राकेश श्रीमाल
एक
एकाएक ही खो जाते हैं
हमसे थोड़े से शब्द
हमारी ही लापरवाही से
कहने को यूं तो
कोई मालिक नहीं होता उनका
हमने ही सोचा था उन्हें
कागज पर लिखने के पहले
अब जी रहे हैं पूरी तरह उन्हें
उनके खोने के बाद ही
ऐसे खो जाते हैं शब्द
कि हमसे ज्यादा मिलने लगते हैं
अपने खो जाने के बाद
खोए हुए शब्द
हमारे भीतर ही गुम हो जाते हैं कहीं
ताकि हम ढूंढ सके उन्हें
अपने ही अंतर्मन में
पा सके फिर उसको
जिसके कारण लिखे गए थे वे शब्द
दो
कहीं नहीं खोते शब्द
जैसे कहीं खोता नहीं प्रेम
अलबत्ता पहचान बदल लेते हैं अपनी
पहले से अधिक गहरी
या फिर पहले से कम
कभी-कभी बन जाते हैं अनजान भी
विश्वास करो मुझ पर
मैं तुम्हारे खोए हुए शब्द ही लिख रहा हूँ
क्रमबद्ध बिछी हुई इन पंक्तियों की परेड में
शिनाख्त करना है तुम्हें
क्योंकि तुम ही पहचान सकती हो
अपने उन खोए हुए शब्दों का अर्थ
हो सकता है
तुम्हारे सारे खोए हुए शब्द
न मिल पाएं इनमें तुम्हें
पर केवल एक शब्द के सहारे भी
छू सकती हो उन सारे शब्दों को तुम
जो लिखने के बाद खो चुके हैं तुमसे
तीन
केवल अक्षरों से नहीं बनते
खोए हुए शब्द
व्याकरण तो पहचानते ही नहीं कभी वे
दूर रहते हैं हमेशा तीनों काल से
सच बताओ
क्या खो सकते हैं वे कहीं
अदृश्य हो जाते हैं केवल
तुम्हें छेड़ने के लिए
और इसके लिए भी
कि कोई उन्हें खेाज सके दूसरे शब्दों में
चार
मेरे लिखे शब्द
अपने अर्थों में
खोज ही लेंगे तुम्हारे खोए हुए शब्द
आने वाले बंसत में
पीले फूल खिल रहे होंगे चारो तरफ
तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में होगा
तब खोए हुए सारे शब्द
इस तरह मिल जाएंगे तुम्हें
जरूरत ही नहीं होगी उन्हें पढ़कर पहचानने की
कभी कभी शब्द
खो जाते हैं एक मौसम में
फिर दूसरे मौसम में प्रकट होने के लिए
वे खोते हुए डराते है हमें
मन में यह छटपटाहट लिए हुए
कितना कम पहचाना जाता है अब उन्हें
तुम्हारे खोए गए वे सारे शब्द
अपने नहीं मिल पाने की शर्त पर
हमें उन शब्दों को बचाना हैं
हमें उन्हें खोए हुए ही रहने देना है
उन खोए शब्दों का कोई अर्थ नहीं
जिन्हें लिख लिया था हमने
जो लिखे नहीं जाने से खो न जाए कहीं
उतने भी नहीं खोए हैं शब्द
एक दूसरे से मिलने के पहले
क्या हम भी गुमशुदा हो जाएंगे
एक दूसरे से
तुम्हारे खोए हुए शब्दों की तरह
चलो
थोड़ा समय निकालकर
तुम्हारे खो गए शब्दों की बस्ती में
तलाशते हैं जीवन का एक खाली टुकड़ा
हमारा घर बसाने के लिए
बारह
खोने के लिए नहीं बने
तुम्हारे लिखे वे शब्द
न चांद खोता है
न गुम होता है समुद्र
सूरज तो कभी कभी
बेशरम सा अपने होने की
हंसी हंसता है
तुम्हारे खोए वे सारे शब्द
अठखेलियां खेलते हैं मेरी देह में
दर्ज कराते हैं तुम्हारी उपस्थिति
तुम्हारे मेरे पास नहीं रहने के बावजूद
तेरह
कविताओं में शब्द खो जाते हैं
या शब्दों में
छूट जाती हैं कविताऐं पकड़ने में
कौन जान सकता है इसे
कविताओं से बड़ा होता है जीवन
उससे अधिक मधुर
निसंदेह सर्वाधिक संवेदनशील
अपने समूचे जीवन में
नहीं लिख पाता एक कवि
वे सारी कविताऐं
जो उसने न लिखकर खो दी
केवल म़ृत्यु ही दर्ज करा सकती है
उन कविताओं के खो जाने की रपट
जो नहीं लिख पाई गईं कभी
हरी घास के तिनकों
नई उग आई फुनगियों
किसी बच्चे की
अबोध मुस्कराहट
दूरी से किया जाने वाला
विस्मित कर देने वाला प्रेम
न मालूम कहाँ कहाँ
अपना डेरा खोज लेती हैं
वे अलिखित कविताएँ
जो लिखेगा आने वाला समय कभी
चौदह
दर्ज नहीं रह पाती कभी कविताऐं
डायरी में लिखे असीमित शब्दों में
अगर वे खो जाएं
तो कैसा और किसका डर
हमें ही खो जाना है एक दिन
अचानक
हमेशा-हमेशा के लिए
कविता
क्या सचमुच
लिखे जाने से ही पहचानी जा सकती है
पन्द्रह
क्या हमने
कविता को पा लिया था पूरी तरह
जो अब दुख मना रहे हैं
उनके खो जाने का
कदापि एक अकेला कवि
नहीं पा सकता कविता की संपूर्णता
कि कह सके वह
छू लिया है उसने कविता को
न मालूम कितनी सदियों से
अनजानी भाषाओं
अबूझ लिपियों
समय के जादू टोने और टोटकों में
बनती रहती हैं कविताएँ
कभी पूरी ना हो पाने के लिए
समय में इतनी हिम्मत ही नहीं
कि पकड़ पाए कविता को
ठीक-ठीक कविता की तरह
किसी भी समय में
नहीं है इतना अवकाश
समा ले कविता को
और साबित कर दें की
लिखी जा चुकी है
अंतिम कविता
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राकेश श्रीमाल : (१९६३, मध्य-प्रदेश) कवि, कथाकार, संपादक.
मध्यप्रदेश कला परिषद की मासिक पत्रिका ‘कलावार्ता’ का संपादन. कला सम्पदा एवं वैचारिकी ‘क’ के संस्थापक मानद संपादक.‘जनसत्ता’ मुंबई में 10 वर्ष तक संपादकीय सहयोग. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘पुस्तक वार्ता’ का ७ वर्षों तक संपादन.
ललित कला अकादमी की कार्यपरिषद के सदस्य रह चुके हैं। कविताओं की पुस्तक ‘अन्य’ वाणी प्रकाशन से प्रकाशित। इधर कुछ कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं. उपन्यास लिख रहे हैं. फिलहाल फिर से पुस्तक वार्ता’ का संपादन