नामवर जी की उपस्थिति मेरे जीवन में एक और रूप में भी है. पर शायद उसे बताने के लिए मुझे अपने निजी जीवन के कुछ पन्ने खोलने होंगे, जिनमें मेरी जीवन कथा का कुरुक्षेत्र अध्याय जुड़ा हुआ है. मेरे जीवन का सबसे विचित्र, बीहड़ और उथल-पुथल भरा दौर, जिसे याद करना एक साथ ही रोमांचक और खासा तकलीफदेह भी है.
असल में मैं शुरू से ही विज्ञान का विद्यार्थी रहा. प्रतिभाशाली था और नंबर खासे अच्छे आते थे, तो घर वालों का सपना था कि मैं इंजीनियर बनूँ. पर किशोरावस्था तक आते-आते साहित्य का कीड़ा मुझे काट चुका था. कुछ इस तरह कि मैं कुछ भी करूँ, पर मेरे भीतर तो साहित्य ही नदी की धार बनकर बहता था. रात-दिन, चौबीसों घंटे. नवीं-दसवीं तक आते-आते प्रेमचंद का लगभग पूरा साहित्य मैं पढ़ चुका था. फिर बंकिम, शरत और रवींद्र का चस्का लगा, और यह पाट चौड़ा ही होता गया. शुरू में हिंद पाकेट बुक्स की एक और दो रुपए में आने वाली पुस्तकों ने इसमें बहुत मदद की. फिर जब रुचियाँ बढ़ीं तो और रास्ते भी निकलते गए.
इंटरमीडिएट के बाद इंजीनियरिंग के एक बड़े संस्थान में मेरा दाखिला हुआ, पर मैंने कोई बहाना बनाकर टाल दिया. घर वालों को समझाया कि मैं भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. करके प्रोफेसर बनना चाहूँगा. पर आगरा कालेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. करने के बाद जैसे इल्हाम हुआ कि मुझे तो इस दुनिया में साहित्य के लिए भेजा गया है. तो मैं कब तक चक्की के पाटों के बीच पिसता रहूँगा? तभी तय किया था कि हिंदी में एम.ए. करके शोध करूँगा और पूरा जीवन साहित्य ही लिखूँगा-पढ़ूँगा. साहित्य की रोटी खाऊँगा. पूरी नहीं तो आधी सही, पर साहित्य के लिए जिऊँगा, साहित्य के लिए मरूँगा.
एम.एस-सी. के बाद अपने गृहनगर शिकोहाबाद से मैंने हिंदी में एम.ए. किया, फिर यूजीसी के फेलोशिप के तहत रिसर्च करने कुरुक्षेत्र विश्वविदालय पहुँच गया. वहाँ हिंदी विभाग के अध्यक्ष कविहृदय रामेश्वरलाल खंडेलवाल जी थे, जो स्वयं भी कविताएँ लिखते थे. उन्हें मैं भा गया था, इसलिए मेरा चयन भी उन्होंने ही किया था. पर कुरुक्षेत्र जाने पर मुक्तिबोध, धूमिल, जगूड़ी, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे सरीखे कवियों को पढ़ा तो लगा, मैं अंदर-बाहर से बदल रहा हूँ. खंडेलवाल जी कविताएँ तो नई कविता सरीखी लिखते थे, पर अपने छायावादी संस्कारों से मुक्त भी नहीं हो पा रहे थे. जबकि मुझे बिल्कुल नया जीवन, नई सोच मिल गई थी. मेरी भाषा और व्यक्तित्व दोनों ही बड़ी तेजी से बदले.
खंडेलवाल जी मेरे शोध निर्देशक थे. वही मुझे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में लाए थे, पर अब वही मुझसे कुछ नाराज रहने लगे. साहित्यिक रुचियों की भिन्नता का असर कई और चीजों पर भी पड़ने लगा था. फिर इसी में मेरे विवाह का प्रसंग भी जुड़ा.
असल में खंडेलवाल जी केवल मेरे ही नहीं, मेरे साथ ही समकालीन कविता में शोध कर रही मेरी पत्नी सुनीता के भी शोध निर्देशक थे, जो तब शोधछात्रा थी. साथ-साथ शोध करते हुए हम निकट आए और फिर जीवन का सफर भी साथ ही तय करने का फैसला किया. बहुत सादा ढंग से हमने विवाह किया, जिसमें यूनिवर्सिटी के दो-चार मित्र और कुछ परिवारीजन थे. न कोई ढोल-तमाशा न दिखावा. जो कपड़े रोज पहनते थे, वही कपड़े. कुछ भी अलग नहीं. कोई डेढ़-दो घंटे का बहुत सादा सा आयोजन, जिसमें केवल चाय पिलाकर सबको विदा किया गया.
अंतरजातीय विवाह की अपनी मुश्किलें थीं. वे तो झेलनी ही थीं. लेकिन खंडेलवाल जी ने विभागीय कार्यवाही करके हमारी मुश्किलें और भी बढ़ा दीं. नतीजे के तौर पर हम दोनों के शोध निर्देशक बदले गए. सुनीता का स्कॉलरशिप भी रोक दिया गया. कई तरह के अन्याय. विवाह के तुरंत बाद ही ये तकलीफदेह स्थितियाँ हृदय तोड़ देने वाली थीं.
ऐसे वक्त में किसी तरह जीवन की गाड़ी ठेलता हुआ, मैं शोध में जुटा था. शोध का विषय भी काफी अलग और व्यापक था, ‘छायावाद एवं परवर्ती कविता में सौंदर्यानुभूति’. परवर्ती का मतलब आठवें दशक की कविता तक, जिसमें धूमिल, जगूड़ी और कुछ बाद की पीढ़ी भी आ जाती है. मुश्किलें थीं, पर इस कठिन दौर में भी नामवर जी मानो गुरु के रूप में मेरे साथ खड़े थे, मुक्तिबोध एक बड़े कवि और चिंतक के रूप में मुझे सहारा दे रहे थे. मैंने तय कर लिया था कि जिस कृत्रिम भाषा में ज्यादातर शोधगंथ लिखे जाते हैं, मैं उसमें नहीं लिखूँगा. बल्कि जिस भाषा को मैं रोज लिखने-पढ़ने में बरतता हूँ, जिसमें सोचता और कविताएँ लिखता हूँ, उसी भाषा में मैं अपना शोधग्रंथ लिखूँगा.
समकालीन कविता को समझने की दृष्टि मुझे नामवर जी से मिली तो आधुनिक साहित्य के सौंदर्य-बोध को समझने में मुक्तिबोध की पुस्तकों ‘नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’, ‘एक साहित्यिक की डायरी’ तथा ‘नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ से मुझे बहुत मदद मिली थी. सौंदर्यशास्त्र पर प्लेटो समेत बहुत से विदेशी चिंतकों की पुस्तकें तो पढ़ी ही थीं. बहुत कुछ था, जो एक साथ चल रहा था. शोध पूरा हुआ और शोधग्रंथ जमा हुआ तो मेरी एक आँख हँस रही थी, एक रो रही थी. खुशी इस बात की थी कि अंततः इन बुरी स्थितियों में भी शोधकार्य ठीक से संपन्न हुआ. रोना इसलिए आ रहा था कि शोधग्रंथ जमा होते ही मेरा फेलोशिप भी बंद हो गया, और अब मैं पूरी तरह बेरोजगारी की चपेट में आ चुका था.
ऐसे वक्त में खंडेलवाल जी ने शायद मेरी मुश्किलें कुछ और बढ़ाने के लिए ही, मेरे शोधग्रंथ को जाँच के लिए हिंदी आलोचना के दो दिग्गजों डा. नगेंद और नामवर जी के पास भेज दिया. दोनों परस्पर विरोधी विचारों के थे. लिहाजा अधिक संभावना यही थी कि एक उसे पसंद करेगा तो दूसरा नकारेगा. पर मेरे जीवन का यह बड़ा सुखद आश्चर्य है कि डा. नगेंद्र और नामवर जी दोनों ने ही मेरे शोधगंथ की काफी तारीफ की, भले ही दोनों ने अलग-अलग बिंदुओं की तारीफ की हो. जो भी हो, मेरे लिए तो यह अकल्पनीय ही था.
बाद में मौखिक परीक्षा के लिए मैं डा. नगेन्द्र के निवास पर पहुँचा तो उन्होंने शोधग्रंथ पर हलकी नजरसानी करने के बाद परिशिष्ट पर नजर गड़ाते हुए कहा, “आपने मेरी ज्यादा पुस्तकों का संदर्भ नहीं दिया..?”
इस पर मैंने उन्हें बताया कि मेरी सौंदर्य दृष्टि उनकी दृष्टि से काफी अलग है. छायावादी कवियों की तरह केवल कुछ चीजों में सौंदर्य देखने के बजाय मैं समूचे जीवन और जीवन यथार्थ में सौंदर्य देखता हूँ, और इसी को अधिक श्रेयस्कर भी मानता हूँ. प्रगतिवादी कविता और आगे चलकर समकालीन कविता तक का सौंदर्य इसी रूप में देखना संभव है. फिर मैंने उन्हें बताया कि पहले मैं भी कुछ छायावादी किस्म का कवि हुआ करता था. छायावादी कविता मुझे बहुत मोहती भी थी. पर जब मैं अपने जीवन के सबसे घोर संघर्षों में जुटा था, तब छायावादी कविता मुझे छोड़ गई. लेकिन मुक्तिबोध की कविता और उनकी सौंदर्य दृटि मेरे साथ रही, बल्कि उससे मुझे बहुत सहारा मिला, जैसा कि बाद के और भी बहुत से कवियों से मिला, जो जीवनधर्मी कवि थे. उनकी सौंदर्यदृष्टि भी जीवनधर्मी सौंदर्यदृष्टि थी, और वही मुझे सही भी लगती है.
मुझे लगा कि डा. नगेंद्र बुरा मान जाएँगे. पर इसके बजाय उन्होंने मेरे जीवन और परिस्थितियों को लेकर थोड़ी सी बातचीत करने के बाद कहा, “आप बाद में कभी आइए मेरे पास. मैं देखता हूँ, आपके लिए क्या कर सकता हूँ. ”
मैं डा. नगेन्द्र से मिलने तो नहीं गया, पर मैंने अपने भीतर बैठे नामवर जी और मुक्तिबोध दोनों को ही धन्यवाद दिया, जिन्होंने मुझे यह सच कहने की हिम्मत और साहस दिया. और सच पूछिए तो मेरे शोध निर्देशक चाहे जो भी रहे हों, पर मैंने अपने मन में शोध निर्देशक के आसन पर नामवर जी की मूर्ति को बैठाकर ही यह पूरा शोधप्रबंध लिखा था. संयोग से जिसे खुद नामवर जी ने देखा भी, और सही किया.
यों मुझे नए साहित्य और समकालीनता से जोड़ने वाले बेशक नामवर जी ही थे, जिनके लिए मेरे मन में बहुत सम्मान और गहरी कृतज्ञता है. पर फिर भी, यह बड़ी हैरानी की बात है कि उन्हें पढ़ते हुए कई बार मेरे मन में गहरा असंतोष उमड़ता था. उनसे बात करने और कभी-कभी तो बहसने की इच्छा होती थी. उनके बहुत से अंतर्विरोध परेशान करते थे. मसलन एक सवाल तो यही बार-बार में उठता था कि ‘कविता के नए प्रतिमान’ में बाबा नागार्जुन, केदार और त्रिलोचन लगभग अनुपस्थित क्यों हैं? उनके कविता के नए प्रतिमानों पर ये बड़े और मूर्धन्य कवि खरे नहीं उतरते तो यह उनके नए प्रतिमानों का दोष है या इन कवियों का?
इसी तरह नामवर जी के जो लेख और इंटरव्यू मैंने पढ़े, उनमें कहीं वे जीवन यथार्थ की ओर अधिक झुकते नजर आए तो कहीं एक भिन्न तरह के कलावाद की ओर, जिसमें रूप या शैली वस्तु की तुलना में कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है. यहाँ तक कि कई बार एक ही लेखक के बारे में उनके परस्पर विरोधी विचार भी पढ़ने को मिल जाते हैं.
यों नामवर जी की आलोचना दृष्टि को लेकर बहुत से प्रश्न मन में उठते थे. उनके अंतर्विरोध परेशान करते थे और मैं मन ही मन उनसे बहसता और सवाल करता था. कभी-कभी उन्हें पढ़ते हुए अपने सवालों के जवाब भी मैं तलाशता. पर यह सारा कुछ एकतरफा ही था.
आखिर मैंने सोचा, नामवर जी से मिलना चाहिए और उनके आगे अपने सवालों को रखना चाहिए. हालाँकि मन में यह संकोच भी था कि पता नहीं, एक साहित्यिक के रूप में वे मुझे जानते भी हैं या नहीं. पर मैंने उन्हें फोन किया तो उन्होंने बड़ी सहज प्रसन्नता से मिलने की इजाजत दे दी.
नामवर जी को याद करना हिंदी साहित्य के एक दौर को याद करना है।
बहुत सुंदर. प्रिय अरुण देव जी, आप बहुत ही सार्थक और गंभीर साहित्यिक कार्य कर रहे हैं. मैं नियमित पढ़ता रहता हूँ. नामवर सिंह से संबंधित मेरे अनुभव बिल्कुल अलग तरह के हैं. उनको संचित कर रहा हूँ. समालोचन का कोई सानी नहीं. बधाई हो.
बहुत सार्थक बातचीत है,,लगभग हर पहलू पर,,साधुवाद
प्रकाश जी का नामवर सिंह जी पर केन्द्रित ख़ास तौर से उनके जन्मदिन पर जो लेखांकित संस्मरण है उसमें नामवरसिंह को लेकर उनका सम्मानीय दृष्टिकोण के
साथ-साथ कुछ अनसुलझे,अनछुये पहलुओं को भी रेखांकित किया है. गौरेतारीफ़ है.
नामवर सिंह से मेरी मुलाक़ात ( खड़े-खड़े ) राठीजी ने करायी,जेएनयू का परिसर था.उनकी कँटीली मुस्कान और कटाक्ष आज भी याद है ‘ महाकवि जा रहे हैं ‘ कवि का नाम विस्मृत हो गया लेकिन लहजा याद है.बहरहाल
अशोकजी का ‘फ़िलहाल ‘ सहित कई आलोचनात्मक किताबें आई, और साहित्य में छाये घनघोर रजत-श्याम बादलों से आच्छादित आकाश को, विस्तीर्ण धुन्ध को साफ़ किया है.
प्रकाश जी ने बेबाक़ी के साथ जो उल्लेख किये हैं, वे सच के साथ नामवर जी को आत्मसात् करते हैं. रामविलास जी को उद्धृत करते हुए उनके मन को खंगालना, दुर्भावना नहीं बल्कि सहजता थी.
प्रकाश जी को पढ़ते हुए उनसे बातचीत करना अच्छा लगता है.
वंशी माहेश्वरी.
नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में अपने आलोचना कर्म के बारे में कहा था कि मैं गया तो था कविता के मंदिर में पूजा का थाल लेकर लेकिन मंदिर की गन्दगी देख झाड़ू उठा लिया और बुहारने लगा। आलोचक की वही भूमिका होती है जो सेना में ‘सैपर्स एंड माइनर्स’ की होती है।सेना को मार्ग दिखाते, पुल-पुलिया बनाते वही आगे आगे चलता है और सबसे पहले मारा भी वही जाता है। यह भी कहा था कि आलोचक न्यायाधीश नहीं, मुकदमे के बचाव पक्ष (डिफेंस) का वकील होता है और वह भी इतना ईमानदार वकील कि मुव्वकिल से केस के संबंध में कुछ छुपाता नहीं। साफ साफ बता देता है कि तुम्हारा केस कमजोर है। फिरभी, जिरह करेंगे जीतने के लिए।वह साहित्य का सहचर है। प्रकाश मनु और नामवर सिंह के बीच का यह विशद संवाद ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए।इसमें कई महत्वपूर्ण बातें उभरकर आती हैं।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !
आभारी हूँ भाई अरुण जी।
नामवर जी पिछले कोई पैंतालीस बरसों से मेरे मन और चेतना पर छाए हुए हैं। उन्हें खूब पढ़ा। उनके लिखे एक-एक शब्द को लेकर खुद से और अपने भीतर बैठे नामवर जी की छवि से अंतहीन बहसें कीं, यह एक अंनंत सिलसिला है।
लेकिन साथ ही मैंने उन्हें अपने गुरु के आसन पर बैठाया। ऐसा गुरु, जो शिष्य से यह नहीं कहता कि जो मैं कहता हूँ, वह मान लो। इसके बरक्स वे मेरे ऐसे गुरु थे, जो शिष्य को बहस के लिए न्योतते थे।
वे यह नहीं चाहते थे कि शिष्य ‘जी…जी’ करता उनके पास आए, बल्कि वे इस बात के लिए उत्तेजित करते थे कि आप उनके पास सवाल लेकर जाएँ। और सवालों के उस कठघरे में बैठकर जवाब देना उन्हें प्रिय था। एक चुनौती की तरह वे प्रसन्नता से सवालों का सामना करते थे।
शायद इसीलिए मेरे मन में उनके लिए इतना आदर और इतनी ऊँची जगह है, जहाँ कोई दूसरा नहीं आ सका।
और इससे भी बड़ी बात थी, उनका आत्म-स्वीकार या कनफेशन, जहाँ वे खुद अपने काम से असंतोष जताते हैं, और मानो एक तीखी आत्मग्लानि के साथ कहते हैं कि वे इससे कुछ बेहतर कर सकते थे, या कि उन्हें करना चाहिए था।
नामवर जी की इस ईमानदारी ने मुझे उनका सबसे ज्यादा मुरीद बनाया। कम से कम मैंने अपनी निसफ सदी की साहित्य यात्रा में ऐसा कोई दूसरा लेखक या आलोचक नहीं देखा, जिसने अपने काम से इस कदर असंतोष जताया हो या इतनी ईमानदारी से कनफेशन किया हो।
इसीलिए आत्मकथा लिखते हुए नामवर जी पर लिखना मेरे लिए सबसे ज्यादा चुनौती भरा था। वह लिखा गया, और ‘समालोचन’ के जरिए मेरे बहुत सारे मित्रों और सहृदय पाठकों तक पहुँचा। इसके लिए भाई अरुण जी और ‘समालोचन’ का साधुवाद।
सस्नेह,
प्रकाश मनु
नामवरजी को या तो बहुत प्रशंसा भाव से देखा गया (उनके आगे-पीछे उनके शिष्यों की एक बड़ी जमात थी ) या फिर अपने पूर्वाग्रहों के कारण अति निंदाभाव से। लेकिन उनकी साहित्यि समारोहों में उपस्थिति अनिवार्य थी। ।वे एक कद्दावर व्यक्ति थे और प्रखर वक्त थे। उन्हें सुनना स्वयं को समृद्ध करना था मेरे लिए।