प्रभात स्मृति, मरण और लोक का कवि सन्तोष अर्श |
शब्द स्मृति की अमूर्तता को पुनः कोई रूप देना चाहते हैं. किसी रचना का आस्वाद यदि ऐसा है कि लगे रचनाकार का यही प्रयास है तो यह उसके भीतर प्रवेश की माँग है. स्मृति में प्रवेश करना वस्तुतः समय की अनन्त अवधारणा में उतरना है. यह समय-मीमांसा है. देखने में जितनी व्यावहारिक अनुभव होती है उतनी है नहीं. यह दर्शन और भौतिकी से संपृक्त गूढ़ ज्ञानात्मक प्रशाखा है.
आधुनिकता के आने के बाद से ही भौतिकविदों ने समय की गुत्थी सुलझाने में अपना सिर खपा दिया. हम किसी अन्य समय में उपस्थित होते हैं और हमारी उपस्थितियों का अंतराल स्मृतियों को जन्म देता है. उसी समय के साथ स्थान भी श्लिष्ट होता है. उस स्थान में कवि अपनी स्थिति का उत्तरानुमान करता है. कविता में प्रयुक्त स्मृति में कवि उपस्थित रहता है. ‘मैं वहाँ उपस्थित था’ की शक्ल में. ‘स्मृत’ में जो ‘मृत’ है, उस मृत को कविता सुरक्षित रखती है. क़ब्र में क़यामत का इंतज़ार करते मुर्दे की तरह.
स्मृति जीवन की उत्तर-मीमांसा है. यह चाहे बुरी हो या भली, उदासी के लिबास में लिपटी रहती है. इसमें मोह और ममता के अवशेष होते हैं. यह कविता में इसी लिबास में आती है.
देरिदा ने कहा,
‘कविता स्मृति का अर्थशास्त्र है‘ और
मिलान कुंदेरा ने बताया,
‘सत्ता के विरुद्ध मनुष्य का संघर्ष विस्मृति के विरुद्ध स्मृति का संघर्ष है.’
प्लेटो के ज़माने से कवि की स्मृति से भी सत्ताएँ इसी ख़ातिर चिढ़ती रही हैं. कवि को सबसे अधिक अपनी स्मृतियों के चलते शर्मिंदगी का भार भी उठाना पड़ा है, क्योंकि यदि सच्चा है; तो कवि अपनी स्मृतियों का सौदा कभी विस्मृति से नहीं करता है. जिस देश और समाज के पास कवि नहीं होते उसे स्मृतिलोप हो जाता है. लिहाज़ा कवि की स्मृति सारे ज़माने की याददाश्त है.
हिन्दी कविता के इस समय में जो स्थान है वह भीड़ भरा है, किन्तु वहाँ कतिपय ऐसे कवि भी हैं जो ऊहा से क्लान्त नहीं होने देते. यद्यपि भरमार है बातों की- होड़, जोड़-तोड़ है. घनीभूत बातें हैं, दर्शन है प्यार है, दुःख बेशुमार है. विमर्श है, अमर्ष है, प्रकर्ष है. जीवन की लोना फूटती और प्लास्टर उखड़ती दीवारों पर यातनाओं के पोस्टर चिपके हुए हैं. जुगनुओं के इस झुण्ड में एक जुगनू कुछ अधिक जलता-बुझता हुआ नज़र आता है. झुण्ड से दूर, अलग या कि बिछड़ा हुआ. तारामण्डल में ध्रुव सरीखा. वो जो ‘फ़ैज़’ के यहाँ सितारा-ए-सहरी है. “सितारा-ए-सहरी हमकलाम कब से है.”
प्रभात की कविता से गुज़रना यूँ नहीं कि गुज़रे, ठिठके और निकल गये. चले-चले, नज़रें फिराते हुए. इनमें ठहरना पड़ेगा तमाम बातों, दृश्यों, चित्रों, अर्थों, ध्वनियों के लिए. मानवीयता के मधुर राग के लिए. प्रतिबद्धता और उसूलों के विराग के लिए. दुःखों के दाग़ के लिए. जंगल और बाग़ के लिए. ये कविताएँ रोक लेंगी और बिना कुछ सोचे आगे नहीं बढ़ने देंगी. स्मृति प्रभात की कविताओं की धुरी है. रचना के लिए अपरिहार्य मानी जाने वाली स्मृति नहीं, वरन स्मृति से रची जाने वाली स्मृति. जो फ़िल्म नहीं बनाती, तस्वीरें खेंचती है (कुंदेरा).
प्रभात लोक-संवेदना को साभ्यतिक स्तर तक ले जाते हैं. उसे अपनी वैयक्तिक स्मृति से जोड़कर दिखाते हैं, परन्तु इस क़दर कि वे स्मृति को सामूहिकता से जोड़ देते हैं. उनकी स्मृति जन-स्मृति (Mass Memory) बन जाती है. और अकारण वे सांस्कृतिक स्मृति (Cultural Memory) के कवि बन जाते हैं. स्मृतियों के इस उद्यान में पुष्प भी हैं और कंटकाकीर्ण परिपथ भी:
क्योंकि मेरी समस्त यादें
सताई हुई नहीं है
(अपनों में नहीं रह पाने का गीत, शीर्षक कविता)
स्मृतियाँ कुछ इस तरह रची गयी हैं प्रभात की कविताओं में कि वे ज़माने के साथ बदल गये मूल्यों का फ़र्क़ समझाती हैं. उन मूल्यों में भारतीय ग्रामीण और कृषक जीवन की इनसानी छवियाँ हैं. निथरे हुए पानी में परछाइयों की भाँति. खेत, खलिहान, दुःख, अभाव, मवेशी, पेड़, प्यास, रेत, नमक, आँसू, रुदालियाँ, गड़रिए, चरवाहे, बैल, मवेशी, भेड़ें, ऊँट और वह सबकुछ जिनसे जीवन निर्मित होता है. और निर्मित होती है एक सभ्यता. जो अब नहीं रही या मरणासन्न है. इस कविताई से यह भी ज्ञात होता है कि एक साभ्यतिक परिवर्तन पिछले तीस-चालीस वर्षों में घट गया है, जिसे स्मृतियों की मार्फ़त जमा किया गया है. स्मृति के बहुत चटख रंगों वाले चित्र प्रभात की कविताओं का सौंदर्यशास्त्र हैं :
स्मृतियाँ रह जाएंगी केवल
स्मृतियाँ जो जिन वजहों के लिए बनती हैं
उन वजहों के मिटने पर बनती हैं
(अधिक प्रिय वजह, वही)
स्मृति और मरण एक सिक्के के दो पहलू हैं. प्रभात सब कुछ बहुत ज़्यादा मात्रा में स्मरण कर लेना चाहते हैं इससे पूर्व, कि याद खो जाए. इसीलिए उनकी स्मृतियाँ अतीतमोह (नॉस्टेल्जिया) नहीं लगतीं, बल्कि इनका रचाव कहीं-कहीं ऐसा है कि व्यतीत अभूत लगता है. अपेत विद्यमान प्रतीत होता है. जिसे वे कोई अल्बम बनाकर सहेज लेना चाहते हैं. जिसमें झाँक कर वे पुनः उन चित्रों को देख सकें. दोबारा उस मृत जीवन को अनुभव कर सकें. फिर जी सकें. इससे एक दार्शनिक सत्य उभर कर सामने आता है कि मरण भी कवि के निकट जीवन ही का एक रूप है. शास्त्रयीता में जिसे ‘अमृत’ कहा गया है. अतीत प्रभात की कविताओं में ताज़ादम है. वे बहुत याद करना चाहते हैं. जैसे अब तक दुनिया की तमाम भाषाओं के कवि याद करते आये हैं. ऐसा इसीलिए है; क्योंकि प्रभात की कविताओं में अत्यधिक मरण है. जितना अधिक मरण होगा, उतना अधिक स्मरण होगा :
मैं अपने मृतकों को याद करता हूँ
ताकि उनकी ख़ूबियों की धूप में
अपने घने उदास अँधेरों को फैला सकूँ.
(जहाँ वह शव था, वही)
ऐसे समय में जब लोग पारिवारिक मृतकों को भी शीघ्र भुला देते हैं, वे मृतकों को ख़ूब याद करना चाहते हैं. प्रत्येक मृतक से अनुषंग एक जीवन होता है. उस जीवन में हमारा भी कुछ जीवन होता है. औरों का भी थोड़ा जीवन होता है. इस तरह प्रत्येक मरण से सम्बद्ध है जीवन. और अन्तिम निष्कर्षों में मरण कम रह जाता है, जीवन विस्तरित होता जाता है. अतः स्मृति को नष्ट करने के तमाम षड्यंत्रों और औजारों के मध्य भी याद पर प्रभात को पूरा अक़ीदा है. वे यक़ीन करते हैं कि स्मृति को नष्ट नहीं किया जा सकता.
मरण साहित्य के लिए अभिप्रेरणा है. संसार का समस्त साहित्य मृत्यु को स्वीकार करने या उसके सत्य से आँखें चुराने के लिए ही रचा गया है. अर्थी लेकर जाने वाले प्रायः ‘राम नाम सत्य है’ उच्चारते हैं जबकि वे ‘मृत्यु सत्य है’ कहना चाहते हैं. वे मृत्यु शब्द मात्र से बचने के लिए राम नाम की ओट लेते हैं. मृत्यु की ओर अधिक देखने के लिए भी एक ताब चाहिए. प्रभात के पास वह ताब है, लिहाज़ा अनुभूतियों में विराग की सफ़ेदी बढ़ जाती है. मृत्यु को हम कितना और कैसे देखते हैं यही तय करता है कि जीवन को भी हम किस दृष्टि से देख रहे हैं:
मृत्यु तो एक आशा है
ये आयोजन तो कुछ और ही है
(दाह की लकड़ी, वही)
मुझे ढाई-तीन साल बड़ा करने के बाद माँ नहीं रही
वह श्मशान में अपने उन तीन बच्चों के पास चली गयी
जिन्होंने सोचा न होगा कि माँ मृत्यु का भी पीछा करते हुए
उनके पास आ सकती है किसी दिन
(गोबर की हेल, वही)
माँ यहाँ नचिकेता है. मृत्यु का पीछा करती हुयी. कठोपनिषद् की कथा में नचिकेता की बड़ी जिज्ञासा है:
‘येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये स्तीत्येके नाय मस्तीति चैके.’
(कठोपनिषद्- २०)
‘मरे हुए मनुष्य के विषय में जो यह सन्देह है कि कोई तो कहते हैं, ‘रहता है’ और कोई कहते हैं ‘नहीं रहता.’ इस पौराणिक आत्मतत्त्वज्ञान से आगे बढ़ कर कहना चाहिए कि मनुष्य मर कर भी मनुष्य की स्मृति में रहता है. पाब्लो नेरुदा की बात है कि ‘कोई तभी तक जीवित रहता है जब तक हम उसे अपने भीतर लिये फिरते हैं.’ जब वह किसी की स्मृति में भी शेष नहीं रहता तब पूर्ण रूप से मरण को प्राप्त हो जाता है. यम को नचिकेता से यही कहना चाहिए था. मृत्यु प्रभात की कविताओं में किसी पतली घुमावदार नदी की भाँति बहती हुई जा रही है. जिसके दोनों किनारों पर सुख-दुख के हर्ष-शोकग्रस्त, मौन वृक्ष सिर झुकाये खड़े हैं. उनमें कंटकधारी बबूल भी हैं. बड़े सुन्दर जीवन के बीच से प्रवाहित एक नदी. बखान की नदी. परिजनों की मृत्यु का बखान करते हुए वे कविता में एक विचित्र मौन छोड़ देते हैं. हर कोई जानता है कि वह मौन क्या है. वह उसकी निरुत्तरता है. उसका विराग है. प्रभात कविता को उस काम पर लगा देते हैं जहाँ वह मृत्यु का सामना कर रही है. जैसा हिन्दी के शास्त्रीयतावादी आलोचक वागीश शुक्ल कहते हैं,
‘साहित्य मृत्यु का सामना करने की विधि है.’
जैसा नॉबेल लॉरेट और नार्वे का बड़ा पियक्कड़ लेखक यॉन फोस्से कहता है,
‘साहित्य मरना सीखने का एक तरीक़ा है.’
हम मृत्यु को जितना जानते हैं, जितने रूपों में उसे देखते हैं कविता उसे और रहस्यमय, रोचक और सौंदर्यपूर्ण बना देती है. प्रभात की मृत्यु को देखने की यह शैली निश्चय ही कबीराना है. अतएव, ‘भया कबीर उदास.’
दो ही पोशाक थी उसके पास
एक यह जो घर में अलगनी पर रखी है अभी भी
दूसरी यह पोशाक थी जिसे पहने हुए वह कफ़न में लिपटा था
और अब उसे घर से उठा लिया गया श्मशान ले जाने के लिए
वहाँ सजी हुई चिता पर सुलाने से ऐन पहले
उतारी गई यह पोशाक
(धरोहर, वही)
प्रभात के यहाँ हर मौसम यदि जीवन का है, तो मृत्यु का भी है. मृत्यु की छाया में भी वे जीवन का उल्लास कम नहीं होने देते. यह भारतीय लोकजीवन की उत्कट जीवटता है जिसमें जीवन के लिए रिस-रिस कर प्रेमिल ऊर्जा संचित होती रहती है. प्रभात जीवन को भी लोकसंस्कृति के सुन्दर और विविध प्रतीकों से अभिव्यक्त करते जाते हैं. जीवन से जीवन पाता हुआ जीवन प्रभात की कविताओं में सुन्दर लोक-प्रतीकों और रूपकों से सिरजा गया है. यह जीवन वनस्पतिजात (Flora) से उगा हुआ है, यह जीवन प्राणिजात में (Fauna) प्रजनन पाता है:
मैं उस गाय की तरह हो गया हूँ
जिसने बछड़े को जन्म दिया है
(पीला फूल चाँद, अपनों में नहीं रह पाने का गीत)
प्रभात हिन्दी में लोकसंवेदना के प्रतिनिधि कवि हैं. बल्कि काव्य-प्रवृत्तियों के आधार पर लोकजीवन के वे अधिकृत कवि हैं. लोकसंवेदना के नाम पर प्रचारित महानगरीय सिंथेटिक कवियों से बहुत अलग उनके यहाँ लोकजीवन की प्रामाणिकता है. उसका इकोसिस्टम है. पूरी जैविकी, पूरी ग्राम्य-पारिस्थितिकी को उनकी कविताओं में देखा जा सकता है. वे हरित कवि हैं. ऊँट, बकरियाँ भेड़ें, भैंसे, गड़रिए, चरवाहे, रेत, नमक, जोहड़े, तालाब, नदियाँ, पहाड़ियाँ, खेत, मैदान, मकई, ज्वार क्या नहीं है प्रभात की कविताओं में? प्रकृति प्रभात की कविताओं में संस्कृति की भाँति है और संस्कृति समाज की तरह:
लाल पगड़ियों वाले रैबारी
पीली पगड़ियों वाले गड़रिए
काली ओढ़नियाँ ओढ़े युवतियाँ
ख़ानाबदोश गायों पर लदी खाटें
उन पर बैठे लम्बे भूरे केशों वाले बच्चे
और देगचियाँ और दूसरे असबाब
धूसर खेजड़ों की वीरानी में रोहिड़ा के फूल
(नमक और रेत, वही)
चरवाहा कविता (Pastoral Poetry) की दृष्टि से वे हिन्दी के आधुनिक वर्ड्सवर्थ बन जाते हैं. वर्ड्सवर्थ की ‘माइकल’ में भी प्रभात जैसी बात कहाँ ? चरवाही के इतने रूपक और ऐसे सुन्दर बिम्ब हैं उनके पास जो हिन्दी की समस्त आधुनिक कविता में कहीं ढूँढे नहीं मिलते. चरवाहा जीवन को वे अत्यंत कलात्मक माधुर्य के साथ बिम्बित-प्रति-बिम्बित करते हैं. वे इस पुरातन वैश्विक सांस्कृतिक जीविकोपार्जन को एक लयात्मक अनुगूँज की भाँति कविता में प्रस्तुत करते हैं :
खेतों में दूर-दूर खड़े हैं ग्वाले छतरियाँ ताने
उनकी वे सफेद गायें ऊँघ रही हैं वहाँ साँवली छाया में
काली भैंसे तैर रही हैं यहाँ सफेद धूप पिए पानी में
(जोहड़, वही)
इन रोमानी ग्राम्यवादी बिम्बों को तभी सिरजा जा सकता है जब कवि लोकानुराग को अंतः प्रेरणा की तरह ग्रहण कर सके. कविताओं का यह रूप काव्यात्मक सांस्कृतिक हरीतिमा है. ऐसी कविताओं की अर्थान्वितियों से प्रभात एक विशिष्ट सांस्कृतिक पर्यावरण के कवि बन जाते हैं, प्रत्युत वे हरित-रूपात्मक-केन्द्रवाद (Ecomorphic – Ecocentrism) के कवि कहाने के सर्वथा योग्य हैं. गड़रिए उनकी कविता में निर्द्वंद्व विचरण करते हैं. रेवड़ के साथ अपनी धज में धीरे-धीरे चलते हुए. साँवले, शर्मीले, लजीले गड़रिए जिनकी आभा से प्रभात की कविताएँ रजत सी चमकती हैं :
इतना धीरे चलना चाहता हूँ जीवन में
जितना धीरे चलते हैं गड़रिए बीहड़ में
(धीरे, वही)
इस तेज़ से भी तेज़ भागती दुनिया में कौन गड़रियों की तरह धीरे चलना चाहता है ? ‘दुर्लभ करुणा’ के लिए कैसी भीगी उपमा का प्रयोग करता है कवि. चरवाही की ऐसी दुर्लभ कविता के लिए प्रभात जाने जाएंगे. यह चरवाही-कविता इस वक़्त की ज़रूरत है.
स्त्रियाँ भी प्रभात की कविताओं में धीरे-धीरे आती हैं. कविताओं में उनकी उपस्थिति किसी मद्धिम झनकार अथवा ‘दुर्लभ करुणा’ की तरह है. और निश्चय ही यह कवि की करुणा है. माँ, बहनों, भाभियों, चाचियों, बुआओं के अलावा स्त्रियाँ बच्चियों, वृद्धाओं के रूप में भी आती हैं. और जब वे रुदालियों की तरह आती हैं तो इस अदा से :
फिर वे बरस चुकी बदलियों की तरह
एकाएक थम जाएंगी
गीली हवाओं-सी वे सब-की-सब
दूसरे गाँवों से आई अपनी रिश्तेदारिनों के संग
घुलमिल जाएंगी
और फिर लहंगे झड़कारेंगी खड़ी होती हुई
की बच्चे को पड़ोसन के भरोसे छोड़ आई हैं
की भैंस घर में और किसी को दूध नहीं देती है
कि उनके यहाँ पानी दो कोस से दूर आता है
(मृत्यु के दिन, अपनों में नहीं रह पाने का गीत)
पास-पड़ोस की कठिन जीवन जीती अकेली औरतें भी प्रभात की कविता में जगह पाती हैं. ये वे स्त्रियाँ हैं जिन्हें प्रायः अदृश्य मान लिया जाता है, अस्तित्व में रहते हुए भी :
सांझ पड़े लौटेगी घर
धीमे-धीमे कदमों से चलते हुए जब तक वह पहुँचेगी
चाँद आ बैठा होगा उसके फूस के छप्पर पर
लीपे हुए आँगन में चाँद की रोशनी में
सिला कूटेगी दाने निकालेगी
माटी के माथ में भरकर ढँककर रखेगी अन्न-धन
इस तरह पृथ्वी पर अमर रहेगी अकेली बुढ़िया
कभी नहीं मरेगी
(सईदन चाची, वही)
स्त्रियाँ अपने पूरे वज़ूद के साथ कविताओं में प्रवेश करती हैं. यहाँ कोई पूँजीवादी फेमिनिज़्म खड़ा नहीं होता. कामगार और कृषक स्त्रियाँ खड़ी होती हैं. अपने दुखों, पीड़ाओं और प्रेरणाओं के साथ. देह से बड़े प्रश्न हैं यहाँ. स्त्रियों की समूची जय-पराजय है. वह हार जिससे कवि भी प्रेरणा ग्रहण करता है:
जब-जब भी मैं हारता हूँ
मुझे स्त्रियों की याद आती है
और ताकत मिलती है
वे सदा हारी हुई परिस्थिति में ही
काम करती हैं.
(हार, वही)
प्रभात की कविताओं में उपस्थित स्त्रियों को हर घड़ी स्त्री-स्त्री चिल्लाने वाले बुर्जुआगण कभी नहीं समझ पायेंगे. ये स्त्रियाँ कहीं भी दिखायी दे जाती हैं. हर गली, घर, चौराहे पर ये खड़ी हैं. खेत, खलिहान, में जुटी हुयी महानगरों में बन रही गगनचुम्बी इमारतों के निकट मज़दूरिनें बनी. दुःख में सुख खोजते हुए. उनके लिए सुख का कोई स्टेशन है भी या नहीं, वे नहीं जानती :
दुख में गाफिल उस युवती ने बच्चे को गोद में लिया
और रेल में बैठ गई सुख के स्टेशन पर उतरने के लिए
(सुख, वही)
कुछ पंक्तियाँ ऐसी भी हैं, जिनके समक्ष सम्पूर्ण स्त्री-संवेदना एकत्र हो जाती है. ‘नन्हा शव’ बनाम ‘नन्हे गड्ढे’ में मरण की निरुपायता है, किन्तु स्त्री-उपेक्षा को लेकर एक गम्भीर व्यंग्य है. ‘हद से हद दो चले जाते थे.’ मरण में भी स्त्री को उपेक्षा सहन करनी पड़ रही है. बस मृत्यु है; जो किसी भी आधार पर उपेक्षा या विभेद नहीं कर रही है. लिंग के आधार पर भी नहीं. रमाशंकर ‘विद्रोही’ की पंक्ति स्मरण होती है, ‘एक औरत की लाश धरती माता की तरह होती है दोस्तो.’ जहाँ से महाकाव्य की सीता आयी थीं, जहाँ सीता वापस लौट गयी थीं. इतना नन्हा शव ?
लड़की शिशु को दफ़नाने के लिए
हद से हद दो चले जाते थे
इतना नन्हा शव
इतने नन्हे गड्ढे तो अपने आप ही बने होते थे श्मशान भूमि में
उसमें रखकर मूँदी आँखों और बन्द
सूखे होठों पर मिट्टी पूर कर
आते हुए उदास होते थे चेहरे
पर भीतर राहत भी रहती थी
(राहत, जीवन के दिन)
भीतर की इस राहत को भीतर-भीतर ही कैसे व्याख्यायित किया जा सकता है? कहना ये है कि स्त्रियाँ यथार्थ के साथ प्रकट होती हैं. प्राकट्य में उस लड़की की अस्थियाँ भी पड़ी मिलती हैं जो घर और खेतों में काम करने के साथ-साथ दसवीं में पढ़ रही थी. और कालिदास की शकुन्तला से बड़ी दूर खड़ी ‘स्त्री-जीवन के दुर्भिक्ष के गिद्धों से घिरी’ राजपूताने की उन्नीस वर्षीय शकुन्तला भी है जिसे जीवित जला कर ‘सती माता’ बनाया जा रहा है. आदर्श रूपों में भी आती हैं गाँव-देस की स्त्रियाँ. अपनी सुंदरता से चाँद को लोलुप बना देने वाली :
फिर लूगड़ी का पल्ला लिया तुमने
फिर लोभी चाँद ने ताका तुम्हें.
(नींद का समुद्र, वही)
लूगड़ी (चुनरी) का पल्ला लेकर चाँद में लोभ उत्पन्न कर देने वाली यही सुन्दर स्त्री अपनी लूगड़ी की लीर (किनारी) से झाड़ू बाँध देती है:
झाड़ू एक संकलन है
एक कविता संकलन
(झाड़ू, अपनों में नहीं रह पाने का गीत)
प्रभात की प्रेम कविताएँ भी लोकसंस्कृति के आँगन में क्रीड़ारत हैं. आकर्षण का रचाव है, लेकिन वैसा नहीं जैसा उद्दाम स्थितियों में होता है. चुम्बकीय शृंगार नहीं है, प्रत्युत राग के साये-साये चलती हुयी एक धूसर विरक्ति है. इस प्रकार प्रेम प्रभात की कविताओं में ओवररेटेड नहीं है. वह सहज और नैसर्गिक है. प्रेम-प्रदत्त पीड़ाएँ भी हैं:
इतना मीठा मत फुसफुसाओ ओ हवा
कि लगे जैसे कान के लवों पर होंठ रख दिये हों
इतना क़रीब मत दिखो ओ चाँद
कि हाथ बढ़ा कर छूने का जी करे
इतना मुझमें मत गहराओ ओ रात
कि लगे जैसे खून में बह रही हो
इतना पास मत आओ ओ पृथ्वी कि टकरा जाओ
कि तुम कोई और ग्रह हो, मैं कोई और ग्रह हूँ
(इतना नहीं, जीवन के दिन)
हवा, चाँद, रात, पृथ्वी, किसी सुंदरी के रूप हैं. लेकिन ‘तुम कोई और ग्रह हो, और मैं कोई और ग्रह हूँ, में वर्गीय चेतना है कि हममें और तुममें प्रेम संभव नहीं है या इसमें पेचीदगी है. यह मुक्तिबोधीय वर्गान्तर है. ‘मैं तुम लोगों से कितना दूर हूँ.’ प्रभात का प्रेम केवल व्यक्तिगत प्रेम नहीं है. वे दूसरों को प्रेम करते देखते हैं तब भी प्रेमी की तरह झूमते हैं :
सारस का जोड़ा
डोल रहा है खेतों में
औरतें लगी हैं खरपतवार हटाने में
युवतियाँ भी हैं कई इनमें
जो होंगी ही किसी न किसी के प्यार में
(सारस, वही)
प्रेम के दिनों की स्मृतियाँ हैं जहाँ ग्रीष्म भी वसन्त लगता है. प्रेम के बीत जाने के बाद की अंतर्व्यथाएँ भी हैं. वह मंज़िल भी है जहाँ उससे भय होने लगता है. व्यतीत प्रेम के विषय में बतलाने और उसे जानने की रुचि का अंत भी है. बातें केवल अपने प्रेम के विषय में नहीं हैं औरों के प्रेम की भी हैं. यानी औरों के प्रेम को जीना भी अपने ही प्रेम को जीना है. वे यही जताना चाहते हैं. यह व्यक्तिपरकता से सामूहिक-चेतना की ओर बढ़ने का अलग ही रास्ता है.
लोकजीवन में एक अभावग्रस्त लाचारी भी होती है. जहाँ डूबते हुए लोग मदद की आस में हाथ बढ़ाते हैं, किन्तु उन्हें उबारने का कलंकित असामर्थ्य भी कोई त्रासदी है. प्रभात की कविताओं में कविमन की यह लाचारी कई स्थानों पर दिखती है. जब वे किसी परिजन, मित्र के लिए कुछ कर नहीं पाते. करने की इच्छा है, किन्तु असामर्थ्य है :
मैं उसके लिए कुछ करने की इच्छा ही रख सकता था
और इच्छा के इस शव के साथ सो जाने के सिवा
मेरे पास और कोई
चारा न था
(चारा न था, वही)
लोगों के लिए कुछ न कर पाने की स्थिति में अच्छे मनुष्य के भीतर एक दुर्दमनीय ग्लानि का भाव पैदा होता है. कवियों के यहाँ यह बड़ी आत्मग्लानि के तौर पर है. ‘मीर’ के यहाँ भी दिखती है:
भरी आँखें किसू की पोछते गर आस्तीं रखते
हुई शर्मिन्दगी क्या-क्या हमें इस दस्ते-ख़ाली से
आँसू भी प्रभात की कविताओं में सितारों की तरह झिलमिलाते हैं. कविता में आँसुओं का होना कितनी बड़ी आश्वस्ति है. आँसू कविता की ऐसी आर्द्रता हैं, जो धरती और हवा में भी नमी बचाये हुए हैं. राजस्थान जहाँ पानी की कमी है वहाँ आँसुओं का होना नख़लिस्तानी बात है कि पानी की कुछ मिक़दार (मात्रा) आँखों में बची रहे. आँसू कई तरह से आँखों में भरते हैं और वे कैसे पोंछे जाते हैं, इस बात में इन्सानियत के रहस्य छिपे हुये हैं :
बेटियों ने उसकी आँखों को धसकते हुए देखा
वे लूगड़ियों से आँसू पोंछते हुए दूर चली गईं
(धरोहर, वही)
मरण का दृश्य है. बेटियाँ सबसे ज़्यादा रो रही हैं. ज़ार-ज़ार. और लूगड़ियों से आँसू पोंछते हुये दूर जा रही हैं. आँचल से अश्रु पोंछती हुयी स्त्री मानवीय सभ्यता का सबसे मार्मिक दृश्य है. फिर कई तरह से कविताओं में रुलाई और अश्रु आते हैं :
एक ही जगह रहते हैं तो
सजल आँखें चार भी होती हैं
(दुख, वही)
इस अविरल समय में विरल आँसुओं के साथ पीछे छूट गयी किसी सामाजिकता के दर्शन होते हैं. सुख-दुःख भी जहाँ साझा था और जीवन का बोझ भी. प्यार-सम्मान जहाँ पद-प्रतिष्ठा और हैसियत से नहीं आँकते थे. जहाँ चला-चली और विदा की बेला होती थी. वह सामाजिकता भूमंडलीकरण और पूँजी की अतिगतिशीलतापूर्ण क़वायद में कुचल गयी. अब उसकी स्मृतियाँ भर हैं. सामाजिकता के नाम पर अन्य क्रूर और अमानवीय संस्थाओं का निर्माण हुआ. जिसमें बाज़ार केन्द्र है. वह सामाजिकता जो लुप्त हो गयी, सम्भव है अधिक मानवीय और सांस्कृतिक गुणों वाली रही हो. अब वह एक अमूर्त पुरातात्त्विक स्मारक की भाँति सिर्फ़ अनुभव की जा सकती है.
कला प्रभात की कविताओं में ऐसी है कि बहुत लालित्य, भाषा का कृत्रिम चमत्कार और पॉलिशिंग यहाँ नहीं है. गढ़ाव भी कम है. लेकिन अनुभूतियाँ प्रगाढ़ और गहरे रंगों की हैं. बिम्ब आते हैं. दृष्टान्त आते हैं. रूपक आते हैं. प्रतीक भी. बस बिखरे हुए से. कविताओं में मानवीय जीवन इतना अधिक है कि कला अल्प हो ही जानी है. लोकजीवन तो ऐसा अनगढ़ ही होता है. वहाँ क़सीदाकारी इतनी अभीष्ट है ही नहीं. इस अनगढ़पन में भी प्रभात की कविताओं का सौंदर्य सहृदय का गाहक है. कुछ पँक्तियों में काव्य-कला का पुट देखा जा सकता है.
मोर चौंक रहे थे
चिड़िया धूल में दुबक हिल रही थीं
(तालाब, वही)
धूल में नहाती चिड़ियों का बिम्ब ऐसी अनोखी सुन्दरता से भरा है कि यह चलते राहगीर को रोक ले. इसके लिए ज़रूरी है कि धूल में नहाती चिड़ियों को देखा गया हो. कई बार वे दिखती ही नहीं. वे धूल में रंग जाती हैं. धूसर. और धूल को भी इतना हल्का (Mild) होना होता है उनके लिए कि वह पंखों और रूमों से झर जाए. धूल झाड़कर जब वे उड़ती होंगी तो उन्हें धूल का भार नहीं महसूस होता होगा. चिड़ियाँ प्रायः रेहू या अन्य बारीक़ मिट्टी वाली धूल में स्नान करती हैं. उसमें साबुन के गुण होते हैं. वह बहुत हल्की धूल होती है. यह लम्बी जैविक कथा की तरह होगी, ग़रज़ यह है कि धूल में नहाती चिड़ियों का बिम्ब प्रभात की कविताओं का अधिचिह्न (Insignia) है. थके बैल की पलकों की थकान को वही समझ सकता है जिसने कभी जीवन में बैलों की तरह श्रम किया हो. बैल श्रम का प्रतीक है. श्रम के संग-संग बैल भी प्रभात की कविताओं में आते हैं. उसी सूरत जैसे प्रेमचन्द की कहानी में ‘दो बैलों की कथा’ है, शरत चन्द्र की कहानी ‘सूखा’ में गफ़ूर के बैल का नाम ‘महेश’ है. बैल भारतीय कृषक सभ्यता के केन्द्र में रहे हैं. इसीलिए स्वतन्त्रता पश्चात् काँग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी थी. ‘रेणु’ का हीरामन अपने बैलों को ‘भइयन’ कहता है, हीराबाई जिन्हें मारने से रोकती थी:
मेरे बैल का तुम्हारे पोखर पर आकर सूनी आँखों से इधर-उधर झाँकना
मेरी आटा गूँथती स्त्री के घड़े में तुम्हारा नीचे सरक जाना
(पानी की तरह कम तुम, वही)
पानी पर लिखी गयी उपरोक्त पंक्तियाँ बैल की सूनी आँखों के बग़ैर कभी पूर्ण नहीं हो पातीं. काम तो आटा गूँथती स्त्री के घड़े में नीचे सरक जाने के अभावपूर्ण चित्र से भी चल जाता. प्रभात की कला लोक-चित्रों की पूर्णता में छिपी हुई है. उसे भाषा और काव्य-चमत्कार के इर्दगिर्द ढूँढना बेकारी है, क्योंकि यह वहाँ नहीं है. प्रसिद्ध है कि जहाँ बहुत अधिक कला होगी वहाँ जीवन नहीं होगा. रघुवीर सहाय ने ‘परिवर्तन’ शब्द का प्रयोग किया है. जीवन में बने रहना भी कला है. प्रभात की कविताओं की कला उत्तरजीविता है. लोकजीवन के भित्ति चित्र उन्होंने स्मृति की दीवारों पर उकेरे हैं. कविता का लोक प्रभात के यहाँ अधिक प्रामाणिक, अनुभूतिजन्य और रागात्मक है. लोकाचार के ऐसे अभिन्न वर्णन हैं उनके यहाँ कि वे राजस्थानी लोकसंस्कृति के एक हिस्से को उदात्त बना देते हैं. नि: संदेह यह उदात्तता भाषा की मंथर रचावट और सूक्ष्म पर्यवेक्षण से आती है. कविता में लोक-संवेदना की अर्थान्वितियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस काव्य-क्षेत्र में प्रभात आठवें और नवें दशकों के कवियों को बहुत पीछे छोड़ देते हैं और लोक संवेदना के नाम पर ख्यात केदारनाथ सिंह प्रभृति कवियों की कविताएँ भी प्रभात से कम-कम नज़र आती हैं. लोकसंस्कृति के स्तर पर केशव तिवारी जैसे कवि ही उनके निकट ठहरते हैं :
ज्वार ही ज्वार खड़ी है जंगल में
ज्वार के खेतों में डोल रहे हैं
जंगली चूहे साँप नेवले और सियार
हिरनियाँ बच्चे जन रही हैं अपने यहीं
चकरी सेंध फूट की गंध है फैली हुई
हवा बह रही है ज्वार के पेड़ों के खेतों में
संगीत बज रहा है वन का निर्जन का
(दूर-दूर तक फैले हैं ज्वार के खेत, वही)
लोकजीवन में पीले रंग और पीले फूलों की ख़ास पूछ है. वे सरसों के फूल हों तो क्या ही कहना है. प्रभात की काव्य-चेष्टा में कहा जाय तो सरसों के पीले फूल धरती की पीली लूगड़ी की छाप हैं. वे कहते हैं कि सरसों के फूल की माँ साँवली थी. ऐसा प्रतीत होता है कि कवि स्वयं को सरसों का फूल कह रहा है :
सरसों के फूल
तुम्हें पता है
तुम्हारी माँ साँवली थी
(सरसों के फूल- १, वही)
हाँ यह कवि ही है जो ख़ुद को सरसों का फूल कह रहा है. मरण यहाँ भी चला आया है. मृत्यु माटी थी :
रात बीती जा रही है
तेरा मन क्यों भीग रहा है
सरसों के फूल
(सरसों के फूल- २, वही)
सरसों के फूल में अपने अस्तित्त्व को देखते हुए माँ की पीली स्मृति रोशनी की तरह फूटती है. पीले रंग के दुःख और खिंचाव से उबर पाना कवि हृदय के लिए असाध्य है. माँ फिर चली आयी है. सरसों के खेत के बहाने से :
गेहूँ और सरसों के खेतों से
माँ गोबी-घास ले जाया करती थी
माँ के हाथ खरपतवार के दूध से सन जाते थे
हरे सफेद बैंगनी पीले कत्थई रंग जाते थे
तब मैं माँ की उँगली पकड़ डोलता था
माँ को इन खेतों में आए सैंतीस बरस हो गए
(पखेरू, वही)
बबूल के फूल भी पीले होते हैं. प्रभात को जब बबूल की याद आती है तो उसके पीले फूलों और ‘लूमों’ की याद भी आती है. और जिस तरह जीवन के साथ मरण है उसी प्रकार फूलों के साथ काँटे हैं :
बबूल के काँटे
पाँवों में गड़े काँटे निकालने के काम आते थे
मगर अब मेरे पास वे पाँव ही नहीं हैं
जिनमें काँटे गड़ें
मुझे अपने पाँवों की याद आ रही है.
(याद, जीवन के दिन)
काँटे से काँटा निकालने की यह विधि कब से चली आ रही है. सूरदास के कृष्ण भी कभी ये विधि अपनाया करते थे :
एक बार खेलत वृन्दावन कंटक चुभि गयो पाँय I
कंटक सो कंटक लै काढ्यो अपने हाथ सुभाय II
(भ्रमरगीत, सूरदास)
प्रभात की कविता के विविध रंग हैं. किन्तु सबसे गहरा रंग इनमें स्मृति और मरण का है. जो कुछ भी कहा जा रहा है, जो कुछ भी उकेरा जा रहा है; वह इन्हीं दो ध्रुवों के मध्य सम्पन्न होता है. जीवन उनके यहाँ पूरे यथार्थ के साथ घटता है, अलबत्ता इसमें आदर्शों और उसूलों की अनेक असुन्दरताएँ भी हैं. सुन्दरता की चाह तो काव्य-कला का उद्देश्य ही है. लोक-संवेदना इनकी बड़ी सूक्ष्म, अभिन्न, विरल और हिन्दी कविता में अद्वितीय है. लोक की रागात्मकता इनके यहाँ स्वाभाविक, सहज और नैसर्गिक है. पर्यावरण और प्रकृति के हवाले से प्रभात की कविताएँ अतिरिक्त और विषय-केन्द्रित अध्ययन और अन्वेषण की माँग रखती हैं. लम्बी कविताएँ भी इनके यहाँ प्राप्त होती हैं. ‘झाड़ू’ और ‘प्राथमिक शिक्षक’ जिनमें प्रमुख हैं, वे कई खण्डों में वर्णनात्मक प्रभाव वाली हैं. उनमें साठोत्तरी कविता जैसे आत्मवक्तव्य हैं. भाषा में इनकी राजस्थानी ग्राम्यजीवन की गमक है. शिल्प इनका चलताऊ सा ही है. शब्द-योजना (डिक्शन) इनकी मिश्रित है. ऊँचे स्वर नहीं हैं. गरण्ड, कोठार, पाटोर, जोहड़, लिलार, टणके, कूलड़ियों, बाखड़, जाँवणी, खौन्च, औलाणी, घौंक, लीर, लूगड़ी जैसे राजस्थानी हिन्दी की बोलियों की संज्ञाओं, सर्वनामों-क्रियापदों की सुगन्ध प्रभात को और अधिक लोकोन्मुख कवि बनाती है. और ये है क्या ? ये लोक-प्रतिरोध भी है और लोकसंघर्ष भी :
“तेरे घुड़ला को डसियो कारो नाग
भादौ की तोपै बिजुरी पड़ै.”
बाज़ार और पूँजी के घोड़े पर सवार इस सभ्यता-संस्कृति के बर्बर घुड़सवार को शाप देती कोई आदिवासी स्त्री कह रही है ‘तेरे घोड़े को काला नाग डसे और तुझ पर भादों की बिजली गिरे.’
संतोष अर्श कविताएँ, संपादन, आलोचना . रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब ‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से तथा ‘आलोचना की दूसरी किताब’अक्षर से प्रकाशित. poetarshbbk@gmail.com |
सुन्दर, सम्यक समीक्षा।
प्रभात जी की कविताओं के लोक जीवित कर दिया ,बहुत ही सुंदर लिखा है संतोष ,बधाई तुम्हें 💐
प्रभात की कविताओं में कोई दरवाज़ा नहीं होता, इसलिए उन तक पहुँचना भी मुश्किल नहीं होता. संतोष ने यह सही और अच्छी बात दर्ज की कि प्रभात किसी तरह की कलात्मकता से आक्रांत नहीं हैं. उनकी कविताओं का एक निश्चित सांस्कृतिक पर्यावरण है जिससे उनके कवि को पूरा आहार मिल जाता है. शायद इसीलिए कलात्मकता के प्रति उनका विशेष आग्रह नहीं है. यह अपनी ज़मीन और वहाँ के लोगों की संगत से उपजा सरोकार है जो कला की फुलझड़ियों के बजाय संवेदना को तवज्जो देता है.
प्रभात की कविताओं के इस पहलू को संतोष बार-बार रेखांकित करते हैं. इस अर्थ में यह एकाग्र और विषय-केंद्रित पाठ है. इस लेख की एक और ख़ासियत यह भी है कि संतोष केवल एक भाषा के हवाले से बात नहीं करते— वे मीर व फ़ैज़ के पास भी जाते हैं तो वर्ड्सवर्थ के यहाँ भी चक्कर लगा आते हैं.
संग्रह पढ़ा नहीं मगर उससे गुज़रने का स्वाद हासिल हुआ। अब जल्द ही पढ़ता। क्या बारीक पढ़ाई और फिर लिखाई। संतोष अर्श ने बहुत ख़ूब लिखा है।
प्रभात प्रिय कवि हैं। उनकी कविता पर मूल्यवान, विश्लेषण परक लेख पढ़कर सुख हुआ। संतोष जी के शब्दों में उनकी कविताओं से गुज़रकर आने की गंध और ध्वनि व्याप्त है। उन्हें बधाई और धन्यवाद।
प्रभात जी की कविताओं को अधिक नहीं पढ़ा था मैंने..अब पढ़ूँगी..संतोष आप हमारे समय के ऐसे आलोचक हैं जो पूरी तटस्थता और मनोयोग के साथ कोई आलेख लिखते हैं..और आपको पढ़ने के बाद कविताओं के और और अर्थ खुलते हैं..प्रभात जी को बधाई और शुभकामनाएँ
प्रभात को सुनने और उनसे मिलने , उनकी पाण्डुलिओ को बांचने के सुअवसर हमें मिले हैं।
वे अकेले ऐसे कवि हैं जो अपनी ज़मीन, आब-हवा से इतनी विलक्षण अनुभूति हमारे लिए अँजुरी भर हर कृति में लिए आते हैं कि आप बारबार उन कृतियों में प्रविष्ट होकर श्वास भरते हैं, सुगन्ध लेते हैं उस जीवन की जिसकी बाबत अब कोई बात तक नहीं करता।।अनुभव करना तो दूर।
इतना धीरे चलना चाहता हूँ जीवन में
जितना धीरे चलते हैं गड़रिए बीहड़ में
(धीरे, वही)
इस आलेख को आधा पढ़ कर लगा इसका प्रिंट लेकर पढ़ना चाहिए। प्रभात की कविता की ही तरह हमें नज़र न आने वाले जुगनू की तरह यह आलेख जीवन के उन रास्तों पर ले जाता है जहाँ अब अधिकांश मनुष्य जाना भूल चुके है ।
बहुत सुंदर लेखन है यह संतोष अर्श का। बाकमाल।
प्रभात प्रिय कवि हैं। और यह समीक्षा भी काव्यात्मक ही थी। समीक्षक की दृष्टि पाठक को बहुत दूर ले जाकर छोड़ रही है। बहुत ही सुन्दर मूल्यांकन है। प्रभात की कविताओं को आपने विभिन्न संदर्भों से जोड़कर देखा है । इस दृष्टि से देखना भी महत्वपूर्ण है। बहुत सारगर्भित लेख।
प्रभात की कविताओं पर अब तक जो भी लिखा गया है, वह मैंने पढ़ा है। Santosh Arsh जी मैं पूरे यकीन से कह रहा हूं कि उसमें यह सर्वश्रेष्ठ बन पड़ा है। आपको इसके लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएं 🌻
अच्छा लेख है। जैसे प्रभात की कवितओं में गाँँव व लोक का अच्छा-बुरा सब है वैसे ही संतोष अर्श का यह लेख प्रभात की कविताओं के हर पहलू को समझने में मदद करता है।
As always, best analysis by Dr.Arsh (Sir) .The way he put things together beautifully is what that helps to grab the attention of the reader. The main thing I’ve noticed after reading him is his brilliant use of words. The charm of the words he uses never fades away and never gets old.
Overall, it can be said that his criticism opens up the structure of the poetry in every possible way and makes it quite easy to understand for non Hindi readers also.
Very analytical. Congrats.