चार
कुवलयचंद्र अनेक पर्वत, नदी और पहाड़ों का लाँघता हुआ समुद्र के किनारे विजयापुरी आ पहुँचा. कुमार बहुत थक गया था, अतः नगरी की उत्तर दिशा में विश्राम करने बैठ गया. वह नगर में प्रवेश करके थोड़ा आगे बढ़ा था कि उसे पनिहारिनों की तरह-तरह की बातें सुनाई दीं. उनमें से एक ने कहा कि- “कुवलयमाला कुँवारी ही मर जाएगी, उससे कोई विवाह नहीं करेगा.” वह राजद्वार के पास आया. कुमार ने वहाँ सुना कि बहुत चिंतित है, तो कुमार ने किसी राजपुरुष से इस चिन्ता का कारण पूछा. उस राजपुरुष ने उत्तर दिया कि- “राजा की पुत्री कुवलयमाला पुरुषद्वेषिणी हो गइ है. उसने गाथा का एक चरण काग़ज़ पर लिखकर राजद्वार में लटकाया है. उस चरण के आधार पर जो पुरुष दूसरे तीन चरण रचकर गाथा पूरी कर देगा, वही उसका पति होगा. उसने ऐसी प्रतिज्ञा की है. इसलिए सब राजपुरुष उस गाथा हो पूर्ण करने के लिए अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार विचार कर रहे हैं. केवल कुवलयमाला ही उस गाथा को पूरी जानती है. उसने उसके बाकी के तीन चरण स्वयं लिखकर, लिफ़ाफ़े में डालकर, और उसके ऊपर राजा की सील-मुहर लगाकर कोषागार में रख दिया है.” इसी दौरान कुमार ने स्तंभ को उखाड़कर मद से मत जयकुंजर नामक हाथी को अपने सामने आता हुआ देखा. उस क्रोधी हाथी को देखने के लिए राजा कुवलयमाला सहित महल की झरोखे पर चढ़ा. राजा ने वहाँ से देखा कि हाथी कुवलयचन्द के पास ही आ पहुँचा है. उसने चिल्लाकर कहा- “भद्र! तू बालक है, जल्दी पीछे हट जा.” राजा की यह बात सुनकर तेज़ से दीप्त कुमार ने जयकुंजर को क्षण भर में अपने वश में कर लिया. उसके दोनों दाँतों पर, दोनों पैर रखकर वह उसके कुंभस्थल पर सवार हो गया. फिर वहीं ठहर कर कुमार ने कुवलयमाला की समस्या वाली गाथा इस प्रकार पूर्ण की- “कौशांबी नगरी में, धर्मनन्दन गुरु के पादमूल में दीक्षा ग्रहण करके तथा तप करके, जिन्होंने संकेत किया था, ऐसे पाँचों पद्म विमान में उत्पन्न हुए थे.” यह गाथा सुनकर कुवलयमाला ने सफ़ेद फूलों की वरमाला कुमार के लिए भेजी. कुमार ने वह माला अपने गले में धारण की. राजा को रोमांच हो आया. उसने कहा कि- “बेटी कुवलयमाला! तूने उत्तम वर चुना.” समस्या की पूर्ति हो जाने से राजपुरुषों ने ‘जय-जय’ की ध्वनि की.
राजा दृढधर्मा द्वारा पहले ही से भेजा हुआ मालवराज का पुत्र महेन्द्रकुमार, जिसे उसने पुत्र मानकर रखा था, एकदम जयकुंजर हाथी के पास आकर बोला- “महाराज दृढधर्मा के पुत्र कुवलयचंद्र! तुम्हारी जय हो.” ये शब्द सुनकर कुमार ने महेन्द्रकुमार को पहचान लिया. कुमार ने उसे बड़े भाई के समान जयकुंजर के कन्धे पर बिठलाकर अपने माता-पिता का कुशल-क्षेम पूछा. राजा विजयसेन सोचा कि- “कैसे आश्चर्य की बात है? प्रथम तो कुमार स्वरूपवान् और भाग्यवान् है, दूसरे इसने जयकुंजर हाथी को वश में किया, तीसरे आकाश में पुष्प-वृष्टि हुई, चौथे इसने समस्या की पूर्ति की, पाँचवें मेरी पुत्री इस पर अनुरक्त हुई और छठे यह राजा दृढधर्मा का पुत्र है.” सब वृत्तांत सुनकर राजा विजयसेन ने कहा- कुमार! आपके आगमन से हम धन्य हुए. अब आपके लिए जो आवास चुना गया है, आप वहाँ जाओ. मैं ज्योतिषी को बुलाकर कुवलयमाला के पाणिग्रहण का मुहूर्त निकलवाकर आपको बताता हूँ.” दोनों कुमार आनन्द से स्नान-भोजन आदि करके आनन्द से बैठे. इतने में राजा की भेजी हुई प्रतिहारी ने आकर कहा कि- “महाराज ने आपको कहलवाया है कि कुवलयमाला के पाणिग्रहण के लिए ज्योतिषी ने मुहूर्त देखा, परन्तु अभी मुहूर्त नहीं है.” कुमार ने एकांत में विचार किया कि- “मैं विषम मार्ग को लाँघकर यहाँ आया, मुनि के उपदेश के अनुसार गाथा की पूर्ति भी की, फिर भी कुवलयमाला का समागम भाग्य के अधीन जान पड़ता है.”
कुवलयचंद्र महेन्द्र के साथ राजा के उद्यान में जाकर इधर-उधर घूमने लगा. इतने में महेन्द्र ने कहा कि- “कुमार! नृपुर का मनोहर ध्वनि सुनायी दे रही है. मेरे ख़्याल से कुवलयमाला आ रही है.” इतने में घनी लताओं में खड़े हुए कुमार ने सखियों के बीच में आती हुई कुवलयमाला को देखा. कुवलयमाला लोंग के लता-मंडप की ओर चली. उसी मंडप में कुमार छिपा था. उसे आती हुई देखकर क्षण भर को कुमार की ऐसी अवस्था हुई जैसे अभी-अभी जीवित हुआ हो. कुवलयमाला भी कुमार को देखकर भयभीत हुई और ‘यह वही है’ इस विचार में आनन्दित हुई. कुमार ने फैलाई हुई दोनों भुजाओं से कुवलयमाला के कंधे पकड़ लिए. कुवलयमाला ने कहा- “कुमार! मुझे छोड़ दो, भला मेरा आपसे क्या संबंध है?” कुमार ने उत्तर में कहा कि- “मैं लोभदेव का जीव तुम्हें बोध देने के लिए आया हूँ. तुम बोधि प्राप्त करो और माया का त्याग करो.” कुवलयमाला राजकन्याओं के साथ अन्तःपुर में आ गयी. इधर कुवलयमाला के प्रेम और कोप की बातों का स्मरण करता हुआ, कुमार महेन्द्र से बोला कि- “मित्र! चलो अपने आवास पर चलते हैं. जो देखना था, देख चुके.”
अंततः राजा के आग्रह पर पाणिग्रहण के लिए फाल्गुन माह की पंचमी के दिन का मुहूर्त निकला. राजा ने कुमार से कहा कि- “अब तुम आगामी पंचमी के दिन वेदी में बैठी हुई कुवलयमाला का पाणिग्रहण करना.” विवाह का दिन निकट आ गया. राजा के आदमी भोजन सामग्री के लिए धान्य लाने लगे. भाँति-भाँति के पकवान तैयार होने लगे. नगरी को चारों ओर ख़ूब सजाया गया. इस प्रकार सभी लोग विवाह की धूम-धाम में लग गए. विवाह के दिन वृद्ध स्त्रियों ने बिना मोतियों का सुंदर स्वस्तिक बनाकर, उसके ऊपर कुमार को पूर्व की ओर मुँह करके बिठाया और मंगल स्नान कराया. कुमार ने शरीर पर विलोपन करके कोरे स्वच्छ दोनों छोर वाले वस्त्र पहने. कुमार इस प्रकार तैयार होकर प्रौढ़ जन के साथ जयकुंजर हाथी पर आरूढ़ हुआ. जब लग्र का मुहूर्त आया, तो कुवलयमाला का हाथ ब्राह्मणों ने कुमार के हाथ में दिया. सौभाग्यवती स्त्रियाँ गीत गाने लगीं और बाजे बजने लगे.
पाणिग्रहण करके कुमार ने गुरुजनों को प्रणाम किया और दूसरी सब रीतियाँ पूर्ण कीं. मांगलिक क्रियाएँ करके दोनों शय्या पर बैठे. यह देखकर आस-पास के लोग तथा सखी-जन वहाँ से खिसक गए. कुमार की वह रात्रि क्षण के समान व्यतीत हो गई. कुवलयमाला ने एक दिन कुमार से पूछा कि- “तुमने मेरा हाल कैसे जाना?” तो कुमार ने अयोध्यानगरी से अश्व हरण से लेकर, मुनि द्वारा बतलाया हुआ चंडसोम, मानभट, मायादित्य लोभदेव और मोहदत्त का पूर्व भव तथा अन्त में गाथा की पूर्ति से विवाह होगा, यह सब वृत्तांत कह सुनाया. कुमार ने फिर कहा- “विवाह कर्म तो हो चुका पर अब परलोक में सुख देने वाले सम्यक्त्व को अंगीकार करो. कुवलयमाला ने उत्तर में कहा कि- “मेरे पूर्व जन्म का सारा वृत्तांत सुनाकर मुझे सम्यक्त्व का भाजन बनाया है, अतः तुम्हीं मेरे लिए शरण हो और तुम्हीं मेरे गुरु हो.”
कुवलयचंद्र ने महेन्द्र के साथ विजयसेन से निवेदन किया कि- “मुझे आए हुए बहुत दिन हो गए और माता-पिता प्रतीक्षारत हैं, अतः अब मुझ विदा कीजिये.” कुवलयमाला ने माता को नमस्कार करके कहा कि- “देह के साथ देह की छाया के समान मैं भी पति के साथ जाऊँगी.” अश्रुपूर्ण नेत्रोंवाली जननी ने उसका मस्तक चूमकर इस प्रकार शिक्षा दी कि- “हे पुत्री! पति को सदा बिना संशय के सदैव प्रिय बोलना. सास आदि पूजनीय जन के प्रति सम्मान भाव बनाये रखना.”यह शिक्षा सिर पर धारण कर, माता-पिता को प्रणाम कर, परिजनों से पूछकर कुवलयमाला वहाँ से कुमार के पास आ गई. कुमार ने सोचा कि- “यदि मैं पिताजी को नीरोग देख लूँ, राज्य को प्राप्त कर लूँ और सम्यक्त्व हो जाए, ऐसा शकुन हो तो मुझे शांति मिले.” निरन्तर चलकर कुमार अयोध्यापुरी पहुँचा. उसको आया हुआ सुनकर नरपति परिजनों सहित कुमार के सम्मुख आया. दृढ़धर्मा ने मुहूर्त में कुवलयचंद्र को आसन पर बिठाया. राजा ने कहा कि- “मैं पुण्यवान हूँ, जिसका तुम्हारे जैसा पुत्र मिला. आज से यह राज्य तुम्हें सँभालना है..” राजा ने राज्यप्रधान के सम्मुख पुत्र को शिक्षा दी.
कुमार ने प्रणाम कर कहा कि- “जो कुछ पूज्य पिताजी स्वयं आदेश देते हैं, उसे मुझे अवश्य करना है.” कुछ समय तक युवराजपद पर रहकर वह सभी कार्यों में अच्छी तरह निपुण हो गया. कुछ समय बीतने पर राजा ने कहा कि- “हे वत्स कुवलयचंद्र! अब मेरा यह समय धर्म साधना करने का है.” कुमार बोला- “महाराज! आपने ठीक कहा, पर एक निवेदन करता हूँ कि धर्म कुलोचित ही करना.” राजा ने कहा कि- “धर्मोपाय तो बहुत हैं. यह कुलोचित क्या है?” कुमार बोला कि- “जिसको पूर्वज इक्ष्वाकु वंशजों ने किया, वही उचित है.”
तदनन्तर राजा गुरु के साथ विहार पर निकल गया. कुवलयचंद्र को राज्य करते हुए बहुत वर्ष बीत गए. कालोचित का विचार कर पद्मकेशर देव ने अयोध्या में आकर कुवलयचंद्र और कुवलयमाला को कहा कि– “इस तिथि और समय पर मैं आप दोनों का पुत्र होऊँगा. पद्मकेशर नाम से अंकित आभूषणों को आप अपने पास रखें और जन्म के बाद इनको मुझे पहना दें. इनको देखकर मुझे जाति स्मरण हो जाएगा.” देव यह कहकर अपने स्थान पर वापस आ गया. कुछ दिनों में वह देव से च्युत होकर कुवलयमाला के गर्भ में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ. पिता ने नगर में उत्सव किया और बारहवें दिन उसका पृथ्वीसार नामकरण किया. युवा होते ही माता-पिता ने वे आभूषण उसको सौंप दिए. उनको देखते ही उसको मूर्च्छा आ गयी और जाति स्मृति हो आयी. सभी को उसने यही कहा कि- “मैं अजीर्ण विकार से अस्वस्थ हो गया था.” उसने अपना आत्मस्वभाव किसी को नहीं बताया.
बहुत दिन बीत जाने पर कुवलयचन्द ने पृथ्वीसार को कहा कि- “कुमार! राज्यग्रहण करो, मैं प्रवज्या ग्रहण करूँगा.” कुमार बोला- “महाराज! आप राज्य का पालन कीजिये, मैं दीक्षा स्वीकार करूँगा.” राजा ने आदेश दिया कि- “अभी तुम बच्चे हो, राज्यसुख का अनुभव करो. भोग कर चुके हम दीक्षा ग्रहण करेंगे.” कुवलयचंद्र ने पृथ्वीसार राज्य पर सौंप दिया और वह किसी गुरु के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा. एक दिन कुवलयचंद्र ने दो साधुओं को भिक्षा के लिए गली में भ्रमण करते हुए देखकर प्रणाम किया और कहा कि- “आप दोनों की काया निरामय है?” उन दोनों ने कहा कि- “इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न, दर्पफलिक हमारे गुरु हैं.” राजा बोला कि– “क्या वे हमारे सम्बन्धी रत्नमुकुट राजर्षि के पुत्र दर्पफलिक हैं?” साधुओं ने कहा कि- “हमारे वे गुरु प्रधान उद्यान में हैं.” कुवलयचंद्र ने कुवलयमाला और महेन्द्र के साथ उद्यान में जाकर भगवान दर्पफलिक को प्रणाम करके पूछा कि- “हे भगवन्! आपने चिन्तामणि बस्ती से निकलकर किस गुरु के पास दीक्षा ली?” तब उन्होंने कहा कि- “महाराज! वहाँ से निकलकर मैंने भरोंच में एक मुनि को देखा. उस मुनि ने मुझसे कहा कि- “हे दर्पफलिक राजपुत्र! मुझे पहचानते हो?” मैने कहा- “आपको मैं सम्यक् नहीं पहचानता.” उन्होंने कहा कि- “तुमको वह चिन्तामणि बस्ती का राज्य किसने दिया था?” मैंने कहा-“क्या आप वे हैं?” उन्होंने कहा- “ऐसा ही है.” मैंने कहा कि- “जैसे तब आपने राज्य दिया था, वैसे अब संयम देने की कृपा कीजिए.” उन्होंने कहा- “यदि ऐसा है तो विलम्ब कैसे? तुम्हारे पिता दृढधर्मा भी उनके पास ही गए हैं.
मेरे गुरु और तुम्हारे पिता दोनों ही सिद्धिपद को प्राप्त हो गए. मैं तुमको प्रतिबोध कराने के लिए आ गया.” उनके चरणों के निकट कुवलयचंद्र ने कुवलयमाला और महेन्द्र के साथ व्रतग्रहण कर लिया. कुवलयमाला भी आगमानुसार तप करके देवायु हो गयी. कुवलयचंद्र भी वहीं विमान आयुवाला देव हो गया. सिंह भी अनशन कर्म द्वारा वहीं देव बन गया है और अवधिज्ञानी सागरदत्त मुनि भी मरकर उसी स्थान पर देव हो गए हैं. कुछ समय तक राज्यसुख का अनुभव कर मनोरथादित्य नामक पुत्र का राज्याभिषेक कर पृथ्वीसार भी वहीं विमान में अमृत भोजी देव बन गया.
माधव जी हिंदी साहित्य के भंडार को अपनी तपस्या से निरंतर अधिक समृद्ध बना रहे हैं । साधुवाद !
ये तो बहुत मेहनत का काम है । मैं माधव हाड़ा से परिचित नहीं था । ऐसी वृहत पोथियों पर आज के दौर में भी काम हो रहा है यह जानकर आश्चर्य चकित हूं । मुझे ये लगता था कि राहुल सांकृत्यायन के बाद अब कोई और उनके जैसा नहीं है । ये आपकी एक नई खोज है ।
प्राचीन समाज की वर्गीय संरचना एवं जीवन मूल्यों को कथाओं से जानना एक दिलचस्प अनुभव है।ये कथाएँ
हमारे साहित्य की धरोहर हैं।माधव जी को साधुवाद !
Dr माधव hada जैन कथाओं पर अच्छा कार्य कर रहे है. साधुवाद