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Home » एक्स वाई का जेड: प्रभात रंजन

एक्स वाई का जेड: प्रभात रंजन

प्रभात रंजन मूलतः कथाकार हैं. उनकी पहचान उनकी कहानियों से बनी फिर वह अनुवाद और संपादन की ओर मुड़ गये. उनके अंदर का कथाकार जब-तब जगता है वह कहानी लिखते हैं. संपादन से जुड़े लोगों के साथ यह पुरानी समस्या है. संपादन का श्रमसाध्य कार्य रचनात्मकता के लिए अवकाश ही नहीं छोड़ता. उनकी नयी कहानी प्रस्तुत है, इस उम्मीद के साथ कि कथा-लेखन में उनकी निरंतरता बनी रहेगी.

by arun dev
April 29, 2022
in कथा
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एक्स वाई का जेड: प्रभात रंजन
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एक्स वाई का जेड

प्रभात रंजन

बात कुछ भी नहीं होती लेकिन बनते-बनते बन ही जाती है. एक बिंदु भी रेखा बन जाती है.

ऐसा ही कुछ उस दिन हुआ. माणिक बाबू शाम को दफ़्तर से लौटे तो उनकी नज़र सुबह के अख़बार के एक पन्ने पर पड़ी. सुबह का अख़बार शाम आते-आते इसी तरह पन्ने-पन्ने बिखर जाता. लेकिन यह पन्ना उसकी पत्नी ने डाइनिंग टेबल पर पानी के जग से दबाकर क्यों रखा था…

पत्नी चाय के साथ बिस्कुट लेकर आई तो माणिक ने चिढ़ते हुए कहा, ‘ख़ाली बिस्कुट? और कुछ नहीं है? दिन भर ऑफ़िस में ठीक से खाने का मौक़ा भी नहीं मिला और घर में आया तो बिस्कुट! बरमँड फ़ट रहा है.‘

पत्नी सोनाली को इसकी आदत थी. शाम को ऑफ़िस से आने पर कई बार माणिक बाबू इसी तरह गर्माए रहते थे. उसने कई बार कहा था कि बाइक से जाया करें लेकिन नहीं बस से जाएंगे. बस कोई इनके लिए ख़ाली तो रहती नहीं थी. बस का इंतज़ार, भीड़-भाड़ में किसी का भी बरमँड फट जाए. वह समझती थी. इसलिए उसने धीरे से पूछा, ‘नमकीन दें? हल्दीराम के नवरतन का पैकेट अभी खुला भी नहीं है.‘

‘नहीं रहने दीजिए. अचानक कोई आ जाता है तो घर में कुछ खाने के लिए तो होना चाहिए न. उस दिन शाम में सीओ साहब आ गए थे. तब नमकीन भी नहीं था घर में. बिस्कुट के साथ चाय पिलाने में कितना ख़राब लगा था. मौक़ा-बेमौका के लिए रहने दीजिए. हम जा रहे हैं बाहर फ़ुलेना के दुकान से कुछ खा लेंगे…’

‘बाहर का चीज़ नहीं खाइए. कितना बार समझाए हैं आपको. उम्र बढ़ रही है. हेल्थ का ध्यान रखना चाहिए…’

अभी उसका वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि माणिक कुर्सी से झटके से उठा. चाय का कप डाइनिंग टेबल पर रखने के बहाने गए और जब उनको इस बात का भरोसा हो गया कि सोनाली उसकी तरफ़ नहीं देख रही थी तो उन्होंने धीरे से अख़बार का वह पन्ना उठाया और मोड़कर अपनी जेब में रख लिया. तेज़ी से बाहर निकल गए.

फ़ुलेना के ठिए पर आकर बैठ गए. फ़ुलेना समोसा के साथ घुघनी बेचता था जो उसको बहुत अच्छा लगता था. लेकिन आज समोसा खाना नहीं उसका मक़सद समोसे खाने से अधिक अख़बार की उस खबर को ध्यान से पढ़ना था जिसके ऊपर घर में घुसते ही उसकी नज़र चली गई थी.

फ़ुलेना की गुमटी के बाहर बेंच पर बैठने से पहले उन्होंने उसी अख़बार से बेंच की धूल झाड़ी, उसको आलू चाप और घुघनी बनाने के लिए बोलकर अख़बार में उस खबर को ध्यान से पढ़ने लगे जिसको पढ़कर उनका बरबंड फटा जा रहा था.

सीतामढ़ी टाइम्स की उस खबर में लिखा था- ‘पद्मश्री से सम्मानित प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र मोहन ने सीतामढ़ी में आकर रहने और जनता की सेवा करने का फ़ैसला लिया है. वे पिछले दस सालों से फ़्रांस के एक विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र पढ़ा रहे हैं. उनको अपने राष्ट्रवादी विचारों के लिए जाना जाता है. पोता मधौल गाँव के निवासी सुरेन्द्र मोहन के दादा चिंता मोहन पांडे स्वतंत्रता सेनानी थे और सीतामढ़ी में उनकी जड़ें काफ़ी गहरी रही हैं. खबर है कि उन्होंने डुमरा रोड में एक घर भी ले लिया है. सूत्रों की मानें तो आगामी लोकसभा चुनाव में उनको राष्ट्रवादी दल की ओर से मैदान में उतारा जा सकता है…’

खबर बहुत बड़ी थी. शहर के नेताओं के ऊपर उस खबर का क्या असर पड़ा था यह तो कोई नहीं जानता था लेकिन माणिक बाबू के लिए वह उनके अस्तित्व को हिलाकर रख देने वाली खबर थी. कुछ पुरानी बातों को उभार देने वाली खबर थी. जिस बात को वे भूल चुके थे उसकी याद दिलाने वाली खबर थी.

माणिक बाबू न तो नेता थे न किसी नेता के आगा-पाछा करने वाले, न किसी धारा-विचारधारा के समर्थक. उनका हिसाब-किताब बहुत साफ था. कहते थे सरकारी नौकरी करने वाले को सामने जो सरकार हो उसका नौकर बनकर रहना चाहिए. अफसर को कभी नाराज़ नहीं करना चाहिए. कोई कुछ दे तो ले लेना चाहिए लेकिन अपनी तरफ से किसी से कुछ माँगना नहीं चाहिए. ऊपरी कमाई चाहे जितनी हो कभी दिखावा नहीं करना चाहिए.

उनकी एक बात बहुत मशहूर हुई थी. फ़ुलेना की गुमटी पर कई साल बाद आज भी कभी-कभी कोई उनकी इस बात को दोहरा देता था, ‘एक्स समाज में, एक्स मोहल्ले में वाई की तरह से नहीं रहना चाहिए नहीं तो जेड होते देर नहीं लगती.’ धीरे से जेड का मतलब समझाते हुए उन्होंने कहा था, ‘सब खत्तम! बूझे कि नहीं?’

उनका दर्शन साफ था, ‘घर में घीऊ भी ऐसा खाना चाहिए जिससे ज्यादा खुशबू न निकले. घर में आने वाले किसी मेहमान को ऐसा कुछ मत खिलाइए कि उसको लगे कि आप अमीर हो रहे हैं. अमीर हो रहे हैं मतलब ऊपरी कमाई हो रही है. ऊपरी कमाई वाली बात गली-मोहल्ले, नाते-रिश्तेदारों से होते-होते अफसर, बाबू तक पहुँचने लगती है.

कभी किसी दिन किसी अफसर का बरमँड घूमा कि एक्स वाई से सीधे जेड…’

फ़ुलेना के दुकान पर रोज बैठने वालों में गिरधारी बाबू भी थे. स्कूल से रिटायरमेंट के बाद जो पैसा मिला था बेचकर डुमरा रोड में घर ख़रीदे थे. वे दावे के साथ कहते थे ‘माणिक बाबू जो कहते हैं, जैसा दिखते हैं वैसे हैं नहीं. दस साल से भूमि सुधार विभाग में बड़ा बाबू हैं. ई कोनो मामूली बात थोड़े है. खाली इनका ब्लॉक बदलता है विभाग नहीं.‘

आजकल रीगा ब्लॉक में पदस्थापित थे. सरकार ने जब कर्मचारियों के लिए एजुकेशन लोन देने की शुरुआत की तो उसी में लोन लेकर बेटा को दिल्ली में पढ़ने भेज कर निश्चिंत थे. दिन भर दफ़्तर में कागज-पत्तर की नक़ल लेने वाले आते रहते थे. जो आता था पचीस पचास दे ही जाता था. साथ में समोसा-चाय भी, कभी अयोध्या साह की दुकान का काला जामुन.

2939 बस पकड़ कर रीगा जाते और शाम को भी उसी बस की लौटती यात्रा के सवारी बन जाते थे. लोग कहते थे कि बस में भी कभी टिकट नहीं लेते थे, कभी आधा अधूरा कुछ दे देते थे.

ज़िंदगी इसी तरह से चल रही थी कि अचानक प्रोफ़ेसर सुरेंद्र मोहन के बारे में यह समाचार पढ़कर उनको ऐसा लग रहा था कि उनके एक्स वाई का जेड बस होने ही वाला था.

जिस ज़िंदगानी को वे कहानी समझकर भूल बैठे वही लगता है कि अब दुबारा उनके जीवन को नरक बनाने के लिए लौट रही थी.

एक मन कह रहा था कि इतना बड़ा प्रोफ़ेसर होने के बाद अब उसको क्या याद होगा? इतना बड़ा आदमी बन जाने के बाद छोटी-छोटी बात किसको याद रह जाती है. उनके बचपन का दोस्त था राजकुमार. स्कूल के बाद पढ़ने के लिए दिल्ली चला गया. लोग बताते थे कि बाद में वहीं किसी मल्टीनेशनल कंपनी में डायरेक्टर हो गया था. माणिक को आते-जाते अपने पुराने साथी जब भी मिलते सब यही कहते, ‘कहाँ से कहाँ पहुँच गया राजकुमार.’

संतोष इलेक्ट्रोनिक्स का मालिक जय भगवान बताता कि वह मोहन को जब फ़ोन करता था मोहन कभी विदेश में ही रहता था. बताता कि छह देश का इंचार्ज बनाया था उसको कंपनी ने. उसकी कंपनी साबुन-शैम्पू बनाती थी. जय भगवान बताता कि बोला है एक कार्टन शैम्पू भिजवा देगा हम लोगों के लिए. उन्होंने जय भगवान से कभी पूछा नहीं कि भिजवाया कि नहीं. अगर उसका जवाब हाँ में होता तो बेकार में उनका दिल छोटा हो जाता.

राजकुमार नहीं था लेकिन बीस साल से ऊपर से उसके स्कूलिया दोस्त लोग उसके किस्से बतियाते रहते थे. उसकी तरक़्क़ी की बात करके अपना सीना चौड़ा करते रहते. माणिक बताता था कि वह रोज उसके लिए अपने टिफ़िन में एक दो रोटी फ़ालतू ले आता था. वह सुबहे में गाँव से खाकर निकलता था. फिर वापस लौटकर ही खाता. घर का फ़ाइनांसियल हालत ठीक नहीं था. इसलिए वह रोज उसको टिफ़िन खिलाता था. कहाँ से कहाँ पहुँच गया.

जब मिलते सब अपने अपने हिस्से के राजकुमार को याद करते और कभी गर्व करते, कभी आहें भरते. माणिक हमेशा कहता, ‘राजकुमार से हमको हमेशा अधिक नम्बर आता था. लेकिन क्या करें इंटर में थे तो पापा बीमार पड़ गए. बीए पास करते-करते गुजर गए. फ़ैमिली की हालत ऐसी नहीं हुई होती तो हमको अनुकम्पा पर नौकरी नहीं करनी पड़ी होती. हम कभी फ़ैमिली से आगे सोच ही नहीं पाए. अपने कैरियर पर ध्याने नहीं दे पाए.’

कई साल बाद जब राजकुमार वापस लौटा तो माणिक बहुत छोह से मिलने गया था. सोचा था स्कूल के दिनों की खूब बातें करेंगे. वह उसको तो नहीं ही भूला होगा. रोज-रोज अपना टिफ़िन खिलाता था. सोचा था कि बातचीत में मौका देखकर अपने बेटे की भी बात चलाएगा. उसका भाग्य तो फ़ैमिली के चक्कर में नहीं बना क्या पाता उसके बेटे का भाग्य बन जाए. वह सीतामढ़ी के सीतायन होटल में ठहरा था. माणिक को जब पता चला तो वह एक दिन अपने ऑफ़िस से हाफ़ डे लेकर सुबह सुबह उससे मिलने पहुँच गया.

राजकुमार ने पहले तो उसको पहचाना ही नहीं. जब माणिक ने याद दिलाया तो राजकुमार ने उसको गले से लगा लिया. बिठाया. अपने हाथ से चाय बनाकर पिलाया और जब तक उसकी चाय खत्म होती उसने माणिक से साफ-साफ कह दिया कि अभी उसको तैयार होकर निकलना है. 11 बजे जनकपुर में उसकी एक मीटिंग है. उसने माणिक को एक नम्बर दिया और कहा कि यह उसका अपना मोबाइल नम्बर है, जब चाहे फोन करके उससे मिलने आ जाए. अभी दो-चार दिन वह रहेगा इस होटल में.

माणिक को अच्छा तो नहीं लग रहा था लेकिन वह इस बात से खुश था कि इतने बड़े कंपनी के डायरेक्टर होने के बावजूद राजकुमार ने उसको अपने हाथ से चाय बनाकर पिलाया. अपना स्पेशल नम्बर दिया.

लेकिन बाद में उसने जब-जब राजकुमार का नम्बर मिलाया तब-तब उसका नम्बर इंगेज आता. तीन चार दिन के बाद जब वह राजकुमार से मिलने के लिए सीतायन होटल गया तो उसको होटल के रिसेप्शन पर पता चल कि वह जा चुका था. राजकुमार का नम्बर आज भी उसके पास था. अभी भी कभी-कभी वह उसका नंबर डायल कर देता था. लेकिन वह नम्बर हमेशा इंगेज मिलता था. एक दिन जय भगवान उसको बस में मिल गया. वह ऑफ़िस के किसी काम से पटना जा रहा था. तब उसने जय भगवान से अपने दिल की यह पीड़ा साझा की थी. जय भगवान कुछ नहीं बोला. उसके कंधे पर हाथ रखकर बस की खिड़की से बाहर देखने लगा था. उस दिन वह अंदर से हारा हुआ महसूस कर रहा था.

अभी उसके अंदर जैसे लुत्ती लगी हुई थी. सुरेंद्र मोहन सीतामढ़ी आ रहा था. बार-बार अख़बार में पढ़ी हुई बात उसके दिमाग में चल रही थी. फ़ुलेना के दुकान पर बैठे बैठे उसने कई बार ध्यान से समाचार पढ़ा था. समाचार में साफ लिखा था कि उसने डुमरा रोड में घर ले लिया था. क्या पता उसके घर के आसपास ही लिया हो? पहली बात यह थी कि उसको इतने साल बाद यह कैसे पता चला कि वह और सोनाली डुमरा रोड में रहते हैं? क्या पता सोनाली… उसने अपनी आँखों से देखा था कि सोनाली ने अख़बार के उस खबर को ध्यान से पढ़ा था.

जब उसको लगने लगा था कि ज़िंदगी में अब सब कुछ पीछे रह गया था अब चैन से बची हुई ज़िंदगी कटेगी. वह आगे की सोच रहा था कि एक समाचार ने उसको पीछे पहुँचा दिया था. बीस साल पहले… करीब-करीब! या बाईस! तब वह सोनाली को जानता भी नहीं था. वह कुछ भी नहीं जानता था. उस समय कुछ जानने का होश भी कहाँ था. पिताजी की मृत्यु के बाद वह पहले अनुकंपा की नौकरी के लिए दौड़-भाग में लगा रहा. जब नौकरी मिली तो माँ ने शादी तय कर दी. वकील चुम्मन पांडे की बेटी सोनाली से. वह लाख कहता रहा कि माँ अभी नौकरी मिली है. कुछ दिन चैन से घर में सब ठीक-ठाक कर लेते हैं. बाबूजी जो काम सब अधूरा छोड़ गए थे उसको पूरा कर लेते हैं फिर शादी करेंगे. लेकिन माँ कहाँ मानने वाली थी.

शादी के बाद हनीमून पर काठमांडू गया था. जनकपुर से हवाई जहाज में बैठकर. बड़े मज़े किए थे जनकपुर-पोखरा की उस यात्रा में. एक दिन बातों-बातों में माणिक ने सोनाली से कहा कि कोई ऐसी-वैसी बात है तो वह उसको खुद बता सकती है. उसको बुरा नहीं लगेगा. माणिक ने कहा, ‘रिश्ता जितना पारदर्शी रहता है विश्वास उतना रहता है. जो कहना है आज कह दो.’ होटल सॉल्टी ओबेराय में महंगी शराब के प्याले चढ़ाते-चढ़ाते वह सुरूर में आ गया था.

‘एक गिलास हमको भी देंगे पीने के लिए? तब बताएँगे आपको कुछ. लेकिन एक वादा कीजिए कि आप भी कुछ छिपाइएगा नहीं. जो है सो बता दीजिएगा. और हाँ, मेरी बात सुनकर बमकिएगा नहीं. प्यार सुनने-सुनाने का भी तो नाम होता है न’, सोनाली बोली.

हनीमून पर गये थे माणिक बाबू नहीं चाहते थे कि अपनी पत्नी को किसी बात के लिए मना करें. मज़ा किरकिरा हो सकता था. दो तीन घूँट पीने के बाद सोनाली ने बताना शुरु कर दिया.

‘सुरेंद्र मोहन पांडेय उर्फ़ सुरेंद्र मोहन से मेरा पुराना संबंध था. चिंता मोहन पांडे के बेटे राधामोहन पांड़े मेरे पापा के क्लाइंट थे. उनके साथ-साथ कभी-कभी सुरेंद्र जी भी आते थे. सबके सामने तो उनको भैया कहती थी लेकिन मन ही मन हम सुरेंद्र से बहुत प्यार करते थे. घर आते थे. दोस्ती भैया से थी लेकिन भैया के रहते घर में कभी नहीं आते थे. एक दिन अकेले में मेरा बाँह पकड़ लिए थे. बोले कभी नहीं छोड़ेंगे… दिल्ली गए तो वहाँ से चिट्ठी भी लिखते थे. फिर आप आ गए…’

‘हम आ गए? मतलब यह कहना चाहती हो कि हम तुमसे ज़बरदस्ती बियाह किए? जानती नहीं हो माँ से पूछवा देंगे. एक से एक बरतुहार आए थे. खूब दहेज देने वाले भी. लेकिन माँ तुमको मंडल मास्टर साहब के बेटे के बियाह में देख ली थीं. उनको एतना पसंद आ गई कि फिर ऊ कुछ सोची ही नहीं. ऐसा कोनो बात था तो पहले ही बता देती?’

‘आप बोले थे पारदर्शी रहने के लिए. हम वही तो किए हैं. अब आपका मौका है पारदर्शी होने का’, सोनाली ने माणिक बाबू से कहा.

माणिक बाबू पहले ही यह बोल चुके थे इसलिए उनके सामने कोई चारा नहीं था कि उसकी बात सुनें और अपनी बात बताएँ. सब सुनकर बस इतना पूछे, ‘कोई और बात तो नहीं हुई थी?’

‘मेरी बात पर भरोसा कीजिए. इससे ज़्यादा कोई बात नहीं थी. अब निर्धोक होकर अपना बात बताइए. आप ही बोले हैं कि कुछ छिपाना नहीं है’, सोनाली ने एक घूँट भरा और नशीली आँखों से माणिक बाबू की तरफ देखते हुए बोला.

‘हमको ई सब का टाइमे नहीं मिला. लेकिन कॉलेज के बड़ा बाबू की बेटी सपना हमको अच्छी लगती थी. उसके घर हम नोट्स देने जाते थे. उसको भी हम अच्छे लगते थे और जब वह नोट्स लौटाती थी तो पुरजी पर लिखकर चिट्ठी भी देती थी. लेकिन हम कभी जवाब नहीं दिए. जब जाते थे तो पूछती थी हाँ या न. हम मुड़ी हिला देते थे. दो साल ऐसे ही चलता रहा. एक दिन उसने पीछे से जोर से पकड़ लिया था. याद करते हैं तो आज तक शरीर सनसनाता रहता है.’ फिर थोड़ा रुककर बोला, ‘पर साल उसका शादी हो गया.’

‘मतलब आपकी ज़िंदगी में स नाम की लड़की ही लिखी हुई थी’, कहते हुए सोनाली ने माणिक बाबू को कसकर भींच लिया.

हनीमून की यही कहानी थी जो टुकड़ों-टुकड़ों में आगे कई साल तक चलती रही. बढ़ती-घटती रही. सुरेंद्र मोहन तो सीतामढ़ी फिर शायद नहीं लौटा या आया भी होगा तो अपने परिवार वालों के साथ समय बिताकर चला गया होगा. लेकिन उसकी कहानी दोनों के बीच बनी रही. साल में दो चार बार जब दोनों साथ बैठकर थोड़ा बहुत एंजॉय कर लेते थे, माने थोड़ा बहुत पी लेते थे तो अक्सर सुरेंद्र मोहन को लेकर झगड़ा कर बैठते थे. कुछ दिन तक सपना का नाम भी झगड़े में आता रहा, बाद में बस सुरेंद्र मोहन रह गया था.

सोनाली बहुत ग़ुस्से में आती थी तो उसका नाम ले लेती थी, जो असल में माणिक बाबू को चिढ़ाने के लिए अधिक होता था. उसका नाम सुनते ही माणिक बाबू हीन भावना से भर जाते थे. सीतामढ़ी के फेसबुक पेज पर सुरेंद्र मोहन के बारे में अक्सर कुछ न कुछ आता रहता था. कभी सीतामढ़ी के गौरव के रूप में, कभी धरती के लाल के रूप में. माणिक बाबू भी पढ़ते रहते थे. उनको यह बात बहुत सालती थी कि उनकी पत्नी को ऐसे आदमी ने प्रेम किया था जो आज दुनिया के बड़े विद्वानों में गिना जाता था. उनको थोड़ा बहुत प्यार टाइप हुआ भी तो बड़ा बाबू की बेटी से. खुद भी बड़ा बाबू ही बने. यह सब सोच-सोच कर वे हीन भावना से भर जाए थे.

बीस-बाइस सालों में सोनाली और सुरेंद्र बाबू की प्रेम कहानी में बात इतनी और आगे बढ़ी थी कि माणिक बाबू को एक सोनाली की एक पुरानी कॉपी में एक फोटो मिली थी. ग्रुप फोटो थी जिसमें सोनाली अपने भैया और सुरेंद्र मोहन के साथ खड़ी थी, फोटो में और भी कुछ लोग थे. पूछने पर सोनाली ने बताया कि सब भैया के दोस्त लोग थे.

एक किताब में छोटी सी एक चिट्ठी भी मिली थी जिसमें सुरेंद्र मोहन ने सोनाली को बहन करके संबोधित किया था और आने वाले एक्जाम के लिए शुभकामना दी थी.

अब जब उस कहानी को वे भूलने से लगे थे कि अख़बार में छपी एक खबर ने उनको झकझोर कर रख दिया था.

अगले दिन जब वे ऑफ़िस गए तो उन्होंने पहली बार सुरेंद्र मोहन के फ़ेसबुक अकाउंट को देखा. उनके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही जब उन्होंने देखा कि सोनाली ने उसके कई पोस्ट को लाइक कर रखा था. वह उस आदमी की फ़्रेंड लिस्ट में तो नहीं थी लेकिन सुरेंद्र का प्रोफ़ाइल पब्लिक था और उसके ऊपर कोई भी लाइक कमेंट कर सकता था. सोनाली के लाइक करने का मतलब तो यही था कि वह अभी भी सुरेंद्र को भूली नहीं थी. क्या पता उसके संपर्क में भी हो. क्या पता उसने उसको बताया हो कि वह डुमरा रोड में रहती है. तभी तो सुरेंद्र किशोर ने डुमरा रोड में घर लिया होगा.

उस दिन जब वे दफ़्तर से घर लौटे तो थोड़ा सा एंजॉय करने के बाद सोनाली से भिड़ गए. पहले इस बात पर कि वह फेसबुक पर इतना क्यों लिखती रहती है. फिर हिम्मत जुटाकर यह भी बोल गए कि सुरेंद्र के वाल पर वह क्यों जाती है? एक साल में कम से कम बीस पोस्ट लाइक कर चुकी है. इस सबका क्या माने है?

सोनाली पहले तो सफाई देती रही कि वह इतने बड़े आदमी हैं कि हज़ारों लोग उनकी वाल पर जाकर लाइक कमेंट करते रहते हैं. एक वही थोड़े करती है. लेकिन उस दिन माणिक बाबू कुछ अधिक ही एंजॉय कर चुके थे. इसलिए चिल्लाने लगे. यह देख फिर वह भी इस वाक् युद्ध का हिस्सा बन गई. वाक् युद्ध इतना बढ़ गया कि उस रात घर में एक बोतल और कुछ गिलास टूटने पर जाकर खत्म हुआ. दोनों अलग अलग कमरों में बंद होकर सोए.

तनाव बढ़ता जा रहा था. सोनाली ने अपने बेटे को दिल्ली फ़ोन करके कहा कि वह जल्दी आ जाए क्योंकि घर में पापा माहौल ख़राब कर रहे हैं. पहले से ज़्यादा एंजॉय करने लगे हैं और उसके बाद बहसबाजी भी. बेटे ने कहा कि अभी वह परीक्षा की तैयारी में लगा है. जब फ़्री होगा तब आएगा. बेटे ने माँ को सलाह दी कि वह पापा की बातों पर अधिक ध्यान न दे वे इसी तरह फूँ-फाँ करके रह जाएँगे. माँ ने बेटे से उसकी क़सम खाकर बताया कि जो बात है ही नहीं उसी बात को मुद्दा बना रहे हैं. फ़ोन की बातचीत माँ के सुबकने और बेटे के चुप करवाने से खत्म हुई.

माणिक बाबू ग़ुस्से में अलग हो जाने, तलाक़ ले लेने के बारे में सोचने लगे थे. लेकिन दिन भर दफ़्तर में यही सोचते रहे कि अब जाएँगे कहाँ? इस उमर में. बेटा भी माँ का ही साथ देगा. अब इस उमर में पत्नी की ज़रूरत सबसे अधिक होती है. पत्नी को सहारा देने वाले लोग मिल जाएंगे लेकिन एक बड़ा बाबू को कौन सहारा देगा. क्या पता केस-वेस कर देगी तो नौकरी भी जाती रहेगी.

कुछ बुझा नहीं रहा था. इसी बेचैनी में वे फ़ेसबुक पर देखे जा रहे थे कि सीतामढ़ी के फ़ेसबुक पेज पर उनकी नज़र इस पोस्ट पर पड़ी-

‘अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के राजनीति विज्ञानी सुरेंद्र मोहन ने सीतामढ़ी टाइम्स पर मानहानि का मुक़दमा करने की धमकी दी है. इस अख़बार में एक दिन पहले ही यह खबर प्रकाशित की थी कि वह चुनाव लड़ने के लिए सीतामढ़ी वापस आने वाले हैं और इस बाबत उन्होंने डुमरा रोड में घर भी खरीद लिया है. सुरेंद्र जी का कहना है कि यह पूरी तरह से मनगढ़ंत बात है. सच्चाई यह है कि इसी महीने वे अमेरिका के एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में पढ़ाने के लिए जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि उनको वैसे तो सीतामढ़ी की बहुत याद आती है, जहाँ उन्होंने अपने बचपन के सुहाने दिन बिताए. लेकिन बड़े होने पर इंसान की जिम्मेदारियाँ अलग तरह की हो जाती हैं. वे चाहते तो हैं कि सीतामढ़ी आएँ लेकिन निकट भविष्य में उनका वहाँ आने का कोई इरादा नहीं है. उन्होंने कहा कि अगर अख़बार ने इस खबर का खंडन प्रकाशित नहीं किया तो वे उसके ऊपर मानहानि का मुक़दमा कर सकते हैं.

उनका दिल बल्लियों उछलने लगा. लेकिन अफ़सोस भी होने लगा कि पत्नी पर उन्होंने इतना इल्जाम लगाया. उसको गलत समझा. उस रात आए तो दोनों के बीच हूँ-हाँ से अधिक बातचीत नहीं हुई. खाना खाकर दोनों अपने अपने कमरे में चले गए. लेकिन शायद नींद किसी को नहीं आई.

माणिक बाबू उधेड़बुन में लगे हुए थे कि अगले दिन सुबह के अख़बार ने उनकी मुश्किल हल कर दी. सीतामढ़ी टाइम्स ने अख़बार के पहले पन्ने पर खंडन प्रकाशित किया था और खेद प्रकट किया था. डाइनिंग टेबल उस खबर वाले पन्ने को गिलास के नीचे दबाकर माणिक बाबू दफ़्तर निकल गए. उस दिन उनका मन काम में नहीं लग रहा था. शाम में समय से पहले ही घर के लिए निकल गए. अयोध्या साह के दुकान से काला जामुन लिए और घर पहुँचे.

सोनाली ने उनको अख़बार दिखाते हुए पूछा, ‘ई पढ़े कि नहीं. इसी बात पर न एतना हल्ला किए थे आप?’

‘हम तो कल ही फ़ेसबुक पर पढ़ लिए थे’, माणिक बाबू ने बेपरवाही से कहा.

‘हम तो फेसबुक बंद कर लिए हैं. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. केतना छोटा बात था और केतना दूर तक सोच लिए थे आप!’

माणिक बाबू कुछ नहीं बोले.

उस दिन बरसों बाद दोनों ने साथ बैठकर एंजॉय किया. दो गिलास के बाद माणिक बाबू बोले, ‘जानती हो सपना वाला बात हम झूठ-मूठ में बोले थे.’ उसको नोट्स पहुँचाने जाते थे हम लेकिन उसकी मम्मी को देकर आ जाते थे. हाँ एक दो बार भैया ज़रूर बोली थी…’

‘हमको कौन सा सुरेंद्र मोहन से प्यार था. वह भैया से मिलने घर दो-एक बार आए थे. उसी में एक बार ग्रुप फोटो खिंचाया था.

‘और वह चिट्ठी?’

‘वह तो भैया के कहने पर हम उनको टॉप करने की बधाई दिए थे उसी के जवाब में उनकी चिट्ठी आई थी. असल में हमको नहीं भैया को लगता था कि सुरेंद्र मोहन से मेरी शादी की बात चलाई जा सकती है. लेकिन वह तो एक विदेशी लड़की के प्यार में पड़ गए. हमको इधर आप मिल गए… बस इतनी सी बात थी’, कहकर वह सुबकने लगी.

‘इ तो सच में एक्स वाई का जेड हो गया’, कहकर वह सोनाली को प्यार करते हुए काठमांडू में मनाए हनीमून को याद करने लगे.

‘अगले साल हमारी शादी के पचीस साल हो जाएँगे. सिल्वर जुबली मनाएँगे. फिर चलोगी काठमांडू?’ माणिक बाबू ने सोनाली के बालों में हाथ फिराते हुए कहा.

धत्त! अब जाएँगे तो लोग क्या सोचेंगे?’ कहकर सोनाली उनके सीने से चिपट गई.

‘पिछली बार जो बात सब वहाँ याद किए थे इस बार सब भुला देंगे’, माणिक बाबू ने कहा.

लेकिन उनके बोलने के पहले सोनाली ने बत्ती बुझा दी थी.

अंधेरे में दोनों एक दूसरे को पहचानने की कोशिश कर रहे थे!

प्रभात रंजन
(३ नवंबर १९७०, सीतामढ़ी (बिहार). 

प्रकाशन:  जानकी पुल और बोलेरो क्लास (कहानी संग्रह). नीम का पेड़, स्वच्छन्द, टेलीविजन लेखन, एंकर रिपोर्टर, मार्केस की कहानी. (पुस्तकें). श्रीनगर का षड़यंत्र और एन फ्रैंक की डायरी (अनुवाद)

‘सहारा समय कथा सम्मान’, ‘प्रेमचंद कथा सम्मान’ प्राप्त

जानकी पुल के संपादक और संचालक
prabhatranja@gmail.com

Tags: 20222022 कथाप्रभात रंजन
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पीयूष दईया और प्रभात रंजन का क़िस्साग्राम पर एकाग्र संवाद
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पीयूष दईया और प्रभात रंजन का क़िस्साग्राम पर एकाग्र संवाद

विशेष प्रस्तुति: 2022 में किताबें जो पढ़ी गईं.
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विशेष प्रस्तुति: 2022 में किताबें जो पढ़ी गईं.

Comments 18

  1. संतोष दीक्षित says:
    3 years ago

    मैंने तो पढ़ ली।बहुत बहुत बधाई प्रभात रंजन को। दाम्पत्य जीवन में स्त्रियों की शुचिता पर आशंका की जो एक तलवार सदैव लटकती रहती है, उसका बहुत ही सहज और दिलचस्प चित्रण। फिर से बधाई!

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    • NavRatan says:
      3 years ago

      गजब कहानी….xy ka z….एक दम नया कथानक….और वास्तविक भी। ऐसा बिल्कुल होता है…पुरुष को….एक फितूर है कि वह औरत …कई तलों पर चाहता है।औरत उसकी नाक भी है….और जूती भी…. मतलब…. स्त्री पुरुष संबंधों की बात करें तो कहा जा सकता है कि….वह सब कुछ स्त्री के लिए कर रहा है। यहां तक कि…आदमी किचन में चार लाख रुपए खर्च कर देता है तो औरत के लिए…..
      कोठागोई …..के बाद पहली कहानी पढ़ी इनकी….मनोहर श्याम जोशी…की याद ताजा हो गई…. बहुत बहुत बधाई 😊💐🙏

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  2. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    आम मध्यवर्गीय परिवारों में पति-पत्नी के बीच की रूमानियत से भरी नोक-झोंक एवं एक दूसरे के प्रति संशय-अविश्वास कई नैतिक प्रश्न खड़े करते रहे हैं जो अक्सर विक्टोरियन मूल्यों एवं नैतिकता के समतुल्य से लगते हैं। स्मृतियों की हिलती परछाइयों सी गलतफहमी मध्यवर्गीय दांपत्य जीवन की एक स्थायी नियति रही है। अपनी अंतर्वस्तु में यह कहानी एक पारिवारिक ताने-बाने में बुनी एक रूमानी कथा भर नहीं है। इसे भले हीं गंभीर सामाजिक संदर्भ में हम समकालीन यथार्थ की वाहक नहीं कह सकते पर यह हमारे पारिवारिक जीवन का आइना तो है ही।प्रभात जी को बधाई !

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  3. विनय कुमार says:
    3 years ago

    वाह! morbid jealousy की आँधियों के दौर में एक प्यारी सी समझाइश! पढ़कर हरिमोहन झा की वह कहानी याद आ गयी जिसमें एक बीच से फटे ख़त के दो हिस्से अलग-अलग बात कहते थे और जोड़ते ही अर्थ बिलकुल अलग। अलग-अलग पाए-कहे गए टेक्स्ट मिलते ही अपने सही context के साथ प्रकट होते हैं। बधाई Prabhat Ranjan

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  4. ज्योतिष जोशी says:
    3 years ago

    ठेठ आंचलिक भाषा विन्यास की मोहक कहानी। संक्षिप्त पर मानीखेज। माणिक बाबू और सोनाली के विगत और आगत की आशंका में डूबती उतराती कहानी सुरेंद्र मोहन और सपना के रहस्य में ले जाती है। मध्यवर्गीय जीवन किस किस तरह की आशंकाओं से झिलमिल होकर जिया जाता है और किस तरह उसका निवारण होता है, इसे बताती एक्स वाई जेड यह भी दिखाती है कि जीवन आगत की संभावना से अधिक वर्तमान को चाक चौबंद करने से चलता है। आशंकित माणिक बाबू, सोनाली के निर्व्याज और समर्पित गार्हस्थ्य प्रेम के आगे नतशिर हो जाते हैं। फुलेना की घुघनी और आलूचप के स्वाद में उनके सहपाठियों की तरक्की पाठक को अलग तरह की बेधकता देती है। आज के आक्रांत समय में शांति से रह सकने की जुगत देती इस कहानी को अवश्य पढ़ना चाहिए। बधाई।।

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  5. ज्ञानचंद बागड़ी says:
    3 years ago

    बहुत मासूम कहानी है. हम तो हमेशा दोनों भाइयों को कहते हैं कि सम्पादकी के साथ अरुण जी अपने कवि का ध्यान रखें और प्रभात जी अपने कथाकार का. कहानी ने एक पुरानी याद से रोमांचित कर दिया. विवाह के बाद मैं मेरी एक साथी का फोटो दूर रखता लेकिन पत्नी उसे बार – बार मेरी पढ़ने वाली किताब में रखकर मजे लेती थी.

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  6. M P Haridev says:
    3 years ago

    लो कहानी पढ़ ली । कहानी के शब्द ‘इन् ‘जॉइ की तरह मज़ा नहीं किया । किसी तरह का नशा नहीं करता । शाकाहारी हूँ । कहानी में आख़िरी रात सोनाली और माणिक ने एक-दूसरे को गले लगाया और साथ साथ सोये । जय भगवान और सुरेंद्र मोहन के जीवन में कहानी में रंग भरे ।
    पत्नी और पति में तकरार वैश्विक समस्या है । पश्चिमी देशों में लगातार होने वाली नोकझोंक और बेवफ़ाई के कारण पत्नी और पति डि’व़ॉर्स ले लेते हैं । मुस्लिम समुदाय में तलाक़ झंझट भरा काम है । तलाक़ के बाद फिर से शादी करने की ज़रूरत पुरुष को ज़्यादा होती है । स्त्रियों में शिक्षा का अभाव है । उसे भी सहारा चाहिये होता है । शरीयत क़ानून के मुताबिक़ मुस्लिम महिला पर पुरुष के साथ एक रात गुज़ारने पर मजबूर होती है । मुस्लिम महिलाओं में शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है । वे कमाने लगी हैं । इसलिये यह समस्या धीरे-धीरे दूर हो जायेगी । आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को दक़ियानूसी से बाहर निकलना होगा । शुभस्य शीघ्रम । कहानी पर लौटते हैं ।
    माणिक और सोनाली की मनगढ़ंत घटनाओं ने हनीमून की रात दोनों के दिलों में बिला वजह दूरी ला दी । लेकिन पुरुष का अहंकार सिर चढ़कर बोलता है । सोनाली ने मेज़ पर अख़बार का पन्ना बिछाकर कुछ रख दिया तो माणिक आगबबूला हो गये । पितृ सत्तात्मक संसार में वॉय एक्स पर भारी पढ़ता है । अन्यथा माणिक चाय की गुमटी पर क्यों जाता । रिश्वतख़ोरी की ओर भी संकेत किया गया है । कहानियाँ सीख देने के लिये लिखी जाती हैं । कहानी की ख़ूबसूरती नाटक में फ़टाक से पर्दा गिरने के समान होता है । एक बात का उल्लेख करना रह गया । माणिक और सोनाली की बढ़ती तकरार के कारण माणिक का तलाक़ देने के बारे में सोचना । हिन्दू धर्म में तलाक़ की अवधारणा नहीं है । जनसत्ता अख़बार के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी इस पर टोकते थे ।

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  7. Anonymous says:
    3 years ago

    मनोहर श्याम जोशी जी का आप पर असर है।उनकी भाषा शैली की झलक आपकी कहानी में मिल रही है।बहुत सुंदर तरीके से दाम्पत्य जीवन के अंतर्द्वंदों को उकेरा है।निर्दोष अपराधबोध का एक सही चित्र खींचा है आपने।थोड़ा शिकवा भी हो ,थोड़ी शिकायत भी हो,तो मजा जीने और बढ़ जाता है।

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  8. डॉ. भूपेंद्र बिष्ट says:
    3 years ago

    प्रभात रंजन की कहानी दांपत्य जीवन में शुचिता और संबंधों की पारदर्शिता के फ्रेम में जीवन मूल्यों की खुशबू और एतमाद के रंग की कहानी है. कथानक में माणिक बाबू और सोनाली से बड़ी छाया सुरेंद्र मोहन और सपना की दिखाई पड़ती है. पर अपनेपन में खयानत की आशंका जब निर्मूल साबित होती है तो मन के ताप को शीतलता भी उसी छाया में मिली.
    जिस जमीन के किरदार हैं, वहीं के मुताबिक उनका बतियाना किस्से को सहज किए रखता है. अच्छी कहानी, बधाई.

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  9. Sanjeev buxy says:
    3 years ago

    प्रभात रंजन जी की कहानी अच्छी लगी बहुत दिनों बाद हम की कहानी पढ़ी साधुवाद

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  10. रवि रंजन says:
    3 years ago

    इस कहानी की सबसे बड़ी विशेषता है वह कथारस जो शुरू से अंत तक इस रचना को एक सांस से पढ़ लेने के लिए किसी भी संवेदनशील पाठक को बाध्य कर सकने में समर्थ है।
    दूसरी खूबी है कहानी का अपनी माटी की सोंधी गन्ध से जुड़ाव, जिसके कारण पाठक उस इलाके के रहने वाले स्त्री-पुरुष की अनुभूति की संरचना को महसूस करने लग जाता है।
    ग्लोबल हो जाने की महात्वाकांक्षा के जमाने में ग्लोबल पर लोकल को तरजीह देना रचनाकार के अपनी ज़मीन से जुड़े होने का सबूत है।
    रचनाकार को बधाई और अरुण जी को इसे प्रकाशित करने के लिए साधुवाद।

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  11. धीरेंद्र अस्थाना says:
    3 years ago

    इसे कहते हैं सहज कहानी।न कोई छल न छद्म। न शिल्प की कारीगरी। न भाषा का पाखंड, न पाखंड की भाषा। मध्यवर्गीय दांपत्य जीवन की खट्टी-मीठी तकरार और शुद्ध मोहब्बत वाले आर्गेज़म का स्वाभाविक प्रकटीकरण। जियो प्रभात। जीवन में बने रहो,जीवन से लेते रहो।

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  12. हीरालाल नगर says:
    3 years ago

    कहानी बहुत अच्छी लगी । इसके कथारस ने अंत तक बांधकर रखा। कथा लेखक ने अपनी बोलचाल की भाषा का पूरी कुशलता के साथ उपयोग किया है। जिसके कारण कहानी जीवन-परिवेश के बहुत निकट जा पहुंची है। खबर क्षेत्रीय अखबार में छपी है, मगर उसका असर गुपचुप तरीके से बहुत गहरा होता है। एक बार यह तो लगा था कि पारिवारिक संबंध छिन्न-भिन्न होकर रहेंगे, मगर कथाकार ने एक रचनात्मक पहल के साथ उन्हें पुनर्स्थापित किया। मध्यवर्ग और
    निम्न मध्यवर्ग परिवारों में ऐसी स्थितियां गर आ जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। उससे निबटना ही बेहतर।
    कहानी में आनंद का अतिरेक सालता है।
    फिर भी इसकी कारीगरी अच्छी लगी। इसके लिए कथाकार प्रभात रंजन को बधाई और शुभकायनायें।

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  13. Navlesh kumar says:
    3 years ago

    कहानी और कथ्य दोनों लाजवाब

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  14. Dharmendra says:
    3 years ago

    Sir jii bhahut sunder h

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  15. Anjali Deshpande says:
    3 years ago

    यही सच है। जब मिलना मिलाना होगा तो क्रश भी होंगे। लेकिन पुरुष भले ‘सह’ ले सह लेने का एहसास कराता रहेगा और शक कर करके खुद ही को सताता रहेगा। बढ़िया लिखी है। सबसे सुंदर है अंदाज़े बयां। भाषा पढ़ते ही बनती है। बधाई

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  16. सारंग उपाध्याय says:
    3 years ago

    सरल सहज भाषा। दिन बीते जो ऐसे कोई सादगीपूर्ण तरीके से कहानी कह गया। बहा ले जाने वाली कहानी। दाम्पत्य जीवन की नोंक झोंक के बीच कस्बाई जीवन में रच पग रहे मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण। रिश्तों के बीच ऐसे प्रसंग और उनका ऐसा सहज निपटान कि प्रेम और प्रगाढ़ हो जाए। जैसे आसपास का संसार उतर आया। प्रभात सर बहुत प्यारी कहानी। शुभकामनाएं आपको। 💐😊

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  17. Pankajj says:
    3 years ago

    बनावट, सायास बुनावट से परे बारिश के झरने सी बहती बेजोड़ कहानी। कहन में इस सहजता के लिए प्रभात जी को सेल्यूट है।

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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