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समालोचन

Home » महेश वर्मा की कविताएँ

महेश वर्मा की कविताएँ

विष्णु खरे ने समालोचन पर ही एक जगह लिखा था- ‘महेश वर्मा उन प्रतिभावान युवा कवि-कवयित्रियों में से हैं जिनकी रचनाओं का मैं स्वयं को बहुत उम्मीद, उत्सुकता और उत्तेजना से इंतज़ार करने पर विवश पाता हूँ.’ 2018 में महेश वर्मा के पहले कविता संग्रह ‘धूल की जगह’ के प्रकाशन ने उन्हें हिंदी कविता में स्थापित कर दिया, किसी कवि के पहले कविता-संग्रह के साथ विरल ही ऐसा होता है. इस बीच उनकी कविताएँ छपती रहीं हैं. इन कविताओं में वह अपनी रचनात्मकता को लेकर और सचेत हुए हैं. उनकी नयी चौदह कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
September 14, 2022
in कविता
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महेश वर्मा की कविताएँ
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महेश वर्मा की कविताएँ

 

1.
गुड्डन बी के नाम चिट्ठी
(यह कविता रुस्तम सिंह के लिए)

गुड्डन बी बेंगलोर जाकर मैं क्या करूँगा?
मेरा कोई काम ही नहीं वहाँ

बहुत हुआ तो मल्लेस्वरम जाऊँ
किसी पुराने घर की ओर देखते देखते
किसी पुरानी मोटर से कुचला जाऊँ
हाथ पैर झोले में समेट के
वापस दुरंतो एक्सप्रेस में बैठ जाऊँ,
चने खाऊँ, कविता पढूँ
रोना आये तो हमसफ़र का मुँह देखने लगूँ
कि कितनी ठोकरें भाई ने ज़माने की खाई होंगी,
यही सोचते-सोचते दिल को बहला लूँ

क्या करूँगा दिल्ली-दरभंगा जाके
हरयाना-पंजाब जाके क्या करूँगा गुड्डन बी
मिदनापुर जाके क्या करूँगा
भले वहाँ भानु मुखर्जी का प्रेमगीत गूँजता रहता हो-
चीनी गो चीनी तोमारे…

मुझे तो कोई नदी नहीं चीन्हेगी ना
पुल चुपचाप हो जायेंगे

तुम तो उधर मुल्तान बस गईं जाकर
उधर कैसा है मुल्तान में?
डाकिये आते तो हैं, बारिश होती तो है?
पुरखे मिलते तो हैं?
सपने आते तो हैं?

जब मेरी नज़्मों की किताब आएगी
ये चिट्ठी भीतर रखकर भेजूँगा

बचपन के सपने मिलें तो सहेज रखना

इधर कोई जगह ही नहीं बची बी
पता नहीं किसकी रुलाई बजती रहती है भीतर

बदन में लौटकर क्या करूँगा बी,
क्या करूँगा मुल्तान जाकर?

*आमी चीनी गो चीनी तोमारे..टैगोर लिखित बांग्ला गीत है. इसे हमारे नगर के अद्वितीय कवि और गायक भानु प्रकाश मुखर्जी बड़े भाव से गाकर सुनाया करते हैं.

 

२.
एक धड़कन

सिर्फ एक धड़कन दूर थी ना आकाशगंगा?
एक कोशिका दूर था मोक्ष
साँस भर दूर सारा आकाश

हजारों मील दूर
दो अंधेरे कमरों तक कैसी साफ पहुँचती थी
आवाज़: कैसे एक-एक धड़कन
एक-एक सांस

लगता था कि हाथ बढ़ाएंगे
तो छू लेंगे

लगता था ना?

 

3.
बनफूल

इस जगह हवाएं तेज़ हैं
पता नहीं यह कोई रास्ता है,
खुला मैदान या ट्रेन के खुले दरवाजे में
बैठ पाने का सुख.

कोई जगह है जहां हवा तेज़ बह रही है
वह जैसे किसी खुशबू को भी
नहीं ठहरने देना चाहती मेरे गिर्द

और फूलों वाले पौधे हैं
कि थकते ही नहीं खुशबू देते.

 

कृति- महेश वर्मा

4.
पंख

मरने से कुछ समय पहले
दादी ने एक पंख मुझे देते हुए कहा:
यह गरुड़ का पंख है, इसे हमेशा पास रखना
एक ढंग से यह प्रजापति का आशीष है

अगर मैं थोड़ा और बिगड़ैल बच्चा होता
तो इस पंख को कंचे से बदल चुका होता

अगर मैं थोड़ा और बहादुर होता
तो मरने वालों में शामिल होता
तो एक ख़ूनआलूदा पंख पर किसका ध्यान जाता

अगर मैं थोड़ा और उदास होता
तो सलेटी रंग का होता
और बहुत भुलक्कड़ हुआ करता

बहरहाल पंख किसी तरह मेरे पास बचा रहा

मेरी सात बेटियों में से तीसरी बेटी
रात में छुपकर कविता लिखती है
लेकिन सूर्योदय अपनी मुस्कान में उनको प्रकाशित कर देता है

जब मुझे यकीन हो जाएगा
कि वह हवा को अपनी सखी बना चुकी
तब उसे मैं यह पंख सौंप दूंगा
लेकिन इसके पीछे की कहानी को बदल दूंगा.

 

5.
अद्वितीय जीवन

अपने वृक्ष से अलग
ज़मीन की घास मिट्टी पर
भीगते, सूखते, क्षय होते
पत्तों के अलग-अलग रूपाकार और ऐंठन में
उनके मौलिक और अद्वितीय जीवन को देख सकते हैं

हर पत्ते के पास अपनी एक कहानी है
वृक्ष की शिराओं से होकर आता
जल, खनिज और जीवन उन तक
एक जैसा नहीं पहुंचता था ना

अलग होने से पहले वृंत ने
क्या टहनी से कुछ कहा था?
विश्वास करने की वजहें हैं कि
हर एक पत्ता अलग शब्द कहता है अलविदा के-
अपने वृक्ष,अपनी शाख से

हर पत्ता अलग ढंग से पीठ टिकाता है
अपनी अंतिम विश्राम स्थली पर
अलग-अलग विन्यास में बुझती हैं
अलग-अलग पत्तियों की कोशिकाएं

सब पर अलग अलग ढंग से उतरता है
पीला, भूरा और काला रंग

 

6.
पता पूछता है
(सी सुनील और अमरदीप की मित्रता के लिए)

सुनील कब आएगा,
आजकल कहाँ घर किया है?
रोज़ पूछता है
और उत्तर से निरपेक्ष, थोड़ी देर ठहरकर
चला जाता है

कोई नहीं पलटकर पूछता: कौन सुनील?

किस सुनील के बिछड़ने पर बाल में,
दाढ़ी में लट किये हो रे भाई?
मैं भी तो उसी धरती का ख़ून हूँ
कितने तो लोग बिछड़े सब से,
ऐसे तो कोई धूल में जटा नहीं बांधता
ऐसे तो कोई नहीं घर का पता भूलता,
ऐसे तो कोई नहीं धुँधलाता पुरानी आवाज़?

किसी दिन दर्पण की तरह,प्राण की तरह
नहीं खड़े हो पाओगे सम्मुख,
अशुभ में धड़क पड़ेगा हृदय
गले में प्यास फुसफुसायेगी: पानी दो!
देह ढूँढेगी बैठने भर जगह

एक पुकार उठेगी भीतर से: कौन सुनील?
सुनील कौन?

 

कृति- महेश वर्मा

7.
जलसे का गीत

मेरा एक हाथ थामे रहना एकांत!
इस जगह इस नदी में पानी बहुत है
उतना ही कोलाहल गूँजता है बाहर

बहुत सारे बन्धु-सखा-सहचर
ये अपने होने की आँच से दीप्त
कैसे नक्षत्रों की तरह घूमते हैं
इस पुरातन जलसाघर में,
मेरे पास तो अपनी भी परछाई नहीं है
मुझे एक पुराने छाते भर छाँव देना आकाश!

यहीं इस ठण्डी घास पर खो गई है भाषा
पानी में बर्फ के टुकड़े की तरह आकार खो रहा है स्वर
पता नहीं ये किसकी मुस्कान है किसके चेहरे पर
सामने से मेरा ही चेहरा पहने आ रहा हो एक मनुष्य

तुम्हारे सामने लौटूँ
तो मुझे मेरे चेहरे के बारे में देर तक बताना दर्पन!

 

8.
फेसबुक

मैं वहाँ आकर ऐसे चुपचाप बैठी रहती हूँ
जैसे तुम भी बैठे हो
वहीं कहीं चुपचाप.

अब मुझे अजीब नहीं लगता
कि यहाँ की घास भी नीली है और
बेयरे भी वैसी ही नीली कमीज पहनते हैं
जैसे हत्यारे, बच्चे और तुम जैसे आधा पागल इंसान

मतलब और कोई रंग है कि नहीं दुनिया में कि बस सिर्फ नीला?
कुछ बताओगे सत्ताईस प्रकार की स्माइली में संवाद करने वालों?

मैंने वहां सूरजमुखी के फूल और पुरातन मुस्कान को इतना बरता
कि वह तुम्हारी घिसी हुई डेनिम से भी निस्तेज हो गया

वहां तीन भाषाओं में अनुवाद
और दो भाषाओं में धन्यवाद करते,
मेरी जुबान नीली पड़ गई है मिस्टर रहस्यमय आईडी!

आदिम लिपस्टिक के साथ नीली ज़ुबान का संयोजन भले भुतहा मालूम पड़े रात को 3:30 पर!

 

कृति- महेश वर्मा

9.
यक़ीन

हर एक चीज़ पर यक़ीन करो
यक़ीन करो कि इसी चीज़ में ज़िन्दगी का जादू छुपा है
उसकी आग, उसकी कशिश और पुराना पागलपन

इसी चीज़ में ना सोई गई सुंदर रातें हैं
जहाँ सितारे ओस की तरह हमारी खुली आंखों में टपकते थे
इस चीज़ को छूओगे और यह सूखे आंसुओं वाला,
सूखे अंधेरे कुएं का वक्त, तिलिस्म की तरह भहराकर गिर जाएगा
और उसे पूरे चांद की रात का जादू अपनी लहरों में खींच लेगा

हर एक तिनके को संजो के रखो
हर एक तिनके के पास अपना जादू है,और अपनी याद

रंगीन पन्नियाँ, सबसे छोटे धागे के सबसे रंगीन टुकड़े
ना लिखी गई चिट्ठियां और ना बोली गई बातें
इन पर यक़ीन करो और उस यक़ीन को सहेज लो

जैसे यह किताब
इस किताब के हर पलटते पन्ने पर-
सूखे हुए फूल हैं, उदास पत्तियां है
या किसी सुंदर वाक्य के नीचे लकीर खिंची है
इसे अपने भीतर सहेज कर रखो

सहेज कर रखो आत्मा पर लगी खरोचें
और उससे रिसता ख़ून !

 

१०.
यक़ीन-2

चीज़ों का यक़ीन मत करो
कि उनसे कुछ याद आ जाएगा
कि उनका कोई इस्तेमाल भी है
अलगनी पर रखी कमीज़ हो
या कोई पुराना ख़त, कोई आवाज़,
कोई सूखा फूल या अतर की खाली शीशी,
मोहब्बत की नज़्म हो या कोई खनकती हुई हँसी

इन्हें दूर से देखो
यह पहले ही मर चुकी चीज़ों की फेहरिस्त है
याद एक मुर्दा लफ़्ज़ है और उम्मीद एक खाली जगह

अगर तुम्हें खुद को फरेब देने
और अपने यक़ीन को ज़िंदा रखने का शौक है
अगर किसी बदनसीब रात तुम्हारा बस ना चलता हो तुम पर
और तुम किसी चीज़ के पास आ ही गए हो
जैसे कोई कलम, पंख, आँसू वगैरह
तो उसकी शाहरग छू कर देख लो

वहां एक ठंडा बेहिसपन है

तुम्हारी यादगाह नहीं

वहाँ कुछ नहीं धड़कता

 

11.
यक़ीन 3

यक़ीन कोई चीज़ थी ही नहीं
जहाँ जहाँ यक़ीन लिखा है उसे भरम से बदल दो
और देखो

ये भी कर सकते हो कि एक खेल (जैसे दुविधा) को
अपना जीवन शिल्प बना लो
अच्छा, जीवन नहीं तो कल्पना की यातना को समझने की बस एक चाभी मान लो

जैसे अंधेरा सच था और उसके भीतर सिसकना भरम
प्यार भरम था लेकिन उससे रिसता ख़ून सच था
बस ऐसी ही दुविधाएँ

चाहो तो कुछ बरस चाहो तो थोड़ी देर ऐसा ही करते रहो
अब इस किताब को खोलकर देखो
कहीं यक़ीन लिखा हुआ भी दिख रहा है क्या?

 

कृति- महेश वर्मा

12.
प्रतिहिंसा

बारिश होती है और पत्तों पर जमी धूल को साफ कर देती है और फिर जब धूप आती है पत्ते बिल्कुल नए होकर चमकने लगते हैं. ऐसे ही तेज़ हवा बादलों को कहीं ले जाती है और साफ नीला आसमान दिखने लगता है. इन बातों का प्रतिहिंसा से क्या नाता हो सकता है?
इस बीच मालूम नहीं कला के पाखंड पूर्ण संसार का नागरिक होने की वजह से या मृत्यु के नज़दीक (जब अपने पंख भी बोझ लगने लगते हैं) होने के कारण मुझे अपने भीतर रखी बहुत सी प्रतिहिंसाएँ मिली ही नहीं. जैसे किसी बारिश ने पत्थर को धो दिया हो, हवा ने हत्यारी इच्छाओं की धूल उड़ा दी हो. यह एक असहाय स्थिति थी. मुझे वह प्रतिहिंसाएँ चाहिए थीं. कुछ लोगों को मैं पूरी तरह नष्ट कर देना चाहता था. जैसे एक रहस्य पूर्ण और अंधेरी फुसफुसाहट के बारे में मुझे पता था कि उसने मेरे प्रियजन को मुझसे छीन लिया है. मैं उस जीवित षड्यंत्र को एक सफेद बाण से मारने की इच्छा पाले हुए था ताकि उसका काला लबादा और काला हृदय विदीर्ण कर सकूँ और उसे सबके बीच उजागर ढंग से तड़प कर मरता देखूँ. मैं एक ज़ुबान को काटकर अपनी पालतू बिल्ली को खिलाना चाहता था, एक कृत्रिम त्वचा को चाकू से छील कर ज़मीन पर ढेर करना चाहता था. मुझे उन लोगों के विवरण ठीक-ठीक याद हैं, उनकी हिंसाएँ भी धुंधली सी याद हैं लेकिन अपनी प्रतिहिंसा ढूंढे नहीं मिल रही. यह मेरे शोक के दिन हैं कोई क्षमाभाव इनमें नहीं है.

 

13.
स्टारी नाइट

बदहवास दिन रातें जल्दी आती हैं निर्जन घेर लेता है.
बदहवास दिन नास्तिक आदमी मजारों मंदिरों में सर झुका कर रोता है, पेड़ पर धागे बांधता है और एकाकी मर जाने के रूमान बुनता है.
मौसम अपना असर खो देते हैं और कंधों पर ओस गिरती रहती है
मौसम अपना असर खो देते हैं और लू में आवारा घूम रही सूखी पत्ती सर के ऊपर से उदास दिशा में बेआवाज उड़ जाती है.

कोई बात नहीं जो पलकों पर सर्दी जम गई है
यह आँखें बन्द करने पर सुखद लगेगी
कोई बात नहीं जो आँखों में, साँसों में धूल भर गई है
कोई बात नहीं कि कीचड़ में लिथड़ती पतलून
और उसी में उसी में बेआवाज़ गिरती यादों का क्या होने वाला है,कब यह बारिश रुकेगी

बदहवास दिन कपड़े अपनी रंगत बदल लेते हैं
जैसे कि वह पहले से ही पुराने और धूल भरे थे

बदहवास दिनों की रातें जैसे
वॉन गॉग का चित्र: स्टारी नाइट

 

14.
सीज़न-1:एपिसोड-1

यही नहीं कि इस चमकीले बेदाग़ सफ़ेद फर्श को नहीं पता कि उस पर ख़ून के ऐसे दाग़ दूर तक जाते दिखेंगे कि जैसे किसी शरीर को घसीट कर ले जाया गया है, और किसी को भी कहाँ कुछ पता होता है कि कोई चीज़ कैसी शक्ल लेगी. उस समय कैमरा कहाँ होगा.
सबकुछ कितना सुन्दर है जैसे धूप वाले दृश्य की इम्प्रेशनिस्ट पेंटिंग. कितना सुन्दर शुरू हुआ है यह प्रेम-देर रात जागते, एक दूसरे की धड़कन सुनते. हर चीज़ का एक गूँजता हुआ और सुन्दर सा अर्थ है. आगे ख़ून, आँसू, अंधकार और वियोग बरसाने वाली ताक़तें काले सूट या हार को दुरुस्त कर रहे हैं कि जैसे बस जायज़ा ले रहे हों . धरती को ख़ून से नहलाने वाले लोग जश्न कर रहे हैं. कोई खटाखट स्क्रीनशॉट ले रहा है कोई छुपकर तस्वीरें ले रहा है, कोई मन में ज़हर बुझे वाक्य गढ़ रहा है.
इस जाम के लुढ़कने का कोई अर्थ है, आगे स्पष्ट होगा. बहुत उच्चस्तरीय संगीत है. यहाँ कुछ होने वाला है.
उधर एक शान्त घर के आसपास भी कुछ सियाह सा परवाज़ ले रहा है. एपिसोड का अंत ऐसा होना चाहिए कि आगे देखने का मन हो. भले घटना कुछ भी हो- कार की टक्कर, हाथ पर हाथ रखना, आकस्मिकता लिए हुए किसी का आना और कुछ कहना.
किसी का पुरानी बात कह सकने की सोचते सोचते भीतर भीतर घुटते रहना. संगीत यह भ्रम पैदा करेगा कि यह कुछ कह पड़ेगा लेकिन आज का ख़त्म होने-होने को आ गया समय इसकी बेबस चुप पर ही ख़त्म हो ले.

 

महेश वर्मा
30 अक्टूबर, 1969 (अम्बिकापुर छत्तीसगढ़)

कविताएँ, कहानियाँ और रेखाचित्र सभी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित. वेब पत्रिकाओं में कविताओं का नियमित प्रकाशन. पाकिस्तान की साहित्यिक पत्रिका दुनियाज़ाद और नुकात में कविताओं के उर्दू अनुवादों का प्रकाशन. कविताओं का मराठी, अंग्रेज़ी और क्रोएशियाई में अनुवाद भी प्रकाशित. फ्रेंच अनुवाद प्रकाश्य. चित्रकला में गहरी रुचि.

कविता संग्रह ‘धूल की जगह’ प्रकाशित.
ईमेल : maheshvermav@gmail.com

Tags: 20222022 कविताएँमहेश वर्मा
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Comments 18

  1. दया शंकर तिवारी says:
    3 years ago

    महेश वर्मा की कविताएँ एक साँस में पढ़ गया।निस्संदेह ये कविताएँ हमारी आत्मा में बहुत दूर तक और देर तक असर छोड़ती हैं।निस्संकोच यह कह सकता हूँ कि इन सबने मुझे समृद्ध किया है।बल्कि हिन्दी साहित्य इन्हीं कविताओ से निरंतर समृद्ध हो रहा है। कवि एवं समालोचन दोनों को बधाई !

    Reply
  2. Girdhar Rathi says:
    3 years ago

    दया शंकर तिवारी जी ने बहुतों के मन की बात कह दी है।

    Reply
  3. मिथलेश शरण चौबे says:
    3 years ago

    सुन्दर कविताएँ

    Reply
  4. रोहिणी अग्रवाल says:
    3 years ago

    वीणा के तार की तरह झंकृत करती हैं ये कविताएं और बारिश में नहाई मिट्टी की सोंधी गंध की तरह भीतर पैबस्त हो जाती है. कोमलता और सुकून इन कविताओं का हृत्त तंत्र हैं. साथ में उतनी ही बेजोड़ चित्रकला. बधाई महेश वर्मा जी को.

    Reply
  5. Vinay kumar says:
    3 years ago

    आँधियों भरे समय में बनफूल सी कविताएँ ! मौन और धैर्य धैर्य की फुसफुसाहट ! इन्हें एक बार पढ़ना काफ़ी नहीं दुबारा पढ़ने के लिए किसी ख़ामोश वक़्त का इंतज़ार है।

    Reply
  6. प्रियंका दुबे says:
    3 years ago

    सभी कविताएँ सुंदर हैं लेकिन दूसरी, चौथी और छठवीं मुझे सबसे ज़्यादा पसंद आयीं ! चित्र तो हैं ही कितने सुंदर

    Reply
  7. कुमार अम्बुज says:
    3 years ago

    महेश वर्मा की कविताओं को उत्सुकता से पढ़ता रहा हूँ। वे अपनी कहन के लिए एक नयी वर्तनी बनाते हैं। यहाँ अधिकांश कविताएँ इसका साक्ष्य हैं। बधाई।
    ☘️

    Reply
  8. रुस्तम सिंह says:
    3 years ago

    महेश वर्मा गहरी और सूक्ष्म अनुभूतियों वाले कवि हैं। वे चीजों को, स्थितियों को बारीक़ दृष्टि से देखते हैं। पर कविताएँ सेंटिमेंटल नहीं हो जातीं। कवि जानता है उन गहरी, बारीक़ अनुभूतियों को कविता में कैसे लाना है, उतारना है, बनाना है, क्योंकि चीजों और स्थितियों को उनमें अन्तर्निहित मार्मिकता के साथ महसूस करना एक बात होती है और महसूसे हुए से एक अच्छी कविता गढ़ना एक अलग बात होती है। यह कवि अपने-आप को रोकना जानता है। यह इधर के बहुत से कवियों के बारे में नहीं कह सकते। महेश वर्मा की कविताएँ शिल्प की दृष्टि से भी कसी हुई होती हैं। यह भी इधर की हिन्दी कविता की एक खास कमज़ोरी है। जिस कविता के साथ मेरा नाम जोड़ा गया है (मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि वह मैं ही हूँ क्योंकि रुस्तम सिंह नाम का कोई और व्यक्ति भी हो सकता है)(“गुड्डन बी के नाम चिट्ठी”), वह मुझे खास तौर पर पसन्द आयी है। ऐसे लगता है जैसे कवि ने मेरे भीतर झाँककर मेरे मन में चलते रहने वाली बातों को पकड़ लिया है।

    Reply
  9. बालकृति कुमारी says:
    3 years ago

    महेश वर्मा की यह कविताएं ऐसी है जैसे सारी सृष्टि एक rhapsody की तरह उनके वाद्य पर बजाई जा सकती हो वह सब कुछ को एक नीम ख्वाबीदा सी मैलोडी में ले जाएंगे धीरे-धीरे.. फिर वहां से वापस आने नहीं देंगे.. बदन में लौट कर क्या करोगे? बनफूल कविता में विस्मृति का संसार नहीं है वहां जैसे हर क्षण अपने आप ही एक सुंदर शाश्वत आह्लाद के रूप में बिना किसी मानवी देखरेख के स्वयं ही उगकर खिलने को तैयार है.. वह ट्रेन का एक दरवाजा भी हो सकता है.. कितने सारे लम्हे पंखुड़ियों की तरह गिर्द इकट्ठे हो रहे हैं वहां लेकिन उस खुशबू से असंपृक्त अप्रभावी वीतरागी कवि मन उन्हीं के बीच एक दूसरा बनफूल ठीक उसी क्षण खिला सकता है.. पंख कविता में दाय की तरह दी जाने वाली निशानियो के पीछे की कथा को बदल देने का आग्रही पिता है या कवि है? निस्संदेह वहां पिता भी है और कवि भी जिसके लिए छिपकर लिखे जा रहे मन और उसके संशय घिसे पिटे मिथको को नए नए आशय के नए पंख दे तब बात बनती है एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को वास्तव में मिथक तोड़ने का यह साहस ही स्थानांतरित होना चाहिए.. पत्ती वाली कविता भी बहुत अच्छी लगी कि अलविदा भी एक सी नहीं होती.. वहां अलग-अलग विन्यास में बुझना सुंदर और दिव्य है उसी तरह जैसे पानी में बर्फ के टुकड़ों की तरह आकार खोता स्वर.. स्वर के धीमे-धीमे बुझने के लिए कितनी खूबसूरत सी उपमा भी उतनी ही बे -आवाज.. बुझती भी तरंगित अपनी ही रौ में.. 10 के बाद की कविताएं जैसे बहुत खूबसूरती से मेरी दवा है मैं अपने भय और obsession के बीच घिरी उस शाह रग पर हाथ रखती हूं तो सच में कितना कुछ ऐसा है जो निस्पंद है जिसे शव की तरह अपनी चेतना के कंधे पर ढो रही थी.. कवि ने एक तीर चलाकर उसे छिन्न-भिन्न कर दिया है ऐसी सुखद प्रति हिंसा के लिए उसे हृदय से धन्यवाद फिर उसने सुझा दिया है यह भी कर सकते हो कि दुविधा को जीवन शिल्प बना लो❤️ स्टारी नाइट कविता Ashok Bhowmick sir की wall पर देख लिए गए वॉन गाग के चित्र की स्मृति करा गई जिसे अभी अभी तो देखा था कुछ इस तरह कि सितारे ओस की तरह चूकर आंखो में आ गिरे.. सीजन वन एपिसोड वन में स्याह से परवाज लेते कुछ को अपने हाथों में फड़फड़ाते महसूस किया.. अगले एपिसोड का इंतजार है

    Reply
  10. Sanjeev Buxy says:
    3 years ago

    महेश वर्मा की कविताएं गंभीर एवं जवाबदार कविताएं है हमेशा की तरह कविताओं में मैं ठोस विचार पाता हूं बहुत-बहुत बधाई साधुवाद

    Reply
  11. मोहन श्रोत्रिय says:
    3 years ago

    महेश वर्मा की कविताएं काफ़ी समय बाद पढ़ने को मिली हैं। इतनी अच्छी! इन दिनों लिखी जा रही कविताओं से एकदम अलग! मुहावरा और भाषा-संस्कार उनका निजी और मौलिक!
    मेरी अशेष शुभकामनाएं, महेश वर्मा को!

    Reply
  12. शंकरानंद says:
    3 years ago

    महेश वर्मा की ये कविताएं अपनी कोमलता के कारण चकित करती हैं लेकिन इनकी बुनावट में जो विकलता है वह बेचैन कर देती है। कोई कविता चुपचाप रहकर भी झकझोर सकती है इसका सुंदर उदाहरण महेश वर्मा की कविताएं हैं।

    Reply
  13. आशुतोष दुबे says:
    3 years ago

    बहुत सुन्दर। एकदम महेशरंगी कविताएँ। पंक्तियों के पास ठहरना पड़ता है और ठहरना ही उनसे पुरस्कृत होना है – उनके अनुभव से, उनकी बुनावट से, उनकी शान्त, सघन, चुप पकड़ से। कवि शिल्प के नए इलाकों में गया है। फेसबुक शीर्षक वाली कविता को ही देखिए। यहाँ अगर व्यंग्य है भी तो उस तरह का फोश व्यंग्य नहीं जो नुमाईशी के अलावा कुछ और होने से डरता है। यह सांद्रता हर जगह है।

    सच तो यह है कि इन कविताओं के लिए कोई जल्दबाज़ टिप्पणी लिख देना या तुरंता तारीफ़ कर देना भी एक तरह की गुस्ताख़ी है। इनमें भाषा की जो मंद मंथर हरकतें हैं उनमें धीरे धीरे पैठना ही पाठक का सुख है।

    Reply
  14. Anand Bahadur says:
    3 years ago

    इन कविताओं को पढ़कर बिना इन पर टिप्पणी किए बढ़ जाना मुश्किल है। मन ढूंढने लगता है ऐसे शब्द, ऐसे ऐसी उपमाएं जो इन कविताओं का सामना कर सकें जो इनकी सांद्रता से रूबरू हो सकें। अचानक ऐसे सुपरलेटिव्स की खोज होने लगती है, जो आश्वस्त करें; लेकिन क्या ऐसी कविताएं ऐसे सुपरलेटिव के जरिए बरती जा सकती हैं? यह कवि जहां पर खड़ा है… पता नहीं अतीत यों भविष्य के किस किस कोण बिंदु पर, वहाँ हमारे कौन से पुरखे पूर्वज की तरह, जहां से सब कुछ इस प्रकार घटित होते दिख रहे हैं? घटित होने और नहीं घटित होने के बीच के बफर जोन में। जो लोग महेश वर्मा को पढ़कर सीधे आह या वाह या बहुत सुंदर कह कर निकल जाते हैं, मुझे खुद से अधिक समझदार और ईमानदार लगते हैं। ये कविताएं शायद यही कहती हैं कि हमें पढ़ो, और चुपचाप कृतज्ञ भाव से अपनी राह लो। धन्यवाद भाई महेश!

    Reply
  15. Vinod Padraj says:
    3 years ago

    बेहतरीन कविताएं वे भाषा को बहुत सलीके से बरतते हैं
    मैं उनकी कविताओं और चित्रों का मुरीद हूं और ध्यान से पढ़ता हूं प्रचलित और तात्कालिक से कतई आक्रांत नहीं हैं वे
    बी वाली कविता और अद्वितीय जीवन सहेज ली हैं
    सभी कविताएं बार बार पढ़ी जाने को मजबूर करती हैं
    साथ ही उनके चित्र उनकी मुकम्मल छवि बनाते हैं आपको और महेश जी को बहुत बधाई

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  16. अनुराधा सिंह says:
    3 years ago

    महेश जी की कविताएँ मैं कभी उतना पढ़ने के लिए नहीं पढ़ती जितना शब्द दिखाते हैं। एक- एक पंक्ति और शब्द बार- बार पढ़े जाते हैं। लगभग हर कविता अलग शिल्प में और उस जगह उगी है जो जगह दुनिया के लिखने- पढ़ने से चूक गयी है। अभी मैंने 6 कविताएँ पढ़ी हैं, ऐसे ही धीमी गति से पढ़ती रहूँगी लौट – लौट कर प्रिय कवि की कविताएँ। समालोचन का आभार।

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  17. Pramod Pathak प्रमोद says:
    3 years ago

    अद्भुत कव‍िताऍं हैं। बहुत महीन और सुन्‍दर।

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  18. भूपेंद्र प्रीत says:
    2 years ago

    जब भी उदास होता हुँ, यह कविताएं पड़ता हुँ, इनका शिल्प और संवेदना मुझ पर कुछ ऐसा असर करती है,कि उदासी से ज़रा जाग कर फिर उसीमें डूब जाता हुँ, महेश जी को इन कविताओं के लिए बहूत बहुत मुबारक।

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