• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » राजीव वर्मा से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत

राजीव वर्मा से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत

कलाओं के क्षेत्र में मध्य प्रदेश द्वारा दिया जाने वाला प्रतिष्ठित कालिदास सम्मान (2021) रंगमंच लिए राजीव वर्मा को आज उज्जैन में दिया जाएगा. चयन समिति के सदस्यों- अनिल रस्तोगी, के. मंजरी श्रीवास्तव और आलोक चटर्जी ने सर्वसम्मति से उनका चयन किया है. अभिनेता के रूप में पहचाने जाने वाले राजीव वर्मा भोपाल में पिछले कई वर्षों से किसी नाट्य-संस्था की तरह कार्य कर रहें हैं, उन्होंने लगभग इक्यावन नाटकों का निर्देशन किया है जिनमें से कुछ में उन्होंने अभिनय भी किया है. इस अवसर पर के. मंजरी श्रीवास्तव से उनकी यह बातचीत प्रस्तुत है.

by arun dev
November 4, 2022
in नाटक
A A
राजीव वर्मा से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

राजीव वर्मा से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत

1.
सर्वप्रथम आपको कालिदास सम्मान के लिए बहुत -बहुत बधाई राजीव जी.

 

बहुत शुक्रिया मंजरी जी.

 

 

2.

पहला सवाल यह कि आपने एक स्थापित कलाकार होने के बावजूद अनायास मुंबई छोड़ने का निश्चय क्यों किया ?

देखिये मंजरी जी, पूरी मनःस्थिति तो याद नहीं. दरअसल बात यह थी कि  मेरे पास काम तो बहुत था पर काम मेरे मन का नहीं था. मैं सिर्फ़ पिता का किरदार निभा-निभा कर बोर हो गया था. हीरोइन को सदा सौभाग्यवती रहो का आशीर्वाद दे-देकर बोर हो गया था. दूसरी बात मेरा एकमात्र मकसद पैसा कमाना भी नहीं था क्योंकि मैं एक अच्छी जॉब में था. बाप-बनते-बनते मैं ऊब चूका था. यूँ कहिये कि  मुंबई में फिल्मो में मैं जो अभिनय कर रहा था वह टाइपकास्ट अभिनय था और मैं इस टाइपकास्ट अभिनय से बुरी तरह पक चुका था, बोर हो चुका था.

तीसरी बात यह थी कि  थिएटर मैं कर रहा था पर थिएटर मैं बहुत कम कर पाता था जबकि मैं थिएटर वाला इंसान हूँ. तो एक ये वजह भी रही मुंबई छोड़ने की. अभी भी मुंबई आना-जाना लगा रहता है पर अब मैं बहुत  कम फ़िल्में और बहुत कम टीवी सीरियल करता हूँ. भोपाल में रहकर थिएटर करता हूँ और यहाँ मैं थिएटर का होलटाइमर हूँ और मुंबई से ज़्यादा व्यस्त रहता हूँ. दूसरे, यहाँ एक छोटी-सी प्रॉपर्टी है, एक होटल है उस पर भी ध्यान दे पाता हूँ. यूँ कहिए कि  मेरा मन थिएटर में ज़्यादा रमता है और थिएटर में मैं अपने मन का काम कर पाता हूँ. मुंबई छोड़ने की भी मुख्य वजह यही रही.

 

3.

इसी प्रश्न से जुड़ा मेरा दूसरा सवाल यह है कि आपने मुंबई छोड़ने के बाद नाटक के लिए दिल्ली को क्यों नहीं चुना? भोपाल क्यों?

सबसे पहली बात यह कि भोपाल मेरा अपना शहर है, मेरा होमटाउन है. यहाँ मेरा परिवार है. दिल्ली और मंडी हाउस या किसी भी बड़े शहर की भीड़भाड़ में मैं क्या करता?

मुझे बड़े शहर और उनकी भीड़भाड़ ज़्यादा पसंद नहीं. बम्बई भी मुझे काम के लिए ही पसंद था. जिस शहर में इत्मीनान हो, सुकून हो वही मुझे पसंद आता है इसीलिए भोपाल को चुना. फिर मुझे लगा कि मध्य प्रदेश में थिएटर तो बहुत हो रहा है लेकिन हिंदी थिएटर उस स्तर का नहीं हो रहा जैसा होना चाहिए तो मेरा यह मानना है कि  हमें ऐसी जगह को प्रमोट करना चाहिए जहाँ हिंदी थिएटर नहीं हो रहा है. एक यह वजह भी रही भोपाल को चुनने की.

मैं हिंदी थिएटर के विकास एक लिए सतत प्रयत्नशील हूँ. भोपाल में और मध्य प्रदेश के अन्य शहरों में, अंचलों में भी नाटक करता हूँ. यह हम जैसे रंगमंच प्रेमियों और सरकार दोनों का काम है कि  मिलकर मध्य प्रदेश के रंगमंच के लिए काम करें और विशेषकर हिंदी रंगमंच के लिए. भोपाल में कारंत जी से लेकर बंसी कौल जैसे नाट्यकर्मियों की एक समृद्ध परंपरा रही है पर भोपाल या मध्य प्रदेश का नाम अभी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नहीं पहुंचा है जिसके लिए मैं लड़ता हूँ, प्रशासन से लड़ता हूँ और लगातार प्रयत्नशील रहता हूँ.

मैं तीन वर्ष पहले भोपाल आया. भोपाल आने के कुछ दिनों बाद ही मेरी माताजी का देहांत हो गया तो मुझे लगा कि  एक तरह से यह अच्छा ही हुआ कि मैं माताजी के अंतिम दिनों में भोपाल आ गया और उनकी सेवा कर सका, उनके साथ समय बिता सका.

 

4.

आपने कुछ देर पहले बताया कि आप एक अच्छी जॉब में थे तो उस बारे में विस्तार से बताएं. जॉब करते हुए रंगमंच और फिर फिल्मों में आना कैसे हुआ और नौकरी, रंगमंच और फिल्मों से गुज़रते हुए किन मुश्किलों से आपको दो-चार होना पड़ा? आपकी यात्रा कैसी रही ?

१९७१-७२ में मैंने आर्किटेक्चर से ग्रेजुएशन किया और इंदौर में नगर तथा ग्राम निवेश विभाग में असिस्टेंट डायरेक्टर के पद पर ज्वाइन किया. इंदौर में एक थिएटर ग्रुप था जिसके साथ मैंने नाटक करना शुरू किया. दिन में ऑफिस और शाम को नाटक यही मेरी दिनचर्या थी. फिर ‘संवाद’ नाम से अपना थिएटर ग्रुप बनाया. इसी दौरान मेरा ट्रांसफर भोपाल हो गया. पत्नी रीता से भी थिएटर में ही मुलाक़ात हुई. फिर मैंने अर्बन डिज़ाइन में दिल्ली से मास्टर किया.

१९८६ में मैं पहली बार बम्बई गया (तब मुंबई बम्बई ही हुआ करता था). बम्बई भोपाल आना जाना चलता रहा. इस सबमें मेरे ऑफिस के एक सीनियर ने मेरा बड़ा साथ दिया. यह सब मुझे रचनात्मक संतोष देता रहा. इसी बीच मैं भोपाल की नर्मदा वैली में डायरेक्टर हो गया. इन सबके साथ नाटक चलता रहा थोड़े उंच-नीच के साथ.

थिएटर ने शुरू में बहुत परेशान किया. १९७३-७८ के बीच दफ्तर में मेरी कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट काफ़ी ख़राब की गयी  मेरे सीनियरों द्वारा. लेकिन इसी बीच एक ऐसे अधिकारी का मेरे जीवन में प्रवेश हुआ जो स्वयं साहित्यानुरागी और कवि होने के साथ-साथ कलाप्रेमी भी थे और यह थे- श्री अशोक वाजपेयी. अशोक जी ने मुझे बहुत सपोर्ट किया.

१९७३ के अक्तूबर में मैंने ब. व. कारंत जी की एक नाट्य कार्यशाला में दाख़िल लिया और इस कार्यशाला ने थिएटर के प्रति मेरा नजरिया बदल दिया. इस वर्कशॉप को करते हुए मुझे पता चला कि थिएटर या अभिनय सिर्फ मंच पर जाकर रटे-रटाये डायलाग बोल देना नहीं है बल्कि थिएटर एक जीवन-शैली है जो आपको प्रतिदिन गढ़ती है. थिएटर आपके संस्कारों का निर्माण करता है.

नौकरी में मैं राजपत्रित पदाधिकारी था पर अभिनय के लिए मैंने नौकरी छोड़ दी थी. एक बार मैं बम्बई में शूटिंग कर रहा था लगभग १५ साल पहले. इंदौर से आये कुछ लोग शूटिंग देख रहे थे. मैंने उन्हें बताया कि मैं इंदौर से हूँ और अभिनय और नाटक के लिए अपनी नौकरी छोड़ चूका हूँ तो उन लोगों ने मुझसे कहा कि  नौकरी छोड़कर आपने बहुत बड़ी गलती की. नौकरी कर रहे होते तो आज एक्टर नहीं प्रोड्यूसर होते.

मैं भौंचक्का रह गया. खैर, यह बात आई-गयी हो गई.

तीन साल पहले बम्बई छोड़ने का फैसला लिया तो लोग फिर यह कह रहे थे कि जब चॉक एंड डस्टर  लग जाता है एक बार तो उतरे नहीं उतरता. मैं एक बार फिर भौंचक्का था क्योंकि मुझे न नौकरी छोड़ने में परेशानी हुई थी न बम्बई छोड़ने में और न ही एक से दूसरे पर शिफ्ट करने में लेकिन लोगों को किसी में चैन नहीं था चाहे मैं कुछ भी करूँ और हर बार यही बात मुझे हैरत में डालती  रही.

 

5.

कृपया अब अपने आरंभिक जीवन के बारे में बताएं. नाटकों में रुझान कैसे पैदा हुआ और घरवालों का इसमें कैसा और कितना सहयोग रहा ?

नाटकों में रुझान तबसे पैदा हुआ जब गाँव में होनेवाली रामलीला की वानर सेना में हमें नकली मूँछें लगाकर बिठा दिया जाता था. स्कूल और कॉलेज तक तो मेरी माताजी ने ये नाटकों का मेरा भूत बर्दाश्त कर लिया लेकिन बाद में बहुत नाराज़ होतीं थीं लेकिन जब बाद में बतौर अभिनेता मेरा नाम हो गया तो माताजी भी बड़े चाव से मेरा नाटक देखने आती थीं. हाँ, पिताजी बहुत सपोर्ट करते  रहे.

एक ज़माने में मैं आकाशवाणी में अनाउंसर भी था. यह १९६७ की बात है. मशहूर सितारवादक रविशंकर से विलायत खान साहब से लेकर बड़े-बड़े लोगों के कार्यक्रमों के लिए मैंने अनाउंसमेंट की है. आकाशवाणी में रहने से मेरी भाषा परिष्कृत होती गई. १९८४-८६ तक मैं दिल्ली में था और नाटकों से लगातार जुड़ा रहा और १९८६ में मैं बम्बई चला गया जैसा मैंने आपको पहले भी बताया है. वहां फिल्मों में अभिनय करने के दौरान रेडियो और नाटकों का अनुभव मेरे बड़े काम आया.

 

6.

आपके अभिनीत और आपके द्वारा निर्देशित कौन से  ऐसे नाटक हैं जो आपको पसंद  हैं

मेरे पसंदीदा नाटकों में से सबसे पहला नाम मैं जिस नाटक का लेना चाहूंगा वह है इब्राहिम युसूफ द्वारा रचित ‘वक़्त के कराहते रंग‘ जिसे मध्य प्रदेश उर्दू अकादेमी ने लगभग ४० साल पहले मंचित करवाया था. मैंने इसे दुबारा रिवाइव किया आज से १०-१२ साल पहले और इसका निर्देशन भी किया और इसमें मुख्य भूमिका में भी मैं था. यह नाटक मेरे दिल के बहुत करीब है और इसका कारण यह है कई  यह एक क्रांतिकारी नाटक है. यह एक महिला प्रधान कहानी है और यह एक अति संवेदनशील कहानी है. यह ४० साल पहले जितनी प्रासंगिक थी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है. यह कहानी है लखनऊ के एक मुस्लिम परिवार की लेकिन यह कहानी हर धर्म, हर संप्रदाय के लिए मौजूं है.

यह कहानी विधवा पुनर्विवाह पर है. १९८१-८२ में जब पहली बार यह नाटक हुआ था तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि एक ससुर अपनी विधवा बहू की दुबारा शादी करवा सकते हैं. इस प्रकार यह समय से आगे का नाटक तब भी था और आज भी है क्योंकि आज भी कई समाजों, कई धर्मों में विधवाओं की स्थिति बहुत बदतर है. दुबारा विवाह करना तो दूर की बात उन्हें तो एक सामान्य जीवन जीने के अधिकार से भी वंचित रखा गया है. जब यह नाटक मैं कर रहा था तब इसके नाटककार रोज़ रिहर्सल में आते थे और रिहर्सल ख़त्म होने तक लगभग हर रोज़ रो पड़ते थे. १९८१ वाला शो पोलिश होते-होते उसका स्वरूप अलग हो गया है. इसबार उर्दू अकादेमी करा चुकी है और अब मैं भी कर चुका हूँ. मैं इसमें पिता/ससुर की भूमिका में हूँ और महुआ चैटर्जी ने एक युवा विधवा बहू की भूमिका निभाई है.

मेरा दूसरा पसंदीदा नाटक है ‘कालय तत्समय नमः’. डी. पी. श्रीवास्तव की यह कहानी भविष्यवक्ताओं पर है. इसपर ‘अनकही’ नामक फिल्म भी बन चुकी है जिसके गीत पंडित भीमसेन जोशी जी ने गए थे. इसके अलावा मेरे पसंदीदा नाटक हैं ‘छोटी-बड़ी बातें’, ‘अपने-अपने दायरे’ और विजय तेंदुलकर का लिखा नाटक ‘भीतर दीवारें’ जिसका मंचन १९५८ में मराठी में हुआ था लेकिन उसके बाद कहीं नहीं हुआ है. यह नाटक परिवार की सुरक्षा की बात करता हुआ एक परिवार केंद्रित शो है. ‘अपने-अपने दायरे’ एक दादा-पोती की कहानी है जिसमें दोनों के विचार और संवाद मेल नहीं खाते. इसके अतिरिक्त योगेश त्रिपाठी द्वारा लिखित और मेरा निर्देशित नाटक ‘चौथी सिगरेट’ भी मुझे बहुत पसंद है जो घोस्ट राइटर्स पर आधारित है. घोस्ट राइटर्स पर अलग से बात की जानी ज़रूरी है. घोस्ट राइटर्स वही नहीं हैं जो किसी और के लिए लिखते हैं. हम अभिनेता परदे पर जिस संवाद को बोलकर वाहवाही लूटते हैं और जनता बोलती है कि वाह क्या डायलॉग बोला/मारा है हीरो ने दरअसल वह संवाद लिखने वाला भी एक घोस्ट राइटर ही होता है चाहे संवाद लेखक के रूप में नाम किसी का हो. ख़ैर छोड़िये, यह एक अलग अध्याय है जिसपर अलग से बात करने की ज़रूरत है. फिर कभी आपसे बात होती हो इस विषय पर विस्तार से बात होगी.

 

7.

आप नाटक और फिल्म दोनों से जुड़े रहे हैं तो आजकल देश के विभिन्न कोनों में कभी लखनऊ, कभी भोपाल में जो फिल्मसिटी बनाने की बात हो रही है उसपर आप क्या कहना चाहेंगे ?

देखिये, मेरा यह मानना है कि  हर प्रदेश का एक अपना अलग करैक्टर होता है उसका आनंद लिया जाना चाहिए. हर प्रदेश की अपनी अलग सुंदरता होती है तो मेरा यह कहना है कि हर प्रदेश की सुन्दर चीज़ें फिल्माई जानी चाहिए न कि पूरे देश, पूरी दुनिया को बम्बई बना दिया जाना चाहिए. पूरे भारत को बम्बई क्यों बनाना है भई?

 

‘वक़्त के कराहते रंग’ में राजीव वर्मा

8.

आज की युवा पीढ़ी के सांस्कृतिक रुझान पर आप क्या कहना चाहेंगे?

देखिये हमारी पीढ़ी और आज की पीढ़ी में एक बहुत बड़ा फर्क मुझे दिखाई देता है सांस्कृतिक रुझान को लेकर. हमारे जमाने में सांस्कृतिक विशेष रूप से किसी शास्त्रीय गायन, वादन या नृत्य के कार्यक्रम में सिर्फ़ उम्रदराज़ लोग नज़र आते  थे लेकिन आज यह परिदृश्य बदल गया है. आज इन शास्त्रीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का श्रोता/दर्शक बदल गया है और यह दर्शक वर्ग हमारी युवा पीढ़ी है. आप किसी भी क्लासिकल प्रोग्राम में जाएँ हमारी युवा पीढ़ी से ऑडिटोरियम भरा रहता है. आज शास्त्रीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों में युवा पीढ़ी का रुझान बढ़ा है, उनकी भागीदारी बढ़ी है. यह एक सांस्कृतिक क्रांति है और हमारे देश के वर्तमान और भविष्य के सांस्कृतिक परिदृश्य के लिए सुखद संकेत है. आज हमारी युवा पीढ़ी पूरी तरह से बदल चुकी है. उनका जो टेस्ट डेवलप हुआ है वह टेस्ट भारतीय शास्त्रीय है.

मैं भारत के सांस्कृतिक भविष्य को लेकर बहुत आशावान हूँ. शास्त्रीयता और संस्कृति व्यक्तित्व का संवेदनशील विकास करती है और मुझे यक़ीन है कि  हमारी युवा पीढ़ी सांस्कृतिक रूप से स्वयं तो समृद्ध है ही आगामी पीढ़ियों को भी यह सांस्कृतिक समृद्धि हस्तांतरित करेगी, यह संवेदनशीलता हस्तांतरित करेगी. ऐसा मेरा विश्वास है.

के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है.
manj.sriv@gmail.com
Tags: 20222022 रंगमंचकालिदास सम्मानके. मंजरी श्रीवास्तवराजीव वर्मा
ShareTweetSend
Previous Post

वर्किंग विमेंस हॉस्टल और अन्य कविताएँ: ऋत्विक भारतीय

Next Post

मैनेजर पाण्डेय: अशोक वाजपेयी

Related Posts

कथक नृत्यांगना पंखुड़ी से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत, 2023
बातचीत

कथक नृत्यांगना पंखुड़ी से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत, 2023

कुछ युवा नाट्य निर्देशक: के. मंजरी श्रीवास्तव
नाटक

कुछ युवा नाट्य निर्देशक: के. मंजरी श्रीवास्तव

राधावल्लभ त्रिपाठी से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत
बातचीत

राधावल्लभ त्रिपाठी से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत

Comments 1

  1. vinod mishra says:
    3 years ago

    शुभकामनाएं। अच्छी बातचीत।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक