रुस्तम से आदित्य शुक्ल की बातचीत |
1.
आज हिन्दी के लेखक के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है? पूंजी और ग्लैमर के दबाव से बचते हुए एक परफोरमेटिव (performative) लेखक होने से बचने के क्या तरीके हो सकते हैं? और हिन्दी में लिखने की अपनी क्या चुनौतियाँ हैं?
मेरा ख़्याल है कि आज के हिन्दी कवि-लेखक के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है वह है अच्छे पाठकों को ढूँढ पाना, उसके लेखन को ऐसे पाठकों का मिलना. “अच्छे” पाठकों से मेरा मतलब क्या है?
जैसा कि हम जानते हैं, एक अच्छा लेखक बनने के लिए अपने-आपको प्रशिक्षित करना पड़ता है, न केवल अपने देश के बल्कि विश्व भर के अच्छे लेखकों को पढ़ना पड़ता है, यह देखना पड़ता है कि भिन्न-भिन्न विधाओं में वे कैसे लिखते थे, क्या तकनीकें अपनाते थे, अपने लेखन में वे कुछ भिन्न व नया कैसे कर पाते थे, न केवल तकनीक के सन्दर्भ में बल्कि भाव, विचार, दृष्टि और कल्पना के सन्दर्भ में भी.
जिस प्रकार कवि-लेखक को, उसी प्रकार पाठक को भी अपने-आपको प्रशिक्षित करना होता है और इस प्रकार एक “अच्छा”, एक सुगढ़ पाठक बनना होता है. ऐसे पाठकों का होना न केवल अच्छे लेखन के पैदा होने के लिए ज़रूरी होता है, बल्कि पहले से लिखे जा रहे अच्छे लेखन के पोषित होने के लिए भी ज़रूरी होता है. आज के हिन्दी प्रदेश में इस प्रकार के पाठकों की बहुत कमी है. यानी ऐसे पाठकों की बहुत कमी है जो न केवल भाव, विचार, दृष्टि और कल्पना के स्तर पर बल्कि तकनीक के स्तर पर भी अच्छे लेखन को पहचान सकें और उसे पढ़ें.
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इस समय हिन्दी के पाठक काफ़ी हद तक अनगढ़ हैं. उन्हें यह बहुत कम पता है कि अच्छा लेखन क्या होता है. इसलिए वे जैसा भी लेखन उन्हें परोसा जाता है, उसे पढ़ते और सराहते रहते हैं. वे अच्छे लेखन को ख़राब लेखन से अलग नहीं कर पाते. जिसका परिणाम यह है कि अधिकतर अच्छे कवियों-लेखकों को अपने लेखन की पहचान बनाने के लिए अक़्सर लम्बा और कठिन सँघर्ष करना पड़ता है.
यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि जब मैं पाठक की बात कर रहा हूँ तो मेरे मन में पाठक के रूप में आलोचक और सम्पादक भी हैं. और हम जानते हैं कि अच्छे लेखन को पहचानने और सामने लाने में पाठकों के तौर पर आलोचकों और सम्पादकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. वर्तमान हिन्दी लेखन का यह दुर्भाग्य है कि इस वक़्त साहित्य में गहरी अन्तर्दृष्टि रखने वाले, वास्तविक रूप में सुशिक्षित व सु-प्रशिक्षित आलोचकों तथा सम्पादकों की कमी है. और यह अकारण नहीं है.
पिछले लगभग पाँच दशकों में आम तौर पर एक विशेष किस्म की और इसलिए सीमित आलोचकीय व सम्पादकीय दृष्टि व समझ को पाला-पोसा गया. इस कारण इन दशकों में इस दृष्टि व समझ वाले आलोचकों तथा सम्पादकों का वर्चस्व रहा. इस वर्चस्व के चलते एक विशेष प्रकार के लेखन को उभरने व अपना दबदबा बनाने में मदद मिली. इसका दूसरा परिणाम यह था कि इस लेखन को पढ़ने वाला एक व्यापक पाठक वर्ग तैयार हुआ जो उपरोक्त आलोचना, सम्पादन और लेखन के साथ अपनी दृष्टि व समझ को साझा करता था. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह सब प्रायः अच्छे लेखन व सुशिक्षित व सु-प्रशिक्षित पाठक की कीमत पर हुआ.
अच्छा लेखन होने व उभरने के लिए किसी भी कालखण्ड में आलोचकीय तथा सम्पादकीय दृष्टि, विजन, समझ व कल्पना में विविधता और उन्हें खोलने-बदलने के लिए जगह होनी चाहिए. इसके अलावा, आलोचकों व सम्पादकों को तकनीक की अच्छी समझ होनी चाहिए और साथ में यह अहसास होना चाहिए कि तकनीक में नवोन्मेष हो सकता है तथा नये कवि-लेखक नयी व पहले से भिन्न तकनीकें लेकर आ सकते हैं. आलोचना व सम्पादन के स्तर पर यदि ऐसा होगा, तभी पाठकों की दृष्टि व समझ बदलेगी तथा विकसित होगी और एक ज़्यादा सुशिक्षित व प्रशिक्षित पाठक वर्ग तैयार होगा जो अच्छे लेखन को पहचान पायेगा तथा उसे औसत लेखन से अलग कर पायेगा.
2.
आप पहले कहते आये हैं कि लेखक को पाठक के बारे में नहीं सोचना चाहिए, उसे अनदेखा करना चाहिए. लेकिन पिछले प्रश्न के उत्तर में आप पाठक को केन्द्र में ले आये हैं. क्या आपको इन दोनों बातों में विरोधाभास नहीं लगता?
इन दोनों बातों में विरोधाभास निम्न कारणों से नहीं है.-
मैं यह भी कहता आया हूँ कि एक कवि-लेखक की दो सत्ताएँ या अस्मिताएँ होती हैं: पहली एक व्यक्ति के तौर पर तथा दूसरी एक लेखक के तौर पर. एक व्यक्ति के रूप में कोई भी लेखक किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह समाज या दुनिया में रहता है और वह सब कुछ करता है जो ज़िन्दा रहने के लिए तथा किसी देश के नागरिक या समाज के सदस्य के तौर पर उसे करना पड़ता है. इस अर्थ में वह किसी भी अन्य व्यक्ति से बहुत भिन्न नहीं होता. उसमें तथा अन्य व्यक्तियों में सिर्फ़ वही भिन्नताएँ होती हैं जो उसके स्वभाव और चरित्र के चलते उसे एक विशेष व्यक्ति बनाती हैं.
परन्तु यही व्यक्ति जब लिखता है तब वह एक व्यक्ति का रूप त्याग कर एक लेखक का रूप अख्तियार कर लेता है. उसका यह लेखकीय रूप उस व्यक्ति विशेष से बिल्कुल अलग होता है जिसकी बात ऊपर हमने की है. यह लगभग यूँ है जैसे कि कोई सत्ता अपने-आपको पूर्णतया बदल ले तथा कोई और सत्ता बन जाये. यह ऐसा नहीं है जैसे कोई तथाकथित आत्मा एक देह को छोड़कर किसी दूसरी देह में प्रविष्ट हो जाये. न ही यह उस व्यक्ति की तरह है जो एक लबादा उतारकर दूसरा लबादा पहन ले. बल्कि यह ऐसे है जैसे कि किसी की अस्मिता या पहचान पूरी तरह परिवर्तित हो जाये.
इस परिवर्तित अस्मिता या पहचान के साथ लेखक जब लिखता है तो वह एक व्यक्ति की तरह नहीं सोचता या महसूस करता, बल्कि मात्र एक लेखक की तरह सोचता व महसूस करता है. इस प्रकार वह अपनी वे सारी महत्वाकांक्षाएँ व अपेक्षाएँ पीछे छोड़ देता है जो एक व्यक्ति के तौर पर उसकी होती हैं. उस वक़्त उसका सारा सरोकार लिखने से होता है और उसका सारा ध्यान उसी पर केन्द्रित होता है. इसी कारण उन क्षणों में वह पाठक के बारे में न तो सोच रहा होता है और न ही उसे लेकर चिन्तित होता है. लेखन के क्षणों में लेखक के लिए पाठक का कोई अस्तित्व नहीं होता.
पाठक का अस्तित्व तब पैदा होता है जब लेखन पूर्णतया या कुछ देर के लिए बन्द हो जाता है और लेखक लेखन के क्षणों से बाहर आ जाता है तथा एक बार फिर दूसरे लोगों की तरह एक व्यक्ति विशेष का रूप अख्तियार कर लेता है. यह ऐसे समय पर होता है कि वह अपने लेखन को छपवाने व उसे पाठकों तक पहुँचाने इत्यादि के बारे में सोचता है या सोचने लगता है. लेखकीय जीवन में ऐसे कालखण्ड बार-बार आते हैं और इन कालखण्डों में लेखक के लिए प्रकाशक, सम्पादक तथा पाठक जैसे लोग महत्वपूर्ण हो जाते हैं. परन्तु जैसे ही प्रेरणा एक बार फिर उस पर हावी हो जाती है और वह फिर लिखने लगता है- चाहे वह कविता हो, कहानी हो या उपन्यास इत्यादि- वह प्रकाशक, सम्पादक व पाठक को एकदम भूल जाता है और लिखने में मगन हो जाता है या उसमें खो जाता है.
पहले प्रश्न के उत्तर में जब मैंने पाठक के बारे में लम्बी टिप्पणी की तो निश्चित ही मैं एक लेखक के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसे व्यक्ति विशेष के रूप में सोच रहा था जो लिखता भी है और जिसे अपने लेखन के प्रचार-प्रसार के बारे में चिन्ता होती है.
3.
पूँजीवाद का मोहरा बनने से एक लेखक कैसे बचे? पूँजीवाद का मोहरा बनने से मेरा मतलब संस्कृति उद्योग के ग्लैमर से है, जो लेखकों और साहित्य को एक कोमोडिटी (commodity) में तब्दील कर देता है. लेखक भी अपनी असली भूमिका भूलकर कोमोडिटी के रूप में मिलने वाले लाभ और ग्लैमर की चकाचौंध में खो जाता है.
जहाँ पूँजीवादी व्यवस्था लागू होती है या प्रभावी होती है, वहाँ किसी भी व्यक्ति के लिए उससे बच पाना, उससे अलग रह पाना लगभग असम्भव होता है. आप उस व्यवस्था की किसी न किसी संरचना में या उसके हिस्से के तौर पर काम कर रहे होते हैं और इसलिए उसके साथ काफी गहरे रूप में जुड़े होते हैं. या तो आप कोई नौकरी कर रहे होते हैं या कोई अपना काम-धन्धा कर रहे होते हैं. परन्तु कुल मिला कर पूंजीवादी व्यवस्था से स्वतन्त्र नहीं होते. आप उसकी संरचनाओं व उनके नियम-कायदों से (या नियम-कायदों की अनुपस्थिति से) बंधे हुए होते हैं. उनके अनुसार ही आपको नौकरी या काम-धन्धा करना होता है.
एक व्यक्ति के तौर पर यह चीज़ लेखक पर भी लागू होती है, क्योंकि वह भी इसी व्यवस्था में किसी जगह नौकरी या कोई काम-धन्धा कर रहा होता है. परन्तु एक लेखक के तौर भी वह इस व्यवस्था से बंधा हुआ या जुड़ा हुआ हो, यह ज़रूरी नहीं. यह सच है कि उसे अपने लेखन को प्रकाशित करवाना होता है और उसके बाद वह अक़्सर चाहता है कि उसका लेखन अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचे. और इसके लिए अक़्सर उसे प्रकाशकों के आगे-पीछे घूमना पड़ता है, उनकी शर्तों को मानना पड़ता है.
हिन्दी लेखन के प्रकाशन में अभी पूरी तरह ऐसा नहीं हुआ, परन्तु यदि आप अँग्रेज़ी लेखन के प्रकाशन को देखें तो आप पाते हैं कि लेखक को प्रकाशक की बहुत सी शर्तों को मानना पड़ता है. पहले तो एक प्रतिष्ठित प्रकाशक ढूँढने के लिए उसे कोई एजेंट ढूँढना पड़ता है जो उससे पैसा लेता है. यदि उसे कोई प्रकाशक मिल जाये तो वह उसके साथ एक अनुबन्ध करता है. इस अनुबन्ध के अनुसार लेखक को पुस्तक के प्रचार-प्रसार में प्रकाशक की मदद करनी होती है. मसलन उसे कम या अधिक अवसरों पर, भिन्न-भिन्न स्थानों, शहरों इत्यादि में जाकर पुस्तक में से पाठ करना पड़ सकता है, या किसी पुस्तक मेले में या पुस्तकों की किसी बड़ी दुकान में बैठकर पुस्तक की हर बिकने वाली प्रति पर पाठकों के लिए अपने हस्ताक्षर करने पड़ सकते हैं. यह सब इसलिए क्योंकि प्रकाशक की एक मात्र रुचि पुस्तक को बेचकर पैसा कमाने में होती है.
आजकल एक और चीज़ प्रचलन में आयी है. कई प्रकाशक लेखक से उसकी पुस्तक छापने के बदले में पैसा माँगते हैं और वह पैसा इतना तो होता ही है कि उससे प्रकाशन पर होने वाला ख़र्च लगभग निकल आता है. ऐसा अक़्सर उन लेखकों के साथ होता है जो नये हैं या जिनका बहुत नाम नहीं है. प्रकाशक लोग और बहुत से लेखक भी यह चाहते हैं कि उनकी पुस्तक को कोई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल जाये या कम से कम पुस्तक उनकी सूची में आ जाये. जहाँ तक प्रकाशक का सवाल है, इसके पीछे भी वही कारण है: प्रकाशित पुस्तक के माध्यम से अधिक से अधिक पैसा कमाना. पैसे के अलावा लेखक की एक और रुचि इसमें होती है: एक लेखक के तौर पर प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित हो जाना.
मेरा मानना है कि ऊपर उल्लिखित सब चीजों के बावजूद यदि कोई लेखक चाहे तो वह पूंजीवादी व्यवस्था के इस प्रकार के दबाव से या उसके चंगुल से बच सकता है. हर देश, प्रदेश में ऐसे छोटे प्रकाशक होते हैं जिनमें से देर-सवेर, एक नहीं तो दूसरा, आपकी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए तैयार हो जाता है. इनमें से कई प्रकाशक तो छोटे प्रकाशक होने के बावजूद अच्छी-खासी प्रतिष्ठा भी रखते हैं, परन्तु सभी नहीं. ये प्रकाशक लेखक पर कोई शर्तें नहीं लगाते, जैसा कि बड़े प्रकाशक करते हैं. लेखक चाहे तो बड़े प्रकाशकों की बजाय किसी छोटे प्रकाशक को चुन सकता है और उन सब शर्तों से बच सकता है जिनसे बहुत से बड़े या प्रतिष्ठित प्रकाशक उसे घेर लेते हैं.
इस प्रकार वह या उसका लेखन उनके हाथ में एक खिलौना या बिकने वाली वस्तु (commodity) बनने से बच सकता है. निश्चित तौर पर यह सम्भव है कि उस लेखक की पुस्तक पाठक के पास ज़रा देर से पहुँचे या वह अपेक्षतया कम पाठकों के पास पहुँचे. परन्तु तब भी देर-सवेर उसे काफी पाठक मिल जायेंगे. यह भी सम्भव है कि ऐसा करने से उसे एक प्रतिष्ठित लेखक बनने में कुछ समय लगे. परन्तु किसी लेखक या उसके लेखन की प्रतिष्ठा केवल इस बात से तय नहीं होती कि उसकी पुस्तकों की कितनी प्रतियाँ बिक रही हैं. अन्ततः लेखक और लेखन की प्रतिष्ठा उसकी गुणवत्ता से ही बनती है. यदि ऐसा नहीं होता तो हर युग में वे लेखक जिन्हें “पॉपुलर” लेखक कहा जाता है और जिनकी पुस्तकों की प्रतियाँ हज़ारों-लाखों की संख्या में बिकती हैं, लेखन के इतिहास में बड़े और महत्वपूर्ण लेखक माने जाते. लेकिन ऐसा होता नहीं. हमेशा बढ़िया और गम्भीर लेखन ही महत्वपूर्ण लेखन माना जाता है, उसके अपने कालखण्ड में चाहे उसकी कितनी भी कम प्रतियाँ क्यों न बिकी और पढ़ी गयी हों.
कल मिलाकर, घनघोर पूँजीवादी व्यवस्था में भी पूँजीवाद के दबाव व ग्लैमर से बचना काफी हद तक लेखक के अपने हाथ में होता है. यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह एक लेखक के तौर पर प्रकाशन के क्षेत्र में इस व्यवस्था से कितना समझौता करने को तैयार है या नहीं है. और इससे भी बड़ी बात यह है कि उसमें आत्मसम्मान की भावना कितनी गहरी है और वह किस हद तक अपने आत्मसम्मान का बचाव करने को तैयार है.
4.
आज जब प्रचलित विमर्शों में मार्क्सवाद के सोवियत और चीन में हुए अत्याचारों को बहुत उथले ढंग से मार्क्सवाद को खारिज करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, ऐसे में आप मार्क्सवाद के हिंसा के पक्ष को अपने विमर्श में शामिल करते हुए और ऐतिहासिक घटनाओं को मद्देनजर रखते हुए मार्क्सवाद को कैसे आँकेंगे और आज सामाजिक न्याय हासिल करने के रास्ते में मार्क्सवाद की भूमिका को कैसे परिभाषित करेंगे?
सबसे पहले हमें आधारभूत स्तर पर राजनीतिक व आर्थिक परिवर्तनों में हिंसा की भूमिका के बारे में कुछ कहना चाहिए. जैसा कि आप जानते ही होंगे, कुछ लोग यह मानते हैं- और आधुनिक युग में इनमें गाँधीवादी प्रमुख हैं- कि आधारभूत राजनीतिक व आर्थिक परिवर्तन करने के लिए भी हिंसा की ज़रूरत नहीं है. यानी इस तरह के परिवर्तन ग़ैर-हिंसात्मक तरीकों से भी किये जा सकते हैं. परन्तु यदि हम इतिहास पर नज़र दौड़ाएँ तो हम पाते हैं कि किसी भी प्रकार के आधारभूत राजनीतिक परिवर्तन अक़्सर हिंसात्मक तरीकों के उपयोग के बिना नहीं हुए. यह ज़रूर है कि कुछ बार इस प्रकार के परिवर्तनों को लाने में गैर-हिंसात्मक तरीकों ने प्रमुख भूमिका निभायी. और ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि ये परिवर्तन मुख्यतया इन्हीं तरीकों के उपयोग के कारण आये. परन्तु यदि हम ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि ग़ैर-हिंसात्मक आन्दोलनों के पीछे हिंसा पर आधारित आन्दोलन सक्रिय रहते हैं और राज्यों को लगता है कि यदि ग़ैर-हिंसात्मक आन्दोलन की कुछ माँगो को नहीं माना गया तो हिंसा पर आधारित आन्दोलन अधिक सशक्त हो जायेंगे. हिंसा पर आधारित आन्दोलनों की इस अपेक्षतया छुपी हुई धमकी का फ़ायदा ग़ैर-हिंसात्मक आन्दोलनों को मिलता है और वे होने वाले परिवर्तनों का लगभग पूरा श्रेय ख़ुद ले जाते हैं.
कई बार ग़ैर-हिंसात्मक आन्दोलनों की आंशिक सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि जिस राज्य के खिलाफ़ आन्दोलन किया जा रहा है उसका रूप व स्वभाव कैसे हैं. इतिहास बताता है कि लगभग निश्चित तौर पर सत्तावादी या सर्वसत्तावादी राज्यों में आधारभूत राजनीतिक व आर्थिक परिवर्तन हिंसा के बिना नहीं हुए. इस प्रकार के राज्य परिवर्तनकारी आन्दोलनों को पूरी तरह दबा देने में विश्वास करते हैं और ज़ाहिर है कि इसके लिए वे हिंसात्मक तरीकों का उपयोग करते हैं. यहाँ तक कि ऐसे राज्य चरम बिन्दु तक हिंसा का उपयोग करने के लिए तैयार रहते हैं और ज़रूरत पड़ने पर उसका भीषण रूप में उपयोग करते भी हैं. इसलिए लगता है कि इस तरह के हिंसक राज्यों में राजनीतिक व आर्थिक परिवर्तन हिंसा के बिना नहीं किये जा सकते. हाँ, ऐसे राज्यों में जो सत्तावादी या सर्वसत्तावादी नहीं हैं, या तथाकथित लोकतान्त्रिक राज्यों में (“तथाकथित” इसलिए क्योंकि दुनिया में कोई भी राज्य पूरी तरह लोकतान्त्रिक नहीं है और न ही कभी हुआ है) थोड़े-बहुत परिवर्तन ग़ैर-हिंसक तरीकों द्वारा दबाव बनाकर करवाये जा सकते हैं. परन्तु ऐसे राज्यों में भी यदि आधारभूत परिवर्तन करने हों या करवाने हों तो शायद वह हिंसक तरीकों के बिना सम्भव नहीं.
जहाँ तक मार्क्सवाद का प्रश्न है, चार बड़े मार्क्सवादी सिद्धान्तकारों ने हिंसा को लेकर ज़रा जटिल व कुछ सीमा तक एक-दूसरे से भिन्न बातें लिखी थीं.
मार्क्स और एंगेल्स के अनुसार उन देशों में जहाँ पूँजीवाद काफी विकसित हो चुका था तथा उसके साथ-साथ संसदीय प्रणाली आ चुकी थी और उसने काफी गहरी जड़ें जमा ली थीं, वहाँ इस बात की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता था कि इस प्रणाली के संस्थानों का उपयोग करते हुए शान्तिपूर्ण ढंग से पूंजीवाद को उखाड़ा जा सके तथा समाजवाद को स्थापित किया जा सके. जब उन्होंने यह तर्क दिया तो उनके मन में मुख्यतया इंग्लैण्ड का उदाहरण था. हालाँकि उन्होंने इस तर्क में यह बात भी जोड़ दी कि पूँजीवादी शासक वर्ग राज्य की सत्ता को आसानी से नहीं छोड़ेगा और इसलिए सम्भव है कि उन राज्यों में भी जहाँ संसदीय प्रणाली जम चुकी थी, यह शासक वर्ग अपनी सत्ता की रक्षा करने के लिए अन्तत: हथियार उठा ले. यहाँ इस बात पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि मार्क्स और एंगेल्स संसदीय प्रणाली वाले राज्यों में शान्तिपूर्ण समाजवादी क्रान्ति की सम्भावना मात्र की बात कर रहे हैं: वे यह नहीं कह रहे कि ऐसे राज्यों में शान्तिपूर्ण समाजवादी क्रान्ति करने का तरीका कारगर होगा ही.
जहाँ तक उन राज्यों का सम्बन्ध था जहाँ संसदीय संस्थान या तो थे ही नहीं या फिर राज्य की वास्तविक सत्ता उनके हाथ में नहीं थी, यानी जहाँ राज्य का रूप अभी भी मुख्यतया राजतन्त्र था, मार्क्स और एंगेल्स का पक्का मत्त था कि वहाँ समाजवादी क्रान्ति को हिंसात्मक और सशस्त्र रूप अख़्तियार करना ही होगा क्योंकि ऐसे राज्यों में क्रान्तिकारियों के लिए इसके अलावा और कोई तरीका उपलब्ध नहीं था. यह तर्क देते हुए मार्क्स और एंगेल्स के मन में जर्मनी, फ्रांस तथा रूस जैसे देश थे जहाँ शासन प्रणाली हालाँकि मुख्यतया राजतन्त्र थी लेकिन पूँजीवादी आर्थिक संरचनाएँ काफी हद तक विकसित हो चुकी थीं.
लेनिन व माओ को संसदीय संस्थानों या पूंजीवादी राज्य के किसी भी तरह के रूप पर ज़रा भी विश्वास नहीं था. दोनों का मत्त था कि बुर्जुआ शासक वर्ग बिना हिंसा व सशस्त्र क्रान्ति के सत्ता को नहीं छोड़ेगा. यानी किन्हीं भी राजनीतिक परिस्थितियों में इस वर्ग से सत्ता को छीनना ही पड़ेगा. इस प्रकार उन दोनों ने सशस्त्र क्रान्ति की अनिवार्यता को रेखांकित किया. हाँ, लेनिन ने यह ज़रूर जोड़ा कि संसदीय संस्थानों की आंशिक उपस्थिति को उचित अवसर पर और थोड़े समय के लिए एक रणनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है.
यहाँ यह समझना जरूरी है कि समाजवादी क्रान्ति के दो महत्वपूर्ण हिस्से होते हैं. पहला हिस्सा वह जिस दौरान आप बुर्जुआ या सामन्तवादी-बुर्जुआ वर्गों से सत्ता को छीनकर अपने हाथों में ले लेते हैं. यानी आप राज्य के संस्थानों पर कब्ज़ा कर लेते हैं. समाजवादी क्रान्ति का दूसरा महत्वपूर्ण हिस्सा वह होता है जब आप पहले तो राजनीतिक संस्थानों को अपनी जरूरत के अनुसार बदलते हैं और उसके बाद उन संस्थानों के नये रूपों का उपयोग करते हुए देश की आर्थिक संरचनाओं में आधारभूत किस्म के परिवर्तन करते हैं और उन्हें समाजवादी रूप देने की कोशिश करते हैं.
मार्क्स और एंगेल्स ने समाजवादी क्रान्ति के दूसरे हिस्से पर लगभग न के बराबर लिखा है. परन्तु लेनिन और माओ दोनों ने उस वक़्त क्रमश: रूस व चीन की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस पर विस्तार से लिखा है. और दोनों के मत्त में समाजवादी क्रान्ति के दूसरे हिस्से में भी, यानी जब आप एक समाजवादी राज्य को स्थापित करने की कोशिश कर रहे होंगे, हिंसा की ज़रूरत पड़ेगी, और न केवल ज़रूरत पड़ेगी बल्कि क्रान्ति के इस हिस्से के उद्देश्यों को पूरा करना हिंसा के बिना सम्भव ही नहीं होगा.
हम जानते हैं कि मार्क्सवाद से प्रेरित समाजवादी क्रान्तियाँ उन्हीं देशों में हुईं जहाँ संसदीय प्रणाली के संस्थान अधिक विकसित नहीं हुए थे या फिर वे थे ही नहीं. जैसे रूस, चीन, क्यूबा तथा उत्तरी विएतनाम इत्यादि. इससे मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन तथा माओ का यह तर्क सही साबित हुआ कि ऐसे देशों में जहाँ का शासन सत्तावादी है वहाँ हिंसा के बिना समाजवाद को लाना सम्भव नहीं होगा.
परन्तु यहाँ एक और बात पर ग़ौर करना चाहिए. ऐसे किसी भी देश में समाजवादी क्रान्ति नहीं हुई जहाँ संसदीय प्रणाली विकसित हो चुकी थी. न ही ऐसे देशों में संसदीय प्रणाली के माध्यम से समाजवाद आया. कुछ सीमा तक भारत में केरल और पश्चिम बंगाल इसका अपवाद रहे, जहाँ वामपन्थ इस प्रणाली का उपयोग करते हुए सत्ता में आने में सफल रहा और आंशिक रूप से तथाकथित लोकतान्त्रिक समाजवाद स्थापित कर पाया. परन्तु जैसा कि हम जानते हैं इन राज्यों में यह प्रयोग स्थायी साबित नहीं हुआ.
उधर पश्चिम में मार्क्सवाद के दबाव में व मार्क्सवादी राज्य से बचने के उद्देश्य से कुछ ऐसे कदम उठाये गये जिनके परिणामस्वरूप मुख्यतया उत्तरी-पश्चिमी यूरोप के कुछ देशों में कल्याणकारी राज्य (welfare state) की स्थापना हुई जिसने गरीब आदमी पर विशुद्ध पूंजीवाद की मार को थोड़ा कम किया. परन्तु 1980 के दशक के शुरू में फ्रेडरिक हायेक तथा मिल्टन फ़्रीडमैन जैसे पूँजीवादी चिन्तकों के प्रभाव में मार्गरेट थैचर व रोनाल्ड रेगन जैसे नेताओं ने कल्याणकारी राज्य के विघटन की शुरुआत की जो काम हाल तक जारी रहा और जिसका अन्त समकालीन तथाकथित नवउदारवादी राज्यों में हुआ.
ध्यान दें कि नेहरूवादी भारत भी इस आन्दोलन के प्रभाव से बच नहीं पाया. यहाँ इस प्रकार के विघटन की शुरुआत 1991 के आसपास नरसिम्हा राव व मनमोहन सिंह ने की.
इन नवउदारवादी राज्यों में, जो कल्याणकारी राज्यों की तुलना में अधिक कठोर पूंजीवाद में विश्वास करते हैं, अब धीरे-धीरे दक्षिणपन्थी व फासीवादी ताकतों का प्रभाव बढ़ रहा है जो और भी कठोर पूँजीवाद का प्रतिनिधित्व करती हैं.
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि संसदीय प्रणाली वाले राज्यों में समाजवादी क्रान्तियाँ क्यों नहीं हुईं और वे ऐसे राज्यों में ही क्यों हुईं जहाँ यह प्रणाली ज़्यादा विकसित नहीं थी या फिर थी ही नहीं.
इस प्रश्न के बारे में सोचते हुए यह समझना ज़रूरी है कि पूँजीवाद राज्य के किसी विशेष राजनीतिक स्वरूप से या किसी नपी-तुली राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा हुआ नहीं है. पूँजीवाद राज्य के भिन्न-भिन्न स्वरूपों व एक-दूसरे से कम या अधिक भिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के साथ जुड़कर चल सकता है तथा उनके संरक्षण में पोषित व प्रफुल्लित हो सकता है. इस प्रकार पूँजीवाद सत्तावाद, एकाधिकारवाद, अल्पतन्त्र तथा संसदीय, कई प्रकार की शासन-प्रणालियों के तहत फलता-फूलता पाया जा सकता है. इसी तरह वह उदारवाद, नवउदारवाद, फासीवाद तथा नात्सीवाद जैसी राजनीतिक विचारधाराओं के साथ हाथ मिलाकर चलता है तथा उनका संरक्षण प्राप्त कर लेता है.
लेकिन तब भी अपने अस्तित्व के सबसे लम्बे कालखण्ड के दौरान पूँजीवाद एक तरफ़ उदारवाद/नवउदारवाद तथा दूसरी तरफ़ संसदीय प्रणाली के साथ जुड़ा रहा है. और यह वही समय था जब ख़ुद उदारवाद व संसदीय प्रणाली भी एक-दूसरे के साथ गहरे रूप में जुड़े हुए थे. परन्तु उदारवाद व संसदीय प्रणाली में यह जुड़ाव एक साधारण किस्म का जुड़ाव नहीं था. यह एक विशेष किस्म का जुड़ाव था जिसके बारे में हम कह सकते हैं कि उदारवादी विचारधारा के बिना संसदीय प्रणाली का पैदा होना और फैलना सम्भव नहीं था. असली बात यह है कि उदारवाद ने ही संसदीय प्रणाली को जन्म दिया या कम से कम उसके जन्म को सम्भव बनाया. इसी कारण संसदीय प्रणाली में किसी सीमा तक आम नागरिक के प्रति जो सहिष्णुता नज़र आती है वह उदारवाद की ही दी हुई है.
परन्तु इस सहिष्णुता की एक सीमा है. उदारवाद आम व्यक्ति की पक्षधर विचारधारा नहीं है. न ही संसदीय प्रणाली, जिसे ग़लती से लोकतन्त्र भी कह दिया जाता है, आम व्यक्ति द्वारा संचालित शासन प्रणाली है. उदारवाद- और नवउदारवाद उसी का एक सख़्त और सिकुड़ा हुआ रूप है- पूँजी के संचय के खिलाफ़ नहीं है, बल्कि उसके पक्ष में है, और तथाकथित लोकतन्त्र पूँजीपतियों के इस “अधिकार” की सुरक्षा करता है.
इसी कारण किसी भी तथाकथित लोकतान्त्रिक देश में असमानता व ग़रीबी बनी रहते हैं, जो आम नागरिकों में असंतोष व आक्रोश पैदा करते हैं.
लेकिन यह आक्रोश इतना गहरा नहीं होता कि वे ऐसे देशों में समाजवाद को फैलाने या वहाँ समाजवादी क्रान्ति लाने में कोई महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके. संसदीय प्रणाली वाले या तथाकथित लोकतान्त्रिक देशों में समय-समय पर होने वाले चुनाव लोगों के आक्रोश को कम कर देते हैं, या यूँ कहें कि वे उसे एक ऐसा रूप अख्तियार नहीं करने देते कि वह लोगों को हथियार उठाने पर मजबूर कर दे. क्रान्तियाँ तभी होती हैं- और यह बात समाजवादी क्रान्तियों पर भी लागू होती है- जब लोगों को लगने लगे कि उनकी हालत सुधारने के लिए हथियार उठाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं. यह परिस्थिति तथाकथित लोकतान्त्रिक देशों में नहीं बन पाती. इसके अलावा ऐसे देशों में ग़ैर-वामपन्थी पार्टियाँ ज़रूरत पड़ने पर कुछ सीमा तक बायीं ओर सरक जाती हैं और कुछ ऐसे कदम उठा लेती हैं जो लोगों को इस भ्रम में फँसाये रखते हैं कि सरकार उनके लिए कुछ कर रही है.
इस प्रकार इस निष्कर्ष पर पहुँचना ग़लत नहीं होगा कि भविष्य में भी संसदीय प्रणाली वाले या तथाकथित लोकतान्त्रिक देशों में सशस्त्र मार्क्सवादी या समाजवादी क्रान्तियाँ नहीं होंगी. न ही यह सम्भव होगा कि ऐसे देशों में मार्क्सवादी या समाजवादी पार्टियाँ, यदि वे सत्ता में आ भी जायें तो, कभी स्थायी रूप में सत्ता में बनी रहेंगी.
लेकिन इस बात की सम्भावना है कि उन देशों में जहाँ समाजवाद क्रान्ति के माध्यम से आयेगा, यानी ऐसे देश जहाँ वह सत्तावादी शासन को पलट कर आयेगा, वह ज़्यादा लम्बे समय तक टिका रहेगा.
पिछले कुछ दशकों से नवउदारवादी पूँजीवादी देशों में- बल्कि पूरे विश्व में ही- राजनीतिक पार्टियों तथा लोगों, दोनों में दक्षिणपन्थ तथा सत्तावाद की ओर झुकाव बढ़ रहा है. और ऐसा लगता है कि आने वाले समय में यह झुकाव और भी बढ़ेगा. इसके पीछे मुख्य कारण यह है: पृथ्वी पर वे संसाधन कम होते जा रहे हैं जिन पर मनुष्य निर्भर करता है. और आने वाले समय में इनके और भी कम होते जाने की सम्भावना है.
संसाधनों के कम होने के पीछे जो कारण हैं उनमें तीन मुख्य हैं. पहला कारण यह है कि तथाकथित औद्योगिक क्रान्ति के बाद मनुष्य ने, और ख़ासकर धनी वर्गों ने, पृथ्वी के संसाधनों का अन्धाधुन्ध शोषण किया है. परन्तु इस शोषण के लिए एक और कारक ज़िम्मेदार है और वह यह है कि आधुनिक युग में मनुष्य की जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है और अब भी हो रही है. इस कारण भी पृथ्वी पर या उसके अन्दर उपलब्ध संसाधनों का शोषण बढ़ा है. संसाधनों की कमी के पीछे तीसरा बड़ा कारण आधुनिक काल में ख़ुद मनुष्य द्वारा पैदा की गयी जलवायु आपदा (climate emergency) है और ऐसा लग रहा है कि आने वाले समय में संसाधनों को कम करने में यह आपदा दूसरे दोनों कारणों से ज़्यादा बड़ी भूमिका निभायेगी. जलवायु वैज्ञानिक मानते हैं कि यदि अगले कुछेक दशकों में जलवायु परिवर्तन को रोका नहीं गया तो पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधन तेजी से ख़त्म होने लगेंगे तथा उनका ख़त्म होना मनुष्य व अन्य प्राणियों के लिए भयानक संकट पैदा कर देगा. वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित यह संकट वास्तव में शुरू हो चुका है और हम उसके भीतर हैं.
संसाधनों की कमी ने, या कम से कम ऐसा होने के अन्देशे ने, ऊपरी तथा निचले दोनों वर्गों में सत्तावादी सोच को बढ़ावा दिया है. ऊपरी वर्ग, जो कि लगभग हरेक देश में शासक वर्ग भी हैं, कम होते जा रहे तथा बचे-खुचे संसाधनों को अपने कब्ज़े में कर लेना चाहते हैं. इस प्रकार की इच्छा सत्तावादी सोच की ओर ले जाती है. देशों के बीच राजनीति में इस प्रकार की इच्छा कट्टर राष्ट्रवाद तथा अन्तत: युद्धवाद को बढ़ावा देती है.
जहाँ तक निचले वर्गों का सम्बंध है, इस प्रकार की परिस्थितियाँ एक तरफ़ असमानता व ग़रीबी पैदा करती हैं और दूसरी तरफ़ आम व्यक्ति में भी सत्तावादी व कट्टर राष्ट्रवादी सोच को पुख़्ता करती हैं. इसके अलावा, ये परिस्थितियां सभी वर्गों में विदेशियों, या यूँ कहें कि अप्रवासियों के प्रति विद्वेष की भावना को उकसाती हैं और उन्हें दक्षिणपन्थ की ओर धकेलती हैं. ऐसा लगता है कि आने वाले समय में ये सब रुझान और मज़बूत होने वाले हैं.
जैसे कि हमने पहले नोट किया है, समाजवादी आन्दोलन फैलने की सम्भावना- चाहे उसका रूप मार्क्सवादी हो या कोई और- सत्तावादी राज्यों में अधिक रहती है. परन्तु सत्तावादी राज्य कई प्रकार के होते हैं और उन सब में यह सम्भावना समान रूप में उपस्थित नहीं होती. इतिहास दिखाता है कि चरम सत्तावादी राज्य, विशेषकर जब वे फासीवादी हों या सेना के अधीन हों, समाजवादी ताकतों को ज़रा भी सहन नहीं करते व उन्हें बर्बरता से कुचल देते हैं.
ऐसे राज्यों में समाजवादी आन्दोलनों के फैलने या सफल होने की सम्भावना लगभग न के बराबर होती है. जलवायु संकट तथा संसाधनों पर होने वाले उसके दुष्प्रभाव व मनुष्य की लगातार बढ़ती जनसंख्या के चलते जिस प्रकार के सत्तावाद की ओर दुनिया बढ़ती दिखायी दे रही है, वह कट्टर राष्ट्रवादी व युद्धवादी या यूँ कहें कि फासीवादी रूप अख़्तियार कर सकता है. इसलिए समाजवाद की ज़रूरत होते हुए भी ऐसे विश्व में उसके फलने-फूलने की सम्भावना कम लगती है.
अन्त में यह कहना ज़रूरी है कि जिस प्रकार के समाजवादी राज्य 1917 की अक्तूबर क्रान्ति के बाद पूर्वी यूरोप तथा बाद में चीन व कुछ और देशों में स्थापित हुए थे, वे एक मुआमले में किसी भी पूँजीवादी राज्य से भिन्न नहीं थे. इन राज्यों को चलाने वाली सरकारों में पृथ्वीवादी व पर्यावरणवादी सोच ज़रा भी नहीं थी. जिसके परिणामस्वरूप इन राज्यों ने भौतिक पदार्थ बनाने व उनका उत्पादन बढ़ाने के नाम पर पर्यावरण का काफी विनाश किया था. तब से लेकर अब तक पृथ्वीवादी व पर्यावरणवादी सोच काफी विकसित हो चुकी है और धीरे-धीरे इस सोच पर आधारित आन्दोलन ज़ोर पकड़ता जा रहा है. दुनिया की सरकारों पर यह दबाव बन रहा है कि वे विभिन्न क्षेत्रों में अपनी नीतियाँ बनाते समय पर्यावरणवादी सोच पर प्रमुखता से ध्यान दें या प्रमुख रूप से इस सोच को उन नीतियों का आधार बनायें. और कुछ सरकारें कुछ सीमा तक ऐसा कर भी रही हैं. परन्तु इस बात का सक्षम प्रमाण नहीं है कि दुनिया भर की वामपन्थी पार्टियाँ पर्यावरणवादी सोच को अपनाने की उतनी कोशिश कर रही हैं जितनी उन्हें करनी चाहिए, ख़ासकर तौर पर उस वक़्त जब जलवायु संकट हमारे सर पर है.
बीसवीं सदी में लम्बे समय तक अधिकतर वामपन्थी पार्टियाँ पर्यावरणवादी आन्दोलनों को न केवल अनदेखा करती रही हैं बल्कि उन्हें गैरजरूरी, यहाँ तक कि उन्हें मज़दूर-विरोधी मानती रही हैं. उनका यह रवैया अब ग़लत साबित हो चुका है और अब उचित समय है कि वे पर्यावरणवादी सोच को पूरी गम्भीरता से अपना लें. इसी में लोगों का और ख़ुद उनका भी भला है.
पिछले बीसेक वर्षों से कुछ वामपन्थी बुद्धिजीवी पर्यावरणवादी सोच का समर्थन करते आये हैं और उन्होंने मार्क्स और एंगेल्स की कृतियों में पर्यावरणवादी सोच को ढूँढने की कोशिश की है ताकि इस सोच को मार्क्सवादी आधार भी दिया जा सके. वामपन्थी पार्टियों को इन बुद्धिजीवियों के काम पर ध्यान देना चाहिए.
5.
आप हमेशा कहते हैं कि मनुष्य की जिज्ञासा ने पृथ्वी को विनाश की ओर धकेल दिया है. आम तौर आप ऐसी बातें वैज्ञानिक प्रगति के बारे में कहते हैं. लेकिन क्या जिज्ञासा का यह अतिक्रमण साहित्य और कलाओं के क्षेत्र में नहीं हुआ है? जिज्ञासा और साहित्य के सम्बन्ध पर कुछ कहें.
शिक्षा के आधुनिक सिद्धान्त में जिज्ञासा को सबसे ऊपर रखा गया है. यानी शिक्षा में उसे अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. यह कहा गया है कि विद्यार्थियों में, चाहे वे स्कूल में हों, कॉलेज में या विश्वविद्यालय में, चीजों के प्रति, समाजों के प्रति, प्रकृति, पृथ्वी और ब्रह्माण्ड के प्रति, इन सब के इतिहास के प्रति जिज्ञासा पैदा की जाये. जिज्ञासा को यह महत्वपूर्ण स्थान इसलिए दिया गया है क्योंकि इस सिद्धान्त में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है ज्ञान प्राप्त करना. और यह माना गया है कि विद्यार्थियों में यदि जिज्ञासा होगी तभी वे सब चीजों के बारे में जानना चाहेंगे, खोजना चाहेंगे, ज्ञान प्राप्त करना चाहेंगे. इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति शिक्षा के इस सिद्धान्त में जिज्ञासा के अलावा दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है.
यहाँ यह समझना जरूरी है कि ज्ञान का इस सिद्धान्त में क्या मतलब है. ज्ञान से यहाँ मतलब है चीजों के बारे में, यानी पेड़-पौधों, जानवरों, अजीवित वस्तुओं, समाजों, पृथ्वी और ब्रह्माण्ड तथा उनके इतिहास के बारे में अधिक से अधिक जानकारी होना. अब, पहले तो यदि हम ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि जानकारी को यहाँ ज्ञान का पर्याय मान लिया गया है. दूसरा, शिक्षा के इस सिद्धान्त में दो मुद्दों को अनदेखा किया गया है या उन पर पर्याप्त मनन नहीं किया गया है. पहला यह कि मनुष्य के लिए इतनी जानकारी एकत्रित व प्राप्त करना क्यों जरूरी है.
दूसरा यह कि इस लगभग अन्तहीन जानकारी का उपयोग कैसे किया जाये. क्या उसका उपयोग विशुद्ध तौर पर पृथ्वी पर मनुष्य के स्वार्थी उद्देश्यों के लिए किया जाये, या उसका उपयोग विवेकपूर्ण ढंग से किया जाये ताकि उस उपयोग से मनुष्येतर प्राणियों, पृथ्वी, प्रकृति व पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे? इतिहास बताता है कि मनुष्य ने इस जानकारी का उपयोग मुख्यतया स्वार्थी उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया है, कि यह उपयोग मनुष्य-केन्द्रित रहा है, विशेषकर विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा आर्थिक क्षेत्रों में. और केवल इतना ही नहीं, न केवल इस जानकारी की प्राप्ति के लिए बल्कि उसके उपयोग के दौरान भी मनुष्य ने पृथ्वी, प्रकृति, पर्यावरण व मनुष्येतर प्राणियों को बहुत नुकसान पहुँचाया है, और जहाँ तक मनुष्येतर प्राणियों का प्रश्न है उन्हें भयानक कष्ट दिया है जो अब भी जारी है.
मेरा ख़्याल है कि ज्ञान तथा जानकारी को एक-दूसरे से अलग कर देना ज़रूरी है, और यह जानना ज़रूरी है कि ज्ञान क्या है. मैंने पहले भी लिखा है कि ज्ञान का व्यवहार से अभिन्न सम्बन्ध है और हमारा व्यवहार कैसा हो यह हमें नैतिकता (ethics) से पता चलता है. दूसरे शब्दों में, असली ज्ञान वह है जो हमें नैतिक (ethical) व्यवहार करने को कहता है. शेष सब जानकारी है और इस जानकारी का उपयोग करते हुए हमें कैसा व्यवहार करना है, यह हमें हमारा ज्ञान ही बताता है, जिसकी जड़ में नैतिकता है.
ध्यान दें कि मेरे विचार में नैतिकता और सदाचार (morality) एक ही अवधारणा नहीं है जबकि उन्हें अक़्सर एक ही चीज़ मान लिया जाता है. सदाचार विभिन्न समाजों में भिन्न प्रकार का हो सकता है क्योंकि विभिन्न समाज अपने सदाचार की समझ ख़ुद बनाते हैं और अपने लिए ख़ुद उसे तय करते हैं. जबकि नैतिकता एक सारभौमिक समझ है जिसे विभिन्न समाजों के अनुसार बदला नहीं जा सकता. इसका अर्थ यह है कि हमारा व्यवहार नैतिक समझ से तय होना चाहिए न कि सदाचार से संबन्धित समझ से.
अब प्रश्न उठता है कि नैतिक समझ, या जिसे पहले मैंने ज्ञान कहा है, वह क्या है. नैतिक समझ या ज्ञान का सारतत्व यह है कि हमारा व्यवहार ऐसा होना चाहिए जो दूसरे मनुष्यों, मनुष्येतर प्राणियों और प्रकृति में अजीवित वस्तुओं के प्रति संवेदनशील हो. यानी दूसरे मनुष्यों व मनुष्येतर प्राणियों को हमारे व्यवहार से चोट न पहुँचे, दुख या पीड़ा न हो.
जहाँ तक प्रकृति में तथाकथित अजीवित वस्तुओं का प्रश्न है, उनके साथ मनुष्यों का व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि उन्हें उससे कम से कम नुकसान हो और वे जितना अधिक सम्भव हो अपनी प्राकृतिक अवस्था में रह सकें.
मुझे लगता है कि गम्भीर साहित्य एक जिज्ञासु मन की उपज नहीं होता, बल्कि एक मननशील मन से पैदा होता है. बचपन से लेकर सहज ढंग से, और कई बार असहज, बहुत असहज ढंग से जो जानकारी साहित्यकार को मिलती है, प्राप्त होती है, उस पर सोचते हुए, उस पर मनन करते हुए कवि-लेखक साहित्य की रचना करता है. साहित्य लिखने वाले के पास जानकारी कई प्रकार से आती है: अपने निजी अनुभव से, अवलोकन से, स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के दौरान, अपनी इच्छा से चुनाव करके पुस्तकें पढ़ने से.
निश्चित ही जब कवि-लेखक या भावी कवि-लेखक अपनी इच्छा से चुनाव करके पुस्तकें पढ़ता है तो उसमें जिज्ञासा की भूमिका रहती है. कई बार कुछ लेखन करने के लिए, जैसे कहानियाँ, उपन्यास, ऐतिहासिक उपन्यास, ऐतिहासिक नाटक इत्यादि, लेखक को शोध करना पड़ता है, विभिन्न प्रकार की बहुत सी पुस्तकों से जानकारी एकत्रित करनी पड़ती है. इस तरह का शोध जिज्ञासा के बिना सम्भव नहीं होता.
परन्तु प्रश्न यह है कि जानकारी प्राप्त करने के बाद लेखक उसके साथ क्या करता है? क्या वह उसका वैसा ही उपयोग करता है जैसा एक वैज्ञानिक या इंजिनीयर या डॉक्टर या वकील या मिलिट्री अफसर करता है? उत्तर है, नहीं. जबकि ऊपर लिखित लोग उस जानकारी का उपयोग किसी प्रकार के दुनियावी उद्देश्य से, दुनियावी किस्म के कामों के लिए करते हैं, साहित्यकार उसके बारे में सोचता है, उस पर चिन्तन करता है और फिर उस चिन्तन-मनन के बाद चेतन, अर्धचेतन या अवचेतन मन से उसका उपयोग करते हुए एक ऐसी रचना पैदा करता है जो किसी के दुनियावी काम नहीं आ सकती, बल्कि उसे उदास कर सकती है, सुकून दे सकती है या उसे मननशील अवस्था में डाल सकती है, सोचने को विवश कर सकती है, जो धारणाएँ व मत्त उसे संस्कार में मिले हैं उनमें दरार डाल सकती है, कुल मिलाकर एक व्यक्ति के तौर पर उसका नवीनीकरण कर सकती है, उसे एक बेहतर व्यक्ति में बदल सकती है.
यहाँ एक चीज़ पर गौर करना चाहिए. हम एक वैज्ञानिक का उदाहरण लेते हैं. एक वैज्ञानिक का एक ही उद्देश्य होता है: जानकारी प्राप्त करना. जो भी प्रयोग, शोध, गणित वह करता है और उनके आधार पर जो खोज वह करता है, उससे उसे कुछ नयी जानकारी मिलती है जो अन्तत: सरकारों, कॉर्पोरेटों या मिल्ट्री द्वारा इस्तेमाल की जाती है. यानी वह कुछ ऐसी ताकतों के हाथों में चली जाती है जो कुछ सीमा तक उसका सदुपयोग करते हैं पर अधिकतर उसका दुरुपयोग करते हैं.
अब यह साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि भूमण्डलीय ताप तथा जलवायु संकट, जो इस वक़्त हमारे सिर पर तलवार की तरह लटक रहे हैं और आने वाले समय में पृथ्वी पर जीवन को लगभग नष्ट कर सकते हैं, उनके पीछे जो तीन बड़े कारण हैं उनमें से एक वैज्ञानिक खोजें और उन पर आधारित प्रौद्योगिकी है. दूसरे शब्दों में, एक वैज्ञानिक अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए खोज करता है और नयी जानकारी प्राप्त करता है, लेकिन वह इस बात की विशेष चिन्ता नहीं करता कि उसके द्वारा खोजी गयी जानकारी का उपयोग कौन करेगा और कैसे करेगा, उससे कितना नुकसान होगा और कितना फायदा. वह अपना ज्ञान बेच देता है, उसके परिणाम जो भी हों. यानी उसका व्यवहार नैतिकता पर आधारित नहीं होता.
परन्तु एक साहित्यकार अपनी जिज्ञासा द्वारा प्राप्त जानकारी को काफ़ी हद तक ज्ञान में बदल देता है, ज्ञान जो उसकी रचनाओं में समाया और बिखरा होता है. और एक समझदार पाठक उस ज्ञान को ढूँढ लेता है, उसे समझने की कोशिश करता है, कुछ हद तक समझ जाता है और इस प्रकार कुल मिलाकर समाज को फ़ायदा होता है.
इस प्रकार मैं कहूँगा कि गम्भीर साहित्य विज्ञान से श्रेष्ठ है और एक गम्भीर साहित्यकार एक वैज्ञानिक से ज़्यादा गुणी-ज्ञानी व्यक्ति होता है. थोड़े से शब्दों में कहना हो तो एक वैज्ञानिक जानकारी पैदा करता है, अक्सर बिना यह परवाह किये कि उस जानकारी का क्या और कैसा इस्तेमाल होगा. जबकि एक श्रेष्ठ साहित्यकार ज्ञान पैदा करता है जो समाज में सोच और संवेदन को सूक्ष्म बनाता है और लोगों को बेहतर व्यक्ति बनने में मदद करता है.
6.
हमारी अनौपचारिक बातचीत में एक बात यह निकलकर आयी थी कि आप हिन्दी साहित्य बहुत कम पढ़ते हैं और आपने कहा कि आपकी साहित्यिक खुराक़ विदेशी साहित्य अधिक रही है. ऐसे में एक सवाल यह उत्पन्न होता है कि हिन्दी का साहित्यकार होते हुए भी आप हिन्दी साहित्य कम क्यों पढ़ते हैं? ये भी एक पहलू है कि हिन्दी के भीतरी लोग विदेशी साहित्य से बचते हैं और विदेशी साहित्य पर बातचीत करने वालों पर स्थानीयता को अनदेखा करने का आरोप लगाते हैं. यहाँ मेरी राय तो आपके पक्ष में है: मैं साहित्य को स्थानीय या वैश्विक में बाँट कर नहीं देखता. मेरे लिए हर भाषा और भूगोल का साहित्य एक वृहत्तर सीमाहीन इकाई है. इस बारे में आपके क्या विचार हैं?
मुझमें एक प्रवृत्ति शुरू से ही रही है. मुझे यथार्थ की बजाय काल्पनिक ने या फंतासी ने हमेशा ज़्यादा आकर्षित किया है. इसके पीछे एक बड़ा कारण रहा है. अपने लगभग अति-संवेदनशील स्वभाव के कारण बचपन से ही अपने आसपास के यथार्थ ने सदा मुझे त्रस्त किया है. इसलिए सदा मैंने यथार्थ से बचने की कोशिश की है.
इस प्रवृत्ति ने इस बात में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी कि मैं पढ़ने के लिए किस प्रकार की पुस्तकें चुनूँगा और देखने के लिए किस प्रकार की फिल्में चुनूँगा. यह भी एक कारण था कि मैंने स्कूल और बाद में कॉलेज के दिनों में जासूसी उपन्यासों को पढ़ा क्योंकि उनका वास्तविकता से बहुत कम सम्बन्ध होता है. और अपनी इसी प्रवृति के चलते मैंने हिन्दी कवियों को तो पढ़ लिया और उनमें से अपने पसन्दीदा कवियों को चुन लिया जिनको कभी-कभार मैं अब भी पढ़ लेता हूँ, लेकिन हिन्दी के गल्प को, जो लगभग सदा ही यहाँ के यथार्थ पर केन्द्रित होता है, मैंने थोड़ा सा चखने के बाद छोड़ दिया.
यहाँ के यथार्थ के बारे में जो कुछ मुझे जानना होता है वह मैं समाचारपत्रों के माध्यम से जान लेता हूँ. गल्प के माध्यम से मैं उस यथार्थ में और नहीं घुसना चाहता. उसकी बजाय मैंने विदेशी गल्प पढ़ा, और अब भी पढ़ता हूँ, जहाँ का भूगोल, इतिहास तथा सामाजिक और सांस्कृतिक यथार्थ यहाँ से भिन्न था. वह मेरे लिए एक नयी दुनिया थी और एक काल्पनिक संसार से भिन्न नहीं थी. इसी तरह पिछले लगभग 30 वर्षों से मैंने जो हिन्दी और भारतीय फिल्में देखी हैं वे लगभग न के बराबर हैं. लेकिन इन्हीं वर्षों में मैंने विदेशी फिल्मों को लगातार देखा है. हाल के वर्षों में मेरी यह प्रवृत्ति यहाँ तक प्रभावी हो गयी है कि विदेशी साहित्य और फिल्मों में भी अब मैं केवल विशुद्ध: काल्पनिक तथा फैंटैस्टिक साहित्य ही पढ़ना चाहता हूँ और इसी प्रकार की फिल्मों और टी.वी. सीरिअलों का चुनाव करना चाहता हूँ.
केवल एक क्षेत्र है जिसमें मैं यथार्थ पर आधारित विदेशी गल्प पढ़ लेता हूँ, बल्कि बहुत उत्सुकता से पढ़ता हूँ, और उस पर आधारित विदेशी फिल्मों को देख लेता हूँ. ये वे पुस्तकें व फिल्में होती हैं जो इकोलॉजी यानी परिस्थितिकी पर या मनुष्यों और मनुष्येतर जानवरों के बीच सम्बन्धों पर केन्द्रित होती हैं, क्योंकि पिछले कई वर्षों से ये विषय मेरे सबसे ज़्यादा प्रिय विषयों में हैं.
जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि कुछ लोग विदेशी साहित्य को पढ़ने और उस पर बातचीत करने वालों पर स्थानीयता को अनदेखा करने का आरोप लगाते हैं, तो मुझे इन बातों की कोई परवाह नहीं. मैंने वही पढ़ा है, और आगे भी पढूँगा, जो अपने स्वभाव के अनुसार मैं पढ़ना चाहता हूँ या पढ़ सकता हूँ. हालाँकि कहीं भी लिखा जाने वाला साहित्य अक़्सर क्षेत्रीय प्रभाव से बच नहीं पाता, तब भी अपने देश या क्षेत्र में या अपनी भाषा में लिखे गये साहित्य को पढ़ा ही जाये यह मैं ज़रूरी नहीं मानता. इस मुआमले में कहीं भी पैदा होने वाला कवि-लेखक स्वतन्त्र है और क्षेत्रीयता के नाम पर उसे बाँधा नहीं जा सकता. साहित्य कोई देश नहीं जिसके आप नागरिक हैं और इस कारण आपसे अपने देश या क्षेत्र या भाषा में लिखे गये साहित्य के प्रति निष्ठा की अपेक्षा की जाये. पूरी दुनिया में कहीं भी लिखे गये या लिखे जा रहे साहित्य के साथ आप केवल व्यक्तिगत सम्बन्ध ही बना सकते हैं तथा आपसे बाहर कोई भी ताकत उस सम्बन्ध के सन्दर्भ में आपके ऊपर कोई जोर-जबरदस्ती नहीं कर सकती न ही उसे ऐसा करने का अधिकार है.
इस प्रकार यह सम्भव है कि साहित्य के लिखे जाने में स्थानीय की कम या ज़्यादा भूमिका हो- वह हमेशा होती ही है यह कहना ज़रा कठिन है- परन्तु किसी भी पाठक द्वारा साहित्य को पढ़े जाने के सन्दर्भ में स्थानीय की कोई अनिवार्य भूमिका नहीं होती, न ही होनी चाहिए.
वास्तव में यह प्रश्न भी उठाया जा सकता है कि क्या किसी क्षेत्र विशेष में लिखे गये साहित्य पर स्थानीय का प्रभाव होता ही है और इसलिए सिर्फ़ इस कारण कि वह एक क्षेत्र विशेष में लिखा गया है उस पर स्थानीयता का ठप्पा लगाया ही जाये. असल में किसी भी साहित्यकार द्वारा लिखे जा रहे साहित्य के एकाधिक स्रोत होते हैं और कई बार उन स्रोतों में से एक भी स्थानीय नहीं होता. अतः जब किन्हीं साहित्यिक कृतियों के सारे स्रोत कहीं बाहर स्थित हों, तब उनके बारे में सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि उन्हें लिखते समय कवि या लेखक एक क्षेत्र विशेष में रह रहा था, बस. यहाँ यदि मैं अपनी कविताओं की बात करूँ तो मैं कह सकता हूँ कि उनमें अनेकों ऐसी कविताएँ हैं जिनका भारत में किसी क्षेत्र विशेष से कुछ लेना-देना नहीं. उनके स्रोत या जिन चीजों ने उन्हें उत्प्रेरित किया वे सब के सब भारत या हिन्दी-भाषी क्षेत्र से दूर कहीं बाहर स्थित थे.
7.
आपने हिन्दी और अँग्रेजी में अब तक कुल 13 पुस्तकें प्रकाशित की हैं, जिनमें कविताएँ, दर्शन और राजनैतिक दर्शन की पुस्तकें शामिल हैं. इसके अलावा आपने आठ पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया है. क्या आपको कभी गल्प लिखने की इच्छा नहीं हुई- मसलन कहानियाँ या उपन्यास? आपने दुनिया के कई महान उपन्यास और लेखक पढ़े हैं. क्या उन्हें पढ़ते हुए कभी एक बार भी गल्प पर हाथ आजमाने की इच्छा नहीं हुई?
असली बात यह है कि बात को कथा या कहानी के रूप (narrative form) में कहना मेरे लिए स्वाभाविक और सहज है. जब कोई मुझसे प्रश्न पूछता है, चाहे वे सिद्धान्त या दर्शन से सम्बंधित ही क्यों न हों, यदि मैं अपने-आप को रोकूँ नहीं तो मेरा उत्तर नैरेटिव फॉर्म में आना शुरू हो जाता है. शायद आपने देखा हो कि पिछले वर्षों में मेरी बहुत सी कविताएँ भी, जो कि अक़्सर छोटी होती हैं, नैरेटिव फॉर्म में आयी हैं और आजकल भी ऐसा हो रहा है. इसलिए यदि मैंने गल्प नहीं लिखा तो वह इसलिए नहीं था कि मैं उसे लिख नहीं सकता था.
वास्तव में 28 वर्ष की उम्र के बाद मैंने कहानियाँ लिखना शुरू किया था और मैंने पन्द्रह कहानियाँ लिखीं जिनमें से एक बहुत लम्बी थी- लगभग 90 पृष्ठ. लेकिन एक दिन जब मैं काफ़ी ख़राब मन:स्थिति में था, मैंने उन्हें फिर से पढ़ा. उस मन:स्थिति में वे मुझे अच्छी नहीं लगीं और मैंने उस रजिस्टर को जला दिया जिसमें वे लिखी हुई थीं. बाद में जब भी मैंने उन कहानियों के बारे में सोचा, मुझे लगा कि वे काफी अच्छी कहानियाँ थीं और कि मैंने नाहक ही उन्हें जला दिया.
लेकिन यह भी सच है कि बचपन से ही मैंने भविष्य की कल्पना में अपने-आप को एक कवि के रूप में ही देखा. (थोड़ा बड़ा होने पर उसमें एक चिन्तक का बिम्ब भी जुड़ गया.) और दस-ग्यारह वर्ष की उम्र से ही जब मैं बच्चों की पत्रिकाएँ पढ़ता था तो उनमें छपी कविताएँ देखकर मैं कविताएँ लिखने की कोशिश ही करता था, कहानियाँ नहीं. और इस प्रकार मेरी पहली कविता चौदह वर्ष की उम्र में प्रकाशित हुई. इसका अर्थ यह है कि मुझमें गल्पकार की बजाय कवि ज़्यादा प्रभावी था और जैसा कि अब हम कह सकते हैं अब तक वही प्रभावी है- क्योंकि मैंने दुबारा गल्प लिखने की कोशिश नहीं की और केवल कविताएँ ही लिखीं या फिर दार्शनिक किस्म के लेख.
मैंने पहले एक साक्षात्कार में कहा था कि हम कवि या लेखक जन्म से ही होते हैं, और कि जो चीज़ हमसे लिखवाती है वह प्रतिभा नहीं होती बल्कि वह एक अत्यन्त शक्तिशाली प्रवृत्ति होती है जिसे अँग्रेज़ी में drive कहते हैं. यह प्रवृत्ति यह भी तय करती है कि हम मुख्यतया कविता लिखेंगे या गल्प या कुछ और. अपने बारे में अब मैं कह सकता हूँ कि मेरे भीतर की इस प्रवृत्ति ने यही तय किया कि मैं कविता लिखूँगा और उसके अलावा दार्शनिक किस्म का लेखन करूँगा.
8.
त्रिवेणी कला संगम में विचरते हुए और कलाकृतियों को देखते-परखते हुए कलाकृतियों के अर्थ से जुड़ा हुआ एक प्रश्न आया था: क्या कोई लेखक या कलाकार अपनी रचना की अर्थभूत व्याख्या कर सकता है? क्या हमें कलाकृतियों के अर्थ ढूँढने का श्रम करना चाहिए? यथार्थवादी रचनाओं, जिनमें अर्थ स्पष्ट होता है, के सन्दर्भ में अर्थ को किस तरह से परिभाषित करेंगे?
यदि कविता, कहानी, उपन्यास इत्यादि की बात करें तो शुरू से ही यह माना जाता रहा है कि उन्हें लिखने या रचने वाले (जिसे अँग्रेज़ी में author कहते हैं) के मन में कुछ विचार या कुछ बातें होती हैं जिन्हें वह पाठक तक पहुँचाना चाहता है. दूसरा, यह भी आम धारणा रही है कि लेखक या रचयिता को पता होता है कि उसकी रचना में क्या कहा गया है या उसके क्या अर्थ हैं.
1946 के आसपास पहले फ्रांस के आलोचक, दार्शनिक और उपन्यासकार मौरिस ब्लाँछो (Maurice Blanchot) ने इन धारणाओं को चुनौती दी और बाद में 1960 के दशक के दूसरे भाग में फ्रांसीसी चिन्तक रोलाँ बार्थ (Rolland Barthes) तथा बेल्जिन्याई मूल के अमरीकी आलोचक पॉल दी मान (Paul de Man ) ने भी अपने-अपने ढंग से यही किया.
यदि बहुत संक्षेप में कहें, तो मौरिस ब्लाँछो के अनुसार (वे न केवल साहित्य को बल्कि दर्शन को भी लेखन, अँग्रेज़ी में writing, कहना ज़्यादा पसन्द करते थे) भाषा का स्वभाव (और यहाँ वे बोलचाल की भाषा की बात नहीं कर रहे थे) ऐसा होता है कि वह स्वयं ही अपने-आप को लिखती है. ऐसा कहकर उन्होंने न केवल भाषा को सम्पूर्ण स्वायत्तता (agency) प्रदान कर दी बल्कि लेखक को भी पूरी तरह खारिज कर दिया.
1967 में अपने प्रसिद्ध लेख “लेखक की मृत्यु” (“The Death of the Author”) में रोलाँ बार्थ ने कहा कि यह ठीक है कि रचना (या पाठ, text) लेखक द्वारा लिखी जाती है और यह सम्भव है कि उसे लिखते हुए कुछ बातें, कुछ चीज़ें उसके मन में होती हैं जिन्हें वह प्रकट करना चाहता है, लेकिन लिखे जाने के बाद रचना लेखक से अलग हो जाती है, उससे स्वतन्त्र हो जाती है और इस कारण उसके भीतर जो अर्थ हैं उन्हें खोलने, बताने का उसका अधिकार, जो तब तक सिर्फ़ उसी का अधिकार माना जाता था, ख़त्म हो जाता है.
रोलाँ बार्थ के अनुसार लेखक से स्वतन्त्र हो जाने के बाद रचना विभिन्न व्याख्याओं के लिए खुल जाती है और ये व्याख्याएँ पाठकों द्वारा की जाती हैं. कुल मिलाकर बार्थ ने लेखक से रचना पर व उसके अर्थों को जानने, खोलने का सर्वाधिकार छीन लिया, और यह अधिकार पाठक को भी देकर रचना को एक ऐसा पाठ (text) घोषित कर दिया जो बहु-अर्थों से भरा रहता है.
अपने प्रसिद्ध लेख “अन्धापन और अन्तर्दृष्टि” (“Blindness and Insight”), जो 1960 के दशक में लिखा गया था और बाद में इसी शीर्षक के तहत प्रकाशित उनकी पुस्तक में संकलित किया गया था, में पॉल दी मान ने लिखा था कि लेखक अपने ही पाठ या रचना में जो अन्तर्दृष्टियाँ होती हैं उनके प्रति लगभग अन्धा होता है, यानी वह उन्हें पूरी तरह जान या देख नहीं पाता. इन अन्तर्दृष्टियों को पूरी तरह पाठक ही देख पाता है. दूसरे शब्दों में कहें तो पॉल दी मान के अनुसार चाहे लेखक अपने पाठ या रचना को कितना भी सोच-समझ कर लिखे, लिखे जाने के दौरान उसमें कई ऐसी अन्तर्दृष्टियाँ पैदा हो जाती हैं जिनका लेखक को कोई अहसास नहीं होता. उनका अहसास केवल पाठक को ही होता है. यहाँ फिर वही बात निकल कर आ रही है, वह यह कि उसके लेखन में क्या हो रहा है यह लेखक को पूरी तरह पता नहीं होता. जिसका दूसरा मतलब यह है कि लेखक से अलग और लेखक की ही तरह पाठ या रचना की अपनी एक अलग सत्ता होती है तथा उसके पास कम या ज़्यादा सीमा तक स्वायत्तता (agency) होती है जिसका उपयोग करते हुए इस या उस सीमा तक ख़ुद पाठ या रचना भी अपने-आप को रचती है; वह केवल रची ही नहीं जाती.
यदि मैं अपनी बात करूँ तो मैं पाता हूँ कि मैं मौरिस ब्लाँछो से ज़रा भी सहमत नहीं. ब्लाँछो के अपने लेखों या उनकी पुस्तकों को देखें तो (और यह सब मैंने ब्लाँछो पर अपने एक लम्बे पर्चे में लिखा है) यह ज़रा भी नहीं लगता कि उनके यहाँ भाषा ने अपने-आप को रचा है. उनके यहाँ साफ़ नज़र आता है कि उन्होंने भाषा को न केवल ख़ुद रचा है बल्कि उसके साथ खेल किया है. ब्लाँछो साहित्यिक व दार्शनिक दोनों तरह के लेखन के इतिहास में उन थोड़े से लेखकों में आते हैं जिन्होंने भाषा के साथ सबसे ज़्यादा खेल किया है. असल में यह कहना ज़्यादा सही होगा कि भाषा के साथ सबसे ज़्यादा, और बहुत उत्कृष्ट भी, खेल शायद मौरिस ब्लाँछो ने ही किया है.
बीसवीं सदी में एक अन्य दार्शनिक जिन्होंने अपनी कुछ पुस्तकों में भाषा के साथ काफ़ी खेला है, पर ब्लाँछो जैसी उत्कृष्टता के साथ नहीं (और जो अपने-आप को ब्लाँछो का शिष्य ही मानते थे), वे थे ज़ाक देरिदा (Jacques Derrida). और हम जानते हैं कि अपने दर्शन में उन्होंने भी भाषा को काफी स्वतन्त्रता प्रदान की थी और लेखक को पार्श्व में ही रखा था. परन्तु वास्तविकता यह है कि पश्चिमी दर्शन के इतिहास में ऐसे कम ही दार्शनिक हुए हैं जिनकी अपने लेखन में अपनी शैली और अपनी भाषा के माध्यम से, और उनकी वजह से भी, इतनी भारी और इतनी स्पष्ट उपस्थिति (देरिदा इसे présence, अँग्रेज़ी में presence कहते थे) नज़र आती है. अतः इस मुआमले में जैसे ब्लाँछो से, उसी तरह देरिदा से भी सहमत होना कठिन है.
जहाँ तक रोलाँ बार्थ का सम्बन्ध है, मुझे उनकी यह बात सही लगती है कि लिखे जाने के बाद पाठ या रचना लेखक से अलग हो जाती है, उसकी व्याख्या करने का उसका एकाधिकार समाप्त हो जाता है और वह एकाधिक व्याख्याओं के लिए खुल जाती है. परन्तु इसे “लेखक की मृत्यु” करार दे देना उचित नहीं लगता. यह ठीक है कि अपने पाठ या रचना में अन्तर्निहित सभी अर्थ लेखक को पता नहीं होते. लेकिन तब भी ये सभी अर्थ रचना या पाठ में इसी कारण होते हैं क्योंकि लेखक ने पहले उस पाठ या रचना को लिखा होता है. दूसरे शब्दों में, रचे जाने के बाद रचना चाहे लेखक से स्वतन्त्र हो जाती है, तब भी उसका सम्बन्ध लेखक से बना रहता है, और निश्चित ही, किसी भी पाठक की तरह, उसकी एक व्याख्या विशेष लेखक भी कर सकता है, जो सम्भव है किसी पाठक की व्याख्या से ज़्यादा सही और सम्पूर्ण हो. अपनी रचना के सन्दर्भ में यह अधिकार लेखक के पास बना रहता है.
इस तरह, यदि हम पॉल दी मान की तरफ़ आयें तो यह कहा जा सकता है कि लेखक अपनी रचना के सम्बन्ध में बहुत कम अन्धा होता है; उसके भीतर छुपी हुई बहुत सी अन्तर्दृष्टियों को वह न केवल देख पाता है, बल्कि उनमें से अधिकतर अन्तर्दृष्टियाँ ख़ुद उसने ही पैदा की होती हैं.
9.
आपके साहित्य में मनुष्येतर समाजों, यानी पशुओं, पक्षियों, वृक्षों, कीट-पतंगों और समूचे पर्यावरण को लेकर चिन्ता और उन पर केन्द्रित मार्मिक चिन्तन के स्वर उभरते हैं. आपकी प्रेम कविताएँ भी बहुत बेधक स्वर में दिल में उतरती है- जैसे कि वे किसी अन्तहीन प्रतीक्षा और हूक के रास्ते से होकर आती हैं. आपके साहित्य को मैं प्रकृति-तत्व मानता हूँ जैसे फर्नांदो पेसोआ की कविताएँ जिनमें घास के एक तृण का ऐसे ज़िक्र होता है मानो घास का वह तृण कविता की उस पंक्ति के साथ प्रकृतिबद्ध है. एक कवि के रूप में अपनी इस यात्रा के बारे में हमें कुछ बताना चाहेंगे?
हालाँकि मैंने 11-12 वर्ष की उम्र में कविताएँ लिखना शुरू कर दिया था, तब भी 18 की उम्र के बाद ही, जब मैं पढ़ाई छोड़कर एक वर्कशॉप में मेकैनिक का काम कर रहा था, मैंने नियमित ढंग से लिखना शुरू किया. इस उम्र में मैं प्रसिद्ध अमरीकी कवि वाल्ट व्हिटमैन की कविताएँ भी पढ़ रहा था और निश्चित ही मेरी उन शुरुआती कविताओं पर उनकी शैली का प्रभाव था. इन वर्षों में मैंने काफी कविताएँ पंजाबी में भी लिखीं जो अभी तक अप्रकाशित हैं. मेरी पंजाबी कविताएँ लगभग सारी की सारी पर्यावरण, विशेषकर पक्षियों और दुनिया में उनके अस्तित्व से जुड़ी हुई थीं. जब मैं ये पंजाबी कविताएँ लिख रहा था तो मैं हरियाणा के एक छोटे शहर टोहाना के एक छोटे से सरकारी कॉलेज में बी.ए. के दूसरे और तीसरे वर्षों में था.
कॉलेज के बाद मेरा अधिकतर समय या तो कसरत करने में बीतता था (मैं कुश्ती करता था, कबड्डी खेलता था तथा गोला फेंकता था) या फिर शहर से बाहर नहरों के पास खेतों में बीतता था. वहाँ दो नहरों के बीच छोटा सा एक जंगल भी था. और हमारे शहर के दोनों तरफ़ चार नहरें थीं जिनमें से दो बहुत चौड़ी थीं और उनका पानी आवेग से बहता था. इन बड़ी नहरों में नहाना और तैरना मैं अक्सर करता था.
मतलब यह कि पर्यावरण व जानवरों के प्रति संवेदन मुझमें शुरू से ही था और वह उसी वक़्त मेरी कविताओं में आना शुरू हो गया था. ध्यान दें कि उस समय पर्यावरण प्रदूषण, भूमण्डलीय ताप (global heating) व जलवायु आपदा (climate emergency) को लेकर इतना हो-हल्ला अभी शुरू नहीं हुआ था, क्योंकि मैं 1970 के दशक के शुरू के वर्षों की बात कर रहा हूँ.
मई 1977 से जून 1983 तक मैं सेना में अफसर था. सेना से त्यागपत्र देने के बाद मैंने पंजाबी में लिखना छोड़ दिया और तब से मेरी सभी कविताएँ हिन्दी में ही लिखी गयी हैं. 1985 में मैं एम.फिल. व पीएच.डी. करने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, में आ गया. इन वर्षों में मैंने कविताएँ लिखना जारी रखा और इनमें से अधिकतर कविताएँ मज़दूरों व अन्य मेहनतकश लोगों के जीवन के बारे में थीं. (इस दौरान कुछ प्रेम कविताएँ भी लिखी गयीं.) इसी कारण 1987 में मुझे हिमाचल के जनवादी लेखक संघ तथा प्रगतिशील लेखक संघ ने अपने वार्षिक समारोहों में कविताएँ पढ़ने के लिए क्रमशः शिमला तथा मण्डी में आमन्त्रित किया.
मण्डी में त्रिलोचन जी भी आमन्त्रित थे. इस तरह मुझे उनसे मिलने व उनके साथ कविताएँ पढ़ने का अवसर मिला. तब तक वे हिन्दी के मेरे सबसे पसन्दीदा कवियों में आ चुके थे. इसी दौरान जनवादी लेखक संघ, हरियाणा, ने भी मुझे कविता पाठ के लिए कुरुक्षेत्र में आमन्त्रित किया. वहाँ मेरे साथ लालटू और सत्यपाल सहगल भी थे. इन दोनों का ज़िक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि इन्हीं वर्षों में विश्वविद्यालय के परिसर से हम तीनों एक साइक्लोस्टाइल पत्रिका निकालते थे, जिसके लिए चित्र उन दिनों लालटू की पार्टनर कैरन हेडॉक बनाती थीं. इस पत्रिका का शीर्षक था “हमकलम” और इसमें हम विश्व कविता के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करते थे.
लेकिन मुझे कविता पर अपनी पकड़ मज़बूत करने में काफी समय लगा. 1985 में मैं 30 वर्ष का था. अब तक (1982 में) मैंने एक संग्रह प्रकाशित किया था और वह भी स्व-प्रकाशित था. 1985 के बाद मुझे लगने लगा कि मैंने कविता लिखने के काम को साध लिया था और अपनी शैली भी विकसित कर ली थी. निश्चित ही 1985 और उन वर्षों में उसके बाद लिखी गयी कविताएँ पहले लिखी कविताओं से ज़्यादा अच्छी थीं. ऐसा कहते हुए मेरे मन में दो बातें हैं. पहला यह कि मेरा सोच और मेरी भावनाएँ पहले से ज़्यादा परिपक्व थीं. दूसरा, कविता के शिल्प पर मेरी पकड़ पहले से ज़्यादा मज़बूत हो गयी थी, जिसके कारण अब मैं अपने विचारों और अपनी भावनाओं को ज़्यादा साफ़, ज़्यादा सटीक और ज़्यादा कसे हुए ढंग से कविता में ढालने लगा था.
2002 में वाणी प्रकाशन ने मुझसे अपना अगला संग्रह उन्हें देने को कहा. और यह संग्रह 2003 में प्रकाशित हुआ. इस प्रकार मेरा दूसरा कविता संग्रह (रुस्तम की कविताएँ) 20 वर्ष बाद प्रकाशित हुआ. परन्तु यह पहले संग्रह से कहीं ज़्यादा परिपक्व था. इस संग्रह में दो विशेष चीजें थीं. एक तो इसमें तथाकथित प्रेम कविताओं की बहुलता थी. दूसरा, इसकी अधिकतर कविताओं में ज़बरदस्त इंटेंसिटी (intensity) थी.
इन दोनों चीजों के पीछे एक विशेष घटना की भूमिका थी. वह घटना थी 1990 में मेरा तेजी ग्रोवर से मिलना. इस मुलाकात के कारण 1990 के दशक में न केवल मैंने बहुत सी कविताएँ लिखीं, बल्कि एक मंजे हुए कवि के साथ रहने से एक कवि के तौर पर मुझे अपनी कविताओं को निखारने का अवसर भी मिला.
आज भी हम दोनों अपनी कविताओं के ड्राफ्ट एक-दूसरे को दिखाते हैं और जब उचित लगे तो सुझाव के अनुसार उनमें परिवर्तन करते हैं.
2003 के बाद मैं प्रेम तथा इस प्रकार के निजी विषयों से ज़रा बाहर निकला और अन्य विषय मेरी कविताओं में आने लगे. इस तरह मेरी कविताओं की रेंज बढ़ने लगी. तब भी वे निजी किस्म की कविताएँ ही बनी रहीं, इस अर्थ में कि वे मुझमें तथा मुझसे बाहर की दुनिया, मुख्यतया लोगों, के बीच सम्बन्धों तथा लेनदेन पर केन्द्रित रहीं.
तब से अब तक मेरे पाँच और कविता संग्रह तथा मेरी चुनी हुई कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जो मेरी पिछले लगभग बीस वर्षों में लिखी गयी कविताओं पर आधारित हैं. हाल के वर्षों में मेरी कविताओं की रेंज और भी बड़ी हुई है. साथ ही, कविता लिखने की मेरी शैली या यूँ कहें कि शैलियों और कविताओं की संरचना में भी परिवर्तन आये हैं. चिन्तनपरकता तथा दुनिया व जीवन को लेकर ऊहापोह मेरी कविताओं के मुख्य लक्षण रहे हैं और ये लक्षण अब भी बने हुए हैं. लेकिन इधर दुनिया, ख़ासकर मनुष्य की दुनिया के प्रति निराशा व विमुखता मेरी कविताओं में बढ़ी है और उन्होंने प्रकृति में मनुष्येतर जीवित व “अजीवित” प्राणियों तथा फंतासी की ओर एक मोड़ लिया है.
आदित्य शुक्ल
कुछ कहानियाँ आदि प्रकाशित |
कवि रुस्तम को समझने का रास्ता खुले यदि कभी तो मुझे वहाँ हाथ थाम कर ले जाइएगा। मुझे इस दिलफ़रेब अजनबी के साथ जीते हुए लाखों साल बीत गए। इस बातचीत के अंश साथ साथ पढ़ती भी रही हूँ और उम्मीद भी करती रही कि रुस्तम नाम के उद्दीप्त अंधकार से एक किरण मुझ निरीह तक भी आएगी
यहाँ समालोचन पर मेरे दो अज़ीज़ इंटेलेक्चुअलस के बीच बेहद रोमांचित करने वाली बातचीत दर्ज हो चुकी है। आदित्य को जब मैंने पहली बार फ़ेसबुक पर पढ़ा तभी से वह मुझे अपना – अपना सा लगता चला आ रहा है। मुझे उसकी बिल्ली तक से प्यार हो गया है भले ही उसे मैंने आज तक देखा नहीं है।
सबसे पहले अरुण देव और आदित्य को प्रणाम करती हूँ कि इस शानदार ख्याली पुलाव को अंततः परोस देने में वे सक्षम हुए।
आदित्य के लिए जो दुआएँ मेरे हृदय से फूटती हैं वे नास्तिक लोग ही कर सकते हैं, जिनमें आस्था की कोई कमी नहीं, जो फ़ाख्ता की गुलाबी ग्रीवा ही में सत्य को खोजने का प्रयास करने लग जाते हैं और इतने अँधेरे में भी इस पृथ्वी के असहय सौंदर्य से जिनकी आंखें चुंधिया जाती हैं।
आदित्य ज़रूर अपनी बिल्ली की आँखों से प्रश्न खींच कर लाता है….
लाओ भाई, और प्रश्न लाओ। तुम जैसे प्रश्नकर्त्ता सभी के नसीब में आयें
अब कोई और भी आएगा जो रुस्तम से कुछ ज़ाती किस्म की गुफ़्तगू करेगा और उस संवाद की शुआओं में मुझे रुस्तम को थोड़ा और अजनबी हो जाते हुए देखने के मौका मिलेगा।
आप सभी का हृदय से आभार!
बहुत अच्छी बातचीत। आदित्य ने सवाल करने में तार्किकता और विनय को जैसे साधा है रुस्तम ने उतनी ही सच्चाई और आडम्बरहीनता से जवाब दिए हैं।
तेजी, अंबर पांडेय और महेश वर्मा की टिप्पणियां दोहराने के सिवाय मेरे पास कहने को अधिक शब्द नहीं हैं। आदित्य को रुस्तम के साथ इतने महत्वपूर्ण संवाद के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, ऐसे पाठक की ओर से जो ऐसे वार्तालाप की प्रतीक्षा करता रहता है। तामझाम भरे साहित्यिक महोत्सव की तुलना में यह अधिक महत्वपूर्ण काम हुआ।
इस साक्षात्कार के लिए रुस्तम जी बधाई के पात्र हैं क्योंकि उन्होंने हर प्रश्न का जितने विस्तार, जितनी सरलता और जितने लगन से उत्तर दिया है वह उल्लेखनीय है और इस बातचीत में बहुत से महत्वपूर्ण मुद्दे प्रकाशमान हुए हैं और इनसे बहुत से नए सवाल अंकुरित होंगे जैसा कि अरुण जी ने कहा है। इतनी लंबी और विषयनिष्ठ बातचीत को समालोचन पर प्रकाशित करने के लिए अरुण जी का आभार।
मेरा आज का दिन सार्थक हुआ, बहुत बहुत आभार समालोचन 🙏🙏आभार आदित्य शुक्ल जी का भी जो इतने बेहतरीन प्रश्न पूछकर कवि रूस्तम की जमा पूंजी को बाहर लाकर हमें लाभान्वित किया। मुझे यह पढ़कर लग रहा है कि मैने अभी कवि रूस्तम को बहुत कम पढा़
पहले तो इस बहुत अच्छी बातचीत के लिए शुक्रिया! कई नए और ज़रूरी पहलू यहाँ सामने आये हैं. वैश्विक जलवायु परिवर्तन या climate change को लेकर मैं कुछ यहाँ जोड़ना चाहती हूँ. पहली बात तो यह कि पिछले तीन दशकों से जो डाटा वैज्ञानिक सामने ला रहे हैं, आख़िर उसी से यह सहमति बन रही है कि मनुष्य और पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों के सामने एक आसन्न संकट सामने है. इसीलिए निकट और दूरगामी जो भी रहस्य है उनकी पहली और फ़ैक्ट-बेस्ड प्रस्थापना का जो काम वैज्ञानिक करते हैं वह बहुत महत्व का है, उसके बाद उनका उपयोग ज़रूर सत्ता, सेना, व्यापार के लिए होता है, लेकिन समाज की चेतना, उसके जीवन की बेहतरी की बात भी उतनी ही इन खोजों से निकटि है. कोविड की वैक्सीन ने शेयर मार्केट में जैसे भी गुल खिलाए हों, कितना नफ़ा-नुक़सान का हिसाब-किताब रहा लेकिन इसने पूरे विश्व में मनुष्य के प्राणों की रक्षा की है. जब तक या वैक्सीन नहीं थी, उसका मंजर हमारे सामने था. climate change से जिस तरह जान-माल की तबाही अभी पाकिस्तान में आयी है, दुनिया के कई समुद्र तटीय क्षेत्रों में आई हैं, भविष्य में इस तरह की कई घटनायें होंगी. कई नए तरह के जीवाणु, विषाणु आदि महामारियाँ लाएँगे. इन सब संकटो से बचने के जो उपाय हैं, जान-माल के नुक़सान को कम करने के समाधान सिर्फ़ अच्छी सायंस और्र इंजीनियेरिंग से सम्भव होंगे. इतिहास, साहित्य, व अन्य कलाएँ अपना काम करेंगी, बड़े स्तर पर समाज को कुछ अन्य तरह से सोचने की तरफ़ मोड़ने का काम करेंगी–जो बड़े महत्व का है. साहित्य हो चाहे विज्ञान हो चाहे राजनीति हो या पर्यावरण आंदोलन इन सबको आख़िर किसी सिनेर्जी के साथ ही काम करना होगा. इनमें कुछ भी किसी से बेहतर और कमतर नहीं है.—सुषमा नैथानी
रूस्तम से आदित्य शुक्ल की बातचीत हमें न सिर्फ उस व्यक्ति विशेष रूस्तम से मिलाती है जो हम सभी की तरह एक आम आदमी तो है पर एक लेखक, कवि, राजनीतिक चिंतक और दार्शनिक के रूप में उसके तबदील होने की दास्तान का सफरनामा भी है। मुझे फ़ख्र है अपने 1985 – 1987 के कालखण्ड के अपने दोस्त पर और उसकी सार्वभौमिक सुस्पष्ट प्रकृतिवादी सोच पर… जो हमें मनुष्य, जीवन, समाज, राजसत्ता, मार्क्सवाद, संसदीय लोकतंत्र के बारे में नई दृष्टि एवं चेतना से भर देती है। सनद रहे कि इस बातचीत को प्रकाशित कर अरूण जी ने वाकई बहुत ही सराहनीय कार्य किया है।
यह बहसतलब बातचीत, संपन्नतादायक और विचारोत्तेजक है। गंभीर विश्लेषण और विचारशीलता के साथ।
हिंसा वाला प्रश्न लगभग अनुत्तरित रह गया है। सत्ता पाने के लिए की गई हिंसा पर कोई दो राय नहीं है। वहाँ सबकी सहमति माओ से है। असल मुश्किल सत्ता पाने के बाद की हिंसा, शक, सुबहा, नागरिकों पर स्टेट के क्रूरतम तरीक़ों का इस्तेमाल आदि से है। ये सब बड़ी समस्याएँ थीं। मसलन Poland या east Germany। आप वहाँ का साहित्य पढ़ लें, दिमाग की नसें ढीली हो जाती हैं कि क्या इन्हीं दिनों के लिए ये लोग शासन में आए थे। कम्युनिस्ट शासकों ने जैसे पर्ज के बहाने से हत्याएँ करवाई वह सब डरने की मुख्य वजहें हैं। असफलता की मुख्य वजह भी शायद वहीं है।
यूँ ही भटकता हुआ इधर आ गया था और बस इस जिज्ञासा के तहत सरसरी तौर पर देखने लगा कि आदित्य ने किस तरह के प्रश्न किए हैं। फिर तो समय निकलते पता ही नहीं चला और मैंने पाया कि बातचीत को शब्द-दर-शब्द पढ़ चुका हूं।
समृद्ध हुआ। समाजवादी क्रांति के भविष्य से लेकर जिज्ञासा/नैतिकता, जानकारी/ज्ञान के बारे में या पाठार्थ के बारे जिस स्तर की बात हुई है, वह सहेजकर रखने लायक़ है। बहुत बड़ी रेंज और बहुत गहरी समझ! बेशक, हर जगह सहमत या संतुष्ट नहीं हूं। मसलन, भाषा की अपने एजेंसी और पाठ के अर्थ या उसमें छिपी अन्तर्दृष्टियों की बात, शायद साक्षात्कार की सीमाओं के कारण, थोड़े सरलीकरण का शिकार हुई है। बार्थ को खारिज करते हुए रुस्तम एकाधिकार और अधिकार के अंतर के प्रति बहुत सजग नहीं लगे। ऑथर की अथॉरिटी खत्म होने और इस अर्थ में ऑथर के दिवंगत हो जाने से शायद इस बात का कोई संबंध नहीं कि लेखक एक व्यक्ति और कई बार पाठक/आलोचक व्यक्ति के रूप में जीवित रहता है और एक पाठ—भले ही वह उसका अपना लिखा हो—पर उसके बोलने का अधिकार कोई छीन नहीं सकता। उसकी व्याख्या “संभव है, किसी पाठक की व्याख्या से ज़्यादा सही और सम्पूर्ण हो,” यह कहना अधिकार को मान्यता देना है, लेकिन उसकी व्याख्या ही सबसे सही होगी, यह कहना प्राधिकार को मान्यता देना है। बार्थ को प्राधिकार से समस्या है। यह पक्ष इस बातचीत में धुँधला रह गया है, ऐसा मुझे लगता है। या फिर दलील मुकम्मल तौर पर आ नहीं पाई हैं। ऐसा मुझे मॉरिस ब्लाँको और पॉल डी मान के प्रसंग में भी लगा। शायद रुस्तम के लेखों से उनकी दलील को पूरा-पूरा जान पाऊँगा।
इस साक्षात्कार ने उन्हें पढ़ना अनिवार्य कर दिया।
दोनों भागीदारों को सलाम और अरुण देव को धन्यवाद!
यह बातचीत पूर्व में प्रश्नों से बच्चे वालों के लिए एक सबक की तरह है । साहित्य के लगभग सारे जटिल प्रश्नों के जवाब बेहद सहजता से यहां मिल रहे हैं । साहित्य के संदर्भ उठ रही गंभीर जिज्ञासाओं से रु ब रु होता यह साक्षात्कार एक मिसाल है । हिंदी लेखकों को इतने विस्तार में जाते मैने कम ही देखा । आपके श्रम का अभिवादन है ।
बहुत सुंदर और सार्थक संवाद. आदित्य का धन्यवाद
विगत वर्षों में हिंदी साहित्य में जो साक्षात्कार और संवाद मैं पढ़ पाया हूँ, अपने सरोकारों से प्रतिबद्धता के अर्थ में यह अप्रतिम और अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। सिर्फ़ नौ प्रश्नों में उपस्थित साहित्य और समाज (रचने और पढ़ने – दोनों ही उपक्रमों में) की ऐतिहासिक-वैश्विक चिंताओं को आदित्य ने जो विस्तार और गहनता दी है, वह उनके गंभीर चिंतन और अध्ययन की तस्दीक़ करता है। और, इन प्रश्नों के यथासंभव यथेष्ठ उत्तर दे कर रुस्तम ने यह पुनः सिद्ध किया है कि साहित्येतर विषय पढ़ने वाले लोग अधिक समर्थ और सामयिक रचनाकार क्यों होते हैं। यह एक सहेजने योग्य इंटरव्यू है जिन्हें सन्दर्भ-रूपों में इस्तेमाल किया जा सकता है, बहस करने और असहमत होने की गुंज़ाइश तो यह देता ही है। शुक्रिया आदित्य और अरुण देव जी।
साहित्य, समाज राजनीती, पर्यावरण से गुजरते हुए इस संवाद ने इतने छोर खोल दिए हैं कि यह अनेक बहस और लेखों का विषय हो सकता है। व्यवहारिक आदर्श, अन्तर्दृष्टियाँ, स्वायत्तता जैसे मूल्यों से गुजरते हुए यह यात्रा मानीखेज़ है।
पाठकों (रुस्तम जी के अनुसार इसकी रेंज को ध्यान में रखते हुए) को जितना जिम्मेदार होना चाहिए उतना महसूस नहीं हो रहा। वे वैसी प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहे, जितनी उनसे अपेक्षा है। उनकी प्रतिक्रिया इमोजी का पर्याय बनती जा रहीं हैं। इसके पीछे अनघड़ता का भी एक बड़ा हाथ है और खुद उस दबाव का भी जो किसी भी चीज को ठहरकर पढ़ने ही नहीं दे रहा। फिर समझ-कल्पना-दृष्टि की त्रयी अगर नैसर्गिक साहस की अपेक्षा अपने ख़ास भय से संचालित होने लगे तब क्या कहा जाये, इसपर दो मत नहीं।
बहुत सी तह खोलने के लिए रुस्तम जी का शुक्रिया। आदित्य शुक्ल की तैयारी के बारे में कहूँगा : बेहतरीन !