‘गोदान’ में राय साहब का धनुष-यज्ञ
रविभूषण
धनुष-यज्ञ का संबंध सीता-विवाह से है. इस विवाह में आयु का महत्व नहीं है. वाल्मीकि रामायण के अनसुार विवाह के समय सीता की उम्र कम थी. शिव-धनुष तोड़ने का संबंध बल से है, अवस्था से नहीं. धनुष-यज्ञ का मुख्यतः धार्मिक पक्ष है.
शिव-धनुष की अपनी एक कथा है. ब्रह्मा अपना एक रूप लेकर अयोध्या गये और दूसरा रूप लेकर मिथिला पहुँचे. जनकपुर में धनुष-यज्ञ की सूचना जब विश्वामित्र को मिली, उन्होंने राम को इस यज्ञ में चलने को कहा. सीता-राम के विवाह का संबंध शारीरिकता से परे है. उसका एक आध्यात्मिक अर्थ है. सब राम की लीला है. ‘रामलीला’ की एक परम्परा रही है. पहले गाँव-गाँव में नियमित रूप से रामलीला होती थी, जिसमें अब काफी कमी आयी है.
‘गोदान’ के राय साहब अमरपाल सिंह के गाँव सेमरी और होरी के गाँव बेलारी में ‘केवल पाँच मील का अन्तर’ है. ये दोनों गाँव ‘अवध-प्रान्त के गाँव हैं’. गोदान में रामलीला नहीं, धनुष-यज्ञ का उल्लेख है. राय साहब सच्चे भक्त नहीं हैं. फिर भी वे धनुष-यज्ञ का आयोजन करते हैं. उपन्यास के आरम्भ में ही होरी के राय साहब के यहाँ जाने का उल्लेख है –
“मुझे यह चिन्ता है कि अबेर हो गई तो मालिक से भेंट न होगी. असनान-पूजा करने लगेंगे, तो घंटो बैठे बीत जायगा.’’
राय साहब ‘मालिक’ हैं और ‘होरी’ उनका ‘असामी’ है. केवल राय साहब के ‘भक्ति-भाव’ का नहीं, उनके पारिवारिक सदस्यों के ‘भक्ति-भाव’ का भी उल्लेख कर प्रेमचन्द ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ये सब परावलम्बी है.
“अपने पिता से सम्पत्ति के साथ-साथ उन्होंने राम की भक्ति भी पायी थी और धनुष-यज्ञ को नाटक का रूप देकर उसे शिष्ट मनोरंजन का साधन बना दिया था. इस अवसर पर उनके दोस्त, हाकिम-हुक्काम सभी निमन्त्रित होते थे. और दो-तीन दिन इलाके में बड़ी चहल-पहल रहती थी.’’
धनुष-यज्ञ यहाँ एक ‘इवेंट’ है, एक अवसर है, असामियों के बीच अपने भक्त छवि का प्रचार भी है. अपने लेखों और टिप्पणियों में जिस प्रकार प्रेमचन्द धर्म, ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड आदि पर आक्रमण करते हैं, उस प्रकार अपनी कथा-कृतियों में नहीं. यहाँ थोड़े में वे बहुत कुछ कह डालते हैं. ‘गोदान’ में धनुष-यज्ञ के प्रसंग का, इस आयोजन का एक मकसद है. इससे एक साथ कई कार्य सम्पन्न होते हैं. हाकिमों और मित्र-मण्डली की खातिरदारी होती है, इलाके में अपने धार्मिक स्वभाव का प्रचार-प्रसार होता है और सामाजिक चेतना के स्थान पर सबके भीतर उस धार्मिक चेतना को और प्रगाढ़ किया जाता है, जो ईश्वर में अंधास्था उत्पन्न करती है और विवेक-चेतन को नष्ट करती है.
‘गोदान’ का धनुष-यज्ञ ‘जेठ के दशहरे के अवसर पर’ आयोजित है. आज जितने भी धार्मिक उत्सव-त्योहार हैं, उन सबमें कहीं अधिक धनराशि खर्च की जाती है. विजयादशमी के अवसर पर जितने पंडाल बनते हैं, दुर्गापूजा होती है, उनमें एक प्रतिद्वद्विता भी होती है और पंडालों को प्रथम, द्वितीय स्थान आदि भी दिया जाता है. धनुष-यज्ञ में न तो राय साहब मौजूद हैं और न उनकी मित्र मंडली. यह ग्रामीणों के लिए है. होरी ने राय साहब की ड्योढ़ी पर पहुँच कर देखा-
‘‘जेठ के दशहरे पर होने वाले धनुष-यज्ञ की जोरों से तैयारियाँ हो रही हैं. कहीं रंगमंच बन रहा था, कहीं मंडप, कहीं मेहमानों का आतिथ्य-गृह, कहीं दुकानदारों के लिए दुकानें.’’
राय साहब की छवि उनके इलाके में कई कारणों से अच्छी बनी हुई है. उनके वास्तविक स्वभाव-व्यवहार से सब परिचित नहीं हैं. धनुष-यज्ञ जैसे आयोजन से जन-जन के बीच एक संदेश पहुँचता है कि आयोजक धार्मिक स्वभाव का है, वह गलत काम नहीं करेगा, किसी को प्रताड़ित नहीं करेगा. इस प्रकार यह आयोजन छवि निर्मित भी करता है. राय साहब को लेकर होरी और उसके बेटे गोबर के विचार एकदम भिन्न हैं. उपन्यास के दो पृष्ठों में राय साहब ने होरी के सामने अपनी जो दुःख-गाथा प्रकट की है. उसका होरी पर असर हुआ है. राय साहब ने यह सब होरी को प्रभावित करने के लिए, अपने प्रति भिन्न धारणा कायम करने के लिए किया, जिसमें वे सफल सिद्ध हुए. राय साहब मानव-स्वभाव के पारखी हैं. जो मानव-स्वभाव के पारखी हैं, उन्हें किसी भी मनुष्य को अपने पक्ष में लाने के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती. हम वास्तविक रूप में जो हैं, उसे सब नहीं पहचान पाते और हमारे दिखावटी रूप को ही सही समझा जाता है. यह चालाकी अब कहीं अधिक फैली हुई है. राय साहब
‘‘चरित्र के पारखी हैं और होरी की कमजोर नस पहचानते हैं… वह गाँव के किसानों में फूट डालने में सफल हुए हैं. होरी के रक्षक का नकली पार्ट करके वह गाँव के आदमियों को बेदखली, कुड़की वगैरह जीवन के सभी सुखों का अनुभव करा देते हैं.’’
(रामविलास शर्मा, ‘प्रेमचन्द और उनका युग’, 1995, पृष्ठ 100)
राय साहब और होरी में अंतर है. राय साहब जमींदार होने के कारण होरी का ‘मालिक’ है और होरी उनका ‘असामी’ है. होरी को देख कर उन्होंने कहा-
‘‘देख, अब की तुझे राजा जनक का माली बनना पड़ेगा. समझ गया न. जिस वक्त श्री जानकी जी मंदिर में पूजा करने जाती हैं, उसी वक्त तू एक गुलदस्ता लिये खड़ा रहेगा और जानकी जी को भेंट करेगा, गलती न करना और देख, असामियों से ताकीद करके कह देना कि सब शगुन करने आयें.’’
यहाँ शगुन करने के लिए असामियों को कहने और उसे प्रभावित करने का जिम्मा उन्होंने होरी को सौंप दिया है. कोठी में होरी को बुला कर जिन दो पृष्ठों में राय साहब ने अपनी दास्तान होरी को सुनाई है, वह उसे अपने पक्ष में करने के लिए है, अपने प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने के लिए है. प्रेमचन्द के यहाँ यह मनोवैज्ञानिक पक्ष कम महत्वपूर्ण नहीं है. राय साहब अपने प्रति होरी के भीतर हमदर्दी उत्पन्न करते हैं. प्रेमचन्द के यहाँ ‘कथनी’ नहीं ‘करनी’ का महत्व है. मेहता राय साहब के चरित्र से वाकिफ हैं –
‘‘मानता हूँ, आपका अपने असामियों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव है, मगर प्रश्न यह है कि उसमें स्वार्थ है या नहीं. इसका एक कारण क्या यह नहीं हो सकता कि मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता है? गुड़ से मारने वाला जहर से मारने वाले की अपेक्षा कहीं सफल हो सकता है. मैं तो केवल इतना जानता हूँ, हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं. हैं तो उसका व्यवहार करें, नहीं है तो बकना छोड़ दें.’’
शब्द-प्रयोग पर ध्यान दिया जाना चाहिए. प्रेमचन्द ने ‘बोलना’ नहीं ‘बकना’ लिखा है. राय साहब का यथार्थ उनकी वाणी में नहीं, कर्म में है. वे चालाक और धूर्त हैं. उनकी चालाकी और धूर्तता शोषक-वर्ग की चालाकी है. प्रेमचन्द ‘गोदान’ में यह बता रहे थे कि हमें भाषा पर अधिक विश्वास न कर, कर्म और आचरण पर विश्वास करना चाहिए. राय साहब का व्यक्तित्व दोहरा है. होरी का उनसे एकदम भिन्न व्यक्तित्व है.
राय साहब उस वातावरण में पले हैं
‘‘जहाँ राजा ईश्वर है और जमींदार ईश्वर का मंत्री.’’
उनके पिता उसी समय तक अपने असामियों के साथ अच्छा व्यवहार करते थे, उसके दुःख-दर्द में सहायक भी होते थे,
‘‘जब तक प्रजा उनको सरकार और धर्मावतार कहती रहे, उन्हें अपना देवता समझ कर उनकी पूजा करती रहे.’’
धनुष-यज्ञ का आयोजन सकारण है, जिससे राय साहब को होरी सहित सभी असामी ‘धर्मावतार’ समझता रहे. पहले से चले आ रहे धार्मिक संस्कारों को ऐसे आयोजन कहीं अधिक सुदृढ़ करते हैं. राय साहब ने अपने पिता के संबंध में यह बताया है
‘‘प्रजा का पालन उनका सनातन धर्म था, लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दाँत भी फोड़ कर देना न चाहते थे… मैं खुद सद्भावना करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता और चहता हूँ कि हमारे वर्ग को शासन और नीति के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया जाये.’’
राय साहब कौंसिल में हैं, पर वहाँ वे ऐसा कुछ नहीं करते. उनके सिद्धान्त और व्यवहार में अन्तर है. उपन्यास के अन्त में उनके तीनों मंसूबे पूरे हो गये हैं –
‘‘कन्या की शादी धूम-धाम से हो गई थी, मुकदमा जीत गए थे और निर्वाचन में सफल ही न हुए थे, होम मेम्बर भी हो गए थे इस मुकदमे को जीत कर उन्होंने ताल्लेकुदारों की प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर लिया था.’’
अब उनकी चाँदी ही चाँदी है. ‘‘उनके पुराने, परास्त शत्रु सूर्य प्रताप सिंह उनके बड़े लड़के रूद्रपाल सिंह से अपनी कन्या के विवाह का संदेशा”, भेजते हैं. ‘गोदान’ में अनेक बार ‘भगवान’ का उल्लेख है. केवल होरी और धनिया ही नहीं, अन्य कई पात्र भी कई बार ‘भगवान’ का जिक्र करते हैं.
राय साहब को लेकर होरी और गोबर के विचार भिन्न हैं. बार-बार की भेंट-मुलाकात के बाद भी होरी राय साहब को पहचान नहीं पाता. गोबर राय साहब से कभी मिला नहीं, पर वह उनकी धूर्तता को समझता है. होरी गोबर को समझाता है-
‘‘हम लोग समझते हैं, बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे; लेकिन सच पूछो तो वह हमसे भी ज्यादा दुःखी हैं. हमें अपने पेट की ही चिन्ता है, उन्हें हजारों चिन्ताएं घेरे रहती हैं.’’
गोबर व्यंग्य से कहता है –
‘‘तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते! हम अपने खेत, बैल, हल, कुदाल, सब उन्हें देने को तैयार हैं, करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है, निरी मोटमरदी. जिसे दुःख होता है, वह दर्जनों मोटरें नहीं रखता, महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच-रंग में लिप्त रहता है. मजे से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दुखी हैं.’’
होरी छोटे-बड़े के भेद को भगवान की देन समझता है और गोबर के लिए
‘‘यहाँ जिसके हाथ में लाठी है, वह गरीबों को कुचल कर बड़ा आदमी बन जाता है.’’
यह राय साहब की खूबी है कि उनका झूठ होरी सच समझता है. उनके बारे में होरी और गोबर का मत एक नहीं है. होरी पर राय साहब का विश्वास एक दिखावा है. होरी से उन्होंने कहा –
‘‘असामी जितने मन से असामी की बात सुनता है, कारकुन की नहीं सुनता.’’
प्रेमचन्द ने जब ‘गोदान’ लिखना आरंभ ही किया था, 29 अगस्त 1932 को ‘जागरण’ में उन्होंने जमींदारों की ‘स्वार्थनद्धता’ और ‘विलासिता’ की बात लिखी और यह बताया कि ‘‘वह जो चैन कर रहे हैं, वह असामियों की बदौलत.’’
बीसवीं सदी के तीस के दशक में कुछ परिवर्तन होने लगे थे, जिससे प्रेमचंद और हिन्दी के कुछ अन्य कवि लेखक अनजान नहीं थे. उन्होंने अपनी रचनाओं में इस यथार्थ का चित्रण किया, जिसे रामविलास शर्मा ने ‘नया यथार्थवाद’ कहा है. इस नए यथार्थ की पहचान प्रेमचन्द को सबसे अधिक थी. ‘धन’ का महत्व बढ़ने लगा था और दो मुँहे भी बढ़ रहे थे, जो बोलते कुछ और करते कुछ थे. राय साहब होरी का मन जीतने में सफल होते हैं. आज भी बुद्धि-विवेक की बातें कम की जाती हैं, ‘मन की बात’ अधिक की जाती है. भाषा का एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ता है. सारे जन विरोधी कार्य करने के बाद भी आज जनता वाग्वीरों के पक्ष में ही खड़ी होती है. गोदान में राय साहब का अभिनय बाहर हो रहे अभिनय से भिन्न है. बाहर धनुष-यज्ञ के बाद एक प्रहसन खेला जाएगा. राय साहब पण्डित ओंकार नाथ को बताते हैं-
‘‘नाटक कोई अच्छा न मिला. कोई तो इतना लम्बा कि शायद पाँच घण्टों में खतम न हो और इतना क्लिष्ट कि शायद यहाँ एक व्यक्ति भी उसका अर्थ न समझे. आखिर मैंने स्वयं एक प्रहसन लिख डाला, जो दो घण्टों में पूरा हो जायेगा.’’
राय साहब नाटक करते हैं और लिखते भी हैं. जनता को मनोरंजन चाहिए. उन्होंने प्रहसन लिखा. पहले धनुष-यज्ञ, फिर प्रहसन! क्या इन दोनों के बीच कोई साम्य है? राय साहब के बारे में डॉ. शर्मा ने लिखा है –
‘‘इनकी अभिनय-कला मंच से बाहर सामान्य जीवन में ज्यादा निखरती है, रामभक्ति, देशभक्ति, राज भक्ति – इनका समन्वय साधारण अभिनय-कौशल से संभव नहीं है. (वही, पृष्ठ 221) राय साहब के इलाके के असामियों को उनसे अधिक श्रद्धा कौंसिल की मेम्बरी छोड़कर उनके जेल जाने के कारण हुई थी. होरी से अपनत्व या भाईचारे (शाब्दिक-भाषिक स्तर पर ही सही) का एकमात्र कारण उनका स्वार्थ है, असामियों से अच्छे खासे शगुन लेना है. ‘‘
उन्हें ऐसे आदमी की जरूरत है जो कारकुन के अलावा राय साहब का काम बना दे. दूसरे शब्दों में, गरजने के बदले वह अपनी मीठी बोली होरी के जरिए किसानों को पहुँचाना चाहते हैं…. उनका दाँव यह है कि रुपए इकट्ठे करने के लिए किसानों के बीच में होरी उनका अपना आदमी बन कर काम साधे(वही, पृष्ठ 99)
यह एक प्रकार से किसानों के बीच से ही अपना एजेंट’ बनाने की तरह है. होरी को ‘माली’ का पार्ट सोच-समझ कर दिया गया है. इससे केवल होरी ही अपने को बड़ा महसूस नहीं करेगा, गाँव में भी उसकी इज्जत बढ़ेगी. क्या होरी को माली का पार्ट देना एक प्रकार की रिश्वत नहीं है? राय साहब की असलियत होरी ने नहीं समझी. क्या आज भी हम राय साहब के वंशजों की असलियत पूरी तरह समझ चुके हैं? उनके वंशजों से यहाँ अर्थ संसद और विधानसभा में विराजमान उन महानुभावों से है, जिन्हें जन-प्रतिनिधि कहा जाता है. राय साहब भी इलेक्शन लड़ते और जीतते हैं.
दशहरा का अर्थ दस मनोविकारों- क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा, चोरी आदि के विनाश से है. इन मनोविकारों का नाश किये बिना दशहरा के आयोजन का न कोई अर्थ है, न औचित्य. प्रेमचन्द के यहाँ ढोंग, पाखण्ड, बाह्याचार, प्रदर्शन, कर्मकाण्ड आदि का विरोध है. मार्च 1934 के ‘हंस’ में उन्होंने लिखा-
‘‘ईश्वर की उपासना का केवल एक मार्ग है और वह है मन, वचन और कर्म की शुद्धता. अगर ईश्वर इस शुद्धता की प्राप्ति में सहायक है, तो शौक से उसका ध्यान कीजिए, लेकिन उसके नाम पर हर धर्म में जो स्वाँग हो रहा है, उसकी जड़ खोदना किसी तरह ईश्वर की सबसे बड़ी सेवा है.’’
धनुष-यज्ञ आयोजन में प्रदर्शन कम नहीं है.
‘‘जेठ की उदास और गर्म सन्ध्या सेमरी की सड़कें और गलियों में पानी के छिड़काव से शीतल और प्रसन्न हो रही थी. मण्डप के चारो तरफ फूलों और पौधों के गमले सजा दिए गए थे और बिजली के पंखे चल रहे थे. राय साहब अपने कारखाने में बिजली बनवा लेते थे. उनके सिपाही पीली वर्दियाँ डाले, नीले साफे बाँधे, जनता पर रोब जमाते फिरते थे. नौकर उजले कुरते पहने और केसरिया पाग बाँधे, मेहमानों और मुखियों का आदर-सत्कार कर रहे थे.’’
इन मेहमानों और मुखियों में से किसी को धनुष-यज्ञ से मतलब नहीं है. वे सब- मेहता, पण्डित ओंकारनाथ श्याम बिहारी तंखा, खन्ना, मालती, खुर्शीद, आपसी बातचीत में जिन विषयों पर बहसें करते हैं, वे विषय इस आयोजन से संबंधित नहीं हैं. यह राय साहब की मित्र-मण्डली है. अधिक शिक्षित, सभ्य और सुसंस्कृत, जिनका दोहरा व्यक्तित्व है. ये सब भीरु और कायर हैं. मेहता पठान का वेश धर कर जब सबको डराता है, मालती को ले जाने की बात करता है, किसी की जुबान नहीं खुलती. उस मौके पर होरी ही आकर पठान को पटकता है. यहाँ मेहता एक नाटक कर रहे हैं. होरी नाटक का भेद खोलता है, अनजाने ही सही. रायसाहब का असामियों के साथ किया जाने वाला जो नाटक (ढोंग) है उसे कौन ठीक करेगा? राय साहब का नाटक राम भक्ति और देश भक्ति का है. राम भक्ति और देश भक्ति का यह नाटक उपन्यास से कहीं अधिक आज हम इक्कीसवीं सदी में देख रहे हैं. धार्मिक होना अब पाखण्डी और धूर्त होना है.
धनुष-यज्ञ के अवसर पर भोजनालय में छुआछूत का कोई भेद नहीं है. ‘‘सभी जातियों और वर्णों के लोग साथ भोजन करने बैठे.’’ प्रेमचन्द सुधार नहीं, बदलाव चाहते थे. धनुष-यज्ञ के आयोजन में मेहमानों की ख़ातिरदारी जिस प्रकार की जा रही है, उससे यह साबित होता है कि धनुष-यज्ञ केवल गाँवों की सीधी-सादी जनता के लिए है. मेहमानों के लिए खास व्यवस्था है –
‘‘मेहमानों के लिए बँगले में रहने का अलग-अलग प्रबन्ध था…. भोजनालय में मेहमानों की संख्या पच्चीस से कम न थी. शराब भी थी और माँस भी. इस उत्सव के लिए राय साहब अच्छी किस्म की शराब खास तौर पर खिंचवाते थे. खींची जाती थी दवा के नाम से; पर होती थी खालिस शराब. माँस भी कई तरह के पकते थे, कोफ़ते, कबाब और पुलाव, मुर्ग, मुर्गियाँ, बकरा, हिरन, तीतर, मोर, जिसे जो पसन्द हो वह खाये.’’
गाँव में होरी के सम्मान का मुख्य कारण राय साहब से उसकी निकटता है. आज अगर किसी की मंत्री-अफसर, मुख्यमंत्री आदि से निकटता हो जाती है, तो सब उसे या तो आदर से देखते हैं, बड़ा मानते हैं या फिर उससे भय खाते हैं. दशहरा वाले आयोजन को लेकर ‘गोदान’ में भोला और होरी के बीच बात होती है. भोला के पूछने पर होरी ने कहा था-
‘‘तम्बू सामियाना गड़ गया है. अबकी लीला में मैं भी काम करूँगा. राय साहब ने कहा है, तुम्हें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा.’’
भोला अधिक व्यावहारिक है. उसने पूछा-
‘‘शगुन करने के लिए रुपए का कुछ जुगाड़ कर लिया है? माली बन जाने से तो गला न छूटेगा?’’
सारे इलाके के असामी राय साहब को शगुन भेंट करेंगे.
‘‘होरी ने पाँच रुपए शगुन के दे दिए हैं और एक गुलाबी मिर्जई पहने, गुलाबी पगड़ी बाँधे, घुटने तक कछनी काछे, हाथ में एक खुरपी लिए और मुख पर पाउडर लगवाए राजा जनक का माली बन गया है और गुरूर से इतना फूल उठा है कि मानो यह सारा उत्सव उसी के पुरुषार्थ से हो रहा है.’’
थोड़ी देर के लिए ही सही, उसका मानस बदला जा चुका है. राय साहब ने उसे राजा जनक का माली बना कर उसकी चेतना में एक सूराख कर दिया है. लूटने के तरीके अब बदल रहे हैं. अब धर्म वहाँ प्रवेश कर चुका है. राय साहब होरी को समझ चुके हैं. होरी राय साहब को नहीं समझ पाता. वह उनका शिकार होता है. होरी से जिस समय राय साहब अपनी दुःख-गाथा सुनाते हैं, उसी समय बेगार द्वारा काम करने से इन्कार की सूचना पाकर वे अपने वास्तविक रूप में आ जाते हैं-
‘‘आँखें निकाल कर बोले- चलो मैं इन दुष्टों को ठीक करता हूँ. जब कभी खाने को नहीं दिया, तो आज यह नई बात क्यों? एक आने रोज के हिसाब से मजूरी मिलेगी, जो हमेशा मिलती रही है; और इस मजूरी पर काम करना होगा, सीधे करें या टेढ़ें.’’
यह है असली राय साहब अमरपाल सिंह!
समय को ध्यान में रखकर राय साहब ने अपना स्वभाव बदल डाला है. इसे समझना पहले की तरह आसान नहीं है. पहले का व्यवहार कठोर था, जो सब की समझ में आ जाता था. अब व्यवहार मुलायम है, तो धोखा खाने और फँसने के कई अवसर हैं.
‘‘राय साहब उन हिंसक पशुओं में हैं, जो गरजने और गुर्राने के बदले मीठी बोली बोलना सीख गए हैं. शिकार अपनी जान से हाथ धोता है, लेकिन मीठी बोली सुनता हुआ, अपाहिज होकर, गरजने और गुर्राने से सावधान होकर उस जुगली पशु से लड़ता हुआ नहीं.’’ (वही, पृष्ठ 98-99)
धनुष-यज्ञ के बाद होरी से राय साहब की भेंट नहीं होती, पर वे उसका रक्त चूसते हैं. जब पंचों ने होरी पर जुर्माना लगाया
‘‘राय साहब ने पंचों को बुलाकर खूब डाँटा और इन लोगों ने जितने रुपए वसूल किये थे, वह सब इनके पेट से निकाल लिए.’’
अपने इलाके की वे पूरी खबर रखते हैं अपने और असामी के बीच वे दूसरों को आने नहीं देना चाहते. सारे रुपए उन्हें ही मिलने चाहिए. यह जानकर कि होरी से गाँव के पंचों ने जुरमाना वसूला है, उन्होंने नोखेराम से कहा-
‘‘आज शाम तक जुरमाने की पूरी रकम मेरे पास पहुँच जाय, वरना बुरा होगा. मैं एक-एक से चक्की पिसवा कर छोड़ूँगा.’’
फिर यह कहा
‘‘पंचों को मेरे और मेरी रिआया के बीच में दखल देने का हक क्या है? इस डाँड़-बाँध के सिवा इलाके में और कौन-सी आमदनी है? वसूली सरकार के घर गई. बकाया असामियों ने दबा लिया. तब मैं कहाँ जाऊँ? क्या खाऊँ, तुम्हारा सिर! यह लाखों रुपए साल का खर्च कहाँ से आए?’’
(‘गोदान’, 1980, पृष्ठ 142)
होरी का रक्त चूसने वाले राय साहब अकेले नहीं हैं. राजा जनक का माली बनाना तो एक नाटक का पार्ट था. पुण्यात्मा तो लाला पटेश्वरी भी माने जाते थे. प्रत्येक पूर्णमासी को सत्यानारायण की कथा सुनते थे
‘‘पर पटवारी होने के नाते खेत बेगार में जुतवाते थे, सिंचाई बेगार में करवाते थे और असामियों को एक-दूसरे से लड़ा कर रकमें मारते थे. सारा गाँव उनसे काँपता था.’’
दूसरी ओर राय साहब ‘बिजली’ के सम्पादक पण्डित ओंकारनाथ को कहते हैं –
‘‘कौन ऐसा ताल्लुकेदार है, जो असामियों को थोड़ा-बहुत नहीं सताता? कुत्ता हड्डी की रखवाली करे तो खाए क्या?’’
राय साहब यहाँ अपने को कुत्ता कह रहे हैं. स्वाधीन भारत में ये कुत्ते मर-खप गये या नये-नये कुत्तों और उनके पिल्लों की भरमार होती गयी है?
होरी की मृत्यु स्वाभाविक मृत्यु नहीं है. जून 1936 में ‘गोदान’ का प्रकाशन हुआ और मध्य जून से ही प्रेमचन्द की तबीयत जो खराब होने लगी थी वह फिर कभी ठीक नहीं हुई. पहले होरी मरा और मात्र चार महीने बाद प्रेमचन्द ने भी अपनी आँखें मूंद लीं. होरी के निधन के बाद प्रेमचन्द का निधन सामान्य घटना नहीं है.
17 दिसम्बर 1946 को बिहार प्रान्त के मुज़फ्फ़रपुर जिले के गाँव चैनपुर-धरहरवा के एक सामान्य परिवार में जन्मे रविभूषण की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के आसपास हुई. बिहार विश्वविद्यालय के लंगट सिंह कॉलेज से हिन्दी ऑनर्स (1965) और हिन्दी भाषा-साहित्य में एम.ए. (1967-68) किया. भागलपुर विश्वविद्यालय से डॉ. बच्चन सिंह के निर्देशन में छायावाद में रंग-तत्व पर पी-एच.डी. (1985) की. नवम्बर अक्टूबर 2008 में राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन. समय और समाज को केन्द्र में रखकर साहित्य एवं साहित्येतर विषयों पर विपुल लेखन. ‘बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी’ ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’, ‘कहाँ आ गये हम ओट देते-देते’ और ‘रामविलास शर्मा का महत्व’ पुस्तकें प्रकाशित. |
आदरणीय प्रोफेसर रविभूषण जी को सुनना – पढ़ना हमेशा ज्ञानवर्धक और विचरोत्तेजक हुआ करता है.
गोदान के धनुष यज्ञ प्रसंग को लेकर यह विश्लेषण इस बात का प्रमाण है कि आम तौर पर जिन रचनाओं के बारे में यह मान लिया गया है कि उनपर और कुछ सार्थक विचार-विमर्श करना शेष नहीं रह गया है, हमारे बड़े विचारक -आलोचक हमारे लिए उनमें भी कुछ नया ढूंढ़ लाते हैं और हमारी समझ को समृद्ध करते हैं.
लेखक को साधुवाद.
इस लेख के बारे में आदरणीय प्रो. रविरंजन सर ने बताया था, लेख पढ़कर सच में गोदान उपन्यास के धनुषयज्ञ का यह भी पहलू हो सकता है इस ओर ध्यान ही नहीं गया था ।