दिग्शाई: चीड़ों की चीत्कारसुरेन्द्र मनन |
कोठरी के भीतर लकड़ी के फर्श पर कदम रखते ही एक आवाज़ गूंजती है. आवाज़ आसपास सिमटी दीवारों के बीच उमड़ती-घुमड़ती हुई ऊंची छत की तरफ उठती है. छत से टकरा कर वापिस लौटती है तो उसकी गूँज देर तक सनसनाती रहती है. दीवारें. ठंडी, सपाट दीवारें. आगे-पीछे, दाएं-बाएँ सिर्फ दीवारें. इतनी करीब कि दो कदम आगे बढ़ें तो रोक लें, दो कदम पीछे हटें तो रोक लें. आँखों के लिए देखने को दीवारें, हाथों के स्पर्श के लिए दीवारें. बात करने के लिए दीवारें. बात सुनने के लिए कान सटाने को दीवारें. सिर पटकने को दीवारें. पस्त होकर गिर पड़ने के बाद सहारा देने को दीवारें. अंग-संग हर पल, हर घड़ी, हर समय सिर्फ दीवारें. एक दिन, दो दिन, एक हफ्ता, एक महीना, एक साल… दीवारों के अलावा और कुछ भी नहीं. और फिर सुन्न पड़े मस्तिष्क में जो बचा रहता है, वह है दीवारों का गहरे तक खरोंचा, उत्कीर्ण किया हुआ अक्स, और कुछ नहीं. बाकी सब कुछ मिट चुका होता है. बार-बार याद करने के बाद भी कुछ याद नहीं आता. सिर्फ दीवारें ही इर्द-गिर्द घूमती हैं या खुद किसी भंवर की तरह दीवारों के बीच घूमना जारी रहता है.
यह एक भयावह अहसास था. किसी इंसान को उसके परिवेश से काट क़तर कर, उसका सब कुछ नष्ट करके, उसके कहीं भी आने-जाने, चलने, उठने-बैठने और यहाँ तक कि देखने की क्षमता को भी छीन कर, उसे ऐसी जगह पर स्थिर और स्थित कर दिया जाए जहाँ सिर्फ दीवारें हों, और कुछ नहीं. जहाँ उसके लिए न दिन का कोई मतलब रहे न रात का. उसकी दुनिया दीवारों से शुरू होकर दीवारों तक ही खत्म हो जाए.
यह कोई कल्पना नहीं बल्कि सच्चाई से उपजा संत्रास था. मैं दिग्शाई जेल में एक कोठरी के भीतर था. ऊंची छत वाली इस कोठरी की पथरीली दीवारें मुझे दाएं-बाएँ-आगे-पीछे से घेरे खड़ी थीं. बीच की जगह बस इतनी थी कि पांच कदम इस दिशा में और आठ-दस कदम उस दिशा में आ-जा सकूं. पिछली दीवार में छत से थोड़ा नीचे बस एक छोटा-सा, सलाखों वाला रोशनदान था जहाँ मटमैली रौशनी का कटा-फटा पेबंद चिपका हुआ था. इस पथरीले, बड़े संदूक में मैं उसी तरह बंद था जैसे जीते-जागते इंसानों को कैदखाने में रखा जाता था. सम्भवतः वैसी ही दारुण मानसिक हालत में भी था जिसमें से वे कैदी गुजरते होंगे. इसका सबूत यह था कि दीवारों के बीच खड़े अभी कुछ ही समय बीता होगा लेकिन इतने में ही मेरे आँख-कान अपना सहज व्यवहार भूल चुके थे. मस्तिष्क में सन्नाटा भर गया था और यह बोध बिलकुल न रहा कि कैद के वे पल कब शुरू हुए थे, या समय कब उन पलों में से बह निकला कि जिसे अब मापा नहीं जा सकता था. इस कैद में अब बस मैं था. समय से छिटका हुआ मैं, एक क्षुद्र व्यक्ति !
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समय मुझसे मुक्त हो चुका था, दीवारों के बीच मुझे अकेला छोड़ कर. मुझे बस इतना ही अहसास था कि अब मैं नितांत अकेला हूँ. हर चीज़ से पृथक और एकाकी. दीवारों के अलावा अब मैं कुछ और नहीं देख सकता, किसी से बात नहीं कर सकता. इस दुनिया में अभी तक मैं जिंदा तो हूँ लेकिन दुनिया में नहीं रहा हूँ… और यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब तक मैं खुद को, खुद के होने को जानता रहूँगा. जब तक मुझे अपना बोध बना रहेगा. धीरे-धीरे सरकता हुआ वह समय भी आएगा जब मैं इन दीवारों के बीच ही घुलमिल जाऊँगा. खुद एक दीवार बन जाऊँगा. अगर इस जगह किसी दीवार की तरह ही ढह जाने से पहले मुझे आज़ादी दे भी दी जाए, तो भी मैं बाहर जिंदा प्राणी की तरह नहीं बल्कि ठंडी, ठोस, मूक दीवार की तरह ही कहीं खड़ा-बैठा रहूँगा…
कोठरी की अँधेरा उगलती दीवारों की जकड़ से मुक्त होकर मैं तंद्रिल सी अवस्था में लंबे चौड़े गलियारे में आ खड़ा हुआ. मैं बाहर तो आ गया था लेकिन पूरे बदन में अभी भी एक सरसराहट-सी अनुभव कर रहा था. कोठरी की दीवारें जैसे अभी भी मेरे अंग-संग ही थीं.
गलियारा ऊंची, अर्धगोलाकार छत से ढंका था. दाएं-बाएँ, दोनों तरफ बंद कोठरियों की लंबी कतारें थीं. वैसी ही, ठोस संदूकों जैसी कोठरियां, जिनमें से एक में कुछ देर पहले मैं खड़ा था. कोठरियों के दरवाजे लोहे की मोटी चादर के बने थे. हर दरवाजे के निचले हिस्से में बीचोंबीच खुलने वाला एक छोटा-सा पल्ला था, जहाँ से कैदियों के लिए रोटी अंदर सरकाई जाती थी. हर कोठरी के बाहर एक लालटेन लटकी थी. आमने-सामने बनी इन कोठरियों के बीच पसरा चौड़ा फर्श भी सागौन की लकड़ी का बना था. एक कदम भी उठा कर रखें तो आवाज़ दूर-दूर तक गूँज उठे. दरअसल इस तरह का फर्श बनाने का मकसद भी यही था. कोई कैदी ज़रा-सी भी हरकत करे, इधर से उधर चले, रुके, बैचैनी में पैर पटके, बदहवासी में कूदे…तो आवाज़ तुरंत ड्यूटी पर तैनात गार्ड को सुनाई दे सके. जेल का यह हिस्सा भांय-भायं कर रहा था. कहीं कोई आवाज़ नहीं थी. कोठरियां भी चुप थीं. वे अनगिनत सिसकियों, चीखों-चीत्कारों को निगल कर अब भी मानो घात लगाए खड़ी थीं.
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इंसान को इंसान न रहने देने के इस भयानक और क्रूरतम तरीके की खोज किसने की होगी? गलियारे के नीम अँधेरे में खड़ा मैं सोच रहा था. कि इंसान को बाहरी दुनिया से बिलकुल काट कर इस तरह अलग कर दिया जाए, मानो किसी कब्र में बंद हों. जैसे वह कब्र में दफ़न हो, लेकिन जिंदा हो. कि इंसान दिखने में तो इंसान रहे, जिंदा भी रहे, लेकिन हर पल बूँद-बूँद चू-चू कर अन्दर से बिलकुल रिक्त हो जाए. छूंछा हो जाए ! जैसे कि कोई खाली बर्तन. या कोई खोखला, सूखा पेड़. या निसत्व हो चुका कोई ठूंठ.
जेल के घेरे से बाहर निकल कर मैं परिसर में आया तो समूचा दृश्य बदल गया. परिसर में हर तरफ रौशनी फैली थी, यहाँ-वहां धूप और छाँव के चकत्ते थे, मचलती हुई हवा के झोंके थे, हरे-भरे पेड़ों की झूमती डालियाँ थीं, पत्तों की सरसराहट और पक्षियों की चहचहाहट थी… और आँख उठा कर देखने पर असीम नीला आकाश था. मुझे शिद्दत से यह अहसास हुआ कि कैद की कालिमा कितनी मारक होती है ! और यह भी समझ में आया कि कैद और आज़ादी में क्या फर्क होता है. इंसान से उसकी आज़ादी क्यों छीनी जाती है और आज़ाद होने के लिए वह क्यों तड़पता है.
कालका-शिमला के रास्ते में दिग्शाई छावनी क्षेत्र, सोलन जिला में पड़ता है. मैं जब दिग्शाई पहुंचा तो इस बात का बिलकुल अंदाज़ा नहीं था कि मुझे यहाँ कोई जेल देखने को मिलेगी. ऐसी जेल जिसमें इतिहास का एक पूरा अध्याय कैद-तन्हाई काट रहा होगा. सिर्फ जेल ही नहीं, खुद इस उपेक्षित से पड़े कस्बे के साथ, जो कभी छोटा-सा एक गाँव था, अनेकों रोमांचक कहानियाँ जुड़ी होंगी. मैं तो बस सैलानियों के जमघट और शोरोगुल से दूर किसी शांत. जगह की तलाश में था और दिग्शाई ऐसी जगह थी जैसे हाय-हाय करती दुनिया की नज़र से चूक गई हो… और इसीलिए पददलित होने से बची रह गई हो.
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ऐसी अनेक दिखने में मामूली लेकिन बहुत अर्थगर्भित जगहें होती हैं जो किन्हीं कोनो में दुबकी पड़ी आततायियों से खुद को बचा ले जाती हैं. बुक्कल में अपना बेशकीमती खजाना सहेज-समेट कर इस तरह अनजान बने रहने का ढोंग किए बैठी रहती हैं कि किसी को भनक तक न लगे. जो तब तक अपनी बुक्कल खोलने को तैयार नहीं होतीं जब तक पूरी तरह आश्वस्त न हो जाएं कि आगन्तुक कोई नुकसान पहुंचाने के इरादे से नहीं आया. उनका विश्वास जीतने के लिए जब तक आगन्तुक दुर्गम रास्तों पर ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर, दांयें से बाएँ, बाएँ से दाएं भटकता हुआ ख़ाक न छानता फिरे. इतना सब होने, करने के बाद ही वे कुछ कहने के लिए मुंह खोलती हैं. कभी कराहती, कभी सिसकियाँ लेती हुई अस्फुट शब्दों में अपनी करुण कथा बुदबुदाने लगती हैं.
दिग्शाई ऐसी ही जगह थी– मामूली, छोटी-सी, उपेक्षित लेकिन बहुत आकर्षक और स्वयं में सम्पूर्ण. हरे-भरे पहाड़ थे, आसमान में अठखेलियाँ करते बादलों के झुण्ड, सर्र-सर्र बहती हुई हवा, हवा के झोंकों से झूमती हुई चीड़ और देवदार के दरख्तों की डालियाँ, फर्र-फर्र उड़ते पक्षी और रह-रह कर गूंजती चिर्र-चिर्र, किर्र-किर्र, कूऊऊऊ-कूऊऊऊ की आवाजें ! और इस सब के बीच पगडंडियों पर हौले-हौले कदम-कदम चढ़ाई पर चढ़ते या किनारों पर बैठे धूप सेंकते धैर्यवान लोग. हर तरफ सुकून और शांति थी. दूर नीचे बलखाती पतली सड़क पर सरक रहे ट्रकों या बसों की घुर्र-घुर्र भी इस शांति को भंग करने की बजाए इधर-उधर छितर कर पेड़ों की फुनगियों में कहीं अटक कर रह जाती.
मैं दिग्शाई के इसी नैसर्गिक रूप को देख कर उसका कायल हो रहा था, इसी रूप को असल और स्थाई समझ रहा था और उसी के प्रभावाधीन था. मुझे नहीं मालूम था कि इस सहज, शांत, सरस दिखाई दे रहे परिदृश्य की पृष्ठभूमि कितनी असहज, अशांत और विकल है. शांत बहती हवाओं में कितनी चीखें दबी हैं, चीड़ के दरख्तों की शाखाओं में कैसी-कैसी चीत्कारें छिपी हैं, पहाड़ों में आग की लपटें दबी हैं और यहाँ की मिटटी में इंसानों के खून के परनाले समाए हुए हैं.
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दिग्शाई ने कुछ झिझकते हुए ही अपनी कुरूपता पर से पर्दा उठाया था. मैं एक पहाड़ी पर अंग्रेजों के जमाने के बने जिस गेस्ट हाउस में रुका हुआ था, वहां से रामपुर गाँव कुछ ही दूरी पर था. उस गाँव में जगह-जगह पर रुकता, अटकता और पगडंडियों से होता हुआ मैं पहाड़ों की तलहटी की ओर दूर तक निकल जाता. वहां कुछ ऐसे घर थे जहाँ लोग पीढ़ियों से रहते आए थे. कुछ बूढ़े हमेशा घरों के बाहर बने चबूतरों पर बैठे पहाड़ों की ओर टकटकी लगाए रहते. वे इतने तन्मय भाव से पहाड़ों को ताक रहे होते कि बिलकुल पास से गुजरें तो भी उनकी टकटकी नहीं टूटती थी. वे इतने उदासीन और निर्वाक थे कि तब तक चुप बने रहते जब तक कि कोई उनसे कुछ जबरन बुलवा न ले… और जब वे बोलते तो उनकी हर बात में कोई गहरा भेद छुपा होता. निठ्ठलापन छोड़ कर यकायक ही वे किसी रहस्यमय दुनिया के प्रवक्ता का रूप धारण कर लेते. उनकी कही कहानियों के तार कभी इतिहास से जा जुड़ते, कभी ज्ञात इतिहास से आगे निकल कर किसी ऐसी अनजान दुनिया में ले जाते जिसका जिक्र इतिहास में नहीं मिलता था. तब लगता शायद वे उसी दुनिया को टकटकी लगाए देख रहे थे. अपनी टकटकी से उसे थामे हुए थे- कि चूंकि वह दुनिया भुलाई जा चुकी है तो उनके नज़र हटा लेने से वह लुप्त ही न हो जाए!
उस भुलाई जा चुकी दुनिया की अधूरी-पूरी कई झलकियाँ मुझे उनकी कहानियों में देखने को मिलीं और तभी इस भेद का भी पता चला कि यह जगह दिग्शाई नहीं, असल में दागे-ए-शाही है.
दागे-ए-शाही यानी शाह, शासक का दिया हुआ दाग. वह मुग़ल काल का दौर था. पहाड़ों के बीच हर तरफ से कटी यह एक दुर्गम जगह हुआ करती थी. अपराधियों के माथे को गर्म सलाखों से दाग कर उन्हें इस जगह पर निष्कासित कर दिया जाता था. उनके माथे पर शाही निशान इसलिए दागा जाता ताकि अपराध की सजा काटने के बाद भी अपराधी दोष से मुक्त न हो पाए, उसके दंश को अपने माथे पर ताउम्र झेलता रहे. चारों तरफ ऊंचे पहाड़ों की घेराबंदी, कहीं कोई रास्ता, पगडंडी नहीं, कोई देखने-सुनने वाला नहीं. कैदी माथे पर अपने कुकर्म का इश्तिहार चिपकाए इन पहाड़ों में भटकते मर-खप जाते. जो जिंदा रहे वे बाद में यहीं बस गए. दुनिया से कट कर, अपनी बदनसीबी के साथ उन्होंने यहीं अपनी नई दुनिया बसा ली. कालांतर में बाहर से भी लोग आकर यहाँ बसने लगे जो इस जगह का इतिहास जानते नहीं थे या जानने में रूचि नहीं रखते थे. इसलिए जगह का नाम जानने, उसके सही हिज्जों की या सही उच्चारण करने की उन्हें ज़रुरत भी महसूस नहीं हुई. या वजह यह भी हो सकती है कि सही नाम भयभीत करने वाला था, जिसे सुन कर सनसनी पैदा होती और आँखों के आगे ऐसे-ऐसे चित्र बनते जिन्हें देख कर सिहरन उठती. इसलिए दागे-ए-शाही इरादतन या गैर-इरादतन धीरे-धीरे दग्शाई में बदल गया.
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कथा यहीं खत्म नहीं होती थी. खत्म तो क्या, अभी तो चरम तक भी नहीं पहुंची थी. लोगों ने चाहे जगह के नाम का उच्चारण बदल दिया हो पर अभी तो दाग-ए-शाही का आधुनिकीकरण किया जाना था, उसे क्रूर से क्रूरतम रूप दिया जाना था. मुगलों ने अगर अपराधियों को निष्कासित करने के लिए इस जगह को चुना था तो अंग्रेजों को भी पहाड़ों से घिरी इस जगह में खूब संभावनाए दिखाई दीं. मुगलों ने इसे अगर किसी खुली जेल की तरह इस्तेमाल किया था तो यहाँ अभेद्य दीवारें खड़ी करके सचमुच की जेल क्यों नहीं बनाई जा सकती ? जेल बनाने के लिए इससे उपयुक्त जगह और कौन सी होगी जहाँ न कैदी को पता चले कि वह कहाँ बंद है, न बाहर वालों को खबर हो कि जेल की तंग, अँधेरी, दमघोंटू कोठरियों में कितने कैदियों को ठूंसा हुआ है. गर्दन में फंदा डाल कर कितनों को लटका दिया गया है या फायरिंग स्क्वाड ने गोलियां दाग कर कितनों के शरीर छलनी कर दिए हैं. और यहाँ से किसी के निकल भागने का तो कोई सवाल ही न था. एक बेगाने मुल्क पर सदियों तक हुकूमत करनी है तो ऐसी जेल कितने स्थाई महत्व की होगी !
पहाड़ों के बीच जेल खड़ी करने का काम मुश्किल तो था लेकिन असंभव तो नहीं. जेल बनाने के लिए पत्थर, सीमेंट, लोहे, लकड़ी की ज़रुरत है और इस क्षेत्र में दूर-दूर तक भी वह उपलब्ध नहीं तो बाहर से, कहीं से भी ढो कर लाया जा सकता था. सामान यहाँ तक ढो कर लाने का कोई उपाय नहीं तो पहाड़ों को चीर-चीर कर सड़क बिछाई जा सकती थी. सड़क से सामान ढो कर लाने में कठिनाई हो रही हो तो पहाड़ का पेट फाड़ कर सुरंग बनाई जा सकती थी और रेल की पटरी बिछाने के लिए अनुभवी, दक्ष और निपुण इंजीनियरों को वर्षों तक काम में लगाया जा सकता था… कैसे भी हो, जेल बननी ही चाहिए. ऐसी जेल सिर्फ जेल नहीं, एक विलक्षण उद्दम होगा ! अपनी सत्ता, अपने सामर्थ्य का ऐसा स्मारक जो अजेय प्रकृति को भी अपने सामने झुकने को मजबूर कर दे.
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दग्शाई और उसके आसपास छितरे गाँव तब पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह की सम्पति थे. अंग्रेजों ने यहाँ छावनी बनाने के लिए महाराजा भूपिंदर सिंह से पांच गाँव खरीदे जिनके नाम थे- डब्बी, बध्तिआल, चुनावड़, जवाग और दग्शाई. ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1847 में यहाँ छावनी बनाई और उसका नाम दग्शाई गाँव के नाम पर रखा. माल ढो कर लाने के लिए तभी रेल लाइन भी बिछाई गई और कुमारहट्टी-दग्शाई रेलवे स्टेशन बनाया गया. जेल के निर्माण का काम लार्ड नेपियर के मार्गदर्शन और देखरेख में शुरू हुआ. जेल जैसी मजबूत इमारतें बनाने के लिए तब क्ले मोर्टर या पॉटरी सीमेंट का इस्तेमाल किया जाता था. ग्राइंडर से पत्थर पीस कर उसमें महीन मिट्टी और अन्य सामग्री मिला कर क्ले मोर्टर तैयार किया जाता.
यह जेल भी पत्थरों की ऊंची दीवारों की धेराबंदी के बीच अंग्रेजी के ‘टी’ आकार में, क्ले मोर्टर से बनाई गई. सागौन की लकड़ी के बीच ठोंकी गई लोहे की छड़ों से बने मजबूत फाटक, लकड़ी का बना फर्श और बीस फुट ऊंची छत. जेल के भीतर कुल 54 कोठरियां बनाई गईं जिनके दरवाजे लोहे की ठोस चादरों के थे. उन्हें तोड़ा या काटा जाना नामुमकिन था. हर कोठरी में हवा और रौशनी के लिए सिर्फ एक रोशनदान था- बमुश्किल एक फुट का. रोशनदान भूमिगत पाइपलाइन से जुड़े थे और हवा या रौशनी उस पाइपलाइन के जरिए ही रोशनदानों तक पहुँच सकती थी. खतरनाक कैदियों को कैद तन्हाई में रखने के लिए विशेष रूप से 16 कोठरियां बनाई गईं, जिनमें रोशनदान भी नहीं था. मुख्य फाटक के ठीक ऊपर एक चौखटे में लटका था ‘बेल ऑफ़ एक्सिक्युशन’! दो साल में ही, जेल बन कर तैयार हो गई. पहाड़ों के बीच में किसी विशाल, पथरीले, बदनुमा गूमड़ की तरह उभरी हुई दग्शाई जेल. गर्वीली प्रकृति के ठीक माथे पर गोद दिया गया ऐसा गहरा निशान, जिसका दाग दूर-दूर से दिखाई दे- इस जगह के मूल नाम को सार्थक करता हुआ !
प्राकृतिक दृश्यावली के बीच उद्दंडता से सिर उठाए खड़ा जेल की इमारत का यह ढांचा, जैसे बड़ी बेहयाई से दावा करता था कि आसपास का गहरे सुकून से भर देने वाला मंज़र अवांछित और बेतुका है. इंसान उसके आकर्षण में बंध कर हाथ पर हाथ धरे बैठा नहीं रह सकता. इस परिदृश्य के बिलकुल विपरीत उसे कुछ और चाहिए, कुछ ऐसा कि उसका डंका चारों दिशाओं में गूंजे. जो उसके नियन्त्रण में हो, जो उसकी सत्ता, उसके प्रभुत्व को स्थापित करे और जो भी खिलाफत में खड़ा होने का ख्याल लाए उसे इस कदर प्रताड़ित करे कि देखने-सुनने वालों की रूह काँप उठे. इस बर्बर प्रवृति को साबित करने के लिए सब कुछ किया भी गया.
1857 के सिपाही विद्रोह में नसिरी रेजिमेंट के बंदी बनाए गए गोरखा सैनिकों को यहाँ लाकर जेल की काल कोठरियों में ठूंस दिया गया. इन कोठरियों के अंधेरों में कामागाटा- मारू जहाज के क्रांतिकारियों को भी कैद करके रखा गया और उनमें से चार को इसी जेल में फांसी पर लटकाया गया. 1920 में अपनी मातृभूमि की आज़ादी के लिए चल रहे आन्दोलन के समर्थन में जिन आयरिश कैथोलिक सैनिकों ने बगावत की, उन्हें भी ढो कर यहीं लाया गया. लोहे के दरवाज़ों के पीछे ढंकी भुतैली कोठरियों में उन्हें बरसों तक रखा गया. बाद में कुछ को फांसी पर लटका दिया और कुछ फायरिंग स्क्वाड का निशाना बनाए गए.
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परिसर के बरामदे से होता हुआ मैं बाहर जाने को था कि वहां रखे एक बड़े गोल पत्थर को देख कर रुक गया. वह क्ले मोर्टर ग्राइंडर था. परिसर में बीते समय के कई और नक्श भी मौजूद थे. स्कॉटलैंड से लाया गया एक फायर हाईड्रैट अभी भी गड़ा था जिस पर ग्लेनफील्ड कंपनी की प्लेट चिपकी थी. एक कोने में आग की धौंकनी रखी थी जिसे बर्मिंघम से लाया गया था. गैस के सिलंडर और तोपों के गोले भी थे. वहीँ, बरामदे के दूसरी तरफ, पीली बदनुमा दीवारों से घिरा वह स्थल था जहाँ आयरिश विद्रोहियों के नेता जेम्स डॉली को फायरिंग स्क्वाड ने गोलियों से भून डाला था.
बरामदा पार करके मैं उस स्थल पर आ खड़ा हुआ. वहां बरगद का एक पुराना पेड़ था जिसकी छाया में पीली बदनुमा दीवारें बड़ी बीमार और घिनौनी लग रही थीं. उनसे अजीब सी गंध उठ रही थी. दीवारों के बीच खड़े मुझे लगा जैसे फायरिंग स्क्वाड के घेरे में खड़ा हूँ और दनादन छूटती गोलियां की आवाज़ हर तरफ गूँज रही है. दीवार के पास एक के बाद एक, पट-पट लाशें गिर रही हैं और जमीन पर हर तरफ खून बह रहा है. कितनी त्वरित और अचूक कार्यवाही थी यह कि कुछ पल पहले ही जो जिंदा इंसान कतार में घुटने टिकाए बैठे थे, अब मलवे की तरह खून के तालाब में इधर-उधर लुड़के पड़े हैं.
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‘फायरिंग स्क्वाड’ के रूप में कितनी बढ़िया मानव मशीन ईजाद की थी शासकों ने! हर तरह के राग, भाव, संवेग, आवेग से रहित वह एक मशीन ही थी. एकाकी कृत्य को सामूहिक कृत्य का रूप दे देने वाली मशीन. स्क्वाड में शामिल हर बंदूकधारी निशाने पर गोली चलाते हुए अकेला होते हुए भी अकेला नहीं होता था. क्योंकि अपने सामने खड़े एक जिंदा इंसान पर गोली चलाते हुए वह अकेला नहीं होता था, इसलिए इस कृत्य को लेकर उसमें कोई अपराधबोध भी नहीं उपजता था. इस तरह स्क्वाड का कोई भी व्यक्ति निजी तौर पर न खुद को दोषी पाता था न उसे अपनी अंतरात्मा की प्रताड़ना का सामना करना पड़ता, न ही मृत का भूत सिर पर डोलता. वे सब सिर्फ आदेश का पालन कर रहे होते थे, राजभक्ति निभा रहे होते थे. इस साझी कार्यवाही का तरीका भी ऐसा था कि सारा मामला तुरंत रफा-दफा हो जाता था. गोली हमेशा छाती में दिल पर या सिर पर मारी जाती जिससे व्यक्ति क्षण भर में ही लुड़क जाता. गोलियां एक साथ दनादन छूटतीं और कौन, किसकी गोली से मरा– यह तय नहीं किया जा सकता था.
ऐसी हत्याओं को कर्तव्य निभाने का अलौकिक रंग भी दिया जाता. फायरिंग स्क्वाड यह काम सूर्योदय के समय, सुबह की पहली किरण के साथ सरंजाम देती- किसी पवित्र कार्य की तरह. इसका अर्थ होता था कि यह कार्यवाही मनुष्य मात्र की भलाई, मनुष्यता के उत्थान के लिए की जा रही है और उन अड़चनों को रास्ते से हटाया जा रहा है जो इस नेक काम में बाधक बन रही हैं.
गोरखा विद्रोही सैनिक हों या कामागाटा-मारू के क्रांतिकारी या आयरिश विद्रोही– दिग्शाई जेल में उन सब को इसीलिए फांसी पर लटका दिया गया था या गोलियों से छलनी कर दिया गया था या बरसों तक अँधेरी कोठरियों की दीवारों के बीच रहते-रहते वे खुद ही किसी दीवार में बदल कर रह गए थे. प्रकृति की सत्ता को चुनौती देते हुए दिग्शाई जेल ने अपनी सत्ता का आतंक कायम कर दिया था. पहाड़, परिंदे, प्राणी, दरख्त, हवाएं…सब उस आतंक की काली छाया से ग्रसित थे. लेकिन हर सत्ता की तरह इस सत्ता का अहंकार भी टूटना ही था. समय की करवट के साथ उसने भी एक दिन धराशाई होना ही था. सिर्फ अवशेष बचे रह जाने थे. सत्ता की क्रूरता की प्रतीक दिग्शाई जेल का भी अंततः यही हश्र हुआ था. आज़ादी के बाद बरसों तक वह मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस का गोदाम बनी रही. धीरे-धीरे लोगों ने उसके अस्तित्व को ही भुला दिया. वह सिर्फ उन स्थानीय लोगों की स्मृति में बची थी जो भुलाई जा चुकी दुनिया पर टकटकी लगाए बैठे रहते थे.
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लेकिन उन अंग्रेज़ अधिकारियों का क्या हुआ जो क्रूरता और आतंक की इस संरचना को कायम किए हुए थे? और वे सैनिक जो बंदूकें लिए इस भुतैली इमारत में निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य का वहन करते थे, उनका क्या हुआ? क्या उनकी भी वही गति हुई जो इस जेल की नियति थी या इंग्लैंड लौट कर वे किसी अन्य जेल में ‘बेल ऑफ़ एक्सिक्युशन’ का गायन आयोजित करने लगे थे ?
जेल के परिसर से बाहर निकल कर मैं दोराहे पर खड़ा था. ऊपर की ओर जाती सड़क सीधी कस्बे की ओर निकलती थी, बाईं ओर का टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता घाटी के साथ-साथ चलता दूर तक निकल गया था. मैं उसी रास्ते पर आगे बढ़ा. कुछ देर पहले बूंदाबांदी हुई थी और चीड़ के नहाए-धोए लग रहे पेड़ों की फुनगियों पर अटकी बूँदें हर तरफ फैले झुटपुटे के बीच दमक रही थीं. रास्ते के किनारों पर उगी लंबी घास के नुकीले पत्ते भी अपने पोरों पर अटकी बूदें लिए हौले-हौले हिल रहे थे. लगभग दो अढ़ाई फर्लांग चलने के बाद नीचे उतरती एक पगडंडी दिखाई दी. फिसलने से बचने के लिए पगडंडी पर पैर जमाता हुआ मैं नीचे उतरने लगा. पगडंडी से उतर कर समतल जगह तक पहुंचा तो सामने कुछ ही दूरी पर कब्रिस्तान का फाटक दिखाई दिया. मैं फाटक तक पहुंचा तो उसकी जंग लगी सलाखों के पार कई टूटी-फूटी कब्रें दिखाई दीं. कुछ कब्रें मिट्टी में धसक चुकी थीं और उनके इर्द-गिर्द झाड़-झंखाड़ उग आए थे. यह उन अंग्रेज़ अधिकारियों की कब्रें थीं जो दग्शाई जेल में तैनात थे, जो कैदियों को प्रताड़नाएं देते थे, जिनके आदेशों से दनादन गोलियां चलने लगती थीं और जेल का परिसर थर्रा उठता था. अब वे सीमेंट की भारी चादरें ओढ़े चुपचाप लेटे हुए थे. लेटे-लेटे मिट्टी हो चुके थे. कब्र का ही हिस्सा बन चुके थे.
बदरंग कब्रें मानो सो रही थीं. इतनी गहरी नींद में और इतनी निश्चल कि उनके ऊपर काई की मोटी परतें जम चुकी थीं. कब्रगाह के सुरक्षित परकोटे में कई दशकों तक इसी तरह से सोते-सोते वे जगह-जगह से भुर गई थीं और कुछ के पत्थर खिसक चुके थे, सिरहाने गड़े सलीब खंडित हो चुके थे, फिर भी उनकी नींद नहीं टूटी थी. हर तरफ सन्नाटा पसरा था, जो न गहरा था न उथला लेकिन जिसमें सब कुछ घुल कर विलीन हो चुका था और बाकी सिर्फ रिक्तता बची थी. आसपास की आर्द्र, बोझिल हरियाली, हवा की धीमी सर्र-सर्र, इधर-उधर के कोनों से निरंतर उठ रही ऐसी आवाज़ जिसे चिन्हित कर पाना मुश्किल था और नीचे दूर तक पसरी घाटी में से धुंए की तरह बल खाते उभरते कुछ स्वर… वे सब उस रिक्तता को और भी घनीभूत कर रहे थे.
कुछ देर तक उस रिक्तता के बीच मैं बिना हिले-डुले खड़ा रहा, फिर दो-तीन कदम आगे बढ़ा तो झाड़-झंखाड़ में से मेमोरियल स्टोन झांकते दिखाई दिए, मानो मेरी पदचाप सुनकर उन्होंने अभी-अभी सिर उठाया हो. कब्रों और सफेद-मटमैले मेमोरियल स्टोन्स पर उन यशस्वी अधिकारियों के नाम उकेरे हुए थे मानो अभी भी अपनी मौत को स्वीकार न कर पा रहे हों, अभी भी अपने गौरवशाली नाम की पताका फहराते रहना चाहते हों. जिस्म चाहे मिट्टी हो गया हो, नाम बचा रहना चाहिए– आने वाली पीढ़ियों के लिए. उन नामों से ही तो इतिहास निर्मित होना था, यशोगान गाये जाने थे, उपलब्धियों की गाथाएँ रची जानी थीं. लेकिन वक्त के थपेड़ों और बदलते मौसमों ने उन नामों को भी धुंधला कर दिया था. पत्थरों पर खुदे होने के बावजूद वे मिटते जा रहे थे. मैं उन खंडित, कटे-फटे नामों और इबारतों को पढ़ने की कोशिश करने लगा.
उन सोई हुई कब्रों के नीचे एक पूरा युग दबा पड़ा था. किसी भूखे, अकुलाते दैत्य की तरह जीभ बाहर लटकाए हुंकार भरता हुआ, एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ तक धम-धम करता घूमता हुआ, अपने पैरों के नीचे त्राहि-त्राहि करते अनगिनत लोगों को कुचलता हुआ, रक्त की नदियों में छपाक-छपाक भागता हुआ. यहाँ सोई हुई हर कब्र पर उस युग के चिन्ह अंकित थे, हर कब्र का एक इतिहास था. कब्रों के बीच बने रास्ते पर चलते हुए मैं उस युग को कसमसाते, ऐंठते हुए महसूस कर सकता था जो इतनी जल्दी कब्रिस्तान की हदबंदी में समाना नहीं चाहता था. यहाँ की मिट्टी के नीचे दब कर चुप नहीं होना चाहता था. उसे अफ़सोस था कि अपना पराक्रम दिखाने के लिए उसे इतनी ही मोहलत मिल पायी !
कब्रों की उस नुमाइश में मैं जेम्स डॉली की कब्र ढूँढने लगा. जेम्स डॉली की उम्र उस समय केवल 21 बरस की थी जब दिग्शाई जेल में फायरिंग स्क्वाड ने उसे गोलियों से छलनी कर दिया था. उसे इसी कब्रिस्तान में दफनाया गया था. इबारतों को पढ़ते हुए मेरी नज़र उसका नाम खोजने लगी लेकिन बहुत तलाश करने के बाद भी ऐसी कोई कब्र मुझे वहां नहीं मिली.
यह मुझे बाद में पता चला कि जेम्स को यहाँ दफनाया ज़रूर गया था लेकिन आज़ादी के तीन दशकों बाद, सन 1975 के आसपास उसके परिजनों की अगली पीढ़ी में से कोई जेम्स के अवशेषों को यहाँ से निकाल कर आयरलैंड ले गया था. वहां, उसके वतन की मिट्टी में उसे सम्मान सहित दफ़न किया गया.
सुरेंद्र मनन चर्चित कथाकार और ‘बहस’ पत्रिका के संपादक रहे सुरेंद्र मनन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित फ़िल्मकार हैं. ‘उठो लच्छमीनारायण’(कहानी संग्रह), ‘सीढ़ी’(उपन्यास), ‘साहित्य और क्रांति’(लू-शुन के लेखन पर केन्द्रित), ‘अहमद अल-हलो, कहाँ हो?’ और ‘हिल्लोल’(संस्मरण) उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं. उन्होंने विविध सामयिक विषयों पर महत्वपूर्ण फ़िल्में बनाई हैं जिन्हें भारत में आयोजित विभिन्न फिल्म समारोहों के अतिरिक्त एशिया, अफ्रीका और यूरोप के अनेक देशों के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित किया जा चुका है. ‘इंडियन डाक्यूमेंट्री प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन’ द्वारा ‘गोल्ड अवार्ड’ और ‘सिल्वर अवार्ड’ से सम्मानित किये जाने के अतिरिक्त उन्हें ‘रोड्स अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव’, ग्रीस का विशेष जूरी अवार्ड, ‘सी.एम.एस.वातावरण अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह’ का ‘वाटर फॉर ऑल’ और ‘वाटर फॉर लाइफ’ अवार्ड, ‘स्क्रिप्ट इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ का विशेष जूरी अवार्ड भी प्राप्त हो चुके हैं. |
पढ़कर सभ्यता की एक और दारुण असभ्यता का संज्ञान हुआ।
यह विचलित करनेवाला आख्यान है।
हिला दिया ,मानव की अमानवीय के इस आख्यान ने
हम कितने बर्बर हिंसक परपीडक रहे हैं इसे सुरेंद्र मेनन की ये कृति इतिहास के छुपे अध्यायो को खोलती हुई हमारे भीतर समाये विद्रूप को जग जाहिर करती है ।बताती है कि फायरिंग स्क्वाड इजाद की पृष्ठ भूमि क्या रही होगी । किस मानसिकता के तहत उन्हें बनाया होगा।
लेखक को कोटिश साधुवाद !
एक अल्पज्ञात पहलू को हमारे सामने उजागर करने के लिए ।
महाराज भूपेंद्र सिंह को अब मैं पटियाला पेग के अलावा किसी और बात के लिए भी जानूंगा।
ऐसे प्रकाशित आलेख पाठक को समालोचन का प्रशंसक बना देते है।
साधुवाद।
आदरणीय अरुण जी आप प्रशंसा के पात्र हैं
समालोचन के लिए इतनी अच्छी रचना के चयन के लिए।
समय मुझसे मुक्त हो चुका होगा । लेकिन मैं मुक्त नहीं हो सका । यह क़िस्सा भयावह है । इसकी भयानक तत्व मेरे शरीर के अस्थिपंजर और मज्जा को छलनी कर गया है । दिग्शाई जेल का मैं भी गुज़र चुका प्राणी हूँ । मेरा बदन वहाँ दफ़्न हो गया था । दफ़नायी गयी क़ब्रों में मैं ख़ुद अपने को ढूँढने निकला हूँ । मेरी आत्मा वहाँ भटकती है । मैं दो फ़ीट दायें-बायें और आगे-पीछे की ऊँची छत वाली कोठरी में क़ैद हूँ । एक अदद रोशनदान है । यह छलावा मात्र है । मैं कल्पना नहीं कर सकता कि खुले मैदान से भूमिगत पाइप के सहारे रोशनदान में से रोशनी आती है । रजनीश ने अपने व्याख्यान में कहा था-जर्मनी के चित्रकार, नृत्यकार, पीछे आत्महत्या करके मरा । निजिंस्की Vaslav Nijinsky उसका नाम था । और जब उसने आत्महत्या की और उसके घर की जाँच-पड़ताल हुई तो जो लोग भी उसके घर गये थे वे दस-पंद्रह मिनिट के बाद बाहर आ जायें और उन्होंने कहा कि उसके घर में जाना ठीक नहीं है । वहाँ कोई भी आदमी इतने दिन रुक जाये तो आत्महत्या कर लेगा । बड़ी अजीब सी बात थी । उस घर के भीतर क्या होगा ? Nijinsky ने एक-एक दीवार को इस तरह से चित्रित किया था-सिर्फ़ दो ही रंगों का उपयोग करता था वह आख़िरी दो साल में-लाल सुर्ख़ और काला । बस दो ही रंगों का उपयोग करता था । एक-एक दीवार, फ़र्श, छत, सब पुती हुई थीं-काला और लाल । दो साल वह यही काम कर रहा था उधर भीतर । पागल हो गया था, आश्चर्य नहीं ! और अगर आत्महत्या कर ली तो आश्चर्य नहीं है । जिन लोगों ने उस मकान को देखा, बाद में उन सभी लोगों ने कहा कि उस मकान के भीतर दो साल कोई भी रह जाये तो पागल होकर रहेगा । और आत्महत्या, दो साल तक बच भी जाये करने से, यह काफ़ी मालूम पड़ता है । Nijinsky अद्भुत हिम्मत का आदमी रहा होगा । सारा का सारा वातावरण पूरा का पूरा अराजक कि उसका कोई हिसाब नहीं ।
रजनीश ने अपने व्याख्यान में कहा था कि जर्मनी का एक चित्रकार, नृत्यकार, पीछे आत्महत्या करके मरा । निजिंस्की Vaslav Nijinsky उसका नाम था । और जब उसने आत्महत्या की और उसके घर की जाँच-पड़ताल हुई तो जो लोग उसके घर गये वे दस-पंद्रह मिनट के बाद बाहर आ जायें और उन्होंने कहा कि उसके घर जाना ठीक नहीं है । वहाँ कोई भी आदमी इतने दिन रुक जाये तो आत्महत्या कर लेगा । बड़ी अजीब सी बात थी । उसके भीतर क्या होगा ? Nijinsky ने एक-एक दीवार को इस तरह चित्रित किया था-सिर्फ़ दो ही रंगों का उपयोग करता था वह अपने आख़िरी दो साल में-लाल सुर्ख़ और काला । बस दो ही रंगों का उपयोग करता था । एक-एक दीवार, फ़र्श, छत, सब पुती हुई थीं-काला और लाल । दो साल वह यही काम कर रहा था उधर भीतर । पागल हो गया था, आश्चर्य नहीं है । और अगर आत्महत्या कर ली तो आश्चर्य नहीं है । जिन लोगों ने उस उसके मकान को देखा, बाद में उन सभी लोगों ने कहा कि उस मकान के भीतर दो साल कोई भी रह जाये तो पागल होकर रहेगा । और आत्महत्या, दो साल तक भी बच जाये करने से, यह भी काफ़ी मालूम पड़ता है । Nijinsky अद्भुत हिम्मत का आदमी रहा होगा । सारा का सारा वातावरण पूरा का पूरा इतना अराजक कि जिसका कोई हिसाब नहीं ।
यह एक विरल चीज़ है— न संस्मरण, न यात्रा का वृत्तांत, न कथा, न रिपोर्ताज, न केवल इतिहास! विधाओं के बने-बनाए फ़र्मे को तोड़-फोड़कर यहाँ कुछ अपूर्व-सा घट गया है.
यह मनुष्यता के पक्ष में झुकी प्रार्थनारत संवेदनाओं, नीले अम्बर और पहाड़ों की डरावनी नीरवता में स्मृतियों का बोझ उठाए भटकती हवाओं का दस्तावेज़ है. कथा और विचार का असंभव फ़्यूजन!
भाई खून सुखा देनेवाली यह तस्वीर है।पहले लगा कि यह किसी सर्वसत्तावादी देश की जेल का चित्र है।फिर पता चला यह भारत के एक सुरम्य स्थल में बनी एक जेल है,जिसे अंग्रेजों ने बनाया था।जिसे पढ़कर रूह काँप जाती है,उसे देखना,उसके इतिहास में झाँकने की यातना कितनी भयानक रही होगी।
क्या कमाल करता है ये मेरा यार। लिखता नहीं है लिखे हुए में डूब जाता है पढ़ने वाले को साथ में लेकर। प्रताड़ना देने वाली कितनी दुर्दांत जगह को खोजा है सुरम्यता के भीतर। लेखक संपादक दोनों को सलाम इस खोज के लिए।
सुरेन्द्र मनन के अन्य वृत्तांतों की तरह यह भी विचलित कर देने वाला स्मरण है। अहमद अल हलो, कहां हो और वियतनाम रहस्यमयी सुरंगों की दास्तान की तरह एक और अविस्मरणीय संस्मरण। सुरेन्द्र मनन को ऐसे विरल लेखन के लिए हमेशा स्मरण किया जाता रहेगा।