पांच
जंबू द्वीप में दक्षिण में कुवलयचन्द अपनी आयु पूर्ण कर काकंदपुरी नगर में राजा कांचनरथ की प्रेमिका इन्दीवरलोचना के कोख से जन्म लेकर मणिरथकुमार पुत्र हुआ. युवा होकर वह पाप कर्म में रत रहने लगा. महावीर गौतमादि गणधरों के साथ काकंदपुरी आए. कांचनरथ ने उनसे मणिरथकुमार के भव्य और अभव्य के संबंध में पूछा, तो उन्होंने कहा कि- “वह भव्य है और अन्तिम शरीर वाला है.” राजा ने निवेदन किया कि- “कब फिर उस को धर्म में ज्ञान होगा?” महावीर ने कहा कि- “भद्र! तुम्हारा पुत्र प्रबुद्ध है और संवेग प्राप्त किया हुआ यहीं प्रस्थित हो गया है.” राजा बोला कि –“नाथ! किस वृत्तांत से उसको वैराग्य हुआ? महावीर ने वृत्तांत बताया. उन्होंने कहा कि यहाँ से एक योजन दूर कौशंब नामक वन है. वहाँ बहुत सारे हिरण, शुकर और शशक के झुंड रहते हैं. यह जानकर कुमार शिकार के लिए वहाँ आया. वहाँ भ्रमण करते हुए उसने एक प्रदेश में हिरणों का दल देखकर धनुष पर रखकर ज्यों ही बाण संधान के लिए तैयार किया, त्यों ही सारा ही हिरण समुदाय वहाँ से पलायन कर गया. केवल एकाकी एक हिरणी कुमार को बहुत समय तक देखकर लंबी साँसें लेती हुई, निश्चल नेत्रों से देखती रही और फिर उसके पास आकर खड़ी हो गयी. उसको देखकर कुमार का हृदय भर आया और उसने अपने धनुष-बाण वहीं फेंक दिए. हिरणी के साथ अपने जन्मांतर के संबंध को जानने के लिए वह महावीर के पास आया. भगवान को नमन करके उसने प्रश्न किया- “भगवान! मुझ से प्रेम करने वाली यह हिरणी कौन है?” तब भगवान ने समस्त प्राणियों को ज्ञान कराने के लिए उन दोनों के पूर्वजन्म का वृत्तांत बताना प्रारम्भ किया.
1.
यहीं भरतवर्ष में साकेतपुर है. वहाँ का राजा मदन था और उसके पुत्र का नाम अनंगकुमार था. वहीं वैश्रमण का प्रियंकर नाम का सौम्य और श्रद्धालु पुत्र भी रहता था. वैश्रमण ने प्रियमित्र की पुत्री सुन्दरी के साथ अपने पुत्र का विवाह करा दिया. एक बार प्रियंकर कमज़ोर और अस्वस्थ हो गया. सुन्दरी इससे इतनी व्यथित हुई कि न खाती थी, न नहाती थी, न बोलती थी और न घर का काम करती थी. केवल पति की आसन्न मृत्यु से दुःखी रहती थी. अंततः प्रियंकर की मृत्यु हो गयी. सुंदरी ने उसके शव का संस्कार नहीं करने दिया. परिजनों नें तांत्रिकों को बुलाया, लेकिन उनसे भी कोई लाभ नहीं हुआ. दूसरे दिन वह शरीर फूल गया और और उससे दुर्गंध आने लगी. सुंदरी उस शव को सिर पर रखकर श्मशान में आ गयी. वहाँ वह जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में रहती और भिक्षा लाकर जो उसमें अच्छा होता, उसको शव के आगे रखकर कहती कि- “हे प्रियतम! इसमें जो अधिक अच्छा हो, उसे आप ग्रहण कर लें, पीछे का बचा हुआ, जो ख़राब हो, उसे मुझे दे दें.”
सुंदरी का पिता प्रियमित्र पुत्री की यह अवस्था देखकर बहुत दुःखी हुआ. उसने राजा से निवेदन किया कि मेरी पुत्री को जो कोई ठीक कर देगा, मैं उसको उसका वांछित दूँगा. राजा ने नगर में घोषणा करवा दी. घोषणा को राजकुमार अनंगकुमार ने सुना और उसने विचार किया कि– “अरे! बेचारी प्रेम पिशाच से ग्रस्त हुई है. मैं इसको बुद्धि से प्रतिबुद्ध कर देता हूँ.” यह विचार कर उसने राजा को कहा कि- “पिताजी! यदि आप आदेश दें, तो मैं इस वणिक पुत्री को ठीक कर दूँ.” राजा ने अपनी सहमति दे दी. राजपुत्र ने किसी नारी का शव मँगवा कर सुंदरी के पास छोड़ दिया. राजकुमार भी शव के साथ वही करता, जो सुंदरी करती थी. एक दिन उसने सुंदरी से कहा कि कहा कि- “यह मेरी प्रिया कुछ अस्वस्थ हो गयी, लोग कहते हैं कि यह मर गयी है और संस्कार करने योग्य है. मैंने सोचा कि लोग झूठ बोलते हैं. मैंने वहाँ से इसे श्मशान में लाकर छोड़ दिया.” सुंदरी ने उससे पूछा कि- “तुम्हारी प्रिया का क्या नाम है”, तो उसने बताया कि- “मेरी प्रिया का नाम मायादेवी है.” दोनों जब कहीं जाते, तो एक-दूसरे को अपने प्रिय का ध्यान रखने का कहकर जाते. एक दिन कुमार ने सुंदरी से कहा कि- “बहन! तुम्हारे पति ने मेरी प्रिया को कुछ कहा था, वह मुझे ठीक समझ में नहीं आया.” सुंदरी इससे क्षुब्ध हुई. उसने अपने मृत पति संबोधित करते हुए कहा कि- “तुम्हारे लिए मैंने कुल, घर, पिता, माता आदि सभी को त्याग दिया और तुम फिर भी ऐसे हो कि अन्य स्त्री को चाहते हो.” एक दिन कुमार ने दोनों शवों को वहाँ से गायब कर दिया और सुंदरी से कहा कि- “तुम्हारा प्रियतम मेरी प्रिया को भगा ले गया है.” सुंदरी इससे बहुत दुःखी हुई. कुमार ने उसे समझाया कि सदा एक ही जीव संसार में भ्रमण कर रहा है, प्रिय कौन है और प्रिया कौन है? सारा संसार ही नाशवान् है. सुंदरी अपने घर चली गयी. उसके पिता ने उत्सव रखा. सर्वत्र नगर में यह फैल गया कि सुन्दरी को कुमार ने प्रबोधित किया है. भगवान ने कहा कि- “हे मणिरथकुमार! जो सुन्दरी जीव है, वह तुम हो. सम्यक्त्व के लिए यत्न से वह मानभट फिर पद्मसार, उससे कुवलयचन्द और उससे वैडूर्य नामक देव हुआ. उससे तुम मणिरथकुमार हुए.”
2.
यह कहकर भगवान श्रावस्तीपुरी को ओर चले गए. देवों ने वहाँ उनका समवसरण किया, जिसमें गौतमादि गण धर आदि यथास्थान बैठे. कोई नर देवकुमार सभा में प्रविष्ट हुआ और अभिवंदना करके बोला कि- “नाथ! जो आज मैंने रात्रि में देखा, सुना और महसूस किया, आप बताइये, वह क्या इन्द्रजाल है, क्या वह स्प्न है या सत्य है?” भगवान ने कहा- “जो तुमने देखा, वह सत्य है.” यह सुनकर वह उसी क्षण तेज़ कदमों से समवसरण से निकल गया. तब गौतम ने पूछा- “वह कौन था- हमारी जानने की इच्छा है?” तब तीर्थंकर ने कहा कि- “यहाँ से कुछ दूर अरुणाभ नाम का नगर है, जहाँ का राजा रत्नगजेन्द्र है और उसके पुत्र का नाम कामगजेन्द्र है. उसने एक बार अपनी प्रिया प्रियंगमती के साथ किसी वणिक के घर पर कन्दुक क्रीडा करती हुई एक कन्या को देखा. उसका मन उस पर आ गया. प्रियंगमती ने याचना करके अपने पति का परिणय उसके साथ करा दिया. पति ने प्रसन्न हो कर उससे कहा कि– “ठीक हुआ, तुमने उस समय मेरे मनोभाव को देख लिया. अब मैं तुमको तुम को क्या वर दूँ?” प्रियंगमती ने उससे कहा कि- “जो तुम देखते-सुनते और और अनुभव करते हो, वह सब मुझे बताना.” कुमार ने यह बात मान ली. एक बार एक चित्रकार ने कुमार को एक चित्र भेंट किया. उसमें चित्रित एक कन्या को देखकर कुमार ने चित्रकार से पूछा कि- “यह चित्र किसी की प्रतिकृति है या तुमने इसकी रचना की है?’ उससे निवेदन किया कि- “यह उज्ज्यिनी राजा की पुत्री का चित्र है.” कुमार ने उस चित्रपट को प्रियंगमती को दिखाकर कहा कि- “यदि यह कन्या मिल हो जाए, तो अच्छा है.” उसने कहा– “अपना रूप चित्रपट में लिखवाकर इसी को लौटाकर भेज देना, जिससे अवन्तिपति उसे देखकर स्वयं ही बेटी को तुम्हे दे देंगे.” चित्रकार ने कामगजेन्द्र से समन्वित चित्रपट को अवन्तिपति को दिखाया, उसने अपनी पुत्री को दिखाया, तो राजकुमारी इस कुमार के रूप पर आसक्त हो गयी. राजा ने सोचा इसके लिए यही वर उपयुक्त है और उसने कुमार को कन्या दे दी.
पिता की आज्ञा लेकर कुमार विवाह के लिए प्रियंगमती के साथ स्कन्धकार से चल दिया. सूर्यास्त हो जाने पर रात्रि में कुमार ने मार्ह कहीं शयन किया. रात्रि के द्वितीय प्रहर में किसी कोमल हथेली के स्पर्श के बाद कुमार ने विचार किया कि- “ऐसा स्पर्श तो पहले अनुभूत नहीं हुआ था, यह तो मनुष्य का स्पर्श नहीं है.” सोचते हुए कुमार ने अपने सम्मुख दो कन्याओं को देख कर कहा कि– “आप दोनों मानुषी हैं अथवा देवी? उन दोनों में कहा कि– “हम दोनों विद्याधरियाँ आपके पास किसी प्रयोजन से आयी हैं. आप हमारी प्रार्थना को व्यर्थ मत कर देना.” उन दोनों ने कहा कि- “देव! सुनिये. कुबेर कि दिशा में वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में एक आनन्द मन्दिर नाम का नगर है. वहाँ के राजा पृथ्वीनेता, उसकी मेखला नाम की पत्नी है और उनकी बिन्दुमती नाम की कन्या है और वह सुंदर पुरुषों से द्वेष रखने वाली है. वह वय, वैभव और कलाओं से पूर्ण पुरुषों को भी नहीं चाहती.” गुरुजनों ने उससे कहा कि– “बेटी! स्वयंवर कर लो.” यह सुनकर उसने हमसे कहा कि– “सखियों! यदि तुम कहती हो, तो मैं दक्षिण श्रेणी में तुम दोनों के साथ भ्रमण करूँ.” हम तैयार हो गयीं. हम गगन में उड़कर पर्वतीय कानन में उतरे. वहाँ क्रीड़ा करती हुई हमने एक किन्नर युगल को कामगजेन्द्र का गुणगान करते हुए सुना. प्रिय सखी ने कहा कि इससे आगे होकर यह पूछो कि- “यह कामगजेन्द्र कौन है और कहाँ का है?” तब उस किन्नरी ने निवेदन किया कि- “हे विद्याधर बाले! वह कामगजेन्द्र कभी न देखा गया है और न सुना गया है.”
कुमारी विरह संतप्त रहने लगी. उसका दुःख सखियों से देखा नहीं गया. उन्होंने उसको कहा कि- “हम दोनों उस कुमार को लाकर तेरी व्याधि को दूर कर देंगी.” उस पर्वत की गुफा की शिलातल पर कमल के पत्तों से बनायी गयी चटाई पर उसे विषाद करती हुई छोड़कर हम वहाँ से चल दीं. तुम कहाँ हो, यह जानने के लिए हमने भगवती की आराधना की, तो उसने बताया कि- “यह कुमार उज्जयिनी की ओर जाता हुआ वन में शिविर बनाकर ठहरा हुआ है.” यह मानकर हम दोनों आपके पास आयी हैं. हे देव! अब प्रिय सखी का जीवन आपके अधीन है, अतः विलंब मत कीजिये, शीघ्र उठिये.” कुमार ने कहा कि वचन के अनुसार मुझे पहले प्रियंगमती को यह बताना पड़ेगा. कुमार ने प्रियंगमती से कहा कि– “प्रिय! इस समय मैं जाता हूँ.” उसने कहा कि- “जो देव को अच्छा लगे, वही करो.” उसने विद्याधरियों को कहा कि- “मेरे पति को मैंने आप दोनों के सौंपा है, इसलिए शीघ्र इसको यहाँ लाकर छोड़ देना.” विद्याधारियाँ कुमार को लेकर आकाश में उड़ गयीं. प्रियंगमती ने सोचा कि- “इसमें कोई माया है या स्वप्र है, इन दोनों के द्वारा ले जाए गए, मेरे पति वापस आएँगे या नहीं?” वह ऐसा विचार कर ही रही थी कि रात्रि के अंतिम प्रहर में कुमार का विमान आ गया.
विमान से उतर कर कामगजेन्द्र शय्या पर बैठ गया. वे दोनों विद्याधरियाँ बोलीं कि– “हे कल्याणी! आपने अपने पति को हमको सौंपा था, हमने उसको वापस लाकर आपको सौंप दिया है.” यह कहकर वे उड़कर चली गयीं. प्रियंगमती ने कामगजेंद्र से पूछा कि- “हे देव! आप कहाँ गये थे और कहाँ से आए हैं?” कुमार ने बताया कि यहाँ से विमान में आरूढ़ होकर मैं आकाश से वैताढ्य पर्वत की गुफा में उतरा. मैंने वहाँ नलिनी के पत्तों की चटाई पर विद्याधरकुमारी को सोया हुआ देखा. उन दोनों सखियों ने उसके अंगों से नलिनी के पत्ते हटा दिये. ज्यों ही उन्होंने उसको अच्छी तरह देखा, त्यों ही उसके अंग-उपांग शिथिल हो गये और वह मर गयी. मैंने कहा कि- “हे देव! आपने यह उचित नहीं किया कि मेरे विरह की अग्रि से संतप्त युवती को मार दिया.” उसकी मृत्यु से दुःखी उसकी दोनों सखियाँ चंदन की चिता जलाकर उसमें प्रवेश कर गयीं. स्त्री वध के कलंक के साथ जीने का क्या लाभ? मैं भी चिता में अपना जीवन समात कर देता हूँ- मैं यह सोच ही रहा था कि एक विद्याधरी ने कहा कि- “देखो, यह कैसा निर्दय कुमार है, यह बेचारी मर गयी और यह फिर भी जी रहा है. फिर भी, किसी सत्पुरुष को स्त्री के मर जाने पर आत्महत्या नहीं करनी चाहिए.” यह सुनकर मैंने सोचा- “इसने ठीक कहा है. मैं बावड़ी में उतरकर इन तीनों को जलांजलि दे देता हूँ.” यह सोचकर मैंने उस बावड़ी में उतरकर जलांजलि दी. ज्यों ही मैं उसमें से बाहर निकला, मैंने अपूर्व देखा. वहाँ आकाश को छूने वाले वृक्ष, महाप्रमाण ओषधियाँ, उन्नत अंग वाले अश्व, अपरीमित मनुष्य और विपुलकाय पक्षी थे.
यह द्वीप सर्वथा अलग है- मैंने सोचा ही था कि वह बावड़ी विमान बन गयी. मैंने वहाँ एक युगल को देखकर पूछा कि “यह द्वीप कोन-सा है?’ उसने मुझे चींटी के बच्चे के समान देखकर विस्मित भाव कहा कि- “यह अपूर्व विदेह महाक्षेत्र है.” उसने मुझे कृमि की तरह कौतुक से हाथ में उठा लिया और फिर श्रीसीमन्धर स्वामी के समवसरण के अन्दर छोड़ दिया. तब मैनें सिंहासनासीन भगवान को प्रणाम किया. वहाँ किसी राजा ने उनसे पूछा कि यह कौन है, तो भगवान बताना आरंभ किया कि- “जंबू द्वीप में भरतक्षेत्र में मध्यम खंड में अरुणाभ नाम का एक नगर है, वहाँ रत्नगजेन्द्र नामक राजा है और यह उनका पु़त्र कुमार कामगजेन्द्र है. ये दोनों देव इसको स्त्री लंपट मानकर और स्त्री का वेश बनाकर अपहृत करके वैताढ्य पर्वत की कन्दरा में ले आए. इन दोनों ने ही इसको यहाँ लाकर मेरे पास सम्यक्त्व लाभ के लिए छोड़ दिया है.” राजा ने पूछा कि– “भगवान! इन दोनों का इसको लाने का क्या कारण है?”
भगवान ने कहा- “पाँच जन ने पूर्वजन्म में संकेत किया था कि परस्पर सम्यक्त्व देना है. पहले मोहदत्त, उससे पृथ्वीसार और उससे फिर कामगजेन्द्र उत्पन्न हुआ.” राजा ने पुनः पूछा कि- “यह लघु कैसे है? और हम इससे बड़े कैसे हैं?” तब भगवान बोले कि- “यह अपूर्व महाविदेह क्षेत्र है, यहाँ परम शोभन काल है और यह शाश्वत है, यहाँ देहधारी महादेही होते हैं, जबकि वहाँ भरतक्षेत्र है, काल शोभन नहीं होता, वह अशाश्वत होता है. अतः लघु जन होते हैं.” फिर राजा ने पूछा कि- “ये दोनों देव कौन हैं?” तो भगवान ने कहा कि- “जिन पाँचों ने संकेत किया था, उनमें से ये दो देव हैं.” मैंने ज्योंही अपना सिर ऊँचा किया, तो मैं यहाँ अपने आपको देख रहा हूँ. यह शय्या है और आप हैं. प्रियंगमती ने उससे कहा- “आप जो बता रहे हैं, यह सच ही है, पर मैं कुछ निवेदन करती हूँ. यहाँ सूर्योदय हो गया, आपने बहुत बड़ा वृत्तांत बताया, परन्तु यह समय तो बहुत अल्प है.” कामगजेन्द्र ने कहा कि भगवान महावीर इस प्रदेश में समवसरण किए हुए हैं, तो मैं उन्हीं को जाकर पूछता हूँ कि यह वृत्तांत सत्य है अथवा असत्य? यदि भगवान आदेश दे देंगे, तो सत्य है, अन्यथा माया है”, यह कहता हुआ कामगजेन्द्र ने वहाँ से प्रस्थान किया. प्रियंगमती ने पूछा कि- “यह सत्य हुआ, तो क्या कर्त्तव्य है?”
उसने कहा कि- “सत्य होने पर व्रत ग्रहण करना है.” प्रियंगमती ने कहा कि- “यदि आप देवव्रत ग्रहण करेंगे, तो मैं भी ग्रहण करूँगी.” कुमार यहाँ मेरे समवसरण में पहुँचा. उसने प्रणाम करके मुझसे पूछा कि– “क्या यह इंद्रजाल है अथवा सत्य है?” मैंने कहा कि- “यह सत्य है.” यह सुनकर उत्पन्न वैराग्य वाला वह व्यक्ति सैन्य शिविर में गया. गौतम ने पूछा कि- “भगवान! यहाँ से जाने के बाद उसने क्या किया और अभी क्या कर रहा है और कहाँ है.” भगवान बोले कि- “यहाँ से जाकर उसने देवी के सम्मुख ‘यह सत्य है’ ऐसा निवेदन किया. अब वह माता-पिता और अपने पुत्र दिग्गजेन्द्र को पूछकर इस समय समवसरण के बाहर आ गया है. भगवान के कहते ही वह शीघ्र भीतर आ गया. कामगजेंद्र ने अपनी प्रिया और परिजनों के साथ दीक्षा ली. कामगजेंद्र ने एक दिन भगवान से पूछा कि- “वे पाँच जन कहाँ हैं?” भगवान ने कहा कि- ‘दोनों देव हैं, वे भी अल्पायु हैं, बाकी सभी मनुष्य लोक में हैं.” भगवान ने उसे मणिरथकुमार दिखाया और बताया कि यह मानभट जीव है. वहाँ भव में वह मोहदत्त था, उसका जीव कामगजेन्द्र हुआ. यह लोभदेव जीव है, वह भी मर्त्त्यलोक में अवतीर्ण है, उसका वैरिगुप्त नाम है. सभी की इस भव में सिद्धि हो गयी.”
3.
यह कहकर भगवान महावीर उठ खड़े हुए. दूसरे दिन महावीर ने सभा में जीव-अजीव, पुण्य-पाप आदि का आख्यान किया. एक राजपुत्र ने समवसरण प्रवेश कर भगवान को प्रणाम करके कहा कि- “भगवान! क्या वह सत्य है, जो दिव्य बन्दी ने वहाँ मुझे कहा था. वह मंगल है अथवा अमंगल है?” भगवान के कहा कि– “भद्र! वह सब सत्य है.” तब गौतम बोले- “हे नाथ! यह पुरुष कौन था? इसने क्या पूछा था?” तब भगवान ने अनेक लोगों के प्रतिबोध के लिए कहा कि जंबू द्वीप में भरतखंड के मध्यमखंड में ऋषभपुर नाम का एक नगर है. चन्द्रगुप्त वहाँ का राजा और वैरिगुप्त उसका पुत्र था. एक दिन जब वह सभा में बैठा हुआ था, तो प्रतिहारी ने निवेदन किया कि- “हे देव! नगर के प्रधान जन आपके दर्शन चाहते हैं.” अनुमति के बाद प्रधान जन ने सभा में प्रवेश करके राजा से निवेदन किया कि- “राजा तो दुर्बलों को बल देता है, लेकिन हम असहाय हैं, नगर में चोरियाँ हो रही हैं. लगता है जैसे पूरे नगर की ही चोरी हो गयी है.” राजा यह सुनकर चिंतित हुआ. राजा के पुत्र वैरिगुप्त ने निवेदन किया कि- “देव! यदि मैं सात रात्रि में उस चोर को आपके पास नहीं लाऊँ, तो अग्रि में प्रवेश कर लूँगा.” विचार करते हुए वैरिगुप्त के छः दिन व्यतीत हो गये और फिर भी उसको वह चोर नहीं मिला. तब सातवें दिन वैरिगुप्त ने सोचा कि- “मैंने नगर में सर्वत्र ढूँढ़ लिया है, प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं होने से मृत्यु का वरण करना पड़ेगा, तो आज रात्रि में श्मशान में माँस देता हूँ और किसी वेताल को साधकर चोर का पता पूछता हूँ.” उसने श्मशान जाकर छुरी से अपना माँस काटकार वेताल को कहा कि वह यह ले ले और उसे चोर का पता बता दे. वेताल बोला कि- “यह माँस तो बिना हड्डी है, इसलिए मुझे रुचिकर नहीं है.”
यह सुनकर कुमार ने दाहिनी जाँघ काटकर चिताग्रि में पकाकर वैताल को अर्पित कर दी. फिर उसने कहा- “हे भद्र! इससे अब मैं तृप्त हुआ, पर मैं बहुत ही प्यासा हूँ, तो तुम्हारा रक्त पीना चाहता हूँ.” कुमार ने कहा कि-“पी लो.” यह कहते हुए कुमार ने ज्यों ही नस काटी, त्यों ही आकाश से घोषणा हुई कि- “मैं सन्तुष्ट हूँ. जो कुछ माँगते हो, मैं वही देता हूँ.” तब कुमार ने कहा कि- “यदि तुम सन्तुष्ट हो, तो हे वेताल! उस चोर का स्थान बता दो.” वेताल ने कहा कि- “श्मशान के भीतर स्थित वट वृक्ष में उसका आवास है और उस वट का छिद्र ही उसके आवास का प्रवेश द्वार है.”
कुमार उस वट वृक्ष के पास जाकर उसके विवर में प्रविष्ट हुआ. भीतर जाकर उसने एक मणिमय आवास देखा, जिसमें कई सुंदर युवतियाँ थीं. उसने एक युवती से पूछा कि- “यह किसका आवास है, तुम कौन हो और वह चोर कहाँ है?” युवती ने उसको बताया कि वह और उसके जैसी कई स्त्रियों का अपहरण करके विद्याधर ने उनको यहाँ बंदी बना रखा है. कुमार ने उससे पूछा कि- “वह अधम विद्याधर कहाँ है और वह मेरे द्वारा कैसे मारा जाए?” युवती ने उसे बताया कि- “विद्यासिद्ध चोर के पास खेटक और सिद्धकृपाण, दो रत्न हैं, उन्हें ले लो, तो उसकी मृत्य संभव है.” राजपुत्र ने कहा कि- “वह विद्यासिद्ध कैसे है?” उसने कहा कि- “वह सूर्य के अस्त हो जाने पर बहुत अँधेरी रात में स्वेच्छा से पभ्रमण करता है और स्त्री आदि जो भी उसे मिलते हैं, उन सबको यहाँ ले आता है.” कुमार ने कहा कि- “तो तुम इस विद्यासिद्ध का सिद्धकृपाण और खेटक ले आओ.” युवती ने दोनों रत्न लाकर कुमार को दे दिए. कुमार ने उससे फिर पूछा कि- “वह दुष्ट विद्यासिद्ध अभी कहाँ है, तो युवती ने उसे बताया कि जिस मार्ग से तुम आए हो, उसी विवर मार्ग से वह कुछ समय बाद भीतर आएगा.”
कुमार हाथ में कृपाण लेकर द्वार पर बैठ गया. कुछ समय बाद उसने विद्यासिद्ध के सिर को विवर में प्रविष्ट होता हुए देखा. कुमार ने सोचा कि इसकी शक्ति देखना चाहिए. उसने कहा कि- “यदि तुम विद्यासिद्ध हो, तो नीति मार्ग पर चलो, तुम जो अन्याय करते हो, वह उचित नहीं है. तुम युद्ध करने के लिए तैयार हो जाओ.” विद्यासिद्ध ने कहा कि- “तुमको यमराज के मुख के सामने इस बिल में किसने फेंक दिया है?” कुमार ने उस पर खड्ग से प्रहार किया. उनमें जंगली भैंसों की भांति महायुद्ध शुरू हो गया. राजपुत्र ने जल्दी से उसका सिर काट दिया. राजकुमारी ने कुमार को कहा कि- “इसके मुख के भीतर एक गुटिका है, तुम उसको ले लो.” यह सुनकर कुमार ने उसके चीरे हुए मुख से गुटिका ली और धोकर इसको तत्क्षण अपने मुख में डाल दिया. विद्यासिद्ध को मारकर कुमार पाताल भुवन में युवतियों के साथ आनंद से रहने लग गया. उसे वहाँ रहते हुए एक दिन की तरह बारह वर्ष बीत गए. एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में उसे किसी बंदी (गायक) का स्वर सुनाई पड़ा कि- “हे नरेश्वर! प्रभात का समय है, निद्रा मोह छोड़ दीजिए. स्त्री सान्निध्य छोड़कर धर्म के मार्ग पर चलिए.” वैराग्य उत्पन्न करने वाले इन वचनों को सुनकर कुमार आश्चर्य में पड़ गया. एक दिन दिव्य बंदी प्रत्यक्ष हुआ और उसने कहा कि- “यदि तुम्हारे मन में कोई जिज्ञासा है, तो इस पाताल गृह से निकलकर पूछना. तुम पहले शीघ्र यहाँ से निकल जाओ.” कुमार ने कहा कि- “किन्तु इस पाताल में वास करते हुए मुझको कितना समय बीत गया? यहाँ से मैं किस मार्ग से निकलूँ? उसने कहा कि- “इस पाताल में तुम बारह वर्ष तक रहे हो. तुम इस विवर के द्वार से शीघ्र निकल जाओ.”
कुमार तत्क्षण उठकर उस विवर द्वार से सभी स्त्रियों सहित बाहर निकल गया. गौतम ने निवेदन किया वह निकल कर कहाँ गया. भगवान ने कहा कि- “वह वह सभी स्त्रियों को पाताल से निकाल कर इस समय समवसरण के तृतीय तौरण के निकट यहाँ आ पहुँचा है.” भगवान ने जब तक यह कहा, तब तक कुमार ने स्त्री समूह के साथ भगवान की प्रदक्षिणा करके प्रणाम कर पूछा कि “भगवन्! किस कारण कौन यह दिव्य स्तुति से प्रतिबोध कराता था? वह इस समय कहाँ है?” भगवान ने कहा कि- “मायादित्य और चण्डसोम ने प्रभातकालीन मंगलपाठ के बहाने तुमको प्रतिबोधित किया.” उसे सुनकर कुमार ने कहा कि- “भगवन्! अब क्यों विलम्ब करते हैं? मुझे भी दीक्षा देने की कृपा कीजिए.” तब भगवान ने युवती जन सहित वैरिगुप्त को दीक्षा दी.
4.
भगवान हस्तिनापुर पहुँच गए. एक ब्राह्मण पुत्र ने समवसरण में तीन बार प्रदक्षिणा कर भगवान को प्रणाम कर पूछा कि- “भगवन्! कौन यह पक्षी मनुष्यवाणी में बोल रहा है और जो उसने कहा वह युक्त है अथवा अयुक्त?” भगवान बोले कि- “भद्र! वह पक्षी वन में दिव्य है, उसने जो कहा वह युक्त ही है.” यह सुनकर वह समवसरण से निकल गया. गौतम ने भगवान से पूछा कि- “इसने क्या पूछा और यह कौन है.” तब भगवान बताना शुरू किया. सरलपुर ब्राह्मणों का स्थान है. वहाँ एक यज्ञदेव नाम का सूत्रकण्ठ रहता था, जिसका पुत्र स्वयंभुदेव था. यज्ञदेव परलोक सिधार गया. माता ने स्वयंभुदेव से कहा कि- “तुम्हारे पिताजी नहीं रहे, अतः कुटुम्ब का पोषण अब तुम्हारे ही अधीन है.” यह सुनकर स्वयंभुदेव माता के चरणों में नमस्कार कर बोला कि- “माताजी! मन को खिन्न मत करो. मैं धन उपार्जित करके ही घर में प्रवेश करूँगा.” यह सोचते हुए उसने एक तमाल के वृक्ष पर चढ़कर चिन्तन किया कि– “इस जन्म को धिक्कार है. इतने दिनों तक घूमते हुए मेरे हाथ में एक कोड़ी भी नहीं आयी. घर में कैसे प्रवेश करूँ?” वह इस तरह सोच रहा था, तभी वहाँ दो जन आए और उन्होनें कुदाली से ज़मीन खोदकर पहचान के साथ उसमें एक टोकरी रखकर कहा कि- “यहाँ जो भी कोई भूत, पिशाच या और कोई भी हो, वह न्यास की गयी इस निधि की रक्षा करे.”
पेड़ से उतरकर टोकरी में रखे हुए पाँच रत्न देखकर स्वयंभुदेव रोमांचित हुआ. उसने विचार किया कि इनको लेकर अब अपने घर जाना चाहिए. रत्न लेकर स्वयंभुदेव एक जंगल में पहुँचा. सूर्यास्त हो जाने के बाद वह एक वटवृक्ष पर चढ़कर उस पर बैठ गया. विविध वर्णों और उन्नत शरीर वाले पक्षी भी उसी वट पर आकर बैठ गये. उसने देखा कि एक पक्षी ने पक्षी समुदाय के मध्य में बैठे हुए एक वृद्ध पक्षी को प्रणाम करके कहा कि- “तात! आपने मुझे जन्म दिया, आपने मुझे बड़ा किया, मैं तरुण बन गया. आज मेरा जीवन सफल हो गया. आज आपको मैं गरुड़ से भी बड़ा मानता हूँ.” वृद्ध पक्षी ने कहा कि- “तुमने जो कुछ भी देखा, सुना और अनुभूत किया- वह सब बताओ.” उसने कहा कि- “तात! सुनिये, आज मैंने आहार ढूँढ़ते हुए गगन में भ्रमण किया, तो हस्तिनापुर में तीन प्राकारों के बीच मनुष्यलोक में पक्षियों के बीच बैठे हुए भगवान को देखा. मैंने वहाँ पहुँच कर भगवान से पूछा कि- “हे नाथ! हमारे जैसे पक्षी मुक्ति के लिए क्या करें?” तब भगवान ने मेरा अभिप्राय जानकर कहा कि- “हे देवानुप्रिय! तुम संज्ञावान पंचेन्द्रियों वाले तिर्यग्योनि को भी सम्यक्त्व प्राप्त होता है.” यह कहकर वे अन्यत्र विहार को चले गए. उसने वृद्ध पक्षी से कहा कि- “मुझमें वैराग्य भाव आ गया है. मैं अब आपके पास आया हूँ. अब कृपा करके मुझे विदा कीजिए. आप मेरा सारा अपराध क्षमा कर दें, जिससे स्वार्थपर हो जाऊँ.” वह पक्षी स्नेह की शृंखलाओं को तोड़कर करके माता, पत्नी, शिशुओं, बड़े-छोटे भाइयों-बहनों और मित्रों को पूछकर आकाश में उड़ गया.
रात्रि व्यतीत होने पर सारा ही पक्षी वृन्द वटवृक्ष से प्रयाण कर गया. उस पक्षी वृन्द को उड़ा हुआ देखकर स्वयंभुदेव भी विस्मित होकर विचार करने लगा कि- “अरे, महान् आश्चर्य है कि इस वन में पक्षी भी मनुष्यों की भाषा बोलने वाले और धर्मपरायण हैं. यदि पक्षी भी धर्ममार्ग का अनुसरण करते हैं, तो दूसरों के रत्न लेकर मैं कुटुम्ब का पोषण कैसे करूँ? तो इस समय मेरा यही कर्त्तव्य है कि जिसके पास उस पक्षी ने धर्मश्रवण किया था मै उसी से जाकर पूछूँ कि- “भगवन् वह पक्षी कोन है?” यह निर्णय कर वह वटवृक्ष से उतर कर इस हस्तिनापुर में आ गया. हे गौतम! मेरे समवसरण में वह प्रविष्ट हुआ है, इसने मुझे पूछा है, वह पक्षी कौन था? मैंने कहा कि यह दिव्य पक्षी है. यह सुनकर वह उत्पन्न वैराग्य वह पक्षी यहाँ से चला गया. कामभोग से निवृत्त होने के बाद वह रत्नों को उनके स्वामियों को सौंप कर मेरे ही पास अभी आ रहा है.” महावीर यह बता ही रहे थे कि गौतमादि के सम्मुख स्वयंभुदेव आ पहुँचा और भगवान को प्रणाम करके बोला कि- “देव! वन में पक्षी के वचन सुनकर मैं प्रबुद्ध हो गया हूँ, मुझको दीक्षा दे दीजिए.” तब भगवान ने स्वयंभुदेव को दीक्षित कर दिया. भगवान विहार के लिए मगध मंडल में राजगृह चले गए.
5.
एक बार समवसरण में श्रेणिक भूपति के अष्टवर्षीय पुत्र महारथकुमार ने स्वामी को नमन करके निवेदन किया कि- “भगवान! आज मैंने स्वप्न में सुवर्ण मिश्रित कालायस (कालिमा) देखा है. बाद में अग्नि की ज्वाला से तपा हुआ वह गिरिसार (लोहा) क्षीण हो गया, केवल सुवर्ण ही रहा, उसका विशेष फल क्या है?” महावीर ने उसे बताया कि– “भद्र! यह स्वप्न शुभ है. प्रान्त में सम्यक्त्व, चरित्र, कैवल्य ज्ञान और समृद्धि के संगम को सूचित करता है. कर्म शिलासार के समान और जीव सुवर्ण के समान है. तुमने ध्यान से अपनी आत्मा को निर्मल कर लिया है और तुम चरम देह बन गए हो. राजगृह में कुवलयमाला जीव देव से च्युत होकर स्वर्गत हो गया है. उसको मायादित्य आदि देव ने सब कह दिया. वे सभी प्रव्रजित हो गए. यह सुनकर महारथकुमार ने कहा कि- “आप क्यों विलम्ब करते हैं, अब मुझे भी दीक्षा दे दीजिए.” ऐसा कहने पर उस भगवान वर्धमान ने महारथकुमार को दीक्षित कर दिया.
वे पाँचों- लोभदेव, मानभट, मायादित्य, चंडसोम और मोहदत्त यह जानते हैं कि पूर्व में किए हुए संकेत से उनको सम्यक्त्व का लाभ मिला है. भगवान वर्धमान के साथ विचरण करते हुए उनको बहुत वर्ष व्यतीत हो गये. भगवान ने मणिरथकुमार आदि साधुओं से कहा कि– “आपकी आयु थोड़ी है.” यह जानकर उन पाँचों ही यतियों ने अन्तिम समय में धर्म का आचरण करते हुए समाधि द्वारा आराधना की और कैवल्य प्राप्त किया. वे पाँचों मुनि इस तरह त्यक्त देह और मुक्तात्मा हो गए.
माधव हाड़ा (जन्म: मई 9, 1958) प्रकाशित पुस्तकें: सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया (2012), मीडिया, साहित्य और संस्कृति (2006), कविता का पूरा दृश्य (1992), तनी हुई रस्सी पर (1987), लय (आधुनिक हिन्दी कविताओं का सम्पादन, 1996). राजस्थान साहित्य अकादमी के लिए नन्द चतुर्वेदी, ऋतुराज, नन्दकिशोर आचार्य, मणि मधुकर आदि कवियों पर विनिबन्ध आदि मो. 9414325302/ईमेल: madhavhada@gmail.com |
माधव जी हिंदी साहित्य के भंडार को अपनी तपस्या से निरंतर अधिक समृद्ध बना रहे हैं । साधुवाद !
ये तो बहुत मेहनत का काम है । मैं माधव हाड़ा से परिचित नहीं था । ऐसी वृहत पोथियों पर आज के दौर में भी काम हो रहा है यह जानकर आश्चर्य चकित हूं । मुझे ये लगता था कि राहुल सांकृत्यायन के बाद अब कोई और उनके जैसा नहीं है । ये आपकी एक नई खोज है ।
प्राचीन समाज की वर्गीय संरचना एवं जीवन मूल्यों को कथाओं से जानना एक दिलचस्प अनुभव है।ये कथाएँ
हमारे साहित्य की धरोहर हैं।माधव जी को साधुवाद !
Dr माधव hada जैन कथाओं पर अच्छा कार्य कर रहे है. साधुवाद