गदल : वर्जनाहीन स्त्री-चरित्र की गाथा
रोहिणी अग्रवाल
रांगेय राघव हिंदी के ऐसे महत्वपूर्ण कथाकार हैं जो हाशिए के समाज के जीवन-यथार्थ को अपनी रचनाओं के माध्यम से उद्घाटित करते हैं. ‘कब तक पुकारूं’ उपन्यास के कारण हिंदी साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान है. ‘गदल’ कहानी की भावभूमि भी इसी उपन्यास के इर्द-गिर्द घूमती है; बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि यह स्वायत्त कहानी न लगकर उपन्यास का ही एक अंश प्रतीत होती है.
‘गदल’ कहानी का केन्द्रीय तत्व है प्रेम, जो आत्मपीड़न, समर्पण और उत्सर्ग की चिरपरिचित युक्तियों के साथ कहानी में विकसित होता चलता है. लेकिन इस प्रेम की रंगत ‘उसने कहा था’ और ‘आकाशदीप’ सरीखी कहानियों से पूर्णतया भिन्न है. यह एक खास बड़बोलेपन के साथ प्रेम की उपर्युक्त तीनों विशिष्टताओं में अपने होने का अहसास कराता है. कहानी चरित्र प्रधान है और नायिका ‘गदल’ की मनोवृत्तियों और इच्छाओं से संचालित है. खारी गूजर वंश की पैंतालीस वर्षीय बहू गदल पति गुन्ना की मृत्यु के बाद अपने भरे-पूरे परिवार को छोड़ बत्तीस वर्षीय विधुर लोहार मौनी के घर ‘बैठ’ जाती है. सभी स्तब्ध हैं कि दो जवान बेटों की माँ ने अपने से छोटी जाति और छोटी वय के पुरूष से विवाह क्यों किया? बेटे की वय के मौनी से विवाह करने का अर्थ तब समझ में आता यदि उसके साथ उसका प्रेम-सम्बन्ध होता. इसलिए क्रोध और अपमान से धधकता तीस वर्षीय बड़ा बेटा जब-तब उसे ‘कुलच्छनी’, ’कुलबोरनी’ कहकर मन की भड़ास निकालता है. डोडी, गदल का देवर, महसूस करता है कि गदल का यह कृत्य वास्तव में नया घर’ बसाने की चाह नहीं, बल्कि डोडी से अपने अपमान का बदला लेने की युक्ति है.
एक अंतरंग मुलाकात में गदल और डोडी दोनों एक-दूसरे के प्रति अपने आकर्षण की बात भी करते हैं. गदल उसे पुरुषोचित कदम न उठाने के लिए धिक्कारती है और डोडी बिरादरी के भय और दिवंगत बड़े भाई प्रति सम्मान की बात कहकर गदल से विवाह न कर पाने की अक्षमता को स्वीकारता है. एक दिन बाद ही डोडी की असामयिक मृत्यु का समाचार पा गदल मौनी से सारे सम्बन्ध तोड़ पुनः अपने परिवार से आ मिलती है. बिरादरी-भोज देकर वह डोडी को श्रद्धांजलि-सुमन अर्पित करना चाहती है और अपनी धुन में परवाह भी नहीं करती कि कानूनन पच्चीस लोगों से अधिक किसी भी भोज का आयोजन करने में पुलिस-कचहरी का चक्कर शुरू हो जाएग. वह न जेल से डरती है, न मृत्यु से. उसे सिर्फ अपनी इच्छा पूरी करनी है और अद्भुत दृढ़ता और निर्भीकता के साथ अपने प्राणों की आहुति देकर वह बिरादरी-भोज सम्पन्न भी कराती है. यह डोडी के प्रति उसका प्रेम-समर्पण और प्रेमोत्सर्ग है.
‘गदल’ कहानी की विशेषता है कि यह हिंदी साहित्य को अपनी दृढ़ता-कर्मठता और इच्छाओं से संचालित जैसा वर्जनाहीन स्त्री-चरित्र देती है वैसा ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रो के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है. गदल की चारित्रिक संरचना बेहद पारदर्शी है. जो भीतर है, वही एक ईमानदार अभिव्यक्ति के साथ बाहर भी है. दुराव-छिपाव और छल गदल से कोसों दूर है. इसलिए लेखक को रुककर, किन्हीं कथा-युक्तियों का सहारा लेकर उसके व्यक्तित्व की सूक्ष्म परतों को उभारने का श्रम नहीं करना पड़ता है. कहानी के प्रारंभ में वह जितनी मुखरा, जुनूनी और निडर है, कहानी के अंतिम भाग में भी. उसके चरित्र की संरचना एक सीधी-सपाट पंक्ति की तरह है, जो पाठक को कथा-विकास के साथ-साथ किन्हीं अतल गहराइयों या उन्नत ऊँचाइयों में ले जाने का लोमहर्षक आह्लाद नहीं देती. केन्द्रीय चरित्र को प्रारम्भ में ही अति-स्पष्ट एवं अपरिवर्तनीय बना देना लेखक के लिए जोखिम का काम है. कथा की सूक्ष्म व्यंजनाओं को प्रामाणिक रूप से उभारने और पाठकीय कौतूहल को बनाए रखने के लिए लेखक प्रायः पात्रों के चरित्र का क्रमिक उद्घाटन करते हैं. इससे पाठक को गहनतर होती कथा के विकास की प्रत्येक अवस्था में कुछ नया पाने और उसी अनुपात में अपने भीतर मनोभावों की महीन परतों के खुलते चले जाने का आभास भी होता है. यह वह स्थिति है जब रचना पाठक को शब्दों की जकड़बंदी से मुक्त कर अहसास की ऐसी दुनिया में ले जाती है, जो उसके भीतर धड़कती है, लेकिन जिससे वह अपरिचित था. अपने भीतर उमगती इस दुनिया को चीन्ह लेने पर वह उसे अपने शब्दों में भले ही न पिरो पाए, लेकिन लेखक के साथ जुड़कर अपने को बेहतर और समृद्धतर पाता है.
कहानी की दुनिया के समानांतर भीतर की दुनिया से तादात्म्य स्थापित कर पाने की यह क्षमता जितनी गहन और उन्नत होती है, कहानी उतनी ही प्रभावशाली और कालातीत होती चलती है. कुशल कथाशिल्पी रांगेय राघव कहानी की इस अर्हता को जानते हैं और पाठक की अपेक्षा को भी. इसलिए घटनाओं के त्वरित वेग और चुटीले संवादों के सहारे वे पाठक की जिज्ञासा को उत्कर्ष की ओर लिए चलते हैं. कहानी का नाटकीय विधान सिर्फ दृश्यात्मकता का परिपाक ही नहीं करता, पाठक को उन क्रिया-व्यापारों का साझीदार होने का वर्चुअल सुख भी देता है. स्पष्ट है कि विचारशील गंभीर पाठक को सम्मोहित दर्शक में तब्दील करने की यह कला कहानी में अंतर्निहित दुर्बलताओं को नजरअंदाज कर देती है.
कहानी में गदल रंगमंच की प्रायः सभी भूमिकाओं का स्वयं निर्वहण करती दीख पड़ती है. वह सूत्रधार, मुख्य अभिनेत्री रंगनिर्देशक और पटकथा-लेखक – सभी भूमिकाओं में समान दक्षता के साथ संचरण करती है. इतनी प्रत्युत्पन्नमतिसम्पन्न कि जहाँ अपने को प्रखरता के साथ अभिव्यक्त करने में कठिनाई महसूस हो, वहीं एक अन्य विचार/संवेदन को अपने लक्ष्य और कार्यशैली में जोड़कर कथा-गति को प्रवाहमान बनाए रखती है. इसलिए कहानी की संरचना उपन्यास अथवा नाटक के पैटर्न पर आगे बढ़ती है – एक सुस्पष्ट प्रमुख कथा के साथ एक या एकाधिक अन्तर्कथाओं की नियोजना. ’गदल’ कहानी में गदल-डोडी प्रेम की मुख्य कथा के साथ-साथ गौण कथा – बिरादरी भोज – भी है जो मुख्य-कथा के प्रभाव को गाढ़ा भी करती है और कथानायिका की चारित्रिक विशिष्टताओं को उसकी सबलताओं-दुर्बलताओं के साथ बखूबी उभारती है.
कथानायिका गदल की विशेषता है कि वह अपने किसी भी मनोभाव और मान्यता को प्रचलित अर्थ के सहारे समझने की रूढ़ि का विरोध करती है. डोडी के प्रति अपने प्रेम की गहराइयों को अभिव्यक्त करने के लिए वह मर्यादा की सभी कगारों को तोड़ते हुए रोष का सहारा लेती है. गुन्ना की किरिया के तुरंत बाद वासनापूर्ति के लिए वह मौनी के घर नहीं बैठती. दरअसल मौनी को पूरी कहानी में वह ‘मरद’ का दर्जा देती ही नहीं. कभी उसे धमकाते हुए इशारों पर नचाती है, “अब कया तेरे घर-भर का पीसना पीसूंगी मैं,’’ तो कभी अपनी उम्र का रोब दिखा कर उसकी धौंस को बचपने में उछ़ा देती है – “अरे, तू तो तब पैदा भी नहीं हुआ था, बालम! तब से मैं सब जानती हूं. मुझे क्या सिखाता है तू?’’ तो कभी दृढ़ शबदों में उसे उसकी सीमाओं का बोध करा कर – “अपने मन से आई थी, रहूंगी, नहीं रहूंगी, कौन तूने मेरा मोल दिया है.’’ जाहिर है गदल के लिए मौनी डोडी को मर्मांतक आघात देने हेतु इस्तेमाल किया गया औजार भर है. “उसने मुझसे मन फेरा, मैंने उससे. मैंने ऐसे बदला लिया उससे.’’ गदल के बदले का अंकगणित साफ है – कोई कूटनीति नहीं. आमने-सामने दो-दो हाथ की लड़ाई. हार-जीत की परवाह नहीं, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी को ललकारने की प्रक्रिया में ही उसके भीतर का आवेश क्रमशः घुलता चलता है.
आश्चर्य होता है कि अपनी उद्दत-विद्रोही प्रकृति का बार-बार ढोल पीटने वाली गदल डोडी के प्रति अपने प्रेम को लेकर इतनी खामोश क्यों हो गई? लोकलाज को तिलांजलि देते हुए जिस अकुंठ भाव से उसने मौनी का वरण किया है, उसी तरह डोडी के साथ भी वह घर बसा सकती थी? और मौनी के घर ‘बैठने’ के बाद जब इस प्रेम को खरे शब्दों में अभिव्यक्ति दी भी तब जब उसका कोई अर्थ नहीं रह गया था? सत्य यह है कि गदल जितनी तेज तर्रार और विद्रोहिणी दीखती है, असल में उतनी वह है नहीं. बिरादरी की मर्यादा ने उसकी सोच और गतिविधियों को बाँधा हुआ है. पति के साथ एकनिष्ठ भाव से पिछले तीस बरस से वह गृहस्थी चला रही है, लेकिन रह-रह कर संकेतों में डोडी को इस तथ्य को भूलने नहीं देती कि ‘‘जब चौदह की थी, तब तेरा मौसा मुझे गाँव में देख गया था. तू उसके साथ तेल लिया लट्ठ लेकर मुझे लेने आया था न तब ? मैं आई थी कि नहीं ?’’
वह जानती है भरी जवानी में पत्नी और बच्चों को गंवा देने के बाद डोडी ने दूसरा ब्याह क्यों नहीं किया; कि निहाल को अपना बेटा मानकर वह वास्तव में गदल को ही सीने से लगाए हुए है. गुन्ना की मृत्यु के बाद वह हर पल डोडी की ओर से आने वाले विवाह-प्रस्ताव की बाट जोह रही है. गुन्ना की मृत्यु ने उससे परिवार की मालकिन का हक छीनकर निहाल की बहू को दे दिया है. ‘तेरी आसरतू नहीं हूँ’ जैसे चीखते प्रतिवादों के साथ परोक्ष रूप से वह डोडी को जल्दी फैसला लेने को उकसाती है. गदल के लिए अपने प्रेम से भी बड़ा आत्मसम्मान है. प्रेमी के सामने प्रेम-याचना करके वह अपने को छोटी क्यों करें ? कठोर शब्दों में अपने प्रतिवाद को रख किसी अनहोनी की चेतावनी वह अवश्य डोडी को देती चलती है – ‘‘जीते जी मैंने उसकी (पति) चाकरी की, उसके नाते उसके सब अपनों की चाकरी बजाई. पर जब मालिक ही न रहा, तो काहे को हड़कंप उठाऊँ? यह लड़के, यह बहुएं. मैं इनकी गुलामी नहीं करुंगी.’’
गदल की हताशा का कारण डोडी में गदल की बढ़ी हुई अपेक्षाएं हैं. गदल जिस जीवन दर्शन को जी रही है, वह मानता है कि आत्मानुशासन में बंधा समर्पित प्रेम जीवन भर एक-सी अकर्मण्य स्थिति मे बना नहीं रहता. जीवन-स्थितियों में बदलाव आते ही कामना को व्यावहारिकता, निष्क्रियता को कर्मठता और अमूर्त प्रेम को ठोस पारिवारिक रिश्तों का रूप देना जरूरी है. पुरूष होने के नाते पहलकदमी डोडी को करनी होगी. इस आग्रह में उसकी इस मान्यता की भी पुष्टि है कि मर्यादा का उल्लंघन करके बनाया गया सम्बन्ध अंततः पेड़ और वासना की लपटों में घिर कर जल जाता है. “मैं तो पेट तब भरूँगी, जब पेट का मोल कर लूँगी.’’ स्पष्ट शब्दों में अपनी कबीलाई नैतिकता का स्वीकार करने वाली गदल की सबसे बड़ी पीड़ा और पराजय यही है कि ‘‘तूने (डोडी) मुझे पेट के लिए पराई ड्योढ़ी लंघवाई.’’ अपनी इस पीड़ा का सार्वजनिक ढिंढोरा पीटने में भीउसे कोई संकोच नहीं – “बताओ पटेल, जब वह ही मेरे आदमी के मरने के बाद मुझे न रख सका तो क्या करती?’’
गदल के भीतर मनोवेग सामान्य गति से नहीं बहते, अंधड़ बनकर उठते हैं, इतनी अधिक तेज गति के साथ कि वे उसे भी अपने संग उड़ा ले चलते हैं. गदल में अंधड़ों की सवारी करके किसी भी अपरिचित टीले पर पहुंच जाने की निडरता है, उन अंधड़ों पर सवारी गांठ कर अपने मनचीते क्षेत्रों को सींचने का धीरज और संयम नहीं. वह अपनी प्रवृत्तियों से संचालित भावुक स्त्री भर है जिसे आगा-पीझा सोचकर निर्णय लेना नहीं आता, विपत्तियों के मुँह में बैठकर जिंदगी की लड़ाई लड़ने का कौशल अलबत्ता खूब है. अपनी तुनक मिजाज प्रवृत्ति के कारण वह जिंदगी भर की कमाई पलों में गंवा सकती है, और क्षति पर हाहाकार या पश्चाताप करने का जड़ विगलित भाव नहीं, बल्कि नई रणनीति बना नए सफर पर निकल पड़ने का उत्साह अपने भीतर पाती है.
गदल की सबसे बड़ी विशेषता है उसका प्रचंड उग्र स्वभाव. इसी कारण शेष पात्र उसके सम्मुख निस्तेज हैं. इसे यूं भी कहा जा सकता है कि लेखक ने गदल के डिमांडिग और डॉमिनेटिंग व्यक्तित्व के कारण किसी को उसके सामने उभरने का अवसर ही नहीं दिया.
रांगेय राघव ने पूरी कहानी में गदल के अतिरिक्त किसी अन्य पात्र के व्यक्तित्व को सर्जित करने का प्रयास ही नहीं किया. उन्होंनें पात्रों को या तो बिंदुओं के रूप में उभारा है या अस्तित्व की क्षीण-सी रेखा के रूप में उनका होना विलोम चरित्र चित्रण पद्धति के जरिए गदल के चरित्र को मजबूत आधार देने के लिए ही है. उल्लेखनीय है कि कथा के नायक न सही, महत्वपूर्ण पात्र कहे जा सकने वाले डोडी को लेकर भी लेखक की लापरवाही देखी जा सकती है. पराक्रमी सुदर्श और समझदार न होने के बावजूद वह बेहद संकोची मितभाषी और आत्मकेन्द्रित है. गदल के कारण परिवारहीन होने पर भी अकेला और निर्वंश होने का बोध उसे कभी नहीं हुआ. ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि गदल का वैधव्य, अबाध अनुराग और अकस्मात् घर से नाता तोड़कर मौनी के पास चला जाना बहुत बडे़ आघात की तरह उस तक पहुँच होगा.
सद्य परिणीता गदल को जबरन बुलाकर शायद वह अपना कलेजा उंडेल देना चाहता रहा हो, लेकिन लेखक उसे शब्द नहीं देते. गदल के कोंचने पर बस, आत्मस्वीकृति स्वरूप वह इतना भर कहता है कि ‘‘डरता था, जग हंसेगा, बेटे सोचेंगे, शायद चाचा का अम्मा से पहले से ही नाता था, तभी तो चाचा ने दूसरा ब्याह नहीं किया. गदल, भैया की भी बदनामी होती न?’’ वह जानता है गदल उसी से रूठकर मौनी के घर ’बैठी’ है. यह भी जानता है कि यदि अधिकारपूर्वक वह उसके लौट आने की बात कहे तो गदल लौट भी आएगी. लेकिन दब्बूपन उसका व्यक्तित्व बन गया है. इसलिए अकारण नहीं कि तीस बरस बाद अचानक वह ढोला मारू रा दूहा सुनने निकल जाता है; और उत्तेजना, पश्चाताप, अवसाद के मिलेजुले दबाव के कारण रात में ही दम तोड़ देता है.
चूंकि रांगेय राघव के पास सारा शब्द-भण्डार गदल के लिए है, इसीलिए गौण पात्रों, विशेषकर डोडी को उन्होंने चुप्पियों के जरिए रचा है. डोडी लेखकीय उपेक्षा का शिकार न होता तो प्रेम की गहनता और सामाजिक विवशता की रस्साकशी के बीच पुरुष के अंतर्द्वंद्व की कितनी ही अनसुनी दास्तानें कह सकता था. लेकिन तद्युगीन कथारूढ़ियों के दबाव से आक्रांत लेखक भी प्रेम को स्त्री संदर्भ में ही विश्लेषित करने का आग्रह पाले हुए हैं, मानो प्रेम स्त्रीत्व को जांचने की कसौटी है, पुरुषत्व की निर्मिति में इसका कोई लेना-देना नहीं. अपवादस्वरूप जयशंकर प्रसाद ‘आकाशदीप’ कहानी में प्रेम के जरिए अपनी ग्रंथियों से मुक्त होकर ’मनुष्यत्व’का आरोहण करते पुरुष की कथा कहते हैं. विडंबना यह है कि स्वयं लेखक रांगेय राघव कहानी को गहराई देने को उत्सुक नहीं. पात्रों के सूक्ष्म मनोभावों की अपेक्षा उनका बाह्य संघर्ष उन्हें अधिक खींचता है. इसलिए घटना बहुलता के जरिए वे कहानी का वितान फैलाते हैं. इस प्रक्रिया में जैसे-जैसे पात्रों के मनोविज्ञान से उनकी नब्ज घूटती चलती है, वैसे-वैसे उनकी भांति वे भी उन्माद को कर्मठता मानने लगते हैं और अंततः आत्मघात के लिए अपना ही सम्मोहन-पाश बुनने लगते हैं.
कहानी की गौण कथा को इसी सम्मोहन-पा की संज्ञा दी जा सकती है. ‘मरते बखत उसके मुँह पर तुम्हारा नाम कढ़ा था काकी’- डोडी की मृत्यु की सूचना देने वाले गिर्राज के ये शब्द मानो गदल के लिए जीवन भर की थाती बन गए हैं. अपने प्रेम पर सामाजिक-स्वीकृति की मुहर लगाना उसके जीवन का कुल ध्येय बन जाता है. “बताओ पटेल, वह ही जब मेरे आदमी के मरने के बाद मुझे न रख सका तो क्या करती,’’ से लेकर ‘‘वह मरते बखत मेरा नाम लेता गया है न, तो उसका परबंध मैं ही करूंगी’’ तक की दृढ़ निश्चयात्मकता! ‘परबंध’ यानी बिरादरी भोज का आयोजन! यानी राजाज्ञा उल्लंघन!
यह वह स्थल है जहाँ कहानी अपनी धुरी से छिटक जानी है- केन्द्र में गदल के होने के बावजूद. ऐसा नहीं कि कहानीकार अनायास बिरादरी भोज-प्रकरण कहानी पर आरोपित कर देते हैं. स्वभाव के विपरीत इस मुद्दे पर गदल की मिमियाहट कहानी में पहले भी दर्ज हुई है. गुन्नी के मृत्युभोज का स्मरण करते हुए वह अपमान से थरथरा उठी है- “तू भैया, दो बेटे. पच्चीस आदमी बुलाए कुल. क्यों आखिर? कह दिया लड़ाई में कानून है. पुलिस पचीस से ज्यादा होते ही पकड़ कर ले जाएगी. डरपोक कहीं के. मैं नहीं रहती ऐसों के.’’ गदल की पहली फांस -प्रेम हताशा -जिस असम्बद्ध ढंग से उसकी दूसरी फांस – बिरादरी भोज – से जुड़ी है वहाँ वह खिसियानी बिल्ली की तरह खंभा नोचते हुए ज्यादा नजर आती है. प्रेमोन्मादिनी गदल अपनी दिशा बदलकर जैसे ही भोज और बिरादरी की मर्यादा के सवालों से टकराती है, वैसे ही वह घोर परंपरावादी सोच और सामंत में विघटित हो जाती है. वास्तविकता यह है कि अपने हक की लड़ाई के लिए मौनी की भौजाई दुल्लो से दो-दो हाथ करने (“देवर के नाते देवरानी हूँ, तेरी जूती नही’’) या ब्लैकमेल करते अपने ही बेटे की अक्ल दुरुस्त करने वाली गदल (‘भर गया दंड तेरा. अब मरद का सब माल दबा कर बहुओं के कहने से बेटों ने मुझे निकाल दिया है.’’ नारायन (पुत्र) का मुंह स्याह पड़ गया. वह गहने उइा कर चला गया.) वैचारिक दृष्टि में ‘मर्यादा’ के शास्त्र से बंधी है. परंपरा उसे दृष्टि और दिशा दोनों देती है. किसी भी विसंगति पर सोचना-समझना और फिर उसे चुनौती देना गदल का कार्यक्षेत्र नहीं. वह स्टीरियोटाइप के रूप में अपनी सार्थकता मानती है.
‘‘तू? …मरद है? अरे, कोई बैयर से घिघियाता है? बढ़कर जो तू मुझे मारता, तो मैं समझती, तू अपना मानता है.’’ गदल नहीं जानती कि स्त्री और पुरूष दोनों की निजता और स्वायत्तता की हत्या करने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था की खुर्राट चौकीदार है वह. यहाँ से गदल की जो छवि विकसित होती है, वह उसकी पूर्ववर्ती मुक्त-जुझारू-आत्माभिमानी स्त्री की सकारात्मक छवि को अपदस्थ करते हुए उसकी सीमाओं को निरंतर संकरा करती चलती है. गदल में अपनी नियति के पार देखने का विवेक नहीं है. क्षण में बंधे तात्कालिक सरोकार उसके लिए जीवन-मरण के, प्रतिष्ठा-साख के सवाल बन जाते हैं. ‘‘कानून क्या बिरादरी से ऊपर है? … राज के पीछे तो आज तक पिसे हैं, पर राज के लिए धरम नहीं छोड़ दें, सुन लो. तुम धरम छीन लो तो हमें जीना हराम है.’’ प्रतीत होता है मानो बीहड़ वन में सिंहनी की तरह दहाड़ती गदल ताकत के अहंकार में अनजाने ही पिंजरे में घुस गई है.
कहानी की विश्वसनीयता की रक्षा के लिए लेखक ने बेहद श्रमपूर्वक छोटी-छोटी घटनाओं को प्रामाणिक तार्किकता के साथ बुना है, जैसे भव्य बिरादरी-भोज के आयोजन के लिए दारोगा को रिश्वत देना, प्रतिशोध की आग में जलते फौजी का बड़े दारोगा के पास शिकायत करना, दारोगा का घटना-स्थल पर आगमन और कानून उल्लंघन के अपराध में कानूनी कार्यवाही की तैयारियां करना, दावत को प्रतिष्ठा का सवाल बनाकर गदल द्वारा बेटों को गोलियां चलाने का हुक्म देना और सवयं पुलिस की गोली खाने के बाद संतोषमिश्रित आह्लाद के साथ फुसफसाते हुए प्राण त्याग देना- ‘‘जो एक दिन अकेला न रह सका, उसी की … ’’ आदि आदि. लेकिन इतना तय है कि अति नाटकीयता और अति-भावुकता ने कहानी के मूल प्रभाव को भी क्षरित कर दिया है. हो सकता है लेखक ने अंतिम प्रकरण प्रेम में घायल सिंहनी गदल की नेतृत्व क्षमता, निर्णय क्षमता, बहादुरी और निर्भीकता को रेखांकित करने के लिए रचा हो, लेकिन वह सामान्य बेवकूफ स्त्री से अधिक स्मृति में नहीं आ अटकती.
‘गदल’ कहानी लेखकीय अंतर्दृष्टि की अपरिपक्वता का परिणाम है. शिल्पगत कलात्मकता के कारण कहानी अपने केन्द्रीय पात्र को एक मजबूत चरित्र के रूप में उभारने का भ्रम देती है, लेकिन वास्तविकता यह है कि कथा की सूक्ष्म पड़ताल एवं सुस्पष्ट उद्देश्य के अभाव में अंततः उसे श्रीविहीन कर देती है. ऐसा प्रतीत होता है कि नई जमीन तोड़ने के उत्साह में लेखक समस्या का ‘ओवरव्यू’ देकर संतुष्ट हो गया है, स्थिति की तह तक नहीं पहुँचा. अनुसूचित जनजातियों को लेकर इससे पूर्व प्रायः लेखकों ने नहीं लिखा है. आपराधिक जनजातियों के रूप में गूजर-लौहार आदि जनजातियां संभ्रांत समाज के बाहर परिधि पर ही रही है, विशेषकर मध्यवर्गीय नागर समाज का शिक्षित वर्ग अपने दुराग्रहों के कारण इन्हें किसी अन्य ग्रह का प्राणी मानता आया है. फलतः ऐसे अनछुए विषय के प्रति उसकी दिलचस्पी गहन है. रांगेय राघव इसे जानते हैं और अपने लेखकीय व्यक्तित्व को अलग रूप देने के लिए इस अपरिचित जनजाति के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की झलकियां देने लगते हैं. वे यथार्थ का उत्खनन करने का दिखावा करते हैं, किंतु विडंबना है कि एक-दूसरे में उलझी संश्लिष्ट यथार्थ की महीन परतों को अलग-अलग पहचान नहीं पाते.
पात्रों के हृदय या मस्तिष्क की अंतरंग तस्वीर देने की बजाय उनकी ’आउटलाइन’ देना और प्रेम को बलिदान के अति नाटकीय संघर्ष में विघटित कर देना गहराई के अभाव में उपजी दृष्टिहीनता का परिणाम है जिसके चलते प्रेम किसी भी किस्म की दार्शनिक गंभीरता का स्वरूप लेकर पाठक के भीतर कोई आलोड़न पैदा नहीं करता. अधिक से अधिक वह ’पजैशन’ का उपादान बन जाता है जो स्नायुतंत्र में उत्तेजना भले ही भर दे, जीवन के बरक्स आत्मालोचन की चुनौती प्रस्तुत नहीं करता. इसलिए इस कहानी में मुक्ति एवं उदात्तीकरण का वह रूप नहीं जो ‘आकाशदीप’ में है. हाँ, ‘उसने कहा था’ के समकक्ष इसे अवश्य कहा जा सकता है जहाँ विपरीत युग्म (ओपोजिट बाइनरीज़) का निदर्शन करते-करते प्रेम और त्याग एक ही स्थिति -प्रेम – का विस्तार बन जाते हैं, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कथा-पात्र समझ ही नहीं पाते कि परंपरा के दबावों ने उनके प्रेम का आखेट ही किया है. फिर भी रांगेय राघव इस बात के लिए प्रशंसा के अधिकारी हैं कि जड़ पात्रों के जरिए कहानी में न केवल गति का आभास देती विशद दृश्यावलियां गढ़ते हैं, बल्कि हिंदी कथा साहित्य की सर्वाधिक जुझारू और कर्मठ स्त्री पात्र को भी रच का कालातीत कर देते हैं.
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