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Home » मेरी प्रिय कविताएँ: नील कमल

मेरी प्रिय कविताएँ: नील कमल

लेखक अपने लेखन के विषय में कहते ही हैं, उनमें से अधिकतर कविताएँ भी पढ़ते होंगे, उनकी कुछ प्रिय कविताएँ भी होंगी. किस कवि की कौन सी कविता उन्हें पसंद है ? समालोचन का यह नया स्तम्भ, ‘मेरी प्रिय कविताएँ’ इसी पर आधारित है. आइये पढ़ते हैं नील कमल की प्रिय कविताएँ सुगठित भूमिका के साथ. भविष्य में यह प्रयास रहेगा कि लेखन के अलावा अन्य क्षेत्रों के लोग भी अपनी पसंद की कविताओं के विषय में कहें.

by arun dev
October 16, 2021
in कविता
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मेरी प्रिय कविताएँ: नील कमल
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मेरी प्रिय कविताएँ

नील कमल

दस कविताओं का यह चयन एक प्रकार से ‘रैंडम सेलेक्शन’ ही है और इसीलिए इस चयन में कोई वरीयता-क्रम अथवा किसी किस्म की सैद्धांतिक हदबंदी तलाश करने वाले पाठक निराश हो सकते हैं. किंतु एक बात सत्य है कि ये कविताएँ हिंदी की अकादमिक दुनिया की चर्चित-पुरस्कृत कविताएँ नहीं हैं. तथापि ये कविताएँ हिंदी कविता की समकालीनता का दूसरा छोर हैं, वह विपरीत छोर जहाँ कविता अपने पूरे वैभव के साथ और मजबूती के साथ खड़ी मिलती है. पाठक इन कविताओं से गुज़रते हुए खुद इस बात की तसल्ली कर सकते हैं.

रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ जब कविता में आसमान में धान बोने की बात करते हैं तो वे सीधे-सीधे ईश्वर की अवधारणा को ही चुनौती देते हैं. विद्रोही की कविता निश्चित रूप से हिंदी कविता का एक प्रस्थान बिंदु है. विद्रोही इस अर्थ में हिंदी के विशिष्ट कवि हैं कि वे एक तरह का एक्टिविज़्म जीने वाले अनूठे कवि हैं और सबसे बड़ी बात यह कि वे वाचिक परम्परा के एक तेजस्वी और जनप्रिय कवि भी हैं. वे आजीवन छात्रों नौजवानों के बीच रहे और आखिरी साँस तक उनके साथ मोर्चे पर भी डटे रहे.

राजेश सकलानी जब कविता में बच्चों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हमसे उम्मीद करो तब वे बतौर कवि और बतौर मनुष्य खुद अपनी एकाउंटेबिलिटी तय करते हैं. यह दायित्वबोध हिंदी कविता में विरल है. चालू हिंदी कविता का मिजाज तो ऐसा है कि कवि अपने अलावा हर चीज़ को कठघरे में खड़ा करता मिलता है. राजेश सकलानी असम्भव उम्मीद और मनुष्यत्व से भरे एक जिम्मेदार कवि के रूप में हमें मिलते हैं. जिम्मेदार इसलिए कि समकालीन चालाकी से वे काम नहीं लेते.

प्रफुल्ल कोलख्यान जब पलासी के मैदान की घासों को याद करते हैं तो इसके तार ईस्ट इंडिया कंपनी और सिराजुद्दौला तक जुड़ते हैं. पलासी में बढ़ती हुई घास का मतलब है प्रतिरोध का अनुपस्थित होना. जिस तरह से साम्राज्यवादी आग्रासन और पूँजीवादी तंत्र की गिरफ्त में आज हम हैं इस कविता का महत्व और बढ़ जाता है.

सुरेश सेन निशांत जब कविता के अंतःपुर का चित्र उकेरते हैं तो समकालीन कविता का संसार अपने छल-कपट-बेईमानी के साथ नंगा खड़ा मिलता है.

निलय उपाध्याय की कविता गाँव से पलायन के सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों से टकराती है. कविता का पराजित नायक अपने विजेता के पास भी इस विश्वास के साथ जाता हुआ दिखता है कि जैसे वह पनाह पा ही जाएगा. यह उसी तरह का विश्वास है जो सिकन्दर से पराजित पोरस में दिखता है. लेकिन एक बात स्पष्ट है कि यह पराजय कविता के प्रथम पुरुष को स्वीकार्य नहीं है. वह एक मद्धिम सी चेतावनी भी अपने पीछे छोड़ता हुआ जाता है कि उसका जाना याद रखा जाये. कविता में यह गाँव से जाना गाँव को अपने साथ लिए चलना भी है तो खुद को गाँव में ही छोड़ते हुए जाना भी है.

प्रेम कितना उदात्त और वैश्विक हो सकता है इसका एक सुंदर निदर्शन हम कुमार सौरभ के यहाँ देखतें हैं. पाठक स्वयं महसूस कर सकेंगे कि यह बद्रीनारायण-मार्का प्रेमपत्र से भिन्न जमीन की बड़ी कविता है. जिस उम्र में लोग इस विश्वास के साथ जीते हैं कि प्रेम में सबकुछ जायज है उस उम्र में यह कवि प्रेम को लेकर एक नए स्वप्नलोक को गढ़ रहा है. वह प्रेम में कभी मिथिला का पान बन जाने की इच्छा से भरा दिखता है तो कभी प्रेम में वियतनाम हो जाने का संकल्प भी लेता दिखाई देता है. हिन्दी कविता में प्रेम की यह जमीन सर्वथा अलग है जिसमें आवारगी के साथ साथ अनुशासन की प्रस्तावना भी है. यह प्रेम खतरे उठाता है किन्तु डरा हुआ नहीं है. दुनियावी प्रगति के सिद्धांतों में इस प्रेम का विश्वास नहीं है. यह सबकुछ पा लेने की होड़ में शामिल नहीं होना चाहता.अभावों और संघर्षों की आँच में परवान चढ़ने वाला यह प्रेम हाशिए की जिंदगी की आवाज़ बनता है. सपनों के लिए बड़ी कीमत चुकाने को प्रस्तुत यह प्रेम नुचे पंखों के बावजूद परवाज़ का अदम्य हौसला रखता है.

पूनम विश्वकर्मा बस्तर अंचल के आदिवासी जीवन और उसके जमीनी संघर्ष को एक सुंदर प्रेम कविता के माध्यम से जिस सच्चाई और ईमानदारी के साथ दर्ज करती हैं वह हिंदी कविता की एक उपलब्धि है. प्रेम का जो आदिम चित्र पूनम विश्वकर्मा की कविताओं में अपनी स्वाभाविकता के साथ दर्ज होता है वह दुर्लभ है. यहाँ सीने को चीरती शत्रु की गोली के बारुद को पानी पानी कर देने वाले मंत्र की कामना है. इस प्रेम में औदात्य है, प्रतिहिंसा नहीं है. यह प्रेम मीठे पान का एक टुकड़ा अपनी जीभ पर पाकर रीझना जानता है. यह प्रेम टोरा तेल से चुपड़े बालों के कालेपन को देखकर मुस्कुराता है. कहना चाहिए कि इन कविताओं की सादगी ही उसकी ताकत है.

अरुण श्री किसान की अधजली चिता के साथ इस देश की शिनाख्त करते हुए भारतीय किसान जीवन और मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक परिदृश्य में किसान त्रासदी को जिस शिद्दत के साथ रखते हैं वह रेखांकित करने लायक है. इधर किसान त्रासदी पर लिखी गई कविताओं की भीड़ में यह एक हासिल है. अरुण श्री के यहाँ कविता की लयात्मकता और विषयवस्तु के स्तर पर ट्रीटमेंट असाधारण है.

अनुज के यहाँ दलित समाज और दलित जीवन की प्रामाणिक छवियाँ हमें देखने को मिलती हैं और यहाँ पूरी ईमानदारी के साथ वे इस जीवन की विसंगतियों पर उंगली रखते हैं. अनुज की कविताओं की खासियत यह कि ये एक खास अर्थ में भोक्ता की कविताएँ भी हैं इसलिए इनमें एक तटस्थ जीवंतता भी है. अनुज हाशिये के समाज की चेतना को उसके स्वाभाविक नुकीलेपन के साथ कविता में रखते हैं और यह उनके काव्य संसार को अधिक अर्थवान और प्रामाणिक भी बनाता है.

उत्कर्ष यथार्थ सामान्य जीवन से गायब होती चीज़ों के बहाने भूमंडलीकरण के आलोक में भारतीय जन-जीवन में आये बदलावों की तहक़ीक़ात करते हैं. उत्कर्ष एक परिवेश सजग कवि के रूप में भी सामने आते हैं जब वे अपने आस पास की चीजों को दृश्य से ओझल होते हुए देखते और महसूस कर रहे होते हैं. इन ओझल होती हुई चीजों में फेरी वाला, बाइस्कोप वाला, चुड़िहारिन और ऐसे ही निकट के चरित्र दर्ज होते हैं और कवि इनके लिए महज चिंतित ही नहीं है बल्कि इनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाते हुए अपने नागरिक कर्तव्य के प्रति सजग भी है. कहीं से भी कविता में ये बातें बनावटी नहीं लगतीं. उत्कर्ष अपने परिवेश के प्रति बेहद आत्मीय दृष्टिकोण रखने वाले कवि हैं.

_________

एक

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.

(नयी खेती / रमाशंकर यादव “विद्रोही”)

 

दो

हम रद्दी कागज़ों की तरह उड़ रहे हैं
बच्चों हमें अपने बोझ से दबाओ

लकड़ी की तरह बेजान हमारे हाथों को
अपने नर्म हाथों से छुओ

व्यर्थ लग रही हो जब सारी दुनिया
किसी मामूली चीज़ की ख़्वाहिश करो

चिड़िया की तरह चहको गिलहरी की तरह दौड़ो
पानी की तरह बहो
खिलखिलाओ या चीख़ ही पड़ो भय से

भय के क्षणों में हमारे सीनों पर
हौसलों की तरह बंध जाओ

हमें गहरी उम्मीद से देखो
तमाम शोर अनिश्चितता और हड़बड़ी के बीच
जब किसी को किसी से किसी को खुद से
कोई उम्मीद नहीं है
हमें गहरी उम्मीद से देखो

हमसे उन तमाम चीज़ों की उम्मीद करो
जिनकी तुम्हें बहुत ज़रूरत है
और दुनिया को भी.

(हमसे उम्मीद करो / राजेश सकलानी)

 

तीन

पलासी में बड़े बड़े मैदान हैं घास के
लहराते हुए घास बड़े डरावने लगते हैं
पलासी को मैंने सपनों में जाना है
कभी वहाँ गया नहीं अपने जाने, लेकिन पलासी
मेरे सपने में बार बार आ जाया करता है सताने
और मैं बेहद डर जाया करता हूँ
मेरे डर को कोई आश्वासन कम नहीं कर पाता है
संयुक्त राष्ट्र संघ में किये गए
हिंदी भाषण के निहितार्थ को
अंग्रेजी में समझ लेने पर भी मेरा डर कम नहीं होता है
आँख बंद कर बुद्ध की मुस्कुराहट को याद करता हूँ
फिर भी मेरा डर कम नहीं होता है

मुझे पलासी के घास सबसे अधिक शक्तिशाली लगते हैं
पलासी की उदासी टूटती ही नहीं
एकदिन यह उदासी मुझे जकड़ लेगी
पलासी में बच्चे उदास हैं
पलासी में बूढ़े उदास हैं
पलासी में जवान उदास हैं
नर-नारी, सुबह-शाम पलासी में सब उदास हैं
सिर्फ घास ही लहरा रही है पलासी में

ट्रेन पर चढ़ते हुए, अखबार पढ़ते हुए
दोस्तों से बतियाते हुए
यहाँ तक कि पत्नी से राशन दुकान और वोटर कार्ड के बारे में
बच्चों के स्कूल के बारे में जिक्र करते हुए भी
मुझे पलासी के घसियल मैदान को पार करना होता है
मेरी प्रार्थना है जगतपति से
मुझे पलासी से बाहर निकाला जाए.

(पलासी में घास / प्रफुल्ल कोलख्यान)

 

चार

कुछ थे जो कवि थे
उनके निजी जीवन में
कोई उथल-पुथल भी नहीं थी
सिवाय इसके कि वे कवि थे.

वे कवि थे और चाहते थे
कि कुछ ऐसा कहें और लिखें
कि समाज बदल जाये
बदल जाये देश की सभी
प्रदूषित नदियों का रंग
धसकते पहाड़ बच जायें
और बच जायें ग्लेशियर भी.
कटे हुए पेड़
फिर से अंकुरित होने लग जायें
पृथ्वी के देह का हरापन
आँखों की नमी बच जाये.

कुछ थे जो कवि थे
वे कला की दुनिया में भी
छोड़ जाना चाहते थे अमिट छाप
इसके लिए वे काफी हाउसों में
खूब बहसें किया करते थे

वे लिखा करते थे
बड़े-बड़े विचारों से भरे आलेख
कविता पर उनकी टिप्पणियाँ
उनकी नज़रों में
बहुत महत्व रखती थी.

पर वे उन रास्तों पर भी
संभल-संभल कर चलते थे
जहाँ दौड़ा जा सकता था.

वे उस सभा में भी
गुप-चुप रहा करते थे
जहाँ आतताइयों के खिलाफ
बोला जाना चाहिए
एक आध शब्द ज़रूर.

पर वे आश्वस्त थे
अपने किए पर कि
कविता में पकड़ लिया है
उन्होंने अंतिम सत्य.

उन्हें अपने किए पर गर्व था
इसके लिए वे पा लेते थे
बड़े-बड़े पुरस्कार भी
वे तालियाँ भी ढूंढ लिया करते
और प्रशंसा भी यहाँ तक कि
सुखों के बीच सोते जागते हुए
ढूंढ लेते थे दिखावटी दुख भी.

वे जब कीमती शराब पी रहे होते
या भुने काजू खा रहे होते
उस वक्त भी वे इस तरह जतलाते
जैसे वे दुख ही खा-पी रहे हों.

वे जब जहाज पर सौभाग्य से कहीं जाते
तो दूर-दूर तक सभी को बतला देते
पर जब लोगों से मिलते
तो ऐसा जतलाते जैसे ये इतनी सारी थकान
उन्हें पैदल चलने से ही हुई है.

वे जब तिकड़में करते
या किसी अच्छी रचना की
हत्या की सुपारी लेते या देते
तो ज़रा भी अपराध बोध से
ग्रस्त नहीं होते
यह उनके व्यक्तित्व का
असाधारण पॉजिटिव गुण था.

वे अमर होना चाहते थे
इसके लिए वे प्रयत्न भी
खूब किया करते थे.

वे अपनी प्रशंसा में खुद ही
बड़े-बड़े वक्तव्य देते
अपनी रचना को सदी की
सर्वश्रेष्ठ रचना घोषित कर देते
इस तरह की हरकतों को वे
साहित्य में स्थापित होने के लिए
ज़रूरी मानते थे.

वे सामाजिक प्राणी थे
उनके कुछ मित्र थे
कुछ शत्रु भी
वे मित्रों से मित्रता
न भी निभा पाये हों कभी
पर शत्रुओं से शत्रुता
दूर तक निभाते थे.

वैसे उनका न कोई
स्थाई शत्रु था और न कोई
स्थाई मित्र ही.

कुछ थे जो कवि थे
उनके निजी जीवन में
कोई उथल-पुथल नहीं थी
सिवाय इसके कि वे कवि थे.

(कुछ थे जो कवि थे / सुरेश सेन निशांत)

 

पाँच

मैं गाँव से जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें लेकर जा रहा हूँ
कुछ चीज़ें छोड़कर जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
किसी सूतक का वस्त्र पहने
पाँच पोर की लग्गी काँख में दबाए
मैं गाँव से जा रहा हूँ
अपना युद्ध हार चुका हूँ मैं
विजेता से पनाह माँगने जा रहा हूँ
मैं गाँव से जा रहा हूँ
खेत चुप हैं
हवा ख़ामोश, धरती से आसमान तक
तना है मौन, मौन के भीतर हाँक लगा रहे हैं
मेरे पुरखे. मेरे पित्तर, उन्हें मिल गई है
मेरी पराजय, मेरे जाने की ख़बर
मुझे याद रखना
मैं गाँव से जा रहा हूँ.

(मैं गाँव से जा रहा हूँ / निलय उपाध्याय)

 

छह

तुम्हारे लिए मिथिला का पान होना चाहता हूँ
आवारगी में लातिनी अमेरिका
अनुशासन में जापान होना चाहता हूँ !

तंगहाल है
ख़तरे में है
डरा हुआ पिट्ठू गुलाम नहीं
ऐसा ही स्वाभिमान
ऐसी ही पहचान होना चाहता हूँ
मैं हो चि मिन्ह का वियतनाम होना चाहता हूँ.

मेरी प्रगति को दुनियावी मानकों से मत मापना
इस होड़ में मैं शामिल नहीं
हासिल हो जीवन का कुछ
तो यही हो
मैं भूटान होना चाहता हूँ.

अभावों में रहते हुए भी इसी ने हमें पाला है
हर जगह, हर समय, हर परिस्थिति में जूझता
मैं हाशिये का हिन्दुस्तान होना चाहता हूँ.

यह सपनों का शहर है
और पंख नोच लिए गये हैं हमारे
बावजूद, किसी दूर गंतव्य के लिए
मैं तुम्हारी उड़ान होना चाहता हूँ !

उग आए मेरी चारो तरफ इजराइल कई फिर भी
फलिस्तीन मैं मेरी जान होना चाहता हूँ !

(तुम्हारे लिए / कुमार सौरभ)

 

सात

तुम्हारा हाथ थामे बैठी हूँ मैं नम्बी जलप्रपात की गोद में जहाँ तितलियाँ मेरे खोसे में लगे कनकमराल के फूलों से बतिया रही हैं

तुम हौले से मीठे पान का एक टुकड़ा धर देते हो, मेरी जीभ पर
और मैं अपनी मोतियों की माला को भींचकर दबोच लेती हूँ मुठ्ठी में

तुम कहते हो कानों के करीब आ कर
चाँद को हथेलियों के बीच रखकर वक्त आ गया है
मन्नत माँगने का

टोरा तेल से चिपड़े बालों के कालेपन को देखकर
तुम मुसकुरा देते हो
मेरे खोसे से पड़िया निकालकर प्लास्टिक की कंघी खोंच
प्रेम का इज़हार करते तुम्हें देखकर
मैं दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में खोजती हूँ अपना नाम

खुशी के मारे मेरे हाथ
गुड़ाखू की डिबिया से निकाल बैठते हैं
अपने हिस्से का सुकून
पानी की तेज धार से तुम झोंकते हो अपनी हथेलियों में
मेरा चेहरा धोने लायक ठंडा पानी

ठीक उसी वक्त
तुम चाहते हो मेरे साथ मांदर की थाप पर
कुछ इस तरह नृत्य करना
कि पिछले महीने न्यूनरेन्द्र टॉकीज की बालकनी में बैठकर देखी गई शाहरुख, काजोल की फ़िल्म का कोई हिस्सा लगे

तुम्हारे चेहरे को पढ़ रही हूँ ऐसे
जैसे ब्लैकबोर्ड पर इमरोज़ की अमृता के लिए लिखी कोई कविता

तुम हँसते हो जब
पगडंडियों की जगह मैं दिखाती हूँ तुम्हें
डामर की सड़कों पर दौड़ती कुशवाहा की बसें

तुम गुनगुनाने लगते हो तब
तुमसा कोई प्यारा, कोई मासूम नहीं है
कि तुम जान हो मेरी तुम्हें मालूम नहीं है

और खिलखिलाहट के साथ लाल हो उठता है मेरा चेहरा शर्म से

तुम कसकर मुझे बाँहों में धर लेते हो कि
तभी बारूद की तीखी गंध से मेरा सिर चकराने लगता है
घनी झाड़ियों ऊँचे पहाड़ों को चीरती
एक गोली तुम्हारे सीने के उस हिस्से को भेदती हुई गुजर जाती है
स्वप्न की उसी टेक पर जहाँ अभी-अभी मैंने अपना सिर टिकाया था

यह स्वप्न है या दुःस्वप्न कहना मुश्किल है

मैं चीख चीख कर तुम्हें पुकारती हूँ तुम कहीं नहीं हो

मैं चाहती हूँ लौट आओ तुम पाकलू
किसी ऐसे मंतर जादू टोने के साथ
कि तमाम बंदूकों का बारूद पानी-पानी हो जाये

(बारूद पानी हो जाए / पूनम विश्वकर्मा वासम)

 

आठ

ये देश है कि अधजली चिता किसी किसान की ?
ये लोग –
जो विलापते हैं शोक में कि भूख से; पता नहीं.

पता नहीं :
जो हँस रहे वे कौन हैं ?
कौन हैं जो मौन हो निहारते है आँच की परिधि ?
कौन तोड़ कर मचान रच रहा है मंच ?
कौन है ?
जो रच रहा कवित्त ईश्वरीय-
शोक-भूख-हास्य-मौन-मंच-मृत्यु के विरोध में,
कि-
खेत छोड़ रेत पर उकेरता है बालियाँ अनाज की;
उचारता है आँख मूँद मुक्ति-मुक्ति, शांति-शांति.

व्यर्थ मुक्ति;
शांति व्यर्थ.
मृत्यु व्यर्थ, मृत्यु का विरोध व्यर्थ- शोक व्यर्थ.
और व्यर्थ अर्थवान मुट्ठियों के लाख अर्थ.
मुट्ठियाँ:
जो जेब में पड़ी हुई तटस्थ है कि व्यग्र हैं;
कि लिंग पर कसी-कसी-
पिरा रही हैं उँगलियाँ?
जो कसमसा रहा हृदय में दुःख है कि स्खलन?

ये देश है कि अधजली चिता किसी किसान की ?
ये लोग –
जो विलपते हैं शोक में कि भूख से; पता नहीं.

(ये देश है / अरुण श्री)

 

नौ

हुजूर !
हमारा कोई दोष नहीं
हजारों सालों से आपकी छत्रछाया ने
हमको ऐसा बना दिया है

आप हमें कितना भी दुत्कारें
हम बड़ा मान देते हैं

गली मोहल्ले में कोई चोरी हो
तो हमारी आँखें हमारी तरफ ही होती हैं.

कोई जनाना बदचलन हुई
निश्चित ही हमारी ही होगी.

कोई लड़की गायब हुई
हमारा लड़का धरा जाएगा.

हुजूर, आप दाँत चियार के सरेआम एलान कर सकते हैं
बाभन हम, हमारे उदर संतुष्ट कीजिये.
जो हम नहीं कर पाते हुजूर!
मत पूछिये !
दुःख से गड़ जाते हैं.
हम तो अपनी क्षीणकाया का सार्वजनिक हवाला भी नहीं दे सकते-
यह दुबरा शरीर भूख और बीमारी की उपज है!

हुजूर ! निश्चिंत रहिये,
आप लोग अब भी बहुत मेहनत करते हैं,
हमारी हीनताग्रन्थि अब भी बरकरार है
हम अपने काम छोड़ आपकी सेवा-टहल को पुन्न मानते हैं.

हुजूर, एक दिक्कत हो आई है
ये नयका छौरा-छौरी,
कुच्छो नहीं जानता-बूझता
बहुत मूँह जोर है सब.
न बड़-छोट का लिहाज
हुँह! बकलोल सब !

हुजूर, ई सब क्या जानेगा आपकी करुणा!
बोलता है गरुड़ पुराण ठगी है,
रेखा-भाग कुछौ नहीं होता,
बोलता है पंडी जी को बोलिये
कोई दूसरा काम काज ढूँढें,
आएँ, खेत जोतें,
लोहा ढालें,
जजमानी त्यागें,
आकाश से जमीन पर उतरें,
बोलता है सादी अब कोरट-कचहरी में कर लेंगे
बोलता है पंडी जी आएँ तो गमछा न लाएँ.

हुजूर इन दुष्टों को देखिए
रास्ता बदल दीजिये
कोई ठौर-ठिकाना नहीं.
का तो बौराये रहता है,
बहुजन बहुजन करता रहता है.
हुजूर ! बड़ा नादान है सब !
इनको क्षमा कीजिये !

(हुजूर रास्ता बदल दीजिए / अनुज)

 

दस

साहब, मुझे रिपोर्ट लिखवानी है
बहुत सारे लोगों के गायब होने की एकसाथ

बूट-पॉलिश करनेवाले की
चने-वाले की
फेरीवाले
और हाँ बाइस्कोप-वाले की

एक फेरीवाला हर मंगलवार मेरे गाँव आता था
बादाम-मेवे और गर्म मूँगफली बेचने

एक फेरीवाला घूमता भर जेठ-आषाढ़
कुल्फ़ी-मलाई एक बक्से में भर
साइकिल डगराते
भोंपू बजाते

एक फेरीवाला सावन गाता
और बेचता काले पके अमृत-तुल्य मीठे जामुन

आपने बाइस्कोप-वाले को देखा है
बचपन में शायद
झाँका हो गोल प्लेट हटा
अन्दर घूमते देखते रंग-बिरंगी दुनिया
वो कब से लापता है
शायद तब से जब गाँव के बगीचे में झूले-ही-झूले होते थे

वो बाँसुरी-वाला फ़िल्मी धुनों को सजाता
वो रहमत मियाँ ज़िन्दगी के कपड़ों के पुराने दर्ज़ी
वो बूढ़ा मुसकुराता माली
वो चुड़िहारिन पहनाती नर्म कलाइयों में चूड़ियाँ

कितने नाम गिनाऊं आपको साहब
एक पूरे का पूरा गाँव
एक पूरे का पूरा शहर लापता हो गया है
आपसे विनती है, इन सबको खोज देंगे
मैं यह नहीं जानता कि ये सब कहाँ चले गए
हाँ, आखिरी बार गाँव के बाहर वाले टीले पर बैठे
और शहर के बाहर गिरते खंडहर में इन्हें
आखिरी बार वक़्त का मोलभाव करते देखा गया था.

आपके आसपास बहुत सारे लोग गायब होते जा रहे हैं
क्या आपने उन्हें देखा है?
क्या आपको पता भी चला?
क्या आप सो रहे थे उस वक्त
या जाग रहे थे पर आपको इल्म न हुआ
कि लोग गायब हो रहे हैं.

(गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ करवाते हुए / उत्कर्ष यथार्थ)

 

नील कमल (जन्म : १५ अगस्त १९६८, बनारस) के दो  कविता संग्रह ‘हाथ सुंदर लगते हैं’ तथा ‘यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है’ तथा ‘गद्य वद्य कुछ’ प्रकाशित हैं.
9433123379
nneelkkamal@gmail.com

Tags: अनुजअरुण श्रीउत्कर्ष यथार्थकुमार सौरभनिलय उपाध्यायनील कमलपूनम वासमप्रफुल्ल कोलख्यानमेरी प्रिय कविताएँरमाशंकर यादव "विद्रोहीराजेश सकलानीसुरेश सेन निशांत
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Comments 15

  1. Manoj Malhaar says:
    4 years ago

    बहुत सुन्दर चयन…समकालीनता की विश्वसनीय अभिव्यक्ति.

    Reply
  2. आनंद गुप्ता says:
    4 years ago

    कविताओं का बहुत बढ़िया चयन नीलकमल जी ने किया है. इस बहाने आगे भी अच्छी कविताएँ पढ़ने को मिलती रहे.

    Reply
  3. Leela dhar Mandloi says:
    4 years ago

    एक भिन्न चयन।हाशिये के काव्य स्वरों को केंद्र में लाने का अपरिहार्य काम,यह चयन करता है और भविष्य की सही कविता
    को इंगित करता।

    Reply
  4. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    मेरी प्रिय कविताएँ-स्तम्भ में नील कमल के द्वारा चयनित दूसरे कवियों की कविताएँ पढ़ी।इनमें से अधिकांश कविताएँ धारदार एवं प्रभावी हैं। अगर मुझे इनमें से अपनी पसंद की पाँच कविताएँ चुननी हो, तो ये हैं- नयी खेती,हमसे उम्मीद करो,कुछ थे जो कवि थे,मैं गाँव से जा रहा हूँ,गुमशुदगी की रिपोर्ट। पर इसका मतलब यह नहीं कि बाकी कविताएँ कमतर हैं।मुझे पूरी उम्मीद है, इस नये स्तंभ की शुरुआत से कई हाशिये की कविताएँ पढ़ी जायेंगी और अपनी ओर पाठकों का यथेष्ठ ध्यान खींचेंगी । समालोचन इस स्तम्भ के लिए बधाई एवं शुभकामनाएँ !

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  5. कैलाश मनहर says:
    4 years ago

    बहुत महत्त्वपूर्ण कवितायें चयन की हैं नीलकमल ने | उन्हें और आपको साधुवाद |

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  6. M P Haridev says:
    4 years ago

    एक. कविता अलंकारयुक्त है । यदि भगवान ज़मीन पर नहीं है तो वह आसमान पर भी नहीं है । धान केवल ज़मीन पर ही बोया जा सकता है । वह ज़मीन जो धान की बुवाई के अनुकूल हो । भारत में छह ऋतुएँ हैं । भारत की धरती के सभी हिस्सों में धान नहीं बोया जा सकता । तमिलनाडु और केरल में एक सौ से ज़्यादा क़िस्म का चावल धान से निकलता था । धीरे-धीरे इसकी कला किसान सुरक्षित नहीं रख पाये । रशिया, अमेरिका, चीन और भारत के अंतरिक्ष विज्ञानियों ने चंद्रमा और मंगल ग्रह पर जाकर खोजने का प्रयास किया था और यह प्रयास जारी है । परंतु वहाँ का वायुमंडल रहने के भी अनुकूल नहीं है । इसलिए फसलों की उपज की कल्पना करना फ़िज़ूल है । ‘या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा या तो आसमान में धान जमेगा’ । यह एकपक्षीय कल्पना है । ‘Fifty shades of grays’ की तरह एक चुनाव नहीं किया जाना चाहिए । धर्म और अध्यात्म को जानने वाले परमात्मा के अस्तित्व को मानते हैं । कविता की व्यंजना सराहनीय है । लेकिन धरातल पर इसके पाँव नहीं टिकते । अगली टिप्पणी इसे पोस्ट करने के बाद करूँगा । क्योंकि बार-बार ऊपर जाना पड़ता है । प्रोफ़ेसर अरुण देव जी; आज से मैं अपना ईमेल का पता भी जोड़ रहा हूँ ।

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  7. M P Haridev says:
    4 years ago

    दो. पहली कविता में टिप्पणी की कुछ पंक्तियाँ लिखना भूल गया था । पहले उन्हें जोड़ रहा हूँ । भारत, चीन, रशिया, इस्लामी और बौद्ध देशों में सभी कम्युनिस्टों को उन देशों की रीति के अनुसार जलाया या दफ़नाया जाता है । अंततः कम्युनिस्टों ने कोई और विकल्प ढूँढना चाहिए । कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी होते हैं और मैं उनके ज्ञान के आगे नतमस्तक हूँ । रामविलास शर्मा ने अपने जीवन के अन्तिम काल में ऋग्वेद की व्याख्या की थी । उनका निष्कर्ष था कि भारत ने अपनी परम्परा को नहीं भूलना चाहिए । सभी वरिष्ठ कम्युनिस्ट जानते होंगे कि कभी हरकिशन सिंह सुरजीत कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के अनेक वर्षों तक महामंत्री रहे थे । उन्होंने आजन्म सिर के और दाढ़ी के केश रखे थे । वे सफ़ेद कपड़े की पगड़ी डालते थे । यह सिखों की परम्परा है और सुरजीत जी ने उसे निभाया । उनका अन्तिम संस्कार भी शवदाह गृह में किया गया । मेरे पुरखे पश्चिमी पंजाब अब पाकिस्तान के मुल्तान ज़िले से आये थे । सभी पंजाबी अपने पहले पुत्र को सिख (शिष्य) बनाते थे । और सिख पंथ का प्रादुर्भाव हुआ । अब सिख अपने को हिन्दू नहीं मानते । जब वे हिन्दू नहीं हैं तब उन्होंने भी अंतिम संस्कार में शव दहन करने के अलावा कोई और विकल्प ढूँढना चाहिए ।
    अब दूसरी कविता पर टिप्पणी शुरू कर रहा हूँ । पहले भी जतन से टिप्पणी की थी और वेबपत्रिका में नहीं पहुँच पायी ।
    “हम रद्दी काग़ज़ों की तरह उड़ रहे हैं, बच्चों हमें अपने बोझ से दबाओ” ये दो पंक्तियाँ बता रही हैं कि जीवन निस्सार है और नश्वर है । शिशु गर्भावस्था से निकल कर दुनिया (उदयन वाजपेयी दुनियाँ लिखते हैं) में आया है । वह जीवंत है । अधिक समय तक सोया रहता है । जब भूख लगती है तब वह माँ के स्तनों को ढूँढता है । यह उसे किसने सिखाया है । यह पूर्वजन्म का संस्कार है । कवि से निवेदन है कि वे एक ब्रिटिश डॉक्टर और मनोरोग विशेषज्ञ Brian Weiss MD (Psychiatrist) की किताब “Many Lives Many Masters” की पुस्तक को पढ़ें । यह एक नर्स की कथा है जो अस्पताल में कई बार बेहोश होकर गिर जाती है । Dr Brian Weiss takes the lady nurse into regression. Gradually Doctor found that nurse boyfriend tortured her in her 7nth birth. Doctor cures the nurse and she starts living normal life. ज्यों ज्यों हमारी आयु बढ़ने लगती है त्यों त्यों व्यक्ति को अपने जीवन की व्यर्थता मालूम होने लगती है । युवावस्था में तमन्नाएँ पूरी हो जाती हैं । A person has different genre or mix of genres. One can become scientist, astronomer, professor, lawyer a poet, essayist, drama writer, novelist, classical dancer, singer or musician. मुझ जैसे अनगढ़ पत्थर की तमन्ना ख्वाहिश ही बनी रहती है । ख्वाहिश का अर्थ ही है कि जो इच्छा पूरी न की जा सके । चिड़िया, गिलहरी और दरिया ज़िंदगी में जान भर देते हैं । मानो जीवन का नवीनीकरण हो गया हो । लेकिन बढ़ती हुई आयु के पश्चात मृत्यु निकट आने लगती है । एक कवि ने लिखा था “एक दिन में नहीं गयी माँ, धीरे-धीरे रोज़ गयी, जैसे जाती है आँख की रोशनी” । सत्य यह हैं कि व्यक्ति ने अपनी उम्मीदों को नहीं मरने देना चाहिए । एक बार स्वामी रामतीर्थ विदेश जा रहे थे । पानी के बड़े जहाज़ में एक 85 वर्ष की महिला चीनी भाषा सीख रही थी । आप जानते हैं कि चीनी भाषा विश्व की कठिनतम भाषा है ।

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  8. प्रभात मिलिंद says:
    4 years ago

    अच्छा आलेख और चयन। अनुज की कविताएँ मुझे भी बहुत प्रिय है। उनमें शिल्प का एक अनायास खुरदरापन संभव है लेकिन उनकी वैचारिक प्रतिबध्दता बहुत स्पष्ट और प्रखर है। अन्य कविताएँ भी अच्छी हैं।

    Reply
  9. Yadvendra says:
    4 years ago

    नील कमल जी के रैंडम सिलेक्शन से छन कर समकालीन कविता के कुछ चमकदार नमूने हमारे सामने आए हैं जहाँ सच है कि कविता अपने पूरे वैभव के साथ और मजबूती के साथ खड़ी मिलती है।पर अनेक श्रेष्ठ और जीवंत कविताएं इनसे बाहर छूट गई हैं और उम्मीद है इस श्रृंखला की आगामी कड़ियों में इनपर ध्यान दिया जाएगा।इन कविताओं ने भरोसा दिलाया है कि पुरस्कारों की आपाधापी में सबसे ऊंचा झंडा गाड़ देने की प्रवृत्ति के घेरे से बाहर बहुत कुछ सार्थक और आश्वस्तिकारी निर्मित हो रहा है।
    एक सुझाव है: टिप्पणीकारों को एक कालखंड चुन लेना चाहिए।
    – यादवेन्द्र

    Reply
  10. नरेश सक्सेना says:
    4 years ago

    बहुत सुंदर काम।अरुण देव और नीलकमल दोनों को बहुत बधाई और साधुवाद।

    Reply
  11. M P Haridev says:
    4 years ago

    3. भले ही इस कविता में दिखाये गये डर के कारण आपने जगतपति को याद किया; सकारात्मक है । मैं विज्ञान का छात्र था । इतिहास की मुझे जानकारी नहीं है और रुचि भी नहीं । पलासी के मैदान की घास से कवि के दिमाग़ की दहशत कम नहीं होती । संयुक्त राष्ट्र संघ के भाषण का सन्दर्भ लेकर आपने कविता को ग्लोबल बना दिया । पत्नी और बच्चों से वोटर कार्ड और राशन कार्ड का ज़िक्र भी आपके डर को कम नहीं करता । आपकी कल्पना शक्ति शीर्ष पर है ।

    Reply
  12. M P Haridev says:
    4 years ago

    4. कवि विचित्र प्राणी हैं । कविता में पृथ्वी के हरेपन को बचाये रखने, पेड़ों को उगाये जाने, ग्लेशियर को न गलने, नदियों का प्रदूषण रोकने की चिन्ता प्रकट की गयी है । मेरा विस्मय बना रहता है कि कवि कला का मर्म कैसे जान लेते हैं । उनकी रचनाओं पर चित्र बनाये जाते । कुछ मूर्त और कुछ अमूर्त । रसरंजन करना कवियों का शग़ल है । फिर भी कविता मात्र न लिखकर वे सक्रिय रूप से पर्यावरण को बचाने, वृक्षारोपण करने (not ornamental but those trees who take more than 40 years to grow are beneficial to environment) . सूर्य पर अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक जानते हैं कि सूर्य पर लगातार आणविक उथल-पुथल होती है । पृथ्वी सूर्य का अंश है और हम पृथ्वी के पुत्र / पुत्रियाँ । इस मायने से हम सूर्य की तीसरी पीढ़ी हैं । सूरज के आणविक विस्फोटों से हमारे साथ-साथ वृक्षों पर भी प्रभाव पड़ता है । पेड़ के तने पर प्रति वर्ष एक वलय बनता है । सूर्य हर पाँच वर्ष में जवान होता है और फिर पाँच वर्ष के बाद बूढ़ा होता है । ग्यारहवें वर्ष एक मोटा वलय बनता है । जिसके कारण फ़र्नीचर बनाने में सौंदर्य बढ़ता है । वैज्ञानिकों ने आविष्कार किया है कि 700 वर्षों के बाद सूर्य पर इतनी बड़ी उथल-पुथल होती है कि कई देशों में क्रान्ति घटित होती है । स्टैलिन के शासन के दौरान रशिया के वैज्ञानिकों ने आविष्कार किया की क्रान्ति के पीछे सूर्य की भूमिका है । इस स्थापना के पश्चात स्टैलिन ने सूर्य की खोज बन्द करा दी थी क्योंकि की मार्क्स का सिद्धांत ग़लत साबित होता था ।

    Reply
  13. M P Haridev says:
    4 years ago

    5. “ख़ाली हाथ शाम आयी है ख़ाली हाथ जायेगी
    “आज भी न आया कोई ख़ाली लौट जायेगी”
    गाँव छोड़ते हुए व्यक्ति कुछ वस्तुएँ और स्मृतियाँ साथ लेकर जाता है । विडम्बनापूर्ण है कि गाँव में बिताये गये जीवन की तरह कुछ वस्तुएँ भी पीछे छूट जाती हैं । यह ज़िंदगी कुछ खोने और कुछ नया पाने के लिए बनी है । पुस्तकों और फ़ेसबुक से पता चलता रहता है कि कुछ विद्वान और विदुषियाँ विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से विस्थापन करके दिल्ली आ गये हैं । उदाहरण के तौर पर प्रोफ़ेसर अनामिका जी और पंकज सिंह जी क्रमशः मुज़फ़्फ़रपुर बिहार और मुज़फ़्फ़रपुर के निकट के किसी गाँव से दिल्ली आ गये थे । दुर्भाग्य से दिसम्बर 2016 में पंकज सिंह का निधन हो गया था । कवि गाँव को छोड़कर नगर में खोने-पाने के लिए आता है । गांधी के पुरखे पंसारी थे । गांधी इंग्लैंड में जाकर बैरिस्टर बन गये । दक्षिण अफ़्रीका में गोरों की प्रिटोरिया गवर्नमेंट के ख़िलाफ़ अहिंसक युद्ध किया । उनके एक भाई ने या भाई के पुत्र ने सदग्रह नाम का सुझाव दिया था । लेकिन गांधी को सत्याग्रह शब्द उपयोगी जान पड़ा । दक्षिण अफ़्रीका में 2 महीने की क़ैद झेली । कारागार का गवर्नर व मुख्य वार्डन दोनों क़ैदियों से सहानुभूति रखते थे । गांधी ने लिखा है-most gentle and sympathetic, devout, nice and courteous to every way. कवि महोदय आप गाँव छोड़कर नगर/ महानगर में आ गये हो । गांधी नहीं तो उनकी दृष्टि पा सकते हो । अब महात्मा हमारे राष्ट्रपिता हैं । मुझे विश्वास है कि आप मेरी भावना और भावुकता को समझेंगे ।

    Reply
  14. M P Haridev says:
    4 years ago

    6. इस कविता पर मैंने विस्तारपूर्वक टिप्पणी लिखी थी । ख़ुश 🙂 था कि कुछ कमाकर ब्रंच किया । लेकिन टिप्पणी पोस्ट में नहीं जा सकी ।”ठनी रहती है मेरी सिरफिरी पागल हवाओं से, मैं फिर भी रेत के टीले पे अपना घर बनाता हूँ । रात्रि को डेढ़ घंटे नींद आयी थी । नींद न आये इसलिए तीन बार चाय पी चुका हूँ ।
    मुझे मालूम नहीं है कि मिथिला पान के पत्तों के लिए प्रसिद्ध है । इतना जानता हूँ कि मिथिला में जानकी का जन्म हुआ था । लातिनी अमेरिका 🇺🇸 के निवासी आवारगी के लिए मशहूर हैं लेकिन उनका जीवन सदा संघर्षमय रहा है । Moreover, allopathic medical science is taught in Latin and Grecian languages. जापान 🇯🇵 के मूल निवासी मेहनती होते हैं । वहाँ की एक घटना लिख रहा हूँ । सुदूर गाँव से एक बच्ची रेल से यात्रा करते हुए निकट के बड़े क़स्बे में पढ़ने के लिए जाती थी । पूरी ट्रेन में वही सवार होती । जापान के प्रधानमंत्री का हुक्म था कि जब तक गुड़िया अपनी अगली पढ़ायी के लिए कहीं दूसरी जगह शिफ़्ट नहीं होगी तब तक यह रेलगाड़ी बन्द नहीं की जायेगी । अब भारत के इंजीनियर, डॉक्टर और वैज्ञानिक जापान में नौकरीपेशा हो गये हैं । वहाँ के अनेक स्थानों का तापमान शून्य से 20 डिग्री कम हो जाता है । ठण्डक का सामना करने के लिए वहाँ के निवासी मयनोशी करते हैं । नौकरी सुदूरवर्ती इलाक़ों में करते हैं । अंततः देर तक घर पहुँचते हैं । आधी रात तक रसरंजन करते हैं । अगली सुबह रेलों और बसों से नौकरी करने के लिए सफ़र पर निकलते हैं । सफ़र में चुप्पी पसरी रहती है । यात्री पुस्तकें पढ़ते हैं । अनुशासन प्रिय और परिश्रमी हैं । अधिकतर भारतीय शराब नहीं पीते । इसलिए जापानी यात्रियों के मुँह से दुर्गंध आती है ।
    आप स्वाभिमान से रहें और जियें । To live in pride you have chosen Ho Chi Minh Socialist Republic of Vietnam. This is a unitary Marxist-Leninist State. In communist countries freedom of speech and freedom of press is not allowed.
    वहाँ आप पिट्ठू बनकर जियोगे ।
    अंत में भूटान 🇧🇹 और भारत पर आते हैं । भूटान में राजशाही व्यवस्था है फिर भी वह शान्तिपूर्ण देश है । उसके बाज़ू में चीन 🇨🇳 है । चीन की चील नज़र भूटान पर है । तिब्बत और ताइवान के बाद चीन का अगला निशाना भूटान है । परसों हमारे देश के उप राष्ट्रपति अरुणाचल गये थे । चीन ने आपत्ति जतायी । China does not respect the sovereignty of Arunachal. अब इक़बाल के बेचारे देश भारत की ख़बर से लेते हैं । इक़बाल ने जो छोड़ी राह-ए-वतन फ़साना करते हुए देश का विभाजन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी । इक़बाल और इनके पुरखे कश्मीरी पंडित थे ।
    भारत के संविधान में प्रत्येक पाँच वर्ष के पश्चात संसद और विधानसभाओं के चुनाव की व्यवस्था है । मोदी ने प्रधानमंत्री बने रहने का पट्टा नहीं लिखवा रखा । यहाँ भ्रष्टाचार और भूख चरम पर हैं । देश में 6 करोड़ लोग रात को भूखे सोते हैं । इसकी ज़िम्मेदारी में हमारी साझेदारी है । सलमान खान सड़क की पटरी पर सोये हुए व्यक्ति पर कार चढ़ा कर उसकी हत्या कर देते हैं और कचहरी उन्हें दोषमुक्त कर देती है ।

    Reply
  15. पूनम वासम says:
    4 years ago

    खुद की कविताओं को यहाँ देखना मेरे लिए सुखद है, कविताओं पर इतनी सार्थक टिप्पणी के लिए नील कमल जी का बहुत बहुत धन्यवाद, सभी प्रिय कवियों को एक साथ पढ़ना कितना सुंदर अनुभव है। Arun Dev जी शुक्रिया.

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