शचीन्द्र आर्य की कविताएँ |
1.
धौला कुआँ
वह बोले, वहाँ एक कुआँ होगा और उन्होंने यह भी बताया,
यह धौला संस्कृत भाषा के धवल शब्द का अपभ्रंश रूप है.
जैसे हमारा समय, चिंतन, जीवन, स्पर्श, दृश्य, प्यास सब अपभ्रंश हो गए
वैसे ही यह धवल घिस-घिस कर धौला हो गया.
धवल का एक अर्थ सफ़ेद है.
पत्थर सफ़ेद, चमकदार भी होता है.
उन मटमैली, धूसर, ऊबड़ खाबड़ अरावली की पर्वत शृंखला
के बीच सफ़ेद संगमरमर का मीठे पानी का कुआँ. धौला कुआँ.
कैसा रहा होगा, वह झिलमिलाते पानी को अपने अंदर समाये हुए ?
उसके न रहने पर भी उसका नाम रह गया.
ज़रा सोचिए, किनका नाम रह जाता है, उनके चले जाने के बाद ?
कहाँ गया कुआँ ? कैसे गायब हो गया ? किसी को नहीं पता.
एक दिन,
जब धौलाधार की पहाड़ियाँ इतनी चमकीली नहीं रह जाएंगी,
तब हमें महसूस होगा, वह सामने ही था कहीं.
ओझल सा.
उस ऊबड़ खाबड़ मेढ़ के ख़त्म होते ही पेड़ों की छाव में छुपा हुआ सा.
जब किसी ने उसे पाट दिया, तब उसे नहीं पता था,
कुँओं का संबंध पहाड़ों से भी वही था, जो जल का जीवन से है.
2.
पता पूछने वाले
मैंने हर अनजानी जगह पर लोगों को रोककर उनसे पता पूछा.
इस उम्मीद में, शायद उन्हें पता हो. शायद वह बता सकें.
मैं गलत था.
उनमें से किसी को कुछ नहीं पता था.
कैसे उन जगहों तक पहुँचा जा सकता है, वह नहीं जानते थे.
तब भी उंगलियों और अपनी जीभों को हिलाते हुए वह कह गए,
आगे से दाएं फ़िर बाएं.
उनकी बताई जगहों पर पहुँच कर वह जगहें कभी नहीं मिली.
यह बात मैंने उन्हीं से सीखी.
कभी किसी को गलत रास्ता नहीं बताया.
नहीं पता था, कह दिया, नहीं पता.
जब पता होता,
तब हमेशा कोशिश की के जो मुझसे कुछ पूछ रहा है,
वह जल्दी से उस जगह पहुंच जाए.
उन जगहों पर नहीं पहुँच पाने का एहसास मुझ में हमेशा बना रहा.
मुझे पता है, तपती धूप और ढलती शामों में भटकना कैसा होता है.
हो पाता, तो
मैं हर उस पता पूछने वाले के साथ चला जाता.
जो साथ कभी मुझे नहीं मिला, थोड़ा उन्हें दे पाता.
3.
दिल्ली का बस कंडक्टर
सुबह-सुबह वह बस में मुझे मिला.
टिकट नहीं बना रहा था. बैठा था.
मेरे पूछने पर उसने कहा,
‘मशीन खराब है’.
ठीक मशीन साथ लेकर चलने वाली बात कहने पर वह बोला,
‘क्या गारंटी मशीन की,
तुम भी सड़क पर चलते-चलते मर जाओ, कोई गारंटी है’ ?
वह मेरी कही बात पर
मुझे गाली भी दे सकता था. उसने गाली नहीं दी.
मैं खिड़की से बाहर देखता हुआ यही सोचता रहा,
क्या उसे इतना भी नहीं पता, किसी का मर जाना कैसा होता है ?
4.
पुराने ढब की कविता
1.
अगर वहाँ लाल बत्ती नहीं होती
तब उसे ढूंढ़नी पड़ती कोई नयी जगह,
जहाँ वह मिल सके अनजान भीड़ से.
भीड़ से वह न भी मिलना चाहे
पर उनकी जेबों में खनकते पैसों से ही दूध आएगा
जो उसके स्तनों में इस बार भी नहीं उतरा.
किसी ने मुझे बताया नहीं, इस बार भी वह मरते-मरते बची है
इस गोद में लिए बच्चे को जनते हुए.
लेकिन जब से देख रहा हूँ, यही लगता है
इस बार भी नहीं कहूँगा, उसका पेट पीठ को छूता दिख रहा है,
बहुत पुराना लगता है ऐसा कहना.
मैं कहूँगा, उसके पेट में पेट ही नहीं है
बस है एक गर्भाशय.
पेट का ऐसे गायब हो जाना
किसी शेर के जंगल से गुम हो जाने से भी बड़ी त्रासदी है.
नहीं, त्रासदी नहीं.
उसमें तो यूनान का शास्त्रीय दुःख होगा. पीड़ा होगी.
इस पर तो उसका अधिकार भी नहीं है.
2.
यहाँ मेरी भूमिका
किसी फिल्म के हीरो की तरह हो जानी चाहिए थी.
पर नहीं हुई. कैसे होती ?
जेब में रियायती पास लिए सरकारी बस की खिड़की पर डटा रहा
कुछ दिन लगातार उसे देखने के बाद
सोचा,
मुक्तिबोध जिसे रचना का तीसरा क्षण कहते हैं,
उसके पास पहुँचने ही वाला हूँ.
तब लिखूंगा एक कविता.
इस पूरी प्रक्रिया में यहाँ तक पहुँचते-पहुंचते चार साल लग गए.
लाल बत्ती वहां अब भी है.
पर अब कहीं नहीं दिखाई देती वह.
मुझे पता है,
आज भी कुछ नहीं कर पाऊँगा.
अगर वह दिख जाती,
कुछ देर उससे बोलता, बात करता.
पूछता नहीं कौन है, उसके बच्चों का पिता. पूछता, कहाँ है उसके बच्चे?
कभी तो उसके चेहरे पर उसका बचपन याद आ जाता है.
तब वह मेरी ही उम्र की रही होगी या मुझसे कुछ छोटी ही.
5.
उनका सवाल
वह मेट्रो के उस कोच में मेरे बगल की खाली सीट पर आकर बैठ गए.
थोड़ी देर बाद बेहिचक होकर वह मुझसे पूछते हैं, दाढ़ी में जूं नहीं होते?
पहले तो मुझे सवाल समझ नहीं आया.
जब समझ आया, तब उनके चेहरे की तरफ़ देखा.
चेहरे पर तीन चार दिन की दाढ़ी है. सिर के बाल काले और सफ़ेद दोनों हैं.
निचले होठ में खैनी फंसी हुई लगी. पर नहीं थी. दाँत चमक रहे थे.
थोड़ा रुककर, मैं आहिस्ता से बोला, ‘नहीं’!
उन्होंने दाँत खीझते हुए दोबारा पूछा,
सिर वाली तो दाढ़ी में आ जाती होगी ?
इसका जवाब भी मेरी तरफ़ से ‘न्अ’ ही था.
इस घटना के इतने दिनों बाद भी
कभी-कभी सोचता हूँ, अधेड़ उम्र पार कर चुका यह व्यक्ति
क्या सच में जूओं से परेशान था या कोई और बात थी ?
6.
चप्पल
शहर के इस कोने से जहां खड़े होकर
इन जूतियों और चप्पलों वाले इतने पैरों को आते जाते देख रहा हूँ,
उन्हें देख कर इस ख़याल से भर आता हूँ के कभी यह पैर दौड़े भी होंगे?
किसी छूटती बस के पीछे,
बंद होते लिफ़्ट के दरवाज़े से पहले,
किसी आदमी के पीछे.
मेरी कल्पना में कोई दृश्य नहीं है,
जहाँ मैंने कमसिन कही जाने वाली लड़की,
किसी अधेड़ उम्र की औरत
और
किसी उम्र जी चुकी बूढ़ी महिला को भागते हुए देखा हो.
ऐसा नहीं है वह भाग नहीं सकती, या उन्हें भागना नहीं आता.
बात दरअसल इतनी सी है,
जिसने भी उनके पैरों के लिए चप्पल बनाई है,
उसने मजबूती से नहीं गाँठे धागे.
पतली-पतली डोरियों से उनमें रंगत भरते हुए वह नहीं बना पाया भागने लायक.
सवाल इतना सा ही है,
उसे किसने मना किया था, ऐसा करने से ?
7.
दिल्ली का आख़िरी कौआ
‘अब उड़ने में मज़ा नहीं आ रहा…!’
आहिस्ते से कान में बोलकर वह दूर, गर्दन झुकाकर बैठ गया.
थोड़ा सुस्त लग रहा था. बीमार नहीं था पर सुस्त था.
पहले कभी उसे ऐसे नहीं देखा था, आज देख रहा था.
फ़िर बोला- ‘क्या करूँ दोस्त, सब ख़त्म हो रहा है,
मैं तो बस कुछ दिन और रहूँगा फ़िर चला जाऊंगा
कभी वापस आने का मन भी नहीं करता, न शहर छोड़ने पर रोने का मन होता है’ !
उसकी आँख गीली थी या नहीं नहीं देख पाया, बस एकटक घूरता रहा
उसकी आवाज़ को भर्राये गले सा वह चुप रह जाता, कुछ कहता नहीं बस देखता रहता.
उसने बहुत सी बातें मुझ से कही.
जितनी याद रहीं,
उनमें से एक यह थी के उसके शरीर में यहाँ की हवा ने जंग लगा दी है.
किसी भी कंपनी का पेंट और सीमेंट उन्हें बचा नहीं पाया.
जबकि अपने सुबह के नाश्ते में बेनागा वह इन्हें लेता रहा था.
सबसे ज्यादा दुख उसे अपने पंखों का था,
जिससे थोड़ा ऊँचा उड़ने में ही वह थक जाता.
रीवाइटल की गोली भी कुछ काम करती नहीं लग रही.
कहता, सलमान की उस होर्डिंग पर जाकर हग देगा,
जो ओबेरॉय होटल के पास लगी हुई है.
कई और जगहों पर जाकर ऐसा करने की उसकी योजना थी.
जिन-जिन बातों ने उसे ‘कौआ’ नहीं रहने दिया था.
वरना कऊए का कऊआ न रहना कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती.
न कोई उसकी बिरादरी में ऐसा सोचता होगा.
हम कभी-कभी ख़ुद इतना नहीं सोच पाते, वह तो कौआ है.
बीच में सोचने लगा, अगर कोई इंसान भी ऐसा करने की ठान ले
तो उसे लोग पागल कहेंगे, क्या कऊओं को कोई पागल कह सकता है?
ख़ैर, वह बिलकुल जल्दी में था, अरबरा गया, उसे जाना था.
इसलिए जो-जो वह तेज़ी से बड़बड़ाता गया, वह मुझ तक उसकी ‘कांय-कांय’ बनकर पहुँचा.
उस दिन के बाद से किसी कऊए को मैंने नहीं देखा.
बस उसकी थकान के लिए जो टैब्लेट खरीदी थीं, उनका क्या करूँ यही सोचता रहा.
पता नहीं, वह उड़ भी पाया होगा या नहीं,
यही सोचता हुआ खटके की तरह हर रात अचानक उठ जाता हूँ.
और हर बार दिख जाती है, उस शाम सड़क पार करते कौए की लाश.
सच उसके पंखों में जंग लगा हुआ था
और पेट से अंतड़ियाँ नहीं, गोलियाँ निकल रही थीं.
(02 अक्तूबर, 2013)
8.
एक दोपहर का इंतज़ार
राजीव चौक स्टेशन से जो मेट्रो रेल
यहाँ तक लेकर आई, उससे उतर गया.
बिना उतरे मैं द्वारका के किसी सेक्टर पहुंच जाता.
पर मैंने इस स्टेशन पर जमीन से कुछ चालीस-पचास फुट ऊपर प्लेटफार्म पर उतर कर अपनी पीठ पर लदे बैग से चेन खोलकर उसके अंदर रखे केले को निकालकर खाने के लिए यह दोपहर चुनी. यह मेट्रो स्टेशन चुना, जिसका नाम आर.के. आश्रम है. आर.के. आश्रम मतलब रामकृष्ण आश्रम.
इस दोपहर के लिए मैंने कभी इंतजार नहीं किया था.
वक्त ने मुझे इधर धकेल दिया.
इसमें मेरी मर्जी कोई मायने नहीं रखती.
कुछ मायने रखता है तो यह एक बात कि जब पंछी अपना घोंसला छोड़ देते हैं, तब भी बहुत कुछ नहीं छूटता एक झटके से. जैसे वह लौटते होंगे, अशोक और आम की सबसे मजबूत डाल पर, मैं सिर्फ इस स्टील की बैंच पर लौट सका.
यहां से नीचे झांकने पर एक चौराहा दिखता है. एक सड़क कनॉट प्लेस चली गई, एक झंडेवालान जा रही है, एक गोल मार्केट चली जाएगी और आखिरी वाली सदर बाजार ले जाएगी.
मुझे इनमें से कहीं नहीं जाना. सड़क यूं भी किसी को कहीं नहीं ले जा पाई हैं. वह तो कदम हैं, जो चलते हुए मुड़ जाते हैं किसी दिशा की ओर और ऐसे मंजिल सामने आ जाती है.
मेरी फेहरिस्त में यह सबसे ऊपर की जगह है. यहाँ से घर जाना कभी याद नहीं करना पड़ा. जो सड़क गोल मार्केट और झंडेवालान जा रही है, उन दोनों में से किसी पर भी चलते हुए मंदिर मार्ग पहुंच जाना बहुत ही आसान काम है. यह उतना ही आसान है, जैसे डैने फैलाते और सिकोड़ते हुए हवाई जहाज उतर आता है हवाई पट्टी पर.
मेरी हवाई पट्टी का नाम मंदिर मार्ग है. जहां तक भी आज पहुंचा हूं और आगे जहां तक उड़ पाऊंगा, उसमें इसी का योगदान माना जाए.
स्टील के इस बैंच पर बैठ कर बहुत सारी स्मृतियों से एक साथ गुजर सकता हूं पर मेरी सीमा है कि मेट्रो में तय समय पर सफर पूरा न करने पर जुर्माने की रकम देने पड़ती है.
मेरे हिस्से जुर्माने की रकम की शक्ल में यह पंक्तियां आई हैं. जहाँ तक कल था, वहाँ अब नहीं हूं. इन पंक्तियों में ही कहीं मेरा रोना और रोने की कोशिश दोनों छिपी हुई हैं. किसी से कुछ कहते नहीं बना, अब यहाँ नहीं रहता. अभी भी छिपा ही रहा हूं कि अब कोई यहाँ मुझसे मिलने मत आना.
जहाँ से कहीं जाने की कोई जल्दी नहीं थी, बिलकुल वहीं घड़ी बार-बार देखकर झुंझला गया था जैसे. अब यहाँ रुका नहीं रह सकता. यह भी नहीं तय कर सकता कि अगली बार किस काम के लिए यहाँ कितनी देर रुक पाऊंगा. कभी कोई काम बना भी पाऊंगा, जहाँ यहाँ से गुजरना पड़े ?
कुछ समझ में नहीं आया. जो समझा वह सिर्फ इतना था कि पता बदलना इतना ही आसान होता तो कोई पंछी हिमालय के पीछे, साइबेरिया से उड़कर एक बार किसी नजफगढ़ की झील तक आने में लगने वाली ऊर्जा खर्च करने के बाद वापस कभी नहीं लौटता. मेरे लिए इस घटना में वापस लौट आने की संभावना को टटोलना और साइबेरिया जैसे इस मेट्रो स्टेशन की याद को बनाए रखना है.
(१६ जून, २०२१, मेट्रो में घर लौटते हुए)
9.
टीटू
हम सबके लिए उसका नाम टीटू ही था.
बचपन से हम उसे ऐसे ही देखते आ रहे थे.
देखने का मतलब यह नहीं कि वह दर्शनीय स्थल था,
हमने उसे बोलने की चाहना लिए हुए देखा है.
छटपटाते-बिलखते
आँखें बाहर निकलने को हो आती थीं,
पर नहीं निकल पाता था कोई भी स्पष्ट शब्द.
हर बार और जितनी भी बार, उसने बोलना चाहा,
थूक बने राल के साथ लिपटी हुई कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ निकलीं.
जिसे हमारी भाषा का व्याकरण नहीं समझा, न कोई हमारी मदद कर सका.
वह हमारी तरह ही कहना चाहता था,
अपने दिल में आई कोई प्यारी-सी, नन्ही-सी कोई बात
कहीं किसी कोने में दबी रह गयी कोई याद.
जब भी वह बोलता,
उसके शब्दों के साथ लिपटे-लिथरते जाते ध्वनि-कण
थूक से लिजलिजे हमारे कानों से पहले आँखों तक पहुँचते
और हम जल्दी ही उसके सामने से भाग लेना चाहते.
नहीं देखना चाहते थे, उसकी भीगती-गंधाती कमीज
जो बताती जाती, कितना कुछ है उसके पास,
जो वह हर किसी के साथ बांटना चाहता था.
उसके घरवाले बताते हैं,
गुसलखाने में फिसल कर उसकी मौत हुई.
लेकिन मुझे पता है, यह झूठ है.
वह तब फिसलकर गिरा होगा
जब कुछ बोलने के लिए सालों जूझने तड़पने के बाद,
सहसा उसकी कनपटी के पास उभर आई होंगी नसें,
लड़बड़ाती जीभ पर काबू पाने के लिए
सारा बचपन आँखों के सामने दौड़ गया होगा.
सारी ऊर्जा को समेट,
वह अपना ही नाम बोलना चाह रहा होगा.
जिसने भी उस वक़्त उसे सुना होगा,
वह बताएगा, उसका नाम टीटू तो बिलकुल नहीं था.
और इन सबके बीच
मैंने आज से पहले कभी उसके बारे में नहीं सोचा
कभी उसके लिए समय नहीं निकाला.
पर आज अपनी इन पंक्तियों को पढ़ कर लगता है, इन सबमें छुपी होगी,
मेरे अन्दर की दया, सहानुभूति, उपेक्षा के बाद उपजी भावना
या मेरे अन्दर का ऐसा ही कोई भाव,
जिसने मुझे एक अदद धड़कते दिल के साथ अभी तक जिन्दा रखा..
(संभवतः2008/09)
10.
गुप्ता जी का न लौट पाना
सब कहते हैं,
वह भिन्गा से लौट रहे थे. धूप बहुत थी.
सिर पर बाल नहीं थे. गर्मी लग गयी होगी.
सिर चकरा गया होगा. चलती मोटर साइकिल से गिर गए होंगे.
गिर कर मर गए होंगे.
उनके लौट आने की संभावना
तब तक थी, जब तक यह दृश्य घटित नहीं हुआ था.
पता नहीं क्यों,
इस दृश्य को अपने अंदर दोबारा से रच रहा हूँ ?
वह एक बहुत गरम दोपहर, सड़क किनारे,
सिर में चोट लग जाने के बाद, खून से लथपथ पड़े हैं. अचेत हैं.
ज़मीन पर पड़े-पड़े आँखों के सामने सब धुंधला होता जा रहा होगा,
कुछ दिख नहीं रहा होगा.
ख़ून का सिर के पीछे से बहना एक पल के बाद महसूस नहीं हुआ होगा.
आँखों में अंधेरा छा रहा होगा. उसमें रौशनी कम हो रही होगी.
बेहोशी में कुछ समझ नहीं आ रहा होगा.
वरना कितनी ही बार इस तपती धूप में खरबुपुर से
चिलवारिया पैदल चले आया करते होंगे, यही सोच उठकर चलने लगते.
जिस मोटर साइकिल वाले ने उन्हें कचहरी से बिठाया था, वह भी इस पूरे दृश्य में कहीं नहीं है.
वह लौट पाते,
अगर यह दृश्य कभी घटित नहीं हुआ होता.
पर क्या करूँ, अमर उजाला की इस एक कॉलम वाली ख़बर का ?
पिता मेरी शादी की सारी ज़िम्मेदारियाँ गुप्ता जी को देने वाले थे.
अब नहीं दे पाएंगे. बाहर दालान में कुर्सी पर बैठे यही सोच रहे होंगे.
शचीन्द्र आर्य 09 जनवरी, 1985 कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. |
ताज़गी लिए हुए बेहतरीन कविताएँ। कवि को शुभकामनाएँ। समालोचन का धन्यवाद ।
शचीन्द्र आर्य की कुल कविताओं से यह सूचना मिलती है कि एक ध्यातव्य कवि हमारे बीच है। उनकी कविताओं में कोई कम या कोई अधिक अच्छी हो सकती हैं लेकिन इनमें उनके बेहतर कवि की होने की उपस्थिति बनी रहती है।
और यही महत्वपूर्ण बात है।
बधाई।
“मुक्तिबोध जिसे रचना का तीसरा क्षण कहते हैं,
उसके पास पहुँचने ही वाला हूँ.
तब लिखूंगा एक कविता.”
शचीन्द्र आर्य की कविताएं विस्मृति का सहज प्रतिवाद हैं।
ये कविताएं गंतव्य को लेकर उतनी चिंतित नहीं हैं जितनी रास्ते को लेकर, पहुँचने की प्रक्रिया को लेकर सावधान हैं।
उम्र के जिस पड़ाव पर कवि प्रायः बहिर्मुखी होते देखे जाते हैं, शचीन्द्र निरायास अंतर्मुखी हैं।
वे अपने अंतर्द्वन्द्वों को जितना खोजते, पहचानते और यथावसर रचते जाएंगे उनकी कविता हमारे लिए उतनी अनिवार्य होती जाएगी।
बेहतरीन कविताएँ | आपकी कविताएँ पढ़ी तो पहली बार अहसास हुआ “दिल्ली को जहाँ जहाँ से गुजरो, थोड़ा सा जरूर ठहर कर देखो… सड़क में चलो तो भूल जाओ औफिस में, घर में क्या हुआ था, देखो सोचो, अहसास करो… नहीं तो अगले बीस साल भी यूँ ही निकल जायेंगे, अजनबीपन और बुढ़ापा लिए |
नवीन दृष्टि और ताजगी से भरी कविताएँ जिन्हें बार बार पढ़कर भी थकावट नहीं हो रही (लगता है जैसे कवि ने इन कविताओं को लिखते हुए पाठक के हिस्से की थकान सारी पी ली |
शचीन्द्र आर्य जी को हार्दिक शुभकामनाएँ
मन के बहुत क़रीब जाने वाली कविताएँ हैं। अच्छी प्रस्तुति के लिए समालोचन व कवि को साधुवाद।
बेहतरीन कविताएँ शचीन्द्र आर्य
कमाल की कविताएं हैं । इनका कमाल यह है कि वे यह सोचने पर मजबूर कर देतीं हैं कि शायद अब कहीं कहीं कविता बहुत आगे बढ़ गई है । उनके रचनाकर्म में उनकी काव्यचेतना अनोखी नज़र आ रही है । शब्दों को टांकने का उनका उपक्रम सचेत काव्य कर्म की नई शिनाख्त हो सकती है ।
मैं ऐसे कवि के आगमन से चौंक गया हूँ , पर उसमें खुशी घुली हुई है । उन्हें मेरी मुबारक़ बाद दें ।
फ़ेसबुक पर प्रेम-केंद्रिक कविताओं की इतनी बहुतायत है कि महसूस होता है कि प्रेम ही जीवन में एकमात्र विषय रह गया है। लिजलीजी भावुकता से ग्रस्त, आत्मलिप्त, ऐकांतिक अनुभवों की कविताएँ। सुखद है कि शचीन्द्र की कविताएँ उनसे विलग हैं। केवल विषय में ही नहीं, अपनी वस्तुनिष्ठता में भी। ये कविताएँ अचानक वहाँ ले जाती हैं जहाँ प्राय: कविता की संभावना नहीं होती। धौला कुआँ, जहाँ कुआँ एक विस्मृति है। दिल्ली की जर्जर बस में चिढ़े हुए बस-कंडक्टर के पास। रामकृष्ण आश्रम मेट्रो स्टेशन के बाहर, जहाँ छीलकर एक केला खाया जा सकता है। अथवा ‘अमर उजाला’ के एक छोटे कॉलम में, जहाँ एक नागरिक की दुर्घटना में मृत्य कोई दुखांत नहीं, रोजमर्रे की ख़बर है। शचीन्द्र की कविताएँ अपने पाठ में सहज हैं, और वे अपने पाठ में ही खुलती हैं।
शचीन्द्र आर्य की कविताओं ने मुझे परेशान तो किया। एक भीगा-भीगा -सा दर्द जो रिस रहा है लगातार और भिगोना चाह रहा है अंतस को, पर इसमें वह सफल नहीं हो पा रहा।
ऐसा क्या है इन कविताओं में जो उदासी को साथ चल रहा है कोई और कबूतर के दाने-सा बिखेर देता है जगह-जगह-लो इसे उठा लो चुग सकते हो तो चुग लो।
एक यायावर विह्वल हृदय लिए भटक रहा यहां से वहां और सुना रहा जग का मुज़रा।
दुख के बिना कविता नहीं लिखी जाती। और भी इसके पर्याप्त कारण हो सकते हैं। पर शचीन्द्र आर्य के दुख बहुत सूक्ष्म वायुमंडल में घूमते कणों से हैं। जिसे होने का दावा कोई नहीं करता है।
मैं महसूस करता हूं कि इन कविताओं के लिए शचीन्द्र को बधाई और धन्यवाद जैसे शब्द कहने में व्यर्थ नहीं जाएंगे।
हीरारलाल नागर
शचीन्द्र की कविताएँ देखने का नया अंदाज बताती हैं
कविताएँ ऐसी की पूरा दृश्य बनता है और अंतिम वाक्य खत्म होते ही मन भारी होने लगता है और कहीं ‘धक्क’ सा लगता है। 21वीं सदी के चकाचौंध दुनिया में क्या कुछ छूट रहा है, हम क्या हो रहे हैं और संवेदनाओं का ‘कमोडिटी’ में बदलते जाने का बारीक चित्रण है।