पच्छूँ का घर
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चंद्रभूषण लिखित ‘पच्छूँ का घर’ को पुस्तक के कवर पर एक कार्यकर्ता की कहानी बताया गया है. पुस्तक का यह परिचय उस विनम्रता का जीता-जागता रूप है जो व्यक्ति के तौर पर चंद्रभूषण की शख्सियत का अहम हिस्सा लगता है. जैसे-जैसे आप पुस्तक में उतरते जाते हैं, अधिकाधिक साफ होता जाता है कि यह परिचय पुस्तक पर उतना ही लागू होता है जितना चंद्रभूषण के व्यक्तित्व पर विनम्रता का विशेषण. जो उन्हें जानते हैं, आपको बता सकते हैं कि यह विशेषण उनके व्यक्तित्व के सिर्फ एक पहलू को कुछ हद तक वर्णित करता है.
दिल्ली जैसे महानगर में एक बुद्धिजीवी जो उस दौर में रह रहा है जहां आत्मप्रशंसा और आत्मप्रचार को सरवाइवल की शर्त माना जाने लगा है और इसके बावजूद नेटवर्किंग की तिकड़मों से दूर सिर्फ अपने काम पर भरोसा किए चल रहा है. आप समझ सकते हैं कि वह न सिर्फ अपने काम की अहमियत समझता है बल्कि आत्मप्रचार से उपजी चमक की व्यर्थता से भी परिचित है. जाहिर है, ऐसा व्यक्ति सिर्फ उतना तो नहीं हो सकता जितना आपको इस महानगरीय जीवन में दिखता है. उसकी जड़ें दूर कहीं गहराई तक फैली हैं. वह वहां से पोषण ले रहा है, तभी तमाम प्रतिकूलताओं और निराशाओं के बीच भी मुरझाता नहीं, उसकी हरियाली कायम रहती है.
अपने सामाजिक और पारिवारिक जीवन की दुख-तकलीफों को जोड़कर उससे अमोघास्त्र बनाने वाली वैचारिक दृष्टि से लैस व्यक्तित्व ही ऐसा जीवन जी सकता है और उसी की लेखनी पाठकों को उस बीहड़ की यात्रा पर ले जाते हुए भी जंगल सफारी जैसा सुकून महसूस करा सकती है जिस यात्रा पर ‘जो घर जारै आपना चले हमारे साथ’ की शर्त पूरी करने वाले नौजवान एक जमाने में स्वर्ग को जमीन पर उतारने की तमन्ना दिल में लिए निकल पड़ते थे.
जाहिर है, ऐसा जीवन विनम्रता के उस बनावटी घेरे की कैद में सीमित नहीं रह सकता जिसकी अपेक्षा महानगरीय और खासकर मध्यवर्गीय मूल्यबोध करता है.
पुस्तक में जीवन की ये सारी परतें खुलती हैं, लेकिन धीरे-धीरे. यह शुरू होता है उस जगह से जहां भारत का एक गांव अपनी तमाम विडंबनाओं, दुख-तकलीफों, निराशाओं, दुष्टताओं के बीच उम्मीद की एक हलकी-सी धड़कन लिए जी रहा है. यहां आपको कोई कार्यकर्ता नहीं दिखता. यहां मिलता है एक बच्चा जो जिंदगी की लाई पहाड़ जैसी मुसीबतों के बीच ऐसे अपनी राह तलाशता है जैसे किसी नदी की कोई पतली सी धार चट्टानों, कंदराओं के बीच से निकलती और बढ़ती है. शुरू में कमजोर सी पतली यह धार समय के साथ गति और गहराई हासिल करती चलती है. लेकिन लेखक की दृष्टि का सामर्थ्य ही कहिए कि जिस हिस्से में कार्यकर्ता का कोई अता-पता नहीं है, उस हिस्से में वे सारे हालात हैं, अपनी पूरी सचाई के साथ, पूरी नग्नता के साथ हैं, जो कार्यकर्ता गढ़ते हैं. इन हालात का सजीव चित्रण साठ, सत्तर और अस्सी के दशक के भारत को लेकर, उस समय के गांवों, कस्बों, और स्कूल-कॉलेजों को लेकर पाठकों की समझ को समृद्ध करता है.
पुस्तक में कई ऐसे जिंदा किरदार मिलते हैं जिन्हें उस दौर के समाज के प्रतिनिधि किरदार के रूप में पहचाना जा सकता है. ऐसा ही एक किरदार शंकर बाबा का है जो लेखक के जन्म के कुछ समय बाद तक दुनिया के किसी कोने में मौजूद रहे, लेकिन उनसे कभी मुलाकात नहीं हो सकी. इसका कोई अफसोस लेखक को नहीं है. वह कहते हैं कि एक तरह से यह अच्छा रहा क्योंकि जनश्रुति के अनुसार आपसे मिलने के बाद वे कोई यादगार किस्म का नुकसान आपको पहुंचाए बगैर चले जाएं, यह संभव ही नहीं था. इन ‘नुकसानों’ या सीधे शब्दों में शंकर बाबा की ठगी के कई दिलचस्प विवरण पुस्तक में हैं, लेकिन एक खास प्रसंग की प्रस्तुति का लेखक का ढंग गौर करने लायक है, ‘शकर बाबा की ठगी का एक क्लासिक उदाहरण मुझे 2019 के आम चुनाव से जरा पहले राफेल युद्धक विमान प्रकरण में मोदी सरकार का बुनियादी तर्क सुनकर बड़ी शिद्दत से आया, ‘विमानों की कीमत किसी को नहीं बताई जा सकती क्योंकि पाकिस्तान और चीन को जैसे ही इसका पता चलेगा, राफेल के सारे तकनीकी पहलू उसकी पकड़ में आ जाएंगे और वे इससे बचाव की जवाबी तैयारियां शुरू कर देंगे.’
बहरहाल शंकर बाबा के किरदार को कुछ हद तक इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है. एक बार लेखक के दादा बसाऊ भैया पर किए गए अपने कटाक्ष का वैसा ही तीखा जवाब पाने के बाद शंकर बाबा वहां तो चुप रह गए, लेकिन उसके बाद जो भी उन्हें कहना था, उन्होंने किसी और ही तरीके से कहा. परिणाम यह हुआ कि उसके बाद से अक्सर बसाऊ भैया जब सुबह उठते, उन्हें अपने दालान के किसी कोने में मक्खियां भिनभिनाती नजर आतीं. वह फावड़े से मल को साफ करते और अगली सुबह फिर वही दृश्य होता. आखिरकार जब एक दिन लेखक की दादी को अंदाजा हो गया कि यह कारनामा किसका है तो उनकी पत्नी के पास उलाहना पहुंचा. पत्नी ने शंकर बाबा की पूजा खत्म होते ही उन्हें धर लिया, यह तुम क्या करते हो रोज-रोज. भइया बड़कवा होकर भोरे-भोरे तुम्हारा गुह फेंक रहे हैं. नरको में जगह मिलेगी तुमको और हमको?’ शिकायत के जवाब में वह भुन्न से इतना ही बोले, ‘बड़कवा नहीं फेंकेगा तो क्या छोटकवा फेंकेगा?’
लेखक की युवावस्था का वह एकमात्र प्रसंग भी उल्लेखनीय है जिसे किसी तरह खींच खांचकर ही सही लेकिन प्रेम प्रसंग की श्रेणी में डाला जा सकता है. तब लेखक इलाहाबाद में रह रहा एक नवयुवक था. एक रात एक लड़की किसी बहाने से उसके कमरे में आती है और मौका देख उसकी हथेली को जोर से दबाती हुई निकल जाती है. अस्सी के दशक में भारतीय समाज के किसी भी सामान्य युवक पर इस घटना की क्या प्रतिक्रिया होगी, इसका सहज अंदाजा अपने-अपने हिसाब से हम सब लगा सकते हैं. लेकिन शायद ही किसी की कल्पना में वह प्रतिक्रिया आए जिसका वर्णन लेखक ने किया है. इतनी आशंका, इतना डर, इतनी सतर्कता और लड़की के व्यक्तित्व का ऐसा आकलन… यह इकलौता प्रसंग भी बता देता है कि उस समय तक लेखक जीवन के कितने उतार-चढ़ावों से गुजर चुका था, उन्हें कितनी शिद्दत से महसूस कर चुका था और उन सबसे कितनी गहराई अपने व्यक्तित्व में, अपनी सोच-समझ में ला चुका था. जीवन के अगले अध्यायों में न सिर्फ उनका विस्तृत परिचय मिलता है बल्कि यह गुत्थी भी सुलझती है कि समाज के भीषण उथल-पुथल वाले उस दौर में मध्य बिहार के ग्रामीण इलाकों में जनयुद्ध जैसे हालात में जनता के एक बड़े हिस्से का नेतृत्व करना और, समाज की चेतना को आकार देना और खुद अपनी सोच का विस्तार करना उसके लिए कैसे संभव हो सका.
यह बात सही है कि इस पुस्तक के कई आयाम हैं. छात्र जीवन के दौरान तरह-तरह के संघर्ष इसमें हैं, कार्यकर्ता के रूप में भी पत्रकारीय भूमिका का निर्वाह इसमें दिखता है, निखिल वागले, एसपी सिंह (दिवंगत) जैसे पत्रकारों और अरविंद एन दास जैसे विचारक के साथ हुई मुलाकातों के जरिए उनकी विशिष्टताओं का संक्षिप्त लेकिन मूल्यवान परिचय भी इसमें मिलता है, अस्सी के आखिरी और नब्बे के शुरुआती दशकों में बदलती देश की राजनीति और समाज पर पड़ते उसके प्रभावों का भी ऐसा वर्णन है जो पुस्तक को प्रभावी बनाता है. सिर्फ इन हिस्सों के लिए भी इस पुस्तक को पढ़ा जा सकता है. लेकिन फिर भी इसका सबसे मूल्यवान हिस्सा वह है जिसमें लेखक कार्यकर्ता के तौर पर समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाने की लड़ाई में पूरी शिद्दत से शामिल होता है और जहां हर लड़ाई जीवन की आखिरी लड़ाई की तरह लड़ता और लड़ना सिखाता है.
इस लड़ाई की और इसमें जिंदगी दांव पर लगाकर लड़ते लोगों की भी अपनी सीमाएं हैं, उनके अपने गुण-दोष हैं जिनसे न केवल लड़ाई की दशा और दिशा बल्कि उसके परिणाम भी प्रभावित होते हैं. किताब की खासियत यह है कि पाठकों के सामने 24 कैरट खरेपन के साथ पूरी सचाई रखी गई है. महिमामंडन की कोई कोशिश कहीं नहीं दिखती, बल्कि मोहभंग से उपजी कड़वाहट का आरोप आमंत्रित करने की हद तक जाती बेबाकी जरूर नजर आती है. इस हिस्से में कई ऐसे प्रसंग हैं जिन्हें कुछ लोग आंदोलन के उद्देश्यों की पवित्रता के नाम पर सार्वजनिक करना गलत कह सकते हैं, लेकिन सचाई यह है कि ये प्रसंग संपूर्णता में ऐसे आंदोलनों के सटीक मूल्यांकन को आसान बनाते और इस तरह आने वाली पीढ़ियों के लिए आंदोलन से जुड़े बड़े लक्ष्यों तक पहुंचना कुछ आसान बनाते हैं.
ऐसे एक प्रसंग का जिक्र यहां उदाहरण के तौर पर संक्षेप में किया जा सकता है. लेखक ने कुछ जनयोद्धाओं का उल्लेख किया है यह बताने के लिए कि जनता के जोधा ऐसे होते हैं. माओत्से तुंग के हवाले से बताया गया है कि जनयोद्धाओं को जनता के बीच उसी तरह रहना चाहिए जैसे पानी में मछली रहती है. उनके होने की पहली शर्त ही यही है कि बिलकुल आम आदमी जैसे दिखें. किसी की नजर उन पर न ठहरे. ऐसे ही एक जनयोद्धा थे रमन जी. उनकी विशेषताएं बताने वाले कई प्रसंग लेखक ने डाले हैं, लेकिन यहां उनके उल्लेख की वजह उनकी खास पृष्ठभूमि और उससे उनके सोच तथा व्यवहार में उभरा खास आयाम है. वह रोहतास जिले में तंतवा बिरादरी (सूप, डलिया बनाने वाली जाति) के एक भूमिहीन परिवार से थे. उनके पिता के जीते जी गांव के एक राजपूत जमींदार ने उनकी मां को अपनी रखेल बना लिया था. पुस्तक में एक साथी के हवाले से बताया गया है कि रमनजी असल में उस जमींदार के ही लड़के थे और उनके हाईस्कूल तक पढ़ लेने की व्यवस्था उनके कानूनी पिता के बजाय इस जैविक बाप ने ही की थी. मां तब रमनजी को साथ लेकर जमींदार की दी हुई एक कोठरी में रहती थीं. एक दिन रमन जी स्कूल से घर लौटे तो पाया कि दरवाजा खुला है, मां कहीं दिख नहीं रही है, भीतर पलंग पर उनके जैविक पिता, उसी जमींदार की सिर कटी लाश पड़ी है और पलंग के नीचे जमा हुए खून की एक पतली धार बहती हुई चौखट तक चली आई है. इस कहानी की सचाई को वेरिफाई करने का कोई उपाय लेखक के पास नहीं था, लेकिन जिस साथी ने यह पूरी कहानी बताई उसके मुताबिक लाश देखते ही रमन जी खौफ और सदमे में वापस मुड़े और भागते ही चले गए. इस बदहवासी के ही किसी पल में उनकी मुलाकात पार्टी के एक साथी से हुई और कुछ समय बाद उन्हें हथियारबंद दस्ते में शामिल कर लिया गया.
बहरहाल, लेखक के मुताबिक उनकी सोच में जाति उत्पीड़न का बहुत गहरा तत्व मौजूद था, ‘जो कभी-कभी जातीय दुराग्रहों की शक्ल में सामने आता था.’ उदाहरण के तौर पर पुस्तक में आरा अस्पताल में कवि दुर्गेंद्र अकारी की मरहम पट्टी से मना कर देने वाले एक डॉक्टर का जिक्र है जिसका पक्ष लेते हुए एक कंपाउंडर ने गाली-गलौज की थी. कंपाउंडर दुसाध जाति का था. पार्टी के कुछ साथियों ने बाद में उस कंपाउंडर को उसके घर के पास ही घेरकर पीट दिया था. इस घटना पर रमनजी ने टिप्पणी की थी, ‘यही काम आप लोग किसी ठाकुर या भूमिहार गुंडे के साथ करते तो पता चल गया होता.’
बात इतनी ही नहीं है कि लेखक ने रमनजी की इस टिप्पणी को खास तौर पर उल्लेख करने लायक माना, इसके आगे वह कहते हैं कि ‘जिले में पार्टी के सशस्त्र मोर्चे के इस शीर्ष नेता की सोच में मौजूद जाति और वर्ग की दुविधा का भारी नुकसान आंदोलन को उठाना पड़ा.’ आगे पुस्तक में वह इसका उदाहरण भी पेश करते हैं.
जगदीशपुर के इटाड़ी गांव में जमीन को लेकर लड़ाई चल रही थी. यहां ज्यादातर जमीनें ठाकुर जाति के भूस्वामियों के पास थीं साथ में उन्होंने भूमिहीनों को आवंटित ग्राम समाज की जमीनों पर भी कब्जा कर रखा था. हक मांगने पर धमकाना और मारपीट करना आम बात थी. इसी को लेकर कुछ प्रतिरोध गांव में जारी था. एक रात इन्हीं परिवारों के कुछ लोग बीजेपी की चुनाव सभा में शामिल होकर ट्रैक्टर से लौट रहे थे. उसी समय रमनजी के नेतृत्व में इन पर हमला हुआ, जिसमें पांच लोग मारे गए और कई घायल हुए. लेखक कहते हैं, ‘यह घटना मानवीय दृष्टि से तो गलत थी ही, आंदोलन के लिए भी किसी लिहाज से अच्छी नहीं थी. बाद में इसको और संदेश ब्लॉक के बेलाउर गांव की इससे मिलती-जुलती एक और घटना को आधार बनाकर गठित हुई रणवीर सेना की राजपूत-भूमिहार गोलबंदी के चलते हमारी पार्टी के कई साल बर्बाद हुए.’
सवाल यह है कि क्या इस पूरे प्रकरण को सिर्फ उसी नजरिए से देखा जा सकता है जिस नजरिए से लेखक ने देखने की कोशिश की है? रमन जी जिस नजरिए से इस प्रकरण को देखते थे क्या उस क्षेत्र की आबादी का एक बड़ा हिस्सा और पार्टी कार्यकर्ताओं, समर्थकों तथा पीड़ितों का भी एक बड़ा हिस्सा इसे उसी दृष्टि से देखता हो यह संभव नहीं है? उस स्थिति में इस प्रकरण पर रमनजी जैसे आक्रामक रुख न अपनाने पर उसे पार्टी के सवर्ण नेतृत्व की पूर्वाग्रह भरी दृष्टि का परिणाम माना जाने लगना क्या नितांत असंभव था? रणवीर सेना के उभार को क्या इन्हीं दो घटनाओं का परिणाम मान लेना तर्कसंगत है, सिर्फ इसलिए क्योंकि रणवीर सेना ने घोषित तौर पर उन्हें आधार बनाया? क्या ऐसा नहीं माना जा सकता कि सीपीआई एमएल की पैठ से परेशान भूमिस्वामियों को रणवीर सेना जैसे किसी संगठन की जरूरत थी और वे जिस किसी बहाने से संभव होता ऐसा संगठन बना ही लेते?
इन सवालों का मकसद पुस्तक में दिए गए लेखक के नजरिए का खंडन करना नहीं सिर्फ इस पहलू की ओर ध्यान खींचना है कि पुस्तक में लेखक का नजरिया महत्वपूर्ण है, लेकिन पुस्तक की उपयोगिता उस नजरिए की सीमाओं से कहीं आगे जाती है. सिर्फ इसी एक प्रकरण में नहीं, ऐसे बहुत से प्रकरण हैं जिनमें दिए गए तथ्य पाठकों के मन में ऐसे सवाल खड़े करते हैं जिनके स्पष्ट उत्तर इस पुस्तक में नहीं मिलते. ये सवाल पाठक को प्रेरित करते हैं कि वह उन सवालों पर स्वतंत्र रूप से सोचना, समझना और विचार करना जारी रखे. और ऐसा सिर्फ माओवादी आंदोलन के संदर्भ में नहीं, हर उस क्षेत्र में लागू होता है जो इस पुस्तक में आया है चाहे वह पत्रकारिता हो या साहित्य हो या राजनीति हो. यह देश की विचार प्रक्रिया की निरंतरता में इस पुस्तक का ठोस योगदान है. अपने दौर को समझने की इच्छा रखने वाले हर नागरिक के लिए यह एक जरूरी पुस्तक है.
यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त की जा सकती है.
प्रणव प्रियदर्शी सम्प्रति नवभारत टाइम्स, दिल्ली में कार्यरत. ppriyadarshee@gmail.com |
समालोचन की भूमिका सराहनीय है। चुनाव का तो कहना क्या!
क ई दिनो से इस किताब को मंगवाने की सोच रहा हूँ। रोजी-रोटी की व्यस्तताओं के कारण क ई दूसरे जरूरी काम लटके पड़े हैं।
आपकी समीक्षा पढ़कर जिज्ञासा बढ़ ग ई है। 80 के दशक के पूर्वार्ध की बदलती राजनीति को जानने की जिज्ञासा पैदा हुई है।
लेखक के युवावस्था के उस एकमात्र पहलू के बारे में आपने जिक्र किया। क्या उस घटना का भी कहीं जिक्र है इस पुस्तक में, जब लेखक अपने किशोरावस्था मे पैसे न होने पर बस में पीछे लटक कर सफर कर रहे थे?
रमन जी के प्रसंग पर आपने जो बेबाक और निष्पक्ष प्रश्न उठाए हैं, सहमत हूँ।
मशहूर महिला राजनीतिज्ञों में शीला दीक्षित और मायावती हैं। 15-20 साल पहले इनके भाषणों में बेसिक फर्क नज़र आता है कि स्व० शीला दीक्षित सौम्य भाषण देती थीं, वहीं मायावती कड़वा बोलती थीं।
अक्सर कष्टों से अभी ताजा ताजा निकला हुआ कड़वा बोलता नज़र आता है। आज मायावती भी सौम्य जो चुकी हैं।
समीक्षक ने लेखक की भी इस कड़वाहट को नोट किया और अपनी समीक्षा में लिखा भी है।
लेकिन आज लेखक एकदम सौम्य और मृदुभाषी हैं।
मै लेखक के जीवन के कुछ दृश्यों को पहले भी छोटे छोटे हिस्सों मे Facebook और NBT में पढ़ा है। प्रभावित भी हूँ।
जैसे: ब्लू लाइन बस में एक गुण्डे को छाती पर चढ़कर धुनाई करना। सोसाइटी मे DJ काॅलम के शोर करने वालों को धमकाना, फिर भी मृदुभाषा और सौम्यता को बनाए रखना।
उन दृश्यों को इस किताब में ज़रूर ढूंढूंगा।
समीक्षक ने कुल मिलाकर कमाल की समीक्षा लिखी है।
प्रणव जी ने एक कार्यकर्ता (चंद्रभूषण जी) के संघर्ष और उस संघर्ष के ज़ज्बे को जिस संलिप्तता और लेखन-विवेक के साथ प्रस्तुत किया है, उससे पुस्तक के प्रति उत्कट जिज्ञासा स्वाभाविक है। चंद्रभूषण जी को पढ़ता रहा हूँ और लाभान्वित भी होता रहा हूँ। चंद्रभूषण और उनकके साथियों जैसे सच्चे और ईमानदार कार्यकर्ताओं के बारे में पढ़-जानकर कुछ न कर पाने की कसक को विलोपित नहीं होने देता हूँ। इस तरह की किताब पर लिखने का ‘जोख़िम’ उठाने के लिए प्रणव जी को शुक्रिया/बधाई।