एक जीवन, इतना काम
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मुनि जिनविजय मूलतः शोधक और संपादक-पाठालोचक थे. निरंतर इक्कीस वर्ष तक यहाँ-वहाँ भटकने और जैन धर्म के संवेग मार्ग में दीक्षा के बाद उनके जीवन को यह वांछित दिशा मिली. उन्होंने संपादक-पाठालोचक के रूप में आलोचना और विवेचन-विश्लेषण भी किया, इसमें भी उनकी असाधारण विद्वत्ता का परिचय मिलता है, लेकिन यह उनके संपादक-पाठालोचक का ही विस्तार है. उन्होंने जितनी संख्या में प्राचीन ग्रंथ खोज कर उनका संपादन-पाठालोचन और प्रकाशन किया, उनको देखकर विश्वास ही नहीं होता कि कोई एक व्यक्ति, एक ही जीवन में यह सब कर सकता है. सभी विद्वान् यह तो मानते थे कि हिन्दी की पूर्ववर्ती भाषा अपभ्रंश में आठवीं सदी से ही साहित्य रचना शुरू हो चुकी थी, लेकिन ये ग्रंथ उपलब्ध नहीं थे. इनके होने का प्रमाण हेमचंद्राचार्य आदि के व्याकरण ग्रंथों में उद्धृत इनके केवल कुछ उदाहरण थे. इन ग्रंथों को ग्रंथागारों से बाहर निकालकर प्रकाश में लाने का कार्य जिन कुछ मनीषी विद्वानों ने किया उनमें मुनि जिनविजय प्रमुख थे.
सिंघी जैन ग्रंथमाला मुनि जिनविजय का सर्वाधिक दीर्घकालीन और महत्त्वपूर्ण उपक्रम था. उनकी इस ग्रंथमाला में भारतीय साहित्य की बहुमूल्य और दुर्लभ पचहत्तर कृतियाँ प्रकाशित हुईं. पाटन, जैसलमेर, खंभात आदि कई स्थानों के ग्रंथागारों की दुर्लभ पांडुलिपियों का उन्होंने निरीक्षण किया और उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का चयन कर इस ग्रंथमाला में उनका प्रकाशन किया. इनमें से कुछ का संपादन और पाठालोचन उन्होंने स्वयं किया और शेष के लिए उन्होंने देश के तत्संबंधी शीर्षस्थ विद्वानों का सहयोग लिया. उन्होंने शांति निकेतन में 1931 ई. में सिंघी जैन ग्रंथमाला की शुरुआत की. इस ग्रंथमाला की पहली रचना प्रबंधचिंतामणि और उसके अनुवर्ती तीन ग्रंथ-प्रभावकचरित्र, प्रबंधकोश और विविधतीर्थकल्प यहीं से प्रकाशित हुए. हरिभद्रसूरि और हेमचंद्रसूरि की विद्वत्ता, ज्ञान और साहित्यिक कार्यों से मुनि जिनविजय अभिभूत थे. सिंघी जैन ग्रंथमाला में हरिभद्रसूरि की विख्यात रचना धूर्ताख्यान को सम्मिलित किया गया. हेमचंद्रसूरि की इस ग्रंथमाला के अंतर्गत दो कृतियाँ-छंदोनुशासन और प्रमाणमीमाँसा शामिल की गईं.
भारतीय साहित्य की कुछ महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियाँ भी इस ग्रंथमाला के माध्यम से प्रकाश में आईं, जिनमें धर्माभ्युदयमहाकाव्य, देवानंदमहाकाव्य, संदेशरासक, पउमचरिउ और कुवलयमाला प्रमुख हैं. सिंघी जैन ग्रंथमाला में कथा, व्याकरण, कोश और दर्शन से संबंधित कुछ दुर्लभ प्राचीन ग्रंथ भी प्रकाशित हुए. हरिषेणचार्यकृत बृहत्कथाकोश और जिनेश्वरसूरिकृत कथाकोषप्रकरण भारतीय कथा परंपरा की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं, जो इस ग्रंथमाला के माध्यम से प्रकाश में आईं. भर्तृहरिकृत शतकत्रयादि और इसकी धनसारगणिकृत टीका भर्तृहरिशतकत्रयटीका भी इसी शृंखला में पहली बार प्रकाशित हुईं. इन दोनों का संपादन पाठभेदों और विस्तृत परिचय के साथ डी.डी कोसांबी ने किया.
जैसलमेर ग्रंथागार से प्राप्त दुर्लभ ग्रंथ शृंगारमंजरीकथा का पहला प्रकाशन भी इसी ग्रंथमाला के अंतर्गत हुआ. धार के परमार राजा भोज की इस रचना में एक गणिका द्वारा अपनी बेटी को ग्यारह कथाओं के माध्यम से दी गई पेशेवर सलाह है. दामोदरकृत उक्तिव्यक्तिप्रकरण बारहवीं सदी एक महत्त्वपूर्ण रचना है. यह संस्कृत रचना की आरंभिक किताब है, जिसमें संस्कृत के बरअक्स बारहवीं सदी में व्यवहृत कौशली के उदाहरण भी दिए गए हैं. प्राचीनकाल में गद्य की परंपरा का ग्रंथ षडावश्यकबालावबोध इसी ग्रंथमाला में प्रकाशित हुआ. 1411-12 ई. की यह रचना जनसाधारण को जैनधर्म के विचारों और सिद्धांतों का सरल भाषा में परिचय देने के लिए हुई. इस ग्रंथामाला में मुनि जिनविजय का संपादित ग्रंथ जैनपुस्तकप्रशस्ति संग्रह प्रकाशित हुआ, जिससे भारतीय इतिहास से संबंधित कई नई जानकारियाँ सामने आईं.
राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला मुनि जिनविजय का प्राचीन ग्रंथों के अन्वेषण और संपादन-प्रकाशन का दूसरा महत्त्वपूर्ण उपक्रम था, जिसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश राजस्थानी और हिंदी की कई कृतियाँ प्रकाश में आईं. उन्होंने इस ग्रंथमाला में राजस्थान के इतिहास से संबंधित दो आधारभूत ग्रंथों-हम्मीरमहाकाव्य और गोरा-बादिल चरित्र का संपादन-पाठालोचन स्वयं किया. नयचंद्रसूरिकृत हम्मीरमहाकाव्य रणथंभौर के चौहान राजा हम्मीर से संबंधित प्रामाणिक रचना है. इसमें अलाउद्दीन ख़िलजी द्वारा रणथंभौर किले पर आक्रमण का वर्णन है. हेमरतनकृत गोरा-बादल पद्मिनी चउपई रत्नासिंह और पद्मिनी जैसे ऐतिहासिक चरित्रों से संबंधित है. गोरा-बादिल चरित्र का उन्होंने स्वयं संपादन किया और इसकी विद्वत्तापूर्ण भूमिका लिखी. उनके निर्देशन में इस ग्रंथमाला में और कई ऐतिहासिक-साहित्यिक महत्त्व की रचनाएँ प्रकाशित हुईं, जिनमें कान्हड़दे प्रबंध, क्यामखां रासा, कूर्मवंशयश प्रकाश, नृत्यरत्नकोश, ईश्वरविलासमहाकाव्य, मुंहता नैणसी री ख्यात और मारवाड़ रा परगना री विगत प्रमुख हैं. मुनि जिनविजय ने काव्यशास्त्र और व्याकरण से संबंधित कई प्राचीन कृतियों को इस ग्रंथमाला में शामिल किया, जिनमें वृत्तदीपिका, उक्तिरत्नाकार, कारकसंबंधोद्योत, शब्दरत्नप्रदीप, स्वयंभूछंद, चांद्रव्याकरण, रसदीर्घिका, वस्तुरत्नकोश, काव्यप्रकाश सटीक और वृत्तजाति समुच्चय आदि प्रमुख हैं. दर्शन की कुछ बहुत प्राचीन और दुर्लभ रचनाएँ-प्रमाणमंजरी सटीक, तर्कसंग्रह सटीक और पदार्थ मंजूषा भी इस ग्रंथमाला में प्रकाशित हुईं.
राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला का महत्त्व इसमें सम्मिलित संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और राजस्थानी की कुछ प्राचीन साहित्यिक रचनाओं के कारण भी बहुत है. त्रिपुराभारतीलघुस्तव सटीक, प्राकृतानंद, शृंगारहारावली, दशकंठवध, वासवदत्ता कथा, बसंतविलास फागु और राजस्थानी साहित्य संग्रह जैसी रचनाएँ इसी ग्रंथमाला में प्रकाशित हुईं. कांतिविजय इतिहासमाला, जैन साहित्य संशोधक स्टडीज और कुछ दूसरी ग्रंथमालाओं में किए गए संपादन और पाठालोचन भी मुनि जिनविजय की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों में से हैं. उन्होंने कांतिविजय इतिहासमाला की शुरुआत की, जिसके अंतर्गत विज्ञप्तित्रिवेणी, कृपारसकोश, शत्रुंजय तीर्थोंद्धार प्रबंध, प्राचीन जैन लेख संग्रह, जैन ऐतिहासिक गुर्जरकाव्य संचय और द्रौपदी स्वयंवर जैसी ऐतिहासिक और साहित्यिक महत्त्व की रचनाएँ प्रकाशित हुईं. प्राचीन साहित्य के अन्वेषण और संपादन-प्रकाशन के लिए उन्होंने सतीशचंद्र विद्याभूषण आदि विद्वानों के साथ मिलकर जैन साहित्य संशोधक समिति की स्थापना की और इसकी एक प्रवृत्ति के रूप में जैन साहित्य संशोधक नामक त्रैमासिक प्रकाशन भी शुरू किया. पांच वर्ष तक निरंतर निकलने वाले इस पत्र में कई मौलिक और अनूदित शोध लेख प्रकाशित हुए. इस समिति ने इस त्रैमासिक के अलावा मुनि जिनविजय द्वारा संपादित खतरगच्छ पट्टावली संग्रह, आचारांग सूत्र, कल्पव्यवहारनिशीथ सूत्राणि, जीतकल्पसूत्र, विजयदेवमहात्म्य आदि ग्रंथों का भी प्रकाशन किया.
समिति ने विदेश में जैन दर्शन और साहित्य पर हुए शोध कार्यों को जैन साहित्य संशोधक स्टडीज शृंखला के अंतर्गत 1946 और 1948 ई. में तीन ग्रंथों के रूप में प्रकाशित किया. प्राचीन भारतीय संस्कृति के अध्ययन, संशोधन और पुनरावलोकन के लिए स्थापित गुजरात पुरातत्त्व मंदिर के आचार्य के रूप में किए गए मुनि जिनविजय के संपादन-प्रकाशन का कार्य भी बहुत महत्त्वपूर्ण है. यहाँ अध्यापन के अतिरिक्त मुनि जिनविजय ने पुरातत्त्व मंदिर ग्रंथावली के अंतर्गत छात्रोपयोगी ग्रंथों- अभिधानप्प दीपिका, प्राकृत कथासंग्रह, पालि पाठावली और प्राचीन गुजराती गद्यसंदर्भ का संपादन किया. मुनि जिनविजय ने अपने जैन मुनि जीवन के दौरान गायकवाड़ ओरियंटल सीरिज के लिए सोमप्रभाचार्यकृत कुमारपालप्रतिबोध का संपादन भी किया. यह भारतीय इतिहास और साहित्य की बहुत महत्त्वपूर्ण रचना है.
2.
साधु संस्कार और विश्वास के बावजूद उनकी अनुसंधान और संपादन-पाठालोचन विषयक दृष्टि कहीं भी केवल धार्मिक और संकीर्ण नहीं हुई. प्राचीन ग्रंथों के अनुसंधान, चयन, पाठालोचन और प्रकाशन में उन्होंने जैन और जैनेतर ग्रंथों में कोई भेदभाव नहीं किया. उन्होंने अपनी ग्रंथमालाओं में जैन रचनाओं के साथ जैनेतर रचनाओं को भी जगह दी. मुनि जिनविजय जैन धर्म, दर्शन और पंरपरा के प्रकांड विद्वान् थे, लेकिन उनकी इस विद्वत्ता ने उनको रचना के जैन धार्मिक महत्त्व निरूपण तक सीमित नहीं किया. अपने अन्वेषित-संपादित ग्रंथों के अर्थ और महत्त्व में निरूपण में उनकी दृष्टि उदार और व्यापक थी. वे रचना के महत्त्व निरूपण में उसके ऐतिहासिक महत्त्व पर ख़ासतौर पर ध्यान देते थे.
ग्रंथों के उनके विस्तृत प्रास्ताविक इस बात के साक्ष्य हैं. ख़ास तौर पर सिंघी जैन ग्रंथमाला के आरंभिक एक-दूसरे से संबंधित चार ग्रंथों-प्रबंधचिंतामणि, प्रभावकचरित्र, विविधतीर्थकल्प और प्रबंधकोश के प्रास्ताविकों में जिस तरह से उन्होंने इतिहास के कई अनछुए पहलुओं पर रोशनी डाली है, वह उनके परिपक्व इतिहास बोध का सूचक है. गोरा-बादिल चरित्र का संपादन और पाठालोचन विस्तृत और शोधपूर्ण पर्यालोचन के साथ स्वयं मुनि जिनविजय ने किया. यह पर्यालोचन इस रचना के ऐतिहासिक महत्त्व के निरूपण के लिहाज़ से बहुत महत्त्वपूर्ण है. अनुसंधान और संपादन-पाठालोचन में मुनि जिनविजय रचना के साहित्यिक महत्त्व को सर्वोपरि महत्त्व देते थे. वे इस मामले में सहृदय पारखी थे.
धूर्ताख्यान को उन्होंने इसकी असाधारण कथावस्तु, आख्यान शैली और व्यंग्य के कारण ही संपादन-प्रकाशन के लिए चुना. कथाकोषप्रकरण के प्रास्ताविक में उन्होंने उसमें संकलित कथाओं के साहित्यिक महत्त्व पर रोशनी डालते हुए उन्होंने लिखा कि “कथा के कहने में और रचने में जैसा उच्च आदर्श जैन विद्वानों का रहा है, वैसा अन्य किसी संप्रदाय का नहीं रहा.” धर्माभ्युदयमहाकाव्य, देवानंदमहाकाव्य, दिग्विजयमहाकाव्य, प्रभावकचरित्र आदि के धार्मिक-ऐतिहासिक महत्त्व निरूपण के साथ उन्होंने इनके भारतीय प्रशस्ति काव्य परंपरा में महत्त्व को भी उजागर किया. हिन्दी के रीतिकालीन काव्य में जो प्रशस्ति काव्य परंपरा है वह केवल उत्तर मध्यकालीन सामंती जीवन और परिस्थितियों की उपज नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें इन काव्यों में खोजी जा सकती है. इन रचनाओं की इस लिहाज़ से अभी कोई परख-पड़ताल नहीं हुई है.
3.
मुनि जिनविजय की अनुसंधान और संपादन-पाठालोचन की पद्धति सुव्यवस्थित, योजनाबद्ध और वैज्ञानिक थी. उन्होंने निरंतर अभ्यास और अनुभव से संपादन-पाठालोचन की अपनी पद्धति विकसित की, जिसके देश-विदेश में पर्याप्त सराहना हुई. अनुसंधान की उनकी प्रद्धति दो तरह की थी- एक तो वे किसी उपलब्ध प्राचीन रचना की नयी और प्रामाणिक पांडुलिपि की तलाश करते और दूसरे, वे किसी सर्वथा नयी पांडुलिपि की खोज करते. उनके द्वारा अन्वेषित रचनाओं में दोनों तरह की रचनाएँ मिलती हैं. एक उपलब्ध रचना के महत्त्व निरूपण और संपादन-पाठालोचन के दौरान ही जब उनके ध्यान में उससे संबंद्ध या उसकी अनुवर्ती दूसरी रचना ध्यान में आती, तो वे उसकी खोज में लग जाते. अनुसंधान के बाद मुनि जिनविजय रचना के प्रकाशन में जुट जाते. रचना को प्रकाश में लाने का मतलब उनके लिए रचना का महत्त्व निरूपण, संपादन-पाठालोचन और त्रुटिरहित और प्रभावी मुद्रण होता था. मोहनकृष्ण बोहरा के शब्दों में
“यह उनके लिए नैष्ठिक कार्य होता था, जिसे वे मनोयोग से करते थे.”
रचनाओं के पाठ संपादन और आलोचनात्मक मूल्यांकन में उन्होंने आधिकारिक विद्वानों का सहयोग लेने में संकोच नहीं किया. इस संबंध में वे बहुत उदार थे. कुछ रचनाएँ ऐसी हैं, जिनका संपादन और पाठालोचन उन्होंने स्वय़ं किया, कुछ का संपादन उन्होंने किया लेकिन इनके महत्त्व निरूपण और आलोचनात्मक मूल्यांकन के लिए उन्होंने तत्संबंधी विशेषज्ञों की सेवाएँ लीं. दामोदर पंडित की महत्त्वपूर्ण और बहुचर्चित रचना उक्तिव्यक्तिप्रकरण का संपादन उन्होंने किया, लेकिन इसमें प्रयुक्त पुरानी कौशली भाषा का अध्ययन उन्होंने विख्यात भाषा वैज्ञानिक सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या से और इसके सामाजिक और ऐतिहासिक महत्त्व के निरूपण का काम उन्होंने विद्वान् मोतीचंद से करवाया. संदेशरासक के संपादन, अंग्रेजी अनुवाद और महत्त्व निरूपण के लिए उन्होंने अपने साथ एच.वी. भायाणी का लिया. अपने द्वारा अन्वेषित कई महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रंथ उन्होंने संपादन-पाठालोचन और आलोचनात्मक मूल्यांकन के लिए उनसे संबंधित आधिकारिक विद्वानों को दिए. उन्होंने इन ग्रंथों के केवल प्रास्ताविक लिखे.
4.
पाठ संपादन की मुनि जिनविजय की पद्धति सर्वथा मौलिक और लगभग पूर्ण थी. पाठ संपादन के लिए वे मूल ग्रंथ की भाषा और उससे संबद्ध भाषाओं का ज्ञान ज़रूरी मानते थे. उन्होंने अपनी ग्रंथमालाओं में ग्रंथों के संपादन का दायित्व देने में संपादक की संबंधित भाषा के ज्ञान संबंधी योग्यता को बहुत महत्त्व दिया. वे प्राकृत व अपभ्रंश और संस्कृत सहित कई भाषाओं के विद्वान् थे, लेकिन अपनी सीमाओं से अवगत थे. उन्होंने प्रबंधचिंतामणि के हिंदी अनुवाद के लिए हजारीप्रसाद द्विवेदी को चुना. रचना के एकाधिक पाठभेदों के चयन का विवेक और पाठ के भाषिक पैटर्न की समझ भी उनके हिसाब से संपादन में ज़रूरी है. पाठभेदों के चयन और उनसे प्रामाणिक और शुद्ध पाठ का निर्धारण करने का उनका ढंग बहुत व्यवस्थित और वैज्ञानिक था. पहले वे ग्रंथागारों में उपलब्ध रचना के पाठांतरों का संग्रह करते. अधिक प्रतियाँ होने पर वे प्रतियों का वर्गीकरण करते. इनमें किसी एक प्रति को उसकी प्राचीनता, शुद्धता आदि के आधार पर आदर्श मानकर शेष से उनकी तुलना करते और इस तरह सबसे अधिक प्रामाणिक पाठ का निर्धारण करते. रचना के पाठ संपादन के लिए उनके अनुसार यह भी ज़रूरी है कि संपादक को रचनाकार के भाषा व्यवहार की समझ हो. वह विभक्ति, प्रत्यय और शब्द आदि का व्यवहार किस तरह करता है यह संपादक पहले ही जान ले तो पाठ में लिपिकर्ता या लिखिया की अशुद्धियों ठीक कर सकेगा.
उन्होंने जिन ग्रंथों का संपादन-पाठालोचन किया उनमें से अधिकांश जैन धार्मिक परंपरा से संबद्ध थे, जिसके वे प्रकांण्ड विद्वान् थे. उन्होंने अपने अन्वेषित जैनेतर ग्रंथों के पाठ संपादन में डी.डी. कोसांबी, सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या, मोतीचंद, राहुल सांकृत्यायन आदि जैनेतर विद्वानों का सहयोग लेने में संकोच नहीं किया. मूल और प्रक्षिप्त की समझ भी उनको बहुत थी. वे इसके लिए रचना की उपलब्ध सभी प्रतियों का संग्रह करके फिर पाठ भेदों में से प्रामाणिक पाठ का निर्धारण रचनाकार की भाषा व्यवहार के आदतों के आधार पर करते थे. मुनि जिनविजय संपादन-पाठालोचन से संबद्ध और सहयोगी दूसरे पक्षों पर भी मनोयोग और परिश्रम से कार्य करते थे. विद्वानों और शोधार्थियों की सुविधा के लिए बहुत परिश्रम तैयार की गईं अनुक्रमणिकाएँ (इन्डेक्स) उनके ग्रंथों का ज़रूरी हिस्सा है. यदि किसी ग्रंथ से संबद्ध या पूरक या समान कोई रचना उपलब्ध है, तो संदर्भ के लिए वे उसको भी उसके साथ प्रकाशित करते थे. मूल ग्रंथों की टीकाओं का समावेश भी उनके ग्रंथों में होता था. उनके कई प्राकृत-अपभ्रंश ग्रंथों के साथ उनके प्राचीन संस्कृत और गुजराती रूपांतर भी दिए गए हैं. प्रभावी और सुंदर मुद्रण के लिए भी मुनि जिनविजय का आग्रह रहता था.
5.
मुनि जिनविजय के काम का हिंदी भाषा के विकास की समझ बनाने में बहुत महत्त्व है. हुआ यह कि संस्कृत और हिंदी के स्वरूप और विकास की अलग-अलग समझ बनाने के प्रयास तो हुए, लेकिन संस्कृत से हिंदी के बनने की दीर्घकालीन प्रक्रिया में देश भाषाओं के बनने-बिगड़ने की उठापटक और रद्दोबदल पर कोई महत्त्वपूर्ण अध्ययन अभी तक नहीं हुआ. हिंदी के लोग अवहट्ठ या पुरानी हिंदी से पीछे जाने में नाक-भौं सिकोड़ते रहे, जबकि संस्कृत वाले संस्कृत से आगे आने में अपनी हेठी समझते रहे. मुनि जिनविजय द्वारा अन्वेषित साहित्य मे इस अनदेखी- अनसमझी विकास प्रक्रिया के साक्ष्य हैं. मुनि जिनविजय द्वारा अन्वेषित भाषा और व्याकरण के ग्रंथ संस्कृत से हिंदी के विकास के प्रक्रिया को समझने में और भी मददगार हैं. उनका अन्वेषित उक्तिव्यक्तिप्रकरण हिन्दी भाषा के विकास की प्रक्रिया को समझने में बहुत उपयोगी प्राचीन ग्रंथ है.
उनकी अन्वेषित उक्तिरत्नाकर भी उक्तिव्यक्तिप्रकरण की ही तरह हिन्दी भाषा के विकास समझने के लिहाज़ से उपयोगी रचना है. यह कृति यह जानने में मददगार है कि संस्कृत शब्दों का प्रयोग देश भाषाओं में किस तरह होने लगा था. मुनि जिनविजय के कार्य का साहित्यिक मूल्य बहुत है. किसी प्राचीन कृति के महत्त्व निरूपण के दौरान उनका ध्यान उसके साहित्यिक मूल्यांकन पर सबसे अधिक रहता था.
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान कई मनीषी साहित्य की देशज परंपरा की पहचान के काम में प्रवृत्त हुए, लेकिन आगे चलकर यह कार्य रुक गया. मुनि जिनविजय ने हिंदी और उसकी सहवर्ती भाषाओं में साहित्य की निरंतर परंपरा का अन्वेषण किया. उन्होंने मध्यकालीन साहित्यिक परंपराओं की पृष्ठभूमि के निर्माण के लिए आधारभूत सामग्री जुटाई. विडंबना यह है कि कुछ गिन-चुने साहित्यिक इतिहासकारों ने उनकी अन्वेषित सामग्री का उपयोग किया. हिंदी की पहली काव्य रचना का गौरव पाने वाला संदेशरासक मुनि जिनविजय का ही अनुसंधान है. उक्तिव्यक्तिप्रकरण सहित कुछ अन्य उनके द्वारा अन्वेषित ग्रंथों का हिंदी साहित्य के आरंभिक कालखंड में उपयोग हुआ.
उनकी अन्वेषित और संपादित कृतियों की परख-पड़ताल नहीं होने के कारण हिंदी साहित्य की पंरपरा के संबंध में कई गलत धारणाएँ बन गईं. यह मान लिया गया कि हिंदी में गद्य आधुनिक युग की देन है. मुनि जिनविजय ने आरंभ में पुरानी गुजराती गद्यसंदर्भ नामक एक संकलन में गद्य की गुजराती-राजस्थानी की प्राचीन परंपरा के जो नमूने दिए हैं वे आश्चर्यकारी हैं. उनके इस संग्रह में 15वीं शताब्दी के महत्त्वपूर्ण गद्य अवतरण एकत्र किए गए हैं. इन अवतरणों में जिस भाषा का परिचय हम पाते हैं, वह उस समय उत्तर में दिल्ली से लेकर दक्षिण में दमण तक, जो कि वर्तमान गुजरात की दक्षिणी सीमा का अंतिम स्थान समझा जाता है, समान रूप से समझी जाती थी और लिखी जाती थी. जैन साहित्य में आख्यान की परंपरा के उनके अन्वेषित बृहत्कथाकोश, कथाकोषप्रकरण, धूर्ताख्यान आदि का अभी तक सही अर्थ में अध्ययन ही नहीं हुआ है.
भारतीय जैन आख्यान परंपरा की समृद्धि और महत्त्व की ओर उन्होंने विद्वानों का ध्यान भी आकृष्ट क़िया. कविता की हमारी परंपरा भी, यदि उसमें उनके द्वारा अन्वेषित जैन रचनाओं को शामिल किया जाए, तो अभी की तुलना में अधिक समृद्ध और बहुरंगी प्रतीत होगी. उनकी अन्वेषित काव्य रचनाओं में क्षेत्रीय के साथ अलंकरण, भाषा और कथन का वैविध्य बहुत है. उन्होंने भारतीय प्रशस्तिकाव्य परंपरा में कई नए ग्रंथ जोड़कर उसको समृद्ध किया. उनके अन्वेषित प्रशस्ति ग्रंथों में अलंकरण का सर्वथा नया विधान मिलता है.
प्राचीन ग्रंथों के संपादन-पाठालोचन के दौरान उनका ध्यान रचनाकार की इतिहास दृष्टि पर पहले जाता था. प्रबंधचिंतामणि के संपादन-पाठालोचन के दौरान उन्होंने महसूस किया कि उसके लेखक मेरुतुंग को ऐतिहासिक बातों में रस था और उसका ऐतिहासिक तथ्य पर पक्षपात था. पुरातनप्रबंधसंग्रह के प्रकाशन के पीछे भी उनकी मंशा उस रचना में वर्णित ऐतिहासिक तथ्यों का उद्घाटन था. मुनि जिनविजय द्वारा अन्वेषित और संपादित ग्रंथों का ऐतिहासिक महत्त्व बहुत है. सिंघी जैन ग्रंथमाला के आरंभिक चारों ग्रंथों-प्रंबंधचिंतामणि, प्रभावकचरित्र, विविधतीर्थकल्प और प्रबंधकोश उत्तर-पश्चिमी भारत और उसमें भी ख़ासतौर पर गुजरात के इतिहास से संबंधित कई नए तथ्यों का उद्घाटन हुआ. राजस्थान के इतिहास संबंधित कई पहलुओं पर भी उनके अन्वेषित ग्रंथों से नई रोशनी पड़ी.
मुनि जीवन के दौरान उनके संपादित ग्रंथ प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग-1 और 2 इतिहासकारों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुए. इनमें वर्णित शिलालेखों का काशीप्रसाद जायसवाल, हीरानंद शास्त्री आदि ने उपयेाग किया. उन्होंने भारतीय इतिहास विषयक इतनी सामग्री सामने ला दी कि यह सदियों तक शोधार्थियों के लिए प्रेरणा और पृष्ठभूमि के रूप में उपलब्ध रहेगी.
6.
मुनि जिनविजय द्वारा अन्वेषित साहित्य का मूल्य इस अर्थ में बहुत है कि यह हमारी प्राचीन सांस्कृतिक स्थिति-परिस्थिति को समझने का बुनियादी स्रोत है. यह विडंबना है कि हमारे यहाँ इतिहास के सांस्कृतिक पक्ष पर इतिहासकारों ने उस तरह के ज़ोर नहीं दिया, जिस तरह दिया जाना चाहिए था. संस्कृति भारतीय दैनंदिन जीवन का नियामक तत्त्व है, लेकिन सांस्कृतिक इतिहास लेखन की हमारे यहाँ कोई समृद्ध पंरपरा नहीं है. जो प्रयास इस दिशा में हुए, वे दुर्भाग्य से आधे-अधूरे हैं. ख़ास बात यह है कि उनमें हमारे व्यापक सांस्कृतिक वैविध्य और निरंतर गतिशीलता की पहचान नहीं हुई है.
मुनि जिनविजय के अनुसंधान कार्य उत्तरी-पश्चिमी भारत पर एकाग्र हैं, इसलिये यहाँ के सांस्कृतिक वैविध्य और गतिशीलता की झलक उनकी अन्वेषित रचनाओं में ख़ूब मिलती है. रबींद्रनाथ टैगोर ने सिंघी जैन ग्रंथमाला के आरंभिक प्रकाशनों से ही समझ लिया था कि ये भारतीय इतिहास के सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करनेवाले सिद्ध होंगे. उन्होंने इनके संबंध में अपनी एक टिप्पणी लिखा कि “इन प्रकाशनों की महत्ता को कमतर नहीं समझा जाना चाहिए, क्योंकि ये हमारे सांस्कृतिक इतिहास के अज्ञात अध्याय को उजागर और स्पर्श करते हैं.”
मुनि जिनविजय के काम का आकलन और मूल्यांकन नहीं हुआ, इसलिए उनको कम लोग जानते हैं. उनके अनुसंधान से हिंदी भाषा और साहित्य को अपने पाँवों पर खड़े होने की ज़मीन मिली, उनके काम से भारतीय राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास के कई नए पहलू उजागर हुए, लेकिन इसका श्रेय उनको कम लोगों ने दिया. उनके अनुसंधान का मनोनीत क्षेत्र प्राचीन साहित्य था, इसलिए ‘आधुनिक’ होने की हड़बड़ी और जल्दबाज़ी में आलोचक-इतिहासकार उनके काम की अनदेखी कर आगे बढ़ गए.
मुनि जिनविजय, एक भव अनेक नाम, रज़ा न्यास – सेतु प्रकाशन, नोएडा, 2022, मूल्य: पेपर बेक रु. 575, पृ. स. 568.
(रज़ा पुस्तक माला के अंतर्गत सेतु प्रकाशन, नोएडा द्वारा 2022 में प्रकाशित मुनि जिनविजय के आत्मवृत्तांत और पत्राचार पर एकाग्र पुस्तक ‘एक भव अनेक नाम’ की भूमिका का एक अंश)
माधव हाड़ा (जन्म: मई 9, 1958)प्रकाशित पुस्तकें: सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया (2012), मीडिया, साहित्य और संस्कृति (2006), कविता का पूरा दृश्य (1992), तनी हुई रस्सी पर (1987), लय (आधुनिक हिन्दी कविताओं का सम्पादन, 1996). राजस्थान साहित्य अकादमी के लिए नन्द चतुर्वेदी, ऋतुराज, नन्दकिशोर आचार्य, मणि मधुकर आदि कवियों पर विनिबन्ध.मो. 9414325302/ईमेल: madhavhada@gmail.com |
इस अंक में लिखा है कि संस्कृति भारतीय दैनंदिन जीवन का नियामक तत्व है, लेकिन इतिहास लेखन की हमारे यहाँ परम्परा के का महत्वपूर्ण काम नहीं हुआ । मुनि जिनविजय ने 15वीं शताब्दी के अवतरणों को पिरोया । मेरी दृष्टि में यह महत्वपूर्ण कार्य है । दूसरा यह कि संपादन-पाठालोचन की भूमिका निभाते हुए उन्होंने जैनेत्तर साहित्य पर भी काम किया । उनकी दृष्टि व्यापक थी । प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं पर उनका अवदान सराहनीय है । मैं एक वर्ष तक तेरापंथ संप्रदाय के साधुओं और साध्वियों के संपर्क में रहा था । इस संप्रदाय का मुख्यालय लाडनूँ में है । इस संप्रदाय के दसवें आचार्य महाप्रज्ञ ने जैन संप्रदाय के पाली भाषा पर साधना की थी । वे दूरदर्शी थे । मैं सनातन धर्म का पालन करता हूँ । आचार्य महाप्रज्ञ हमारे नगर हाँसी में आये थे । तब यहाँ की दस संस्थाओं के व्यक्तियों को बुलाया गया था । मुझे भी आमंत्रित किया गया और मुझे आश्वासन दिया गया कि आपको वक्तव्य देने के लिये नहीं बुलाया जायेगा । लेकिन मंच संचालक ने सबसे पहले मुझे बुला लिया । तीन मिनट के लिये बोलना था । मेरे मित्रों ने बाद में बताया कि आपके भाषण को आचार्य महाप्रज्ञ ने ध्यान से सुना और आपकी ओर देखते रहे । सारी बात लिखना समुचित नहीं होगा ।
मुनि जिनविजय के बारे में जानने का सौभाग्य मित्र माधव हाड़ा Madhav Hada के सौजन्य से शिमला में हुआ। औपनिवेशिक युगीन महान बौद्धिकों में उनका नाम आदर से लिया जाना चाहिए। उनके बंगाल कनेक्शन के बारे में जानकर किंचित आश्चर्य हुआ। विजय सिंह नाहर के परिवार से उनका गहरा संपर्क था और शांतिनिकेतन को उन्होंने सेवाएं दी थी, जिसका ऐतिहासिक महत्त्व असंदिग्ध है।
भारतीय बौद्धिक इतिहास की देशज परंपराओं के बारे में जानने को इच्छुक लोगों के लिए प्रो हाड़ा का यह आलेख उपयोगी होगा।
आधुनिक भारतीय भाषाओ के साहित्य पर अनेक आध्यात्मिक संप्रदायों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव रहा। इनमें विशेषकर जैन,बौद्ध एवं कई नाथपंथी संप्रदाय उल्लेखनीय हैं । हम देखते हैं कि हिंदी भाषा के प्रारंभिक रूप अपभ्रंश में आठवीं सदी से हीं साहित्य सृजन शुरू होता है जो एक समय बाद दक्खिनी में अमीर खुसरो से होते हुए मध्यकालीन भक्ति काव्य तक अपना उत्कर्ष पाता है।माधव जी को इस शोधपरक आलेख के लिए साधुवाद !