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Home » सुदीप्ति की कविताएँ

सुदीप्ति की कविताएँ

सघन प्रेम की कविताएँ हैं. स्त्री ख़ुद को देख रही है. अपने प्रिय के साथ ख़ुद को देखते हुए वह यह भी देख रही हैं कि प्रिय उसे कैसे देख रहा है. श्रृंगार की काव्य-रीति में ये कविताएँ कुछ नया भी जोड़ती हैं. इनमें वह कर्म नहीं, क्रिया है. सुदीप्ति की ये नौ कविताएँ उनके कवि-भविष्य के प्रति आश्वस्ति पैदा करती हैं. प्रस्तुत है.

by arun dev
July 28, 2023
in कविता
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सुदीप्ति की कविताएँ
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सुदीप्ति की कविताएँ

1.
इच्छा

इच्छा नाम है एक नदी का
नदी के भीतर क्या कभी
उमगती है इच्छा?

किसी एक सुबह तुम्हारे मन में
हुमकी थी वह
जिसे कह दिया जाए चाहे
किसी भी और शब्द के लिबास में
मानी उनके एक ही है
इच्छा.

शब्दों के पर्दे हैं झीने
बात घूम फिर कर आनी है वहीं
हुड़क पर.

हुड़क, भीतर तब उठी जब
कानों में पहने थोड़े लंबे झुमके
टकराते थे गर्दन से उतरते
खाली छूटे कांधे पर.
तिल कोई न था वहाँ
बस स्पर्श ठहर गया
थमक गया समझो
परस तुम्हारी उंगलियों का.

झुमके के टकराने और
हुड़क के उठने के बीच का
कोई क्षण होगा
याद उगी आतुर
पीछे जगी कामना
दैहिक
वास्तविक और विकल.

वही इच्छा नाम जिस नदी का

कहती नहीं जिसे वह
वही इच्छा.

 

2.
पीठ

उसने अपनी पीठ नहीं देखी
पता नहीं
कौन से विशेषण ठीक होंगे उसके लिए
सुचिक्कण कोमल आकर्षक
या मजबूत
क्या पता!

पीठ है अहसास का बंद बक्सा
उस पर गिरते पानी की धार को
उस पर रुक गई उंगलियों की ठिठक को
उसे थपक रही हथेली की लय को
कितनी कितनी बार किया महसूस

कितनी बार थम रही उंगलियों ने
थाम लिया बहक रहे मन को
ठहर गए स्पर्श ने बांध लिया उसे
गर्दन से ठीक नीचे
कांधे से उतरती पीठ पर
आतुर उंगलियों की लालसा
चींटियों के पगचाप-सी सुगबुगाती है
उनींदी रातों में
तुम्हारी याद उसे नहीं आती हो
तो भी
उसकी पीठ पर तुम्हारी कामना की स्मृति उभरती है
वह करवट बदलती है

इच्छा
केशराशि की किसी लट में उलझी दब जाती है कहीं
क्या वह जाती है कभी तुम तक
ससरती है कभी पानी की तरह स्मृतियों में?

उसने दिखाई नहीं कभी पीठ
उन अर्थों में जिनमें
कहा जाता है ‘पीठ दिखाना’

मोड़ लिया मुँह दिखाई न पीठ
यह संभव है!

कैसे यह अपने मन से पूछो.

 

 

3.
आँखें

उसकी आँखों में कैसी दिखती है तुम्हारी छवि?

अपनी छवि उन आँखों में देख
कामना की कोई गंध
राग की कोई डोर
चुप पुकार-सी दबी कोई आह
खींचती है तुम्हें?

कभी ऐसा हुआ है
उन आँखों ने देखा न हो तुम्हें
या देखकर न देखा हो जैसे?
क्या दिखा उसके बाद भर संसार में तुम्हें?

किसी और को देखा उसने तुम्हारे सामने
ठीक-ठीक उन्हीं नज़रों से कभी
जो उठतीं रही हों जिस तरह सिर्फ़ तुम्हारी ओर
क्या उसके बाद बुझ गया तुम्हारे मन का कोई रौशन कमरा?

तृप्ति के किन किनारों पर ले जाती है
उन आँखों की आकुल दृष्टि
अतृप्ति की किस रेती पर पटक छोड़ती हैं फिर?
उनसे टपकती उदासी से उमड़ पड़े हैं कभी तुम्हारे नैन
उनकी स्मृति में डबडबाए हैं विह्वल हुए हैं क्या
भटके हैं कभी दिशाओं के आरपार उड़ते बगुलों की तरह?

यह तो बताओ
उसकी आँखें कामना जताती हैं
या जगाती हैं?

तृप्ति और अतृप्ति के मध्य
अदृश्य तुला पर झूलती उसकी दृष्टि में
स्वयं को देखने की चाह पूरी हुई भी है क्या?

कवि ने तो बहुत पहले ही कहा था
“नयन न तिरपित भेल”

 

4.
होंठ

प्रेम में सुख के डाकिए हैं होंठ
सिर्फ़ वे ही पहुँचा सकते हैं प्रिय तक पूर्णता में.
मिलन के गहनतम क्षणों में उमगे हुए
चूमने या चूम लिए जाने को उत्सुक
‘पंखुड़ी गुलाब की-सी’ वाले
या ‘पान के पत्ते की तरह’
या बेला की नरमी या रस नारंगी की फाँकों से लिए
जैसे भी हों होंठ

अनुभूति में स्पर्श्य,
स्मृतियों में रसवंत!

दो)

होंठों के चुम्बन
कुछ हवा में टंगे
कुछ माथे पर थमे
कुछ पलकों पर चन्द्र-से छाए
कुछ उतरे आत्मा में
कुछ ने जगाया देह-नेह
कुछ गुज़ारिशों और सरगोशियों की कनफुसकी
कुछ धड़कन कुछ लहू की रफ़्तार तेज कर आए
कुछ पुकार-से आए
कुछ बन गए कहानियों के पूर्ण विराम!

 

तीन)

तुम्हें चूमते हुए
उसके भीतर उभरी नहीं कोई स्मृति
तुम्हें दिया हजारवाँ चुम्बन भी
पहले जैसा नया और अलहदा ही रहा
यूँ जीवन के हरेक चुम्बन की सुन्दरता
हर बार उसका नया होना ही रहा

भागते हुए समय से
चुराये गए चुम्बनों की मिठास हो
या उद्दाम प्रेम के उतरने के बाद
देह पर ठहरे हुए नमक का
जिह्वा पर घुलता कोई आस्वाद
चूमना हर बार
‘और-और’ की इच्छा का वेग ही क्यों है.

चार)

तुम पहले नहीं थे जिसे उसने चूमा
तुम आखिरी भी नहीं जिसे वह चूम रही है
पर तुम्हें चूमते हुए उसके होंठों को अन्य की याद नहीं.
गहन चुम्बनों के न टूटते सिलसिलों के बीच
कभी कुछ और नहीं कौंधता
कैसी अचरज भरी बात है न!

 

5.
केश

फिल्मों के प्रचलित दृश्यों की तरह
हर बार तो नहीं
लेकिन कभी तो कटवाए हैं उसने भी अपने बाल
तुम पर आए भीषण क्रोध के क्षणों में.

कहते हैं बालों में जान नहीं होती
वे निर्जीव होते हैं.
लेकिन प्रेमियों की जान बसती है माशूका के केशों में.
उस रोज़ तुम्हारी आँखों में
जान जाती हुई-सी दिखी थी.

दो)

उसके बाल हैं
एकदम सीधे
बिलकुल उसके मन की तरह
लाग-लपेट से परे

कोई घूँघर नहीं
कोई भँवर नहीं
कोई उलझन नहीं

कभी-कभी नदी की लहरों की तरह
बल पड़ते हैं इनमें
अकुलाता है जैसे मन

इन सीधे लंबे बालों की जब गूंथ बनाती है
तो गुथ जाता है उसमें तुम्हारा मन
जब इनको कसकर जूड़े में बाँध लेती है
तो कैद हो रहते तुम भी उन्हीं में
पर उसे पसंद है
इन्हें और तुम्हें खुला छोड़ देना आज़ाद
दोनों उसके ही हैं
बाँधना क्या?

 

तीन)

बालों पर स्पर्श वैसे संप्रेषित नहीं
जैसे कि त्वचा पर
फिर क्यों काँप उठा था मन
एक अनचीन्ही चाह से भर
मिलने की शुरुआत के उस पहले दिन
जब तुमने एक लट उठाकर
उसके कानों के पीछे खोंस दिया था?

चार)

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि
उसके गेसुओं से दुनिया को प्यार है
हवा को इनमें झूलना पसंद
बारिश को इनमें थमना लुभाता है
फर्क तो इससे पड़ता है कि
तुम्हारी उंगलियों को उनकी चाहत है
और इनको तुम्हारी आँखों में
कामना की छाँह की तरह छिप जाना है
तुम्हारे हृदय से संग की पुकार की तरह
अगरू-गंध की तरह उठना है अनंत!

 

6.
ग्रीवा

प्रेम में गर्व कैसा?
मान होता है अलबत्ता!

उसी मान का दुर्ग-द्वार खुल जाता है जैसे
जब चूमते हैं तुम्हारे होंठ उसकी ग्रीवा को
स्पंदन
सिहरता सुलगता मचलता
काम्य और उद्दाम

कॉलर बोन से उतरती ग्रीवा-गह्वर में डूबा वह तिल
काले से कुछ कम काला
जैसे देह-द्वार का ताला
जिसे चूमते ही खुल जाते चाहनाओं के तिलिस्म
जब बरसने लगता उष्ण प्रेम ठुड्डी से नीचे
जिह्वा की नोक अंकित करती अदृश्य चित्र
भीतर सूखता कंठ
खुलती जाती देह
कसती उसकी जकड़न उसकी देह पर
होंठ रुकते नहीं
जाते फिसल फिर-फिर
उसकी ग्रीवा पर

तनी ग्रीवा पर चुम्बन तान
मानिनी का मान क्या ऐसे तोड़ता है वह?
समझती है वह नहीं समझती वह

 

7.
उंगलियाँ

छू लेना
छूकर थाम लेना
छूकर बता देना
छूकर पा लेना
यह सब कहानियाँ उंगलियों की हैं.

जब तलब उठती है
हुड़क लगती है
तो मालूम नहीं
मन मचलता है
या फिर सिर्फ उंगलियाँ
कई बार
उनकी बेचैनी अपने ही कांधे पर थाम लेना
अपने ही होंठों पर फिरा लेना या
हवा में गुमा देना होता है.
बेचैनियों के तमाम किस्से बस उंगलियों के हैं.

प्रेमिकाओं की तलबगार उंगलियों ने लिखे नाम
किसी की पीठ पर
किसी समुंदर किनारे रेत पर
आवारा उड़ते रद्दी कागज़ के टुकड़े पर
दिल बने लिफ़ाफ़ों के भीतर लेटरपैड वाले खूबसूरत पन्नों पर
लिखे बस नाम ही
फिर जब ‘नाम वाले’ असल में मिले
तब उन्हीं उंगलियों ने लिखे
कामनाओं के गीत उनकी पीठ पर कांधे पर.

नाम रहे न रहे
देह पर स्पर्श की स्मृति थमी रहेगी
उंगलियों के स्पर्श
आकर्षण के कामना में बदलने
कामना के तृष्णा में बदलने के
गीत सुनाते रहेंगे.

 

8.
कमर

बहुत बाद में पता चला कि नुसरत जिस रश्क-ए-क़मर की बात सुनाते हैं
उसका देह की कमर से कोई लेना-देना नहीं !
चौदहवीं के चाँद समान कहलाने में दूज न सही
कम-से-कम चौथे रोज़ वाले चाँद जैसे वलय वाली कमर तो चाहिए ही
और फिर कमर के दोनों तरफ के वलयों के बीच
बस इतनी भर जगह
जो प्रेमी की मुट्ठी में समा सके.

बत्तीस लक्षणों से सम्पन्न नायिका की कटि की कवि-कामना
किसी से छिपी तो नहीं,
‘काहे को कटि छीन’ में कोई कुतूहल नहीं.
कटि के क्षीण होने और
कुचों के सुपुष्ट होने के स्पष्ट आग्रहों से भरी हुई है कवि-रसना
पर वह बीती बात हुई.

नई सदी के पुरुष !
क्या तुमने जानना चाहा
रूप-रंग-आकार से परे
अपनी कटि पर कसती हुई तुम्हारी उंगलियाँ उसे कैसी लगती हैं?

यादगली का सबसे सुनहरा फेरा है
उस दिन का
जब कमर से थाम तुम घूमे थे साथ
सच पूछो तो बंद दरवाज़ों के पीछे
कमर को बाँहों में जकड़ अपनी ओर खींचने से कुछ अधिक ही
कामना जगाने वाला क्षण था वह
जब जंगल की ज़रा चौड़ी-सी पगडंडी के बीच चलते-टहलते
अचानक घिर आई बदली और
गिर पड़ती कुछ टापुर-टुपुर बूँदों के मध्य
उसकी अछूती कमर पर कसती तुम्हारी मुट्ठी और
बारिश की बूंदों की फिसलन
एक साथ महसूस हुई थी

पास सिमट आने की चाह
करीब खींच लेने की ललक
दोनों चाहनाओं के बीच कोई फासला नहीं था
चाहने और चाहे जाने के बीच कोई दुविधा नहीं थी.

कमर पर वक़्त की ऐसी उंगलियों के निशान अमिट रहते हैं.

एक अदृश्य कटिबंध कसा होता है सदा स्त्री के मन पर
सोचो उसकी अर्गला किससे खुलती है
चाह से
स्पर्श से
उंगलियों से
या फिर
बारिश की बूंदों-सी छुअन से

 

9.
पाँव

उसे अपने पाँव पसंद नहीं
लेकिन दुनिया को तुम्हारे साथ नापने के लिए
अपने होने का सुख जीने के लिए
ज़रूरी रहे वे
इतना भर प्यार रहा उसे अपने पाँवों से.
______

सुदीप्ति
उच्च शिक्षा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (नई दिल्ली) से. महेश नारायण की कविता ‘स्वप्न’ का शोधपरक अध्ययन जो ‘हिंदी की पहली आधुनिक कविता: पाठ और मूल्यांकन’ शीर्षक से छपी. ‘गगन गिल : प्रतिनिधि कविताएं’ का संपादन. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख आदि प्रकाशित.

sudiptispv@gmail.com

 

Tags: 20232023 कविताश्रृंगारसुदीप्ति
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Comments 23

  1. मनोज मोहन says:
    2 years ago

    भावप्रवण कविताएँ… सुंदर…

    Reply
  2. विनोद पदरज says:
    2 years ago

    कैसी गहन एंद्रिकता है इन कविताओं में
    हमारे हिंदी के सीमित विषयक संसार को व्यापक करती कविताएं, लिखी जा रही असंख्य प्रेम कविताओं के घटाटोप में अलग से कोंधती विद्युल्लता सी

    Reply
  3. राजेन्द्र दानी says:
    2 years ago

    पढ़कर लग रहा है कि आपकी आश्वस्ति को यह कवयित्री शायद पूरा कर देगी । उसकी रचना में उसका कविता विन्यास युवा कविता की गहरी होती धुंध में भी उसे अलगाता है । उसे पढ़ते हुए यह देखना सुखद है ।

    Reply
  4. M P Haridev says:
    2 years ago

    सुदीप्ति ! यूँ हर रोज़ अपने लेखन से, फ़ेसबुक पर लाइव वार्ता में जी भर जाती हैं । और आज समालोचन पर मोहब्बत का डंका बजा दिया । मन के विद्यालय में लगी घंटी [हमारे ज़माने में लोहे के गर्डर् girder की] को बजाया । इस तरह से समझाया जैसे अध्यापक प्राथमिक शाला के बच्चों/बच्चियों के मानसिक तल पर पहुँच कर समझाता/समझाती हैं । केशों और होंठों पर तरह-तरह से लिखा ।
    प्रेम के क्षणों में कब नहीं हुई लहू की रफ़्तार तेज़ । या इस अंक में या अपने फ़ेसबुक पेज पर आपने लिखा कि बाल सचमुच तेज़ी से बढ़ते हैं । प्रेम के क्षणों में प्रेमी की ग्रीवा के चाँद जैसे कोण पर गिरते हुए बाल उमगा देते हैं और अधिक । जैसे नदी की लहरें उठती उतरती हैं ।
    ‘उसने दिखायी नहीं कभी पीठ उन अर्थों में जिनमें कहा जाता है पीठ दिखाना ।
    बल्कि एक फ़ोटो [प्रभाष जोशी फ़ोटू लिखते थे जिनकी पुस्तक ‘हिन्दू होने का अर्थ’ की आजकल बहुत बहुत बहुत ज़रूरत है] में आप कुर्सी पर बैठी हैं और सत्यानंद जी मुस्काते हुए आपके पीछे खड़े हैं । हाँ दीखती है-चुप-पुकार सी दबी कोई आहट, खींचती है ।
    किसी और को देखा की पंक्तियों जैसी पंक्तियों को पहली बार पढ़ा । अभी इतना ही । राम राम ।

    Reply
  5. लीलाधर मंडलोई says:
    2 years ago

    प्रेम का कोमल गांधार।

    Reply
  6. विवेक टेंबे says:
    2 years ago

    सुदिप्ति की कविताएं बहुत खूबसूरत हैं.

    Reply
  7. Prabhat says:
    2 years ago

    गहरे ऐंद्रिकबोध की कविताएँ।

    Reply
    • pallavi vinod says:
      2 years ago

      कितनी ही पंक्तियों को बार-बार पढ़ने का मन हुआ। आपका ये रूप पहली बार दिखा सुदीप्ति……स्त्री के सुकोमल को व्यक्त करती बहुत सुंदर रचनाएँ❤️

      Reply
  8. विनीता बाडमेरा says:
    2 years ago

    कविताओं का विषय ही उन्हें और उनके साहित्य को अलहदा बनाते हैं । इन्हें पढ़ कहां नहीं खोया मन। बस देखता रहा ठिठक कर नायिका को अपलक।
    बेहतरीन कविताएं हैं ये।

    Reply
  9. अणु शक्ति सिंह says:
    2 years ago

    बहुत सघन कविताएँ… प्रेम के उरूज पर स्त्री की अपनी वैयक्तिकता को ख़ूबसूरती से दर्ज कर रही हैं। कमर कविता में प्रेम और प्रतिरोध के भावों का जो मेल है, वह बा-कमाल है।

    Reply
  10. दिवा भट्ट says:
    2 years ago

    बहुत बारीक बुनावट। अनुवर्ती तरंगों ने एक तरंग को अनन्त बना दिया!

    Reply
  11. Anonymous says:
    2 years ago

    सुदीप्ति जी, आपके व्यक्तित्व की जैसी सुकोमल सुंदर कविताये ।
    दैहिक तरंगों में डूबती उतराती । ‘ केश ‘ कविता को दिल के करीब पाया । बेहद खूबसूरत रचनाये । बधाई आपको !

    Reply
  12. Anonymous says:
    2 years ago

    विवेचना नहीं जानता पर अच्छी लगी सभी कविताएं । Keep sharing

    Reply
  13. kavisujan says:
    2 years ago

    कविताओं में अटकते हुए रह गए
    हमारे मन के प्रतीक।

    वाह वाह वाह

    Reply
  14. शालिनी सिंह says:
    2 years ago

    सुदीप्ति जी का गद्य तो अक्सर पढ़ती ही रहती हूँ,उनके पास एक सुंदर भाषा है,कहन का एक सुंदर ढंग भी है ..और मैं हमेशा सोंचती थी कि उन्हें कविताएँ लिखनी चाहिए पर कभी कहा नहीं ..जब समालोचन पर उनकी कविताएँ देखी तो बहुत ख़ुशी हुई.. इन कविताओं में प्रेम की उत्कँठा और कामनाओं की अभिव्यक्ति जिस सहजता और भाव भंगिमा के साथ आई है..वह प्रशंसनीय है..वे और और लिखती रहें..उन्हें मेरी बहुत शुभकामनाएँ

    Reply
  15. अनाम says:
    2 years ago

    कितना closed yet detached लेखन है। मतलब खुद के अंतरंग पलों को दूरी से और व्यापक सामाजिक संदर्भों में देखना। देखना, देखने और देखे जाने के बीच चाहतों का बनना और बन कर रह जाना। मैं यह जानना चाहता हूँ कि यह श्रृंगार रस के खाँचे में क्यों है? हिंदी कविता परंपरा में महिला कवियों की नितांत निजी अभिव्यक्ति यहाँ तक आई है तो उसे श्रृंगार क्यों कहा गया? अगर कोई पुरुष ये लिखता तो कौन सी कैटगरी होती? जैसे हिंदी सिनेमा के गाने पुरुष लिखते हैं उन्होंने औरतों से चाहने के गाने अच्छे तो लिखें मगर सारे blunt हैं। भोथरा। सभी कविताएं अच्छी हैं। ये तो आलोचक ही बताएंगे कि और किसने इस desire को एक्सप्रेस किया है, खासकर हिंदी में, हाल के दिनों में और पहले भी….लेकिन एक पाठक का समय खराब नहीं हुआ, उसे अच्छा लगा।

    Reply
  16. madhav hada says:
    2 years ago

    मर्मभेदी कविताएँ हैं.

    Reply
  17. हीरालाल नागर says:
    2 years ago

    कविताएं पढ़ ली हैं । सघन ऐंद्रिकता के काव्य आरोह का यह उन्मत्त कर देनेवाला विजन है। सुदीप्ति के पास इस काव्य सौंदर्य में भ्रामकता नहीं है। भाव के साथ मन, मन के साथ इंद्रिय बोध बराबर बना ही रहता है। जहां कालिदास के काव्य सौंदर्य की ओर लौटने की बार-बार इच्छा होती है।
    सुदीप्ति ने देह के साथ मन और हृदय की जो कामदी रची है, वह बेहद प्रभावशाली लगी है। इस काव्य रचना के लिए सुदीप्ति को बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

    Reply
  18. सुदीप्ति says:
    2 years ago

    कविता की दुनिया के सभी सहृदय पाठकों का आभार 🙏🏼

    Reply
    • Anonymous says:
      2 years ago

      एक पूरा दौर था सुदीप्ती, मैं निर्मल वर्मा की किताबें बचा बचा कर पढ़ता था। कहीं जल्दी ख़त्म ना हो जाए। प्लेटफार्म पर खड़े किसी तेज गाड़ी के गुजर जाने की तरह। मुझे उनके लिखे आस्वाद चाहिए होता था। आस्वाद…।
      मोगरे के फूल तोड़कर, लाकर टेबल पर रखें तो गंध का वो सुर जो उनके रखने से थोड़ी देर तक चढ़ता है…वो फिर शायद गायब हो जाता है। चार घंटे बाद उस पहली गन्ध की स्मृति ही मन को महकाती रहती है।

      तुम्हारी कविताएं पढ़ने की तसल्ली चाहिए थी। यात्रा, उसकी पूर्व तैयारी, परफॉर्मेंस, इसके बीच की मोहलत में इन्हें पढ़ना मंजूर ना था। एयरपोर्ट पर या उड़ान में पढ़ना… कतई नहीं। इसलिए देर होती गई।

      तसल्ली से पढ़ा। ये ऐसी कविताएं नहीं हैं कि एक बार शुरू करें तो सीधे आखिर तक चले आएं। हर कविता के साथ ये हुआ कि कुछ पंक्तियां पढ़कर मैं फिर शुरुआत में चला गया। फिर पढ़ता गया। फिर कहीं बीच के किसी विरल गहन अहसास पर अटका। उसे बार बार पढ़ा। फिर आगे बढ़ा। फिर अंत तक आया। कितनी सघन कविताएं। कितनी गहन अनुभूति। अभी कविताएं पूरी पढ़ ली हैं। कई कई बार। मोगरे की तेज महक जैसा था उन्हें पढ़ना। अब उस गंध की स्मृति मन पर छाई है। कुछ पंक्तियां तुम्हारी हर कविता से:

      “बस स्पर्श ठहर गया/थमक गया समझो”
      “उसकी पीठ पर तुम्हारी कामना की स्मृति उभरती है/वह करवट बदलती है”

      “तृप्ति और अतृप्ति के मध्य/ अदृश्य तुला पर झूलती उसकी दृष्टि में/ स्वयं को देखने की चाह पूरी हुई भी है क्या?”
      “प्रेम में सुख के डाकिए हैं होंठ”
      “कुछ बन गए कहानियों के पूर्ण विराम!”
      “जीवन के हरेक चुम्बन की सुन्दरता/हर बार उसका नया होना ही रहा”
      “प्रेमियों की जान बसती है माशूका के केशों में.”
      “इन्हें और तुम्हें खुला छोड़ देना आज़ाद/
      दोनों उसके ही हैं/बांधना क्या?”

      “जब तुमने एक लट उठाकर
      उसके कानों के पीछे खोंस दिया था?”

      “इनको तुम्हारी आँखों में/
      कामना की छाँह की तरह छिप जाना है”

      “उसी मान का दुर्ग-द्वार खुल जाता है जैसे
      जब चूमते हैं तुम्हारे होंठ उसकी ग्रीवा को”

      “नाम रहे न रहे/
      देह पर स्पर्श की स्मृति थमी रहेगी”

      “कमर पर वक़्त की ऐसी उंगलियों के निशान अमिट रहते हैं.”

      “दुनिया को तुम्हारे साथ नापने के लिए/
      अपने होने का सुख जीने के लिए/
      ज़रूरी रहे वे”.

      रूप,रस, रंग,गंध और स्मृतियों में रची–पगी ये कविताएं धीमे धीमे चढ़ते किसी गहन राग की तरह हैं। लहरें, जो आपको भिगोती ही नहीं, बहा ले जाती हैं अपने साथ संवेदना के नाज़ुक संसार में। बीते दिनों एक लेख में पढ़ा था “कला के अव्याख्येय क्षणों” के बारे में। ये वही हैं।

      मैं इन कविताओं के बारे में लिखते चले जाना चाहता हूं। पर अब रुक रहा हूं ये कहकर “मुझे गर्व है तुम मेरी सबसे अच्छी दोस्त हो”… 🌷

      Reply
  19. Vibhavari says:
    2 years ago

    यूं तो सारी ही कवितायें सुन्दर हैं…प्रेम के ऐन्द्रिक आयाम की ऐसी अभिव्यक्ति कम पढ़ी है मैंने। इनमें जो कविता सबसे ख़ूबसूरत लगी वो है ‘पाँव’. मुझे लगता है इंसान ख़ुद को ढूंढता है ख़ास तौर पर कवितायें पढ़ते वक़्त. और जहाँ यह ‘ख़ुद’ उसको मिल जाये वह जगह उसे प्रिय हो जाती है. है न!

    तुम्हारा कवि रूप पहले भी देखा है और ये कवितायें आश्वस्ति हैं कि हमें भविष्य में और कवितायें पढ़ने सुनने को मिलेंगी एक प्यारी दोस्त से. लिखती रहो ऐसे ही…

    Reply
  20. Raunak Thakur says:
    2 years ago

    सभी कविताएँ महत्वपूर्ण हैं और कवयित्री ने इन कविताओं के मार्फत जरूरी हस्तक्षेप किया है,श्रृंगार की अधिकतर कविताओं को पढ़ कर प्रतीत होता है जैसे किसी पुरुष के फैंटेसी को कवि ने लिख दिया हो जिसके केंद्र में केवल स्त्री देह को रखना ही उदेश्य हो,सुदीप्ति जी स्त्री देह से आगे आकर उसके अंतर्मन और कामनाओं को रेखांकित करती हैं और यहाँ से एक नए विमर्श का आरम्भ होता है जो साहित्य में पितृसत्ता के प्रभाव पर भी प्रहार करता है,कवयित्री को बधाई

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  21. Anu Priya says:
    2 years ago

    कितनी सुंदर कविताएं।वाह!

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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