आपत्ति
|
वह सुअरिया थी जो मेरे घर के बग़ल की ख़ाली जगह में अपने बच्चों के साथ आबाद थी.
इसके पहले मैंने अक्सर उसे अपनी गली में खाने को कुछ पा जाने की फिराक में इधर से उधर दौड़ते हुए देखा. बहुत ही मोटी थी वह. मुश्किल से दौड़ पाती थी. लेकिन अपने लचकदार पैरों पर वह काफी फुर्तीली थी. लम्बी थूथन,छोटी आंखें जिनके दोनों तरफ नीचे तक नम लकीर- सी दिखती जो थूथन के कोरों तक जाती थी जैसे किसी तकलीफ के चलते उसके आंसू बहे हों. बड़े-बड़े कान थे जो हर आवाज़ को सुनने को चौकस थे. थनों के साथ पेट इतना बड़ा था, लगता ज़मीन को छूता चल रहा हो. ख़ैर, गली में घुसते ही वह अंदाज़ लगा लेती थी कि किस मकान और किस फ्लैट की किस मंजिल से कौन कब क्या फेंकने वाला है. कह सकते हैं, वह सबके टाइम को जानती-बूझती थी. वह काली सूकड़-सी बाई जो जया अपार्टमेंट की तीसरी मंजिल पर झाडू-बुहारी का काम करती है, उसी मंजिल से सड़क पर कचरा फेंकती. कचरा तो अख़बार में लपेट कर फेंकती. अब अख़बार कहीं उड़कर चला जाए और धूल- कचरा कहीं और जाए. ऐसे में उसकी क्या ग़लती! इस पर बूढ़े भावे ज़ोरों से चीखते-चिल्लाते
कि धूल-कचरा उन पर गिर रहा है और पड़ोसी इस पर हँस रहे होते तो कोई क्या कर सकता है ! लेकिन सुअरिया खुश होती कि जूठन उसके आगे गिरती है.
इसी तरह फ्लैट के सामने के मकान की किराएदारन बासी दाल भरा कटोरा सड़क किनारे गाय के आगे डालती कि वह खा लेगी लेकिन गाय सूंघ कर आगे बढ़ जाती. कुत्तों की टोली उसे देखती तक नहीं. सुअरिया दूर खड़े होकर इंतज़ार करती और आख़िरकार दाल उसे मिल जाती. जब वह हपर-हपर दाल खा रही होती तभी लाला की चहारदीवारी पर कटोरा बजता. कामवाली बाई रात की बची रसे की सब्जी इस तरह फेंकती कि आधी पीछे ज़मीन पर गिरती और आधी चहारदीवारी से बहती. कुत्ते और गाय इस तरफ़ देखते नहीं. यह सुअरिया ही होती जो किसी तरह अपने पिछले पैरों पर खड़े हो इस पर थूथन मारती. और तभी एक और चहारदीवारी के पीछे से हरी सब्जियों के अवशेषों के साथ बटर-जैम लगे ब्रेड के जले-अधजले टुकड़े गिरते जिन्हें पहले से खड़े कुत्ते चट कर जाते. हरी सब्जियों के अवशेषों पर गाय और सुअरिया के बीच छीना-झपटी मचती. इसमें जितना मिल पाता, सुअरिया अपने भाग्य पर खुश होती.
(दो)
वह सुअरिया मेरे दिमाग़ में इसलिए भी अटक गई और उसका जिक्र यहां कर रहा हूँ. एक दिन अपनी भागम-भाग में वह मुझसे टकरा गई थी. मेरी बेटी कालेज जाने की तैयारी में थी. और मुझे उसके लिए दूध- ब्रेड लाना था, गली के छोर की किराना दुकान से. देर न हो जाए इसलिए भीड़ के बावजूद सामान ले आया और गली में मुड़ रहा था कि उस सुअरिया से भिड़ंत हो गयी. भिड़ंत से मैं घबरा-सा गया. डर से कांप उठा. कहीं वह झूम न जाए, लेकिन सुअरिया ने ऐसा कुछ न किया. वह एकदम शांत थी और अपना थूथन उठा गीली आंखों से मुझे देख रही थी मानो पूछ रही हो कि आपको चोट तो नहीं लग गई ? जब मैं भयभीत बना रहा तो वह भारी स्नेह से देखने लगी. मानो कह रही हो- डरो नहीं. न मैं तुम्हें काटूंगी और न ही तुम्हारा थैला छीनूंगी. जो स्वेच्छया से मुझे देता है, मैं उसी को लेना चाहती हूँ. आपको मैं रोज़ाना देखती हूँ. अच्छे से जानती हूँ. भले मानुस लगते हो. यह बात अलग है कि आपने मुझे कभी कुछ खाने को नहीं दिया. वजह जाननी हूँ कि आप और आपकी घरैतिन ऑफिस की मारा-मारी में उलझे रहते हो और सुबह-सुबह घर से निकल जाते हो लेकिन आपकी वह बाई जो नाटे क़द की है,पतली-दुबली जो आपकी बेटी को शाम को स्टाप से ले आती है, वह मेरा ख़्याल रखती है. चहारदीवारी से दिखती तो नहीं लेकिन उसके पीछे से बेटी के बचे न्यूडल्स-ब्रेड जिनमें ढेर सारा जैम और बटर लगा रहता है, मुझे आवाज़ देकर फेकती है. उस वक़्त उसकी उँगलियाँ दिखती हैं. इसलिए आप मुझे माफ करें, दौड़ कर घर जाएँ और बेटी को स्कूल भेजने के लिए स्टाप पर खड़े हो जाएँ. स्कूल- बस आती ही होगी.
यह तो हमारा सारा इतिहास-भूगोल जानती है- सोचता मैं मुसकुराया. और वह मुझे देखती लचकदार पैरों से आगे बढ़ गई. सामने की बिल्डिंग से पुड़ा फेका गया था.
इस भिड़ंत के बाद वह मुझे कई दिनों तक गली में खाना पा जाने की फिराक में इधर से उधर डोलती दिखी. एक दिन तो वह अपने कई सारे नन्हे बच्चों के साथ उन्हें सम्हालती दौड़ती-भागती दिखी. मेरे घर के आगे से वह निकल रही थी. सहसा वह पल भर को ठिठकी. मुझे देखा फिर बच्चों की देखने लगी मानो बच्चों से कह रही हो कि यह एक ऐसा घर है उम्मीदों से भरा था जो तुम लोगों को कभी भूखों मरने नहीं देगा. आज इस जैसा घर हेरे न मिलेगा. सहसा बच्चे पल भर को ठिठके जैसे मां की बात पर यकीन कर रहो हों फिर एक-दूसरे को देखते मां के साथ गली के बाहर गुम हो गए थे.
फिर लम्बे समय तक वह दिखी न उसके बच्चे. मैं भी ऑफिस के काम से लम्बे समय तक बाहर रहा. सुअरिया दिमाग से पूरी तरह ग़ायब थी.
लेकिन उस दिन वह सुअरिया मुझे घर के बाहर दिखी. वह पेट से थी और अपने लचकदार पैरों से मुश्किल से चल पा रही थी. थन उसके ज़मीन से रगड़- से रहे थे. दरअसल वह बच्चे जनना चाहती थी. और इसके लिए उसे सुरक्षित जगह चाहिए थी. मेरे घर के बग़ल का ख़ाली पड़ा प्लाट उसे जँच रहा था. वह तीन तरफ़ से मकानों से घिरा हुआ था. सामने कँटीले तारों की फेंसिंग थी. अंदर बेर का एक घना पेड़ था और जंगली घासों से ढँका एक ऐसा कोना था जहां सुरक्षित रहा जा सकता था.
सुअरिया ने इस कोने को अपना आशियाना बना डाला. उसने चाक जैसा गोल गड्ढा खोदा और उसमें नरम-नरम घास-फूस और पन्नियों और चीथड़ों का गद्दा जैसा बनाया. और सुकून की सांस लेती उस पर पसर गयी. और अपने बच्चों के संसार में आने का इंतज़ार करने लगी.
एक दिन कँटीले तारों को दबा कर मैं ख़ाली प्लाट में घुसा और सुअरिया को देखने के ख़्याल से उस कोने की ओर बढ़ा जहाँ सुअरिया बच्चों के संसार में आने का इंतज़ार कर रही थी.
मुझे देख सुअरिया गुरगुराई मानों कह रही हो कि मैं यहाँ आ डटी हूँ. यह मेरा मुकम्मल ठीहा हो गया. अब मैं यहाँ से हटने वाली नहीं. न परेशान होना चाहती हूँ और न किसी को परेशान करूँगी. यह तय मानिए.
मैं क्या बोलता ? कौन यह मेरी जगह है ! डटी रह. अगर कहीं तेरा मरद है तो उसे भी ले आ.- उसे देखता मैं मुसकुराया.
(तीन)
वे भयंकर सर्दियों के दांत किटकिटा देने वाले दिन थे जब सुअरिया प्रसव-वेदना से तड़प रही थी. इधर रात में वह तड़प रही थी उधर गली के कुत्तों का दल आसमान की ओर मुंह कर एक स्वर में यह संदेश देता लग रहा था कि आबादी बढ़ाओ हम उसके स्वागत में एकजुट खड़े हैं!
आधी रात को सुअरिया दर्द से बेतरह किकियायी कि हमारी नींद टूट गई. हम बेतरह डर गए कि किसी अनिष्ट ने तो नहीं दरवाज़ा खटखटाया. तभी बात साफ़ हो गई जब नवागतों की धीमी-धीमी किकियाहट के साथ सुअरिया के गुरगुराने की आवाज़ें उठने लगीं.
सुबह जब मैं दबे पाँव सुअरिया के सामने आ खड़ा हुआ, सुअरिया को मेरी निःशब्द आहट का अंदाज़ा था. बावजूद इसके वह आंखें मीचे शांत भाव से बच्चों की ओर स्तन किए अपनी आत्मा का रस पिलाती पड़ी थी.
भारी प्रसन्न मैं उलटे पांव घर लौट आया.
जहाँ मैं भारी प्रसन्न था,वहीं पत्नी भयंकर नाराज़.
एक दिन वे तीखे स्वर में बोलीं कि उस महरानी को घर में रख लो.
मैं सिटपिटा गया. बोला- यही बात कहने को रह गई थी!
पत्नी बोलीं- सिलिया के इंतहान सिर पर हैं और यह रात भर किकियाती रहती है. इसके बच्चे अलग रात भर जान खाते रहते हैं. ऐसे में वह क्या पढ़े, खाक!!!दिन कालेज में निकल जाता है, शाम कोचिंग में. रात में न पढ़े तो कब पढ़े!!!
मैं सोच में पड़ गया. सुअरिया- परिवार की वजह सिलिया पढ़ नहीं पा रही है . यह बात सच है लेकिन पत्नी ने सुअरिया को लेकर जिस तरह से मुझे ज़लील किया, क्या यह उचित है ? मैंने सुअरिया को न शरण दी और इस न सिलसिले में किसी तरह की उसकी मदद की. मैं तो बस आशियाना बना लेने और बच्चों के साथ उसके आबाद होने पर खुश था लेकिन पत्नी ने ऐसी विष बुझी कटार घोंपी कि मैं न हँस पा रहा था, न रो.
पत्नी आगे बोलीं – आफत की परकाला को यहां से चलता करो. मैं कुछ नहीं जानती और न कुछ सुनना चाहती हूँ.
सिलिया सामने बैठी थी. पढ़ाई न हो पाने के कारण वह अंदर ही अंदर घुट रही थी. गीली आंखों उसने मुझे देखा.
मैं बेचैन हो गया. सिलिया का रूप देख अंदर ही अंदर घायल कर गया.
मैंने तय किया कि इस दिशा में ठोस क़दम उठाना ज़रूरी है.
दूसरे दिन जब मैं अपने दरवाज़े के बाहर आ खड़ा हुआ. ख़ाली प्लाट पर नज़र डाली. सुअरिया अपने आशियाने से निकल प्लाट के बीच में जहाँ बेर के झाड़ से बचकर मीठी धूप का चकत्ता था, आंखें मूंदे पसरी पड़ी थी. बच्चे उसके ऊपर चढ़े खेल रहे थे .
मुझे ख़ुशी भी हुई और इंतहा गुस्सा भी आया. ख़ुशी इस बात की हुई कि एक मूक जानवर जो हर जगह से हकाला जाता है, यहां अपने बच्चों के साथ कितना ख़ुश है. गुस्सा इसलिए कि इसकी वजह से सिलिया को पढ़ाई का भारी नुकसान हो रहा है. लाखों रुपये फीस के लग रहे हैं और वह अपने कॅरियर में असफल हो गयी तो कहीं की न रहेगी.
मैं चाह रहा था कि यह बला यहां से किसी तरह टल जाए. लेकिन यह बात कहने का मुझमें साहस न था.
सुअरिया से सिर्फ़ यह कहा- रात में तुम लोग बहुत जादा किकियाते हो, क्या बात है?
सुअरिया उठकर बैठ गई. बच्चे एक-एक कर आशियाने की तरफ़ भाग गए. वह बोली- बच्चे तो किकियाएंगे जब उन्हें दूध नहीं मिलेगा. उनकी जान बचाएं कि उन्हें दूध पिलाएं. गली के कुत्ते हमारी जान पे तुले हैं. जिस दिन से बच्चों को जना है, मैं उनको छोड़ के नहीं जा पा रही हूँ . न एक बूँद पानी पी पाई और न एक लुकमा पेट में जा पाया. दिन के उजाले में तो कम, रात में सब भेड़ियों की तरह अंगार छोड़ती आंखों से झूमते हैं. क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता !
कहीं और क्यों नहीं चली जाती!- मैं अपने मुद्दे पर आ गया .
कहीं दूसरा ठौर नहीं है. यहां तो फिर भी किसी तरह जान बचाएं हूँ. यहां से निकली तो सब चीथ डालेंगे.
मैंने एक रास्ता सुझाया- अपने मालिक से कह . वह क्यों नहीं तेरी हिफाजत करता.
आप तो जानते ही हो,वह नासपीटा कितना गंदा आदमी है. चौबीसों घंटे ताड़ी में डूबा रहता है. बीवी-बच्चों को मारता रहता है, ऐसे में मेरी क्या हिफाजत करेगा! हां, जब पैसे की जरूरत होती है तो मेरे बाल खुटकवा लेता है. बच्चे को उठा ले जाता है, कहता है, इसे अपने पास रखूंगा. कहता तो ऐसा है लेकिन नम्बर एक का बदमाश है, बच्चे का पता नहीं क्या करता, बेच आता है किसी के हाथ…
कहते हुए सुअरिया जोरों से रो पड़ी.
अब मैं गहरी सांसत में था. उसको यहां से निष्कासित करने का जो क़दम बढ़ाया था, डांवाडोल था. पत्नी-बेटी से सामना करने की हिम्मत न थी. छिपता फिर रहा था.
-क्या करूँ?- सोचता उस दिन सुबह जब मैं दूध लेने किराना दुकान की ओर जा रहा था, मोहल्ले के कुत्तों के दल ने मुझे घेर लिया. कुत्ते मेरे घर से कुछ न कुछ खाने को पा जाते थे इसलिए अब तक मेरा लिहाज कर रहे थे, कुछ बोल नहीं रहे थे, लेकिन अब यह लिहाज़ फालतू चीज़ लग रहा था .
एक कुत्ते ने जो काफ़ी मोटा और खूंखार किस्म का दीखता था, मुझे ऐसे देखा मानो कह रहा हो – साहब, आप हमारे साथ नाइंसाफी कर रहे हैं !
नाइंसाफी ! – उसे देखता मैं आश्चर्यचकित था.
नाइंसाफी नहीं तो क्या है ! आपने सुअरिया को शरण दे रखी है, वह हमारा हिस्सा चट कर जा रही है. हम भूखों मर रहे हैं.
तल्ख आवाज़ में मैं बोला- सुअरिया तो यह कह रही है कि तुम लोग उसकी जान के पीछे पड़े हो. उसे नोच खाना चाहते हो.
झूठ बोलती है वह – बेतरह गुस्सा कर वह बोला- कितने लम्बे समय से मैं इस गली में रह रहा हूँ. कभी कोई गलत काम किया हो बताएं?
उसने मुझे देखा और आगे बोला- आप ऐसा करो , उसे यहां से चलता करो ताकि हम ठीक से गुजर-बसर कर सकें.
कुत्तों की चालाकी मैं समझ रहा था. निरीह भाव से बोला- मैं कुछ नहीं कर सकता. तुम जानो और वह सुअरिया. मुझे बीच में क्यों घसीट रहे हो?
आप ही ने उसे शरण दे रखी है. मैं जानता हूँ- सहसा एक झबरीला और ऊंचे कद का कुत्ता गुस्से में भर उठा. बोला- कुछ ऊंच-नीच न हो जाए इसलिए हम सरेख रहे हैं …
धमकी दे रहे हो ! – मैं सख्त था.
वह बोला – यह धमकी नहीं, सलाह है.
(चार)
एक अजीब-सी यातना की चक्की में पिस रहा था मैं. एक तरफ़ पत्नी और सिलिया की मासूम नाराज़गी थी तो दूसरी तरफ़ कुत्तों की खूंखार मंशा. पत्नी और सिलिया को एक तरह से अपनी मजबूरी और सुअरिया और उसके मासूम बच्चों की जान के ख़तरे का हवाला देकर समझाया जा सकता है और न समझने की स्थिति में तटस्थ हुआ जा सकता है लेकिन कुत्तों के साथ क्या ऐसा संभव है? मैं सोच-सोचकर परेशान था.
और ऐसी ही परेशानी और ऊहा-पोह में मैं एक दिन सुअरिया के मालिक, राजू की झुग्गी पर जा पहुंचा. राजू उस वक़्त ताड़ी के नशे में था. वह खुश हुआ कि साहब उस गरीब के पास आए . जरूर वह किसी लायक है. मैंने उसे सौ रुपये का नोट पकड़ाया और सुअरिया परिवार को गंदे कुत्तों से बचाने की विनती की . बस इत्ता सा काम. आप टेंशन न लें. हमारा लड़का कल उसे हँका लाएगा. राजू के कहने पर मैं भारी ख़ुश हुआ.
मेरी यह ख़ुशी उस वक़्त तार-तार हो गई जब मैं शाम को ऑफिस से लौटा और सुअरिया को बेर के झाड़ के नीचे लहू-लुहान देखा. सुअरिया दर्द से बेतरह कराह रही थी. उसकी आंखों में आंसू थे और समूचा शरीर लट्ठों की मार से घायल था जिनमें से लहू चुचुआ रहा था. राजू ने उसकी यह गत इसलिए बनायी क्योंकि उसने एक अच्छे आदमी की बेवजह बुराई की. वह उसका इस्तेमाल भर करता है और भूखों मरने को हँकाल दिया है.
मैं एक गहरी पीड़ा से रो पड़ा.
लेकिन पत्नी और बेटी सिलिया ने मुझे इस पीड़ा से उबार लिया जब दोनों ने करुण स्वर में कहा कि सुअरिया की वजह से किसी तरह का डिस्टर्बेंस नहीं है. सुअरिया को यहाँ से न भगाया जाए.
जबसे सुअरिया ने बच्चों को जना तबसे वह अपनी जगह से एक क्षण को न हिली. जानती थी कि उसके निकलने पर अनिष्ट दबे पाँव वहां आएगा और उसे कहीं का न छोड़ेगा. लिहाजा उसने अपने दूध के जरिये शरीर का सारा रस बच्चों के हवाले कर दिया. कम से कम इस बहाने बच्चे तो बचे रहेंगे. और बच्चे थे कि सब कुछ से अनजान उसी के सहारे सांस लेते चले आ रहे थे.
लेकिन रस की भी एक सीमा थी जिसने सुअरिया को अपनी जगह से निकलने को मजबूर कर दिया. मेरे घर से सुअरिया को जो मिल रहा था, अत्यल्प था. इंसान किसी की भूख को शायद ही कभी समझ पाएगा. और जब समझ पाए तब काफ़ी देर हो चुकी होती है. खैर, सुअरिया बच्चों को छोड़ कर निकली. ठीक उसी वक़्त कुत्तों को इसकी भनक लग गयी. समूचे दल के साथ वे दबे पाँव आए और कँटीली फेंसिंग में आड़े-तिरछे होकर घुसने को हुए कि मैं ज़ोर से खांसा.
यह मेरी आपत्ति थी. कुत्ते मेरे आशय को समझते हुए भी न समझने का अभिनय कर रहे थे.
मैंने उन्हें लट्ठ दिखाया कि आगे बढ़ने की ग़लती की तो जान से हाथ धोना पड़ेगा ! इस समय सुअरिया नहीं है तो क्या हुआ, मैं तो हूँ ! कुत्ते मेरी इस गीदड़ भभकी पर हँसे जैसे कह रहे हों कि यह भी करके देख लो. लहास न गिरा दी तो हम कुत्ते नहीं !
तभी उन्होंने मुझे अपने पैने दांत दिखलाए.
सहसा एक काला खूंखार कुत्ता मुझ पर लपका. मैं सम्हल न पाया , गिर पड़ा.
बेतरह गुर्राते हुए उन्माद की हालत में वह मुझे काटने लगा .
मैं चीख रहा था और मुझे बचाने वाला कोई न था.
हरि भटनागर उत्तर प्रदेश के बहुत ही छोटे कस्बे राठ, हमीरपुर में 1955 में जन्म. अमर उजाला और हितवाद जैसे राष्ट्रीय पत्रों से सम्बद्ध रहे. सगीर और उसकी बस्ती के लोग, बिल्ली नहीं दीवार, नाम में क्या रखा है और आंख का नाम रोटी प्रकाशित कहानी संग्रह. दो उपन्यास- एक थी मैना एक था कुम्हार और दो गज़ ज़मीन प्रकाशित हैं. कहानियां उर्दू, मलयालम, मराठी, पंजाबी के साथ रूसी और अंग्रेजी में अनूदित.तीस वर्षों तक मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी, भोपाल की साहित्यिक पत्रिका साक्षात्कार के संपादन से संबद्ध रहे. रूस के पूश्किन सम्मान समेत देश के राष्ट्रीय श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, दुष्यंत कुमार सम्मान, वनमाली कथा एवं पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित. रूस, अमेरिका और ब्रिटेन की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक यात्राएं.वर्तमान में साहित्यिक पत्रिका रचना समय के संपादक. haribhatnagar@gmail.com |
हरि भटनागर हमारे सर्वश्रेष्ठ कथाकारों में हैं।अभिनंदन
जानवर और इंसान की दुनिया और उनकी जिंदगी के मर्म को छूती यह कहानी अपने कथ्य और शिल्प में बेजोड़ है। इसमें किसी अन्योक्ति का संकेत या इशारा हो भी सकता है पर पढ़ते हुए मुझे ऐसा नहीं लगा । संभव है यह बाद में लगे। इसलिए इसका अंग्रेजी उपशीर्षक एवं कोष्ठक फिलहाल मेरे लिए असंगत सा है। यह कथा वैसी ही सहज और हृदयस्पर्शी लगी जैसे दो बैलों की कथा, हालाँकि उसमें तत्कालीन गरम एवं नरम राजनीति की प्रवृत्तियाँ साफ तौर पे लक्षित होती हैं। हरि भटनागर एवं समालोचन को बधाई एवं शुभकामनाएँ !
अच्छी कहानी है। मनुष्यों और मनुष्येतर जीवों के सम्बन्धों को लेकर और कहानियाँ लिखी जानी चाहिएं और छपनी चाहिएं। यहाँ यह समझने की ज़रूरत है कि मनुष्यों और मनुष्येतर जीवों के सम्बन्धों में एक गहरी राजनीति निहित है, वे ग़ैर-राजनीतिक नहीं हैं। इसी प्रकार एक राजनीति मनुष्येतर जीवों के आपसी सम्बन्धों में भी है। और पिछले कई दशकों से पश्चिम में दर्शन में इन सम्बन्धों पर लिखा जा रहा है, गहरा मनन किया जा रहा है। यहाँ तक कि अब राजनीतिक सिद्धान्त के क्षेत्र में भी मनुष्यों और मनुष्येतर जीवों के बीच जो राजनीति है उस पर लिखा जा रहा है। राजनीति केवल वही नहीं है जो केवल मनुष्यों के बीच में है। जिस प्रकार, विशेषकर आधुनिक युग में, मनुष्यों ने मनुष्येतर जीवों के प्राकृतिक वास स्थलों को नष्ट किया है और उन स्थानों को अपने अधिकार में ले लिया है — और यह दुष्कर्म अब भी जारी है — और उनका शोषण किया है, जिस कारण अब मनुष्येतर प्राणियों की संख्या बहुत कम रह गयी है, उसके चलते मनुष्यों और मनुष्येतर प्राणियों के बीच जो सम्बन्ध हैं वे गहरे तौर पर राजनीतिक हैं।
Nice story…keep it up…
मानवीय संवेदना की सच्ची कहानी। हृदय को छू गया। हरि भटनागर और अरुण सर को धन्यवाद।💐
बहुत मर्मस्पर्शी कहानी । हमारी दुनिया के निरीह पात्रों की व्यथा
हरि स्वयं को कहानी का एक पात्र रखकर जिस तरह कह जाते हैं
वह पढ़ने वाले को इस तरह शरीक कर लेता है जैसे सब उस पर गुजर रही हो
‘आपत्ति’नामक इस कहानी में यह आपत्ति कुत्तों की तरफ से एक चेतावनी है कि जो उनके नरम चारे को यानी कहानी में आए सूअर के बच्चों को खाने नहीं देगा उसको वे छोड़ेंगे नहीं। कहानी में यदि संवेदनशील रचनाकार सूअर के बच्चों को बचाने की दिशा में प्रयास करता है तो कुत्ते उस पर झपट पड़ते हैं और उसे काटने पर आमादा हो जाते हैं।काट ही लेते हैं।वे सब मिलकर एक हो जाते हैं। पक्ष में बोलने वाला अरक्षित रह जाता है। मुझे लगता है यह कहानी आज के राजनीतिक परिदृश्य पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है ।इसके लिए मैं भाई हरि भटनागर को बधाई देता हूं और एक अच्छी कहानी पढवाने के लिए समालोचन को धन्यवाद। – हरिमोहन शर्मा ।
दिल और दिमाग को झकझोरते कहानी
तलछट के जीवन का जितना सूक्ष्म और सजीव चित्रण हरि भटनागर ने अपनी कहानियों में किया है ,वह हिंदी कहानी यात्रा में मील का पत्थर है। इस कहानी को पढ़ते हुए जैक लण्डन के उपन्यास कॉल ऑफ वाइल्ड की याद आ गयी। ताकत और वर्चस्व की एक समानांतर दुनिया।
हरि भटनागर समाज के बड़े रूपक को बेहद सूक्ष्मता के साथ रखते हैं। यह कहानी, कहानी पढ़ने की मनुष्य की आदिम परम्परा को बल देती है ,अर्थ देती है। इतनी सुंदर अर्थपूर्ण और मार्मिक कहानी के लिए कथाकार को बधाई।
हरि भटनागर अडिग हैं कि वे तलछट पर रह रहे अनगिनत बाशिंदों के जीवन को उम्रभर अपनी कलम से इतिहासबद्ध देते रहेंगे। वे उन लोगों, जिनकी आवाज़ को सुनने की हमारी दुनिया में गिनती के लोग ज़हमत उठाते हैं-के लिए सदैव एक सखा की तरह खड़े नज़र आते हैं। उनकी कहानियाँ उस विरल सामाजिक प्रतिबद्धता की कहानियाँ हैं जो बिना किसी का दर्द महसूस किये लिखी ही नहीं जा सकती हैं। पर एक लेखक या कलाकार मात्र संवेदना की दृष्टि निवेदित करने के अलावा और क्या कर सकता है ? यह आसान प्रश्न नहीं है। शायद कुछ भी नहीं सिवाय इसके कि वह अपनी सारी ईमानदारी से अपने समय के सत्य को अपनी कला से उद्घाटित कर दे। हरि जी की लगभग सारी रचनायें उसी ईमानदारी की बयानी हैं। वे अपनी कहानियों में और आगे जाते हैं-और स्वयं अपने जीवन को किसी दूसरे के लिए दॉव पर लगा देते हैं। उनकी रचनायें भावभूमि के साथ शिल्प में भी बेजोड़ होती हैं। कुछ लड़ाईयाँ सिर्फ इसलिए लड़ी जाती हैं कि आने वाली नस्लें याद रखें कि कोई मौज़ूद था वहाँ। रवीश कुमार को सम्बोधित इस कहानी में कह रहे हैं-मित्र ! मैं खड़ा हुआ हूँ अपनी पूरी प्रतिबद्धता के साथ। “आपत्ति” कथा में वे मूक पशु वह भी एक सुअरिया, जिसे अधिकांश समाज घृणा से देखता है-उसको लेकर एक अविस्मरणीय कथा रच गए हैं। उसमें छिपी मार्मिकता और करुणा हमें ऐसे ही आंदोलित करती है जैसे गाय जैसे पवित्र जानवर की कथा कर सकती हो। वस्तुतः करुणा और प्रेम किसी के सामाजिक दरजे से निर्धारित नहीं हो सकते। इस संकेत से वे न जाने कितने तलछट पर जी रहे लोगों को अपने प्रेम के दायरे में खींच लाते हैं। हार्दिक बधाई इस कहानी के लिए।
सौमित्र
हरि भटनागर महज कुशल कथाकार ही नहीं हैं बल्कि एक संवेदनशील इंसान भी हैं। आज के समय पर उनकी गहरी पकड़ है , जिसे बड़े सार्थक और सर्जनात्मक ढंग से अपनी रचनाओं में वह व्यक्त करते रहे हैं। यह कहानी उनकी रचना यात्रा का एक महत्वपूर्ण सोपान है।
अशोक चतुर्वेदी
हरि हमारे वक्त के अकेले ऐसे कथाकार हैं जिन की कहानियों में पशु पक्षी और मुस्लिम पात्र पूरी शिद्दत से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और कहानी में कोई न कोई ऐसा मोड़ देते हैं कोई ऐसा माननीय पक्ष उजागर करते हैं जिनके बारे में हमने सोचा भी नहीं होता । इस कहानी में भी वे यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि आखिर एक भले इंसान को किस का पक्ष लेना चाहिए जो सताया जा रहा है या जो सता रहा है।
हरि जी की बेहतरीन रचना है। उनके लिखने का अंदाज ऐसा है कि मानो वे मानवों से परे अन्य जीवों की भाषा के अच्छे जानकार हैं।उनका गहन अवलोकन व चित्रण ऐसी रचनाओं के सृजन में सिद्ध लेखक के रूप में स्थापित करता है और उनकी इस विशेषज्ञता के आसपास अन्य कोई साहित्यकार नजर नही आता। उन्हें हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं।
हरि भटनागर जी की कहानी आपत्ति , मानव व अन्य जन्तुओं के बीच के पारस्परिक संबंध का कच्चा-चिट्ठा सी लगती है हरि जी को लगता है परकाया प्रवेश में महारत हासिल है जो उनकी मनःस्थिति , भावनाओं ,संवादों का यथार्थपरक चित्रण कर देते हैं।उनकी रचनाओं में निरीह के प्रति करुणा भाव दिखाई देता है।समसामयिक साहित्यकारों में वे ऐसे साहित्यकार हैं जिनमें ऐसी सिद्धि प्राप्त है।उन्हें कथानकों का टोटा नही है , उनकी अभिव्यक्ति आम घटना को भी खास बना देती है।
आ0 हरि भटनागर जी को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं।
हरि भटनागर का कथा संसार इस मायने में अनूठा है कि वे मनुष्येतर पात्रों के जरिए भी मनुष्य जीवन की दुरभि संधियों को खोलते हैं। इस प्रक्रिया में अपनी रचना को गहरी व्यंजना से भर देते हैं। कुछ इस तरह कि पाठक उसे परत-दर-परत खोलता जाए और अपने समय के यथार्थ तक जाने के रास्ते खोजे! कभी-कभी इन रास्तों की खोज उसके लिए चुनौती भी हो सकती है! उनकी कहानी में मनुष्येतर पात्रों का व्यवहार अक्सर चरम तक पहुंचता है- इस तरह कि अविश्वसनीय लगने लगे, लेकिन इस अनहोनेपन के पीछे गहरे अर्थ छिपे होते हैं। जैसे इस कहानी में सुअर परिवार की सुरक्षा के पक्ष में खड़े नरेटर के विरुद्ध कुत्तों की आक्रमक आपत्ति। शीर्षक के साथ समर्पण के रूप में इनब्रेकिट लिखे शब्द भी पाठक का सहारा बन सकते हैं- जनपक्षधर और लोकतांत्रिक मूल्यों को समर्पित चाहे पत्रकार/पत्रकारिता के प्रतिबद्ध काम हों या किसी नागरिक का अपना जिम्मेवार नैतिक व्यवहार, व्यवस्था की शक्ति संरचना उसके नेक इरादों की विरोधी ही होती है। अपनी अन्य और कहानियों की तरह कथाकार ने यहाँ कहने का अत्यंत रोचक शिल्प किंतु कुछ गूढ रूपक प्रयुक्त किया है। कथा पूरी तरह उस रूपक में संगुम्फित है और निहितार्थ उसके बाहर। एक अच्छी कहानी के लिए बधाई!
– नीरज खरे
हरि भटनागर जी की कहानी “आपत्ति” पढ़कर मन करुणा और संवेदना मय हो गया l ” आपत्ति” कहानी मौजूदा समय और समाज का जीवंत आइना है l जानवरों पर बहुत सी कहानियां चर्चा का केंद्र रही है l प्रेमचंद जी ने ” दो बैलों की कथा” के माध्यम से पशुओं के मनोविज्ञान और स्वतंत्रता के सवाल को उठाया था l रूसी कथाकार चेखव ने ” दुख” कहानी में तांगेवाले के जवान बेटे की मौत के दुख को साझा न कर पाने की विवशता को दिखाया है और किस तरह उसकी घोड़ी उसके दुख को महसूस करती है l चेखव ने कहानी में जानवर की मनुष्यता का और मनुष्यों की पशुता का बड़ा मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है l जानवरों में सबसे ज्यादा उपेक्षित और तिरस्कृत पशु – सुअरी को कहानी का केंद्र बनाया है l मानव समाज और पशु समाज दोनों द्वारा तिरस्कृत और हाशिए पर पड़ी सुअरी को कहानी का केंद्र बनाकर लेखक ने संवेदना ,सरोकार और स्वानुभूति का परिचय दिया है l लेखक का दर्द जब पाठक का दर्द बन जाए तो कहानी का संप्रेषण सफल माना जाता है l हरि भटनागर कहानी के मर्म को पाठक के हृदय से जोड़कर कहानी का साधरणीकरण करने में कामयाब हुए है l एक बहुत अच्छी मार्मिक कहानी के लिए हरि भटनागर जी को हार्दिक बधाई और अरुण देव जी को साधुवाद l. इंद्रजीत सिंह , मॉस्को ( रूस )
Achhi kahani,hari bhai apni chhoti magar paini kahaniyon ke liye khoob jane jate hain
हरि भाई अग्रज और मित्र हैं. मैं ‘सगीर और उसकी बस्ती के लोग’ के ज़माने से उनकी कहानियां पढ़ रहा हूं.
यह कहानी मानवीय संवेदनाओं की महत्वपूर्ण कहानी है. यह हमारे आज के सामाजिक राजनीतिक चरित्र को भी व्यक्त करती है.
अच्छी कहानी के लिए हरि भाई को बधाई 🌹
हरि दादा की अद्भुत कहानी है।करुणा जगाती हुई । उदास करती हुई । संवेदनाओं को झकझोरती हुई ।
ऐसी कहानी हरि भटनागर ही लिख सकते।हृदयस्पर्शी और मार्मिक।यह एक ऐसा समय है जहाँ गली के कुत्ते ही अब सब कुछ है।हिंसक संगठित समूह के रूप में।अगर आप उनके जैसे नहीं हुए तो मारे जाएंगे।इस व्यवस्था में करुणा सहभाव या मूल्यों के लिए जगह नहीं बची है।आपकी आपत्ति अर्थहीन ही नही आत्महंता भी है।कहन की कला क्या लाजबाब ।एक समय तो ऐसा लगता कि कहानी यह दिखा रही कि औरत ही औरत की दुश्मन।पर पत्नी द्वारा उसकी पिटाई से द्रवित होकर उसका स्वीकार यह दर्शाता की तमाम व्यकिगत स्वार्थो के बावजूद संकट की घड़ी में स्त्री स्त्री के दुख व संघर्ष को समझ के उसके साथ खड़ी होगी ही।एक पक्ष यह भी की आज जो दूसरे पक्ष के खिलाफ खड़े दिखते कल वो अनिवार्यतः आपके भी विरुद्ध होंगे।यदि आप उनके जैसे नहीं हुए।हरि भाई की भाषा वाक्य विन्यास एक तीक्ष्ण किस्म की तुरसी व इरिटेशन लिए हुए होते पर उनमें संवेदना की सघन अंतर्धारा बहती।राजनैतिक चेतना वो छोड़ते नहीं।उनकी पक्षधरता समाज के सबसे निचले व उपेक्षित तबके के साथ है।सुवरिया इस मायने में नितांत अर्थगर्भी है। सुवरिया को बचाने की कोशिश सृजनधर्मिता को बचाने की कोशिश भी है।हरि भाई को इस शानदार कहानी के लिए बधाई
इस संसार की विसंगतियों, विद्रूपों और विडंबनाओं की पड़ताल के लिये मनुष्य-पशु संवाद की जो परिकल्पना साहित्य-सृजन के लगभग आरम्भिक दिनों से चली आ रही है, उस युक्ति का अत्यंत सर्जनात्मक, कौतुकपूर्ण और हमारी मनोचेतना में भीतर तक धंस जाने वाली शैली में प्रभावी प्रयोग हरि भटनागर अपनी इस कहानी में करते हैं। जैसा किसी पूर्व टिप्पणी में ठीक ही लक्ष्यित और रेखांकित किया गया है, वे ‘सुअरिया’ से कथा के प्रथम पुरुष का नियमित और आत्मीय संवाद प्रस्तुत कर इस विशिष्ट पशु के विरुद्ध हमारे समाज के रूढ़ पूर्वाग्रहों का सफल और स्नेहिल अतिक्रमण करते हैं। पर ‘सुअरिया’ के उसके नवजात शिशुओं की अस्तित्व रक्षा के लिये प्राण-पण से लगभग बलिदानी संघर्ष को वे अनेक-स्तरीय रूपक में बदल देते हैं, जो मनुष्यता, जीवन और धरती के अस्तित्व की विराट चिंताओं से नाता जोड़ लेता है। सहज करुणा और संवेदना से उपजती ‘मैं’ और धीरे-धीरे ‘मैं’ की पत्नी की सहभागिता और उसके जोखिम हमारे समय के जीवित और ज़रूरी संघर्षों का बिम्ब प्रस्तुत करते हैं और समकालीन तथा भविष्य की अपरिहार्य चुनौतियों का ठोस आभास भी देते हैं। मैं इस कहानी के लिये भाई हरि भटनागर को बधाई देता हूँ और इसे इस मंच पर लाने के लिये ‘समालोचन’ का शुक्रगुज़ार हूँ।
किसी कथाकार को अगर परकाया प्रवेश के ज़रिए अभिव्यक्ति की सौ प्रतिशत क्षमता के लिए याद किया जाएगा तो निश्चित ही वह हरि भटनागर होंगे।उनके अंदर केवल और केवल एक कथा धड़कती रहती है।कभी वह सुअरिया,कभी तोता,मैना तो कभी कोई और पशु पक्षी की जीवनी को सुन रहे होते हैं और फिर साहित्य की अदालत में उनकी तरफ से एक बयान देते हैं।हज़ार पाठकों कीयह अदालत अनजाने में उन मूक किरदारों के साथ हो जाती है।हरि भाई की यह संवेदनात्मक पक्षधरता अनेक शोषित और पीड़ित के लिए एक साहस बन जाती है।एक विरल कथाकार हरि को उनकी सघन अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए याद किया ही जाएगा।
हरि भटनागर की कहानियों में बहिष्कृत-प्रवंचित समाज का कथालोक होता है।उनकी पहचान इसीलिए इतनी अलग है कि वह अपने समकालीनों
में सबसे खुरदरी है।इधर उनकी कहानियां पशु संवेदना के लिए ध्यान आकृष्ट कर रही हैं।विश्वऱंग
में प्रकाशित टर्की के बाद इस कहानी में भी वे सुंअरी
को कथा नायिका बनाकर हतप्रभ करते हैं।पशु
अपने को व्यक्त-अभिव्यक्त करते हैं तो लगता है
कथाकार उनका भीतर हो गया है।भाषा,कहन और
कथा तत्व का निर्वाह सधा और गठा हुआ है।
हरि भटनागर की कहानी आपत्ति अपने किस्म की महत्व पूर्ण रचना है। हरि की लंबी रचना यात्रा से परिचित पाठक इस बात से परिचित जरूर है कि वे हमारे समाज के सबसे निचले तबके को अपनी रचना के केंद्र में रखते हैं। हाशिए पर डाल दिए वर्ग के प्रति उनमें गहरी संवेदना है। उनकी रचनाओं में लोक कथा के फॉर्म के तत्व भी हैं अतः पशु पक्षी वर्ग की अनुभूतियों को पात्र या रचनाकार व्यक्त करता है। आपत्ति कहानी के अलावा उनकी अन्य रचनाओं में भी हम इस शैली के माध्यम से , उन्हें अपने आशय तक पाठक को ले जाते हुए पाते हैं। उनके मनुष्येतर पात्र अपने प्रतीकार्थ में मानव समाज के विरोधाभास और विवशता को रेखांकित करते हैं। मादा सुअर के प्रति कथा नायक की संवेदना और कुत्तों का उस पर आक्रमण के अर्थ का फैलाव हमे दूर तक ले जाता है।
रमाकांत श्रीवास्तव
Bahut achchhi story one must read the content of the story
समझने मे नाकाम ही रहा हूं कि हरि भटनागर का नैरेशन उनका वर्णन बड़ा है कि वह किस्सागो बड़े हैं बहरहाल दोनों बातें उनको एक मुकम्मल कहानीकार बनाती हैं!!! आपकी उंगली थाम के हमे एक ऐसी गलीच बजबजाती हुई दुनिया के दरवाज़े तक ले जाते हैं वो अब ये आपके ऊपर है कि आप अंधेरी गली मे उनके साथ जाते हैं कि आपका मध्यवर्गीय सौन्दर्यबोध आपको इस यात्रा की अनुमति नही देता हरि भटनागर का रास्ता बेहद बीहड़ रहा है ।सुलतानपुर से भोपाल तक का उनका निजी जीवन भी लंबे संघर्षों से भरा रहा है और समाज के नीचेपड़े हुए असंख्य लोगों के अबूझ युद्ध को वो जानते हैं और बुझते भी हैं ।ये सच है कि अधिकांश साहित्यकारों का असल दुनिया से वास्ता कम ही है ।या वो सच से बचे रह कर अपने लेखन मे सुविधा का एक सुरक्षित रास्ता अख्तियार कर लेते हैं वो लेखन चमक दमक से भरा हो सकता है पर वह बेजान ही होता है!! अगर राजनीतिक बात करूं तो हरि भटनागर हमारे समाज के असंख्य असंगठित सर्वहारा के लेखक हैं । इस कहानी मे एक पिता अपनी बेटी और पत्नि के लिये जहां बेहद संवेदनशील है वहीं वो अपनी गली मे गुज़र बसर करते पशुओं के लिए भी चिंतित रहता है उसकी गली मे उसके मकान के नीचे आवारा छोड़ दिए गाय कुत्ते और सूअर हैं भटकते हुए ।कथा मे एक गर्भवती सुअरिय है ।आवारा छोड़े हुए पशुओं के लिए रोटी देने की हमारी प्राथमिकता में पहला स्थान गाय का है फिर कुत्ते का सूअर को रोटी देने का चलन नही है बल्कि उसके हिस्से घृणा और पत्थर । सुअरिया के लिए अपार संवेदनशील कथा नायक आमतौर पर नज़र नही आता!!! हरि प्रतीकों और इशारों मे सच को उदघाटित करते हैं यहां बेहद शिद्दत से । अखिल पगारे कवि
हरिभटनागर साधारण में से असाधारण खोज लेते हैं. फिर उस असाधारण को इतने साधारण ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि पाठक अवाक रह जाता है. रोजमर्रा के मैले-कुचले जीवन की चादर में पड़े हुए मूल्यवान रत्नों को वे सहज ही ढूंढ निकालते हैं. हमें अफ़सोस होता है कि उस पर हमारी नजर क्यों न पड़ी! यह उनकी पैनी और संवेदनशील दृष्टि का कमाल है. यह उनकी सादगी भरी भाषा का कमाल है. उनकी सबसे पहली हंस में पढ़ी कहानी -‘जली रोटियां…’ से ही उनकी विलक्षण कहानी कला का मुरीद हूँ. न्याय का पक्षधर संवेदनशील व्यक्ति सदा खूंखार स्वार्थी कुत्तों को चुभता है. कुत्ते उसकी आपत्ति को बर्दाश्त नहीं करते, शायद कहानी का यही ‘पॉइंट’ है. उनके प्रतीक अबूझ नहीं हैं. # गोविन्द सेन
मेरे जैसे गुट/वाद/स्थापित समझ से कोरे पाठक की नज़र में निम्न वर्गीय मेहनतकश जीवन के सहज-स्वाभाविक यथार्थ (भोगा हुआ-सा) को कलमबद्ध, बल्कि स्वर देने वाले कथाकार हरि भटनागर की यह कहानी यों तो एक सिम्बोलिक कहानी लगी। लेकिन चीज़ों के सूक्ष्म निरीक्षण का उस्ताद यह कथाकार जब शब्दों का वीडियो घुमाता है तो कथा-भूमि की विकट अंधेरे/संकरे में छुपी सच्चाई भी खुद को उसकी नज़र बचा नहीं पाती है। हरि-कथा की सुअरी के संग चलते-चलते मुझे दलित लेखिका कौशल पवांर की आत्मकथा की मादा सुअर का याद आना उनकी (हरि) यथार्थ की पकड़ पक्की पुष्टि करती है। लेखक बाई का पुड़े में लपेटकर गली में कूड़ा फेंकने (के मनोभाव) से लेकर, भूख-प्यास से बेहाल किंतु ममता से लबालब, कुत्तों के डर से बच्चों को छोड़कर बाहर न जाकर खुद को निचोड़कर थन से बच्चों को जीवनरस पिलाती सुअरी के साथ बुजुर्ग पड़ोसी और कुत्तों की ‘दृष्टि/हरकतों’ से इस क़दर एकमेक है कि दोनों एक-दूसरे की बात भी बखूबी समझते हैं। यह लेखक की संवेदनशीलता की पराकाष्ठा तब है जब उच्च मध्यवर्ग में शामिल होने की असफल कोशिश करती पत्नी और पुत्री सिलिया उसे सुअरी (उसका और उसके नवजात बच्चों का किकियाना सिलिया की पढ़ाई में विघ्न कारक हैं) को हाते से न भगाने का दोषी मानते हैं। एक पंक्ति में कहने का अनधिकृत दुस्साहस करूं तो यह कहानी यहां-वहां भटककर अपने श्रम से खुद और बच्चों को पेट पालने को मजबूर वर्ग (जाति) को इस हालत में भी न जीने देने के लिए किसी भी हद तक जाने को तत्पर और
उसकी ओर बढ़ते (सुअरी की रक्षार्थ) हाथ को अर्दब में लेती कुत्ता-संस्कृति को और उसके सामने (भय, स्वार्थ और संवेदना के द्वन्द्व के बीच) खड़े मध्यवर्ग को बेनकाब करती है। इसमें यथार्थ की पूरी कथा की जहाँ यह व्यंजना है, वहीं (प्रत्यक्षतः) चौपायों के प्रति ‘दोपायों’ में सम्वेदना का एक सशक्त सन्देश।…(यही है कहानी खत्म होने के बाद मुझ अपढ़ के भीतर उठी कहानी का शेष)👍-सत्येन्द्र प्रकाश
बहुत सी कहानियां पाठ के तुरंत बाद स्मृति में धंस जाती हैं, और फिर एक लंबे अंतराल तक वहीं रह कर किसी दिन अचानक टिप्पणी की मांग करती सामने आ खड़ी होती हैं। जैसे 3 फरवरी 2022 को ‘समालोचन‘ में प्रकाशित हरि भटनागर की कहानी ‘आपत्ति‘।
कहानी पढ़ने के दौरान दो किताबें जेहन में कौंधती रहीं। एक, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विलियम गोल्डिंग का उपन्यास ‘लॉर्ड ऑफ फ्लाइज़‘ और दूसरी, दूसरा जॉर्ज ऑरवेल का उपन्यास ‘ द एनिमल फॉर्म‘। दोनों उपन्यासों में मूल्यों को पतन की पराकाष्ठा तक ले जाने वाले व्यक्तियों को ‘सूअर‘ की संज्ञा दी गई है। यह तय है कि विश्वप्रसिद्ध पुस्तकें पाठक के भीतर जीवन, मनुष्य, सम्बन्धों और प्रवृत्तियों को देखने का विशिष्ट नजरिया बनाती हैं. इसलिए हरि भटनागर की कहानी ‘आपत्ति‘ पढ़ी तो एक साथ आश्चर्य और असहजता की अनुभूति हुई कि रूढ़ छवियों को अपदस्थ कर कोई कैसे सूअरिया को कथा के केंद्र में रखकर उसके बेजा शोषण की बात पर आपत्ति और प्रतिरोध दर्ज कर सकता है।
दरअसल अच्छी कृति हमेशा परंपरा में तोड़फोड़ कर कुछ नया जोड़ती है – समयानुकूल और समय का अतिक्रमण करने वाला भी।
‘आपत्ति‘ कहानी प्रतीक-कथा है। कहने को यह तीन पात्रों – नैरेटर (मनुष्य) , सद्यप्रसूता सूअरिया और घात लगाकर बैठे कुत्ता-दल की कहानी है, लेकिन जिस मार्मिकता एवं व्यंग्यात्मकता के साथ लेखक ने कुत्ता-दल को सत्ता द्वारा पोषित हिंसक मवाली-सेना का रूप दिया है, और सूअरिया को हाशिए से भी खदेड़ दी जाने वाली अकिंचनता का, उससे यह कहानी न केवल इन दिनों बुने जा रहे राजनीतिक-सांस्कृतिक विमर्श पर प्रहार करती है, बल्कि सवाल भी उठाती है कि अपनी मनुष्यता को संगठित किए बिना कैसे हम शोषण-अतिचार का मुकाबला कर सकेंगे। अकेले-अकेले अपने स्तर पर सत्ता की संगठित हिंसा से नहीं लड़ा जा सकता। कौन जाने छीजते- छीजते कब हमारी मनुष्य-अस्मिता सूअरिया के घिनौने बिंब में ढाल दी जाए? अल्पसंख्यक समुदाय का ‘सूअर‘ की तरह जिस तरह आखेट हो रहा है, वह हमारी कल की नियति भी हो सकती है, जिसे बेहद सूक्ष्म एवं अर्थगर्भी व्यंजनाओं के साथ हरि भटनागर ने ‘आपत्ति‘ कहानी में उठाया है।
वाकई सहेजने लायक कहानी है यह।
हरि भटनागर की यह कहानी सीधे सादे शब्दों में जीवन-जगत के जटिल यथार्थ को व्यक्त करती हुई रचना में ज़बरदस्ती यथार्थ की विजय की उद्घोषणा करने-करवाने के बजाय मजलूम के पक्ष में खड़े ईमानदार आदमी के सामने पैदा होती चुनौतियों को अभिव्यक्त करती है।
साधुवाद।