इतिहास नहीं, केवल एक मिथ है पद्मिनी? प्रस्तोता : चित्रा सिंह |
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हिंदी भाषी समाज ने फ़िलहाल आपकी जो पहचान बना रखी है, उसकी पृष्ठभूमि में मध्ययुगीन संत और कवि मीरांबाई है. निस्संदेह उनकी भक्ति भावना और कविता, दोनों ही अपूर्व और अद्वितीय हैं और आपने उनके जीवन और काव्य को लेकर जो काम किया है, उससे मीरां को समझने वालों नये जमीन और दृष्टि मिली है. लेकिन अब आप राजस्थान के राजनीतिक-सांस्कृतिक इतिहास में जाकर एक ऐसे चरित्र की ऐतिहासिकता और अनैतिहासिकता को विवादास्पद ज़मीन पर खड़े हो गए हैं, जिसे शुद्धतः साहित्यिक कर्म नहीं कहा जा सकता. मसलन, पद्मिनी जैसे लोकस्मृति में गहरे बैठे चरित्रों को लेकर, जो इतिहास के अनुशासन में काम करने वालों का अधिकार क्षेत्र है. तब हम आपको साहित्यालोकचक मानें या इतिहासकार?
मीरां की तरह ही पद्मिनी भी राजस्थान ही नहीं, समस्त उत्तर भारत के लोकस्मृति में सदियों से यात्रा करने वाला चरित्र है. यह विनिबंध मूलतः पदमिनी के चरित्र पर निर्भर ऐतिहासिक कथा-काव्यों का अध्ययन है इसलिए साहित्यिक कर्म है. यहाँ लक्ष्य पद्मिनी की ऐतिहासिकता पर विचार का नहीं है, लेकिन इन रचनाओं में आधार एक ऐतिहासिक चरित्र है, इसलिए विनिबंध में इस पर भी विचार किया गया है.
विडंबना यह है कि भारतीय इतिहास और साहित्य, दोनों अनुशासनों ने इनको अब तक इनको अपनी विचार की परिधि में नहीं लिया. ये कथा-काव्य रचनाएँ भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्य की बहुत प्राचीन परंपरा का स्वाभाविक, देशज और क्षेत्रीय विकास हैं. जायसी के पद्मावत से इनका से कोई का संबंध नहीं हैं. यह परंपरा स्वायत्त और निरंतर है और इसकी रचनाओं की घटनाओं के मोड़-पड़ाव और चरित्र जायसी से अलग होने के साथ एक-दूसरे से भी अलग हैं. अधिकांश आधुनिक विद्वानों ने इस परंपरा की अलग से पहचान और मूल्यांकन नहीं किया. ये कथा-काव्य अपनी प्रकृति और संगठन में साहित्य के साथ कुछ हद तक ‘इतिहास’ भी हैं, इनमें स्मृति के व्यवहार और विन्यास का एक ख़ास भारतीय और देशज ढंग है और इनके कुछ कवि-लेखक भी इनको ‘इतिहास‘ कहते-मानते थे, लेकिन ‘आधुनिक’ संस्कारवाले अधिकांश इतिहासकार इनको ऐतिहासिक स्रोत नहीं मानते.
एक अत्यंत अतिरंजित और अलंकरणप्रधान प्रशस्ति काव्य अमीर ख़ुसरो कृत ख़ज़ाइन–उल–फ़ुतूह को अधिकांश आधुनिक भारतीय इतिहासकार बतौर साक्ष्य, बल्कि सर्वोपरि साक्ष्य की तरह व्यवहार में लाते रहे, लेकिन उन्होंने इन देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों को जायसी से प्रेरित और मनगढंत मानकर ख़ारिज़ कर दिया. ये देशज कथा-काव्य इतिहास और साहित्य में आवाजाही और इनकी एक-दूसरे पर निर्भरता की दीर्घकालीन भारतीय परंपरा का विकास भी हैं, इसलिए इनमें आख्यान का एक सर्वथा नया रूप मिलता है. इन कथा-काव्यों के जैन और चारण कवि-कथाकारों को इतिहास को कथा-काव्य में ढालने का अभ्यास और महारत हासिल था, जो उन्होंने अपने यजमानों की रुचियों और सांस्कृतिक ज़रूरतों के अनुसार विकसित या अर्जित किया था.
मध्यकालीन साहित्य की पहचान और मूल्यांकन के अधिकांश कार्यों में इनमें से कुछ को चारण मतलब ‘राज्याश्रयी’ और कुछ को जैन मतलब ‘सांप्रदायिक’ मानकर महत्त्व नहीं दिया गया. उपनिवेशकाल में जेम्स टॉड ने अपने इतिहास में एक जगह खुम्माणरासो का उल्लेख किया अन्यथा परवर्ती आधुनिक विद्वानों की निगाह में इन कथा-काव्यों की हैसियत जायसी से प्रेरित काल्पनिक कथा-काव्य से अधिक कभी नहीं रही. ख़ास बात यह है कि क्षेत्रीय इतिहास के मनीषी विद्वान गौरीशंकर ओझा ने भी इनको ‘भाटों की रचनाओं’ की श्रेणी में रखा. हमारी परंपरा में इतिहास और साहित्य निरंतर आवाजाही रही है. इसलिए इन रचनाओं की पहचान और बनाने के लिए इन दोनों अनुशासनों का उपयोग ज़रूरी है.
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आपने विनिबंध में ‘आख्यान’ और ‘कथा’ में भेद नहीं किया है, जबकि हमारी परंपरा में इनमें अंतर किया गया है. ऐसा आपने क्यों किया?
आपकी बात सही है. हमारे यहाँ इनमें भेद किया गया है, लेकिन यह भेद हमेशा नहीं रहा- लक्ष्य ग्रंथों की प्रकृति के अनुसार इसमें बदलाव भी होते रहे. भारत में कथा की स्वायत्त परंपरा है, लेकिन इतिहास को कथा का रूप देकर ऐतिहासिक कथा-काव्य की रचना की भी यहाँ लंबी और समृद्ध परंपरा है.
भारतीय कथा परंपरा की शुरुआत ही ऋग्वेद में ऐतिहासिक कथा संकेतों से हुई. भारतीय परंपरा में इसलिए आरम्भ से ही इतिहास और कथा की एक-दूसरे में आवाजाही इतनी निरंतर और सघन है कि इनको एक-दूसरे से अलग करके स्वायत्त ढंग से समझा ही नहीं जा सकता. पश्चिम में भी ये दोनों सर्वथा अलग अनुशासन हैं और इन दोनों की अलग परम्पराएँ हैं, सर्वथा ऐसा भी नहीं है.
‘कथा’ शब्द का प्रयोग भी इस कारण भारतीय वाङ्मय में व्यापक अर्थ में हुआ है और यह लक्ष्य ग्रंथों के आधार पर बदलता भी रहा है. यहाँ सभी प्रकार के ऐतिहासिक-अर्ध ऐतिहासिक चरित काव्यों को ‘कथा’ कहा गया है. तुलसीदास ने एकाधिक बार रामचरितमानस को ‘कथा’ कहा है. इसी तरह विद्यापति ने अपनी रचना कीर्तिलता को ‘कहाणी’ (कथानिका) कहा है.
प्राचीन साहित्य में कथा का प्रयोग एक तो ‘कहानी’ के अर्थ में और दूसरे, अलंकृत काव्यरूप के अर्थ में होता आया है. पंचतंत्र, महाभारत और पुराण के आख्यान और गुणाढ्य की बृहत्कथा सभी की गणना कथा की श्रेणी में ही होती है, लेकिन भामह और दंडी ने इसका प्रयोग विशिष्ट अर्थ में अलंकृत गद्यकाव्य के लिए किया है.
दंडी ने आग्रहपूर्वक कथा और आख्यायिका को एक श्रेणी की रचना माना है. रुद्रट ने नवीं सदी में लिखा कि संस्कृत निबद्ध कथाओं को गद्य में लिखने का बंधन है, परंतु अन्य भाषाओं (प्राकृत और अपभ्रंश) में ये पद्य में लिखी जा सकती हैं. स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में कथा का अर्थ केवल कल्पित कहानी नहीं है.
आख्यान, आख्यायिका, वंश, वंशानुचरित, चरित आदि ऐतिहासिक और अर्ध ऐतिहासिक रचनाएँ भी इसमें कथा की श्रेणी में रखी जाती थीं. यह विडंबना है कि इतिहास के औपनिवेशिक संस्कार और शिक्षा के कारण हम अपने ऐतिहासिक कथा-काव्य ग्रन्थों को केवल कथा मानकर इतिहास के दायरे से बाहर कर देते हैं. वस्तुस्थिति यह है कि यह स्मृति के रख-रखाव का भारतीय ढंग है. ये रचनाएँ कथा-काव्य के विन्यास में कुछ हद तक इतिहास भी हैं.
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आपने अपने विनिबंध ‘पद्मिनी में जो प्रमाण ढूँढे हैं और जिस प्रकार के तर्कों के बल पर निष्कर्ष लिए हैं, वे पद्मिनी के चरित्र को लेकर उनके जिज्ञासु पाठकों को कहाँ तक पहुँचाते हैं?
विनिबंध में केवल पदमिनी ही नहीं, इस कथा से संबंधित अन्य सभी चरित्रों के संबंध में जिज्ञासु पाठकों के लिए पर्याप्य सामग्री है. पदमिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर ऐतिहासिक कथा-काव्य सर्वथा मिथ्या या मनगढ़ंत नहीं है. उनमें इतिहास का नियोजन भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्य परंपरा के अनुसार है, इसलिए इनमें इतिहास के साथ रचनात्मक विस्तार के लिए प्रयुक्त मिथ-अभिप्रायों और कथा-रूढ़ियों का नियोजन ख़ूब है. ये अभिप्राय और कथा रूढ़ियाँ भी केवल कल्पना नहीं हैं- इनके प्रस्थान में यथार्थ की मौजूदगी है और भारतीय ऐतिहासिक काव्यों की निर्मिति, कवि स्वभाव और शिक्षा के कारण ये इनमें सहज ही आ गयी हैं.
इन कथा-काव्यों में वर्णित पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण की आंशिक पुष्टि अलाउद्दीन ख़लजी के समकालीन इस्लामी वृत्तांतकार अमीर ख़ुसरो (1253-1325 ई.) के वृत्तांत से भी होती है, जिसमें उसने अपने को सेबा की रानी बिलक़ीस का समाचार लाने वाले सुलेमान के पक्षी ‘हुद हुद’ के समान बताया है.
ज़ियाउद्दीन बरनी (1285-1357 ई.) और अब्दुल मलिक एसामी (1311 ई.) ने अलाउद्दीन के चित्तौड़ अभियान का विवरण तो दिया है, लेकिन इसमें इन दोनों ने पद्मिनी और गोरा-बादल के उल्लेख नहीं किया. इस्लामी इतिहास लेखन की परंपरा के अनुसार इन्होंने इस प्रकरण का वही विवरण दिया, जो शासक अलाउद्दीन ख़लजी को अच्छा लगता था.
परवर्ती इस्लामी वृत्तांतकारों- अबुल फ़ज़ल (1551-1602 ई.), महम्मद क़ासिम फ़रिश्ता (1560-1620 ई.) और हाजी उद्दबीर (1540-1605 ई.) ने भी इस प्रकरण का अपनी-अपनी तरह से विवरण दिया है और इनमें पद्मिनी और गोरा-बादल का उल्लेख आ गया है. अलाउद्दीन के समकालीन कक्कसूरि का नाभिनंदनजिनोद्धारप्रबंध (1336 ई.) और परवर्ती रचना मुँहता नैणसीरी ख्यात (1610-1670 ई.) और रावल राणारी वात (1680-1698 ई.) में इस प्रकरण का संदर्भ मिलता है.
विवेच्य कथा-काव्यों के अनुसार अलाउदद्दीन ख़लजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण केवल राजीनितिक प्रयोजन के लिए नहीं किया- पद्मिनी पाने की लालसा की इसमें निर्णायक भूमिका थी. इस तथ्य का समर्थन छिताईचरित्र (1475-1480 ई), हम्मीररासो 1390 ई.), हम्मीरायण (1481 ई.) आदि देशज रचनाओं के साहित्यिक साक्ष्य भी करते हैं.
विवेच्य रचनाओं में अलाउद्दीन स्त्री लोलुप और कामांध वर्णित किया गया है. यह बात सही है, क्योंकि सभी देशज स्रोत और स्त्रियाँ पाने के लिए किए गए उसके युद्ध अभियान भी इसी ओर संकेत करते हैं. रचनाओं में वह अपार शक्तिशाली और क्रूर भी दिखाया है, जो वह था. इस्लामी स्रोतों- ख़ासतौर पर तारीख़-ए-फ़रिश्ता में जियाउद्दीन इस तरह का विवरण देता है.
समरसिंह (1273-1303 ई.) का उत्तराधिकारी रत्नसिंह (1302-1303 ई.) अलाउदद्दीन के 1303 ई. के आक्रमण के समय चित्त्तौड़ का शासक था और वह इन कथा-काव्यों का निर्विवाद नायक है. यह अलग बात है कि कुछ आधुनिक इतिहासकारों को आरंभ में उसके अस्तित्व लेकर संदेह था. यह संदेह इसलिए हुआ, क्योंकि मेवाड में राणा शाखा के शासन के दौर में बने कुछ शिलालेखों सहित कुछ साहित्यिक साक्ष्यों में रावल शाखा से संबंधित होने के कारण रत्नसिंह का नाम नहीं है. बाद में दरीबा (1303 ई.) और कुंभलगढ़ (1460 ई.) के शिलालेखों में 1303 ई. में उसका मेवाड़ में सत्तारूढ़ होना प्रमाणित हो गया.
पद्मिनी इन रचनाओं के केंद्र में है, लेकिन कतिपय इतिहासकारों ने उसको जायसी की कल्पना मान लिया, जो ग़लत है. पदमिनी का उल्लेख अलाउद्दीन के समकालीन वृत्तांतकारों ने नहीं किया, लेकिन ख़ुसरो के ख़जाइन-उल-फ़ुतूह में उसका सांकेतिक उल्लेख है. परवर्ती देशज स्रोत- मुँहता नैणसीरी ख्यात (1610-1670 ई.), रावल राणारी वात (1680-1698 ई.) सहित राजप्रशस्तिमहाकाव्य (1661-1681 ई.) और अमरकाव्यम् (1683 से 1693 ई.) में उसका उल्लेख मिलता है.
पद्मिनी सदियों से लोक स्मृति का भी हिस्सा रही है. वह पद्मिनी कोटि की स्त्री है, जिसका विवाह रत्नसेन से हुआ है. पाटनामा में उसका नाम मदन कुँवर है. विवेच्य अधिकांश रचनाओं में रत्नसेन को युक्तिपूर्वक अलाउद्दीन की क़ैद से मुक्त करवाने वाले योद्धा गोरा-बादल हैं और इन रचनाओं में से कुछ का नामकरण ही उनके नाम के आधार पर हुआ है. अलाउद्दीन के समकालीन वृत्तांतकारों ने उनका उल्लेख नहीं किया, लेकिन सभी दूसरे साहित्यिक और परवर्ती इस्लामी स्रोतों में उनका उल्लेख मिलता है. उनसे संबंधित सदियों पुराने स्मारक भी भी हैं, जो उनके ऐतिहासिक होने की पुष्टि करते हैं. राघवचेतन इन रचनाओं में से कुछ में एक, तो कुछ में दो व्यक्ति हैं. आधुनिक इतिहासकारों को राघवचेतन के ऐतिहासिक अस्तित्व पर भी संदेह है. राघवचेतन का उल्लेख भी अलाउद्दीन के समकालीन वृत्तांतकारों ने नहीं किया, लेकिन उससे संबंधित कांगड़ा की ज्वालामुखी प्रशस्ति (1433-1446 ई.), वृद्धाचार्य प्रबंधावली (1569 ई.), शार्गंधरपद्धति (तेरहवीं सदी के अंतिम चरण में) आदि पर्याप्त पुरालेखीय और साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध हैं. राघवचेतन से संबंधित जैन साहित्यिक साक्ष्य और कांग़ड़ा की ज्वालामुखी प्रशस्ति तो अलाउद्दीन की लगभग समकालीन हैं.
पाटनामा को छोड़कर ये सभी रचनाएँ एक राय हैं कि रत्नसेन और अलाउद्दीन ख़लजी के बीच हुए युद्ध में विजय रत्नसेन की हुई और बादशाह भाग गया, जबकि जौहर का उल्लेख इनमें से किसी भी रचना में नहीं है. पाटनामा के अनुसार दुर्ग ध्वस्त हुआ और बादशाह की फ़ौज भाग गयी. रत्नसेन की इन रचनाओं में विजय हुई, लेकिन देशज कुछ साहित्यिक स्रोत और पुरालेखीय अभिलेख मानते हैं कि रत्नसेन की पराजय हुई और कुछ समय के लिए दुर्ग सल्तनत के अधीन रहा. रचनाओं में रत्नसेन की विजय का उल्लेख स्वाभाविक है- अकसर रचनाकार पराजय को विजय के रूप में चित्रित कर अपने जाति-समाज के स्वाभिमान को खाद-पानी देते हैं. जौहर का उल्लेख इनमें से किसी भी रचना में नहीं है और यह भी स्वाभाविक है, क्योंकि जौहर की परिस्थिति तो तब बनती, जब रत्नसेन की पराजय होती. परवर्ती देशज साहित्यिक वंशावली अभिलेखों-राजप्रशस्तिमहाकाव्य, अमरकाव्य और राजरत्नाकरकाव्य में भी जौहर का उल्लेख नहीं है, जबकि इस तरह का उल्लेख प्रतिष्ठाकारी था. जौहर केवल जायसी की पद्मावत, अबुल फ़ज़ल की आईन-ए-अकबरी और मुँहता नैणसीरी ख्यात और रावल राणारी वात में है और यह इनमें कहाँ से आया, यह कहना बहुत मुश्किल काम है.
जौहर लोक स्मृति में है. पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर अलाउद्दीन के समकालीन इस्लामी वृत्तांतकारों का मौन बहुत स्वाभाविक है. आधुनिक इतिहासकारों ने इस आधार पर इस प्रकरण को जायसी की कल्पना मान लिया, जो सही नहीं है. यह विडंबना है कि आधुनिक कुछ इतिहासकारों ने मध्यकालीन भारत के सन्दर्भ में दरबारी इतिहास को ही प्राथमिक स्रोत या आधिकारिक स्रोत का दर्जा देते हुए इनमें दर्ज़ हुई हर सूचना को वस्तुपरक सत्य मान लिया गया, जो पूरी तरह ग़लत है.
पी. हार्डी ने इस संबंध में साफ़ सचेत करते हुए लिखा है कि
“आधुनिक इतिहासकारों के लिए मध्ययुगीन मुस्लिम भारत के इतिहास के संबंध में इन लेखकों के विवरणों पर अंध निर्भरता ठीक नहीं है. जो वे कहते हैं वह इतिहास नहीं है, बल्कि इतिहास का कच्चा माल है, जिसे तैयार उत्पाद में बदलने के लिए उसके निर्माण की आवश्यकता होती है.”
अलाउद्दीन के समकालीन तीनों समकालीन वृत्तांतकारों- अमीर ख़ुसरो, ज़ियाउद्दीन बरनी और अब्दुल मलिक एसामी पर पूरी तरह निर्भरता इस प्रकरण के संबंध में ग़लत निष्कर्ष पर पहुँचा देती है. दरअसल एक तो इन तीनों वृत्तांतकारों में से अमीर खुसरो तो मूलतः कवि था और एसामी की इच्छा भी कवि होने की ही थी और दूसरे, उस समय का रिवाज़ के मुताबिक अलाउद्दीन की सराहना और उसकी कमज़ोरियों की छिपाना उनकी आदत और मजबूरी थी.
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क्या पेशेवर इतिहास से बाहर जाकर लोकवृत्तों में फैले और व्याप्त चरित्रों को हम वह दर्ज़ा और हैसियत दे सकते हैं, जो किसी ऐतिहासिक चरित्र को प्राप्त है?
लोक में व्याप्त चरित्र काल्पनिक नहीं होते. उनके प्रस्थान में कोई ऐतिहासिक चरित्र ज़रूर होता है. लोक इस चरित्र का अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक ज़रूरतों के अनुसार विस्तार और पल्लवन करता है. भारतीय समाज की निर्भरता परंपरा से दस्तावेज़ के बजाय स्मृति पर ज़्यादा है. ‘श्रुत’ और ‘स्मृत’ पर आधारित मौखिक का भारतीय परंपरा में बहुत महत्त्व है. अधिकांश भारतीय अधिकांश साहित्य सदियों तक श्रुत और स्मृत में ही सुरक्षित रहा है. यहाँ वेदों को भी इसीलिए ‘श्रुति’ कहा गया है. वेद सदियों से भारतीय मनीषा की स्मृति में हैं. बहुत बाद में कश्मीर के हिंदू विद्वान् यास्क (700 – 500 ई. पू.) ने पहली बार श्रुत और स्मृत में सुरक्षित वेदों के मंत्रों को लिपिबद्ध किया.
वेदों की श्रुत-स्मृत में सदियों तक निरंतर निर्दोष मौजूदगी पर टिप्पणी करते हुए सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने एक जगह लिखा है कि-
“श्रुति द्वारा संरक्षित साक्ष्य में वेदों का अद्वितीय स्थान है. वेदों को स्मृति में अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए जिस अध्ययन परंपरा का आविष्कार भारत में हुआ, वह संसार के इतिहास में अद्वितीय है. संसार में किसी देश में इसका उदाहरण नहीं मिलेगा कि कोई पाठ बिना एक अक्षर के परिवर्तन के देश विभिन्न भागों में केवल श्रुति के आधार पर हज़ारों वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सका हो.”
बौद्ध और जैन परंपरा में भी स्मृत और श्रुत का महत्त्व निरंतर रहा है.
“प्राचीनकाल में बुद्ध की शिक्षाओं को संरक्षित करने का पारंपरिक तरीका हर शब्द को स्मृति में समर्पित करना था. इसे समय-समय पर बाद के संगीति परिषदों द्वारा जीवंत किया जाता था.”
बुद्ध के उपदेशों को स्मृति के आधार पर ही संगीतियों में संकलित किया गया. ये संगीतियाँ भी निंरतर होती रहीं. ख़ास बात यह कि किसी एक संगीति को अंतिम और सर्वोपरि ‘प्रमाण’ कभी नहीं माना गया. संगीतियों के समय और स्थान को लेकर विद्वान् एक राय नहीं हैं, लेकिन ऐसा माना जाता है कि पहली संगीति राजगृह में 483, दूसरी वैशाली 383, तीसरी पाटलिपुत्र में 251 ई. पू. और चौथी कश्मीर कुंडलन में ईस्वी की पहली सदी में हुई. स्मृति के आधार पर हर संगीति में बुद्ध के उपदेशों को जीवंत रूप दिया गया.
महावीर ने भी स्वयं कभी कुछ नहीं लिखा. समवसरणों उनके गणधरों की रखी गयी जिज्ञासाओं के उनके मौखिक समाधानों को ही स्मृति के आधार पर बाद आगमों का रूप दिया गया. जैन श्वेतांबर परंपरा के अनुसार महावीर के निर्वाण के 160 वर्ष बाद आचार्य स्थूलभद्र ने पाटलिपुत्र में जैन श्रमण संघ का आयोजन और वहाँ ग्यारह अंगों का संकलन किया गया. बारहवें अंग दृष्टिवाद का स्मरण किसी भी मुनि को नहीं था, इसलिए इसका संकलन नहीं किया गया. शताब्दियों में यह संकलन छिन्न भिन्न हो गया और स्मृति में नहीं रहा, इसलिए निर्वाण 840 वर्ष बाद आर्य स्कंदिल ने मथुरा एक संघ सम्मेलन करवाया, जिसमे आगम साहित्य को एक बार फिर व्यवस्थित करने की कोशिश हुई. इन तीनों वाचनाओं के पाठ अब उपलब्ध नहीं हैं. समय के विस्तार इनकी स्मृति धधुँली हो गयी. निर्वाण के 980 वर्ष बाद फिर गुजरात के वलभी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व उनके उपदेशों को स्मृति के आधार पर अर्धमागधी में 45-46 गंथों संग्रहीत किया गया.
श्रुत और स्मृत की की मौखिक परंपरा मध्यकाल में थी. पारंपरिक रचनाओं को स्मरण रखने और उनक वाचन के लिए इस दौरान पेशेवर जातियाँ बन गयीं थीं, जिनको यजमान शासन या जातियों से प्रश्रय प्राप्त था- ये अपनी आजीविका के लिए इन शासकों या यजमान जातियों पर निर्भर थे. चारण आदि कुछ जातियाँ रासो सहित अन्य प्रशस्तिपरक रचनाओं की पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्मरण रखती थीं और इन्हें इसका औपचारिक-अनौपचारिक प्रशिक्षण भी प्राप्त था. इस दौरान रचनाओं में तथ्यात्मक परिवर्तन तो दूर, उच्चारणगत परिवर्तन को भी अपराध समझा जाता था.
मीरां की रचनाएँ भी ‘हरजस’ के रूप में पश्चिमी राजस्थान के मेघवाल जाति के लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्मरण रखकर गा रहे हैं. मीरां के उपलब्ध पाठों और इन हरजसों में भाषा और उच्चारण संबंधी कुछ मामूली अलगाव के अलावा सभी समानताएँ हैं. देश के सभी इलाकों में इस तरह श्रुत और स्मृत के संरक्षण का दायित्व वहन करनेवाली व्यावसायिक दक्षता प्राप्त जातियाँ मिल जायेंगी.
यदि हमें अपने समाज को जानना-समझना है तो लोक की स्मृति में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. जिसे हम पेशेवर इतिहास कहते हैं उसमें लोक स्मृति की सजग अनदेखी होती है, जबकि इतिहास अंततः स्मृति ही होता है.
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प्रस्तावना में उत्साही आधुनिक भारतीय इतिहासकारों की मानसिकता को आपने उपनिवेशकालीन कहकर यह आरोप लगाया है कि उन्होंने देशज ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोतों की अनदेखी की है. क्या आप मानते हैं कि देश का इतिहास लिखते हुए ऐसे देशज और साहित्यिक स्रोतों को भी छान-बीन किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले ज़रूरी है?
यह बहुत ज़रूरी है. अधिकांश आधुनिक भारतीय इतिहासकारों का नज़रिया शुरू से ही इस प्रकरण पर उपनिवेशकालीन इतिहासकारों के अतिरिक्त उत्साही अनुगामी इतिहासकारों की तरह था. इन इतिहासकारों में से कुछ तो इस सीमा तक उत्साही थे कि वे यूरोपीय इतिहासकारों के बहुत अस्पष्ट और अपुष्ट संकेतों को भी पुष्ट और विस्तृत करने में ऐसे जुटे कि सच्चाई उनसे बहुत पीछे छूट गई और देशज ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोत और उनमें विन्यस्त कतिपय ऐतिहासिक ‘तथ्य’ उनसे अनदेखे रह गए. लगभग सार्वभौमिक बन गई ग्रीक-रोमन ईसाई इतिहास चेतना से, सनातनता और चक्रीय कालबोध पर निर्भर भारतीय इतिहास चेतना कुछ हद तक अलग है, लेकिन उसमें काल का रेखीय बोध भी पर्याप्त है, लेकिन इन ऐतिहासिक कथा-काव्यों का मूल्यांकन इस आधार पर नहीं हुआ. ‘मान्य सत्य’ या विश्वास का भी इतिहास में पर्याप्त महत्त्व होता है.
“इतिहास की चेतना यदि मनुष्य की चेतना की यात्रा और उस पर पड़े प्रभाव का अध्ययन है, तो हमें उन घटनाओं को अधिक महत्त्व देना होगा, जो हमारी चेतना में अभी भी अस्तित्वमान् हैं और इसलिए हमारे कार्यों को अभी भी प्रभावित करती हैं.”
ख़ास बात यह है कि इन रचनाओं को इस निगाह से भी नहीं पढ़ा-समझा गया.
राजस्थान का पहला आधुनिक इतिहास लिखने वाले लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड (1829 ई.) के समय शोध के संसाधन बहुत सीमित थे. उन्होंने उपलब्ध सीमित जानकारियों, साहित्य और जनुश्रुतियों को मिलाकर प्रकरण का जो वृत्तांत एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ राजस्थान में गढ़ा, वो इतिहास, साहित्य और लोक स्मृति का मिला-जुला, लेकिन आधा-अधूरा रूप था. टॉड के बाद इस प्रकरण का हवाला दि ओक्सफ़ोर्ड हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया में पहली बार वी.ए. स्मिथ (1921 ई.) ने दिया. उन्होंने अपनी तरफ़ से इस प्रकरण की खोजबीन नहीं की और न ही वे इसकी तफ़सील में गए. उन्होंने केवल यह लिखा कि यह “टॉड के पन्नों’ में है.” उन्होंने यह नहीं कहा कि यह मिथ्या, मनगढ़ंत या झूठ है, उन्होंने केवल यह लिखा कि यह ‘सोबर हिस्ट्री’ (sober history) नहीं है. कुछ हद उनकी बात सही भी थी. साहित्य और लोक में व्यवहृत इतिहास सही मायने में पूरी तरह इतिहास नहीं होता, लेकिन फिर भी इतना तो तय है कि उसमें इतिहास भी होता है.
वी.ए. स्मिथ की यह टिप्पणी इतिहास के यूरोपीय संस्कारवाले आधुनिक भारतीय इतिहासकारों के लिए आदर्श और मार्गदर्शक सिद्ध हुई. आरंभ में गौरीशंकर ओझा (1928 ई.) और किशोरीसरन लाल (1950 ई.) ने इस प्रकरण की ऐतिहासिकता पर संदेह व्यक्त किया. बाद में कालिकारंजन कानूनगो (1960 ई.) तो अति उत्साह में इस प्रकरण को सर्वथा मिथ्या और ग़लत सिद्ध करने में प्राणपण से जुट गए. उन्होंने दो तर्क दिए- एक तो समकालीन इस्लामी स्रोतों में इस प्रकरण का उल्लेख नहीं मिलता और दूसरा, कुछ वंश अभिलेखों में रत्नसिंह का नाम ही नहीं है. कुछ हद तक उनकी दोनों बातें सही थीं, लेकिन वे इसके कारणों में नहीं गए. उन्होंने हड़बड़ी में यह निष्कर्ष निकाल लिया कि यह प्रकरण मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा कल्पित है और इसका इतिहास से कोई लेना-देना नहीं है. उन्होंने आर.सी. मजूमदार के हवाले से यह कहने में भी देर नहीं की कि जायसी का चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ नहीं है, यह कहीं इलाहाबाद के समीप स्थित चित्रकूट है.
उनकी देखा-देखी इस प्रकरण को मिथ्या सिद्ध करने वालों की भीड़ लग गई. बाद में फ़िल्म ‘पद्मावत’ पर हुए विवाद के दौरान हरबंश मुखिया, हरफ़ान हबीब आदि भी इस मुहिम शामिल हो गए. उनकी राय में यह प्रकरण जायसी (पद्मावत, 1540 ई.) द्वारा कल्पित, इसलिए अनैतिहासिक है. ये अधिकांश इसकी पुष्टि इस तर्क से करते हैं कि समकालीन इस्लामी स्रोतों- अमीर ख़ुसरो कृत ख़जाइन-उल-फ़ुतूह (1311-12 ई.) और दिबलरानी तथा ख़िज़्र ख़ाँ (1318-19 ई.), ज़ियाउद्दीन बरनी कृत तारीख़-ए-फ़िरोजशाही (1357 ई.) तथा अब्दुल मलिक एसामी कृत फ़ुतूह-उस-सलातीन (1350 ई.) में इसका उल्लेख नहीं है. इनके अनुसार जायसी ने इसकी कल्पना की और यहीं से यह परवर्ती और देशज चारण और जैन कथा-काव्यों में पहुँचा. इस मुहिम में शामिल ये विद्वान् इस तथ्य की अनदेखी ही कर गए कि “चुप्पी से बहसियाना तार्किक रूप से भ्रामक होता है और केवल चुप्पी के आधार पर की गई कोई भी परिकल्पना किसी दिन ग़लत भी साबित हो सकती है.”
यही हुआ, बाद में यह धारणा ग़लत सिद्ध हो गई. पद्मावत (1540 ई.) से पहले छिताईचरित्र (1475-1480 ई.) में पद्मिनी-रत्नसेन का कथा बीजक मिल गया. इसी तरह पद्मावत को बिना पढ़े-समझे उसके कथानक को उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद से जोड़ने का कानूनगो का उद्यम भी असफल हो गया. दरअसल पद्मावत में अलाउद्दीन के अभियान में मार्गस्थ क़स्बों- मांडलगढ़ आदि और चित्तौड़ के दुर्ग और उसके समीस्थ स्थानों के भूगोल का वर्णन मिलता है, जो यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि पद्मावत में वर्णित चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ ही है.बाद में मुनि जिनविजय, दशरथ शर्मा आदि क्षेत्रीय इतिहासकारों ने रत्नसिंह की प्रामाणिकता भी सिद्ध कर दी. उससे संबंधित एकाधिक पुरातात्त्विक साक्ष्य भी मिल गए.यही नहीं, कतिपय समकालीन स्रोतों के आधार पर अगरचंद नाहटा ने राघवचेतन की ऐतिहासिकता भी प्रमाणित कर दी.
कालिकारंजन कानूनगो की स्थापनाओं में से अधिकांश प्रमाण सहित बहुत पहले ही ग़लत साबित हो गईं, लेकिन यह साबित करने वाले इतिहासकारों की सीमा यह थी कि ये ‘क्षेत्रीय’ कहे-माने जाते थे. ख़ास बात यह थी कि इनकी मौजूदगी अपने अनुशासन में वर्चस्वकारी नहीं थी, इसलिए इनकी आवाज़ नगाड़ों के शोर में तूती की तरह दब गई और लोग उन्हीं पुरानी ग़लत धारणाओं को दोहराते रहे.
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वैसे मेरा भी यही सोचना है कि ऐसे स्रोतों का उपयोग इतिहासकारों को करना चाहिए. इसका एक बड़ा कारण यह है कि यहाँ आख्यानक काव्यों की जो परम्परा रही है, उनके मूल में ढेर सारे ऐतिहासिक तथ्य और चरित्र रहे हैं. वे कभी भी कोरे कल्पित ‘काव्य’ नहीं माने गए. महाकाव्यों और नाटकों के लक्षणों को गिनाते हुए यह तो स्पष्टतः कहा गया है कि इनका नायक प्रख्यात राजवंशीय होना चाहिए. बाणभट्ट का हर्षचरित्र तो ऐसा ही काव्य है. राजतरंगिणी भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है. अपने शील और कल के गौरव की रक्षा के लिए सहर्ष अग्नि स्नान करने वाली पद्मिनी अगर इतिहासकारों के लिए नहीं भी सच हो, तब भी तो वह देशज ऐतिहासिक काव्यों में निरंतर स्मरणीय रही. आप भी कहना तो यही चाहते हैं शायद?
पद्मिनी की मौजूदगी देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों में सोलहवीं से लगाकर अठारहवीं सदी तक निरतर है. ज़ाहिर है, इतने समय तक लोक की स्मृति रहने वाला यह चरित्र कल्पित तो नहीं है. अज्ञात कविकृत गोरा-बादल कवित्त (1588 ई. से पूर्व), हेमरतनकृत गोरा-बादल पदमिणी चउपई (1588 ई.), अज्ञात कवि कृत पद्मिनीसमिओ (1616 ई.), जटमल नाहर कृत गोरा-बादल कथा (1623 ई.), लब्धोदय कृत पद्मिनी चरित्र चौपई (1649 ई.), दयालदास कृत राणारासो (1668-1681 ई), दलपति विजय कृत खुम्माणरासो (1715-1733 ई.) और अज्ञात रचनाकार कृत चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा (प्रतिलिपि, 1870 ई.) इस परंपरा की अब तक उपलब्ध रचनाएँ हैं. अपनी प्रकृति और चरित्र में ये रचनाएँ कुछ हद तक अलग हैं- ये सभी एक ही कथा बीजक पर आधारित हैं, लेकिन इनका पाठ किसी एक ही अर्थ में सीमित या ठहरा हुआ नहीं है. इनके रचनाकार इनको भिन्न अर्थ और मोड़-पड़ाव में पल्लवित करने के लिए स्वतंत्र हैं.
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लोक स्मृति और इतिहास में पद्मिनी को लेकर अगर इतना दृष्टिगत अंतर है, तो क्या हमें अपनी लोकस्मृति को तिलांजलि दे देनी चाहिए ?
दृष्टिगत अंतर सांस्कृतिक बोध के कारण है. इतिहास, जो हमारे यहाँ प्रचलन में हिस्ट्री का पर्याय है, का विकास यूरोप में हुआ. उसमें दस्तावेज़ का प्राथमिक स्रोत माना गया है, जबकि हमारी परंपरा में स्मृति को ज़रूरत के हिसाब से जीवंत रखने की परंपरा है. समय का बोध हमार अलग है- यह केवल एकरैखिक या ऐतिहासिक होने के साथ चक्राकारीय भी है. लोक की स्मृति को तिलांजलि देने का मतलब अपने सांस्कृतिक बोध से ही कट जाना है. अपने सांस्कृतिक और भाषा से कटकर कोई विद्वान् भारतीय समाज और उसके इतिहास को जानने-समझने का दावा करता है, तो इस पर संदेह की गुंजाइश तो साफ़-साफ बनती है. मूल्य व्यवस्था का जन्म ही सांस्कृतिक बोध के खाद-पानी में होता होता है. मध्यकालीन सांस्कृतिक बोध बहुत अलग तरह का है. पश्चिमी ज्ञान मीमांसा भारतीय मध्यकालीन समाज, संस्कृति और साहित्य से अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में यूरोप में विकसित मूल्यों की अपेक्षा रखती है, जो किसी भी तरह से युक्तिसंगत नहीं है.
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जिन देशज लोककाव्यों का आपने विस्तार से उल्लेख किया है क्या उनका भी अपना कोई शास्त्र है? उनके अपने रचना प्रतिमान क्या हैं? आपने प्रस्तावना में जिस कथा-बीजक छिताई चरित्र (1475-1480 ई.) को खुद पद्मावत के कवि जायसी के लिए आधार और स्रोत कहना चाहा है, क्या इस कहने से आप संतुष्ट हैं ?
पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण को आधार बनाकर देश भाषाओं में लिखे गए कथा-काव्यों में से जायसी की पद्मावत को छोड़कर शेष सभी कथा-काव्य ऐतिहासिक कथा-काव्य की प्राचीन भारतीय परंपरा का स्वाभाविक और देशज विकास हैं. केवल जायसी का पद्मावत इनसे अलग है- यह भारतीय और फ़ारसी, दोनों परंपराओं के काव्यरूप से अलग काव्यरूप में है, जिसमें अंशतः फ़ारसी, अंशतः संस्कृत और अंशतः क्षेत्रीय परंपराओं के तत्त्व सम्मिलित हैं.
पद्मावत का कथा बीज भी वही है जो देशज ऐतिहासिक कथा-काव्यों का है. देशज ऐतिहासिक कथा-काव्य पद्मावत पर निर्भर या उससे प्रभावित नहीं है. संस्कृत के समानांतर, प्राकृत-अपभ्रंश और देश भाषाओं में भी ऐतिहासिक कथा-काव्य की निरन्तर परम्परा मिलती है. संस्कृत के साथ प्राकृत और अपभ्रंश में काव्य रचना बहुत पहले शुरू हो गई थी और इसको दरबारों और लोक में भी मान्यता भी मिलने लग गई थी. प्राकृत के शिलालेख तो अशोक समय से ही मिलने लगते हैं, जिसका समय 274 से 232 ई. पू. है. प्राकृत में विमलसूरि कृत पउमचरियम् की रचना 300-400 ई. में हुई. अपभ्रंश का सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख कालिदास के विक्रमोर्वशीय में मिलता है, लेकिन उससे पहले भरत के नाट्यशास्त्र में भरत मुनि ने ‘देशभाषा’ शब्द प्रयुक्त करते हुए इन भाषाओं के प्रयोग के संबंध में बताया है.
वे लिखते है कि अतः ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि देशभाषाविकल्पनम्. भाषाचतुर्विधा ज्ञेया दशरूपेः प्रयोगतः॥ अर्थात् अब मैं आगे देशभाषा के प्रयोगों के संबंध में आपको बताऊँगा. दशरूपों के प्रयोगों में चार प्रकार की भाषा का प्रयोग हुआ है. हेमचंद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण सिद्धहेमशब्दानुशासन के चतुर्थ पाद के 448 सूत्रों में शौरसेनी, मागधी, पैशाची चूलिका, पैशाची और अपभ्रंश प्राकृतों के नमूने दिए हैं. इस पाद में सबसे अधिक (सूत्र 329 से 448 तक) नमूने अपभ्रंश के हैं, जिससे लगता है कि उस समय इसका साहित्य बहुत विस्तृत और उन्नत कोटि का था.
राजशेखर की काव्यमीमांसा में राज दरबार की आदर्श व्यवस्था के विस्तृत प्रावधानों में संस्कृत कवि, ज्योतिषी और नर्तक सहित अन्य दरबारियों के साथ अपभ्रंश के कवि के बैठने के स्थान का भी प्रावधान है. संस्कृत के उत्साही समर्थक राजा भोज के सरस्वतीकंठाभरण में भी संस्कृत के साथ प्राकृत और अपभ्रंश की कविताएँ उद्धृत की गई हैं. प्राकृतपैंगलम् के अनुसार जयचंद के दरबार के विद्वान् मंत्री गण भी देश भाषा में रचनाएँ करते थे और ये राजप्रशस्तिमूलक थीं, इसलिए ज़ाहिर है, जयचंद इनका सम्मान भी करते थे. गौड़ (बंगाल) देश के पाल, गुजरात के सोलंकी और मालवा के परमारों ने देश भाषाओं को ख़ूब प्रोत्साहन दिया. संस्कृत अब भी चलन में थी, इसका मान-सम्मान था, इसमें काव्य रचना प्रतिष्ठा का विषय भी था, लेकिन यह सही है कि धीरे-धीरे लोक में इसका व्यवहार सीमित रह गया था. संस्कृत-प्राकृत की कविताएँ लोक भाषाओं के माध्यम से समझायी जाती थीं और इस तरह इनका मूल कुछ बाधा के साथ सामंतों तक पहुँचता था, पर अपभ्रंश की कविता सीधे असर करती थी. ऐसे राजा या सामंत भी कम रह गए थे, जो संस्कृत अच्छी तरह समझते हों. नतीजा यह हुआ कि अपभ्रंश की कविता को राजकीय मान्यता मिल गई.
हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो
“नाना कारणों से इस काल में अपभ्रंशी कवियों को सम्मान राज दरबार में भी होता था और राजा लोग इन कवियों को अपने दरबार में रखना उतना ही आवश्यक समझते थे, जितना संस्कृत भाषा के कवियों को और पंडितों को. इतना ही नहीं, अधिकांश राजा इनसे विशेष अनुराग भी प्रगट करने लगे थे.”
दसवीं-ग्यारहवीं सदी में उत्तिवसेसोकव्वं भाषा जा होइ सो होउ अर्थात् भाषा जो हो सो हो, कविता तो कथन विशेष का नाम है, यह धारणा बद्धमूल हो गई. आगे चलकर विद्यापति के समय (1350-1450 ई.) तक तो इस संबंध में स्थिति और साफ़ हो गई. उन्होंने कीर्तिलता में खुलकर कहा कि सक्कय वाणी वहुअ ण भावइ, पाउअ रस को मम्म न पावइ. देसिल वयणा सब जन मिट्ठा, तैं तैसन जंपउ अव्हट्ठा॥ अर्थात् संस्कृत भाषा बहुतों को रुचिकर नहीं लगती, प्राकृत का काव्य रस भी सुगमता से नहीं मिलता. देश्य भाषा की उक्ति सब लोगों को मीठी लगती है, इसीलिए मैं देशी बोली अवहट्ठ में रचना करता हूँ.
आख्यान, आख्यायिका, वंश, वंशानुचरित, चरित, इतिवृत्त आदि ऐतिहासिक कथा-काव्य रूप भी देश भाषाओं में चरित, रासो, ख्यात, वंशावली, पाटनामा, बही आदि में ढलने लग गए थे. इतिहास-पुराण के रूप में जो सार्वभौमिक इतिहास लेखन की परंपरा बनी, वह अब कमज़ोर हो गई. उसकी जगह अब देश भाषाओं में क्षेत्रीय इतिहास रूप लेने लग गए. यह प्रक्रिया भी बहुत पहले शुरू हो गई थी.
गुणाढ़्य (कंबोडिया के 875 ई. के अभिलेख के अनुसार 600 ई.) की छठी सदी की प्राकृत रचना बृहत्कथा (बड्ढकथा) में कई राजाओं के ऐतिहासिक या अर्ध ऐतिहासिक आख्यान मिलते हैं. इसी तरह वाक्पतिराज की आठवीं सदी की रचना गउडवहो (गौड़ वध) में ऐतिहासिक व्यक्तित्व यशोवर्मन की कथा है. इसी तरह हेमचंद्र ने बारहवीं सदी में द्व्याश्रय नामक ऐतिहासिक काव्य लिखा, जो संस्कृत और प्राकृत, दोनों में है और इसमें गुर्जर प्रदेश के चालुक्य वंश के संस्थापक मूलराज (942 ई.) से लगाकर सिंधुराज तक का वृत्तांत ह आभीर, गुर्जर और राजपूत समझी जाने वाली जातियों ने भी इसी दौरान अपने राज्य कायम किए. यद्यपि ये जातियाँ अपनी श्रेष्ठता के लिए संस्कृत का सम्मान करती थीं, लेकिन उनको अपभ्रंश और देश भाषाओं की स्तुतियाँ ही अच्छी तरह समझ में आती थीं, इसलिए भी अपभ्रंश के राजस्तुतिपरक साहित्य को मान्यता मिल गई.
संस्कृत की परम्परा पूर्ववत जारी रही. क्षेत्रीय शासकों ने इसको प्रश्रय दिया. इस दौरान इसको आगे बढ़ाने में जैन आचार्यों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है. इन आचार्यों ने अपने प्रभाववाले शासकों को धर्म और नीति के उपदेश देने के लिए प्रबंध और वंशानुचरित लिखे. ये प्रबंध प्राचीन परम्परा के अनुरूप थे और इनमें ऐतिहासिकता का आग्रह भी ख़ूब था. जैन आचार्य मेरुतुंगाचार्य की प्रबंधचिंतामणि 1304 ई. में पूर्ण हुई, जो मूलतः कुछ ऐतिहासिक प्रबन्धों का संकलन है. मेरुतुंगाचार्य का आग्रह धर्म और पौराणिकता की जगह ऐतिहासिकता पर अधिक था. इस परम्परा में राजशेखर सूरि का प्रबंधकोश (1348 ई.) भी महत्त्वपूर्ण है, जिसमें 24 प्रबंध संकलित हैं. ख़ास बात यह है कि ये दोनों रचनाएँ चौदहवीं सदी के पूर्वार्ध में हुईं, लेकिन इनमें संकलित प्रबन्धों की रचना का समय इससे पूर्व का है. बाद में मुनि जिनविजय को पाटन, भावनगर, पूना, अहमदाबाद, राजकोट आदि स्थानों पर प्रबंधचिंतामणि से संबद्ध या इससे समानता रखने वाले ऐसे अनेक प्रबंध और मिल गए, जिनको उन्होंने पुरातनप्रबंधसंग्रह के नाम से प्रकाशित करवाया. इन संकलनों में जैनाचार्य, संस्कृत कवि-पंडित और शासकों के वृत्तांत हैं. संस्कृत में वंश और तत्संबंधी प्रबंध रचनाएँ उत्तर मध्यकाल में भी हुईं. क्षेत्रीय शासकों ने वाराणसी और दक्षिण भारत से अपने यहाँ इस निमित्त ब्राह्मणों को वृत्ति देकर निमंत्रित किया. सत्रहवीं सदी में मेवाड़ (राजस्थान) के शासक राजसिंह (1629-1680 ई.) के शासनकाल में रणछोड़ भट्ट ने राजप्रशस्तिमहाकाव्यम् और सदाशिव ने राजरत्नाकरमहाकाव्यम् की रचना की. दोनों रचनाएँ वंश या इतिवृत्त रचनाएँ हैं, लेकिन इतिहास-पुराण से प्रेरित हैं. इनका पूर्वार्ध पुराण से प्रेरित है, लेकिन बाद में यह कम होता गया है. ये दोनों रचनाकार वाराणसी से संबंधित थे.
पश्चिम से विदेशी आक्रमण, केंद्रीय शासन के समाप्ति, क्षेत्रीय शासकों का उदय और राज दरबारों में प्राकृत-अपभ्रंश सहित देश भाषाओं की बढ़ती लोकप्रियता से देश भाषाओं में ऐतिहासिक कथा-काव्यों की प्रवृत्ति को स्वीकृति और मान्यता मिली और इसका विस्तार भी हुआ. युद्ध की संस्कृति का विकास हुआ और वीरता, शौर्य और पराक्रम शासक जातियों के जीवन मूल्यों का ज़रूरी हिस्सा हो गए. युद्ध करने वाली जातियाँ अपनी स्तुति और सराहना सुनना चाहती थी और निरंतर युद्ध के लिए प्रोत्साहित करना चारण जाति के लिए नियत कर्म हो गया था. उनका काम था ‘युद्धोन्माद उत्पन्न कर देने वाली घटना योजना का आविष्कार.’
गुजरात सहित लगभग पूरे उत्तरी-पश्चिमी भारत इस नयी ज़रूरत से चरित, रासो, ख्यात, पाटनामा, बही आदि साहित्य रूप अस्तित्व में आए. ये सभी रूप वैदिककाल से प्रचलित ऐतिहासिक कथा-काव्य रूपों के स्वाभाविक देशज रूपांतरण थे. शासकों की जीवन से सम्बन्धित प्रबंध, इतिवृत्त, चरित, वंशानुचरित की परंपरा चरित के रूप में जारी रही. विश्वंभर शरण पाठक के अनुसार वैदिक आख्यानों को चरित का पूर्व रूप कहा जा सकता है. गिरिजाशंकर मिश्र के अनुसार वे चरित जो राजकीय अभिलेखों और प्रशस्तियों के आधार पर लिखे गए इतिवृत्त की श्रेणी में आते हैं.
आरंभ में प्राकृत-अपभ्रंश में चरित का अपभ्रंश रूप चरिउ चलन में आया, जो देश भाषाओं में भी जारी रहा. कालांतर में जब देश भाषाओं में तत्सम शब्दों की वापसी हुई, तो कहीं-कही यह फिर ‘चरित’ के रूप में प्रयुक्त होने लगा. रासो भी एक प्रकार की चरित रचना ही थी, लेकिन आगे चलकर यह एक स्वायत्त अनुशासन के रूप में विकसित हो गया. चरित के लिए विलास (राजविलास और अभैविलास), रूपक (गोगादेरूपक और रावरिणमलरूपक) और प्रकाश (जयचंदप्रकाश, छत्रप्रकाश और पाबूप्रकाश) शब्द भी चलन में आए. इन शब्दों के प्रयोग के पीछे इनके स्वरूप को लेकर इनके रचनाकारों की अलग मंशा ज़रूर रही होगी, लेकिन ये सभी आश्रयदाता शासकों के जीवन पर आधारित थे, इसलिए हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इनको चरित्र के व्यापक दायरे में शामिल किया है. इनमें से कुछ साहित्यिक रचनाएँ थीं, जैसे भवभूति का महावीरचरित और उत्तररामचरित तथा भास का बालचरित, लेकिन ये रचनाएँ अपने समय में प्रचलित ऐतिहासिक वृत्तांतों को भी आगे बढ़ाती हैं.
धार्मिक चरित्रों पर आधारित चरित रचनाएँ, जैसे रामचरितमानस भी कई हुईं. चरित रचनाएँ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में हुईं- पद्मगुप्त की रचना नवसाहसांकचरित में मालवा के सिंधुराज का इतिहास दिया गया है. बंगाल के पाल शासक रामपाल का जीवन चरित संध्याकरनंदिन् ने रामचरित नाम से लिखा. जैन यतियों-मुनियों ने पउमचरिउ, सणंकुमार चरिउ आदि कई चरित लिखे. रासो प्राचीन और मध्यकाल का प्रमुख ऐतिहासिक साहित्य रूप था और इसकी परम्परा बहुत प्राचीन है.
रास और रासक का प्रयोग बहुत प्राचीनकाल से होता आया है. रास या रासक का अर्थ ‘लास्य’ से लिया गया है, जो नृत्य का एक भेद है. इस व्युत्पत्ति के आधार पर आरंभ में गीत-नृत्यपरक रचनाएँ रास नाम से जानी जाती थीं. श्रीमद्भागवत और हेमचंद्र के काव्यानुशासन आदि में इसका उल्लेख मिलता है ऐतिहासिक आख्यान के रूप में इसका रूपांतरण शायद चौदहवीं और पंद्रहवीं सदी में हुआ.
‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वान् एक राय नहीं हैं. हरप्रसाद शास्त्री रासो का अर्थ झगड़ा या लंबा विवाद करते हैं, जबकि काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार ‘रहस्य’ पद का प्राकृत रूप ‘रहस्सो’ बना है, जिसका कालान्तर में उच्चारण भेद से बिगड़ता हुआ रूपांतर ‘रासो’ बन गया है. राजस्थानी के विद्वान् हीरालाल माहेश्वरी के अनुसार ‘रासक’ के तीन तत्त्वों- नृत्य, गीत, काव्य से आगे चलकर रासो का विकास हुआ.
रामचन्द्र शुक्ल रासो की व्युत्पत्ति ‘रसायण’ से मानते हैं. वीसलदेवरासो में ‘रास’ और ‘रसायण’ शब्द का प्रयोग काव्य के लिए हुआ है. उन्होंने बीसलदेवरास की एक पंक्ति को आधार बनाया है. यह पंक्ति इस तरह है- बारह सौ बहत्तरा मझरि, जेठ बधी नवमी बुधवारि, नालह रसायण आरंभई, शारदा तूठी, ब्रह्मकुमारि.
हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार संदेशरासक के मिलने बाद ये सब अटकलें हैं. उन्होंने इनका समाहार करते हुए लिखा है कि
“रासक वस्तुतः एक प्रकार का खेल या मनोरंजन है. रास में भी वही भाव है.”
आरम्भ में नृत्य के साथ गाई जाने वाली प्रबंध रचना को रास कहा जाता होगा, लेकिन कालांतर में रासो में इसका रूपांतरण हुआ, जो वंश और आख्यान का मिला-जुला रूप था. आगे चलकर रास प्रेमकथाओं से सम्बन्धित प्रबंध, जबकि रासो वीर प्रबंध काव्यों के लिए रूढ़ हो गया. रासो वंशानुचरित या वंशावली का बदला हुआ रूप था. राजस्थान में रासो और रास काव्य की परंपरा डिंगल-पिंगल, दोनों में मध्ययुग से आरंभ होकर आधुनिककाल तक रही है.
पृथ्वीराजरासो, हम्मीररासो, खुम्माणरासो, राणारासो आदि कई रचनाओं की ऐतिहासिकता पर आधुनिककाल में विचार हुआ और इतिहास की आधुनिक कसौटियों पर खरा नहीं उतरने के कारण इन्हें ख़ारिज कर दिया गया. दरअसल भारतीय परम्परा के अनुसार की इन रचनाओं में इतिहास और साहित्य, दोनों हैं. साहित्यिक वर्णन की रूढ़ियाँ भी इनमें पर्याप्त हैं. रासो रचनाएँ वंशानुचरित थीं- इसलिए इनमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी नए शासकों के वृत्तांत जुड़ते रहे. परम्परा की समझ के अभाव में इनको प्रक्षिप्त मानकर कुछ लोगों ने इनको जाली मान लिया. आख्यान-आख्यायिका का उत्तर मध्यकाल में राजस्थान में नया रूप ख्यात बना. यह कमोबेश एक ऐतिहासिक रचनारूप था. इसमें वंश और आख्यान दोनों थे- इसमें शासक के साथ उसके शासनकाल की प्रसिद्ध घटनाओं का वृत्तांत भी दिया जाता था. ख्यात का नामकरण उसके विषय के साथ कभी-कभी इसके लेखक के आधार पर भी होता है. ख्यात कमोबेश इतिहास है- इसको डिंगल में लिखी इतिहास की ‘किताब’ कहा गया है. ख्यात शब्द मूलतः संस्कृत का शब्द है. ‘ख्या’ धातु में ‘क्त’ प्रत्यय जुड़ने से ‘ख्यात’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है ‘भूतकाल की घटनाओं का वर्णन’ या ‘भूतकाल को ज्ञात करना’. ख्यातकारों ने ख्यात शब्द का प्रयोग इतिहास के रूप में ही किया था और इसका विकास भी एक इतिहास रूप में ही हुआ. इसकी परंपरा दूसरे रूप में पहले भी रही होगी, लेकिन अकबर (1556 से 1605 ई.) के शासनकाल में अबुल फ़ज़ल द्वारा देशी राज्यों से संबंधित जानकारियों की अपेक्षा करने से इनके लेखन में गति आई. ख्यात वंशावली, पीढ़ियावली और आख्यान का मिलाजुला रूप है, जिसमें किसी शासक के जन्म, उत्तराधिकार, विवाह, संतान, शासनकाल, युद्ध, मृत्यु आदि की तिथियों और उसके समय की प्रसिद्ध घटनाओं का वर्णन होता है.
इटली के प्रसिद्ध भारतविद् विद्वान् एल.पी. तेस्सीतोरी ने सबसे पहले कई ख्यातों को उजागर किया. तेस्सीतोरी का ख्यातों का आरंभिक सर्वेक्षण न सिर्फ़ राजस्थानी भाषा के स्वरूप निर्धारण में उपयोगी सिद्ध हुआ, बल्कि यह नयी ऐतिहासिक सामग्री भी प्रस्तुत करने वाला भी था. इसकी भूमिका में तेस्सीतोरी ने लिखा कि
“वर्णनात्मक सूची के इस खंड का महत्त्व इस तथ्य से बढ़ गया कि इसमें वर्णित कार्य राजपुताना के मध्यकालीन इतिहास के संबंध में उपलब्ध जानकारी का सबसे समृद्ध स्रोत है. इस सूची का महत्त्व इस अर्थ में भी है कि अभी तक बिखरी हुई और उपेक्षित इस सामगी को एकत्र और वर्गीकृत किया जाए, जिससे इसकी पहचान और संदर्भ को आसान बनाया जा सके.”
पहली ख्यात 1660 ई. में लिखी गई मुँहता नैणसीरी ख्यात की है, जो उपलब्ध ख्यातों में सबसे अधिक विश्वसनीय और प्रामाणिक मानी जाती है. परवर्ती अधिकांश ख्यातकारों ने इससे मदद ली है. नैणसी जोधपुर राज्य में दीवान था और सांख्यिकीविद् भी था. उसकी दूसरी रचना मारवाड़रा परगनारी विगत एक प्रकार का गज़ेटियर है. ख्यात लेखक फ़ारसी वृत्तांतकारों और कुछ आधुनिक इतिहासकारों की तुलना में अधिक निष्पक्ष और ईमानदार थे. मुँहता नैणसीरी ख्यात की ख़ास बात यह कि उसमें दी गई सूचनाओं के स्रोत का भी उल्लेख है और किसी प्रकरण में यदि सूचना के एकाधिक स्रोत हैं और ये अंतर्विरोधपूर्ण हैं, तो उसमें उन सभी का उल्लेख है. ख्यात रचनाएँ अपने चरित्र में ग़ैर धार्मिक भी हैं- इनमें कुछ आधुनिक इतिहासकारों की तरह राजपूत–मुस्लिम संघर्ष ‘धार्मिक’ या ‘राष्ट्रीय’ की तरह वर्णित नहीं है.
फ़ारसी वृत्तांतकारों के अनुसार तुर्क और मुग़लों की राजपूत शासकों पर विजय इस्लाम की विजय है, जबकि ख्यातकारों ने इसे केवल मुग़लों या तुर्कों की विजय बताया है. इसी तरह फ़ारसी वृत्तांतकार और कुछ आधुनिक इतिहासकार राजपूत शासकों द्वारा गुजरात, मांडू और दिल्ली के सुलतानों के साथ अपनी बेटियों के विवाह के संबंध में मौन हैं, जबकि ख्यातकारों ने यह उल्लेख बिना किसी संकोच और अपराध बोध के किया है. मुँहता नैणसीरी ख्यात, जोधपुर राज्यरी ख्यात, उदयभाण चांपावतरी ख्यात, मुन्दियाड़री ख्यात, बाँकीदासरी ख्यात, दयालदासरी ख्यात, मारवाड़री ख्यात, जैसलमेररी ख्यात, जसवंतसिंघरी ख्यात आदि कुछ प्रमुख ख्यातें हैं.
यह धारणा निराधार है कि ख्यात रचनाएँ राज्याश्रय में ही चारणों द्वारा लिखी गईं. ख्यातें व्यक्तिगत रुचि से और राज्याश्रय, दोनों में चारणों के अलावा ब्राह्मण, भंडारी, पंचोली और पुरोहित जातियों के लोगों द्वारा भी लिखी गईं. पाटनामा वंश और ख्यात का मिला-जुला और इनसे ही विकसित रूप है. पाटनामा पाटवी मतलब ज्येष्ठ, बड़ा ग्रन्थ था. इसमें शासकों और उनके समय की प्रसिद्ध घटनाओं का वृत्तांत दिया गया है. इसमें गद्य-पद्य, दोनों हैं. चारण या भाट बही लेकर शासक या यजमान के घर जाता था और उसमें विवरण दर्ज़ कर घर लाता और इसको पाटनामा, मतलब ज्येष्ठ ग्रन्थ में दर्ज़ करता था. पाटनामा कम मिलते हैं, बहियाँ ही अधिक मिलती हैं.
मेवाड़ के शासकों की वंशावली और प्रमुख घटनाएँ चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा में संकलित हैं. बही का विकास मुग़ल इतिहास लेखन की परंपरा के प्रभाव में उत्तर मध्यकाल में हुआ और धीरे-धीरे वंश और ख्यात की कुछ विशेषताएँ इसमें सम्मिलित कर ली गईं. बहियों में उत्तर मध्यकालीन कुछ क्षेत्रीय शासकों के दैनंदिन जीवन का विवरण भी दर्ज़ किया जाता था.
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हम यह जानते हैं कि आपका संबंध इतिहास से नहीं है, और न आप वैसा कोई दावा ही कर रहे हैं, फिर भी इतिहास द्वारा अस्वीकार किए जा चुके एक ऐसे चरित्र की खोज और स्थापना में लगे हैं, जो इतिहास, मिथ और लोकस्मृति के बीच कभी प्रश्न, कभी विश्वास तो कभी जातीय अस्मिता का गौरव गान बनकर उपस्थित है.
क्या आपकी इस कोशिश में कहीं यह भाव छिपा हुआ है कि इतिहास लेखकों को एक-न-एक दिन यह तथ्य स्वीकारना होगा कि लोकस्मृति का सत्य भी इतिहास का ही हिस्सा होता है?
आपके इस कथन के जवाब में मुझे कवि वर दिनकर को बहुचर्चित बहुख्यात कृति संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका में लिखित ये पंक्तियाँ बहुत काम की लगती हैं. वे लिखिते हैं-
“अनुसंधानी विद्वान सत्य को तर्क से पकड़ता है और समझता है कि सत्य सचमुच उसकी गिरफ़्त में है. मगर इतिहास का सत्य क्या है? घटनाएँ मरने के साथ फ़ोसिल बनने लगती हैं, पत्थर बनने लगती हैं, दन्तकथा और पुराण बनने लगती हैं. बीती घटनाओं पर इतिहास अपनी झिलमिली डाल देता है, जिससे वे साफ़-साफ़ दिखाई न पड़े, जिससे बुद्धि की उँगली उन्हें छूने से दूर रहे.”
पद्मिनी के चरित्र के साथ भी मेरी दृष्टि में बहुत कुछ ऐसा ही हुआ है. यही मेरी बेचैनी का कारण है और इसीलिए मैं उन देशज स्रोतों और लोकवृत्तों-लोकगाथाओं के पाठ की दिशा में निकल पड़ा, जिनमें पद्मिनी मौजूद है.
माना कि यह वह इतिहास नहीं है, पेशेवर इतिहासकार जिसका दावा करते हैं फिर भी कपोल- कल्पित नहीं है. मेरा सवाल यह कि इतने सारे देशज लोककाव्य क्यों ‘पद्मिनी‘ नामधारी चरित्र को लेकर व्यस्त हैं? क्यों स्वयं मलिक मोहम्मद जायसी सौ डेढ़ सौ साल बाद ही ‘पद्मिनी‘ को अपने महाकाव्य के केद्रीय चरित्र के रूप में प्रस्तुत करते हुए उसके रूपाकर्षण में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के आकर्षण का प्रसंग उठाते हैं? क्यों उन्होंने कोई स्वतंत्र चरित्र नहीं चुना? पद्मिनी को ही क्यों चुना. इसलिए आपकी चिंता और इस संबंध में किया गया उद्यम मुझे बेहद ज़रूरी लगता हे. मैं दिनकर जी की इस सोच से सहमत हूँ कि ‘‘सांस्कृतिक इतिहास लिखने के मेरे जानते दो ही मार्ग हैं. या तो उन्हीं बातों तक महदूद रहो, जो बीसों बार कही जा चुकी है और इस प्रकार ख़ुद भी बोर होओ और दूसरों को भी बोर करो; अथवा आगामी सत्यों का पूर्वाभास दो और उनकी खुलकर घोषणा करो और समाज में नीमहकीम कहलाओ. मूर्ख और अधपगले की उपाधि प्राप्त करो.” मैं उनके इस कथन से भी सहमत हूँ कि संस्कृति का इतिहास शौकिया शैली में ही लिखा जा सकता है.
मैं जानता हूँ ख्यात इतिहासकारों की दृष्टि में आप नीमहकीम भी कहे जा सकते हैं पर आपके द्वारा शोधित सत्य लोक का अपना सत्य बनकर उसे शक्ति देता रहेगा ऐसा मेरा विश्वास है.
आप सही कह रहे हैं. ‘इतिहास’ का जैसा संस्कार और प्रशिक्षण हमारे यहाँ है, उसमें अपने ‘नीमहकीम’ कहे-माने जाने की पूरी संभावना है. यह जानते हुए भी यह कार्य शुरु किया था. हमारा इतिहास बोध ही यूरोप से अलग और ख़ास है. यूरोपीय इतिहासकारों को अपने ग्रीक और रोमन पूर्वजों के स्मृति के रख-रखाव की पद्धति और ढंग पर बहुत गर्व है. मार्क ब्लाख़ ने लिखा है कि
“औरों से भिन्न हमारी सभ्यता अपनी स्मृतियों के प्रति बेहद सतर्क रही है. हर चीज़ ने उसका झुकाव इसी दिशा में किया: ईसाई और शास्त्रीय विरासत दोनों ने. हमारे शुरुआती उस्ताद, ग्रीक-रोमन लोग, इतिहास लिखने वाले लोग थे.”
इतिहास की यही पद्धति बाद में सार्वभौमिक आदर्श और मानक बन गई. मार्क ब्लाख़ ने साफ़ लिखा कि
“ईसाइयत तो इतिहासकारों का धर्म है.”
अपने साम्राज्य के अधीन होने कारण विश्व के कई देश-समाजों का आरंभिक इतिहास यूरोपीय इतिहासकारों ने इसी पद्धति के आधार पर लिखा. विडंबना यह है कि आरंभिक अधिकांश उत्साही ‘आधुनिक’ भारतीय विद्वान् भी यही आदर्श और मानक लेकर अपनी विरासत की पहचान और पड़ताल करने निकल पड़े और यूरोपीय विद्वानों की तरह उन्होंने भी अपने पूर्वजों के स्मृति के रख-रखाव के ढंग को बेतुका और ‘अपरिष्कृत’ मान लिया. सभी देश-समाजों का इतिहास एक जैसा हो, यह आग्रह सिरे से ही ग़लत था. रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने एक निबंध भारतवर्षेर इतिहास में गत सदी आरंभ में ही सचेत कर दिया था कि
“दरअसल इस अंधविश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए. रॉथ्सचाइल्ड की जीवनी को पढ़कर अपनी धारणाओं को दृढ़ बनाने वाला व्यक्ति जब ईसा मसीह के जीवन के बारे में पढ़ता हुआ अपनी ख़ाता-बहियों और कार्यालय की डायरियों को तलाश करे और अगर वे उसे न मिलें, तो हो सकता है कि वह ईसा मसीह के बारे में बड़ी ख़राब धारणा बना ले और कहे: ‘एक ऐसा व्यक्ति जिसकी औक़ात दो कौड़ी की भी नहीं है, भला उसकी जीवनी कैसे हो सकती है?’
इसी तरह वे लोग जिन्हें ‘भारतीय आधिकारिक अभिलेखागार’ में शाही परिवारों की वंशावली और उनकी जय-पराजय के वृत्तांत न मिलें, वे भारतीय इतिहास के बारे में पूरी तरह निराश होकर कह सकते हैं कि ‘जहाँ कोई राजनीति ही नहीं है, वहाँ भला इतिहास कैसे हो सकता है?’ लेकिन ये धान के खेतों में बैंगन तलाश करने वाले लोग हैं. और जब उन्हें वहाँ बैंगन नहीं मिलते हैं, तो फिर कुण्ठित होकर वे धान को अन्न की एक प्रजाति मानने से ही इनकार कर देते हैं. सभी खेतों में एक-सी फ़सलें नहीं होती हैं. इसलिए जो इस बात को जानता है और किसी खेत विशेष में उसी फ़सल की तलाश करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान होता है.”
विजय बहादुर सिंह विजय बहादुर सिंह (जन्म: 1940) कवि-आलोचक और संपादक हैं, और कई लेखकों की रचनावलियों के संपादक रहें हैं. ‘मौसम की चिट्ठी’, ‘पतझर की बाँसुरी’, ‘शब्द जिन्हें भूल गई भाषा’, ‘भीम बैठका’ आदि उनके कविता-संग्रह हैं. ‘प्रसाद’, ‘निराला और पंत’, ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘नागार्जुन संवाद’, ‘उपन्यास समय और संवेदना’, ‘महादेवी के काव्य का नेपथ्य’ आदि उनकी चर्चित आलोचनात्मक पुस्तकें हैं. |
माधव हाड़ा आलोचक और शिक्षाविद् माधव हाड़ा (जन्म: 1958) की चर्चित कृति ‘पचरंग चोल पहर सखी री’ (2015) है, जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ 2020 में प्रकाशित हुआ. हाल ही में उन्होंने ‘कालजयी कवि और उनकी कविता’ नामक एक पुस्तक शृंखला का संपादन किया है, जिसमें कबीर, रैदास, मीरां, तुलसीदास, अमीर ख़ुसरो, सूरदास, बुल्लेशाह, गुरु नानक, रहीम और जायसी शामिल हैं. उनकी अन्य प्रकाशित मौलिक कृतियों में ‘वैदहि ओखद जाणै’ ( 2023) ‘देहरी पर दीपक’ (2021), ‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ (2012), ‘मीडिया, साहित्य और संस्कृति’ (2006), ‘कविता का पूरा दृश्य’ (1992) और ‘तनी हुई रस्सी पर’ (1987) प्रमुख हैं. |
चित्रा सिंह संपर्क: एम-27, निराला नगर, दुष्यंतकुमार मार्ग, भोपाल – 208014 म. प्र. |
एक महत्त्वपूर्ण संवाद जो बहुत-सारे तथ्यों को इतिहास और स्मृति के धुंधलके से बाहर लाता है। वामपंथी इतिहासकारों द्वारा मिथ्या सिद्ध कर दी गयी पद्मिनी को यह वापस इतिहास में ढूंढता है।
मेरी हार्दिक बधाई और सम्मान ।
विद्वतापूर्ण बातचीत।
माधव हाड़ा जी ने संपन्न कर दिया।
इस संवाद के लिए समालोचन को बधाई।
कोई वरिष्ठ आलोचक अगली पीढ़ी के आलोचक से संवाद करे इसकी परंपरा हिंदी में क्षीण रही है। यह आदरणीय विजय बहादुर सिंह जैसा जिम्मेदार आलोचक ही कर सकता है। यह संवाद बेहद तथ्यसंगत और तलस्पर्शी है। अगर माधव हाड़ा जी के जवाब पर कुछ ज़रूरी प्रतिप्रश्न होते तो यह संवाद स्वयं प्रबंध बन जाता।
शुक्लजी की त्रिवेणी और विजयदेव नारायण साही की पुस्तक जायसी भी कहीं संदर्भ में होतीं तो सम्वाद और ज्यादा सार्थक होता ।
इतिहास मिथ और साहित्य पर आप जितने एंगल से चीजें समालोचन पर ला रहे हैं वो काबिले तारीफ़ है।
पद्मिनी!! पद्मिनी इस बातचीत में केन्द्रीय तत्त्व लगती जरूर है परंतु इस बातचीत में उभर कर हमारी श्रुति, स्मृति, आख्यान, रासो, चरित आदि कथा और श्रवण शैलियों की विकास यात्रा है। यह बात चीत अनायास ही यह भी दर्शाती है कि हम विचार यात्रा में कितने लंबे परिभ्रमण करते है। हम यह समझ पाते हैं, इतिहास और तथ्यों के बीच दूर दराज की विचार यात्राओं में बुनी गई गाथाओं में हमारी पद्मिनी और उसका ऐतिहासिक समय किस तरह गुत्थमगुत्था होता है।
अच्छा संवाद
भारत में पाश्चात्य तरीके से इतिहास लेखन नहीं हुआ ऐसा इतिहासकार कहते हैं माधव जी ने श्रुति परंपरा से स्मृति में इतिहास के बने रहने की बात कही है जो सही है पर उसके खतरे भी बहुत हैं। यह अस्मिताओं में तब्दील हो जाता है और वर्तमान को गहरे तक प्रभावित करता है । राजनीति इस का भरपूर फायदा उठाती है ।
एक पूर्ण आलेख। डॉ विजयबहादुर सिंह की तर्कपूर्ण स्थापना ने मन मोह लिया। माधव हाड़ा का विचारना सच ही है कि लोक में मुकम्मल इतिहास छुपा है।
माधव हाड़ा के प्रयास की मैं सतत सराहना करती हूँ। साथ ही इतिहास लिखने पढने पढाने का पाश्चात्य तरीका दोषपूर्ण मानती हूँ। श्रुत साहित्य के देश में विपुल सामग्री से विरचित इतिहास का महत्व है। उसमें लोक है जो सत्य है। उसमें चाणक्य की कूटनीति मात्र नहीं है चंद्रगुप्त के अखंड भारत के सपनों के पीछे , उस वृद्धा का अपने नाती को गरम खिचड़ी खाकर हाथ जला डालने पर दी गई नसीहत भी है।कि चंद्रगुप्त कीतरह सीधे हमलाकर हाथ न जलाओ, किनारे किनारे से फूँक फूँक कर ग्रास बनाओ।
जबतक कोई छोटा सा भी आलंबन नहीं होगा आख्यायिका नहीं बन सकती। आख्यायिका ही आख्यान की राह प्रशस्त करती है।
विजयबहादुर सिंह का वक्तव्य मुहर है लेखन पर!
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