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समालोचन

Home » निर्मल वर्मा: एक लेखक की बरसाती: अशोक अग्रवाल

निर्मल वर्मा: एक लेखक की बरसाती: अशोक अग्रवाल

वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल लम्बी बीमारी के बाद स्वस्थ हुए हैं, इसका प्रमाण यह आत्मीय, दिलचस्प संस्मरण है. निर्मल वर्मा की स्मृतियाँ उनकी कथाओं की तरह ही गहरी होती हैं. उनके व्यक्तित्व को जानना किसी निर्मलीय आख्यान को पढ़ने जैसा ही है. निश्चित रूप से यह संस्मरण आपको समृद्ध करेगा. प्रस्तुत है.

by arun dev
November 18, 2023
in संस्मरण
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निर्मल वर्मा: एक लेखक की बरसाती: अशोक अग्रवाल
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निर्मल वर्मा
एक लेखक की बरसाती
अशोक अग्रवाल

(यह निर्मल वर्मा के व्यक्तित्व या लेखन का किंचित भी मूल्यांकन नहीं है. एक लेखक के युवा काल की कुछ स्मृतियाँ मात्र हैं, जब उसने लेखन की दुनिया में पहला कदम रखा था. उन दिनों के धुंधले पड़ते बिम्ब, जब वह अपने समय के सर्वाधिक चर्चित और यशस्वी वरिष्ठ लेखक के संपर्क में कुछ समय के लिए आया था.)     

यह वर्ष 1972 के सितम्बर माह का कोई दिन रहा होगा. मैं निर्मल वर्मा के बड़े भाई का घर तलाशता हुआ घर के सामने पहुँच कुछ देर ठिठका खड़ा रहा, फिर हिम्मत बटोर निर्मलजी के निर्देशों का पालन करता हुआ, बरामदे के सिरे पर बने जीने की सीढ़ियाँ चढ़ते, दूसरी मंजिल की छत पर बनी बरसाती के दरवाज़े तक जा पहुँचा. पत्राचार के बावजूद मन के भीतर एक बड़े लेखक से मिलने से पहले का भय और संकोच भरा था.

दरवाज़ा खटखटाया तो एक सुरीला स्वर सुनाई दिया, ‘‘दरवाज़ा खुला है अंदर चले आओ.’’ निर्मलजी के मुख से सुना यह पहला वाक्य था.

‘‘मैं अशोक, हापुड़ से आया हूँ.’’

‘‘आओ अशोक! यहाँ तक आने में कुछ असुविधा तो नहीं हुई.’’

पहली बार मिलने के बावजूद उन्होंने आत्मीयता और सहजता से मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लिया था.

दस गुना दस आकार की छोटी-सी बरसाती. फ़र्श पर बिछी दरी पर बैठने के बाद सरसरी निगाह से बरसाती का मुआयना किया. गद्दे पर पालथी मारकर बैठे निर्मलजी सामने रखे डेस्क पर अपना लेखन कार्य कर रहे थे. डेस्क की सतह पर कुछ लिखे हुए काग़ज़, खुला हुआ पेन और एक किताब की दरार से झांक रहा बुकमार्कर. दीवार में बनी अलमारी हिन्दी, अंग्रेजी और चेक भाषा में छपी किताबों से ठसाठस भरी थी. सबसे ऊपरी तख्ते पर किताबों के ऊपर फ्रेम के भीतर से मुसकुराती एक छोटी बच्ची का फोटोग्राफ. मैंने अनुमान लगाया, वह पुतुल रही होगी.

राखदानी, एक इलेक्ट्रिक हीटर, कुछ मग्गे, चीनी, कॉफी का पाउडर, बिस्कुट के छोटे-छोटे मर्तबान. पानी से भरा जार और दो गिलास.

एक लेखक को भला इससे अधिक और क्या चाहिए?

संभावना प्रकाशन की शुरुआत कुछ ही समय पहले हुई थी. पहले सेट की तीन किताबें थीं- हरिशंकर परसाई की ‘तिरछी रेखाएँ’, राजकमल चौधरी की ‘बीस रानियों का बाइस्कोप’ (दो लघु उपन्यास) और हिन्दी साहित्य के लिए एकदम अनजाने सतीश मदान का कहानी संग्रह ‘भूख और नींद’.

ये किताबें मैं निर्मलजी को भेंट करने के लिए लाया था. उन्होंने किताबों को गहरी दिलचस्पी से देखा. सतीश मदान के बारे में पूछने पर मैंने बताया कि सतीश मदान रूस में कई वर्ष रहने और एक विश्वविद्यालय से रूसी भाषा का अध्ययन करने के बाद दो साल पहले ही भारत लौटे हैं. वर्तमान में वह मेरठ विश्वविद्यालय के रशियन विभाग में अध्यापन कर रहे हैं. उन्होंने कुछ ही कहानियाँ लिखी हैं. शिल्प और कथ्य के अनूठे अंदाज़ ने हमें इस किताब को प्रकाशित करने के लिए आकर्षित किया.

हरिशंकर परसाई की ‘तिरछी रेखाएँ’ उनकी सभी विधाओं में लिखी प्रतिनिधि रचनाओं का संचयन है. इसकी रूपरेखा और रचनाओं के चयन में ज्ञानरंजन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. अनुबंध के लिए प्रभात मित्तल के साथ जबलपुर गया था और परसाईजी को पहली बार नजदीक से देखा. ज्ञानरंजनजी ने इस पुस्तक के मुद्रण के लिए रवींद्र कालिया द्वारा संचालित इलाहाबाद प्रेस का चयन किया. प्रत्याशा के विरुद्ध इसी किताब के प्रकाशन में सर्वाधिक विलंब हुआ. काग़ज़ और मुद्रण की दृष्टि से भी यह शेष दोनों किताबों की अपेक्षा कमतर रही.

राजकमल चौधरी की ‘बीस रानियों के बाइस्कोप’ की पांडुलिपि उपलब्ध कराने में पटना निवासी सुरेश पांडे का महत्वपूर्ण योगदान रहा. सुरेश पटना के साइंस कॉलेज के छात्रा हैं. पत्राचार के माध्यम से उनसे संपर्क बना. मेरी कुछ कहानियाँ पढ़ वह हापुड़ चले आए थे. इतनी कमउम्र में उसने हिन्दी भाषा के अलावा विश्व साहित्य के सभी चर्चित लेखकों का गहन अध्ययन कर लिया था. हमारे घर वह लगभग एक माह ठहरे.

‘बीस रानियों का बाइस्कोप’ के अनुबंधपत्र पर हस्ताक्षर कराने के लिए वह राजकमल चौधरी के पैतृक गाँव महिषी गये. उन्हें एक नदी नाव के द्वारा पार करनी हुई. वहाँ पहुँचते रात हो आई थी. बिजली न होने के कारण गाँव अंधेरे में डूबा था. किसी तरह पूछते-पाछते वह दिवंगत राजकमल के घर तक पहुँचे. दरवाज़ा खटखटाने पर लालटेन हाथ में लटकाए उनकी पत्नी शशिकांताजी ने द्वार खोला. आने का उद्देश्य बताने पर भीतर आने का इशारा किया. सुरेश ने बताया कि घर में छिपे अभाव और विषाद को देख वह स्तब्ध रह गया. राजकमल का पुत्र नीलकांत उस समय बहुत छोटी उम्र का था. बहुत मना करने के बावजूद उन्होंने चूल्हा दूसरी बार सुलगाया और उसके लिए भोजन बनाया. अनुबंधपत्र और अग्रिम रॉयल्टी के रूप में कुछ राशि देख उनकी आँखों में कुछ ख़ुशी लौटी. रात में लौटने का कोई उपाय नहीं था. इतने बड़े लेखक के दिवंगत होने पर पूरा परिवार किस संघर्ष से जूझता है, इसका साक्षात अनुभव उन्हें उस रात्रि जागते हुए हुआ.

निर्मलजी के पूछने पर बताया कि हापुड़ एक छोटा-सा नगर है. दिल्ली से उसकी दूरी पचपन किलोमीटर है. वहाँ काग़ज़़, प्रिंटिग प्रेस, बाइंडिंग आदि की कोई व्यवस्था नहीं है. यह सारा कार्य हमें शाहदरा में कराना होता है. इस प्रकाशन कार्य में प्रभात मित्तल मेरे सहयोगी हैं. प्रभात भी मेरे साथ आना चाहते थे, किसी आवश्यक कारण के चलते उनका आना संभव न हो सका.

प्रभात हापुड़ दो साल पहले ही आए हैं. यहाँ आने से पहले वह जबलपुर के सेकसरिया कॉलेज में वाणिज्य विभाग में प्राध्यापक थे. ज्ञानरंजन भी इसी कॉलेज में हिन्दी विभाग में कार्यरत थे. उनकी ज्ञानरंजनजी से घनिष्ठता रही है. प्रभात की पत्नी हापुड़ के स्थानीय कन्या विद्यालय में इतिहास की प्रवक्ता हैं. विवाह के बाद जबलपुर से विदा लेने को विवश होना पड़ा.

निर्मलजी बातचीत में इतने सहज और आत्मीय थे कि देखते-देखते दो ढाई घंटे कब व्यतीत हो गए, पता ही नहीं लगा. इस बीच उन्होंने एक बार फिर काफ़ी तैयार की.

डेस्क पर सुंदर हस्तलिपि में लिखे काग़ज़ों की ओर मुझे देखते निर्मलजी बोले-  आजकल वह जोसेफ श्कवोरस्की के लघु उपन्यास ‘एमेकेः एक गाथा’ का अनुवाद कर रहे हैं. अद्भुत प्रेम कथा है यह लघु उपन्यास. इसका अनुवाद करते वह आंतरिक सुख का अनुभव कर रहे हैं.

सारिका में प्रकाशित और निर्मलजी द्वारा अनुदित मिलान कुंडेरा की कहानी ‘खेल-खेल में’ पढ़कर उसके सम्मोहन में दिनों तक बना रहा. कहानी ऐसे भी लिखी जा सकती है, इसका अनुभव पहली बार हुआ था. निर्मलजी ने बताया की मिलान कुंडेरा इस समय चेकोस्लोवाकिया के सबसे प्रतिभाशाली और मौलिक लेखक हैं. मुझे विश्वास है कि भविष्य में साहित्य का नोबेल पुरस्कार उन्हें मिल सकता है. वह उनके अच्छे मित्र रहे हैं.

उस समय निर्मलजी प्राग में रह रहे थे, जब रूसी टैंकों ने चेकोस्लोवाकिया में भारी संख्या में सैनिकों की टुकड़ियों के साथ अतिक्रमण कर लिया था. इसी घटना के बाद संभवतः निर्मलजी की वामपंथ से मोहभंग की शुरुआत हुई.

उन दिनों का स्मरण करते हुए निर्मल जी ने बताया कि चेकोस्लोवाकिया के आम नागरिकों ने भारी उत्पीड़न के बावजूद प्रतिरोध के नए-नए तरीके ईजाद किए. मसलन, आपसी संवाद के लिए तीन बार अभिवादन करना, किसी रेस्टोरेंट में बैठने के लिए वेटर को तीन बार आवाज़ लगाना और मेज को तीन बार खटखटाना. बहुत जल्दी पूरे चेकोस्लोवाकिया ने इसे अपना लिया. रूसी सैनिक इसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर सके. प्रतीकात्मक रूप से यह उनकी गहरी पराजय थी.

मन में छिपी वह कामना जो मुझे हापुड़ से यहाँ तक लायी थी निर्मलजी के सामने प्रकट हो गई. मैंने संकोच से पूछा-

‘‘क्या संभावना प्रकाशन को उनकी कोई पुस्तक छापने का सौभाग्य मिल सकता है? वर्ष 1973 के मध्य तक हम अपना दूसरा सेट रिलीज़ करना चाहते हैं. सरोजिनी वर्मा द्वारा अनुदित विजय तेंदुलकर के नाटक ‘खामोश! अदालत जारी है’ और फणीश्वरनाथ रेणु कि अभी तक अप्रकाशित कहानियों के संग्रह ‘अग्निखोर’ की पाण्डुलिपियाँ हमें उपलब्ध हो चुकी हैं. पटना के मित्र सुरेश पांडे ने रेणुजी की लघु पत्रिकाओं में बिखरी कहानियाँ एकत्रित करने में गहरा श्रम किया है.’’

‘‘क्यों नहीं, इधर मैं अपनी कहानियों का नया संग्रह तैयार कर रहा हूँ. संग्रह का शीर्षक सोचा है- ‘बीच बहस में’. इसे आपको प्रकाशन के लिए देकर प्रसन्नता होगी. इसके अलावा, यदि आप चाहें तो ‘एमेकेः एक गाथा’ को भी अपनी योजना में सम्मिलित कर सकते हैं. मुझे आशा है, यह अनुवाद मैं एक माह में पूरा कर लूँगा. आवरण के लिए आप रामकुमारजी से उनकी ड्राइंग और रेखाचित्रों के लिए संपर्क कर सकते हैं. मैं उन्हें आपके बारे में पहले से जानकारी देकर रखूँगा.’’

मेरे लिए यह अकल्पनीय था कि निर्मलजी मेरे प्रस्ताव को इतनी सहजता से स्वीकार कर लेंगे. राजकमल प्रकाशन हिन्दी का सर्वाधिक प्रतिष्ठित और चर्चित नाम था. हिन्दी के लेखकों में इससे प्रकाशित होना गौरव और सम्मान की बात मानी जाती थी. इसमें प्रकाशित होने के लिए लेखकों में प्रतिस्पर्धा बनी रहती. निर्मलजी की अभी तक सभी पुस्तकें इसी प्रकाशन समूह से प्रकाशित हुई थीं. राजकमल प्रकाशन के बजाय वह साहित्य और प्रकाशन की दुनिया से सर्वथा अनजान एक छोटे नगर के युवा लेखक को प्राथमिकता देंगे, इस पर अभी भी विश्वास नहीं हो पा रहा था.

‘‘जब भी आपका मन चाहे यहाँ आ सकते हैं. दिल्ली में रहने के दौरान इस बरसाती के बाहर कार्यवश ही निकलता हूँ. दिल्ली से मन ऊब जाने पर कुछ समय के लिए किसी छोटे पहाड़ी गाँव की ओर निकल जाता हूँ. आने से पहले एक पोस्टकार्ड लिख दिया करेंगे तो मैं अपनी उपस्थिति उस दिन सुरक्षित रखूँगा, ताकि आपको इतनी दूरी से चलकर आने का पछतावा न रहे.’’

जीने की सीढ़ियाँ उतरते हुए मन उमंग और उत्साह से भरा था.

दो

‘एक लम्बी यात्रा के बाद
मुझे फिर उसी बरसाती में प्रवेश मिला था
कठिन प्रेम का वह खूसट-सा घर
और लोहे के ज़र्रों की तरह खिंचे चले आते थे मित्र’

तेजी ग्रोवर (जाली के पार से देखते हुए)

दूसरी बार निर्मलजी की बरसाती में पहुँचने पर पाया कि आज भी वह ‘एमेकेः एक गाथा’ के अनुवाद में व्यस्त थे.

निर्मलजी से समकालीन कहानी के परिदृश्य पर बातें होने लगीं. विशुद्ध कहानियों की पत्रिकाएँ- नई कहानियाँ, कहानी, सारिका के अलावा धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान के साथ-साथ लघु पत्रिकाओं में भी भारी संख्या में कहानियाँ प्रकाशित हो रही थीं.

निर्मलजी ने ज्ञानरंजन और दूधनाथ सिंह की हाल में प्रकाशित कहानियों की प्रशंसा करते हुए कहा- ‘‘अधिकांश रचनाओं में शब्दों का इतना अधिक शोर होता है कि कहानी कहीं गुम होकर रह जाती है.’’

‘‘आपसे एक निजी बात शेयर कर रहा हूँ, इसकी अन्यत्र चर्चा नहीं करेंगे. मोहन राकेश के सारिका के संपादक पद से त्यागपत्र देने के बाद टाइम्स आफ इंडिया के संचालक समूह ने मुझसे सारिका के संपादक पद का दायित्व संभालने का आग्रह किया. धर्मवीर भारतीजी का बहुत दबाव था कि यह पद मुझे स्वीकार कर लेना चाहिए. मैंने विचार के बाद उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया. मुझे यह भारी झंझट का काम दिखाई दिया. मैं मुश्किल से कुछ ही कहानियाँ पसंद कर पाता हूँ, जबकि एक पत्रिका को नियमित रूप से बड़ी संख्या में सामग्री चाहिए. आर्थिक सुरक्षा और प्रतिष्ठा के बावजूद मुझे फ्रीलांसर की अनिश्चित ज़िन्दगी ज्यादा सुकून भरी और सहज प्रतीत हुई.’’

उस दिन चलने से पहले बाल सुलभ जिज्ञासा से निर्मलजी से पूछा- ‘‘आप लंबे समय तक चेकोस्लोवाकिया और लंदन में रहे हैं. वहाँ के लेखकों से भी आपके घनिष्ठ संपर्क रहे हैं. आप हिन्दी के लेखक और उनमें क्या आंतरिक फ़र्क पाते हैं?’’

‘‘सिर्फ़ यही कि हिन्दी का लेखक लेखन के माध्यम से सब कुछ अर्जित करना चाहता है, जबकि वहाँ का लेखक सब कुछ खोकर लेखन पाना चाहता है.’’

उनका यह वाक्य आज भी मन-मस्तिष्क में दस्तक देता रहता है.

“दिल्ली में गर्मियों के दिन उमस भरे और उबाऊ होते हैं. मैं इन दिनों पहाड़ के किसी छोटे और शांत गाँव में रहना चाहता हूँ. आप इसमें मेरी कुछ मदद कर सकते हैं?’’

उस दिन प्रभात मित्तल भी मेरे साथ थे. उनके मुँह से तुरंत निकला- ‘‘आपको मुक्तेश्वर अवश्य जाना चाहिए. यह नैनीताल जिले के रामगढ़ से कोई दस बारह किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा सा पहाड़ी गाँव है. स्थानीय आबादी मुश्किल से ढाई सौ होगी. वहाँ भारत सरकार का पशु चिकित्सा से संबंधित अनुसंधान केंद्र है. इस इंस्टिट्यूट में मेरे एक संबंधी वरिष्ठ अनुसंधान अधिकारी हैं. आसानी से इंस्टीट्यूट के गेस्ट हाउस में आपके ठहरने की व्यवस्था हो सकती है. यहाँ से हिमालय की श्रृंखलाएँ बहुत उज्ज्वल दिखाई देती हैं.’’

‘‘आप उसी रामगढ़ की बात कर रहे हैं, जहाँ के बारे में सुना है कि महादेवी वर्मा ने अपना स्थाई घर बनवा लिया है और हर गर्मियों में रहने के लिए वहाँ जाती हैं. भुवाली के आसपास.’’

प्रभात के सुझाव से निर्मल जी प्रसन्न दिखाई दिए.

बाद के दिनों में निर्मलजी मुक्तेश्वर गए थे. वह स्थल उन्हें कितना मनोहारी लगा था, यह उनकी यात्राओं की किताब ‘धुंध में उठती धुन’ मे मुक्तेश्वर प्रवास के दिनों की डायरी में देखने को मिलता है. गहन खामोशी के बाद अचानक तेज वर्षा का होना, धीरे-धीरे घने वृक्षों के पत्तों पर टपकती बूंदों का सम्मोहक संगीत, वर्षा के बाद खिली धूप में अचानक हिमालय की श्रृंखलाओं की ढलान पर बिछी बर्फ़ के अकल्पनीय दृश्य.

तीन

पूसा रोड स्थित दूसरी मंजिल के अपार्टमेंट की कॉलबेल बजाने पर रामकुमारजी ने दरवाज़ा खोलते हुए आत्मीयता से कहा- ‘‘मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था. कुछ रेखांकन और ड्राइंग मैंने पहले से छांट कर रखी हैं, आशा है आपको पसंद आएँगे.’’

फोन पर दोपहर के भोजन के लिए उन्होंने मुझे पहले ही आमंत्रण दे दिया था.

मकबूल फ़िदा हुसैन, सूजा, रज़ा और आरा जैसे विश्व प्रसिद्ध कलाकारों के समकक्ष माने जाने वाले रामकुमार के कलाकार व्यक्तित्व के पीछे उनका कहानीकार का चेहरा कहीं खो गया था. भारतीय मध्यवर्गीय जीवन के संघर्ष, विषाद, अभाव और प्रेम के जो चित्र उन्होंने किसी भी तरह की कृत्रिमता से मुक्त सहज और सरल शिल्प और भाषा में अपनी कहानियों में उकेरे हैं, वे सीधे पाठक के हृदय में प्रवेश कर जाते हैं. कथा साहित्य में उन्हें वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे.

मैं उनकी कहानियों का मुरीद था. पिछले दिनों प्रकाशित उनकी कुछ कहानियों की जब मैंने चर्चा की तो रामकुमार संकोच से बोले-‘‘चित्राकला से जब कभी अवकाश लेने का मन चाहता है तो वह कहानी लिखने का प्रयास करते हैं.’’

बाद के दिनों में संभावना प्रकाशन को उनकी कहानियों के तीन संग्रह प्रकाशित करने का सौभाग्य मिला- ‘दीमक तथा अन्य कहानियाँ’, ‘एक लंबा रास्ता’ और ‘समुद्र’.

कला की दुनिया से मैं एकदम अनजान था. रेखांकन और ड्राइंग की कोई परख भी मुझे नहीं थी, सिर्फ़ आँखों को सम्मोहित करने वाले कुछ रेखांकनों और ड्राइंग का चयन करते हुए संकोच से पूछा- ‘‘इन सभी का उपयोग कर सकता हूँ?’’

‘‘क्यों नहीं! आपको और भी रेखांकन पसंद हों तो उन्हें भी ले सकते हैं.’’

भोजन के उपरांत रामकुमार जी ऊपर छत पर बने अपने स्टूडियो में ले गए. कुछ अधूरी पेंटिंग भी दिखाई जिन पर वह आजकल कार्य कर रहे थे.

मेरे सहयोगी अमितेश्वर ‘बीच बहस में’ और ‘एमेके एक गाथा’ के फाइनल प्रूफ दिखाने निर्मलजी के पास गए. यह दिसंबर माह के अंतिम दिन रहे होंगे. जब वह रात्रि में शटल से दिल्ली से वापस लौटे तो बेहद प्रफुल्लित और रोमांचित थे. एक भूरे रंग की शानदार जैकेट उसने पहनी हुई थी, जिसे मैं पहली बार देख रहा था. मुझे विस्मित देख अमितेश्वर मुसकुराया.

यह जैकेट निर्मलजी से मिला तोहफा है. दिल्ली में आज गज़ब की ठंड थी. धूप का तनिक भी निशान नहीं. मैं जब निर्मलजी के पास पहुँचा तो ठंड से कंपकंपाते देख मुझे अपनी यह जैकेट पकड़ाते हुए कहा- “इसे पहन लीजिए. आपको तनिक राहत महसूस होगी. वैसे भी यह जैकेट मेरे पास अतिरिक्त है. आप चाहे तो इसे अपने साथ ले जा भी सकते हैं. यह एकदम नई है, इसका इस्तेमाल लंदन के दिनों में एकाध बार ही किया होगा.”

अमितेश्वर के कृशकाय शरीर पर यह जैकेट बेमेल प्रतीत हो रही थी. कंधों के ऊपर से झूलती हुई. इस जैकेट को वह बेहद सम्मान देता. जीवन के आखिरी वर्षों में भी यह जैकेट रंग के धुंधले पड़ने के बावजूद उसके साथ बनी रही. प्रत्येक वर्ष सर्दियों में यह जैकेट उसके शरीर पर आ विराजती. वह अकसर कहता- ‘‘इसे पहनकर मैं अनूठे रोमांच से भर जाता हूँ. निर्मलजी का स्पर्श और गंध मेरे साथ बने रहते हैं. कुछ लिखने के लिए प्रेरित करते हुए.’’

निर्मलजी के घर से से आधा किलोमीटर की दूरी पर कृष्ण कुमार का निवास स्थान था. एक बड़े बंगले के बाहर बने गेराज को उन्होंने किराए पर लिया हुआ था. आज सौभाग्य से वह अपने निवास पर मिल गए. मुझे देखते ही बोले- ‘‘निर्मल जी के पास से आ रहे हो!’’

वार्तालाप के दौरान कृष्ण कुमार ने बताया-

“पिछले सप्ताह निर्मलजी को अपने आवास पर उपस्थित देख वह चकित रह गये. निर्मलजी मुस्कुराते हुए बोले, मैं सुबह की सैर पर निकला था. मन में आया कि आपके हाथ की बनी चाय पी जाए.”

फोल्डिंग पलंग पर निर्मलजी आराम से बैठ गए. उनके हाल-चाल पूछने, और चाय पीने के बाद चलते समय उन्होंने उसकी जेब में एक लिफाफा सरकाते हुए कहा, किसी तरह का कोई संकोच न करें. इन दिनों मेरे पास कुछ अतिरिक्त पैसा आ गया है.

‘‘उनके जाने के बाद मैंने देखा लिफाफे में सौ-सौ के पांच नोट रखे थे. यह मामूली राशि नहीं थी. संभवतः किसी सूत्र से उन्हें मेरी आर्थिक संघर्ष की जानकारी मिली होगी. उन जैसे बड़े लेखक की इस सदाशयता से मैं अभिभूत हो गया.’’

कृष्ण कुमार से मेरी अनायास मुलाकात शाहदरा के एक प्रिंटिंग प्रेस में हुई थी, जहाँ वह अपनी पत्रिका के पहले अंक के प्रकाशन के सिलसिले में आए थे. वह गोरखपुर के पास के गाँव के रहने वाले थे. गीता प्रेस गोरखपुर में कार्य करने के दौरान के कटु अनुभव उनके साथ जुड़े थे. संस्कृत और अंग्रेजी भाषा में उन्हें महारथ हासिल थी. अपनी पत्रिका के बारे में उन्होंने बताया कि वह मेरी अनोखी पत्रिका होगी जिसके केंद्र में शरीर विज्ञान प्रमुख रहेगा. यह पहली मुलाकात बहुत जल्दी घनिष्ठता में तब्दील हो गई. दिल्ली आने पर उनसे अवश्य संपर्क करता और वह भी मेरे साथ दरियागंज से शाहदरा तक भटकते रहते.

इसी पत्रिका के सिलसिले में वह एक बार मुझे अपने साथ ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टिट्यूट के गर्ल्स हॉस्टल ले गए. रिसेप्शन से उन्होंने किसी से बातचीत की. फाइनल ईयर की डॉक्टर छात्रा जब रिसेप्शन पर आई तो काफी नाराज़ प्रतीत हुई. मैं कुछ दूरी पर खड़ा उस महिला डॉक्टर की कृष्ण कुमार से तल्ख़ बातचीत सुनता रहा. कृष्ण कुमार अत्यंत शांत और धैर्य से उसकी बातें सुनते अपनी पत्रिका की योजना के साथ शरीर विज्ञान से संबंधित सामग्री के लिए उससे आग्रह करते रहे. उस दिन मुझे प्रतीत हुआ कि कृष्ण कुमार उस छात्रा डॉक्टर के इकतरफा सम्मोहन में वहाँ चले आए थे.

कुछ वर्ष बाद कृष्ण कुमार दिल्ली से आकस्मिक रूप से अनुपस्थित हो गए. वह मुझे फिर दिल्ली में दिखाई नहीं दिए. कुछ साल पहले आनंद स्वरूप वर्मा से कृष्ण कुमार के बारे में अनायास जिज्ञासावश पूछा तो उन्होंने बताया कि गोरखपुर के दिनों में वह उनके सहपाठी रहे हैं. संस्कृत साहित्य और भाषा में उनका अध्ययन गहन था. उन दिनों गोरखपुर के साहित्य संसार में कृष्ण कुमार की ख्याति कविताओं के लिए और उन्हें कहानी लिखने के लिए जाना जाता था.

आनंदस्वरूप वर्मा के दिल्ली आगमन के दो-तीन साल बाद ही कृष्ण कुमार भी फ्रीलांसिंग के सहारे पैर जमाने दिल्ली चले आए थे. दिल्ली उन्हें रास नहीं आई. कुछ साल बाद ही वह गोरखपुर अपने गाँव वापस लौट गए. उन्हें शराब की लत भी पड़ गई थी. लिवर सिरोसिस की बीमारी से पीड़ित सन् 2000 के आसपास उनका आकस्मिक निधन हो गया.

आनंदस्वरूप वर्मा से कृष्ण कुमार के इस दारुण अंत की कथा सुन मन व्यथित होकर रह गया.

अगस्त 1973 का कोई दिन. संभावना की छह नई पुस्तकों का दूसरा सेट रिलीज़ करने से पूर्व मैं और प्रभात मित्तल उन किताबों को निर्मल वर्मा जी को भेंट करने के लिए ले गए. ‘बीच बहस में’, ‘एमेके एक गाथा’, ‘अग्निखोर’, ‘खामोश! अदालत जारी है’, प्रभात के पहले कहानी संग्रह ‘पहली वर्षा’ के अलावा मेरी कहानियों का पहला संग्रह ‘उसका खेल’.

निर्मलजी ने सभी पुस्तकों को जांचने-परखने के बाद उनकी प्रस्तुति की सराहना करते हुए अपनी ओर से कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए. मेरे कहानी संग्रह ‘उसका खेल’ के तीसरे पृष्ठ पर प्रसिद्ध चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन के एक रेखांकन का प्रयोग किया गया था, जबकि प्रकाशकीय पृष्ठ पर उस रेखांकन के आगे विवान सुंदरम का नाम छपा था. इस भूल की ओर इशारा करते हुए निर्मलजी ने कहा- ‘‘संभव हो तो इस पृष्ठ को बदल दें. रेखांकन का श्रेय उसके कलाकार को मिलना चाहिए. स्वामीनाथन की दृष्टि में कभी यह किताब आई तो वह नाहक आपसे नाराज़ होंगे.’’

सभी पुस्तकों के मुद्रण और प्रस्तुति की निर्मल जी ने भरपूर प्रशंसा करते हुए हमें प्रोत्साहित किया.

हापुड़ आने के निमंत्रण को निर्मलजी ने सहजता से स्वीकार किया. उन्हें अपने साथ ले जाने के लिए निर्धारित समय पर उनके आवास पर पहुँचा.

‘‘मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था. कुछ देर सुस्ता लो. एक कप कॉफी पीने के बाद हम हापुड़ के लिए निकलते हैं.’’

इतने बड़े लेखक को अपने लिए इलेक्ट्रिक हीटर पर काफ़ी तैयार करते देख मैं हमेशा संकोच का अनुभव करता.

“एक रात्रि ही तो हापुड़ के मित्रों के साथ गुज़ारनी है.’’कहते हुए निर्मलजी ने अपने झोले को कंधे से लटकाया. झोले में नियमित दिनचर्या के उपयोग में आने वाली कुछ सामग्री रख ली होगी.

कश्मीरी गेट स्थित बस स्टैंड के लिए एक ऑटो लिया. उतरते समय चालक ने जो किराया मांगा वह निर्मलजी को अतिरिक्त प्रतीत हुआ. उन्होंने शालीनता से ऑटो चालक से कहा- ‘‘आपके मीटर में कुछ गड़बड़ी हो गई लगती है. आप ड्योढ़ा पैसा मांग रहे हैं.’’

ऑटो चालक ने तल्ख़ लहजे से कहा- ‘‘यही बनता है जी. जल्दी करिए, आगे जाना है.’’

निर्मलजी को क्षुब्ध देख मैंने झटपट ऑटो का किराया चुकाया और निर्मल जी को बाहर आने का इशारा किया.

बस में बैठने तक ऑटो चालक के व्यवहार से वह क्षुब्ध दिखाई दिए. बस चलने पर वह सामान्य मनःस्थिति में लौटे. खिड़की से झांकते हापुड़ पहुँचने तक बीच में पड़ने वाले छोटे नगरों और गाँवों के बारे में जानकारी लेते रहे.

उन दिनों छोटे नगर हापुड़ में कहानियाँ लिखने और पढ़ने में रुचि रखने वालों कि तादाद खासी थी. हापुड़ के साहित्य संसार में निर्मलजी का आगमन एक बड़ी घटना थी.

निर्मलजी के आगमन की सूचना पाकर मेरे निवास पर उनसे मिलने स्थानीय लेखकों की कतार लग गई. निर्मलजी सभी से आत्मीयता से उनके बारे में जानकारी लेते. नफीस आफ़रीदी का परिचय कराते हुए मैंने बताया कि अभी हाल में उनकी दो कहानियाँ धर्मयुग में प्रकाशित हुई हैं. निर्मलजी ने उन कहानियों की प्रशंसा करते हुए कहा-

‘‘निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवेश में रची अपने कथ्य और पात्रों की नित्य जीवन में प्रयुक्त होने वाली भाषा के कारण मुझे उन्हें पढ़ते हुए अच्छा लगा था. आप तो हापुड़ के निकले, जबकि मैं आपको राजस्थान का समझता था.’’

मैंने निर्मलजी को बताया कि नफीस आफ़रीदी मूलतः कोटा, राजस्थान के रहने वाले हैं. वर्ष 1966 में मात्रा 20 वर्ष की उम्र में पत्राचार के चलते एक प्रेम के कारण हापुड़ चले आए और तभी से उस लड़की से विवाह करने के बाद हापुड़ के स्थाई निवासी हो गए हैं.उनकी पत्नी अफरोज शाहीन भी कहानियाँ और कविताएँ लिखती हैं. आजकल दोनों यहाँ के एक निजी माध्यमिक विद्यालय में अध्यापन का काम कर रहे हैं. यह जानकर कि निर्मलजी ने उसकी कहानियाँ पढ़ी हैं, नफीस अभिभूत होकर रह गए.

रात्रि में सुदर्शन नारंग के निवास पर बैठकी जमी. निर्मलजी और चुनिन्दा लेखक मित्रों को उन्होंने आमंत्रित किया था. समकालीन कहानी के परिदृश्य पर निर्मल जी के साथ गंभीर वार्तालाप चल रहा था कि रस में भंग करते हुए स्थानीय बिक्री कर अधिकारी वहाँ चले आए. उन्होंने कानपुर में अपने कार्यकाल के दौरान तीन-चार पुस्तकें छपवा ली थीं और स्वयं को एक बड़ा लेखक मानते थे.

उन्होंने कुछ देर बाद ज्योतिषशास्त्र में पारंगत होने का दावा करते निर्मलजी की हथेली अपने हाथ में लेते कुछ बोलना प्रारंभ किया. कुछ देर बाद खीज के साथ निर्मल जी ने  हथेली खींचते हुए कहा-

“आपकी बातें सही हो सकती हैं, लेकिन भविष्य के बारे में जानने की मेरी कोई जिज्ञासा नहीं है. मुझे अज्ञात और अनिश्चित जीवन जीना पसंद है. कल यह होगा, पता हो तो जीने का सारा रोमांच जाता रहेगा.’’

निर्मलजी के जाने के बाद भी उनकी खुशबू स्थानीय साहित्यकारों के मध्य दिनों तक बनी रही.

वर्ष 1975 का अप्रैल माह का कोई दिन. मंडी हाउस के तानसेन मार्ग पर स्थित त्रिवेणी कला संगम के बाहर निर्मलजी से आकस्मिक भेंट हो गई. संभवतः वह राजकमल प्रकाशन द्वारा आयोजित उस साहित्यिक समारोह में शरीक होने आए थे, जिसके लिए मैं भी वहाँ पहुँचा था.

‘‘समारोह आरंभ होने में अभी कुछ वक़्त है. चलिए, उससे पहले चाय पी ली जाए.’’, सहज भाव से यह कहने के साथ उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और बंगाली मार्केट की एक चाय की दुकान में ले गए.

कौतुक से मुसकुराते हुए वह बोले- ‘‘जल्दी ही आपको एक शुभ सूचना मिलने वाली है. उसी सूचना को शेयर करने यहाँ लाया हूँ.’’

मुझे विस्मित देख उन्होंने बताया कि मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा युवा लेखक की प्रथम कृति पर दिए जाने वाले ‘अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार’ के लिए आपके कहानी संग्रह ‘उसका खेल’ को नामित किया गया है. आपको शीघ्र उसकी सूचना मिलने वाली है. इसमें आप मेरा विशेष योगदान न समझें, शेष दो निर्णायकों कुंवर नारायण और शमशेर बहादुर सिंह की भी यही सम्मति थी.”

पुरस्कार मिलने से अधिक खुशी मुझे उसके निर्णायकों के नाम जानने पर हुई.

वर्ष 1978 में निर्मल वर्मा के प्रतिनिधि लेखन के संचयन की योजना बनी. ‘दूसरी दुनिया’ नाम से प्रकाशित इस किताब में उनकी कुछ प्रतिनिधि कहानियाँ, निबंध, यात्रा वृत्तांत और उनकी बहुमूल्य डायरी के कुछ अंश सम्मिलित थे. इसका खूबसूरत आवरण प्रसिद्ध चित्रकार गोपी गिजवानी ने विशेष रूप से निर्मित किया था. पुस्तक की भव्यता और प्रस्तुतीकरण की चहूँ ओर प्रशंसा हुई. सबसे अधिक खुशी मुझे राजकमल प्रकाशन की संचालक श्रीमती शीला संधू से प्राप्त पत्र से हुई. ‘दूसरी दुनिया’ के प्रस्तुतीकरण की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए उन्होंने शुभकामनाएँ और बधाई देते हुए अंत में लिखा कि निजी रूप से उन्हें इस बात का अफसोस बना रहेगा कि इस मूल्यवान पुस्तक के प्रकाशन से राजकमल वंचित रहा. निर्मलजी को जब शीलाजी के इस पत्र के बारे में बताया तो वे सहज मुसकुरा भर दिए.

सीमित साधनों के बावजूद ‘दूसरी दुनिया’ पर एक भव्य आयोजन सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की अध्यक्षता में राजघाट स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान के सभागार में हुआ. विद्यानिवास मिश्र, नामवर सिंह, भीष्म साहनी, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा आदि प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उपस्थिति देख हापुड़ से आए हम सभी साहित्यिक मित्रों को रोमांच की अनुभूति हुई. रामचंद्र गांधी, वागीश शुक्ल और प्रभात मित्तल ने ‘दूसरी दुनिया’ पर केंद्रित अपने आलेखों का वाचन किया. सभी प्रमुख वक्ताओं ने निर्मल जी के लेखन पर गंभीर और विचारोत्तेजक टिप्पणियाँ की. सबसे अंत में अज्ञेयजी के निर्मल वर्मा के लेखन की विविधता और विशिष्टता को रेखांकित करते हुए व्याख्यान को सुनना एक अविस्मरणीय अनुभव था.

राजधानी दिल्ली के साहित्य संसार में एक छोटे नगर हापुड़ की यह पहली महत्वपूर्ण दस्तक थी.

वर्ष 1979 का कोई दिन. निर्मलजी ने पत्र द्वारा सूचना दी कि वह निजी कार्यवश कुछ दिनों के लिए लंदन जा रहे हैं. निर्धारित तिथि की सूचना देने के साथ उन्होंने लिखा कि उनकी फ्लाइट सुबह ग्यारह बजे की है. एयरपोर्ट के लिए दो घंटे पहले घर से निकलना होगा. इतनी सुबह संभवतः आपका आगमन संभव नहीं हो सकेगा. लौटते ही आपको पत्र द्वारा सूचित करूँगा.

काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस हापुड़ से सुबह 4:30 बजे चलकर नई दिल्ली 6:00 बजे पहुँच जाती थी. वहाँ से निर्मल जी के घर पहुँचने में अधिक से अधिक एक घंटा लगेगा, यही सोच कर मैं उनसे भेंट करने की इच्छा से चल दिया.

बरसाती के दरवाज़े पर ताला लगा था. संभवतः मुझे पहुँचने में विलंब हो गया था. निराशा से भरा मैं सीढ़ियाँ उतर रहा था कि दूसरी मंजिल का दरवाज़ा खोलते एक वृद्ध महिला ने कहा-

“निर्मल से मिलने आए थे. वह अभी 10 मिनट पहले ही एयरपोर्ट के लिए निकला है. मैं निर्मल की माँ हूँ. मुझसे मिले बिना लौट जाओगे! भीतर चले आओ.’’

निर्मलजी की माँ को मैं पहली बार देख रहा था. अस्सी पार के बावजूद उनका स्नेहिल चेहरा आकर्षक और सम्मोहित करने वाला था. वह बाहरी बरामदे के किनारे पर स्थित छोटे कमरे में बैठा कर अंदर चली गईं. कुछ देर बाद एक कप चाय और प्लेट में कुछ नमकीन और बिस्कुट के साथ वापस लौटीं.

‘‘तुम सुबह हापुड़ से चलकर आए हो. अभी कुछ खाया भी नहीं होगा…’’ कहने के साथ वह मेरे पास कुर्सी पर बैठ गईं.

‘‘तुम्हें मालूम है कि निर्मल मेरी आठ संतानों में पाँचवाँ है. तीन भाइयों में सबसे छोटा. बड़ा बेटा सेना में बड़े पद से कुछ समय पहले ही सेवानिवृत्त हुआ है. यह घर उसी का है. उसके पिता भी ब्रिटिश भारत में रक्षा मंत्रालय में बड़े अधिकारी रहे थे. निर्मल अपने सभी भाइयों और बहनों का लाडला रहा है. बचपन से शरारती और तेज़ दिमाग का रहा. हमेशा कक्षा में प्रथम आता. रात में देर तक लैंप की रोशनी में किताबें पढ़ता रहता. जब कभी वह पढ़ते-पढ़ते थक जाता तो मेरे पास चला आता और मेरे पल्लू को हाथ में पकड़ गोदी में लेट जाता. मैं उसका माथा धीरे-धीरे सहलाती रहती. एक रहस्य की बात बताऊँ! निर्मल के विपरीत रामकुमार अपने में खोए रहने वाला रहा. न कोई शरारत करता और न ही कोई मांग. मैं तो उसे कभी-कभी बुद्धू तक कह देती. निर्मल की तरह उसे माँ का प्यार लेना भी नहीं आया. इधर सुनती हूँ कि उसकी गिनती देश के बड़े चित्रकारों में होती है. क्या सचमुच ऐसा है!’’

उन्हें जैसे इस बात पर विश्वास ही नहीं हो पा रहा था.

यह दो बड़े कलाकारों के बीच का वह महीन अंतर था, जिसे सिर्फ़ एक माँ ही रेखांकित कर सकती थी.

“इस बार लंदन जाने के लिए निर्मल को मैंने ही विवश किया है. आखिरी बार प्रयास कर देखे, शायद कोई समझौता हो जाए और उसका घर टूटने से बच जाए. एक छोटी बच्ची का भी सवाल है. मैंने सही किया या ग़लत, नहीं कह सकती. तुम तो जानते ही हो बेटा मुहब्बत ऐसी ही चीज़ होती है जो अच्छे-अच्छे समझदारों को भी भ्रमित कर देती है. निर्मल आजकल ऐसे ही संबंध में उलझा है.’’

संभवतः उनका इशारा कला प्रदर्शनियों और प्रसिद्ध चित्रकारों पर केंद्रित अंग्रेजी के प्रसिद्ध अख़बारों के लिए लिखने वाली उस कला समीक्षक की ओर था, जिनसे कई दफा मेरी मुलाकात भी बरसाती में हो चुकी थी.

निर्मलजी के प्रस्थान के बाद उत्पन्न खालीपन और अवसाद से मुक्ति पाने के लिए शायद माँ मुझसे यह अंतरंग वार्तालाप कर रही थीं.

सीढ़ियाँ उतरते हुए मेरे भीतर का अवसाद जो निर्मलजी के न मिल पाने से उत्पन्न हुआ था वह अब जाता रहा था.

वर्ष 1980 में लक्ष्मीधर मालवीय अपने छायांकनों की प्रदर्शनी के सिलसिले में सपरिवार जापान से भारत आए. कुछ दिन के लिए वह मेरे अतिथि रहे. निर्मल वर्मा से मिलने और उनकी कुछ छवियों को अपनी कमरे में क़ैद करने की उनकी गहरी आकांक्षा थी.

निर्धारित दिन निर्मलजी की बरसाती तक पहुँचने में शाम ढल चुकी थी. कवि पंकज सिंह भी हमारे साथ थे. गर्मियों के दिन थे. बरसाती के बाहर खुली छत पर निर्मलजी एक महिला के साथ बैठे थे. मेज के ऊपर बियर की कुछ बोतलें रखी थीं. सामने रखी बेंच पर हम तीनों विराजमान हो गए. पहले से उपस्थित उन प्रौढ़ महिला से हमारा परिचय कराने के बाद निर्मलजी कौतुक से मुस्कुराते हुए बोले- ‘‘यह ऊषा प्रियंवदा जी हैं. एक लंबे अंतराल बाद कुछ दिन पहले ही अमेरिका से भारत आई हैं. उनके लेखन से आप परिचित होंगे!’’

‘पचपन खंबे लाल दीवारें’ जैसे उपन्यास और ‘वापसी’ जैसी अविस्मरणीय कहानी के लेखक को भला कौन विस्मृत कर सकता है!

‘‘यह आपकी सदाशयता है. आश्चर्य है कि साहित्य की दुनिया से इतने लंबे समय की अनुपस्थिति के बावजूद मेरी स्मृति अभी भी आपके मन में बनी है.’’

मेरे मुँह से बेसाख्ता निकले शब्दों ने शायद उनके मर्म को कहीं स्पर्श कर लिया था.

ऊषा प्रियंवदा जी कुर्सी से उठकर छत के कोने में बने बाथरूम की ओर गईं. वापस लौटीं तो रूमाल से उन्हें अपना चश्मा साफ करते देखा. उनकी आँखों में एक गीलापन सा उतरता महसूस हुआ.

चार
निर्मल वर्मा, पंकज सिंह आदि

80 के दशक के शुरू में निर्मलजी कुछ वर्ष के लिए निराला सृजन पीठ के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति के बाद भोपाल चले आए थे. प्रोफेसर्स कॉलोनी में उन्हें एक पुराना बंगला निवास के लिए आवंटित हुआ था.

पहली बार निर्मलजी के आवास पर पहुँचा तो बाहरी कमरे में प्रवेश करने पर सबसे पहले दृष्टि उस डेस्क पर गई जो उनकी दिल्ली की बरसाती से यहाँ भोपाल तक चला आया था. डेस्क के सामने गद्दे पर पालथी मारकर बैठे निर्मलजी ने मुसकुराते हुए मेरा स्वागत किया. डेस्क से तनिक दूरी पर एक पेड़ का दरख्त कमरे की छत का स्पर्श कर रहा था.

‘‘यह जामुन का पेड़ है, जो अभी सूखा नहीं है. संभवतः पहले यह इस पुराने बंगले का आंगन रहा होगा. यह निःसर्ग के साहचर्य का अहसास कराता है.’’

बंगले के भीतरी आंगन में एक आम का वृक्ष था, जिसकी शाखाएँ और पत्तियाँ कमरे की छत पर छांव का काम करती. गर्मियों के दिनों में कमरे को शीतल रखने का भी.

यह ढलती शाम का वह समय था, जब उनसे मिलने वाले मित्रों की आमद होने लगती. मंजूर एहतेशाम और सत्येन कुमार से अकसर मुलाक़ात हो जाती. यदा-कदा उदयन वाजपेयी भी अपने किसी युवा मित्र के साथ वहाँ दिखाई दे जाते.

भोपाल आने से निर्मलजी प्रफुल्लित दिखाई दिए. दिल्ली की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी की अपेक्षा भोपाल उन्हें शांत और लेखन के लिए अधिक अवकाश देने वाला शहर प्रतीत हुआ. यह भारत भवन के उत्कर्ष का भी सर्वश्रेष्ठ समय था. निर्मल जी के पुराने मित्र जे. स्वामीनाथन भी भारत भवन में आदिवासी कला संग्रहालय की स्थापना के लिए भोपाल चले आए थे. साहित्यिक आयोजनों के अलावा वहाँ रंगमंच, शास्त्रीय संगीत व कला की प्रदर्शनियों के आयोजन समय-समय पर होते रहते.

बाहर निकलते हुए दिखाई दिया एक छोटा अमरूद का पेड़, चारदीवारी के भीतर से बाहर की ओर झांकता हुआ.

उस शाम मंजूर एहतेशाम और सत्येन कुमार पहले से विराजमान थे. रसपान के दरम्यान निर्मलजी क्षुब्ध प्रतीत हुए.

“यह मानव मस्तिष्क की कितनी अबूझ गुत्थी है कि वह जिसकी सहायता करता है, वही उसके विरुद्ध अनर्गल प्रचार करता है और संवेदनशील कवि भी कहलाता हो!’’

संभवतः उनका इशारा उस वरिष्ठ कवि की ओर था जो कुछ समय पहले चेकोस्लोवाकिया गया था. जाने से पूर्व निर्मल जी ने अपने मित्रों के नाम उस कवि की प्रशंसा करते हुए पत्र लिखे थे. वही कवि उनके मित्रों के बीच उनके बारे में झूठा और भ्रामक प्रचार करता रहा.

मंज़ूर एहतेशाम के पहले कहानी संग्रह ‘रमज़ान में मौत’ का प्रकाशन संभावना से हुआ. यह संग्रह उन्होंने निर्मलजी को समर्पित किया था. उसकी प्रति के साथ मैं निर्मलजी के आवास पर गया. किताब पलटते हुए उनकी दृष्टि समर्पण पृष्ठ पर गई तो मुसकुराते हुए बोले- ‘‘जिस व्यक्ति को यह किताब समर्पित की गई है उसका नाम इतने बड़े फॉन्ट में छपा है कि प्रतीत होता है जैसे उसके नाम को लेखक से भी अधिक विज्ञापित किया जा रहा हो. समर्पण बेहद निजी भाव है. इसे छोटे से छोटे फॉन्ट में छापा जाए कि पाठक उसे पढ़ भर सके. ख़ैर ऐसी मामूली गलती किताब के मुद्रण के समय प्रायः हो जाया करती हैं. भविष्य में इसका जब कभी दूसरा संस्करण हो तो इसमें परिमार्जन कर लें.’’

वर्ष 1983 के दिसंबर का कोई दिन. जिस समय निर्मलजी के बंगले पर पहुँचा तो आकस्मिक हल्की बूंदाबांदी प्रारंभ हो गई थी.

निर्मलजी ने हीटर का मुँह मेरी और घुमाते हुए कहा- ‘‘कुछ भीग गए लगते हो. अपने को थोड़ा सूखा लें.’’ रम की बोतल मेरी और खिसकाते बोले-‘‘इससे आपको कुछ राहत मिलेगी.’’

उस शाम वह अकेले थे. संभवतः खराब मौसम के कारण कोई न आ सका होगा. वार्तालाप के दौरान मैंने उनसे कहा कि आजकल किताबों का मूल्य इतना अधिक हो गया है कि इच्छा के बावजूद उसे खरीद पाना मुश्किल महसूस होता है. मन मसोस कर रह जाना पड़ता है.

‘‘तुम ठीक कह रहे हो. लंदन में बेरोजगारी के दिनों में मेरे साथ भी ऐसा ही होता था. मैं किताबों की दुकान के बाहर खड़ा अक्सर विण्डो शापिंग किया करता. कभी-कभी जब अपने किसी प्रिय लेखक की नई किताब दिखाई दे जाती तो उसे खरीद न पाने का अफसोस बना रहता.’’

कुछ देर बाद मुसकुराते हुए निर्मलजी बोले-

“वैसे देखा जाए तो पुस्तकें भी एक प्रकार की संपदा ही तो ठहरी. फिर उसे पाने, न पाने या खो देने का कोई अफसोस या पछतावा भी मन में क्यों रखा जाए!’’

बारिश थम गई थी. निर्मलजी से विदा ले मैं प्रोफेसर्स कालोनी की लेन को पार करता हुआ मुख्य सड़क पर आया. आज मन अबूझ से अवसाद से भरा था. कभी-कभी बीच में हल्की बूंदे टपकने लगतीं. मेरी आँखें जवाहर चौक जाने के लिए किसी खाली ऑटो वाले की प्रतीक्षा करने लगीं.

 

वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल की सम्पूर्ण  कहानियों का संग्रह ‘आधी सदी का कोरस’ तथा ‘किसी वक्त किसी जगह’ शीर्षक  से यात्रा वृतांत‘ तथा संस्मरणों की पुस्तक  संग साथ’ संभावना प्रकाशन’ हापुड़ से प्रकाशित है.

मोब.-८२६५८७४१८6

Tags: 20232023 संस्मरणअशोक अग्रवालनिर्मल वर्मा
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Comments 16

  1. माताचरण मिश्र says:
    2 years ago

    संस्मरणों की दुनिया में अशोक अग्रवाल नये नहीं हैं.इस आलेख में भी उन्होंने निर्मल वर्मा,रामकुमार ,उनकी मां को विलक्षणता से चित्रित किया है. कृष्ण कुमार, सुदर्शन नारंग,नफीस आफरीदी को समेट लिया है. निर्मल वर्मा हिन्दी के श्रेष्ठ लेखकों में रहे हैं. भोपाल प्रसंग में मंजूर एहतशाम और सत्येन कुमार का जिक्र है. कहा जाए तो यह संस्मरण भी किताब में अवश्य आना चाहिये और अशोक भाई अब आप स्वस्थ हो गये होंगे. यही कामना कर रहा हूं…….

    Reply
  2. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    2 years ago

    अशोक भाई, निर्मल जी की बरसाती में मै भी आप के साथ गया हूँ. उनके यहाँ हमने पीतल का एक सुंदर कलश देखा था. पूछने पर पता लगा की उसे अमृता भारती ने उन्हें भेट किया हैँ. इसकी कथा भी अदभुत हैँ. निर्मल जी जब अमृता जी से मिलने अरविन्द आश्रम गये थे तो उन्होने उनके यहाँ इस कलश को देखा था और उसकी सुंदरता की प्रशंसा की थी. अमृता जी ने सहज़ में ही कहा था, अगर आपको पसंद हैँ आप इसे ले जाइए. निर्मल जी को यह उचित नहीं लगा. अमृता भारती ( जिसे हम प्यार से दीदी कहते हैँ, वे हिंदी कि अद्भुत कवयित्री हैँ ) दूसरे दिन वे इस कलश को लेकर निर्मल जी को भेट करने पहुंच गयी. यह लेखकों के बीच आत्मीयता का अदभुत उदाहरण हैँ. अब तो कोई लेखक किसी को सूई भी नहीं भेट करता.
    जब यह संस्मरण पुस्तक रूप में प्रकाशित हो तो इसे जोड़ सकते हैँ. यह मेरा नहीं आपका संस्मरण हैँ

    Reply
  3. नरेश गोस्वामी says:
    2 years ago

    अशोक जी को स्वस्थ और सक्रिय देखना कितना सुखद है! 💐

    Reply
  4. मिथलेश शरण चौबे says:
    2 years ago

    सुन्दर लिखा अशोक जी ने।

    Reply
  5. कौशलेंद्र सिंह says:
    2 years ago

    बहुत सुंदर!
    ऐसे संस्मरणों को चबा चबा कर पढ़ना होता है तभी लज़्ज़त आती है। सरसरी तौर पर पढ़ना कठिन होता है। ख़ैर थोड़ा अवकाश मिला आज तो पढ़ गया। सप्ताहांत का दिन उनींदा सा रहता है, फिर इस सर्दी की पहली झुरझुरी की दस्तक पर और सुस्त कर देने वाला। बहुत सुंदर संस्मरण है, बिल्कुल सहज और सरलता से वैसे ही उतारा गया है जैसा अनुभूत किया गया रहा होगा। कुछ पुस्तकें भी ज्ञात हुईं। अशोक जी की एक पुस्तक ‘संग साथ’ मेरे पास है , अभी पढ़ नहीं सका, शीघ्र ही पढ़ूँगा। अरुण सर सदैव कितनी शिद्दत से ऐसे पठनीय अंक निकालते हैं, जितनी प्रशंसा की जाए कम है। यूँ ही यात्रा चलती रहे , बहुत बधाई🙏🙏

    Reply
  6. पंकज अग्रवाल says:
    2 years ago

    सुंदर संस्मरण. धन्यवाद

    Reply
  7. Arun Maheshwari says:
    2 years ago

    यह संस्मरण बहुत रोचक है । शायद इसलिए भी कि इसके केंद्र में निर्मल वर्मा हैं । पर यह निर्मल जी के साथ ही बारीकी से अशोक अग्रवाल जी के बारे में भी अनेक संकेत देता है । पाठ इसी प्रकार कथ्य के साथ लेखक के संबंध को परिभाषित करता है । इससे समग्र रूप से साहित्य जगत की भी एक झलक, लेखक और एक छोटे प्रकाशक के बीच के आत्मीय संबंधों के सच की अन्तर्दृष्टि मिलती है । निर्मल जी का यह कथन कि पश्चिम का लेखक अपना सब कुछ गँवा कर लेखन को पाना चाहता है, न कि लेखन के ज़रिए बाक़ी सब कुछ, बहुत अर्थपूर्ण है । (‘‘सिर्फ़ यही कि हिन्दी का लेखक लेखन के माध्यम से सब कुछ अर्जित करना चाहता है, जबकि वहाँ का लेखक सब कुछ खोकर लेखन पाना चाहता है.’’ ) यह संबंध माँग और आपूर्ति वाला बाज़ार का संबंध भर नहीं होता है । यह संबंध लेखक को किसी माल की तरह, माँग की या ज़रूरत की वस्तु की तरह पेश नहीं करता है । मनुष्य का जो संबंध भाषा के साथ होता है, उसी की एक झलक लेखक के प्रकाशक के साथ संबंध में भी मिलती है ।
    इस संस्मरण में अनायास ही आए राजकमल चौधरी, अमितेश्वर, कृष्ण कुमार और निर्मल जी की माँ के प्रसंग बहुत उल्लेखनीय हैं ।
    अशोक जी स्वस्थ रहें और दीर्घजीवी हों, यही कामना है ।

    Reply
  8. Anonymous says:
    2 years ago

    बढ़िया संस्मरण |

    Reply
  9. दिनेश कर्नाटक says:
    2 years ago

    अशोक जी के संस्मरण पढ़ता रहा हूँ। यह संस्मरण भी एक रौ में पढ़ गया। निर्मल जी की सहजता और सरलता प्रभावित करती है। समृद्ध हुआ हूँ।

    Reply
  10. Manoj Kulkarni says:
    2 years ago

    शख्सियतों,उनके परिवेश और समय को अशोक जी के संस्मरण हमेशा ही बहुत रोचक और पठनीय अंदाज़ में रखते रहे हैं। निर्मल जी की भी एक अलग सी झलक इस संस्मरण से मिलती है। उनके बहाने कुछ और रचनाकारों के बारे में भी।
    अशोक जी अब बेहतर हैं, यह सु:खद है।

    Reply
  11. Jeeteshwari Sahu says:
    2 years ago

    निर्मल वर्मा पर लिखा हुआ यह अशोक अग्रवाल जी का बेहद अद्भुत संस्मरण है।
    इस संस्मरण में अशोक जी के मन में निर्मल वर्मा जी के प्रति जो आत्मीयता और सम्मान का भाव है वह इधर कहीं खो सा गया है। इसे पढ़ते हुए लगता है जैसे किसी पुरानी फिल्म को हम इस तरह देख रहे हैं जो अभी-अभी किसी सिनेमाघर में लगी हो और मन वहां से वापस आने के बाद भी उसके पीछे-पीछे कहीं भाग रहा है।
    निर्मल वर्मा की सदाशयता और अपने मित्रों की जरूरतों को बहुत प्रेम से समझना, उसे पूरा करना यह सब पढ़कर लगता है जैसे ये सब निर्मल वर्मा ही कर सकते थे। मैंने हिंदी में अशोक अग्रवाल जी के ‘समालोचन’ पर प्रकाशित और हाल ही में प्रकाशित संस्मरण की अद्भुत किताब ‘संग साथ’ को पढ़ने के बाद ही जाना कि किसी को स्मरण करना भी एक कला है। एक ऐसी कला जो दूसरों को भी इस कला की बारीकियों में जाने के लिए प्रेरित करती है।
    इस सुंदर और जादुई संस्मरण के लिए अशोक अग्रवाल और ‘समालोचन’ को बधाई और शुक्रिया भी क्योंकि ऐसे संस्मरणों को पढ़ने के बाद लगता है कि हम भी अपने समय और अपने जीवन के इस सफर में मिलने वाले उन आत्मीय लोगों को अशोक अग्रवाल जी की तरह अपनी स्मृति में दर्ज रखें, उन्हें आजीवन अपने जीवन में जगह देने के साथ उस रिश्ते की खुशबू को हमेशा अपने भीतर महसूस करते रहें।

    Reply
  12. उत्तर कबीर says:
    2 years ago

    अच्छा लिखा है। थोड़ा अचानक से खत्म हो गया, ऐसा लगा।

    Reply
  13. Shashi Rani Agrawal says:
    2 years ago

    एक लंबे अंतराल के बाद इतना सुंदर संस्मरण पढ़ने सुनने को मिला ।अशोक अग्रवाल ने निर्मल वर्मा के अतिरिक् उनकी संवेदनशील मां और वर्मा जी के परिवेश का इतना आत्मीय अंतरंग चित्रण किया है कि उसकी सुगंध लंबे समय तक बनी रहेगी। अशोक अग्रवाल और प्रकाशक अरुण जी दोनों बधाई के पात्र हैं।

    Reply
  14. Anjali Deshpande says:
    2 years ago

    यह बहुत ही अच्छा संस्मरण है। निर्मल वर्मा के व्यक्तित्व का रेखांकन बहुत अच्छा है। कृष्ण कुमार का भी। आजकल दिल्ली की बरसातियां ही लोप हो गई हैं। शीर्षक ने उनकी याद भी ताज़ा कर दी। किताबों की विंडो शॉपिंग किसके लिए नई नहीं, इसीलिए तो पुस्तकालय होते हैं। किसी किसी किताब को खरीदने के लिए महीनों बचत करने की खुशी ही कुछ और होती है।

    Reply
  15. डॉ.करुणा गुप्ता says:
    2 years ago

    अशोक जी के संस्मरण में जीवन्तता एवं सहजता अद्भुत है।

    Reply
  16. कर्मेन्दु शिशिर says:
    2 years ago

    अशोक अग्रवाल की कलम में गजब का सम्मोहन है ।संस्मरण की सबसे बड़ी खूबी होती है आत्मगोपन! अशोक सिर्फ आँख और दिल से काम लेते हैं।उनकी आदत ही नहीं जीभ के बेवजह इस्तेमाल की। छोटी-छोटी बारीक चीजों ,घटनाओं,प्रसंगों या बातचीत को वे इस तरह रखते हैं कि उसकी सुराख से आप पूरा आकाश देख सकते हैं।

    Reply

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