा लेकर सागरदत्त जहाज़ पर चढ़ा. जहाज़ समुद्र को पार करके यवन द्वीप में आ पहुँचा. वहाँ ख़रीद-बेच करके सागरदत्त ने सात करोड़ द्रव्य कमाया. फिर वह प्रसन्नचित्त होकर वह वापस अपने देश की ओर रवाना हुआ. जहाज़ मध्य समुद्र में आया कि वर्षा ऋतु नहीं होने पर भी काले बादल आकाश में चढ़ आए और जहाज़ किसी पर्वत की चट्टान से टकरा कर टूट गया. उसमें बैठे हुए सभी आदमी मर गए, केवल सागरदत्त ही जहाज़ का टूटा हुआ पट्टा मिल जाने से पाँच दिन में चन्द्र द्वीप में आ पाया. वहाँ चन्दन और लोंग का एक लतागृह देखकर उसके मन में कुतूहल हुआ. वह उधर जाने लगा. इतने में किसी का शब्द सुनाई दिया. उसने अच्छी तरह देखा, तो केले के वृक्षों के झुण्ड में लगे हुए अशोक वृक्ष के नीचे, अपने गले में फाँसी लगाई हुई एक रूपवती स्त्री नज़र आई. स्त्री बोली- “वन की देवियों! सुनो! अब फिर दूसरे जन्म में मुझ पर ऐसी मत बिताना.” इसी समय सागरदत्त ने पहुँच कर उसकी फाँसी काट डाली.” सागरदत्त के कहने पर वन देवी ने अपना वृत्तांत सुनाया.
2.
दक्षिण समुद्र के किनारे जतुंगा नाम की एक नगरी है. उसमें वैश्रमण नाम का सेठ रहता था. मैं उसकी अत्यन्त प्यारी पुत्री हूँ. एक बार दिन के समय मैं अपने आवास की शय्या पर सो रही थी. कुछ समय बाद पक्षियों और जंगली जानवरों की आवाज़ से जागकर मैंने आँखे खोलीं, तो यह जंगल दिखाई दिया, जिसमें सैकड़ों वृक्षों की पंक्तियों के कारण सूर्य की किरणें भी प्रवेश नहीं कर सकतीं थीं. इसे देखकर भय के आवेश से मेरा शरीर काँपने लगा. मैंने विलाप करना प्रारम्भ किया कि- “हे पिताजी! मुझ निराधार को तुमने क्यों त्याग दिया?” तभी वहाँ लताओं के बीच छिपा हुआ एक पुरुष प्रकट हुआ. उसने कहा कि- “मैं तुम्हारा अनिष्ट नहीं करूँगा. तुम्हारे रूप पर मेरा मन आ गया, इसलिए मैंने ही तुम्हारा अपहरण किया है.” बड़े-बूढ़ों के भय से अपने नगर की ओर न ले जाकर मैं तुम्हें इस निर्जन द्वीप में ले लाया हूँ, इसलिए मेरे साथ भोग करो और दुःख मत करो.”
यह सुनकर मैंने विचार किया कि- ‘मैं अभी कन्या हूँ. मेरे माता-पिता ने मेरा किसी के साथ विवाह नहीं किया है. मुझे कोई वणिक ब्याहेगा, इसकी अपेक्षा सुंदर आकृति वाला और स्त्रियों को प्रिय यह विद्याधर यदि मेरा पाणिग्रहण करे, तो, मुझे कौन-सा सुख नहीं मिलेगा?’ ऐसा विचार कर मैंने कहा- “तुम मुझे इसे जंगल में लाये हो, तो जो तुम्हें अच्छा लगे वही करो.” उसका मन ख़ुशी से भर गया. इतने में ही तीखी तलवार खींचे हुए एक भयानक विद्याधर वहाँ प्रकट हुआ और दोनों युद्ध करते-करते तलवारों की चोट से एक दूसरे का मस्तक काटकर ज़मीन पर गिर पड़े. इस घटना से मुझे अत्यन्त दुःख हुआ. मैं फंदा बनाकर फाँसी लगा ही रही थी कि तुमने आकर रोक दिया. अब तुम अपने संबंध में बताओ. सागरदत्त ने अपनी प्रतिज्ञा के संबंध में बताया. उसने कहा कि– “कदाचित् उपार्जन भी कर सकूँ, तो उतना धन घर कैसे ले जा सकता हूँ? मेरी प्रतिज्ञा भ्रष्ट हो गयी, अब मेरा जीवित रहना उचित नहीं है, इसलिए मैं तो अग्रि में प्रवेश करूँगा.” स्त्री ने कहा कि वह भी अपने पति के वियोग में अग्नि में प्रवेश करेगी.
सागरदत्त ने चिता बनाकर अरणि की लकड़ियों को आपस में रगड़ कर अग्रि सुलगाई. फिर वह बोला- “हे लोकपालों! तुम सुनो. मेरी प्रतिज्ञा एक वर्ष में पूरी नहीं हो सकती, इसलिए मैं अग्रि में प्रवेश करता हूँ.” इतना कहकर सागरदत्त अग्रि में प्रविष्ट हो गया, परन्तु वह अग्रि शीतल हो गई. उसे आश्चर्य हुआ. सागरदत्त इस भाँति विचार ही रहा था कि उसे आकाश में विमान नज़र आया. उसमें एक देव का मुकुट धारण किये हुए बैठा था. देव ने सागरदत्त से कहा कि- “सागरदत्त! जिसका कायर लोग आश्रय लेते हैं और जिसकी पंडित निन्दा करते हैं, ऐसा आत्मघात करने पर तुमने विचार किया है?” वचन सुनकर तथा उस देव को देखकर विचार करते-करते सागरदत्त को जाति स्मरण हो गया. उसने सोचा- ‘मैं पद्मप्रभ नामक देव था, वहाँ से चय कर यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ. यह पद्मकेशर नाम का देव है. देव भव में मैंने इससे कहा था कि- “तू मुझे धर्म का बोध देना. इस बात को स्मरण करके इस देव ने मुझे मृत्यु से बचाया है.” देव ने सागरदत्त और उस युवती को विमान में बिठाया और वे क्षण भर में ही जयश्री नगरी में पहुँच गए. सागरदत्त वहाँ वह उसी बूढे सेठ के यहाँ उतरा और उस साथ लायी हुई स्त्री के साथ तथा सेठ की पुत्री के साथ विवाह किया. सागरदत्त चिरकाल की वियोगिनी पहली पत्नी की संभावना करके उन तीनों के साथ क्रीड़ा करने लगा. धीरे-धीरे कामभोग से विरक्त होकर, परमार्थ का ज्ञाता होकर वह भोग फल वाले कर्मों का क्षय हो जाने से वैराग्य मार्ग में प्रवृत्त हुआ. हे कुवलयचंद्र कुमार! वह सागरदत्त मैं हूँ. मैंने अपने लोभदेव और पद्मप्रभ, ये दो भव देखे. ये भव देखकर मुझे विचार हुआ कि मेरे दूसरे चार मित्र देव थे, वे अब कहाँ उत्पन्न हुए हैं? ऐसा विचार कर मैंने ध्यान लगाया, तो मालूम हुआ कि जो चंडसोम स्वर्ग में पद्मचन्द्र देव हुआ था, वह वहाँ से चयकर अयोध्या नगरी में दृढधर्मा राजा का पुत्र कुवलयचंद्र हुआ है.
मायादित्य मर कर स्वर्ग में पद्मवर देव हुआ था, वह दक्षिण दिशा में जया नामक नगरी में श्रीमहासेन राजा की पुत्री कुवलयमाला हुआ है. पद्मकेशर देव ने आकर मेरी स्तुति की कि- “हे मुनीश्रवर! आपकी जय हो, आप ही हमारे धर्माचार्य हैं.” यह सुनकर मैने उसे पहचान लिया. मैंने कहा कि- “भद्र! हमें क्या करना चाहिए?” उसने उत्तर दिया कि- “मैंने पहले स्वीकार किया था कि मैं पद्मसार, पद्मवर और पद्मचन्द्र के जीवों को सम्यक्त्व प्राप्त कराऊँगा. उनमें से दो तो मिथ्यादृष्टि के कुल में उत्पन्न हुए हैं और एक सिंह हुआ है. उन तीनों को धर्म मार्ग का बोध कराना चाहिए, इसलिए आप पधारें, तो हम-लोग अयोध्यापुरी में चल कर कुवलयचंद्र को प्रतिबोध करें. मैं इतना कहकर यहाँ जंगल में आया और पद्मकेशर देव तुझे लाने के लिए रवाना हुआ. उस समय उसने तुझे घोड़े पर सवार होकर क्रीड़ा के लिए निकला देखा. वह उसी घोड़े के शरीर में घुस गया और तुझे आकाश मार्ग से उठा लाया. तुम्हें सम्यक्त्व प्राप्त कराने के लिए घोड़े के द्वारा तुम्हारा हरण करके यह देव ही यहाँ लाया है. तुम चाहो तो पूर्व जन्म के ये रत्नों के बने हुए आकार देख लो.” मुनि की बात सुनकर कुवलयचंद्र ने अपने पूर्व जन्म का स्वरूप तथा कुवलयमाला आदि के पूर्वभव की स्मृति कराने वाले दूसरे रूप देखे. उन रूपों को देखते ही कुमार तथा सिंह को जाति स्मरण हो गया.
कुवलयचंद्र ने कहा कि- “आपने सम्यक्त्व प्रदान कर मेरा उपकार किया है और अब दीक्षा देकर अनुग्रह कीजिये.” मुनि ने उससे कहा कि अभी दीक्षा मत लो. इस समय श्रावक के बारह व्रतों का पालन करो. मुनि फिर सिंह से कहने लगे- “सिंह! तूने भी अपने पूर्वजन्म का वृत्तांत सुन लिया है. हम भी उसी प्रतिज्ञा को स्मरण करके यहाँ आए हैं.” यह वचन सुनकर सिंह के शरीर में रोमांच हो आया. वह अपनी पूँछ हिलाता हुआ उठा और मुनि को प्रणाम किया. कुमार ने मुनि से पूछा- “पूज्य! कुवलयमाला को किस प्रकार बोध देना होगा?” मुनि ने कहा कि विजयपुरी में चारण मुनि की कथा सुनकर कुवलयमाला को भी अपने पूर्व जन्म की स्मृति हो जाएगी. वह एक गाथा का चौथा चरण राजसभा में सबके सामने दिखलाएगी. तूम वहाँ जाकर उस गाथा की पूर्ति करके उससे विवाह करोगे. वह तुम्हारी पटरानी होगी. उसकी कोख से उत्पन्न होकर यह पद्मकेशर देव तुम्हारा पहला पुत्र होगा. अतएव तुम दक्षिण दिशा में जाकर कुवलयमाला को प्रतिबोध दो. धर्मकथा सुनता हुआ सिंह, जिसका शरीर क्षुधा से क्षीण हो गया था, मृत्यु को प्राप्त हुआ.
सिंह के शरीर का संस्कार करके कुवलयचंद्र कुमार दक्षिण की ओर रवाना हुआ. चलता-चलता वह विन्ध्य पर्वत के वन में आ पहुँचा. ग्रीष्म ऋतु होने से कुमार का गला प्यास से सूख गया. उसने एक सरोवर देखा. कुमार ने किनारे पर आकर विचार किया कि- ‘मैंने वैद्यशास्त्र में पढ़ा है कि जब मनुष्य को असह्य भूख-व्यास और थकान हो, तो तत्काल पानी नहीं पिए.” कुमार को सरोवर में एक लतामंडप में बनी हुई एक यक्ष की मूर्ति दिखाई दी. यह देखकर हर्ष के आवेश से उसके नेत्र खिल गए. कुमार सोच ही रहा था कि कि इतने में सरोवर के भीतर से एक दिव्य रूप धारिणी स्त्री बाहर निकली. उस स्त्री के पीछे एक दासी निकली. दासी के एक हाथ में जल से भरा हुआ एक सुवर्ण का कलश था और दूसरे हाथ में पुष्प आदि पूजा की सामग्री से भरी हुई एक पोटली थी. वह स्त्री पूजा कर गायन करने लगी. उसका गान सुनकर कुवलयचंद्र उसके समाने प्रकट हो यगा. वह भय और लज्जा के भार से काँपते हुए स्तनों के बोझ के कारण नम्र हो गई. कुवलयचंद्र ने उससे उसका वृत्तांत पूछा.
3.
स्त्री ने उसे बताया कि जंबू द्वीप के भरत क्षेत्र की माकंदी नगरी में यज्ञदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था. सावित्री नाम की उसकी स्त्री थी. उसकी कोख से उत्पन्न उस ब्राह्मण के तेरह लड़के थे. सब से छोटे लड़के का नाम सोम था. दुर्योग से उस समय बारह वर्ष तक वर्षा नहीं हुई. अनावृष्टि के दौरान औषधियाँ उत्पन्न नहीं हुईं, वृक्षों में फल नहीं लगे और अनाज की उपज नहीं हुई. अकाल में यज्ञदत्त का सारा कुटुम्ब ख़त्म हो गया, केवल एक सोम ही जीवित बचा. बाद में प्रजा के भाग्य से काफ़ी वर्षा हुई. सब जगह जगह उत्सव मनाये जाने लगे. उस समय सोम की उम्र सोलह वर्ष की हुई. नगरी के निवासी उसे दरिद्री कहकर उसकी हँसी उड़ाते थे. सोम माकन्दीपुरी से निकल कर दक्षिण की ओर रवाना हुआ. रास्ते में भीख माँगता हुआ वह विन्ध्याचल के बड़े भारी जंगल में आ पहुँचा. उस समय गर्मी की ऋतु थी. वह प्यास से परेशान था और वह रास्ता भूल गया. वह एक सरोवर के समीप आया. वहाँ जलपान करके उसने जंगल के फल खाए. फिर वह उसी वन में विहार करने लगा.
लोंग, चन्दन और इलायची की लताओं के मंडप में भगवान की मूर्ति देखकर उसके मन में विचार आया कि माकन्दी नगरी में भी उसने ऐसी ही मूर्ति देखी थी. तीर्थंकर का पूजन करके वह कहने लगा- “भगवन्! मैं तुम्हारा नाम, गोत्र, गुण या कला- कुछ भी नहीं जानता. परन्तु आपके भक्तिपूर्वक दर्शन करने तथा आपके चरण-कमल की पूजा करने से प्राणियों को, जो लाभ होता हो, वह मुझे भी प्राप्त हो.” उसने निर्णय किया वह इस देवता ही पूजा करके यहीं रहेगा. एक बार उसने बहुत से फलों का आहार किया, जिससे उसको विसूचिका का रोग हो गया. वह हृदय में भगवान की मूर्ति का ध्यान करता हुआ समाधि पूर्वक मृत्यु पाकर रत्नशेखर नाम का यक्षराज हुआ.
यक्षराज ने आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित की. उस यक्षराज ने मुझसे कहा कि- “कनकप्रभा! तू सदा यहाँ आकर भगवान की पूजा करना और मैं अष्टमी तथा चतुर्दशी के दिन भगवान की पूजा करूँगा.” वृत्तांत सुनकर कुमार ने कहा कि- “बड़ा आश्चर्य है. भगवान की भक्ति से भरपूर यक्षराज को, विनयवती तुमको तथा इस मनोहर प्रदेश को देखकर मेरा जीवन सफल हो गया.” कनकप्रभा ने रूप औषधि का एक कड़ा, जो उसके हाथ में बँधा हुआ था, खोलकर कुवलयचंद्र को दे दिया.
4.
कुवलयचंद्र उसे लेकर दक्षिण की तरफ़ चल दिया. चलते-चलते रास्ते में नर्मदा नदी आई. नर्मदा नदी को पार करके वह उसके किनारे पर घूमने लगा. इतने में उसे एक झोंपड़ी दिखाई दी. कुमार उसमें घुसा तो रुद्राक्ष की माला तथा कमंडलु पर उसकी नज़र पड़ी. जरा आगे बढ़ा, तो उसे एक बूढी तपस्विनी दिखाई दी. उसने अपने बड़े-बड़े स्तन छाल के वस्त्रो से ढँक लिए थे. उसके साथ अपार रूपवाली एक नवयुवती कन्या चल रही थी. उन दोनों के साथ एक राजकीर (तोता) चल रहा था. उसके पीछे और बहुत से तोते और मैनाएँ चल रही थीं. कुमार को एकाएक देखकर उस नवयुवती की दृष्टि डर के मारे चंचल हो गई, क्योंकि वह निर्जन वन में जन्मी थी. वह वहाँ से भागने का विचार करने लगी. यह बात राजकीर ने जान ली. वह बोला- “स्वामिनी एणिका! तू क्यों भागती है?” लज्जा के साथ युवती ने कुलययचंद्र से पूछा कि- “आप कहाँ से आए और कहाँ जा रहे हैं?” कुमार उसके सामने बिछौने पर बैठ गया. वह नीचा मुँह किये ही खड़ी रही, बोली कुछ भी नहीं. यह देखकर राजकीर बोला- “यह कन्या आपसे कुछ लजाती है, परन्तु आपकी जिज्ञासा व्यर्थ न हो, ऐसा सोचकर करके मैं ही इसका हाल आपको बतलाता हूँ.”
नर्मदा नदी के दक्षिण किनारे पर ही देवाटवी नामक एक जंगल है. उस जंगल में घनी छाया वाला एक वट का वृक्ष था, जिसमें सब तोतों का मुखिया राजकीर रहता था. उसकी स्त्री राजकीरिका के एक तोता उत्पन्न हुआ. एक बार की बात है. ग्रीष्म ऋतु में वह बालकीर एक तमाल वृक्ष के नीचे जाकर क्षण भर बैठा ही था कि इतने में वहाँ एक व्याघ्र आ गया. उस व्याघ्र ने भय से भागते हुए बालकीर को पिंजरे में डाल लिया. मैं वही तोता हूँ. इसके बाद व्याघ्र ने मुझे भरोंच नगर के भृगु राजा को भेंट कर दिया. उसने प्रसन्न होकर मुझे अपनी पुत्री मदनमंजरी को दे दिया. उसने थोड़ी ही दिनों में मुझे स्थावर और जंगम विष की परीक्षा तथा चिकित्सा, हाथी-घोड़ा, कुत्ता, पुरुष और स्त्री के लक्षण आदि बताने वाले समस्त शास्त्रों का पारंगत कर दिया. एक बार वहाँ ग्रीष्म ऋतु में किसी मुनि को कैवल्य ज्ञान हुआ. भृगुराज भी कैवल्य प्राप्त मुनि की वंदना करने गया. उसी समय दो विद्याधरों ने वहाँ आकर, कैवल्य की वन्दना करके पूछा- “भगवन्! वह स्त्री कौन है? जंगल में नर्मदा के दक्षिण किनारे पर मृगों की टोली के साथ बालिका को देखकर हमने सोचा कि मृगों की टोली के साथ मानुषी का रहना बड़े आश्चर्य की बात है.” मुनि ने कहा कि जंबू द्वीप में अवन्ति में नल नाम का राजा राज्य करता था.
उस राजा का श्रीवर्धन नामक पुत्र था और श्रीमती नाम की एक कन्या थी. उस कन्या का विजयपुर के स्वामी राजा विजय के पुत्र सिंह के साथ विवाह कर दिया गया. सिंह कुमार युवावस्था में आया, तो अन्याय के मार्ग पर चलने लगा, इसलिए राजा ने उसे देश निकाला दे दिया. सिंह अपनी पत्नी को लेकर पास के किसी गाँव में रहने लगा. श्रीवर्धन ने धर्मरुचि मुनि के पास चारित्र ले लिया और उनका शिष्य होकर कुछ समय में समस्त शास्त्रों का अभ्यास कर लिया और विहार करता हुआ वहीं आया, जहाँ उसके बहन-बहनोई रहते थे. वह पारणे के लिए अपनी बहन के ही घर पर गया. श्रीमती ने दूर से ही अपने भाई को आता देखकर विचार किया कि– “मालूम होता है मेरे भाई को किसी पाखंडी ने दीक्षा दे दी है.” यह विचार कर श्रीमती ने मुनि का आलिंगन किया. बाहर से आए हुए उसके पति ने यह देखकर मुनि को मार डाला. यह देखकर उसकी पत्नी ने अपने पति पर लकड़ी के टुकड़े से प्रहार किया, जिससे वह भी मर गया. सिंह ने मरते-मरते उसी लकड़ी के टुकड़े से अपनी पत्नी का माथा फोड़ दिया, जिससे वह भी मर गयी. सिंह मरकर मुनि घात के पाप के कारण रौरव नामक नारकी हुआ. बहन को भी नरक मिला. मुनि तलवार के निर्दय प्रहार से व्यथा पाकर भी स्वर्ग में देव हुए. वही देव आयु पूर्ण होने पर भृगुकच्छ में राजा हुआ. मैं वही हूँ और यहाँ मुझे कैवल्य ज्ञान उत्पन्न हुआ है. यह बात जानकर तुम मेरे पास आए हो. सिंह कुमार नरक से निकलकर नन्दीपुर गाँव में ब्राह्मण हुआ. वह बाद में विरक्त होकर एक दंडी संन्यासी हो गया. वहाँ आश्रम में तपस्या करके आयु पूर्ण होने पर देव हुआ.
उस देव ने किसी केवली से अपना पूर्वभव पूछा. केवली ने उसे पूर्व भव बतलाया. पूर्व भव सुनकर उसे मन में अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ. उसने सोचा कि- “मुझे मेरी पत्नी ने ही मार डाला. वह पापिनी इस समय कहाँ है?’ यह सोचकर उसने अवधिज्ञान का उपयोग किया, तो उसे नरक से निकलकर पद्मपुर में पद्मराजा की पुत्री रूप से तत्काल जन्मी हुई देखा. उसे देखते ही देव को ऐसा क्रोध आया कि उसके होठ काँपने लगे. वह वहाँ आया और लड़की को उठाकर विन्ध्य पर्वत के वन में ऊपर से पटक दिया. सौभाग्य से वह लड़की नये-नये कोमल अंकुरों वाले स्थान पर गिरी और हवा लगने से होश में आई. सौभाग्य से गर्भ के भार से पीड़ित एक हिरणी उसी जगह पर आई. जब हिरणी की प्रसव वेदना ख़त्म हुई, तो उसने अपने पास एक बच्चा और एक तत्काल जन्मी हई राजपुत्री को देखकर सोचा कि- “अरे, इस बार मुझे क्या दो बच्चे हुए हैं?” ऐसा सोचकर वह मृगी सरल भाव से अपनी ही प्रसूति समझ कर उसे बालिका के मुँह में भी अपने स्तन का दूध डालकर उसका पोषण करने लगी. निर्जन वन में मृग झुंड में भ्रमण करने वाली वह बालिका मेरी पूर्व जन्म की बहन है. उसने इस जन्म में कभी मनुष्य की देखा ही नहीं है, इसलिए वह तुम्हें देख कर भाग गई थी.”
कुवलयचंद्र एणिका और राजकीर के साथ झोंपड़ी में आया तथा अत्यन्त स्वादिष्ट और मनोहर पके फल खाए. उसने वहीं रहकर विविध प्रकार के शास्त्र, अनेक कलाएँ, भिन्न-भिन्न देशों की भाषा तथा बहुत-सी कथा-कहानियाँ सुनाकर एणिका और राजकीर को प्रसन्न किया. अंततः कुमार ने कहा कि- “मुझे यहाँ आए बहुत समय बीत चुका है. तुम्हारा कल्याण हो, मैं अब जाऊँगा.” कुमार ने आरंभ से लेकर वन में आने तक का अपना सारा हाल सुनाया.
5.
चलते हुए कुवलयकुमार विन्ध्याटवी को लाँघकर सहृ पर्वत के पास आया. वहाँ उसने एक व्यापारियों एक दल को सरोवर के किनारे रात्रि विश्राम करते हुए देखा. कुमार उनके दल के नायक वैश्रमणदत्त के पास गया और बोला कि “मैं तुम्हारें साथ चलूँगा” तो उसने कहा कि- “ठीक है. यह आपने हम पर बड़ी कृपा की.” दल वहाँ से रवाना हुआ और कुछ दूर पहुँचने के बाद सूर्यास्त हो गया. सभी तरफ़ अन्धकार फैल गया. दल ने वहीं पड़ाव डाल दिया. दैव योग से उसी रात में भीलों ने ‘पकड़ो पकड़ो’ पुकार कर समस्त दल को लूट लिया. यह सारी मुसीबत देख दल के लोग भागने लगे. उसी दल के नायक की धनवती नाम की कन्या अपने परिजनों के भाग जाने से भीलों के कब्ज़े में आ गयी. उसकी आँखे भय से विहृल हो गई वह लंबी-लंबी साँसे छोड़ने लगी और उसके पुष्ट स्तन काँपने लगे.
कुमार ने भीलों से धनुष छुड़ाकर बाणों की ऐसी वर्षा की उनकी सेना भाग खड़ी हुई. यह देखकर उनका सेनापति क्रोध में आकर स्वयं युद्ध करने लगा, लेकिन कुछ समय बाद, दोनों आपस में प्रेम प्रकट करने लगे. सेनापति कुवलयचंद्र को अपनी बस्ती में ले गया, जो पर्वत के शिखर पर थी. वहाँ बस्ती तथा उसके बीच में बने हुए महल को देखकर कुमार ने उससे पूछा- “इसका क्या नाम है?” तो उसने उत्तर दिया कि- “इसका नाम चिन्तामणि है.” वहाँ स्थित देवालय के दरवाज़े को खोलकर वे अन्दर घुसे और वहाँ प्रतिमाओं की पूजा की. फिर इच्छानुसार आनन्दपूर्वक भोजन करके आपस में बातचीत करने लगे. वहाँ अचानक ही एक पुरुष आया. वह सफ़ेद वस्त्र पहने हुआ था और हाथ में लोहे का एक डंडा लिए हुए था. वह सेनापति से बोला कि- “तूने बुरे कर्म नहीं छोड़े, तो इस डंडे से तेरी ख़बर लूँगा.” कुमार ने सेनापति से उसका वृत्तांत पूछा, तो उसने बताना शुरू किया.
6.
भरतक्षेत्र में रत्नपुरी नाम की नगरी में रत्नमुकुट नामक राजा राज्य करता था. उसके दर्पफलिक और भुजफलिक नाम के दो लड़के थे. वह राजा एक बार अमावस्या को सायंकाल विचार करता हुआ बैठा था, तो वहाँ एक पतंगा दीपक के पास आया. उसे देखकर दयालु राजा ने विचार किया कि- “यह बेचारा पतंगा दीपक में गिर कर मर जायगा, मैं इसकी रक्षा करूँ.” उसने उसको एक खुले हुए टोकरे में डाला और बन्द करके अपने सिरहाने के पास रख लिया. प्रातःकाल जाकर उसने उसको खोला, तो उसमें एक छिपकली निकली. उसे देखकर राजा को एकाएक जाति स्मरण हो गया. उसने अपना पूर्वभव देखा कि मैं पूर्व जन्म में चारित्र का पालन करके स्वर्ग लोक में गया था, वहाँ से आकर यहाँ राजा हुआ हूँ. उसी समय पास में छिपी हुई किसी देवी ने राजा को रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्टा आदि दिए. इन सब के साथ राजा को देखकर शय्या का काम करने वाली सब स्त्रियाँ चिल्लाने लगीं. राजा वहाँ से चल दिया. अन्तःपुर के लोग तथा मंत्री पीछे-पीछे चलने लगे. राजा नगर के बाहर उद्यान में आया और वहाँ पहुँच कर बोध देने योग्य स्थान पर बैठ गया. मंत्रियों ने राजा के भाई अयोध्या नगरी में राजा दृढधर्मा के पास यह ख़बर भेजी कि हमारे राजा ने चारित्र अंगीकार कर लिया है. उन्होंने बड़े कुमार दर्पफलिक को राज्यासन पर बिठलाने की आज्ञा दी. उनकी आज्ञानुसार सभी ने यह बात स्वीकार की लेकिन भुजफलिक की माता ने हमारे काका की बात नहीं मानी. उसने सलाह करके परलोक चिंता न कर मुझे कोई औषधि खिला दी. औषधि का ऐसा प्रभाव हुआ कि फिरता-फिरता मैं विन्ध्याचल की इन गुफाओं में आया. मैं धीरे-धीरे शुद्ध बुद्धि वाला हो गया. एक बार मेरी भेंट भील लोगों के बीच में बैठे हुए एक सुंदर पुरुष से हुई. वह पुरुष मुझे इस बस्ती में ले आया. हम दोनों को वारांगना स्त्रियों ने स्नान कराया.
हमने भोजनशाला में आकर रुचि के अनुसार भोजन किया, फिर आनन्द से बैठे. उस समय उस पुरुष ने मुझसे कहा- “भद्र! मैं रत्नपुरी के नरेन्द्र रत्नमुकुट का दर्पफलिक नाम का लड़का हूँ. उस बस्ती के नायक ने अन्य सब के सामने मुझे सिंहासन पर बिठाकर उनसे कहा कि- “आज से यही तुम्हारा राजा है. तू जीववध न करना, भलीभाँति प्रजा का पालन करना, प्राण जाने पर भी अकार्य न करना. किन्तु कुछ समय में कर्मयोग से मेरा मन मोहग्रस्त हो गया. मैं सब शिक्षा भूल गया, इसलिए सब प्रकार के अन्याय करने लगा. यह पुरुष इस बस्ती का नायक है जो मुझे बार-बार डंडे से सद्मार्ग पर चलने के लिए आगाह करता है. कुमार ने अपना भी सारा वृत्तांत सुनाया और अन्त में कहा- “अब मुझे कुवलयमाला को बोध देने के लिए विजयापुरी जाना होगा.” इसके बाद उस बस्ती में कुमार ने तीन दिन आनन्द से बिताकर नायक से कहा कि- “आपकी आज्ञा हो, तो अब मैं यहाँ से प्रस्थान करूँ?” बस्ती के नायक ने कहा कि- “यदि तुम्हें अवश्य ही जाना है, तो मैं दूसरा काम छोड़कर सब सेना सहित विजयापुरी तक चलूँ, क्योंकि तुम अकेले हो और रास्ता नहीं जानते हो.
माधव जी हिंदी साहित्य के भंडार को अपनी तपस्या से निरंतर अधिक समृद्ध बना रहे हैं । साधुवाद !
ये तो बहुत मेहनत का काम है । मैं माधव हाड़ा से परिचित नहीं था । ऐसी वृहत पोथियों पर आज के दौर में भी काम हो रहा है यह जानकर आश्चर्य चकित हूं । मुझे ये लगता था कि राहुल सांकृत्यायन के बाद अब कोई और उनके जैसा नहीं है । ये आपकी एक नई खोज है ।
प्राचीन समाज की वर्गीय संरचना एवं जीवन मूल्यों को कथाओं से जानना एक दिलचस्प अनुभव है।ये कथाएँ
हमारे साहित्य की धरोहर हैं।माधव जी को साधुवाद !
Dr माधव hada जैन कथाओं पर अच्छा कार्य कर रहे है. साधुवाद