पानी जैसा देस
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विनय कुमार की सुपरिचित कृति ‘यक्षिणी’ की तरह इस संग्रह की कविताएं भी एक ही विषय पर कई कोणों से दृष्टिपात करती हैं. विषय है- पानी. संग्रह को खंडों में बांटा गया है. प्रत्येक खंड के आरंभ में एक दोहा है. यह विभाजन ‘थीमैटिक’ कम और एकरसता भंग करने का कलात्मक उपादान अधिक प्रतीत होता है.
नांदी पाठ
यह पहली कविता है, संस्कृत नाटकों के नान्दी की तरह. परंतु नांदी की तरह इसमें स्तुति या मंगलाचरण नहीं है. इसे प्रस्तावना समझा जाए. मेरा अनुमान है कि यह कवि की काव्यदृष्टि का परिचय देती है. कवि एक पूरे रूमानी दृश्य की कल्पना करता है. कार्तिक पूर्णिमा का उज्ज्वल चंद्रमा आकाश में है. नीचे चांदी-सा चमकता सरोवर का जल है. तारे स्वच्छ गगन में कुछ नीचे तक उतर आये लगते हैं. बादल का एक छोटा टुकड़ा चांद के सामने प्रकट होता है. हवा उसे बहा ले जाती है. नीचे से देखने पर लगता है जैसे हवा चांद-तारों को बादल से निकाल लाई.

तभी (संभवत: ) राधा-कृष्ण-युगल के दृश्य में प्रवेश करने की कल्पना की गई है– “रात और चांदनी से बनी दो परछाइयाँ … उतरीं सरोवर के सोये हुए जल पर”. उसके बाद शीरीं-फरहाद जैसे चार प्रेमियों के जोड़े सरोवर की अलग-अलग दिशाओं में बनी संगमरमर की सीढ़ियों पर छायाओं की शक्ल में प्रकट होते हैं. अंत में उत्प्रेक्षा है कि लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम की ही छाया है.
अपने-आप में यह पहेलीनुमा कविता किसको कितनी रुचेगी कह नहीं सकता, पर संग्रह की दृष्टि से इसका महत्त्व है. मेरा अनुमान है कि सरोवर कविता का रूपक है. प्रेम (या रूमान), सौंदर्य, कल्पना आदि कविता के प्रमुख उपादानों के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं. दूसरे शब्दों में, कवि विनय कुमार की काव्य-दृष्टि वैसी नहीं लगती जिसे यथार्थवादी कहा जाता है. हिन्दी के चालू फैशन के मुताबिक उनको रूपवादी कहा जायेगा. मैं पुरानी चाल की शब्दावली में सौंदर्यवादी कहूंगा. यह निष्कर्ष संग्रह की अधिकतर कविताओं के विषय में सत्य है, परंतु कविता मैं एक अलग देस का वासी हूँ में कवि-वाचक स्पष्ट रूप से कहता है कि मैं इतिहास और कला के रोमांस के प्रति आकर्षण के बावजूद मानव के दुखों-कष्टों से अधिक बंधा हूं. अतएव इस विषय में मताग्रही होना आवश्यक नहीं है.
जल की चेतन सत्ता
यह विश्वास शायद बहुत पुराना है कि जल में चेतना होती है. विशेषत: जल की स्मृति के बारे में एक विश्वास रहा है. जापानी लेखक मासारू इमोटो ने कुछ वर्षों पूर्व ही ‘वैज्ञानिक’ परीक्षण के आधार पर दावा किया था कि जल के ऊपर अच्छी-बुरी घटनाओं का अलग- प्रभाव पड़ता है और वे उसकी स्मृति में चिरकाल के लिए अंकित हो जाती हैं . श्री सद्गुरु आज भी जल की स्मरण-शक्ति की बात करते हैं. इन धारणाओं की वैज्ञानिकता संदिग्ध है, पर कवि की कल्पना के लिए ये उर्वर भूमि का निर्माण करती हैं. जल की चेतना की थीम इन कविताओं में बार-बार आई है. दो उदाहरण:
कथाकाय मंदिर के परिसर में
कज्जल कहन वाली कविताओं से भरा
एक प्रच्छन्न सरोवर भी है
यह जानने में समय लगता है
(मंदिर-1, पृ 46)
(कथाकाय बनाया हुआ शब्द है– कथाओं में वर्णित मंदिरों या अन्य भवनों की तरह असंभव रूप से बड़ा. कज्जल जल को ढंककर सैकड़ों वर्षों से पड़ी काई को अथवा काले पड़ गये पानी को कहा होगा. कविताएं उस स्थान के इतिहास का रूपक हैं– युद्ध, प्रेम, उत्सव, अकाल आदि सभी घटनाएं. यह सब कुछ पानी को याद है.)
यह समुद्र है मेरे हृदय
बहुत जल है इसमें बहुत सारे जीव
बहुत विक्षोभ और बहुत सारे आख्यान
अपने ही बयान और गान
हास और अट्टहास क्रंदन और हाहाकार से भरे रहते
उस अधीर के कान
दुख भी कम नहीं इसके
कि इसका जल तुम्हारे आंसुओं से अधिक खारा है
(यहां समुद्र को आदमी की दुनिया के समानांतर एक दूसरी जीती-जागती दुनिया के रूप में चित्रित किया गया है जिसके अपने सुख-दुख, अपने संघर्ष हैं. समुद्र को एक जीवित सत्ता के रूप में चित्रित किया गया है जिस पर इसके भीतर घटने वाले सारे विवर्तनों का न केवल प्रभाव पड़ता है बल्कि उनके आख्यान भी उसकी स्मृति में संचित रहते हैं.)
इतिहास-रस
इतिहास-रस मेरा शब्द नहीं है, रवीन्द्रनाथ से उधार लिया है. इस संग्रह की अच्छी कविताओं में कई इतिहास-रस की कविताएं हैं. राम, कृष्ण, सिंधु घाटी, वैशाली, बुद्ध, सहज यान, कुलधरा आदि को लेकर अपेक्षाकृत लम्बी और सुंदर कविताएं लिखी गई हैं. इनमें जल का ‘मोटिफ’ प्रकट तो होता है पर कभी अनुषंग, कभी रूपक और कभी अप्रधान रूप में. इनमें लगभग छह पृष्ठों की कविता अभिषेक पुष्करिणी उल्लेखनीय है. राहुल सांकृत्यायन की कहानी बन्धुल मल्ल के एक अंश में कल्पना का सम्मिश्रण करके उसमें एक प्रेमकथा को गुम्फित किया गया है. मेरी अपनी पसंद यह छोटी कविता है:
सहज तलैया की भैरवी: 2
तुम्हीं ने कहा था
सात तारे सिर पर आ जाएं तब आना
कुटी के पिछवाड़े रखे जल से मज्जन कर
पांच बार चूड़ियां बजाना
अब तो पचीस हो चुकीं योगी
अब तो खोल दो बांस का ढोका
कम्बल की तरह काली यह रात
कम्बल नहीं है जी
ऊपर से मैं एकवस्त्रा और पूस महाराज नंगे
मृत्यु को इस बात से क्या मतलब
कि मैं बुद्ध और धम्म और संघ की शरण में आई हूँ
लेकिन यह महक कैसी
जोगी क्या तू भी मेरे पुरुष की तरह गंजेड़ी है?
(सहजयान में भैरवी का बड़ा महत्त्व था. साधारणत: ये निम्न वर्गों की स्त्रियां होती थीं. यह भैरवी भी ऐसे ही गरीब तबके से आती है. पूस की आधी रात को केवल एक धोती में आई है. जानलेवा ठंड है. परंतु यह भैरवी अलग है, उसमें अनास्था का बीज है. आरंभ से ही एक संशयी, सहजबुद्धिसम्पन्न और परिहासशील महिला का चित्र सावधानी के साथ गढ़ा गया है. वह आ तो गई है पर झांसे में नहीं. जब उसे गांजे की गंध मिलती है तो वह एक ‘एपिफनी’ के रूबरू होती है– अरे! यह पुरुष तो उससे भिन्न नहीं है जो घर में मेरे पति की शक्ल में बैठा है! कैसी साधना और कैसा बुद्ध और धर्म की शरण में जाना!!)
सौंदर्य और प्रेम
सौंदर्य की कविताओं में प्रकृति प्रधान विषय है. ग्रंथ के दूसरे खंड में प्रकृति के सौंदर्य की बहुत-सी सुंदर कविताएं हैं. पूरे संग्रह में प्रेम कविताएं तीन-चार ही हैं. सौंदर्य का काव्यशास्त्रीय अर्थ ग्रहण करें तो कवि मूलत: सौंदर्यवादी (ईस्थीट) है. इस संग्रह की अनेक कविताएं विचारों पर केंद्रित हैं. वहां भी कवि सोद्देश्यता के बजाय औदात्त्य पर बल देता है. उदाहरण के लिए कविता हत्याकांड की ये पंक्तियां देखें-
प्रकृति के यहां कोई ईश्वर नहीं
न यमराज न चित्रगुप्त न उनका खाता
वह हममें से किसी के नाम नहीं जानती
मगर जानती सबको है
एक-एक पत्ते एक-एक तिनके
ओस और आंसू की एक-एक बूंद का हिसाब है उसके पास
और सरोवर तो उसकी छाती का पय
…एक-एक बूंद वसूल करेगी वह
(यहां मनुष्य जाति को चेतावनी दी जा रही है, परंतु यह चेतावनी किसी वास्तविक भय के बजाय एक अदृश्य और उदात्त सत्ता के कल्पित प्रतिशोध के भय को लेकर दी जा रही है. ये पंक्तियां पाठक के अंदर भय का संचार करती हैं, परंतु इस भय का स्रोत यथार्थ न होकर एक कल्पना है.)
‘सौंदर्यवादी’ शब्द का नकारात्मक अर्थ ग्रहण करने की प्रवृत्ति हिन्दी में पिछले चार दशकों से दिखाई देती रही है. परंतु सौंदर्य का सृजन कालिदास से लेकर आधुनिक हिन्दी तक कविता का उद्देश्य रहा है. तभी वह नंदक बनती है अर्थात् पाठक को आनंद देती है. इसके विपरीत नेचुरलिजम और यथार्थवाद की कविता वास्तक की भूमि पर खड़ी होती है जो प्राय: कुरूप होता है. इनमें से कोई एक ढंग की कविता दूसरे ढंग की कविता से अच्छी होती है यह नहीं कहा जा सकता. अच्छी और बुरी कविता को अलग करने का मोटा आधार कथ्य और शिल्प की नव्यता और गहराई होता है, फिर कविता चाहे सौंदर्यवादी हो या यथार्थवादी. मेरा निष्कर्ष है कि विनय कुमार का झुकाव सौंदर्यवाद की तरफ है जिसके कारण विचार का औदात्त्य, भाव का उत्कर्ष और कल्पना-प्रवणता उनकी कविता में अधिक है. इनके विपरीतार्थक हैं बौद्धिकता, सपाटबयानी, ‘सिनिसिजम’, आक्रोश, व्यंग्य इत्यादि.
विनाश
विनाश का मतलब जल-स्रोतों का विनाश, विशेषत: जलाशयों का. यह विषय संग्रह की दूसरी कविता में ही प्रकट होता है और 14-15 कविताओं में फैला है. इनमें दो कुछ लम्बी कविताएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं : नैनी का टाल और हत्याकांड. एक छोटी कविता मारे गये से एक उद्धरण :
एक-एक करके सारे आहर सारे पोखर मारे गये
किसी को पुराने तालेवर ने मारा
किसी को नये मुखिया ने
और किसी को नये गुंडे ने
लंठई की लाठियां पइनों को भी पी गईं
अब गांव के खेत एक सरकारी नहर
और लोग किसी न किसी प्राइवेट शहर के भरोसे हैं
(आहर=सिंचाई के लिए बनाये जलाशय जिनका निर्माण खोदने के बजाय बांधों द्वारा पानी को रोककर किया जाता था, तालेवर=रईस, पइन= नहर-जैसा निर्माण जिसमें बरसाती नदियों का पानी बचाकर रखते थे. सरकारी नहर और प्राइवेट शहर में विरोधाभास के चमत्कार के अलावा व्यंग्य भी है. प्राइवेट शहर से जमशेदपुर, मोदीनगर जैसे औद्योगिक शहरों की ओर व्यंग्यात्मक संकेत है, परंतु पंक्ति का व्यापक अर्थ गांवों से औद्योगिक शहरों की ओर पलायन है.)
इस प्रकार की कविताओं में एक कटु और व्यंग्यपूर्ण कविता है सूखी और साफ नदी की तरफ. यह कविता और कविताओं से बहुत अलग है. “सूखी और साफ नदी” का व्यंग्यार्थ है सम्पूर्ण विनाश, जहां सब जलस्रोत सूख चुके हैं या दूषित हो चुके हैं और जीवन नामशेष है.
शिल्प आदि
मेरा ख्याल है कि बिहार के कवियों का शब्दभांडार सदा से विपुल रहा है. संस्कृत और उर्दू की पृष्ठभूमि के कारण विनयकुमार की भाषा विशेषत: समृद्ध है. बिम्ब और रूपक विनय कुमार की शैली में प्रमुख स्थान रखते हैं. ये दोनों कविता के पारम्परिक उपादान हैं, इसलिए मौलिकता या नव्यता की चुनौती बड़ी है. इस संग्रह की अच्छी कविताओं में बिम्ब कल्पना-सिद्ध हैं, जैसे :
भुजाएं मिट्टी से दबी हैं
कांक्रीट के खम्भे बदन के आर-पार
नालों में बहता तेजाब जलाता है
अपनी तरलता के बावजूद तड़पती है वह
और मगध को कोसते हुए
हौले-हौले सिच्छवि-तट से जा लगती है
(गंगा – 1)
कुछ मानवीकरण द्वारा और बहुत कुछ बिम्बोपादानों के चयन द्वारा पटना से दूर भाग जाने की कामना करती गंगा का चित्र अत्यंत प्रभावोत्पादक बना है. उत्कृष्ट रूपकों के उदाहरण के तौर पर मैं एक अलग देस का वासी हूं शीर्षक कविता से ये पंक्तियां प्रस्तुत हैं:
मैं एक अलग देस का वासी हूं
जहां सारे सरोवर प्यासे हैं
और कुछ के तटबंध इस कदर टूटे
कि एक बूंद नहीं टिकती
मेरी राह में नींद के लिए निहोरा करती आंखों की भीड़ है
अदृश्य तीरों से घायल परछाइयों का हुजूम
अपनी ही धड़कनों के शोर से फटे कान के परदे लिए चीखते लोगों से घिरा हूं मै
यह वयस्क नाखूनों की मार से लहूलुहान
बचपन की दुनिया है
यहां तेजाब से झुलसी और चाकू से गोदी गई अप्सराएं डोलती हैं
( विनय कुमार जी पेशे से मनश्चिकित्सक हैं. मेरे विचार से इन रूपकों में मनोरोगियों और कवि से उनकी भेंटों को चित्रित किया गया है. यह रूपक-विधान नि:संदेह प्रवीण है.)
परंतु कई कविताओं का कथ्य हलका या कभी-कभी अतिकाल्पनिक हो गया है. वहां शिल्प भी उथला है. उदाहरण के लिए कविता ‘जलयात्रा’ का विषय महत्त्वाकांक्षी है पर उसमें गहराई नहीं है. इस कविता में गंगा (वैदिक धर्म का रूपक) को छोड़कर किसी और नदी का रूपक ठीक से नहीं सध पाया. ऐसी और भी अनेक कविताएं हैं जिन्हें साधारण कहना पड़ेगा.
किताब का कवर कल्पनाशून्य है. छपाई के बारे में कुछ कह नहीं सकता, कौन जाने यही चलन हो. छोटी कविता को एक पृष्ठ के बीच से शुरू करके दूसरे पृष्ठ तक पहुँचा देना मुझे तो कागज की बरबादी लगता है.
एक कविता में इहागच्छ का ईहागच्छ छप गया है.
अनुशंसा
पानी जैसा देस महत्त्वपूर्ण कविता-संग्रह है. पठनीयता इसका सबसे बड़ा गुण है. मुझे विश्वास है कि सामान्य पाठकों के बीच यह लोकप्रिय होगा. इसकी 65 कविताओं में कम से कम 34 कविताएं उच्च कोटि की हैं. मेरी दृष्टि में यह ऊँचा प्रतिशत है.
यह संग्रह यहाँ से प्राप्त किया जा सकता है.
शिव किशोर तिवारी 5/31, विकास खंड,गोमती नगर, लखनऊ- 226010 |
कवि विनय कुमार के ‘पानी जैसा देश’ कविता संग्रह पर केंद्रित आदरणीय शिवकिशोर तिवारी जी का यह आलेख उनकी काव्यमर्मज्ञता का साक्ष्य है. हिंदी में कविता की आलोचना लिखनेवालों के लिए यह आलेख ख़ास तौर से पठनीय है.
पहली कविता की व्याख्या पढ़ते हुए शमशेर याद आए जिनकी एक रचना में जल को चाँदी की तरह निर्मल चित्रित किया गया है :
‘चाँदी के निर्मल जल में
कुछ असित मूर्तियाँ हिलतीं’
मार्क्स ने लिखा है कि मनुष्य जाने -अनजाने सौन्दर्य नियमों के तहत सृजन करता है.इसलिए कवि द्वारा कविता में सौन्दर्य पक्ष को दृष्टिपथ में रखना हमेशा श्रेयस्कर होता है.इससे कविता कोरी बयानबाजी या नारेबाजी बनकर रह जाने से बच जाती है.
कवि ज़ब जलाशयों के सूखने को लेकर चिंता करता है तब वह प्रकारान्तर से सभ्यता-समीक्षा की कविता रच रहा होता है. वजह यह कि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके जिस तरह नगरों और विशेष रूप से महानगरों को बसाया जा रहा है तथा नदियों को प्रदूषित करके कल कारखाने खड़े किए जाते रहे हैं उसका खामियाज़ा पचास साल बाद महानगर के वासी भुगतेंगे.
मायूसी फैलाना अनुचित है, पर संभव है कि वायु और जल प्रदूषण और जल स्रोतों का विनाश हमारी सभ्यता के विनाश का एक बड़ा कारण साबित हो.
विनय कुमार समेत तमाम कविगण भविष्य के इस संकट के प्रति समय समय पर नागरिकों को सावधान करते रहे हैं.
एक उद्धरण में आया ‘सिच्छवि-तट’ स्पष्ट नहीं हुआ. संभव है यह लिच्छवि हो.
बहरहाल कवि और आलोचक, दोनों को साधुवाद.
काव्य-संग्रह की समीक्षा साफ और सधी हुई है। समकालीन जीवन-यथार्थ से ये कितनी मुखातिब हैं,नहीं मालूम पर इनमें अगर जीवन का सौंदर्य पक्ष भी उपस्थित है,तो बहुत अधिक प्रासंगिक न होकर भी उसका एक अपना अलग मूल्य है।कवि विनय कुमार और समीक्षक को बधाई!
बहुत अच्छी समीक्षा है। ऐसी समीक्षाएँ अब दुर्लभ हो चुकी है।
शिवकिशोर जी ने केवल कविताओं की समीक्षा ही नहीं की है बल्कि “बिटवीन द लाइन्स” और उन कविताओं के “भावार्थों “तक को हम तक पहुँचाया है । एक बार में नहीं दो बार पढ़ने पर मुझे ऐसा लगा ।बहुत सूक्ष्म और बड़ी बातें कहीं है । बधाई कवि और शिवकिशोर तिवारी जी को । शानदार कविताओं और समीक्षा के लिए ।