मैं उनके बुढ़ापे का प्यार थापल्लव |
देखते देखते साल हो जाएगा और हिंदी के बुजुर्ग आलोचक नवलकिशोर जी की अनुपस्थिति भी स्मृति से ओझल होती जाएगी. कोरोना से जूझते हुए उन्होंने 16 मई 2021 को अंतिम सांस ली थी. 25 अप्रैल 1933 को राजस्थान के दौसा जिले के गुढ़ा कटला गाँव में जन्मे प्रो. नवलकिशोर उदयपुर के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के आचार्य और अध्यक्ष रहे थे. हिंदी आलोचना में अपनी विशिष्ट कृति ‘मानववाद और साहित्य’ के लिए उनकी ख्याति रही और कथा आलोचना के क्षेत्र में उनकी सक्रियता जीवन पर्यन्त बनी रही. ‘आधुनिक हिन्दी उपन्यास और मानवीय अर्थवत्ता’, ‘कृत्ति और संदर्भ’ और ‘प्रेमचंद की प्रगतिशीलता’ उनकी अन्य आलोचना कृतियाँ हैं. अकादमी के विशिष्ट साहित्यकार सम्मान और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा सम्मानित प्रो. नवलकिशोर को आलोचना में अतिवादों से मुक्त कृतिपरक मूल्यांकन के लिए जाना जाता है.
उनकी प्रसिद्ध कृति ‘मानववाद और साहित्य’ के बाद यह चर्चा हुई कि क्या उन्होंने हिंदी आलोचना में एक वाद की तरह प्रतिष्ठित करने के लिए मानववाद केंद्रित अध्ययन किया और पुस्तकें लिखीं. इस पर उनका मत था,
‘ये एक दृष्टि है, जिसे आप विश्व दृष्टि कह सकते हैं. यह उस दृष्टि का प्रतिकार है, जो केवल जो यह मानती है कि साहित्य प्रयोजनातीत है, कथा साहित्य भी प्रयोजनातीत है. उस समय यह प्रश्न भी उठ रहा था- हिन्दी में समाजनिष्ठ और व्यक्तिनिष्ठ, दो दायरे बन गए थे. व्यक्तिनिष्ठ आलोचना और समाजनिष्ठ आलोचना जैसे कुछ भिन्न है, दोनों विपरीत ध्रुव हैं. मैंने इस मान्यता के विरोध में यह आलोचना लिखने की कोशिश की.’
वस्तुतः भारतीय समाज की व्यापक विविधता और बहुलता को किसी एक वैचारिक सरणी के आधार पर व्याख्यायित करना उन्हें अतिरेकी लगता था. नवलकिशोर जैसे आलोचक का महत्व इधर के परिदृश्य में इसलिए विशेष तौर पर समझना चाहिए कि उन्होंने जिस उदारता से साहित्य को देखने-समझने की कोशिश की और इसके लिए उन्होंने साहित्य की वास्तविक कला कसौटियों को कभी अनदेखा नहीं किया, वह सचमुच दुर्लभ है. ‘मानववाद और साहित्य’ में उन्होंने अपने आलोचना के औजारों का निर्माण किया तो ‘आधुनिक हिंदी उपन्यास और मानवीय अर्थवत्ता’ उनकी व्यावहारिक आलोचना की पहली किताब मानी जा सकती है जिसमें उन्होंने जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी, यशपाल और भगवतीचरण वर्मा जैसे बड़े कथाकारों का मूल्यांकन किया था.
लम्बे अंतराल के बाद 2019 में उनकी किताब ‘प्रेमचंद की प्रगतिशीलता’ का प्रकाशन हुआ था. इस अंतराल में भले ही पुस्तक प्रकाशन से वे दूर रहे किन्तु साहित्य की प्रमुख पत्रिकाओं में उनके गंभीर वैचारिक और मूल्यांकनधर्मी आलेख प्रकाशित होते रहे. ‘प्रेमचंद की प्रगतिशीलता’ जैसी छोटे कलेवर की उनकी पुस्तक केवल प्रेमचंद की वर्तमान अर्थवत्ता का उद्घाटन नहीं करती अपितु एक साथ हिंदी आलोचना में प्रेमचंद की स्थिति और कथा आलोचना के वास्तविक उपकरणों की भी तलाश करती है. इस किताब में प्रेमचंद की सर्वोच्च उपलब्धि ‘गोदान’ पर उनका मूल्यांकन है,
‘प्रेमचंद की विकासमान मानववादी दृष्टि की भव्य परिणति ‘गोदान’ में उपलब्ध है, जिसमें सच्चाई का बिना किसी मानववादी सुधार कामना के साक्षात्कार है. यह उपन्यास सामाजिक ढाँचे को पूरी तरह बदलने का और न्यायपूर्ण मानवीय व्यवस्था की स्थापना का आह्वान बन गया है. उनकी मानववादी दृष्टि का विकास उनके कलाकार के उत्कर्ष के साथ गहरी संबद्धता लिये है. एक कथाकार के रूप में उनकी श्रेष्ठता मानवीय दायित्व को कलानिष्ठा के साथ स्वीकार करने में है.’
2019 में ही उनकी पिछली पुस्तकों ‘मानववाद और साहित्य’ तथा ‘आधुनिक हिन्दी उपन्यास और मानवीय अर्थवत्ता’ के भी नये संस्करण प्रकाशित हुए. उनका असंकलित लेखन जब भी पुस्तकाकार आएगा, उनके आलोचना कर्म की प्रासंगिकता और स्पष्ट होगी.
राजस्थान विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त कर वे राजस्थान की कालेज शिक्षा सेवा में आ गए थे तदुपरांत उन्होंने मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय (तब उदयपुर विश्वविद्यालय के नाम से) के हिंदी विभाग में सहायक आचार्य के रूप में सेवाएं दीं. साठ के दशक का यह समय इस विश्वविद्यालय के लिए स्वर्णयुग माना जाता है जब यहाँ मनोवैज्ञानिक आलोचना के पुरोधा डॉ. देवराज उपाध्याय, पुरानी पीढ़ी के विद्वान कृष्णचन्द्र श्रोत्रिय, कथाकार और राजस्थानी साहित्य के मर्मज्ञ आलमशाह खान, कवि और राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष प्रकाश आतुर, अनूठे गद्यकार नेमनारायण जोशी जैसे अध्यापक विभाग में थे.
इस दौर में हैदराबाद से निकलने वाली हिंदी साहित्य की श्रेष्ठ पत्रिका ‘कल्पना’ में शिवप्रसाद सिंह से नवलकिशोर की आंचलिक साहित्य के सम्बन्ध में बहस का प्रकाशन उस दौर की चर्चित साहित्यिक घटनाओं में से था. उदयपुर में भी इस समृद्ध दौर का असर हुआ और वहां कवि नन्द चतुर्वेदी ने नवलकिशोर, नेमनारायण जोशी तथा प्रकाश आतुर के साथ मिलकर एक लघु पत्रिका ‘बिंदु’ का सम्पादन-प्रकाशन किया.
एक शिक्षक के रूप में अपने विद्यार्थियों की मदद के लिए सदैव तैयार रहने वाले प्रो. नवलकिशोर को उदयपुर में साहित्य के सबसे बड़े पाठक के रूप में भी जाना जाता था. उनकी दैनन्दिनी में नियत था कि प्रतिदिन अपराह्न चार बजे से राजस्थान साहित्य अकादमी के पुस्तकालय-वाचनालय में अध्ययन करते थे. हिंदी की नयी से नयी रचनाशीलता को पढ़ने और जानने की उनकी प्रवृत्ति ज्ञान की भूख का ही एक रूप मानी जाएगी. मुख्यत: गद्य साहित्य ही उनकी रुचि का क्षेत्र रहा और उसके माध्यम से मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा ही उनकी वास्तविक चिंता बनी रही. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था,
‘यथार्थ को परिभाषित करने की नहीं, पहचानने की जरूरत है. रचनाकार के लिए जिन्दगी का सच- उसकी देखी-परखी दुनिया में उसके खुद के और उसके आसपास के लोगों के जीवनानुभव ही किसी रचनाकार की लिखी अनलिखी किताब के किस्सों में ढलते हैं. लेकिन इन किस्सों की निर्मित्ति में उसके अचेत-सचेत नजरिये का भी एक काबिलेगौर दखल रहता है. इन नजरियों की मोटी पहचान राजनैतिक चिन्तन में आजकल भूमण्डलीकरण और नव साम्राज्यवाद, पूँजीवादी निगमों द्वारा गरीब देशों में दरिद्रता के प्रसार, निजीकरणवादी लोकतन्त्र में मनुष्य के पराधीनीकरण, उपभोक्ता समाज में विवेकलोप आदि के रूप में की जाती है.’
कहना न होगा कि नवलकिशोर का आलोचना कर्म हमारे देश-समाज के व्यापक सरोकारों की पहचान और रक्षा के लिए प्रतिबद्ध आलोचना कर्म के रूप में याद किया जाएगा.
(दो)
उदयपुर के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में कुलपति के कक्ष में मैं अपनी तैयारी कर आया था और विशेषज्ञ के रूप में विभाग के सेवानिवृत्त आचार्य और विख्यात आलोचक नवल किशोर ने बाकी की औपचारिकताओं के बाद आख़िरी सवाल किया कि पीएच डी आपने स्वयं प्रकाश की कहानियों पर की है लेकिन यह बताइये कि एक अध्येता के रूप में आपको आलमशाह खान और स्वयं प्रकाश में से किसकी कहानियां ज्यादा बेहतर लगती हैं ? मैं हतप्रभ कि भला क्या क्या जवाब दूं? कारण यह कि तब आलमशाह खान ज़िंदा थे और विभाग से हाल में सेवानिवृत्त हुए थे- कह दूं कि स्वयं प्रकाश! और कुलपति को बुरा लग गया कि हमारे लेखक का नाम नहीं लिया तो क्या होगा? कह दूं आलमशाह खान! तो पूछेंगे कि पीएच डी स्वयं प्रकाश की कहानियों पर क्यों की ? टालू जवाब दिया कि दोनों अपने-अपने ढंग से बेहतर कथाकार हैं. लेकिन नवल जी अड़े हुए थे कि प्रश्न का उत्तर दो, कहना पड़ा- स्वयं प्रकाश ! इंटरव्यू निबटा और मैं चुन भी लिया गया.
यह नवलकिशोर जी से मेरी पहली मुलाक़ात थी. हालांकि बाद में थोड़ी निकटता बढ़ने पर उन्होंने बताया था कि वे मुझे इससे पहले अकादमी में किसी आयोजन में देख-सुन चुके थे. मैं भी उनके बारे में सुनता था और यही सुनता था कि वे बेहद सख्त और अनुशासनप्रिय प्रोफेसर हैं. हुआ यह भी था कि पीएच डी के लिए जब मैं सुपरवाइजर की तलाश कर रहा था तब एक नाम नवलकिशोर जी का भी आया था और भले लोगों ने मुझे समझा दिया था कि ये बहुत घिसाई करवाएंगे सो तुम इनके पास मत जाओ. फिर मैं सुपर वाइजर की तलाश में जोधपुर तक गया और खाली हाथ लौटा. यह भी बाद में समझ आया कि वे इंटरव्यू में ऐसा साफ़ सवाल क्यों पूछ रहे थे ? शायद वे मुझसे स्पष्टता की उम्मीद करते थे. वे मेरी भीतर इनकार का साहस देखना चाहते थे जो उनमें भी कम नहीं था.
उदयपुर में नवलजी के संग-साथ के अनेक संस्मरण हैं और उनके साथ उदयपुर के निकट छोटी-बड़ी यात्राओं की भी स्मृतियाँ हैं. ऐसी एक यात्रा हम लोगों ने मानगढ़ की थी. वही विख्यात मानगढ़ जिस पर हजारों आदिवासी शहीद हुए थे और जिस घटना पर हरिराम मीणा जी ने अपना श्रेष्ठ उपन्यास ‘धूणी तपे तीर’ लिखा था. इसी उपन्यास के लोकार्पण या चर्चा का एक आयोजन मानगढ़ पर रखा गया था. इस आयोजन में भाग लेने के लिए उदयपुर से प्रो. नवलकिशोर, डॉ आशुतोष मोहन, आकशवाणी के श्री लक्ष्मण व्यास और मैं जाने वाले थे वहीं आदिवासी लेखक वहारू सोनवणे तथा जयपुर से आलोचक रवि श्रीवास्तव भी आए थे. हम लोग उदयपुर से एक टैक्सी लेकर मानगढ़ निकल पड़े. वहां उस ऊंची पहाड़ी पर आदिवासी नरसंहार के स्मृति स्थल को देखना अद्भुत अनुभव था और इसके बाद जब हम लोगों ने हरिराम जी की किताब पर चर्चा की तो यह सचमुच अविस्मरणीय हो गया था.
लौटते समय रात हो गई थी और हम लोगों के भोजन की व्यवस्था रास्ते में किसी ढाबे पर थी. अब यहाँ हम लोग दो समूहों में विभाजित हो गए पहले वे जो सर्वाहारी थे और दूसरे समूह में नवलकिशोर जी के नेतृत्व में हम दो तीन लोग जो घास फूस खाकर जीवन चलाते थे. नवलकिशोर जी ने अचानक मोर्चा सम्हाला और आह्वान किया कि कुछ लोग मांस का सेवन करें और बाकी लोग घास फूस खाएं यह न्यायसंगत नहीं है. हम लोगों को और कुछ नहीं तो मिष्ठान मिलना ही चाहिए. उस जंगल के रास्ते में मिष्ठान कहाँ से आता? आखिर हरिराम मीणा जी का पुलिसिया अनुभव काम आया और उन्होंने यहाँ-वहाँ किसी को दौड़ाया. मिष्ठान भी आया और जो रोटियाँ हमें दी गईं वे मक्की की नरम किन्तु खासी मोटी थीं. ढाबेवाले ने उन पर इतना घी लगा दिया था कि न पूछिए. अब नवलजी की मुस्कुराहट दर्शनीय थी.
दूसरी घटना उनकी सदाशयता की है. वे रिटायर होने के बाद फैसला कर चुके थे कि अब किसी को पीएच डी नहीं करवाएंगे और अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग थे. विभाग से भी उनकी दूरी हो गई थी और खुद विभाग में भी एक एडहॉक के अलावा कोई अध्यापक नहीं था. इस बीच कुछ नए अध्यापकों को वहां नियुक्ति मिली जिनमें मैं भी एक था. नियमों के कारण हम लोग किसी को पीएच डी करवाने के लिए अधिकृत नहीं हुए थे. इसी बीच वहां से पढ़कर निकले एक आदिवासी विद्यार्थी ने नेट की परीक्षा पास कर ली बल्कि वह जेआरएफ हो गया था. उसने पीएचडी का पंजीकरण कालेज के किसी शिक्षक के मार्गदर्शन में करवा लिया था और इस बीच उसका जेआरएफ हो गया. वहां कुछ इस तरह के नियम थे कि जेआरएफ उसी विद्यार्थी को मिल सकता था जिसके शोध निर्देशक विभाग में हों या विभाग से सेवानिवृत्त हुए हों. यह विद्यार्थी जेआरएफ के लिए हाथ-पाँव मारता रहा और अंत में निराश हो गया.
एक दिन अचानक विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय में मेरी भेंट इससे हुई. मैंने जेआरएफ का पूछा तो उसने निराशा में बताया कि इस हफ्ते तारीख समाप्त हो जाएगी और मुझे जेआरएफ नहीं मिल सकेगा. मैंने कहा कि रिटायर लोगों से पूछा? उसने कहा कि वे लोग अब किसी को पीएचडी नहीं करवाते. मैंने कहा-नवलजी? उसने कहा- वे भी. मैंने कहा- फिर जाओ और बात करो. मेरे सुझाव पर वह विद्यार्थी नवलजी के घर गया और नवलजी ने उसकी समस्या सुनकर मुझे फोन पर अपनी दो शर्तें बताईं- पहली, इसका विषय कविता से सम्बंधित है जिसमें उनकी कोई रुचि नहीं अत: वे कोई मदद नहीं करेंगे. दूसरी, वे इसे शोधवृत्ति मिल जाए इसके लिए हर कागज़ पर हस्ताक्षर कर देंगे लेकिन इसके आचरण और काम पूरा करवाने की जिम्मेदारी मेरी (पल्लव की ) होगी. मैंने कहा आपकी हर बात मंज़ूर है सर. आप तो उसे शोधवृत्ति दिलवा दीजिये. खट्टे-मीठे पड़ावों के बाद उस विद्यार्थी का पीएचडी हुआ, उसे शोधवृत्ति भी मिली जो उसके जीवन यापन तथा आगे की यात्रा के लिए भी बड़ा सहारा सिद्ध हुई. सोचता हूँ नवलजी भी मना कर देते तो?
ऐसे ही एक और दृश्य याद आता है जो मार्च 2011 का है. उदयपुर के एक इलाके हिरण मगरी स्थित मकान नंबर 152 टैगोर नगर के बाहर ट्रक खड़ा है और उस घर का सामान ट्रक पर चढ़ाया जा रहा है. मेरे नाना जी और माँ तैयार हो रहे हैं. मैं, पत्नी और बच्चियाँ भी इस मुद्रा में हैं कि ट्रक के निकलते ही हम भी अपनी टैक्सी में सवार होकर दिल्ली रवाना हों. बरामदे में एक कुर्सी पर नवल जी बैठे हुए हैं. उनकी मुद्रा कुछ-कुछ ‘एक पुरुष भीगे नयनों से’ की याद दिलाती है. नवल जी के निधन के बाद अपने एक मित्र को मैंने लिखा था,
‘मुझे सबसे अधिक प्यार करने वाले चले गए. नवल जी कहते थे कि किसी पर आश्रित न रहना पड़े जैसे नन्द बाबू गए वैसे ही चलता फिरता चला जाऊं. मैं मृत्यु की बात पर हर बार कहता- ऐसी बातें क्यों करते हैं सर. आप सक्रिय बने रहिए. हर इतवार उनका फोन आता था. लगभग ग्यारह से बारह के बीच. दस-पंद्रह-बीस-पच्चीस मिनट की बातचीत होती. वे कुछ नया पढ़ते तो बताते. हंस में आबिद सुरती का संस्मरणात्मक गद्य उन्हें बहुत पसंद आया था. ऐसे ही अंजली देशपांडे की कहानी. वे चाहते थे कि मैं भी इन्हें पढ़ लूँ- फिर हम दोनों बात करें. मैं हर बार वादा करता और कभी न पढ़ पाता. अफ़सोस. उदयपुर जाने का अब कोई कारण न रहा. नवल जी जिस इसरार से बुलाते थे जीवन में कम ही लोग इस तरह किसी को बुलाते होंगे. मेरी भी हार्दिक इच्छा थी कि एक बार नवल जी के घर ही जाकर ठहरूं और दिन -रात उनसे बात करता रहूँ. कोरोना न आया होता तो सचमुच ऐसा हो पाता.
शायद मैं उनके बुढ़ापे का प्यार था.’
पल्लव
‘कहानी का लोकतंत्र’ और ‘लेखकों का संसार’ शीर्षक से दो पुस्तकें. साहित्य अकादेमी के लिए कवि नन्द चतुर्वेदी पर मोनोग्राफ लेखन.‘मीरा: एक पुनर्मूल्यांकन’, ‘गपोड़ी से गपशप’, ‘एक दो तीन’, ‘अस्सी का काशी’ और ‘बातें हैं बातों का क्या: शीर्षक से संपादित पुस्तकों का प्रकाशन. असग़र वजाहत के सम्पूर्ण रचना संसार से चुनकर तीन खंडों में असग़र वजाहत रचना संचयन का संपादन. ‘मैं और मेरी कहानियां ‘ शीर्षक से हिंदी के दस प्रतिनिधि युवा कथाकारों के दस कहानी संग्रहों का चयन और संपादन. रज़ा फाउंडेशन के लिए ‘अँजुरी भर फूल’ शीर्षक से अजितकुमार रचना संचयन. साहित्य-संस्कृति के विशिष्ट संचयन. संपर्क |
बहुत आत्मीयता से लिखा हुआ आलेख। मै उनका विद्यार्थी और स्नेह भाजन था। पल्लव को बधाई !
हम सबके प्रिय और आदरणीय नवल किशोर जी को ऐसे ही याद किया जाना चाहिए था और यह काम पल्लव ही कर सकता था.
एक बड़े चिंतक और आलोचक के रूप में नवल जी को पढ़ता तो रहा था। पर आज पल्लव का यह सुंदर आत्मीय संस्मरण पढ़ा तो लगा कि नवल जी को फिर से जाना। बल्कि शायद पहली दफा जाना।
स्नेह,
प्रकाश मनु
एक पढे लिखे स्नेही व्यक्ति आदरणीय नवल जी पर पल्लव ने बहुत अच्छा लिखा है। उन्हें बधाई। – – हरिमोहन शर्मा
इमानदार अभिव्यक्ति और मानवीय छटपटाहट
पल्लव में अपने बुज़ुर्गों के प्रति कृतज्ञता महसूस करने का वह श्लाघनीय गुण है जो आज के बदलते समय में दुर्लभ होता जा रहा है । डॉ नवल किशोर के संबंध में पल्लव का यह लेखन उसी आत्मीयतापूर्ण कृतज्ञता भाव का पल्लवन है । जो भी साहित्यकार उसके संपर्क में आए उनके प्रति वह सदैव अपना प्रेम और आदर इसी तरह किसी न किसी रूप में व्यक्त करता रहा है । मैं आशा करता हूं कि नई पीढ़ी के अन्य लोग भी उसकी इस साहित्यिक तमीज़ से प्रेरणा लेंगे ।
नवल किशोर जी से मिलकर जाना था कि उनकी मानवतावादी दृष्टि बड़ी सतर्क और अद्यतन थी।
पल्लव जी ने जिन प्रसंगों के ब्याज से उन्हें याद किया है वे अद्भुत हैं।
उदयपुर विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग अपना गौरव पुनः हासिल करे।
नवल जी की स्मृति को नमन।
आश्चर्य कि मैंने यह संस्मरण पहले क्यों नहीं पढ़ा! या पढ़ा और पढ़कर भूल गया. पल्लव ही बताएंगे. लेकिन अभी तो मुझे लग रहा है कि मैं इसे पहली दफा पढ़ रहा हूं. क्योंकि मैं आदरणीय नवल किशोर जी के प्रारम्भिक और प्रिय विद्यार्थियों में से हूं, मुझे यह कहने का हक़ है कि पल्लव ने जो लिखा है वह अक्षरश: सत्य है. नवल किशोर जी वाकई ऐसे ही थे. 1965 मं, जब मैं एम ए के विद्यार्थी के रूप में उनके सम्पर्क में आया तब से लगभग उनके निधन तक मेरा उनसे सम्पर्क बना रहा. स्वयं पल्लव के साथ भी एक दफा उनके घर जाने का संयोग बना. डॉ नवल किशोर जी क जाना साहित्य जगत की जितनी बड़ी क्षति है उतनी ही बड़ी मेरी निजी क्षति भी है. वे मेरे अभिभावक थे. उनकी स्मृति को नमन.