मार्खेज़ मौंतिएल की विधवा हिंदी अनुवाद: सुशांत सुप्रिय |
जब जोसे मौंतिएल की मृत्यु हुई तो उसकी विधवा को छोड़कर सभी को लगा जैसे उनका प्रतिशोध पूरा हो गया हो; हालाँकि सबको उसकी मृत्यु की ख़बर पर यक़ीन करने में कई घंटे लग गए. गर्मी से भभकते उस कमरे में मौंतिएल का शव देखने के बाद भी कई लोग उसकी मृत्यु पर शक करते रहे. उसकी लाश एक पीले रंग के ताबूत में पड़ी थी जिसमें तकिए और चादरें भी ठुसी हुई थीं. ताबूत के किनारे किसी खरबूज जैसे गोल थे. शव की दाढ़ी बढ़िया ढंग से बनी हुई थी. उसे सफ़ेद वस्त्र और असली चमड़े के जूते पहनाए गए थे और वह इतना बढ़िया लग रहा था जैसे उस पल वह एक जीवित व्यक्ति हो.
वह वही चेपे मौंतिएल था जो हर रविवार को आठ बजे ईसाइयों की धार्मिक सभा में मौजूद रहता था, हालाँकि तब चाबुक की बजाए उसके हाथों में ईसा मसीह के चिह्न वाला छोटा सलीब होता था. जब उसके शव को ताबूत में बंद करके ताबूत पर कीलें जड़ दी गईं और उसे दिखावटी पारिवारिक क़ब्रगाह में दफ़ना दिया गया तब जा कर पूरे शहर को यक़ीन हुआ कि वह वास्तव में मरने का बहाना नहीं कर रहा था.
शव को दफ़नाने के बाद उसकी पत्नी को छोड़कर अन्य सभी को यह बात अविश्वसनीय लगी कि जोसे मौंतिएल एक स्वाभाविक मौत मरा था. सभी का यह मानना था कि उसे किसी घात लगा कर किए गए हमले में पीठ में गोली मार दी जाएगी. किंतु उसकी विधवा को पक्का यक़ीन था कि किसी आधुनिक संत की तरह उसका पति बूढ़ा होकर अपने पापों को स्वीकार करके बिस्तर पर बिना दर्द सहे स्वाभाविक मौत मरेगा. वह कुछ ब्योरों के मामले में ही ग़लत साबित हुई. जोसे मौंतिएल की मृत्यु 2 अगस्त, 1951 के दिन दोपहर दो बजे उसके झूले में हुई. उसकी मृत्यु का कारण उसे ग़ुस्से का दौरा पड़ना था क्योंकि डॉक्टरों ने उसे क्रोधित होने से मना किया था. उसकी पत्नी को उम्मीद थी कि सारा शहर उसके अंतिम संस्कार में शामिल होगा और उन्हें इतने सारे फूल भेजे जाएंगे कि उनका घर उन फूलों को रखने के लिए छोटा पड़ जाएगा. पर उसके अंतिम संस्कार में केवल उसके दल के सदस्य और उसके धार्मिक भ्रातृ-संघ के लोग शामिल हुए और उसकी मृत्यु पर केवल सरकारी नगर निगम की ओर से पुष्पांजलि अर्पित की गई.
जर्मनी में दूतावास में काम करने वाले उसके बेटे और पेरिस में रहने वाली उसकी दो बेटियों ने तीन पृष्ठों के तार-संदेश भेजे थे. यह देखा जा सकता था कि उन्होंने ये तार-संदेश तार-दफ़्तर की प्रचुर स्याही का इस्तेमाल करते हुए खड़े होकर लिखा होगा. ऐसा लगता था जैसे उन्होंने तार के कई लिखित प्रारूपों को फाड़ा होगा, तब जाकर उन्हें लिखने के लिए बीस डॉलर के शब्द मिल पाए होंगे. बेटे-बेटियों में से किसी ने भी वापस आने का आश्वासन नहीं दिया था.
उस रात बासठ साल की उम्र में उस तकिए पर रोते हुए, जिस पर उसे जीवन भर ख़ुशी देने वाला आदमी अपना सिर रखता था, मौंतिएल की विधवा को पहली बार रोष का अहसास हुआ. मैं ख़ुद को अपने घर में बंद कर लूँगी, वह सोच रही थी. इससे तो अच्छा होता कि वे मुझे भी उसी ताबूत में डाल देते जिसमें जोसे मौंतिएल का शव डाला गया था. मैं इस दुनिया के बारे में और कुछ भी नहीं जानना चाहती हूँ.
वह नाज़ुक स्त्री ईमानदार और सच्ची थी, किंतु अंधविश्वास ने उसे पंगु बना दिया था. उसके माता-पिता ने बीस वर्ष की आयु में ही उसका ब्याह कर दिया था. उसने अपने चाहने वाले उस एकमात्र लड़के को केवल एक बार तीस फ़ीट की दूरी से देखा था. वास्तविकता से उसका सीधा सम्पर्क कभी नहीं हुआ था. उसके पति की देह को जब वे घर से बाहर ले गए, उसके तीन दिनों के बाद अपने आँसुओं के बीच वह समझ गई कि अब उसे हिम्मत बटोरनी पड़ेगी. लेकिन वह अपने नए जीवन की दिशा नहीं ढूँढ़ पाई. उसे शुरू से शुरुआत करनी पड़ी.
जिन असंख्य चीज़ों की जानकारी को जोसे मौंतिएल अपने साथ कब्र में ले गया था उनमें तिजोरी का सुरक्षा कोड भी शामिल था. महापौर ने इस समस्या का समाधान निकालने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. उसने आदेश दिया कि तिजोरी वाली अल्मारी को आँगन की दीवार के साथ खड़ा कर दिया जाए. दो पुलिसवालों को तिजोरी के ताले पर राइफ़ल से गोलियाँ चलाने का आदेश दिया गया. पूरी सुबह वह विधवा महापौर के आदेश की दबी आवाज़ को अपने शयनकक्ष में सुनती रही.
हे ईश्वर, अब यह सुनना भी बाक़ी था, उसने सोचा. पाँच वर्ष तक वह ईश्वर से प्रार्थना करती रही कि शहर में हो रही गोलीबारी बंद हो जाए. पर अब उसे अपने ही घर में गोलियाँ चलाने के लिए उनका शुक्रिया अदा करना होगा.
उस दिन उसने मृत्यु को बुलाने का भरपूर प्रयास किया किंतु उसकी प्रार्थना का किसी ने उत्तर नहीं दिया. वह झपकियाँ लेने लगी थी तभी एक ज़ोरदार धमाके ने मकान की नींव हिला दी. उन्हें तिजोरी को डायनामाइट लगा कर उड़ाना पड़ा.
मौंतिएल की विधवा ने चैन की साँस ली. अक्तूबर में लगातार बारिश होती रही जिससे ज़मीन दलदली हो गई और उस वृद्धा को लगा जैसे वह खो गई हो. उसने महसूस किया जैसे वह जोसे मौंतिएल की अराजक और शानदार जागीर में उतराने वाली एक दिशाहीन नाव हो. परिवार के एक पुराने और परिश्रमी मित्र श्री कारमाइकेल ने जागीर की देख-रेख करने का काम अपने ज़िम्मे ले लिया था. अंत में उस वृद्धा को जब इस ठोस तथ्य का सामना करना पड़ा कि अब उसके पति की मृत्यु हो चुकी है, तो मौंतिएल की विधवा अपने शयनकक्ष से बाहर आई ताकि वह घर की देखभाल कर सके. उसने मकान की सभी सजावट की चीज़ों को हटा दिया और मेज-कुर्सियों आदि सभी सामानों को मातमी रंग से ढँक दिया. साथ ही उसने दीवार पर टँगे मृतक के सभी चित्रों पर मातमी रिबन लगा दिए.
मृतक के अंतिम संस्कार के दो महीनों के बीच ही वृद्धा को अपने दाँतों से अपने नाखून काटने की आदत लग गई. एक दिन, जब उसकी आँखें अधिक रोने की वजह से लाल हो गई थीं, उसने देखा कि श्री कारमाइकेल खुले हुए छाते के साथ घर में प्रवेश कर रहे हैं.
“श्री कारमाइकेल, उस खुले हुए छाते को बंद कर दें,“ उसने उनसे कहा. “इतनी बदक़िस्मती देखने के बाद मुझे अब यही देखना रह गया था कि आप खुले हुए छाते के साथ घर में प्रवेश करें.“ श्री कारमाइकेल ने छाते को एक कोने में रख दिया.. वह एक बूढ़ा अश्वेत था. उसकी त्वचा चमकदार थी. उसने सफ़ेद वस्त्र पहने हुए थे और अपने पैर के विकृत अँगूठे पर दबाव कम करने के लिए उसने चाकू से अपने जूतों को जगह-जगह से काट रखा था.
“मैंने छाते को केवल सूखने के लिए खुला रखा है.”
पति की मृत्यु के पहली बार उस विधवा ने खिड़की खोली.
“इतनी बदक़िस्मती, ऊपर से सर्दी का यह मौसम,“ अपने दाँतों से नाखून काटते हुए वह बुदबुदाई. “लगता है, जैसे यह मौसम कभी साफ़ नहीं होगा.”
“आज या कल तक तो ये बादल नहीं छँटेंगे.” प्रबंधक ने कहा. “कल पैर के अपने अँगूठे में दर्द की वजह से मैं सारी रात नहीं सो सका.”
श्री कारमाइकेल द्वारा की गई मौसम की भविष्यवाणी पर उस वृद्धा को भरोसा था. उसे उस सुनसान चौक और उन ख़ामोश घरों का ख़्याल आया जिनके दरवाज़े जोसे मौंतिएल के अंतिम संस्कार को देखने के लिए भी नहीं खुले, और तब उस वृद्धा ने खुद को बेहद निराश महसूस किया. वह अपने नाखूनों, अपनी बड़ी जागीर और अपने मृत पति से मिली ज़िम्मेदारियों की वजह से भी खुद को विवश महसूस करती थी क्योंकि वह इनके बारे में कभी कुछ नहीं समझ पाई.
“यह सारी दुनिया बेहद ग़लत है”, सुबकते हुए वह बोली.
उन दिनों जो लोग उससे मिले, उनके पास यह मानने के बहुत-से कारण थे कि वह वृद्धा पागल हो गई थी. लेकिन असल में उन दिनों उसे सब कुछ स्पष्ट नज़र आ रहा था. जब से राजनीतिक हत्याएँ शुरू हुई थीं, उसने उदास अक्तूबर की सुबहें अपने कमरे की खिड़की के पास मृतकों से सहानुभूति रखते हुए बिताई थीं. वह कहा करती थी,
“यदि ईश्वर ने रविवार के दिन विश्राम नहीं किया होता तो उसे दुनिया को ढंग से बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता. रविवार का दिन उसे दुनिया को बनाने में हुई गड़बड़ियों को दूर करने में बिताना चाहिए था. आख़िर ईश्वर के पास आराम करने के लिए अनंत समय था.”
उसके पति की मृत्यु के बाद जो एकमात्र अंतर उसमें आया वह यह था कि उसे ऐसी निराशाजनक बातें करने के लिए एक ठोस वजह मिल गई. अंतत: एक ओर मौंतिएल की विधवा निराशा में डूबती चली गई, वहीं दूसरी ओर श्री कारमाइकेल जागीर को सम्हालने का प्रयास करते रहे. हाल कुछ ठीक नहीं था. शहर के लोग अब जोसे मौंतिएल द्वारा स्थानीय व्यापार पर क़ब्ज़ा करने के ख़तरे से मुक्त थे और वे अब बदले की कार्रवाई कर रहे थे.
अब ग्राहक यहाँ नहीं आ रहे थे जिसके कारण बरामदे में पात्रों में रखा दूध ख़राब हो रहा था, और शहद का भी यही हाल था. यहाँ तक कि पनीर भी पड़े-पड़े सड़ रहा था और अँधेरी अलमारियों में उन्हें कीड़े खा-खा कर मोटे होते जा रहे थे. बिजली के बल्बों तथा संगमरमर में खुदे महादूतों से सजे मक़बरे में पड़ा जोसे मौंतिएल अब अपने छह वर्षों की हत्याओं और उत्पीड़न के बदले की सज़ा पा रहा था.
देश के इतिहास में कोई व्यक्ति इतनी तेज़ी से इतना अमीर नहीं बना था. तानाशाही के समय का पहला महापौर जब शहर में आया तो जोसे मौंतिएल उस समय सभी शासकों के सावधान समर्थक के रूप में जाना जाता था. उसने अपना आधा जीवन अपनी चावल की चक्की के सामने जाँघिए में बैठे हुए बिताया था. एक समय वह क़िस्मत वाले प्रतिष्ठित, धार्मिक व्यक्ति के रूप में जाना जाता था क्योंकि उसने सार्वजनिक रूप से घोषणा की थी कि यदि वह लॉटरी जीत गया तो वह गिरिजाघर को संत जोसेफ़ की आदमक़द प्रतिमा भेंट करेगा. दो हफ़्ते बाद वह लॉटरी जीत गया और उसने अपना वादा पूरा किया.
पहली बार उसे तब जूते पहने हुए देखा गया जब नया महापौर, जो कि एक पाशविक और चालाक पुलिस अधिकारी था, विरोधियों को ख़त्म कर देने के लिखित आदेश के साथ शहर में आया. मौंतिएल उसका गुप्त मुखबिर बन गया. उस मामूली मोटे व्यापारी ने, जिसका शांत हास्य किसी को भी बेचैन नहीं करता था, अपने शत्रुओं को गरीब और अमीर वर्गों में छाँट लिया. सिपाहियों ने गरीब शत्रुओं को आम चौराहे पर गोली मार दी. अमीर शत्रुओं को शहर से बाहर निकल जाने के लिए चौबीस घंटे दिए गए. हत्या-कांड की योजना बनाते हुए जोसे मौंतिएल कई दिनों तक लगातार महापौर के उमस भरे दफ़्तर में बैठा रहा जबकि उसकी पत्नी मृतकों से सहानुभूति रखती रही.
जब महापौर दफ़्तर से चला जाता तो मौंतिएल की पत्नी उसका रास्ता रोक कर उससे कहती, “वह आदमी एक हत्यारा है. सरकार में अपनी पैठ को इस काम पर लगाओ कि वे इस पाशविक हत्यारे को यहाँ से हटा लें. वह इस शहर में एक भी इंसान को जीवित नहीं छोड़ेगा.”
और जोसे मौंतिएल, जो उन दिनों बेहद व्यस्त रहता था, बिना अपनी पत्नी की ओर देखे हुए उसे अलग ले जा कर कहता था, “इतनी बेवकूफ़ मत बनो.”
असल में उसकी रुचि ग़रीबों को मारने में नहीं बल्कि अमीरों को शहर से भगा देने में थी. महापौर जब उन अमीरों के घरों के दरवाज़ों को गोलियों से छलनी करवा देता और उन्हें शहर से निकल जाने के लिए चौबीस घंटों का समय देता, तो जोसे मौंतिएल अपने द्वारा तय किए गए कम दाम पर उन अमीरों की ज़मीन और उनके मवेशी ख़रीद लेता.
“बेवकूफ़ मत बनो.” उसकी पत्नी उससे कहती. “उनकी मदद करने की वजह से, ताकि वे कहीं और जा कर भूखे न मरें, तुम बर्बाद हो जाओगे. और वे कभी तुम्हारा शुक्रिया भी अदा नहीं करेंगे.” और जोसे मौंतिएल, जिसके पास अब मुसकुराने का भी समय नहीं था, अपनी पत्नी की बात को नकारते हुए उससे कहता, “तुम अपनी रसोई में जाओ और मुझे इतना तंग नहीं करो.”
इस तरह एक वर्ष से भी कम समय में विरोधियों का सफ़ाया कर दिया गया और जोसे मौंतिएल शहर का सबसे अमीर और ताकतवर आदमी बन गया. उसने अपनी बेटियों को पेरिस भेज दिया और अपने बेटे को जर्मनी में दूतावास में उच्च पद पर नियुक्त करवा दिया. उसने अपना सारा समय अपने साम्राज्य को सुदृढ़ करने में लगाया. किंतु वह जमा की गई अपनी अकूत सम्पत्ति के मज़े लेने के लिए छह वर्ष भी जीवित नहीं रह पाया.
जोसे मौंतिएल की मृत्यु की पहली पुण्य-तिथि के बाद उसकी विधवा के घर की सीढ़ियाँ जैसे बुरी ख़बर से चरमरा गईं. कोई-न-कोई शाम के झुटपुटे में आ जाता. “फिर से डाकू,” वे कहते. “कल वे पचास बछड़ों के झुंड को अपने साथ हाँक कर ले गए.” मौंतिएल की विधवा अपनी आराम-कुर्सी पर चुपचाप बैठी हुई रोष में अपने नाखून चबाती रहती.
खुद से बातें करती हुई वह कहती, “मैंने तुमसे कहा था जोसे मौंतिएल, यह एक कृतघ्न शहर है. तुम्हें मरे हुए अभी ज़्यादा समय नहीं हुआ लेकिन यहाँ सभी ने हमसे अपना मुँह फेर लिया है.”
उनके घर दोबारा कोई नहीं आया. लगातार होती बारिश के उन अनंत महीनों में जिस एकमात्र व्यक्ति को उस वृद्धा ने देखा, वह ज़िद्दी श्री कारमाइकेल थे जो हर दिन अपना खुला छाता लिए घर में आते रहे. स्थिति बेहतर नहीं हो रही थी. श्री कारमाइकेल ने जोसे मौंतिएल के बेटे को कई पत्र लिखे. उन्होंने सुझाव दिया कि यदि उनका बेटा काम-काज को सम्हालने के लिए घर आ जाए तो यह सबके लिए सुविधाजनक होगा. श्री कारमाइकेल ने अपने पत्र में उसकी विधवा माँ के बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में कुछ व्यक्तिगत टिप्पणियाँ भी कीं. लेकिन बेटे का जवाब हमेशा गोल-मोल और टालने वाला होता. अंत में जोसे मौंतिएल के बेटे ने उत्तर दिया कि वह वापस घर लौटने की हिम्मत नहीं कर सकता क्योंकि उसे डर है कि वहाँ आते ही उसे गोली मार दी जाएगी, तब श्री कारमाइकेल उस विधवा के शयनकक्ष में यह बताने गए कि अब उसे बर्बाद होने से कोई नहीं बचा सकता.
“वही सही,” वृद्धा बोली. “मेरा जीवन पनीर और मक्खियों से ऊपर तक भरा हुआ है. तुम्हें जो चाहिए वह ले लो और मुझे शांति से मरने दो.”
तब से दुनिया से उस वृद्धा का एकमात्र सम्पर्क वे पत्र रह गए जो वह हर महीने के अंत में अपनी बेटियों को लिखती थी. “यह एक अभिशप्त शहर है,” वह उन्हें पत्र में लिखती. “तुम सब जहाँ हो, सदा के लिए वहीं रहो और मेरी चिंता मत करो. मुझे यह जानकर ख़ुशी होती है कि तुम सब ख़ुश हो.”
उसकी बेटियाँ बारी-बारी से अपनी माँ के पत्रों का जवाब देतीं. वे चिट्ठियाँ हमेशा ख़ुशी से भरी होतीं और यह देखा जा सकता था कि वे पत्र गरम, रोशन जगहों पर बैठ कर लिखे गए थे और जब उस वृद्धा की बेटियाँ कुछ सोचने के लिए रुकती थीं, तो वे अपनी छवि को कई आईनों में प्रतिबिम्बित होते हुए देखती थीं. वे ख़ुद भी वापस घर नहीं आना चाहती थीं. ”हम जहाँ रहती हैं, वहीं सभ्यता है. दूसरी ओर जहाँ आप रहती हैं माँ, वहाँ हमारे लिए अच्छा माहौल नहीं होगा. ऐसे बर्बर देश में रहना असम्भव है जहाँ राजनीतिक कारण से लोगों की हत्या कर दी जाती है.” उनके पत्र पढ़ कर मौंतिएल की विधवा बेहतर महसूस करती और वह हर वाक्यांश पढ़ कर हामी में अपना सिर हिलाती.
एक बार उसकी बेटियों ने अपने पत्र में पेरिस में मौजूद कसाइयों की दुकानों के बारे में लिखा. उन्होंने अपनी माँ को उन गुलाबी सुअरों के बारे में बताया जिन्हें मार कर पूरा-का-पूरा प्रवेश-द्वार पर लटका दिया जाता. प्रवेश-द्वार को फूलों से सजाया जाता. अंत में किसी अनजान लिखावट में यह जोड़ा गया था, “कल्पना करो ! वे सबसे बड़े और सबसे सुंदर गुलनार के फूल को सुअर के नितम्ब में लगा देते हैं.”
यह वाक्यांश पढ़ कर दो वर्षों में पहली बार मौंतिएल की विधवा मुसकुराई. वह बिना घर की बत्तियाँ बंद किए अपने शयन-कक्ष में गई और लेटने से पहले उसने बिजली से चलने वाले पंखे को बंद करके उसे दीवार की ओर मोड़ दिया. फिर रात्रिकालीन मेज़ की दराज से उसने कैंची, चेपदार पट्टी का डिब्बा और मनकों की माला निकाल ली. उसने अपने दाएँ अंगूठे के नाख़ून पर वह पट्टी बाँध ली क्योंकि दाँत से नाखून काटने की वजह से वह जगह छिल गई थी. उसके बाद वह प्रार्थना करने लगी. दूसरे गूढ़ और रहस्यवादी अध्याय के बाद उसने मनकों की माला को अपने बाएँ हाथ में ले लिया क्योंकि दाएँ हाथ के अंगूठे में बँधी चेपदार पट्टी की वजह से वह मनकों की माला को महसूस नहीं कर पा रही थी. एक पल के लिए उसे दूर कहीं से आई बादलों की गड़गड़ाहट की आवाज़ सुनाई दी. फिर वह अपने वक्ष पर अपना सिर झुका कर सो गई. मनकों की माला को पकड़ने वाला उसका हाथ एक ओर झुक गया और तब उसे नींद में ही बरामदे में उस बड़े वंश की कुलमाता दिखाई दी. उनकी गोद में सफ़ेद कपड़ा और कंघी रखी हुई थी और वे जुएँ मार रही थीं.
“मेरी मृत्यु कब होगी?”
उस बड़े वंश की कुलमाता ने अपना सिर उठाया.
“जब तुम्हारी बाँह में थकान शुरू हो जाएगी.”
(स्पेनिश से Gregory Rabassa और J S Bernstein के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित)
सुशांत सुप्रिय (जन्म : 28 मार्च, 1968)सात कथा-संग्रह, तीन काव्य-संग्रह तथा सात अनूदित कथा-संग्रह प्रकाशित.अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह ‘इन गाँधीज़ कंट्री’ प्रकाशित, अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ‘ द फ़िफ़्थ डायरेक्शन ‘ प्रकाशनाधीन संप्रति: लोक सभा सचिवालय , नई दिल्ली में अधिकारी.पता: A-5001,गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड, इंदिरापुरम |
मार्खेज़ कहानी में अन्योक्ति का विराट ताना बाना खड़ा करते हैं।न कथ्य आसान रह जाता है,न किरदार और न ही वातावरण जिसे ऐसे धुंआस में उठा देना कि आप उसकी मनहूसियत के पार देख सकें, यह विलक्षण है।
अच्छा अनुवाद ☘️कहानी बेशक अपने समय की आज की कहानी भी है
श्रेष्ठ कहानी का बहुत सुंदर अनुवाद.
सुशांत जी को साधुवाद.
बहुत बढ़िया कहानी है और अनुवाद भी बहुत अच्छा है। कहानी कुछ सीमा तक यहाँ की समकालीन स्थितियों को भी प्रतिबिम्बित करती है। “मार्खेज़” की जगह वाकई “मार्केस” होना चाहिए।
मार्केस के कथानकों के महानायकों में साइमन बोलीवर को हम देख सकते है। हालांकि उनके लेखन में काफ्का, मिखाइल बुल्गाकोफ, एर्नेस्ट हेमिंग्वे, वर्जीनिया वुल्फ जैसे लेखकों का भी प्रभाव रहा। उनकी बचपन की स्मृतियां ही उनके लेखन का कुल जमा है। सुशांत जी का बढ़िया अनुवाद। समालोचन की बेहतरीन प्रस्तुति।
बढ़िया अनुवाद। मार्केज या मार्खेज की अन्य कहानियों की तरह प्रभाव हीन अन्त। लेकिन मध्य के डीटेल्स बड़े प्रभावशाली।
बड़ी कहानी या नामवर कहानी वह नहीं होती जिसमें चौंकाने वाले घटना क्रम,भड़कीले पोशाक वाले पात्र, रौब,दम्भ,परिहास से भरे गर्वोन्मत्त बयान भर हों।
बड़ी कहानी होती है किसी आम जीवन के वे छोटे छोटे प्रसंग,जीवन में प्यार,संतोष,अभिलाषा,स्वप्न के वे तरल अंश जिन्हें मारकेश जैसा संजीदा लेखक अपनी चाक्षुष आंखों और संवेदना से पगी अंतर्दृष्टि से महसूस करता है और बिना किसी अभिव्यंजना के “जस के तस धर दिनी चदरिया” पाठकों के सम्मुख रख देता है।