महात्मा और मशीन |
इक्कीसवीं सदी की जटिलताएँ पर्यावरण संकट से जितनी प्रभावित हैं उतनी ही आधुनिक तकनीकी प्रगति से भी. पर्यावरण संकट जितना गहरा हो रहा है, आधुनिक तकनीक के उपयोग से उसका समाधान ढूंढ़ने की गति भी तेज़ हो रही है, जो खुद ही एक नए क़िस्म का संकट हमारे सामने प्रस्तुत कर रही है. ऐसे में गांधी और भी प्रासंगिक मालूम पड़ते हैं. गांधीजी के जीवन और दर्शन के बीच एक ऐसी तारतम्यता थी जो विरले ही मिलती है. उनका जीवन ही उनका दर्शन था और उनके दर्शन में उनके जीवन की झलक दिखाई पड़ती है. ऐसी ही तारतम्यता उनको सार्वभौमिक और कालजयी बनाती है.
यह यूँ ही नहीं है कि गांधीजी ने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के ख़िलाफ़़ इस देश के लोगों को संगठित करने के लिए एक सरल तकनीकी उपकरण, चरखे का इस्तेमाल किया. यह उपकरण सरल था, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के लिए इसका उपयोग मानव इतिहास में किसी भी अन्य नवाचार की तरह ही क्रांतिकारी था. चरखा उनके लिए सिर्फ आर्थिक आत्मनिर्भरता का ही प्रतीक नहीं था बल्कि चरखा उनके लिए एक नैतिक सवाल भी था, अध्यात्म का भी प्रतीक था. चरखा उनके लिए आर्थिक निर्भरता, नैतिकता, आध्यात्मिकता का ऐसा ताना बाना था जो इस देश की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा होते हुए भी एक राजनीतिक हथियार बन कर उभरा.
गांधीजी की प्रासंगिकता का ऐसा ही एक सन्दर्भ है मशीन और तकनीक के प्रति उनका लगाव और उनके विचार. गांधीजी के जीवन और दर्शन दोनों के मूल में ही स्वल्पव्ययिता है. उनके खुद का रहन-सहन किफ़ायती था. सामाजिक सरोकारों के प्रति उनकी समझदारी के केंद्र में भी मितव्ययिता थी. उनके जीवन में तकनीक उतना ही भर था जिससे उनका काम सुचारु रूप से चल सके. बिना सिली हुई हाथ से बुनी एक धोती उनके लिए काफी थी. और साथ में एक लाठी, एक चश्मा और एक घड़ी और कभी-कभी एक चरखा. उनकी किसी भी तस्वीर में इससे ज्यादा चीजें उनके आसपास नहीं दिखती हैं. उनकी इस छवि से ऐसा प्रतीत होता है कि गांधी तकनीकी के विरोधी रहे होंगे. उन्होंने आज़ाद भारत के लिए भी एक ऐसे अर्थतंत्र की वकालत की जहाँ पश्चिमी दुनिया से इतर, मशीन का इस्तेमाल कम ही हो. लेकिन ऐसे कई प्रसंग हैं जिसकी पड़ताल से ऐसा स्पष्ट होता है कि गांधी जी के बारे में ऐसी धारणा भ्रामक है. समाज के अन्य प्रश्नों पर उनकी राय की तरह इस पर भी उनके विचार प्रासंगिक हैं.
गांधीजी प्रौद्योगिकी की परिवर्तनकारी शक्ति से पूरी तरह परिचित थे. प्रौद्योगिकी यदि समुदायों को सशक्त बनाने में सक्षम है तो वह असमानताओं में वृद्धि भी ला सकती है. अपने मौलिक कार्य, ‘हिंद स्वराज’ में, उन्होंने औद्योगीकरण के पश्चिमी मॉडल की आलोचना की, यह तर्क देते हुए कि यह अमानवीयता और प्रकृति से अलगाव को जन्म देता है. गांधीजी प्रौद्योगिकी को मानवता की सेवा में देखना चाहते थे न कि प्रौद्योगिकी ही मालिक बन जाए.
यंग इंडिया के सन १९२१ के जनवरी अंक में असहयोग आंदोलन के लिए देश की जनता से समर्थन हासिल करने के लिए स्वराज की मूल अवधारणा पर अपने विचार रखते हुए गांधीजी ने ‘आध्यात्मिक युद्ध’ की बात की है और कहते हैं की बिना विदेशी वस्तुओं और ख़ासकर विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के अंग्रेज़ों से आज़ादी नहीं मिल सकती है क्योंकि आर्थिक दोहन (भारत से धन निकाल कर इंग्लैंड में जमा करना) इस गुलामी के मूल में है.
स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों से वह अपील करते हैं कि वे राष्ट्रीय अभियान के तहत हाथ से बुनाई और कताई कर ज्यादा से ज्यादा कपड़े बनाने में मदद करें. ऐसा करके वे देश की मानसिकता को भी बदलने में मदद करेंगे. गांधीजी लोगों से फैशन के प्रति विचार बदलने की अपेक्षा रखते थे. वह लिखते हैं कि
“लोगों को बे-दाग़ सफेद खादी में कला और सौन्दर्य को देखने और कपड़े की नरम असमानता की सराहना करने के लिए खुद को प्रशिक्षित करना चाहिए”.
ऐसा ही एक और प्रसंग है जब गांधी जी के निरीक्षण में चरखा समिति ने सन् 1929 में नवीनतम मशीन की डिजाइन के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमें पुरस्कार की राशि एक लाख रुपए रखी गई थी. यह राशि आज के 5-6 करोड़ रुपए के बराबर है. यह प्रतियोगिता दुनिया भर के अभियंताओं और आविष्कारकों के लिए खुली थी.
इस प्रतियोगिता के मानदंडों की सूची जितनी दिलचस्प है उतनी ही महत्वपूर्ण भी. यह प्रतियोगिता के लिए मानदंड तय करने के साथ-साथ प्रौद्योगिकी पर गांधी जी के विचारों को भी स्पष्ट करती है. इन मानदंडों के अनुसार-
- मशीन हल्के वजन वाली होनी चाहिए जिसे आसानी से खेतों में भी ले जाया जा सके.
- इसे चलाना इतना आसान होना चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों के आम जन भी इसे आसानी से चला सकें.
- मशीन ऐसी होनी चाहिए कि एक महिला बिना अधिक प्रयास के लगातार आठ घंटे तक इसके साथ काम करने में सक्षम हो सके.
- मशीन ऐसी हो कि आठ घंटे काम करने पर निर्धारित न्यूनतम उत्पादन मिल सके.
- मशीन का उत्पादन भारत में हो और उसकी कीमत ऐसी हो कि एक आम किसान भी खरीद सकें.
- उक्त मानदंडों के अनुसार मशीन की कीमत उस समय 150 रुपए (आज के ₹75000/- के बराबर) रखी गई थी.
- मशीन इतनी मजबूत हो कि समय-समय पर मरम्मती (सर्विसिंग) के साथ कम से कम 20 साल तक बिना रुके चलने में सक्षम हो.
- मशीन की मरम्मती पर एक साल में मशीन की कीमत के 5 प्रतिशत से ज्यादा खर्च नहीं होना चाहिए.
यदि मशीनें उल्लिखित मानदंडों को पूरा करती हैं- तो आविष्कारक/डिजाइनर इसका पेटेंट करा सकते हैं. लेकिन, अगर वे प्रतियोगिता की पुरस्कार राशि जीतने के योग्य बनना चाहते हैं, तो डिजाइनर को पेटेंट के अधिकारों सहित भारतीय चरखा संघ परिषद को हस्तांतरित करना होगा.
प्रतियोगिता की घोषणा के अनुसार यदि निर्णायक मंडली में कोई आम सहमति नहीं बनती है तो महात्मा गांधी का निर्णय अंतिम होगा.
कहना न होगा कि इस प्रतियोगिता में कोई भी उपयुक्त नहीं पाया गया. गांधी के अनुसार ‘उचित प्रौद्योगिकी’ वह है जो स्थानीय समुदायों के लिए सुलभ, टिकाऊ और सशक्त हो. यह विचार आज विशेष रूप से प्रासंगिक है क्योंकि हम जलवायु परिवर्तन और संसाधनों की कमी जैसी वैश्विक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.
गांधी का दृष्टिकोण हमें इस बात पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित करता है कि प्रौद्योगिकी का उपयोग केवल लाभ के लिए नहीं बल्कि व्यापक भलाई के लिए कैसे किया जा सकता है.
विद्यालयी शिक्षा के सन्दर्भ में प्रौद्योगिकी एवं तकनीक पर उनके विचार दूसरे प्रसंगों से भी स्पष्ट होते हैं. ऐसा ही एक प्रसंग है जब वह कविगुरु टैगोर को असहयोग आंदोलन पर उनके कुछ सवालों का जवाब देते हैं. वह लिखते हैं कि
“कवि की चिंता मुख्यतः विद्यार्थियों को लेकर है. उनकी राय है कि उन्हें अन्य स्कूलों में जाने से पहले सरकारी स्कूलों को छोड़ने के लिए नहीं कहा जाना चाहिए था. यहाँ मैं उनसे अलग होना चाहूँगा. मैं कभी भी शैक्षिक प्रशिक्षण का मोह नहीं बना पाया. मेरा अनुभव है कि शैक्षिक प्रशिक्षण अपने आप से किसी की नैतिक ऊंचाई में एक इंच भी इज़ाफ़ा नहीं करता है और चरित्र-निर्माण शैक्षिक प्रशिक्षण से स्वतंत्र है. मेरा दृढ़ मत है कि सरकारी स्कूलों ने हमें मानवविहीन कर दिया है, हमें असहाय और ईश्वरविहीन बना दिया है. उन्होंने हमें असन्तोष से भर दिया है और असन्तोष का कोई उपाय न बता कर हमें निराश कर दिया है. उन्होंने हमें वह बना दिया है जो हम बनना चाहते थे- क्लर्क और दुभाषिया. कोई भी सरकार शासितों के प्रत्यक्षतः स्वैच्छिक सहयोग से ही अपनी प्रतिष्ठा बनाती है. और अगर हमें गुलाम बनाए रखने में सरकार के साथ सहयोग करना ग़लत था, तो हम उन संस्थानों से शुरुआत करने के लिए बाध्य थे जिनमें हमारा सहयोग सबसे अधिक स्वैच्छिक प्रतीत होता था. किसी राष्ट्र के युवा उसकी आशा होते हैं. मेरा मानना है कि, जैसे ही हमें पता चला कि सरकार की व्यवस्था पूरी तरह से, या मुख्य रूप से दुष्ट है, हमारे लिए अपने बच्चों को इससे जोड़ना पाप होगा.”
मानवीय सभ्यता और संस्कृति की इस यात्रा में गांधीजी की निष्ठा कहाँ है इसे वह बहुत स्पष्ट रूप से रखते हैं. उनका मानना था कि असहयोग आंदोलन अनजाने और अनिच्छुक भागीदारी के ख़िलाफ़ एक विरोध है.
हरिजन के सन १९४६ के सितम्बर अंक में छपे एक साक्षात्कार में उनसे एक प्रश्न किया गया जो इस प्रकार था-
“क्या आप मानते हैं कि फ्लश सिस्टम को अपनाना अस्पृश्यता उन्मूलन का एक तरीका है? यदि ऐसा है, तो संभवतः आप मशीनरी के प्रति अपनी नापसंदगी के आधार पर इसके परिचय का विरोध नहीं करेंगे”.
इसके उत्तर में गांधीजी बहुत स्पष्ट रूप से मशीन के प्रति अपने नजरिये को रखते हैं-
“जहाँ पानी की पर्याप्त आपूर्ति है और गरीबों पर बिना किसी कठिनाई के आधुनिक स्वच्छता की शुरुआत की जा सकती है, मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं है. वास्तव में, संबंधित शहर के स्वास्थ्य में सुधार के साधन के रूप में इसका स्वागत किया जाना चाहिए. फिलहाल इसे सिर्फ कस्बों में ही पेश किया जा सकता है. मशीनरी के प्रति मेरे विरोध को बहुत ग़लत समझा गया है. मैं इस तरह मशीनरी का विरोध नहीं कर रहा हूँ. मैं उस मशीनरी का विरोध करता हूँ जो श्रम को विस्थापित करती है और उसे बेकार छोड़ देती है. क्या फ्लश सिस्टम अस्पृश्यता के अभिशाप को दूर करेगा, इस पर गंभीर संदेह है. अस्पृश्यता को हमारे दिल से जाना है. यह उन तरीकों से गायब नहीं होगा जैसा कि सुझाव दिया गया है. जब तक हम सभी भंगी नहीं बन जाते और मैला ढोने और शौचालय-सफाई के श्रम की गरिमा को महसूस नहीं करते, तब तक अस्पृश्यता का वास्तव में उन्मूलन नहीं होगा.”
आज जबकि तकनीक और प्रौद्योगिकी को रामबाण के रूप में देखने की प्रवृति है, गांधीजी का यह उत्तर मशीन के प्रति हमारे रवैये की दिशा तय करने के लिए पर्याप्त है. पूंजीवाद उत्पादन और धन के केंद्रीकरण में पनपता है. गांधीजी ने इस कारण भी मशीनरी के प्रयोग का व्यापक रूप से विरोध किया. उनका मानना था कि मशीनें अनिवार्य रूप से केंद्रीकरण की ओर ले जाती हैं. किसी वस्तु की कई प्रतियाँ एक ही स्थान पर तैयार की जाएँ और फिर शेष देश में वितरित की जाए के बजाय गांधीजी चाहते थे कि स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार अलग-अलग जगहों पर किसी वस्तु की प्रतियाँ तैयार की जाएँ. इस लिहाज से शायद गांधीवादी विचार तकनीक के करीब हैं क्योंकि आधुनिक तकनीक उत्पादन को बड़े पैमाने पर विकेंद्रीकृत करना संभव बनाती है.
एक और उदाहरण में जहाँ गांधीजी का अनुकरण किया जा सकता है, वह था व्यक्तियों द्वारा प्रौद्योगिकी पर न्यूनतम निर्भरता. इसमें उन्होंने लोगों से प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने की कामना की.
गांधीजी ने खुद कहा था कि वे मशीन के ख़िलाफ़ नहीं हैं, बल्कि वे मशीन की गु़लामी के ख़िलाफ़ हैं. वे अंधाधुंध मशीनीकरण के ख़िलाफ़ थे. गांधीजी यह मानते थे कि आधुनिकीकरण के नाम पर इस तरह का मशीनीकरण न सिर्फ पर्यावरण को दूषित कर सकता है बल्कि हमारे रोज़गार को भी कम कर सकता है जिसका दूरगामी परिणाम समाज के ताने-बाने पर हो सकता है. गांधी जी ने एक बार कहा था कि पृथ्वी सभी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है लेकिन किसी की लालच को नहीं. आज पर्यावरण के प्रति गांधीजी की चेतावनी सच साबित हुई है.
जैसे-जैसे तकनीक हमारे जीवन में अधिक एकीकृत होती जा रही है, आंकड़ों की गोपनीयता और उसकी सुरक्षा के बारे में नैतिक चिंताएँ बढ़ रही हैं. गांधीजी के सत्य और अहिंसा के सिद्धांत तथा उनका आत्मबल पर जोर हमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक कल्याण पर प्रौद्योगिकी के प्रभावों पर सोचने को मजबूर करते हैं.
कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का उदय अवसर और चुनौतियाँ दोनों प्रस्तुत करता है. कृत्रिम बुद्धिमत्ता उत्पादकता और नवाचार को बढ़ावा देता है, यह रोजगार, निर्णय लेने और नैतिक उपयोग के बारे में सवाल भी उठाता है. उलझन के इस दौर में गांधीजी का मानवीय सम्मान और कल्याण पर जोर एक रास्ता दिखाता है.
प्रौद्योगिकी और तकनीक के प्रति गांधीजी का दृष्टिकोण और भी स्पष्ट होता है जब हम श्रम के प्रति उनके उदगार को समझते हैं. श्रम उनके लिए ज्यादा मानवीय था, श्रम उनके लिए आत्मीय था. इसीलिए जब वे ग्रामीण आधारित अर्थ तंत्र की बात करते हैं, तब श्रम के प्रति उनका आदर सर्वोपरि होता है. २९ जून १९३४ के हरिजन में उन्होंने लिखा कि
“ग्रामीण उद्योगों का पुनरुद्धार मानव श्रम पर आधारित हो तभी वह गांवों को आत्मनिर्भर और स्वतंत्र बनाने में मदद पहुंचा सकते हैं.”
गांधीजी सरल और श्रम-आधारित प्रौद्योगिकियों के समर्थक थे जो ग्रामीण समुदायों को स्वावलम्बी बनाए रखने में मदद कर सकती थीं.
तकनीक के प्रति उनकी आशंका भी जायज़ है. स्वचालन आज की प्रौद्योगिकी का रुझान है जिसके कई दूरगामी प्रभाव हमारे समाज पर पड़ने वाले हैं. शैक्षिक जगत में खास कर विद्यालयी शिक्षा में इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. पहली बार बच्चे अधिगम के लिए बड़े पैमाने पर प्रौद्योगिकी और तकनीकी का इस्तेमाल कर रहे हैं. बच्चे, माता-पिता, शिक्षक, नीति-निर्धारक सभी अंधकार में हैं कि प्रौद्योगिकी का यह व्यापक इस्तेमाल उन्हें मुक्त कर रहा है या तकनीक का और गुलाम बना रहा है.
तकनीक का इस्तेमाल एक नैतिक सवाल भी है. आज जब युवाल नोआ हरारे 21वीं सदी की चुनौतियों का जिक्र करते हैं और कृत्रिम बुद्धिमत्ता से प्रेरित प्रौद्योगिकी से मानव सभ्यता को होने वाले संकटों के प्रति हमें सचेत करते हैं तब गांधी याद आते हैं. गांधी ने अति-औद्योगीकरण के खतरों और इससे होने वाले अलगाव के प्रति आगाह किया. उनका मानना था कि बड़े पैमाने पर उत्पादन और उपभोक्तावाद पारंपरिक मूल्यों और सामुदायिक संबंधों को कम करते हैं.
आज के समय में जिस तरह से प्रौद्योगिकी ने व्यक्तिवाद और उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा दिया है, और मनुष्य को अपने परिवेश से अलग किया है, मालूम पड़ता है जैसे गांधी जी की यह आलोचना समकालीन समय के लिए ही थी.
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अभय कुमार शैक्षिक प्रौद्योगिकी पर अंग्रेजी में एक यूजीसी-केयर-सूचीबद्ध पत्रिका का संपादन कर रहे हैं, जिसे इंडियन जर्नल ऑफ एजुकेशनल टेक्नोलॉजी (आईजेईटी) के रूप में जाना जाता है. 2016 से सीआईईटी में कार्यरत |
प्रस्तुत आलेख से गाँधी की मशीनी, प्रौद्योगिकी और पर्यावरण दृष्टि पर प्रकाश डाला गया है | लेखक ने गांधी के सन्दर्भ से लिखा है कि- मशीन और तकनीक के प्रति उनका लगाव और उनके विचार / ‘वे मशीन के ख़िलाफ़ नहीं हैं, बल्कि वे मशीन की गु़लामी के ख़िलाफ़ हैं”/ उनका जीवन ही उनका दर्शन था और उनके दर्शन में उनके जीवन की झलक दिखाई पड़ती है जैसे तर्कों से यह दिखाया गया है कि गाँधी जी मशीनी और प्रौद्योगिकी के लिए एक मध्यम मार्ग की तलाश में थे जबकि मेरा मानना है कि तत्कालीन समय में ट्रेन, तकनीक, मशीन इत्यादि का सबसे ज्यादा उपयोग उन्होंने ही किया | भारत में टेलीफोन अंग्रेजों के अतिरिक्त कुछ गिने चुने लोंगों में गाँधी के पास था जिसका टेलीफोन न. 11 था | इस सारगर्भित आलेख के लिए लेखक को साधुवाद |
इस लेख में गांधीजी के प्रौद्योगिकी और पर्यावरण के प्रति विचारों का विश्लेषण किया गया है, जिसमें गांधीजी की सादगी, स्वावलंबन और मितव्ययिता के सिद्धांतों पर गहराई से प्रकाश डाला गया है। लेखक ने गांधीजी के जीवन और दर्शन के बीच की तारतम्यता को रेखांकित करते हुए बताया है कि उनका दृष्टिकोण केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक भी था। विशेष रूप से चरखा और ग्रामीण अर्थतंत्र की वकालत के माध्यम से गांधीजी ने आत्मनिर्भरता, पर्यावरण संतुलन और सामुदायिक सहयोग की आवश्यकता पर बल दिया था।
लेख में तकनीकी प्रगति और पर्यावरणीय संकट के समकालीन संदर्भों में गांधीजी की प्रासंगिकता को दिखाने का प्रयास किया गया है। यह स्पष्ट किया गया है कि गांधीजी मशीनों के विरोधी नहीं थे, बल्कि उन मशीनों के ख़िलाफ़ थे जो श्रमिकों को विस्थापित करती थीं और प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ती थीं। उन्होंने स्वचालन और औद्योगिकीकरण के खतरे को समय से पहले ही समझ लिया था और इसके सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों पर सवाल उठाए थे।
गांधीजी की दृष्टि केवल आर्थिक सुधारों तक सीमित नहीं थी, बल्कि उनके लिए तकनीक एक नैतिक सवाल भी था। आज की डिजिटल युग में, जब कृत्रिम बुद्धिमत्ता और स्वचालन के कारण रोजगार, गोपनीयता और मानवीय संबंधों पर असर पड़ रहा है, गांधीजी का यह दृष्टिकोण और भी प्रासंगिक प्रतीत होता है।
लेख संतुलित तरीके से गांधीजी की प्रौद्योगिकी संबंधी चेतावनियों और वर्तमान परिदृश्यों को जोड़ता है, लेकिन कहीं-कहीं यह दोहरावपूर्ण प्रतीत होता है। समग्र रूप से, लेख गांधीजी के विचारों की समकालीनता और उनके गहन नैतिक और सामाजिक दर्शन को प्रभावी रूप से प्रस्तुत करता है। डॉ कुमार का लेख गांधी जी के समसामायिक विचारों को समेकित करता है।
प्रिय पिंटू (श्री अभय कुमार),
आपके द्वारा रचित लेख, “महात्मा और मशीन”, पढ़ने का सुअवसर मिला। आपके लेख से गांधी जी के जीवन से जुड़े बहुत सारे नये पहलू से मैं अवगत हुआ। ऐसे आलेख प्रस्तुत करने के लिए गांधी जी के जीवन पर आपका गहन शोध उच्च स्तरीय है।
आपके लेखन से यह बात भी समझ में आया कि आपमें अपने पिता जी (परम आदरणीय स्वर्गीय श्री अवध किशोर दास) की लेखन शैली की भी अदृश्य एवं सुंदर छाप है।
आप अपने लेखनी को इसी प्रकार से भविष्य में भी पूरे शोध के साथ उपयोग करते रहें, यही मां सरस्वती से मेरी करबद्ध प्रार्थना है।
आपके बड़े भाई तुल्य,
आपका
निर्मल कुमार ‘सुमन’
सुपुत्र स्वर्गीय श्री सिद्धेश्वरी सहाय
१६०४, भाभा टावर, गृहप्रवेश अपार्टमेंट, नोएडा, उत्तर प्रदेश २०१३०१