भारत में ‘लोलिता’: सेंसरशिप, अश्लीलता और साहित्य का मुद्दा
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मई 1959 में बम्बई से छपने वाले अंग्रेज़ी के साप्ताहिक पत्र ‘द करेंट’ के संस्थापक-संपादक और पारसी पत्रकार डी.एफ़. कराका ने वित्त मंत्री को एक पत्र लिखा. कराका ने अपने उस पत्र में एक विवादित किताब की चर्चा की थी, जिसमें एक वयस्क आदमी के एक नाबालिग बच्ची के साथ शारीरिक सम्बन्धों के बारे में लिखा गया था. इस ख़त के साथ कराका ने ‘द करेंट’ में प्रकाशित ख़बरों की कतरन भी भेजी थी, जिसमें इस ‘अश्लील’ किताब पर प्रतिबंध लगाने की माँग की गई थी. कराका अपने ख़त में जिस किताब के बारे में लिख रहे थे, वह विवादित किताब थी, रूसी-अमेरिकी उपन्यासकार व्लादिमीर नाबाकोव कृत ‘लोलिता’. उल्लेखनीय है कि वर्ष 1955 में छपी ‘लोलिता’ को कुछ समय के लिए फ़्रांस, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड और अर्जेंटिना में भी प्रतिबंधित कर दिया गया था.
हुआ यह था कि अप्रैल 1959 में बम्बई में सीमा शुल्क विभाग के कलेक्टर ने आयातित किताबों का एक पार्सल ज़ब्त कर लिया था, जिसमें ‘लोलिता’ की प्रतियाँ थीं. ‘लोलिता’ तब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विवादों में आकर सुर्ख़ियों में आ चुकी थी. सीमा शुल्क विभाग ने इस मामले के बारे में बम्बई की स्थानीय पुलिस, वित्त मंत्रालय और विधि मंत्रालय की स्थानीय इकाई को सूचित किया. विधि मंत्रालय और बम्बई के पुलिस कमिश्नर दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि चूँकि यह किताब ‘अश्लील साहित्य’ नहीं मानी जा सकती, इसलिए इसे ज़ब्त करना ठीक नहीं होगा.[1] सीमा शुल्क के कलेक्टर का भी यही मानना था कि इस किताब को अश्लील नहीं माना जा सकता. किंतु फिर भी उसने इस किताब के पार्सल को नहीं छोड़ा.
‘लोलिता’ की आयातित प्रतियों का यह पार्सल जैको पब्लिशिंग हाउस द्वारा मंगाया गया था. जब कलेक्टर ने ज़ब्त पार्सल को छोड़ने से इंकार किया. तब जैको पब्लिशिंग हाउस के प्रबंधकों ने भी वित्त मंत्री को एक पत्र लिखा. दिलचस्प है कि वित्त मंत्री को पत्रकार डी.एफ़. कराका द्वारा लिखे गए ख़त के बारे में भी जैको पब्लिशिंग हाउस के प्रबंधकों को पता था. जैको पब्लिशिंग हाउस के प्रबंधकों ने आरोप लगाया कि कराका कुछ छिपे हुए उद्देश्यों की वजह से ऐसा कर रहे हैं. साथ ही, उन लोगों ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, शंकर्स वीकली, द डेली एक्सप्रेस, द ब्लिट्ज़, द ऑब्ज़र्वर, द स्पेक्टेटर, द डेली मेल जैसे अख़बारों में छपी ‘लोलिता’ से जुड़ी ख़बरों और उसकी समीक्षाओं की कतरनें भी अपने पत्र के साथ संलग्न की. इन समीक्षाओं और ख़बरों में यह कहा गया था कि यह किताब अश्लील या पोर्नोग्राफ़िक नहीं है.
मामला अब तत्कालीन वित्त मंत्री, मोरारजी देसाई के पास गया, जिनकी राय इस किताब के बारे में कुछ जुदा थी. प्राकृतिक चिकित्सा और शराबबंदी में भरोसा रखने वाले शुद्धतावादी देसाई ने 18 मई, 1959 को ‘लोलिता’ पर अपनी टिप्पणी में लिखा कि
‘अगर यह किताब अश्लील नहीं है, तो फिर अश्लील किसे कहेंगे. यह सेक्स परवर्सन का नमूना है.’
देसाई ने सुझाव दिया कि इस संदर्भ में गृह मंत्रालय की राय भी ली जानी चाहिए.
वित्त मंत्री की इस टिप्पणी के बाद वित्त सचिव ए.के. रॉय ने संयुक्त सचिव एन. सहगल को सूचित किया कि ‘लोलिता’ की आयातित प्रतियों से जुड़ी फाइल अब अंतिम निर्णय के लिए प्रधानमंत्री नेहरू को सौंपी जानी चाहिए. ‘लोलिता’ के बारे में नेहरू ने जो विचार रखे थे वे नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी में उपलब्ध नेहरू पेपर्स में सहेजे गए हैं. इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक राज्य के चरित्र और कार्यकलापों को गहराई से जानने के लिए उनके द्वारा लागू की गई सेंसरशिप नीति को समझना भी ज़रूरी है. भारत में सेंसरशिप के इतिहास का अध्ययन करने वाली इतिहासकार देविका सेठी के अनुसार, ‘औपनिवेशिक काल में सेंसरशिप सम्बन्धी कार्यवाहियाँ अगर हमें औपनिवेशिक राज्य के विभिन्न कार्यकलापों को समझने के लिए एक झरोखे की तरह काम करती है, तो उत्तर-औपनिवेशिक काल में होने वाली सेंसरशिप भी उत्तर-औपनिवेशिक भारतीय राष्ट्र-राज्य के बारे में हमें ऐसी ही अंतर्दृष्टि देती है.’[2]
अब वापस ‘लोलिता’ प्रकरण की ओर लौटें. 21 मई, 1959 को जवाहरलाल नेहरू ने अपने निजी सचिव केशो राम को लिखे एक नोट में बताया कि वे सम्भवतः अगले हफ़्ते 27 मई की दोपहर को जैको पब्लिशिंग हाउस के प्रकाशकों से मिलेंगे. प्रकाशकों से मिला पत्र भी नोट के साथ संलग्न करते हुए नेहरू ने केशो राम को निर्देश दिया कि वे सम्बद्ध अधिकारियों से मामले के तथ्यों के बारे में पता करें. नेहरू ने यह भी लिखा कि
‘मैंने अभी लोलिता पढ़ी नहीं है, लेकिन मैंने इसकी कई समीक्षाएँ ज़रूर देखी हैं. इंग्लैंड और अमेरिका के साहित्यिक हलकों में इस किताब ने कुछ सनसनी ज़रूर खड़ी की है. इसकी आलोचनाएँ भी हुई हैं, पर आलोचकों ने भी इसके प्रकाशन को सही ठहराया है. आम तौर पर मैं ऐसी किसी भी किताब को सेंसर करने के पक्ष में नहीं हूँ, जो कुछ भी साहित्यिक गुणवत्ता रखती है. विशेष तौर पर मैं नहीं चाहता कि यह सेंसरशिप सीमा शुल्क विभाग के कलेक्टर द्वारा लगाई जाए.’[3]
इस संदर्भ में आगे चलकर फ़िल्म सेंसर बोर्ड की तर्ज़ पर किताबों के लिए भी एक ऐसी ही समिति/बोर्ड बनाने का सुझाव भारतीय प्रकाशक एवं पुस्तक विक्रेता संघ (फ़ेडरेशन ऑफ़ पब्लिशर्स एंड बुकसेलर्स एसोसिएशंस) के सचिव द्वारा दिया गया था. टाइम्स ऑफ़ इंडिया और शंकर्स वीकली में छपे पोथन जोसेफ़ के लेख में भी कुछ ऐसी ही मंशा व्यक्त की गई थी. स्टेट्समैन में तभी छपे एक संपादकीय में कहा गया था कि साहित्यिक और कलात्मक गुणवत्ता की परख का काम लेखकों और आलोचकों के लिए ही छोड़ दिया जाना चाहिए.[4]
जहाँ तक नेहरू के मत का सवाल है, तो ‘लोलिता’ के संदर्भ में उन्होंने तब तक अपनी अंतिम राय नहीं बनाई, जब तक कि उन्होंने ख़ुद उस किताब को पूरा नहीं पढ़ लिया. 6 जून, 1959 को अपने निजी सचिव केशो राम को लिखे नोट में नेहरू ने स्वीकार भी किया कि
‘चूँकि लोलिता प्रकरण से जुड़ा मामला के सिद्धांत के प्रश्न को उठाता है, इसलिए मैं तब तक कोई राय नहीं देना चाहता, जब तक कि मैं इसे पढ़ न लूँ.’
सेंसरशिप के सम्बन्ध में नेहरू ने स्पष्ट कहा कि वे किसी भी किताब को प्रतिबंधित करने के पक्ष में नहीं हैं, जब तक कि ऐसा करना नितांत आवश्यक न हो. नेहरू ने सेंसरशिप लागू करने में आने वाली दिक़्क़तों का भी हवाला दिया. नेहरू का कहना था कि
‘ऐसे विभाग या अधिकारियों को ढूँढना मुश्किल है जो किताबों को सेंसर कर सकें. पुलिस या सीमा शुल्क विभाग के अधिकारियों को सेंसर का काम संभालने के लिए कहना मुझे सही नहीं लगता. यह काम उनके लिए बोझ बन जाएगा क्योंकि वे उसके लिए प्रशिक्षित नहीं हैं.’
नेहरू ने यह भी कहा कि वे हॉरर कॉमिक्स या बग़ैर साहित्यिक गुणवत्ता वाली अपराध और सेक्स से भरी अश्लील किताबों को प्रतिबंधित करने से नहीं हिचकिचाएँगे. लेकिन एक ऐसी गंभीर किताब जो किसी अप्रिय विषय पर हो, उसकी बात अलग है.
‘लोलिता’ के बारे में नेहरू ने लिखा कि
‘इसे पढ़ते हुए मुझे लगा कि यह एक गम्भीर किताब है. जिसे हल्के में नहीं पढ़ा जा सकता. कई जगहों पर इसकी भाषा भी काफ़ी कठिन है. किताब पढ़ते हुए कई जगहों पर मुझे आघात ज़रूर लगा. लेकिन इतना तो निश्चित है कि यह किताब अश्लील (पोर्नोग्राफ़िक) नहीं है. जैसा मैंने कहा कि यह एक गम्भीर किताब है, जो पूरी गम्भीरता से लिखी गई है.’
किताबों को लेकर जान-बूझकर खड़े किए जाने वाले विवादों और उनके एजेंडे से भी नेहरू वाक़िफ़ थे. नेहरू ने लिखा कि
‘कई बार विवादों की वजह से ही लोग इन किताबों के प्रति आकर्षित होते हैं और उन्हें पढ़ने को लालायित हो उठते हैं. अगर यह विवाद नहीं होता तो इस किताब को प्रतिबंधित करने या उसके भारत आने पर रोक लगाने का सवाल भी नहीं खड़ा हुआ होता.’
नेहरू ने अपना फ़ैसला देते हुए लिखा कि किताब और उस पर छपी समीक्षाओं और प्रतिक्रियाओं पढ़ने के बाद उनकी यही राय है कि लोलिता पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए. किताब का आयातित स्टॉक जिसे सीमा शुल्क विभाग ने रोक रखा है, उसे मुक्त कर दिया जाना चाहिए.
दिलचस्प बात है कि इन आयातित प्रतियों की क़ीमत उस वक़्त तीस रुपए प्रति किताब थी, जिसके बारे में नेहरू ने लिखा कि इतनी महँगी किताब बड़े पैमाने पर शायद ही बिके. नेहरू ने इस संदर्भ में विदेशी मुद्रा भंडार का सवाल भी उठाया और लिखा कि ‘ऐसी किताबों के आयात पर होने वाले विदेशी मुद्रा के व्यय के बारे में भी हमें सोचना होगा.’[5]
इस आर्थिक पक्ष की चर्चा नेहरू ने तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई से भी की थी. जिन्होंने किताब के कुछ अंश पढ़े थे और उन्हें नापसंद किया था. लेकिन उनका भी यही मानना था कि किताब को प्रतिबंधित करना ठीक नहीं होगा. तमाम पहलुओं पर विचार करने के बाद नेहरू ने यही कहा कि ‘क़ानूनी दृष्टि से भी मुझे नहीं लगता कि इस किताब को प्रतिबंधित करना या फिर इसकी आयातित प्रतियों को रोकना सही विकल्प होगा. इसलिए मैं ऐसा करने की सलाह नहीं दूँगा.’ इस मसले पर अपना फ़ैसला देने से पूर्व नेहरू ने उप-राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन से भी विचार-विमर्श किया. जो उस समय साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष थे. राधाकृष्णन ने भी उक्त किताब को प्रतिबंधित न करने का परामर्श दिया था. अंतिम निर्णय लेते हुए नेहरू ने लोलिता को प्रतिबंधित न करने और सीमा शुल्क विभाग द्वारा ज़ब्त की गई प्रतियों को मुक्त करने का फ़ैसला लिया.
नेहरू के इस फ़ैसले के बाद जैको पब्लिशर्स हाउस की तरफ से नेहरू का शुक्रिया अदा करते हुए आर.वी. पंडित ने 10 जून, 1959 को नेहरू को एक पत्र लिखकर उन्हें शुक्रिया कहा. उनका कहना था कि लोलिता प्रकरण में नेहरू ने जो निर्णय लिया है, उसके लिए वे उनके आभारी हैं. आर.वी. पंडित ने यह भी लिखा कि
‘हमने आपको इस छोटे से मसले में तकलीफ़ दी, लेकिन आप जानते हैं कि यह मसला सिर्फ़ व्यापारिक मुद्दे से कहीं बड़ा मुद्दा था और हमें ख़ुशी है कि आपके हस्तक्षेप की वजह से “लोलिता” अब दो महीने बाद मुक्त हो सकेगी.’[6]
अपनी व्यस्तता के बावजूद प्रधानमंत्री द्वारा प्रकाशकों को समय देना, एक विवादित पुस्तक को बग़ैर सोचे-समझे प्रतिबंधित करने की बजाय उसे पढ़ने का समय निकालना और उसकी साहित्यिक गुणवत्ता को जाँच-परख कर उसे प्रतिबंध से मुक्त रखने का फ़ैसला लेना नेहरू को समकालीन दुनिया के राजनेताओं में एक अलग क़तार में खड़ा करता है. एक राजनेता, जिसने भारतीय लोकतंत्र को स्वस्थ लोकतांत्रिक परम्पराएँ और सशक्त संवैधानिक संस्थाएँ दीं और जो कटु से कटु आलोचनाएँ झेलते हुए भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में सदैव खड़ा रहा.
सन्दर्भ:
[1] फ़ाइल सं. 20/5/59, गृह मंत्रालय; साथ ही देखें, माधवन के. पलात (संपा.), सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू (यहाँ के बाद सेलेक्टेड वर्क्स), सेकंड सीरीज़, खंड 49, (नई दिल्ली : जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड, 2013), परिशिष्ट 12 (अ).
[2] देविका सेठी, वार ओवर वर्ड्स : सेंसरशिप इन इंडिया, 1930-1960, (कैम्ब्रिज : कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 2019), पृ. 252.
[3] सेलेक्टेड वर्क्स, खंड 49, पृ. 494.
[4] फाइल सं. 41/5/59 पोलिटिकल, पृ. 2, गृह मंत्रालय, 20 जून 1959.
[5] सेलेक्टेड वर्क्स, खंड 49, पृ. 500,
[6] एस.ए. 5. चेयरमैन्स फ़ाइल, भाग V, 1958-60, साहित्य अकादेमी रेकॉर्ड्स.
शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. ईमेल : kaushikshubhneet@gmail.com |
समालोचन का यह अंक इन मायनों में गंभीर है कि यह पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाने का बखेड़ा खड़ा करता है । जब तक पुस्तक न पढ़ ली जाये और साहित्यिक इदारे में चर्चा न कर ली जाये तब तक पुस्तक पर प्रतिबंध लगाना अह्मक़ पन है ।
सुयोग से देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू बैरिस्टर, लेखक और उदार व्यक्ति थे । बम्बई के सीमा शुल्क विभाग के अधिकारियों ने 1959 में ‘लोलिता’ उपन्यास की प्रतियाँ ज़ब्त कर लीं । पंडित जवाहरलाल नेहरू के समक्ष 1959 में दुनिया के 100 श्रेष्ठ उपन्यासों में व्लादिमीर नबोकोव का लिखा हुए उपन्यास ‘लोलिता’ पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव भेजा गया । पता नहीं होनी को क्या मंज़ूर था । पंडित जी ने अपने निजी सचिव केशो राम को 21 मई 1959 को कहा कि जब तक वे उपन्यास पढ़ न लें तब तक फ़ैसला नहीं करेंगे । और केशो राम को कहा कि आप इस उपन्यास को मँगवाने वाले जैको प्रकाशन के मालिक को 27 मई 1959 को मुझसे मिलने के लिये बुला लो ।
बहरहाल, प्रथम प्रयास ने ‘लोलिता’ को पढ़ा । मुझे उनकी यह पंक्ति भा गयी कि इस उपन्यास की भाषा कठिन है । मुझ जैसे व्यक्ति के लिये उपन्यास पढ़ना कितना मुश्किल होगा । मैं विश्व पुस्तक मेले से इस उपन्यास का पेपरबैक संस्करण ले आया था । अभी सुरक्षित रखा है । कुछ पन्ने पढ़े भी । परंतु उपन्यास की भाषा मुश्किल है ।
शुभनीत जी कौशिक ने इस उपन्यास के बारे में सेंसरशिप और अश्लीलता का मुद्दा उठाया है । प्रोफ़ेसर साहब ने ‘लोलिता’ पढ़ा । कई संदर्भ दिये । इनके परिश्रम के लिये धन्यवाद । मैं आज से इस उपन्यास को पढ़ना आरंभ करूँगा । जब ख़रीदा था तब न स्मार्ट फ़ोन थे और न ही अ’नैलाज । गूगल आया तो सब कार्य आसान हो गया । शब्दों के अर्थ देखे जा सकते हैं ।
अश्लीलता हमारी आँखों में होती है किसी बाहरी चीज में नहीं।यह बिल्कुल गलत धारणा है कि यह कहीं बाहर होती है-किसी देह या उसको ढँकनेवाले कपड़े या स्त्री-पुरुष के प्रगाढ़ संबंधों में ।दरअसल, सामंती सोच हमेशा अपनी कमजोरियों को दूसरों पर मढती रही है।इसलिए दंड हमेशा स्त्रियों को मिलती रही है।हमारे मिथकों में ऐसे उदाहरणों की भरमार है। पौराणिक कथाओं में अहिल्या,सीता,परशुराम की माता एवं अन्य कई लांक्षित स्त्रियाँ हैं जिन पर अश्लील आचरण का इकतरफा आरोप मढ़ा गया और दंडित किया गया।नेहरू एक युग पुरुष थे और यह हमारे देश का सौभाग्य है।वैसे भी ,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मनुष्य का मौलिक अधिकार है ।पोर्नोग्राफिक साइट्स प्रतिबंधित है पर दुनिया में सबसे अधिक वही देखा जाता है।
लोलिता को कालेज के दिनों में पढ़ा था । उस समय इसे लेकर सहपाठियों में यही धारणा थी जो सामान्यतः आज भी पाई जाती है । लेकिन पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि यह एक गंभीर और बेहतर किताब है । मानव मनोविज्ञान को समझने में सहायक ।
शुभनीत भाई ने इस किताब के बहाने कई जरूरी मुद्दों को उठाया है । जैसे कि विचार और अभिव्यक्ति के अधिकार के बारे में हमारी पुरानी संस्कृति काफी सामासिक रही है । पेरियार से लेकर फुले, अंबेडकर और राहुल सांकृत्यायन तक । इन सभ्य विचारकों ने इसका प्रयोगभी कियाहै ।
इस बेहतर लेख के लिए बधाई
बहुत पहले लोलिता उपन्यास पढ़ा था। उसको लेकर विद्वान आलोचकों के बीच हुए विवाद से भी परिचित हूँ।
इस संदर्भ में नेहरू जी वाले प्रकरण से परिचित कराने के लिए लेखक शुभनीत जी और समालोचन- सम्पादक अरुण जी को धन्यवाद।
परिचयात्मक टिप्पणी में एक उदारता के बरअक्स दूसरी अपढ़ता का ज़िक्र उल्लेखनीय नहीं लगता।
इस दौर के कुपाठ, अपपाठ और अपाठ के भयावह व अत्यन्त सरलीकृत नज़रिये में यह टिप्पणी !
एक लम्बे सफ़र के दौरान मैंने यह नावल पढ़ा था। फिर मुझे इसे चलती ट्रेन की खिड़की से बाहर फेंकना पड़ा।
When we ban things there is an underlying assumption that public is not mature to handle the stuff hence ban it. Banning is an indication of inferiority complex that one has for self and for people at large.
मैंने पढ़ी है और अगर सच कहूं तो मुझे इसमें विशुद्ध साहित्य जैसा कुछ नहीं लगा ,ये थोड़ी बहुत मनोहर कहानी ,या सेमी पोर्न टाइप हीं लगी ,और इसका जो सबसे बड़ा क्रिटिक पार्ट है वो ये है कि नायक जिस महिला से विवाह करता है ,विवाह पूर्व हीं उसकी किशोर वय पुत्री के प्रति उसकी आसक्ति है और इस कारण से किया जाना वाला विवाह और पत्नी की मृत्यु के बाद उसकी बेटी से दैहिक संबंध एक हद आम नैतिकता पर एक कड़ा प्रश्न खड़ा करते हैं ।
हालांकि ऐसी घटनाएं भी समाज में खूब होती हैं लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों ,इस उपन्यास ने मुझे बहुत प्रभावित नहीं किया ।
यह किताब पहले पढ़ी थी। पढ़ने का कारण निश्चित रूप से इसके सम्बंध में विवाद ही था। लेकिन पढ़ने के बाद मुझे अरसा कुछ नहीं लगा जिसे अश्लील कहा जाय। निश्चय ही यह पुस्तक कई स्थापित मूल्यों को चुनौती देती है। कई स्थापित नैतिक मान्यताओं पर चोट करती है लेकिन यह इन सब से अलग मानव मनोविज्ञान की भी गहरी पड़ताल करती है। निश्चित रूप से यह एक साहित्यिक कृति है। आप सहमत हों न हो आप इसे नकार नहीं सकते। जहाँ तक नेहरू की बात है तो वे निश्चित रूप से न केवल एक अच्छे पाठक बल्कि एक अच्छे लेखक भी थे। उनकी तुलना बाद के मनोहर कहानियाँ टाइप साहित्य पढ़ने वालों से या बिलकुल ही अपढ़ लोगों से करना ही व्यर्थ है। अच्छी पोस्ट। प्रस्तुत करने का शुक्रिया।
किताब के आयातित होकर आने, पकड़े जाने , उसके बाद उस पर विचार और फैसला किए जाने की लंबी श्रृंखला जो प्रधानमंत्री नेहरू और उप राष्ट्रपति टैक्स – उनके अध्ययन तक जाती है, यह सब जानना बहुत सनसनीखेज लगा। कैसे किसी किताब ने पूरे तंत्र को हिला दिया, उस पर निर्णय लेने को बाध्य किया, विशेषकर प्रधानमंत्री ने इस किताब को पूरा पढ़ा , राधाकृष्णन जी ने भी तभी कोई निर्णय दिया। यह सब आज के समय में हमें झकझोरता है। बिना समझे बुझे कोई निर्णय दे देना घातक हो सकता है, कोई गलत परिपाटी गढ़ सकता है। इसका ख्याल तत्कालीन राजनेताओं को था। किसी तरह की वैचारिक तानाशाही उन्होंने नही चलाई। विवेकपूर्ण ढंग से निर्णय लिया। यह आज दुर्लभ हो गया है। आज ही क्यों जैसा कि इस आलेख की भूमिका में ही लिखा है कि राजीव गांधी ने बिना पढ़े रुश्दी की किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था। शुक्रिया इस घटनाक्रम को सिलसिलेवार प्रस्तुत करने का।
शानदार लेख के लिए बधाई.
इस उपन्यास पर 1962 की सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित एक लेख की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना जरूरी है। हालांकि उसका फ़लक थोड़ा व्यापक है फिर भी एक बार कुछ पंक्तियों से गुजरना ही चाहिए – “दूसरा उदाहरण है बाल्दीमीर नोबोकोव का उपन्यास ‘लोलिता’। ‘लोलिता’ एक विदेशी स्त्री-लिङ्ग व्यक्तिवाचक संज्ञा है। हमारे यहाँ के बुद्धिजीवी तो ऐसे इसपर मुग्ध हैं कि जब अमेरिकन संस्करण वहाँ की सरकार ने अनैतिकता का दोष लगाकर जब्त कर लिया, तो तुरंत महीने-दो-महीने में एक भारतीय संस्करण छपकर तैयार हो गया। पुस्तक का नायक एक विधवा से इसलिए विवाह करता है कि वह उसकी नाबालिग पुत्री पर कामासक्त है। समस्त कथानक वासना और ऐंद्रिक अनुभूतियों के शक्तिशाली अनुभव से भरा पड़ा है। सारे संघात अत्यंत उत्तेजक हैं। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के ‘मैला आंचल’ को कितने गैर हिंदी बुद्धिजीवी पढ़ पाये हैं ? दिनकर की ‘उर्वशी’ का स्वागत यह वर्ग कर सकेगा ? यह अनुभूति प्रधान काव्य होने पर भी ऐंद्रिकता पर आधारित नहीं तथा अरविंद दर्शन के परिवेश में लिखा गया है। और द्वितीयतः यह कि यह हिंदी में है। अतः इसका स्वागत “सांस्कृतिक स्वातंत्र्य” के उद्घोषक शायद ही करें। ‘कामायनी’ इस शताब्दी की उन भारतीय कृतियों में से एक है जिनकी संख्या चौदहों भाषाओं को मिलाकर एक दर्जन से अधिक नहीं होगी। फिर भी उसे अखिल भारतीय महत्त्व नहीं मिला। पर तथाकथित प्रगतिशीलों की सस्ती प्रचार मूलक रचनाएँ अथवा ‘अमेरिकन कल्चर’ और ‘सांस्कृतिक स्वातन्त्र्य’ की उद्घोषणा वाली हल्की-फुल्की कृतियां आज के बौद्धिक वर्ग द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर सम्मानित हैं। यह एक अक्षम्य सस्तापन है।”-कुनारा