प्रिया वर्मा की कविताएँ |
1.
रबीन्द्रो ठाकुर से
पृथ्वी की आकृति क्या है? बताने चले आते हो न!
रक्त से भी गाढ़ी हो चली
सूख चुकी साहित्य की स्याही के ज़रिए
अगर मैं न जानना चाहूं
फिर भी फूंकते हो कान में मेरे सम्मोहन
तुम कौन हो ? क्या हो?
कहते हो कि नायिका हूँ.
तुम्हारी अनन्य कथाओं की.
तुमने कब का लिख कर रख लिया था मेरा प्रारब्ध मेरा भाग्य
तुम न ब्रह्मा न भाग्यविधाता
मात्र एक दृश्य नहीं समस्त कथानक का वितान
मेरी अनुभव पीठिका पर ही क्यों रचा?
मेरा जीवन कैसे बिना जाने मुझे मेरे नाम को
सौ बरस पहले
बिना मेरी अनुमति लिए! बग़ैर मुझे श्रेय दिए!
मेरी जीवन-कथा को छूते ही छेड़ देते हो टीस
कथाकार नहीं संगीतकार हो
मैं पीड़ा के अनुराग से भरा एक सितार हूँ
तुम्हारे भरे पूरे कक्ष में
जिस पर तुम हवा का राग कुशलता से साधते हो
रचते हो शब्द-अट्टालिकाएं
इतनी विशाल इतनी भव्य कि स्तब्ध होती हूँ!
मानो यह मेरी भूमि नहीं, पुराकाल का बंगाल है.
तात की धोती लपेटे
एक कोई ‘मृणाल’ है जो थैला लटकाए
समुद्रतट की रेत पर चलती मिटाए चली जाती है पीछे लहर उसके पदचिह्न,
मेरी पीड़ा के उपचार की राह दिखाए जाती है
समुद्रस्तम्भ की भांति अंधेरे में दृष्टि को देती है विस्तार
तुम्हारी मृणाल तुम ही हो ठाकुर!
तुम्हारी मृणाल मैं ही हूँ ठाकुर!
हम दोनों एक ही नाम में विलीन होते हैं सौ सालों के अंतराल पर
ठीक-ठीक वह कहते हो तुम
जो मैंने तुम्हें बिना सुने, कल रात ही कहा एक स्त्री से.
“मुझे अपने आत्म सम्मान तक पहुंचने में सोलह साल लग गए”
बस एक बरस ही तो आगे है तुम्हारी मृणाल मेरी मृणाल से
मुझे रचा है तुमने अपनी कथाओं में
अनेक नामों में पुकारा है मुझे तुम्हारे नायकों ने
मृणाल कि सुचरिता
कि बिनोदिनी कि चारुलता.
कोई नाम पुकारोगे- पुकारोगे तुम मुझे ही.
२.
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः
देवता तो मिला, मालिक की शक्ल में मिला
नाम बदल कर मिला
पर उसने नारी को कभी नहीं पूजा
देवता कहीं पूजते हैं! देवता तो खुद पूजे जाते हैं.
नारी की पूजा कौन करेगा?
बरगद की नीम की पीपल की परिक्रमा करती नारियों ने कच्चे सूत के भरोसे पर रख छोड़े अपने जीवन
दिन-दिन भर भूखे-प्यासे रहकर
उनके चेहरों से निचुड़ता चला गया खून
परवाह की अल्पता के लिए भूखी आत्माओं की देह में रक्ताल्पता
निथरी हुई एक अनिवार्यता बन गई.
सारे अनार और चुकंदर की लाली वे बजरंग बली की देह पर लपेट आते और कहते
कि ऐसी संस्कृति कहीं मिल जाए तो मूंछ मुंडवा लें.
तो मुंडवा ही लो मूंछ
बल्कि घुटमुंडन करवा लो.
मरी हुई मछली की आँख में फिर-फिर कितनी बार तीर मारोगे अर्जुन!
वैदिक-वैदिक रटने वालों
उस काल की आठ विदुषियों और सात सतियों के बीजमन्त्र के सहारे
यह कलयुग नहीं कटने वाला
मूंछ मुंडाने के बाद बताओ हमें स्त्रियों के लिखे हुए ग्रन्थों के नाम
और दिखा दो वह कारण
क्यों लड़कियाँ आज भी आकुल रहकर चाँद सूरज और तारों से उम्मीद लगाती हैं
वे जानती ही नहीं सारा झोल मालिकपन का है.
कितना भी पढ़ जाएंगी, बुद्धि कहां से लाएंगी
पाँच अंकों में कमाएंगी, लेकिन मूर्ख कहलायेंगी
कोई गार्गी ही जीत पाएगी शास्त्रार्थ, पर ग्रंथ एक नहीं रच पाएगी
ब्याही तो वे जाति में ही जाएंगी.
घर से भागेंगी तो नाक कान कटवाएंगी.
सच लिखेंगी तो निर्लज्ज कहलाएंगी.
ज़्यादा बोलेंगी तो ज़बानदराज़ कह दी जाएंगी.
और अगर कहीं प्रणय की इच्छा करेंगी
तो चरित्रहीन सिद्ध कर
निर्वासित कर दी जाएंगी.
3.
ऑर्गेज़्म की तलाश में
अरसे तक समझ नहीं आया
कि आख़िर क्यों चाचा ने बिस्तर अलग कर लिया?
और क्यों तीन बच्चों के साथ देर रात तक ठिठोलियाँ करती चाची
दिन में अपनी जेठानियों के बीच बैठी
लाल आँखें घूँघट में छिपाए बातें करतीं थीं?
क्यों मोहल्ले के शुक्ला जी के छोटे बेटे ने
गुपचुप ब्याह कर लिया अपनी ही सगी साली से
तब, जब उनकी बीवी छह माह के गर्भ से थी?
क्यों चिड़चिड़ा रहीं थीं
तीस के आर-पार की
बाहर काम पर जाती स्त्रियाँ?
चालीस तक आते आते वे
जैसे पके बेल सा मन लिए
टूट कर अलग हो जाती थीं, डाल से.
आख़िर काम का एक ही तो अर्थ था हमारे धर्म में
और धर्म के बाहर गई लड़कियों की
या तो बाहर या भीतर
किसी तरह से भी हत्या कर दी जाती थी.
यह शादी का मामला था. ज़िम्मेदारी से भरा और संगीन.
यह सबसे पहले बिस्तर से जुड़ा था, और बिस्तर के बारे में हमें चादर और गद्दे की गुणवत्ता के आगे
बताया नहीं गया.
और इसलिए बिस्तर साथ बिछकर अब अलग हो रहे थे
जब पिता, चचा और बड़े, छोटे भाई सब आदि-लक्ष्मण में बदल रहे थे,
हमसे छिपा कर रखे गए थे कुछ नाम
जैसे क्लियापेट्रा, तिष्यरक्षिता और, और भी तमाम
पर धर्म के आदिग्रन्थ के पारायण के बहाने से
जो दो नाम नहीं बच पाए, वे हमारे संज्ञान में आए
वे शूर्पनखा के अपमान की पृष्ठभूमि पर रावण को युद्ध के नाम पर ललकार दिलाते
और अम्बा के चरित्र का परिवर्तन करने को उसे लिंगहीन शिखण्डी बनाते
हम सब मान भी लेते. डर जाते हम चरित्र और समाज के नाम पर
पर हम आत्मा के लिए धारण करते थे जो धर्म उसमें हम अपनी देह को कब तक छिपाते और
अपनी स्थूलता को कहाँ ले जाते
आख़िर यह दो देहों का आपसी मामला था
और देह से विलग आत्मा का कोई मसला नहीं था
तो देह के रेशम पर सलमा सितारे-सी झिलमिल आत्मा तक
यह यौनिक मसला था.
एक बिस्तर में जब शरीर दो थे
फिर संतुष्टि का एकतरफ़ा मामला क्यों था?
4.
जेब
वे सब अजीब थीं-
नामों में वे सुशीला, कमला, लक्ष्मी या सरला थीं
गऊ जैसी होने में भला कौन सी राहत मिलती थी
कि खुद को कूड़ादान ही समझ लेतीं थीं
हर थाली का बचा खाकर
रक्त की कमी को भरकर बदन से फूल जातीं
फ़िकरे ताने सुनकर भी उन को चार बोल नहीं चुभते
कैसी थीं वे
कि उन्हें सिक्के भी गालियों की तरह नहीं चुभते थे
स्तनों के पास ठूंस कर रखती रहीं वे रुपए पैसे
बाज़ार जातीं
और हल्की सी झेंपती आड़ लेती हुई छोटा बटुआ निकालतीं
दुकानदार के हाथ पर रुपया रखतीं
दुकानदार नज़र बदल कर चुभलाई-सी सहल के साथ नोट थाम तो लेता जैसे कि
देह न सही देहरी ही सही
हाथ तो फिरा ही सकता है हल्की गर्म बची धातु या रंगीन कागज़ पर
कभी मांग ही नहीं पाई अपने अधिकार
उन्हें जो मिलता, वही उन्हें पिछले से ज़्यादा आज़ाद लगता
कायदे से तो उन पर थोड़ा बद्तमीज़ होना फबता था
लेकिन वे शालीनता कुलीनता और जाने कितनी ‘ताओं’
में डगमग उलझी रहीं
कुछ नहीं तो पुराने कपड़े बेचकर नए बरतन खरीदने में
फेरी वाले से भी चुहलबाज़ी करते उन्हें सुख मिलता था
गुनगुने पानी में पांव डाले ज्यों मिलती है दर्द में राहत
वैसे प्रेम-सा
उन्हें बहुत कुछ मिलना था
नहीं मिला कभी क़ायदे मुताबिक़
सिंगारदान मिला, मिट्टी की गुल्लक मिलीं, रंगीन पत्थर मिले, चांदी की बेड़ी और सोने का फन्दा भी
लेकिन सिए गए कपड़ों में जेबें
न उन्होंने सोचीं.
न उन्हें मिलीं.
5.
तुम मीठे पानी की झील हो?
इसलिए तुम तक
वे आते जाएंगे बारी-बारी
झाँकेंगे तुम्हारी छाती से प्रस्फुटित होते आसमान में
जहाँ उन्हें अपने विजेता शिखरों पर मिले पुरस्कार दिखेंगे
तुम्हारी स्थिरता को पूरे मनोयोग से पीना चाहेंगे
ठहरने के स्वांग की तैयारी से आएंगे
वे डालेंगे तुम्हारे कंधे की ज़मीन पर पड़ाव
तुम्हारी नींव तक अपनी थाह चाहेंगे
अपनी वर्षों की यात्रा की थकान और नींद के इलाज के बहाने
तुम में छांह से आगे भी छांह पा जाएंगे
वे तुम्हारी लज्जा के स्रोत में नहाएंगे
तुम्हारी विवशता उन्हें प्रमोद देती है
कि तुम कितनी भरी हुई होकर भी
कहीं भी जा नहीं सकतीं. तुम लाई नहीं गई हो. प्रगटी हो ऐसा कह कर पूजी नहीं जा सकी हो
तुम बस हो, प्यास बुझाने और संसार को दिखाने के लिए
पानी के स्रोत क्या क्या होते हैं
तुम्हें जन्म कटने तक यहीं रहना है. या तो सूखकर गाद में बदल घरों की चौखट हो जाना है
समुद्र की ओर तुम्हारा आकर्षण नहीं
न तुम्हारी प्रतिकृति को नैवेद्य बनाकर अपने साथ ले जाएंगे
न धन्यवाद कहेंगे
न चुप रहने देंगे तुम्हें
तुम में फेंकते रहेंगे किनारे बैठ कंकड़ियाँ
उल्लास से देखेंगे तुम्हारे नैराश्य की सीमाएं
तुम्हारे अतीत में झाँकने को तुम्हारा निर्मल तन ही जब है उन्हें सुलभ और पर्याप्त,
तो क्यों हाँकेंगे वे तुम से अपने मन की गिरहों की सच्चाइयाँ
वे तुम्हें झील ही नहीं,
मिठास से डबडबाई किसी आँख सा बरतेंगे
और उसमें साथ देने का भय देंगे रंगीन सपना
ताकि तुम भूल जाओ अपना पारदर्शत्व
और जितनी देर वे तुम्हारे किनारे पर टिकाए हुए हैं अपने पाँव
मिथ्या को ही अपना सत्य मानो
बिना शिक़ायत
जबकि तुम्हें हो जाना चाहिए था खारा
फिर भी तुम मीठेपन के ढोंग से अपनी देह को चितकबरा बनाए सोचती रहीं
कि इस विजन में वे तुम्हारे साथ हैं.
वे जिन्होंने कभी नहीं जाना कि मात्र शिला के ही नहीं
झील के भी होते हैं तराशे हुए दर्द.
6.
चूमने की इच्छा भर से ही क्यों अपराधी हो जाते हैं स्त्री-पुरुष?
वे जो अनचीन्हे हैं जगत में, सब को प्रेम किए जाने की दरकार है
वे ढिठाई पूर्वक रहते हैं अबोल किन्तु भीतर ही भरे रहते हैं कामना की अग्नि से
कितने ज्वालामयी हैं हम, पर दिखाते हैं अडोल सागर-सा
भूले हुए वड़वानल
भुलावे में कोई नहीं छोड़ना चाहता देर तक देखते रहना
एक दृश्य जिस में मिला था क्षण भर आकर्षण
पतंगे हम सब में फड़फड़ाते हैं भीतर
हम इतने ज्वलनशील हैं कि मोटरगाड़ी के नवीनतम रूप से जल सकते हैं
जबकि इतने आदिम हैं हम कि हम जल से जल जाना चाहते हैं,
और अपने मोह के मुर्दे तक को आग देकर जलाना नहीं चाहते
पानी की कामना वाला मन नहीं चाहता कि सूखें पोखर
वह निरंतर पांव को गीलेपन से भरा देखने का इच्छुक रहता है
चूमने वाला कहीं भी अपराधी नहीं होता, प्रेमी है
क्षणिक सही. पर क्षण भर से अधिक प्रेम है भी तो नहीं.
इस ब्रह्माण्ड में जाने क्या क्या है?
कितने ही रास्ते हैं जो नहीं काटते एक दूसरे की बात
और चूमने की बात पर दाँत से जीभ कोना काट लेते हैं
क्यों चूमने की इच्छा भर से अपराधी हो जाते हैं
हम और तुम
जबकि हमें समीप आकर कर लेना चाहिए कोमल स्पर्श
और देखना चाहिए अपने आसपास जन्मती गन्धमय सृष्टि को
तत्क्षण
भंग नहीं होने देना चाहिए काम्य होने को
वह जो रहता है अधरों पर, शब्दरिक्त
वह एक चुम्बन भी होने देना चाहिए
हर बार मौन-मौन नहीं चिल्लाना चाहिए.
बढ़ा देना चाहिए एक बार चूमकर प्रेमियों का जीवनकाल.
7
तुम्हें जौहरी होना था
मुझे पहचानने के लिए तो उसका स्पर्श ही काफ़ी था न!
फिर मैंने उस से ऐसा क्यों कहा था एक दिन,
कि- ‘तुम्हें क्या पता मैं कौन हूँ?’
‘मैं कौन हूँ?’
‘यह जानने के लिए तुम्हें जौहरी होना था.’
जगप्रचलित दम्भोक्ति में
मेरा विचार कुछ देर की शांति के बाद
मेरे भीतर फिर से चेहरा बदलकर आया
कि कैसी इच्छालु हूँ मैं
अपने को परखे जाने के लिए!
अपना अवमूल्यन चाहती हूँ!
मानो हो भी जाये मेरा आकलन
तो भी क्या मैं कर सकूँगी स्वीकार
हीरे-सा कठोरतम होना!
कोयले की खदान में पूरी उम्र पड़े रहना
किसी पारखी की नज़र पड़ने तक
अच्छा है कि वह नहीं था जौहरी.
नहीं तो जड़ देता मुझे मुँहदिखाई की अंगूठी में
यदि परिभाषा से मुक्त कर दिया जाये मुझे
तो चुनूँगी अपने होने में राख का रूपक
ताकि मुझमें रूपांतरण बचा रहे
छिपी रहे जीवन की धरोहर
और संजोई रहें चिंगारियाँ
क्योंकि सुबह का चूल्हा तो मैं ही फूंकूँगी.
8
जब चीज़ों को छोड़ने का समय था
तब मुझमें जड़ें फूट रहीं थीं
कोंपलों के धोखे में नहीं, मेरी कामना में
आँखों ने जड़ों को पहचानने में शायद कभी धोखा खाया हो
इसलिए मैंने भरोसे की आदत पर यक़ीन करते हुए
जड़ों को पनपने दिया
वह मेरा कौन था- जो मुड़कर मुझसे बातें कर रहा था
और वे बातें सवाल नहीं थीं, फिर भी मैं जवाब दिए जा रही थीं
वह अपनी ज़मीन दे रहा था मेरी जड़ों को
पनपने के लिए
इसे कोई नाम देकर क्या करूँगी
बस प्रकृति में यह होता है
अंधेरा संतृप्त विलयन की तरह
मुझे और मेरे जैसे तमाम लोगों को ग़ायब कर देता है
मुझे अपने आने के रास्ते का पता है
पर इस जगह से बाहर जाने के रास्ते के बारे में मुझे कुछ नहीं पता.
धरती के चेहरे का हाल मेरी हथेली जैसा है
एक तरफ़ से उजला और दूसरी तरह से भीगा हुआ
दीवार में ही कहीं जम आता है पौधा
उसकी जड़ अपने लिए पानी खोज ही लेती हैं.
कुछ दीवारें भी अड़ियल होती हैं और कुछ पौधे भी
शेष रही जड़ें
वे तो बस कोमल होती हैं.
मैंने पौधे की जड़ बनकर महसूस किया
कि जड़ों से ज़्यादा प्यास किसी को नहीं लगती.
प्रिया वर्मा |
सच्चाई और गहरे अनुभव आत्मचिंतन से लिखी गईं हैं ये कविताएं।
समकालीन हिन्दी कविता की नयी जमीन ले कर आयी हैं प्रिया वर्मा
नेपथ्य में चले गए विषय पर नए ढंग से लिखी गई कविताएं. आदम कामनाओं और ईप्साओं को इतिहास से निकालकर, समकाल की वर्जना और अर्गला के समीप रखकर मनुज मन की प्यास को बताती कविताएं. ‘मान’ की अवस्था में चली गई स्त्री और निष्कीलन में रत पुरुष के बीच संवाद की न्यूनता को चिन्हित करती कविताएं ; कुल मिलाकर सुंदर कविताएं.
प्रिया को कुछ समय से चुपचाप पढ़ रही हूँ। उसकी कविताओं में प्रेम की ललक, मन की परतों के शोध की इच्छा और आत्म गौरव का सोंधा समन्वय है। शिल्प में धैर्य का सौष्ठव है।
इन कविताओं को आराम से पढ़ूँगी। उसे मेरी शुभकामनाएँ व स्नेह।
प्रिया को कुछ समय से चुपचाप पढ़ रही हूँ। उसकी कविताओं में प्रेम की ललक, मन की परतों के शोध की इच्छा और आत्म गौरव का सोंधा समन्वय है। शिल्प में धैर्य का सौष्ठव है।
इन कविताओं को आराम से पढ़ूँगी। उसे मेरी शुभकामनाएँ व स्नेह।
प्रिया वर्मा की कविताएँ प्रभावशाली हैं—ताजा और नयी।जड़ों से ज्यादा प्यास किसी को नहीं लगती।अभिनंदन!
प्रिया जी की कविताएं स्त्री-पुरुष सम्बन्ध क़ौ लेकर बुनियादी सवाल उठाती हैं जिसका कोई भी आसान उत्तर देने की हर कोशिश हास्यास्पद हो जाने को अभिशप्त होगी।
इस मुद्दे पर ‘1844 की आर्थिक एवं दार्शनिक पांडुलिपि’ में मार्क्स ने बड़े पते की बात कही है ।
कवि प्रिया वर्मा को कविता में बड़ी सादगी से एक बड़े सवाल को उठाने के लिए शुभकामनाएं।
दोबारा तिबारा पढ़ना बाक़ी है..
महत्वपूर्ण विषय पर उल्लेखनीय कविताएँ ।
कवयित्री को शुभकामनाएँ।
प्रिया की कविताओं से कुछ समय पहले साबका हुआ था। कितनी शानदार कवि हैं वे… उनकी कविताएँ उत्कट स्त्री एषणाओं की बेहतरीन अभिव्यक्ति है। मुझे उनकी हर रंग की कविता पसंद है। इन नई कविताओं के लिए बधाई। 💖
ये गहन अनुभूतियों के भीतर से जन्मी हुई कविताएँ हैं।बर्ड्सवर्थ का मानना था कि कविता चरम अनुभूतियों के अतिरेक का स्वतःस्फूर्त बहाव है मानो कोई उफनती नदी तटबंध तोड़कर बहने लगे। दूसरी बात कि अपना भोगा हुआ सच ही सृजन का मूल उपजीव्य होता है-इन्हें पढ़ते हुए लगा।हालांकि यह बात सत्य होकर भी कोई अंतिम सत्य नहीं है। वैसे यहाँ इसकी चर्चा एक अवांतर प्रसंग है।प्रिया वर्मा एवं समालोचन को बधाई एवं शुभकामनाएँ !
‘मैं पीड़ा के अनुराग से भरा एक सितार हूँ’…प्रिया के पास अच्छी कहन है। कविताएँ तो उनकी पहले भी पढ़ और सुन चुका हूँ। इस प्रस्तुति के लिए बधाई।
एक सांस में पढ़ गया सब लेकिन पढ़ने की कई कई बार आवश्यकता है… सहेज लिया है फिर फिर पढ़ने गुनने के लिए… इंसानी फितरत और आपकी कविता कभी झकझोरती है, कभी हुलसाती है। शुक्रिया आपका
कविता मेरा क्षेत्र नहीं है।
लेकिन मैंने बहुत ध्यान से,ठहर ठहर कर सभी कविताएं पढ़ीं। असल में प्रिया वर्मा की कविताओं को शानदार या जानदार कह कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। बीती हुई अनेक सदियों की जो अन्तर्वेदना इन कविताओं में निशब्द झर रही है,वह पाठक के मन को गहरे तक बांध लेती है। इनमें बैठा संताप श्राप देता सा प्रतीत होता है। ये कविताएं स्त्री की आत्मा पर लगे हुए घाव हैं।
मैं तुम्हें पहली बार पढ़ रहा हूं प्रिया, लेकिन मैं तुम्हें पढ़ने फिर फिर आऊंगा।
स्त्री लोक को पुरुष लोक से सर्वथा भिन्न रूप में अभिव्यक्त करती इन कविताओं की मार्मिक व्यंजना भीतर तक बेंध जाती है | वास्तव में प्रिया वर्मा की ये कवितायें हमारी माँओं,मौसियों,काकियों और भाभियों की आन्तरिक कुरलाहट और बेचैनी की कवितायें हैं | समालोचन को साधुवाद कि ये कवितायें साझा कीं |
प्रिया वर्मा की कविताएँ पढ़ती रही हूँ फेसबुक पर। अंतरमन की शोधक कवि हैं वे। वर्जित मान लिए गए विषयों को बेहद गंभीरता और सलीके से रच रही हैं वे। सभी कविताएँ अच्छी हैं। उन्हें बधाई। ‘समालोचन’ को धन्यवाद।
सभी कविताएँ उत्कृष्ट हैं पर जेब कविता पितृसत्ता के अब तक, एक औरअनछुए पहलू को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से वयक्त करती है | सचमुच क्या स्त्रियाँ पैसे भी रखेगी और अपनी निर्णयात्मक अधिकार से उसे व्यय करेंगी ये सोच भी पितृसत्ता ने अपने पास गिरवी रखी थी | बेहद सूक्ष्म दृष्टि से तंज और संवेदना के महीन धागों से बुनी गयी कविता है |
प्रिया वर्मा की लेखनी पैनी नजर की धार लिए है, अनछुए पहलूओं को बड़ी बारीकी से उठाती है | प्रिया वर्मा को बहुत बहुत शुभकामनायें 💐💐
ऋतु डिमरी नौटियाल
प्रिया को सवाल पूछने आते हैं, कविता में और उसके बाहर । इसलिए वे मेरी प्रिय हैं।क्योंकि क़ायदे से सवाल पूछना स्त्रीविमर्श की ज़मीन तैयार करना भी है। जितना कठिन इन सवालों को कविता के बाहर पूछना है उतना ही कठिन है उन्हें कविता में साधना भी। तभी वे कह पाती हैं ,
जब चीज़ों को छोड़ने का समय था
तब मुझमें जड़ें फूट रहीं थीं
जड़ों से ज़्यादा प्यास किसी को नहीं लगती
मेरी बहुत शुभकामनाएँ!
कुछ ऐसा पढ़ने का अनुभव जो ठीक इसी रूप में मन पर नहीं छपा था।
प्रिया की सभी आठों कविताएँ अपनी बनावट में जितनी गझिन हैं उतनी ही अपनी वस्तु में गहरी व्यंजना से संपृक्त। प्रश्नाकुल करते विमर्श के भीतर स्त्री की अंतः वेदना को स्वर देतीं प्रिया ने समकालीन कविता में अपनी पुख्ता मौजूदगी दर्ज कराई है। शुभकामनाएं।
सुंदर और अलग व्याकरण की कवितायें
पहली बार प्रिया वर्मा की एक साथ कई कविताएँ एकमुश्त पढ़ीं। बल्कि दोबारा पढ़ीं, और कुछ को तिबारा भी। ये ऐसी साहसिक और असर्टिव कविताएँ हैं जिनपर तत्काल बहुत कुछ बोल पाना आसान नहीं है। स्त्री मन का एक नेचुरल आउटब्रस्ट इन कविताओं के एक-एक शब्द में अनुभूत किया जा सकता है। कविता का वैचारिक पक्ष और शिल्प दोनों ही गहरे रूप में प्रभावित करते हैं। इनकी भाषा भले ही हिंदी हैं, लेकिन जो सवाल ये खड़े करती हैं वे वैश्विक हैं। निश्चय ही बहुत गंभीर और सशक्त कविताएँ।