मौमिता आलम की कविताएँ अनुवाद : अमिता शीरीं |
1.
तर्जुमा
वह करता है उसका तर्जुमा,
उस भाषा में नहीं जिसे वह बोलता है
या फिर उस लिपि में नहीं
जिसमें वह लिखती है.
बल्कि
वह करता है उसका तर्जुमा
उस बोली में
जो होती है
प्यार करते वक्त
उनकी आँखों की
एक अतृप्त पगलाई
चाहत में.
वह करता है उसके
कान के लवों का तर्जुमा
एक पंख लगे पहाड़ के रूप में
जो करता है
उसकी प्रिया के बिस्मिल कलेजे का
बोझ कम.
वह करता है
उसकी नाक का तर्जुमा
एक तुरही के रूप में
ताकि उसकी गोद में पड़े
मरते हुए सपनों को
दी जा सके आवाज़.
वह करता है उसके कुचों का तर्जुमा
सूइयों की लिपि में,
जो करती हैं
उसकी खंडित रातों की सिलाई
एक खुशनुमा दिन की किरणों से.
वह करता है उसके बालों का तर्जुमा
भरी दोपहरी में सरसों के फूलों के
नृत्य की भाषा में.
जब सूरज
उसकी ज़मीन में
हज़ारों सितारे जगमगाते हुए छोड़ कर
अपने ढलते यौवन के साथ लेता है विदा
वह करता है उसके लबों का तर्जुमा
शहद की शीशी के रूप में
जहाँ मधुमक्खियाँ
रख देती हैं अपनी ज़िन्दगी गिरवी.
और उसकी जीभ
उसके त्रिकोण में
समुंदर का पता देती हैं…
उनका जहाज उसकी गहराइयों में
एकाकी प्रकाशस्तंभ की तलाश में
आगे बढ़ जाता है.
२.
खु़दा एक किसान है
मेरे ग़लत वर्तनी वाले सारे शब्द
तुम्हारे लिए मेरा प्यार हैं.
वे साथ-साथ काम करते हैं
और मेरे उलझे हुए बालों में
धर लेते हैं तुम्हारी उँगलियों का आकार
या
वे बन जाते हैं तुम्हारी आवारा जीभ जो
मेरे स्याह होंठों की कोख में छलांग लगाने से पहले
भटक रही है बेलगाम
मानो विचार रही हों किसी वीज़ा मुक्त देश में.
जहाँ सारी अजन्मी कविताएँ
टीसती हुई प्रसव वेदना में
एक दूसरे से गुत्थमगुत्था हैं.
तुम एक कवि हो और एक किसान
हर बार जब तुम धरती में बोते हो एक बीज
तुम फुसफुसाते हो कोई बुतपरस्त श्लोक
जिसे हमारी दादी माँओं ने हमें सिखाया था
और सफ़हे पर हल जोतते हुए
तुम करते हो किसी गीत की तलाश
जो धरती के सीने में लम्बे समय से पड़ा है
बिना गाये.
तुम मुझ पर करती हो चहलकदमी
अपने कीचड़ सने पैरों से
अपनी माहवारी के खून में सने पदचिन्ह छोड़ते हुए
खेत में
सारे हाथ औरतों के हाथ हैं
और जोतने वाली सारी मुट्ठियाँ
नवजात बच्चों के शरीर पर
माँओं के पहले चुम्बन !
मेरे ग़लत उच्चारित सारे शब्द
एक खु़दा अथवा एक किसान की आँखों से झरती हुई
बारिश है.
हवाओं में लहराती गेहूँ की हरी बालियों की
सुखद, मधुर कराह
तुम्हारी बाँहों में पिघल जाने के पहले
मेरे सुख का रुदन है.
मैं और तुम दोनों कवि हैं
और खु़दा एक किसान!
३.
पाक शास्त्र
हाँडी में
हमारे चुम्बन
उस चर्बी की चिकनाई में घुल जाते हैं
जिन्हें हम अपनी लिपटी हुई ज़ुबानों के
अनंत आनंद में बिलोते हैं.
यह हमारी खदकती रूहों को
सुकून देता है.
मटर की चटकती फलियों में
तड़कते काले ज़ीरे में
मैं अपने जादुई क्षणों की
उठती-गिरती लहरों को महसूस करती हूँ.
हमारी सुख भरी कराहें
आनन्द के धुर गीत में पकती हैं
और पंचफोरन के चटकने में हम
एकदूजे की बाँहों में समा जाते हैं
इस वादे के साथ कि
हम हर सुबह ऐसे ही मिलेंगे.
हरेक नए व्यंजन में
हमारा प्यार वह मुख्य मसाला है जो
स्वाद कलिकाओं को भूख के साथ मिला देता है
जिससे नृत्य की हरेक आवेगमय थिरकन में
हम एक दूजे के लिए
और अधिक
आसक्त हो जाएँ
4.
घर उसकी बाहें हैं
एक नयी दरार से पानी रिस रहा था
कानों में झनझना रहे थे झींगुर
बर्र अपने अण्डों के साथ गर्म थीं.
वह सूंघ रहा था उसकी बगलों को
उसके हाथ उसके कलेजे पर थे.
नयी सफ़ेदी हुई दीवारें
उनकी एक मात्र गवाह थीं.
उसने खुद पर पहन लीं
दो पागल प्रेमियों की छायाएँ
इस तरह उनकी घर की तलाश ख़त्म हुई.
घर की उनकी तलाश को ख़त्म करते हुए
उन्होंने अपने शरीर पर पहन ली हैं
दो पागल प्रेमियों की छायाएँ
5.
वह दोनों है!
मैं उसे मेरा मजनूँ कह कर पुकारती हूँ
मैं उसके स्तन को चूसती हूँ
उनमें मेरे अपने दूध का स्वाद है
जिसे मैं अपने बेटों को हर दिन पिलाती हूँ
अनेकों कोखों से पैदा हुए मेरे बहुत से बेटे.
कभी-कभी मैं उसे लैला कह कर पुकारती हूँ
वह मेरी नाभि और अन्य जगहों को सहलाता है
मेरे पेट पर रखता है गर्म पानी की एक बोतल.
खिंचाव के दिनों में
वह करता है मेरी जाँघों पर मसाज.
मैं उसे मजनूँ और लैला दोनों पुकारती हूँ.
उन दिनों जब वह मेरे बाजू में बैठता है और
मेरी कहानियाँ सुनता है
और मेरे साथ बिलखता है.
जब होता है मुझमें सुख का विस्फोट
वह मेरा पसीना चाटता है और
एक लोरी तब तक गाता है
जब तक मैं गहरी नींद में सो न जाऊं.
उससे मेरे उस पिता की ख़ुश्बू आती है
जिसे मैंने कभी नहीं पाया.
वह लैला है
या मजनूँ
या दोनों है.
वह मेरा प्रेमी है!
६.
आत्ममुग्ध
वह कभी नहीं कहेगा
कि वह तुम्हें प्यार नहीं करता.
इसके बजाय वह कहेगा
कि वह तुमसे करता है प्यार, लेकिन
इस ‘लेकिन’ में, वह रचता है अपना संसार.
वह क्षमा मांगता है
तुम्हारा ख़याल न करने के लिए
तुम्हारी उपेक्षा के लिए
धीरे-धीरे तुम्हें अस्वीकार करने के लिए
तिल-तिल करके तुम्हारे आत्मविश्वास को
अँधेरे में दफ़नाने के लिए
तुम्हें यह अहसास कराने के लिए कि
ग़लती तुम्हारी ही है.
उसके इस ‘लेकिन’ में यह सब कुछ निहित है.
वह तुम्हें कभी भी नहीं छोड़ेगा!
लेकिन वह तुम्हें हर दिन छोड़ेगा!!
और तुम
अपनी ज़िन्दगी में हमेशा के लिए
हर रिश्ते में लड़खड़ाओगी.
तुम यह सारा कुछ खो दोगी.
७.
महामारी के समय की एक सुबह
जानेमन! इस दरकती सुबह में
मैं जाग गई हूँ.
मुझे केवल करनी है
बुनाई, बुनाई और बुनाई.
बुनना है ख़ाली बादलों को आंसुओं के साथ
बारिश ही अब स्मृतियाँ हैं
मेरी सुबह की चाय बे-इंतहा मीठी है
अब हम तलाश रहे हैं मिठास वस्तुओं में.
आधे चम्मच गहरी चाय के प्याले में
एक बार फिर से मेरा बिस्किट
डूब गया
क्या मैं अंधी हो गई हूँ या
ऐसा होने का दिखावा करती हूँ
मरते हुए बकरे की अंतिम आवाज़ बा–बा
वह विजय गीत है जिसे मैं
सुनती रहती हूँ सारी सुबह
सलीब पर ठाड़े हुए.
मेरा प्रेमी कई परतों वाला एक सैंडविच सरीखा है
लम्बाई में उसका स्वाद एक इंद्रधनुष-सा है
उसका हर रंग मेरे स्वाद की कल्पनाओं को रंग देता है
मैं उसके लिए और लालची हो उठती हूँ
चटपटे इक निवाले में
उसकी लार घुलती है मुझमें
एक खौलते क्रेटर में
नये धधकते लावे की मानिंद.
अगले नमकीन निवाले में
समुन्दर के थपेड़े से लगते हैं मुझे
भीतर पगलाए बुलबुलों का उफान उठता है
तीसरे निवाले को खाने के लिए मैं
अपनी आँखें मूँद लेती हूँ
और मेरे भीतर बर्फ की चट्टानें दरकने लगती हैं
मैं तैरने लगती हूँ
अपने धड़कते पगले दिल को लिए
एक नए जीवन की गुनगुनी धारा में.
लेटा हुआ मेरा प्रेमी एक नदी है
वह अपने सीने में अनेक
अनकही कहानियाँ लिए सोता है
एक उत्तेजक परत पर मैं
उस पर शहद लगाती हूँ
इसके बाद छिड़कती हूँ तीखी मिर्च.
सबसे ऊपरी सजावट के लिए
मैं रख देती हूँ अपने कुचों को
सबसे अंतिम परत पर.
अंत में, मैं अपने छिद्रों वाली
अपनी दुर्गंधित त्वचा में इसे लपेटती हूँ.
मेरा प्रेमी एक बहुपरतीय सैंडविच सरीखा है
अपने प्रत्येक निवाले में
वह मुझे अपना स्वाद लेने देता है
और वह मुझे मेरे सारे रूपों समेत
अपनी त्वचा में घुल जाने देता है.
८.
अंतिम सूर्य
मेरे दोस्त, मेरे प्रिय
कल कभी नहीं आता
आज की रात
आओ और मुझे गले से लगा लो
आओ हम वह सब कुछ साझा करें
जो हमने पहले कभी नहीं किया.
अंधियारे पर रात का कब्ज़ा नहीं है
अनकहे अलविदा के लफ्ज़
चीखती घंटियों की तरह हैं
कल हमारे लिए नहीं
आओ! आज को
हम अपनी आख़िरी सुबह बनायें.
मैं अलविदा नहीं कह सकती
तुम्हारी गरमाहट के लिए मेरी चाहत
बरसती सुबह के पहले फूल की तरह है
प्रेमी की निगाह के लिए तरसते
मेरे होंठ अभी भी सूखे हैं
मुझे तुम पूरी तरह नहीं मिले अभी.
आओ! मेरे दोस्त आओ
प्यार और धोखे की इस
पूरी रात हम बतियाएँ
आओ हम अपने घावों को
अभी अभी बनी माँ के स्तनों की गर्म ख़ुश्बू से तर करें
हाँफ रहा है हमारा समय
आज हमारा आख़िरी सूरज है.
९.
मेरी मुसलसल गर्मियाँ
धीमे-धीमे सर्दियाँ आ रही हैं
इसकी मौजूदगी पतझर से
इसकी गर्माहट की
अंतिम बूंद चुरा लेती है
चमेली की बेलें खड़ी हैं
अंतिम प्रहरी की मानिंद.
लेकिन मुझमें अभी भी गर्मियों का मौसम जारी है
तुम गा रहे हो मुझमें
साइबेरिया से आई चिड़ियों के गीत
जो यहाँ आकर पड़ जाती हैं प्यार में
और कभी नहीं लौटती.
मेरे भीतर सारे मौसमों के गोपनीय खजाने
तुम्हारे बारे में हैं
पतझर की झरती पत्तियों में
मुझे नए जीवन की ख़ुश्बू आती है
नुकसान को नकारते हुए और
जीवन की फिर से घोष करते हुए मैं
पेड़ों की कोखों के पीछे से झांकती हूँ.
मैं तुम्हारे साथ वैसे ही जीती हूँ जैसे
घने जंगल में एक विशाल पेड़ पर उग आई हों खुम्बियाँ.
पेड़ थर्राता है पतझर में
और नंगी उम्मीदों के पिंजर के साथ
सर्दियों को आगे सौंप देता है
यह बसंत में खुद को समेटता है
और अंततः
वह गर्मियों में अचानक हुई
बारिश की दुपहरी में आराम करता है.
विघटित मौसमों में
अपने सतत अंकुर के रूप में
मैं तुम्हें खुद में धारण करती हूँ
जो मेरे भीतर की गर्मियों में संजो कर रखा है
जिसे मैं सर्दियों की शुरुआत में या
ठंडी बर्फ़बारी में
कभी भी सूखने नहीं देती.
१०.
उसकी खिड़की
पसलियों का पिंजरा एक खिड़की है
इसके भीतर एक धड़कता हुआ दिल है
अपनी प्रत्येक धड़कन में वह
किसी बारिश के दिन
अपने प्रियतम से मिलने को,
उसे यह बताने को
बेताब रहा कि उसने कितना सहा है
उसकी प्रतीक्षा करते हुए.
पिंजरे के उस तरफ़
उम्मीदों और उमंग से भरी
दो सपनीली आँखें
इंतज़ार कर रही हैं मुसलसल
घड़ी के कांटों को गिनते हुए
और बच्चे की तरह फुदकते हुए
हर बीतता घंटा
मानो झरता कबूतर का पंख.
दिल और आँखों के बीच
एक खिड़की है- पसलियों की
दो पागल प्रेमियों की गरमाहट में
पिघलते बर्फ़ के खम्भों की मानिन्द
उनका मिलना तय है
पृथ्वी पर कहीं!
११.
तुम्हें प्यार करना एक असल बात है
मुझे तुम्हारी ज़रूरत है.
यह उसी तरह सरल बात है
जैसे मैं सांस लेती हूँ या
मेरी बिटिया अपनी
नन्ही गुड़िया को लड़ियाती है.
मैं तुम्हें प्यार करती हूँ.
और यह बहुत ज़ाहिर सी बात है.
जैसे फूल
शहद को अपने कलेजे में लिए
मधुमक्खियों का करते हैं इंतज़ार.
मैं बहुत असल तरीके से
तुम्हारी प्रतीक्षा करती हूँ
जैसे कि कहीं किसी घने जंगल में
भोजन और आश्रय से रहित
स्वप्नदर्शी देखते हैं स्वप्न
एक नए दिन का.
मैं तुम्हारे लिए भरती हूँ आहें
जैसे कि तारे आहें भरते हैं
रात्रि के लिए.
तुम्हें प्यार करना
ज़िन्दा रहने के सबसे क़रीब है.
१२.
मैं
शुरुआती मार्च की पगलाई हवा में
झड़ी हुई सूखी पत्तियों के मानिंद
तुम्हारा चक्कर लगा रही हूँ
फ़रवरी अंत में
तुम्हारा असमय पहुंचना
मेरी आत्मा में ठहर गया है.
और मेरा शरीर
शुरुआती मार्च की अल सुबहों की
सर्द सर्दियों की मानिंद नर्म नाज़ुक है.
गर्मियाँ अभी भी नहीं आई हैं.
मैं अलविदा नहीं कह सकती.
मेरी बाँहों में लौट आओ न!.
मंदार के लाल फूल
फूल रहे हैं बेशुमार.
प्रियतम!
१३.
चाहत की वर्णमाला
मेरी वर्णमाला
तुम्हारे पसीने में डूबी हुई है आकंठ.
तुम्हारी ग़ैरमौजूदगी में
मैं विचरती हूँ तुम्हारे साथ
अपने कमरे के हरेक कोने में
अपनी चाहत में.
मेरी मेज पर खुली पड़ी किताब का हरेक लफ्ज़
हमारे प्यार करने की दीवानगी में
नाचता है.
हज़ारों समुद्रों का हाहाकार लिए
तुम्हारी तरफ दौड़ती हुई मैं
बन जाती हूँ एक ग्रीक देवी.
मेरे स्तन पर लगी रेत
जलनखोर सूरज को ढंकते हुए.
एक शानदार नर्तकी की तरह,
मेरे पैरों के अंगूठे लहरों पर करते हैं तत्कार.
मैं उस पीर का गाया एक लोकगीत गाती हूँ,
कलम कर दिया गया था जिसका सिर
एक किन्नर से प्यार करने की खातिर.
मुझे उन फूलों की ख़ुश्बू आ रही है,
जो उगे होंगे उनकी क़ब्र पर.
और फूलों की पंखुड़ियाँ जो गूंथती हैं हमें
हमारी चाहत की वर्णमाला के
एक धागे में.
१४.
सारे स्त्रीलिंग शब्द
मेरी तपती ज़ुबान चूमती है सारे शब्दों को
माँ, दादी, बेटी, नानी
और मेरी प्यारी.
माँ पोंछती है अपनी नंगी देह
फिराती है अपनी उँगलियाँ
मेरी पीठ पर नीचे की ओर.
मानो शांत जल में तैर रहा हो हंस.
मेरी बेटी मुझे तकती है
मानो चाँद धरती के आईने में निहार रहा हो
उसके शरीर का आकार.
पृष्ठभूमि में मेरी दादी माँ
बुनते हुए बचपन की स्मृतियाँ
अपने सिकुड़े हुए हाथों को
रखती है मेरी पेशानी पर.
मेरी नानी माँ
बचपन की उसी लोरी को गुनगुनाते हुए
बदलती है मेरे खून में सने पैड!
और फिर,
तुम हो, मेरी प्रियतम
मेरी पलकों के नीचे
मेरे साथ साँसे लेते हुए.
लाल साड़ी में मेरी आत्मा में फुसफुसाते हुए
ठहरो, ठहरो!
नहीं बीता है हमारा दिन अभी.
मेरे सारे स्त्रीलिंग शब्दों के साथ
ज़िन्दगी मेरी रगों में दौड़ती है!
१५.
घर
मेरा प्रेमी मुझे चूमता और
मुझे अपने सीने से लिपटाते हुए
मेरे कानों में फुसफुसाता,
जानेमन मैं तुम्हें प्यार करता हूँ!
उत्तर में मैं केवल एक पंक्ति कहती
‘मुझे मेरा घर दो’, ‘मुझे मेरा घर दो.’
वह गुस्सा हो गया और चिल्लाया
यही है तुम्हारा घर, तुम्हारा कमरा,
तुम्हारी मोड्यूलर रसोई और
तुम्हारा आयातित दीवान!
मैं उसके पास से उठी
और शीशे को कर दिया चूर-चूर
उसने खो दिया आपा
और चिल्लाने लगा
पागल औरत,
कितना महंगा शीशा था
तुमने मेरा सिंगारदान तोड़ दिया.
मैंने नल का हत्था उखाड़ दिया.
वह क्रुद्ध हो गया.
उसने मेरा बाल पकड़ लिया
और मुझे घर से बाहर निकाल दिया
‘हमारे’ घर से बाहर कर दिया!
और
बाहर निकाल कर धड़ाम से दरवाज़ा
बंद कर दिया.
मैंने थूका नेमप्लेट पर
और वहाँ से चल पड़ी.
घर मेरी माँ है
१६.
एक बलात्कारी राष्ट्र
मेरा इकतीसवां प्रेमी
मुझ पर धरता है इल्ज़ाम कि
मैं सेक्स की बहुत भूखी हूँ
वह कहता है ‘मैं तुम्हें प्यार करता हूँ’
मैं इसे यूं पढ़ती हूँ
मैं तुमसे सेक्स करता हूँ.
वह भेजता है आभासी चुम्बन
मैं जवाब देती हूँ
चलो मिलें और सेक्स करें
वह कहता है
आलिंगन, आलिंगन, आलिंगन
मैं कहती हूँ
सेक्स, सेक्स, सेक्स.
अंततः, हम बिस्तर पर मिले
मैंने कहा
प्यार करती हूँ तुम्हें
उसने मेरे साथ किया सेक्स और चला गया.
कोई आलिंगन नहीं. कोई चुम्बन नहीं. कोई उपहार नहीं.
एक जीर्ण-शीर्ण औरत सीखती है
पंक्तियों के बीच पढ़ना.
१७.
मेरे छठे ब्रेकअप के बारे में
राह बेहद जानी पहचानी थी.
सब कुछ शुरू हुआ था उसी तरह
उथल-पुथल से भरा, मनमौजी प्यार,
उम्मीद का खिलना,
पसीनों से भरी असंख्य रातें
रगों में दौड़ता
गुनगुनाता शहद.
सिहरता आह्लाद
सलवट लगी चादरें.
मैंने फिर से की अवहेलना चेतावनी की
अत्यधिक प्यार, प्यार को ही मार देता है.
फिर सन्देश आने कम हो गए.
मैंने साँसे रोक कर
हाथ जोड़ कर की उम्मीद.
मैंने सारे देवताओं से की प्रार्थना.
विचारशील और कलुषित.
बड़े अक्षर में लिखे या छोटे में लिखे
नहीं, नहीं ईश्वर. इस बार नहीं.
लेकिन ईश्वर भी तो आखिर एक पुरुष है.
एक क्रूर, मुस्काता पुरुष.
इतिहास खुद को दोहराता है.
अब 35 साल की उम्र में,
उस तरह रो नहीं सकती मैं,
जैसी कि रोई थी बहुत
किशोरवय का पहला रिश्ता टूटने के बाद.
नहीं काट सकती मैं अपनी नस.
नहीं खा सकती मैं नींद की ढेर सारी गोलियाँ.
भारी मन से जैसे मैंने खाई थी
दूसरा, तीसरा, चौथा या फिर पाँचवां
रिश्ता टूटने के बाद.
फिर मेरे जन्मदिन पर, उसका संदेशा चमका.
उसने मुझे परिपक्वता से काम लेने
और
शांत रहने के लिए दिया धन्यवाद.
उसने ठोंकी अपनी पीठ
मेरी निर्वस्त्र तस्वीरें किसी को न दिखाने के लिए.
एक फीकी मुस्कान रहती है मेरे चेहरे पर हरदम.
क्योंकि मैं जानती हूँ कि
एक पुरुष का प्यार
कितना प्रत्याशित है.
सभी एक ही रास्ता अपनाते हैं.
मेरे छठे रिश्ते का टूटना
बिल्कुल पहला रिश्ता टूटने जैसा ही था.
१८.
कहाँ हैं पिता मेरे?
वीर्य के मालिक द्वारा तज दी गई औरत
जो वीर्य उसे इस दुनिया में लाने के लिए
उसकी माँ के अंडाणु से मिला.
वह अपनी माँ से पूछती है
कहाँ हैं मेरे पिता?
कैसे दीखते हैं मेरे पिता?
क्या वह उस आदमी की तरह दिखाई देते हैं
जिसे मैंने टीवी स्क्रीन पर देखा था?
जिसे गिरफ़्तार किया गया था
कि जिसने फाड़ दिया था अपनी पत्नी का पेट
यह देखने के लिए कि उसके पेट में
लड़का है या लड़की?
मेरे पिता की ख़ुश्बू कैसी है माँ?
क्या वह मेरे उस पड़ोसी की तरह महकते हैं
जिसने एक बार सहलाई थी मेरी
जांघें?
कैसे बतियाते थे मेरे पिता?
क्या वह उसी
गाली गलौज करने वाले की तरह थे?
जो हर दिन
एक भीड़ भाड़ वाले मेट्रो स्टेशन में
करता है औरतों के साथ छेड़छाड़.
मेरे पिता कैसे लिखते हैं?
क्या वह उन पुरुषों की तरह लिखते हैं
जो जन शौचालयों के दरवाजों पर
बेहद बेहूदगी से
बनाते हैं रेखाचित्र योनियों के?
मेरे पिता कहाँ हैं, माँ
क्या वह कर रहे हैं इंतज़ार
करने को बलात्कार
एक नवजात बच्ची का भी?
अमिता शीरीं लेखक, अनुवादक, शिक्षक, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता. शिक्षा पीएच.डी. इतिहास इलाहाबाद विश्वविद्यालयजेल डायरी ‘सलाखों के पार’ और अनुवाद की तीन किताबें प्रकाशित. amitasheereen@gmail.com |
मौमिता आलम की कविताएँ जटिल और बहुपर्ती हैं। वे रूमान का अतिक्रमण कर प्रेम के प्रगाढ और विरूपित संसार को परस्पर रखती हैं। उन्होंने अनुभव और संवेदन की संश्लिष्ट अभिव्यक्ति के लिए समर्थ बिंबधर्मा भाषा अर्जित कर ली है।
ऐसी कविताओं के अनुवाद चुनौती होते हैं, अमिता जी ने इसका प्रभावशाली निर्वाह किया है। समालोचन को उनसे और भी अनुवादों के लिए आग्रह करना चाहिए
Wonderful poems, अनुभव को ऐसा पिरोया है अपनी intensity में कि कोई जवाब नही। एक कविता पड़ कर लगा कि यह romantic कविता है, पर जब जब आगे गया जीवन के कटु पक्षों को सामने लाते हुए जो paradoxical भाषा का सरल तरीके से विस्तार दिया है, वह लाजवाब है। चिर बाद ऐसी मन को छू लेने वाली कविताएँ पड़ी। मुबारक
मौमिता आलम एक शक्तिशाली कवयित्री हैं .रूमान का भी अतिक्रमण उनकी इन कविताओं की खासियत है…..
Rajaram Bhadu और Bhupinder Preet से पूरी तरह सहमत हूँ।
प्रेम कविताओं में ऐसे नावीन्य का संधान करना कोई आसान काम नहीं। प्रेम है तो उसी के भीतर अलगाव और *लेकिन* भाव भी स्वत: पैदा होता है। एक ही कविता में दोनों की अनुभूति करवा देना वाक़ई इन कविताओं को विशिष्ट बनाता है।।
प्रेमी में स्त्री-पुरुष का होना, पिता का होना… वाह, काश ऐसी और कविताओं का सैलाब आ सकता!!!
*मेरे ग़लत वर्तनी वाले सारे शब्द
तुम्हारे लिए मेरा प्यार हैं.*
Momita आलम और अमिता शीरीं दोनों को इस अंक को नायाब बना देने के लिए प्यार और बधाई।
मैंने कुछ ही कविताएं पढ़ी। सारी कविताएं पढ़ने का समय, धैर्य, और मानसिक एकांत अभी नहीं जुटा पाया। सिर्फ़ दो कविताएँ – पहली और आखिरी को लेकर कुछ बात –
पहली कविता ‘तर्जुमा’ उन उपमाओं और रूपकों का जस्टीफिकेशन है जो सदियों से पुरुष कवि अपनी कविताओं में इस्तेमाल करता आ रहा है, अपनी नायिकाओं के देह विन्यास के लिए।
वहीं आखिरी कविता ‘कहाँ हैं मेरे पिता?’ अलग तेवर की कविता है, जो बंगाल जैसे ऐतिहासिक चेतना संपन्न स्त्री समाज की विद्रोहिणी स्त्री की इनबिल्ट इमेज को लेकर चलती है। इसमें ऊपर से ओढ़ा हुआ वैचारिक स्त्रीवाद नहीं है। इस तेवर की कविताओं में जो अनुभवजन्य स्मृतियाँ हैं वो पाठक को ठोस धरातल पर पटकती हैं. मौमिता आलम के कवि की मूल ज़मीन यही है, जो आखिरी कविता में है। ‘घर’ कविता में भी यही स्वर यही धरातल है.
संपादक की शुरुआती टिप्पणी को नज़रअंदाज़ कर दें तो कहीं से भी यह एहसास नहीं होता कि ये कविताएँ दूसरी भाषा से अनूदित हैं। अमिता शींरी का कमाल है यह।
मौमिता आलम की यह कविताएं महज प्रेम कविताएं नहीं है जीवन की ऐसी जटिलताएं और स्वीकारोक्तियां इनमें उपस्थित हैं जो सहज रूप से कविता में आना संभव नहीं है। काव्य रूप में जीवन की त्रासदी को प्रस्तुत करना और उनमें जीवन के गहन अर्थ ढूंढना किसी विशिष्ट कवि का ही कार्य हो सकता है। मुझे इनके अनुवाद भी बहुत पसंद आए इतनी जटिल अभिव्यक्ति को अनुवाद देना सहज कार्य नहीं है।
खुद को पहचान ले और पुरुष को रेशा रेशा उधेड़ दे । और कितनी आदिम कितनी इंटेंस।
अभी ऐसी अनावृत बेलौस भाषा से हिंदी वंचित है।
मौमिता आलम की यहाँ प्रकाशित कविताओं में एक विरोधाभास है। अधिकतर कविताओं में अपने प्रेमी पुरुष के साथ दैहिक प्रेम यानी सेक्स की तीव्र इच्छा, उसका गहरा अनुभव और उनका विवरण है। ये उनकी बेहतर कविताओं में हैं और इस अर्थ में ये उन्हें उन अधिकतर महिला कवियों से अलगाती हैं जो अपनी कविताओं में दैहिक प्रेम का विवरण देने से झिझकती हैं।
शेष कविताओं में, जैसा कि नारीवादी कविताओं में अक़्सर होता है, पुरुष को एक सामान्य पुरुष में बदल दिया गया है जो बस सेक्स का भूखा है और जिसे प्रेम से कुछ लेना-देना नहीं है। ये कविताएँ साधारण हैं, बस एक विचारधारा से प्रेरित हैं।
यहाँ मैं दो बातें कहना चाहूँगा।
पहला, क्या प्रेम और सेक्स को जोड़कर देखना ज़रूरी है? यानी सेक्स को प्रेम के बिना क्यों नहीं किया जा सकता? स्त्रीवादी कविताओं से बाहर वास्तविक दुनिया में ऐसा होता है और वह हमेशा किसी पुरुष द्वारा थोप दिया गया या खरीदा गया सेक्स नहीं होता। वह एक पुरुष और एक महिला द्वारा आपसी सहमति से किया गया सेक्स भी होता है। ऐसे कम से कम कुछ किस्सों को मैं ख़ुद जानता हूँ।
दूसरा, प्रेमरहित सेक्स की इच्छा कम से कम से कुछ महिलाओं में भी पैदा होती है और वे किसी पुरुष के साथ, जो ज़ाहिर है कोई भी पुरुष नहीं होता बल्कि कोई ऐसा पुरुष होता है जिसे वे जानती हैं, ऐसा प्रेमरहित सेक्स करती भी हैं। अपने जीवन में ऐसी कुछ महिलाओं को मैं जानता हूँ जो किसी पुरुष विशेष से सिर्फ़ सेक्स चाहती थीं, प्रेम नहीं। यह भी कह दूँ कि मेरे अवलोकन के अनुसार इस प्रकार के प्रेमरहित सेक्स की इच्छा का इज़हार हमेशा पुरुषों द्वारा ही नहीं किया गया बल्कि कई बार पहले महिलाओं द्वारा किया गया।
यह मानना और कहना कि प्रेमरहित सेक्स की इच्छा सिर्फ़ पुरुषों में पैदा होती है, महिलाओं में नहीं, एक क्लीशे है।
अनुवाद में मसाज की जगह मालिश लिखा जा सकता था और ग्रीक की जगह यूनानी।
अनुभव की तीक्ष्णता को पारदर्शी बेबाकी के साथ लाजवाब शैली में अभिव्यक्ति देने के लिए मैमिता आलम की इन कविताओं को याद रखा रखा जाएगा। अमिता जी का अनुवाद भी प्रशंसनीय है।
Rustam Singh यहां आपने Moumita Alam की चंद कविताएं ही पढ़ी हैं, इसलिए आपको ऐसा लग रहा है।
इसी संग्रह के दो चैप्टर ‘He’ और ‘She’ है। जो मूलतः प्रेम कविताएं हैं। इन कविताओं की मूल फिलोसॉफी यह है- When we are in love, we are neither male nor female.
और इसी फिलोसॉफी के अनुसार कविता के बिम्ब और उसका स्ट्रक्चर है। यहीं पर आप उस ‘पुरुष’ की तस्वीर देख सकते हैं, जो सचमुच प्यार करता है।
जहां तक बिना प्यार के सेक्स की बात है, तो निश्चित ही आप बिना नमक का भोजन कर सकते हैं, लेकिन कोई भी रेसिपी ऐसी नहीं बनाई जा सकती जिसमे नमक का जिक्र न हो।
ठीक इसी तरह सेक्स पर कोई भी कविता ऐसी नहीं लिखी जा सकती जिसमे प्यार का जिक्र न हो।
अंग्रेजी में लिखी मूल कविताएँ नहीं पढ़ीं तो अनुवाद की गुणवत्ता या सफलता पर कुछ कहना उचित प्रतीत नहीं नहीं होता। परन्तु, एक बात तो तय है कि ये कविताएँ मौलिक रूप से हिन्दी की ही स्त्री – विमर्श की कविताएँ लग रही हैं। इसमें अनुवादक का भी कवि – सुलभ हस्तक्षेप, हो सकता है कि हुआ हो।
सरसरी तौर पर इन कविताओं में वे ही बातें आई हैं जो समकालीन समाज के कस्बाई हिस्से की स्त्रियों की आकांक्षाओं से जुड़ी हैं। पुरुष के साथ शारीरिक और भावनात्मक संबंध को वैवाहिक संबंध की चिर – स्थापित परंपरा से बाहर जाकर पुनर्परिभाषित और पुनर्गठित करने का जोखिम एवं साहस दिखाने का जो बीड़ा उठाया गया है इन कविताओं में उसी संघर्ष की गाथा है जिसमें नया कुछ भी नहीं है लेकिन नये की उत्कंठा और खोज अवश्य है। कविताएँ अपने शिल्प, बिम्ब- विधान और कहन में चमत्कार अवश्य उत्पन्न करती हैं लेकिन अपने कलेवर में वहीं जिस्म, सेक्स, माहवारी आदि पर जाकर टूटती जान पड़ती हैं। प्रेम और सेक्स के बीच जो बारीक रेखा है fine line है, कवयित्री उसे स्पष्ट करने की यथासंभव कोशिश भी करती है जो अति श्लाघ्य है और सराहनीय भी। लैंगिक संबंध के वर्जित इलाकों की कविताओं की अक्सर यही त्रासदी भी होती है कि लोग इन्हें श्लीलता, अपवित्रता के चालू मानदंडों पर देखना आरंभ कर देते हैं। कविता में देखना यह है कि कवयित्री अपनी अभिव्यक्ति में कितना नवोन्मेष करती है और कितनी दृढ़तापूर्वक अपनी अंतरात्मा को इनमें ध्वनित करती है। मेरी राय में शरीर से मुक्ति की छटपटाहट कहीं न कहीं इन कविताओं के नेपथ्य में बजती लग रही है और इस नेपथ्य को जाने बिना इन कविताओं के साथ न्याय करना संभव नहीं। फिलहाल, कवयित्री, अनुवादक और साहसी प्रस्तोता को बधाई।
मोमिता आलम की कविताओं में आवेग और तीक्ष्ण प्रतिरोध है। उसमें गुस्सा और नकार है जो ठहरे समाज के प्रति उकताहट से भरा है। इसकी भाषा हिन्दी भाषा की पारंंपरिक अभिव्यक्ति से अलग है। कहीं कहीं तसलीमा नसरीन के शुरूआती गद्य की याद दिलाती है। अमिता शीरींन जी को हार्दिक बधाई।
हमें कविता की इस भाषा की भी आदत डालनी होगी। यह पुरुष भाषा नहीं स्त्री के नए अनुभवों की भाषा है। इनमें प्यार भी है, उसकी राजनीति भी और उससे उपजी हताशा भी, मसलन ‘ बलात्कारी राष्ट्र ‘ एक महीन कविता है। स्त्री जो लगातार सेक्स ही कह रही है उसमें प्यार की कितनी अपेक्षा है, प्रेमी जो प्रेम ही प्रेम कह रहा है उसमें बस उपभोग कर छोड़ देने की कितनी क्रूरता सरसरा रही है।
इतनी सब कविताएं एक साथ नहीं पढ़ी जा सकतीं लेकिन जो पढ़ सकी उनमें से कुछ नए शिल्प और बड़े वितान की कविताएं हैं और कुछ साधारण और कम अर्थवान। अनुवाद बहुत सहज भाषा में हैं। शेष,
दोनों भाषाएं जानने पर ही कह सकते हैं कि मूल के कितने समीप है।
मोमिता आलम की कविताएँ चार या पांच भाग में समालोचन में प्रकाशित की जाती तो ज्यादा पठनीय न्याय की संभावना बनती।
उनकी हर कविता देर तक उसमें डूबे रहना मांग रही है। हर चार पंक्तियों के बिंब ही नरम हाथों से पकड़कर रोकते हैं ।
कान के लवों का तर्जुमा
पंख लगे पहाड़ के रूप मे
उसकी नाक का तर्जुमा
एक तुरही के रूप में
और मेरा सबसे पसंदीदा बिंब
वो करता है उसके लबों का तर्जुमा
शहद की शीशी के रूप में
जहाँ मधुमक्खियाँ रख देती हैं
अपनी जिंदगी गिरवी
मेरी गलत वर्तनी वाले शब्द
तुम्हारे लिए मेरा प्यार है
तुम मुझ पर करती हो चहलकदमी
अपने कीचड़ सने पैरों से
अपनी माहवारी के खून में सने पदचिह्न छोड़ते हुए
खेत में
सारे हाथ औरतों के हाथ हैं
और जोतने वाली सारी मुठ्ठियाँ
नवजात बच्चों के शरीर पर
माँओं के पहले चुंबन
अभी इतनी ही पढ़ी हैं, उन्हीं कविताओं के रस में हूँ फिलहाल।
मौमिता आप लिखती रहो कविताओं, अमिता हमारे लिए तर्जुमा करती रहो ( नहीं तो हम वंचित रह जायेंगे इतनी अच्छी कविताओं से) |
हार्दिक शुभकामनाएँ आप दोनों को 🌹🌹।
ये कविताएँ काव्य भाषा के पारंपरिक रूप और पठार को तोड़ती लगती हैं। कुछ कविताओं के कथ्य और उससे भी ज्यादा कहन एक दम अलग तरह के हैं। उनका निरूपण भी बोल्ड है । फिर भी कहीं से अस्वाभाविक नहीं लगता। स्त्री अनुभूति की काव्य अभिव्यक्ति इस तरह भी हो सकती है । ऐसी कविता के विश्लेषण के लिए आलोचना की भाषा भी बदलनी होगी और नजरिया भी। अनुवाद बेहतरीन हुआ है। लगता ही नहीं कि ये मूल नहीं हैं ।
बहुत अलग तरह की अच्छी कविताएँ है, दरअसल में यहां जो बहस हो रही है वह यदि लोग मूल भाषा में पढ़कर करें तो शायद ज़्यादा बेहतर होगा, बावजूद इस सबके अमिता के अनुवाद अप्रतिम है और वे न्याय करने में सफल भी हुई है
दूसरा, शुचिता, सैक्स, बिंब और नैतिकता की बात तब ही क्यों होती है जब एक स्त्री पूर्णत: बेख़ौफ़ होकर लिखकर अभिव्यक्त करती है, इसी तरह की बहस मोनिका कुमार के लिखें गद्य और कविताओं के समय होती थी, फिर एक दिन मोनिका फेसबुक से ही दूर हो गई, अनुराधा, तेजी, रश्मि भारद्वाज या कोई और महिला फ्रेम तोड़कर अभिव्यक्त करती है मुद्दे या नये बिंब में कविता रचती है तो हम सब आक्रामक क्यों हो जाते है, वर्षों पहले हंस के उत्तर औरत कथा विशेषांक में लवलीन की कहानी “चक्रवात” या स्व प्रभु जोशी के न्यूड रेखांकन जब राजेन्द्र यादव ने छापे थे तो लम्बे समय तक बहस हुई थी, जया जादवानी के उपन्यास तत्वमसि पर तो उन्हें एक सम्पादकीय लिखना पड़ा था
कम से कम अब तो इस तरह से किसी को ना लिखने की नसीहतें ना दें और ट्रोल ना करें, कोई मेहनत करके अनुवाद से एक नई खिड़की खोल रहा है तो स्वागत करना चाहिये
स्व प्रभा खेतान के उपन्यास छिन्नमस्ता या आओ पेपे घर चले पर भी बहस हुई जब एक मारवाड़ी लड़की के चरित्र को गढ़ते हुए उन्होंने उपन्यास में लिखा कि उसका भाई ही बचपन में बलात्कार करता है और सम्हालने वाली कोलकाता की बुजुर्ग महिला उस बच्ची को समझाती है कि किसी को बोलना मत
मुझे लगता है इन कविताओं को ठहरकर पढ़ने, समझने की सख्त जरूरत है, एक बैठक में चलताऊ ढंग से पढ़कर सिर्फ़ कमेंट के लिये कमेंट कर देना जवाबदेही नही है
Amita Sheereen को सलाम जिन्होंने यह दुरूह काम किया और हिंदी भाषियों को सुंदर विषय, मुद्दे और अनुवाद करके कविताएँ उपलब्ध करवाई, समालोचन का , अरूण जी का भी शुक्रिया
हम क्रूरता की, लोलुप पौरूष की बातें कर रहे हैं इतने आवेग के स्फोट पर? सारी कविताएँ कम से कम हिस्सों में बेहतरीन हैं, कुछ तो सरापा.
यह एक स्त्री के प्रेम, सेक्स और धोखों की अभिव्यक्ति है, जैसी उर्दू शायरी में भी होती आयी है.
प्रेम में देह बहुत तरह की होती है. जो प्रेमी पहले प्रेम और बाद में सेक्स करता है, वह सच्चा हो सकता है. कि पहले उसे सचमुच प्रेम रहा हो, जिसे वह पारलौकिक शय मानता हो. और कवयित्री के सेक्स पर अड़े रहने के बाद यह पारलौकिकता टूट कर उपभोग बन गयी हो. कवयित्री क्यों सेक्स पर अड़ी है, प्रेमी स्त्री को देह से अलग पारलौकिकता में क्यों देखता है?
इन सवालों के जवाब कविता में नहीं हैं और न ये कविता साधारणीकरण की इच्छुक हैं. जहाँ हम कविता के वैशिष्ट्य को त्याग नायिका-नायक की जगह सारे मर्द या सारी स्त्रियाँ रख देंगे, तो दही तो खट्टा होगा ही. क्या कविता में ऐसा कोई इंगित है भी?
ख़ुद को बेधती हुई इन कविताओं की लहरों पर अपनी मिट्टी तोड़ना ही सुख है. बहुत शुक्रिया अनुवादक का. आप दोनों जियें!