भूपेन्द्र बिष्ट
गोठ में बाघ
शचीन्द्र आर्य
‘गोठ में बाघ’ भूपेन्द्र बिष्ट का पहला कविता संग्रह है, जो इसी वर्ष, 2023 में प्रकाशित हुआ है. इसमें कुल इकसठ कविताएं हैं. एक व्यक्ति जो यहाँ कवि भी है और जिसका कविता संग्रह अधिवर्षता की आयु में प्रकाशित होता है, वह इस नाम का आग्रह क्यों करता है? कविता को समझने के लिए उसकी कविता संग्रह का शीर्षक बहुत मानीखेज हो सकता है. शीर्षक ‘गोठ में बाघ’ में जो ‘बाघ’ है, वह कहाँ है ? ‘गोठ’ का क्या अर्थ है? बाघ और शेर में कुछ तो अंतर ज़रूर होता होगा. क्यों यहाँ शेर नहीं है, बाघ है. क्या पहाड़ों में सिर्फ बाघ थे? शेर नहीं थे? इन प्रश्नों का कोई एक उत्तर नहीं दिया जा सकता.
सबका अनुभव संसार अलग-अलग है. सबकी स्मृतियाँ अलग-अलग हैं. मेरे या मैदानों में रहने वाले लोगों के लिए शेर या बाघ चिड़ियाघरों में पाये जाने वाले वन्य जीव हैं. मेरी या मेरे जैसों की स्मृति वहीं तक सीमित हैं. जब तक कि उनके अनुभव संसार में कोई आमूलचूल तबदीली न हुई हो या फिर चिड़ियाघर से बाहर निकल कर प्राकृतिक परिवेश में उनका सामना किसी बाघ से न हुआ हो. कवि इस अर्थ में हमसे अलहदा है कि उसके पास ऐसा अनुभव है, जो ‘गोठ’ को पहचानता है. यह उसकी भाषा का शब्द है. यह बाड़ा या गोठ ही हमारे संसार को निर्मित करता है. उसके बाहर (व्यक्तिनिष्ठ) वास्तविकता का कोई अर्थ नहीं है.
इस संग्रह को पढ़ते हुए सबसे बड़ा प्रश्न यही सामने आता है- किसी भी व्यक्ति को मूलतः कहाँ का मानना चाहिए? इस सवाल से पैदा हुई जटिलताओं के बीच ही हम भूपेंद्र बिष्ट की किसी भी कविता को समझ सकते हैं. उनका कथ्य, भाषा, संरचना, उसमें व्याप्त भाव या संवेदना आदि इसी के इर्दगिर्द बुनी गई हैं.
यह कवि खुद को कहाँ का कह पाएगा? सब अपने आप को कहते पाये जाते हैं, हमारा असली घर यहाँ नहीं है. कहीं और है. कविता ‘फुटकर ज़िंदगी’ नौकरी के अनुभवों को कहती है. वह बरेली में हैं. किराए के मकान में रहते हैं. मकान मालिक की माँ दमे से परेशान पड़ी रहती हैं दिन भर खटिया पर. मकान मालिक की बेटी बरेली के कॉलेज में पढ़ती है. उन्होंने कवि के लिए वान की खटिया दे दी और एक रैक, किताबों के लिए खाली कर दिया. चार दिन में ही घुल मिल से गए वहाँ. इसी में एक दिन-
एक रोज़ सुबह लड़की बोली
भाई साहब खाना कमरे में ही बना लिया करो
होटल का कब तक खाएँगे
मैंने कहा हाँ, सोच तो रहा हूँ मैं भी
शाम को बताता हूँ
शाम को बताया मैंने
मेरा तबादला हो गया बाराबंकी.
(पृष्ठ- 26)
कवि नौकरी करता है, जिसमें तबादला हो जाना बहुत आम बात है. वह लोगों से मिलता है. मिलकर छूट जाता है. जगहें छूट जाती हैं. संघर्ष के साथी छूट जाते हैं. ऐसे ही उसने अपने जन्म वाला गाँव छोड़ा होगा. इस एक छूटने में भी बहुत सारी चीज़ें छूट जाती होंगी, पर नहीं छूट पाती होंगी स्मृतियाँ. यह स्मृतियाँ एक व्यक्ति को जिंदा रखती हैं. नदी का पत्थर भी नहीं भूलता कुछ भी. हम तो फिर भी जो बीतता है, उसके कहने की गरज से कहते जाते हैं. यह छूट जाने का भाव जीवन का सत्य है. जीवन इसी में हैं कहीं. छिपा हुआ सा.
‘इमला’ कविता में शाम को छोटी बहन को इमला लिखाने, पड़ोस की लड़की से बात करने के बीच अचानक ऐसा मोड़ आता है, जहां पिता से लड़ने के बाद युवा लड़के घर वापस नहीं लौटते-
इसके बाद हमारी तमाम शामें खाली रहती हैं
इन्हें भरते हैं हम
दूसरे शहर में, दफ्तर से लौटकर
अपने क्वार्टर पर काम से.
(पृष्ठ– 61)
ऐसे में व्यक्ति ख़ुद को कहाँ का मान सकता है. वह थोड़ा अल्मोड़ा, थोड़ा बरेली, थोड़ा बाराबंकी का हुआ. उसका जीवन इसी तरह अलग-अलग स्थानों पर बीतता रहा, उसने वहाँ जो जीवन व्यतीत किया, क्या उसमें मिलावट है? शायद. कह सकते हैं. एक जीवन जो जिया जा रहा है और एक जीवन जो वह जीना चाहता है. यहाँ सिलबट्टे हैं, एलबम हैं, लेटर बॉक्स है, नए साल का कैलेंडर है, सूटकेस है, नैनीताल और इलाहाबाद है. इसी सबमें यह दैनिक जीवन है. यहाँ कविता और एक पाठक को इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है, जो स्मृति है, जो कभी भावनात्मक रूप से बहुत पास लगता है, उसका पास न होना कवि को अखरता है. यही अनुभव, स्मृति, भाव उसका कच्चा सामान है. उसकी कच्ची मिट्टी है, जिस पर उनकी कविता खड़ी हुई है.
(2)
पहाड़ के दो कवि जो हिंदी कविता के शिखर पर हैं- कवि वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल की अनुपस्थिति को भी वह इन कविताओं में महसूस करते हुए चलते हैं. संग्रह की कविताओं के बीच इन दोनों कवियों के काव्यांश ‘तर जंगल’ (पृष्ठ 34) और ‘खुशी की परिभाषा’ (पृष्ठ 31) में सहज ब्यौरे की मानिंद नींद- बचपन- सपने- चाँद- निराशा- आँसू सामने आते हैं और लगने लगता है, वह पंक्तियाँ मानो इनकी कविता में भी उसी तरह रम गयी हैं. जैसे वीरेन डंगवाल की पीटी उषा पर कविता है, उसी तरह यहाँ मीरा बाई चानू (पृष्ठ-102) नाम से कविता है.
कवि का बचपन पहाड़ों पर बीता. यह कविताओं में बार-बार रेखांकित होता है. यहाँ अल्मोड़ा का नाम नहीं है. उसकी याद है. कविता में वह उपस्थित हैं. यहाँ पुष्पभद्रा और गगरांचल नदी का संगम है, रानीबाग में गौला नदी का डेल्टा है. मकर संक्रांति के दिन किसी नदी किनारे सुघड़ और बेलौस पत्थर खोजने में जाड़े के उत्तरोत्तर कम होते जाने की आशा थी. एक त्योहार किस तरह बचपन को रच रहा था, यही कविता ‘मकर संक्रांति’ (पृष्ठ 13-14) बताती है. युवावस्था में अधूरा प्रेम, अधूरे खतों के साथ-साथ इन कविताओं में पहाड़ की तरह पिता-माता मौजूद हैं. नहीं भी हैं, तब भी वह हैं-
कुछ सब्जियाँ
जिन्हें पिता न जाने कहाँ से लाते थे
और माँ ही बनाना जानती थी उनको
अब दिखाई नहीं पड़ती
(अफ़गान स्नो, पृष्ठ 39)
तब जिग्स कालरा की किताब की ज़रूरत नहीं थी. माँ ही थी, जो ल्यूंण, सगीना, उगल और तिमिले (सब्जियाँ) बना रही थी. माँ ‘अफ़गान स्नो’ की एक पुरानी खाली डिबिया साफ़ कर उसमें जीरा रख छोड़ती है. भीमसेनी काजल की डिबिया, भृंगराज केश तेल की शीशियाँ खाली हो जाने पर रसोई में अपनी जगह बना लेती हैं. पिता कहीं दालान या बाहर मुहारे पर बैठे हैं और आते हुए सर्द मौसम की आहटों को महसूस कर रहे हैं:
पहाड़ पर
कार्तिक बीतते न बीतते
पिता घोषणा कर दिया करते
यार, अब जाड़े शुरू हो गए.
मार्गशीर्ष की चटक धूप में भी बाहर बैठे
सशंकित पिता आकाश ही को देखते रहते
फिर अचानक बड़बड़ाने लगते
देखो मेरा पशमीना पड़ा होगा कहीं अंदर
गलत नहीं कहता हूँ मैं
लो आ गया दुश्मन..
(जाड़ों में पिता, पृष्ठ-19)
‘आजमगढ़ से अल्मोड़ा’ कविता (पृष्ठ-33) के पिता, जंघई राम आजमगढ़ से हैं. उन्होंने अपनी बेटी की शादी अल्मोड़ा में की. जहाँ उसका पति अस्पताल में वार्ड बॉय है. वह एक दिन अपनी बेटी के यहाँ सत्तू और कुंदरु लेकर आए. वह जानना चाहते हैं अपनी बेटी का हाल चाल. जिस सुबह वह लौट रहे थे, उस सुबह बेटी ने ‘गहत’ और ‘भट’ (दालें) बाँध कर उन्हें दे दीं-
चलते वक़्त
पूछना चाह रहे थे बाबूजी
कैसे बनाते हैं
इन पहाड़ी दालों को
पर उन्होंने पूछा फिर से
वही
तुम खुश तो हो न रानी.
‘रेडियो’ नामक कविता में पिता की अनुपस्थिति भी उन्हें घर में उपस्थित बनाती है. रेडियो के दिनों में बच्चों को सिर्फ़ रात में समाचार सुनने की अनुमति थी. वह उस पर गाने तब सुन पाते जब, पिता घर पर न रहते और कोई कच्चे शोहदे सहपाठी आ जाते या ताऊ के लड़के, उनके भाई उस पर गाना बजाते. वरना-
रेडियो रहता अपनी जगह पर ही
बदस्तूर चालू हालत में
पिता लौटते दौरे से प्रायः देर शाम ही
सबको खामोश हो जाना पड़ता
माँ की रोटी बनाने वाली खटर पटर पर भी
एक किस्म की बंदिश रहती उस समय
(पृष्ठ ६९)
रेडियो, जो आवाज़ से भरा हुआ था, वह पिता के आने पर चुप अपनी जगह पड़ा रहता है. वह भी माँ और उनकी तरह कुछ भी बोल पाने की हैसियत में नहीं रह पाता. यह सत्ता जो पिता के पास थी, जिसका वह उपभोग कर रहे थे, इसका एक दिन क्या होता है, यह कविता बहुत दिलचस्प तरीके से हम पाठकों के सामने खोलती है. समय बीतने के साथ क्या हुआ आख़िर इस रेडियो का? एक समय आया, जब नया घर बनवाया और उसके बाद वह रेडियो कभी कहीं दिखाई नहीं दिया. क्या हुआ उसका, यह भेद एक दिन खुल जाता है-
उसके लिए
सागौन का जो छोटा सा बक्सा बनवाया गया था
अलबत्ता, उसके दरवाजे का एक क़ब्ज़ा मिला कल
अपनी नन्ही नन्ही पेंच-कील समेत
पड़ा हुआ स्टोर में.
क्या किसी पाठक को इसे पिता पर एक टिप्पणी नहीं माननी चाहिए, यह उसके विवेक और अनुभव पर निर्भर करता है. जिसकी एक समय पूछ थी, जिसका शासन चलता था, वह भी एक कोने भर जगह में सिमट गया.
(3)
संग्रह का कवि इन कविताओं में बहुत सारी स्त्रियों को एक साथ देखता है. वह कालिदास द्वारा रचित महाकाव्यों की स्त्रियों को याद करते हैं (बारिश, पृष्ठ- 11). वह घर से भाग गई हैं. उन्हें दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया है. कोई उसकी स्मृतियों में असफल प्रेम की स्मृति के स्मारक की तरह है। जब एक लड़की उनसे कमीज़ लेकर उसमें बटन टाँकने की बात कहती है, जिसे वह मना कर देते हैं (प्यार में देरी, पृष्ठ- 17)। वहीं किसी लड़की को वह चाह कर भी अपने मन की बात न कह पाये, इसका मलाल भी है (ख़ुश-फ़हमी का अंतराल, पृष्ठ- 24)। उनकी कविताओं में हेमंत स्त्रियॉं के हँसने की ऋतु है (पृष्ठ-27). यहाँ पहाड़ पर लकड़ियों के गट्ठर ले जाती औरतें हैं. जानवरों के डर से अँधेरा होने से पहले लौटती औरतें हैं. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. बीमार हो जाने के बाद भी उनकी बीमारी का घर पर किसी को पता न चलने देने वाली औरतें भी हैं. वह खुद नहीं जाती डॉक्टर के पास अल्मोड़ा. बस इंतज़ार करती हैं-
शाम झुटपुटे में लौटे बुजुर्ग जन
पसीने से लथपथ, हाँपती। खाँसती स्त्री को जब
दवा की गोली वाली पुड़िया सौंपते हुए
ताकीद करते हैं-
टाइम पर खा लेना इन्हें
वह इतना ही पूछती है
बताया था वहाँ, उनको ठीक से
मेरे कमर का दर्द जा ही नहीं रहा कहा
जवाब में सुनाई पड़ता है-
रोटी लगा, ज़्यादा बकर-बकर मत कर.
(स्त्री की बीमारी, पृष्ठ- 58)
शहरों और मैदानों में रहने वाले लोग यही समझते हैं, कि बीमार हुए तो पहाड़ पर चले जाओ, सेहत अपने आप आ जाएगी. लेकिन जो औरतें वहीं इन पहाड़ों पर रहती हैं, कभी डॉक्टर से सीधे मिल भी नहीं पाती हैं. बीमार होने पर भी उन्हें घर के काम में उलझाए रखा जाता है. उनके एवज़ में पुरुष दवाई ले आते हैं और यह औरत:
धूप में बैठना भी एक काम समझती है अपना
तंदुरुस्ती के नाम पर आडू के पेड़ से
बंगले के गेट तक तीन चक्कर लगाती है
शाम को
(ख़त: तीन फुटकर कविताएं, पृष्ठ- 63)
समकालीन कविताओं में जिस तरह से स्त्रियाँ दिखाई पड़ती हैं, उनमें यह कविताएं बिना शोर किये जुड़ती जाती हैं. विमर्श की दुनिया में यह आश्चर्य की तरह दिखाई पड़ रही होंगी. कैसे यह अनदिखी रह पाईं अभी तक !
इन औरतों में ही कवि की दीदी भी है. यह कविता दीदी की फ़ोटो (पृष्ठ-53) के बारे में है. शादी के सिलसिले में लड़के वालो ने लड़की को देखने से पहले उसकी तस्वीर मँगवाई है. पिता घर पर यह बात बताते हैं. दीदी उनके साथ फ़ोटो खिंचवाने जाती हैं. तब पिता उसके एक हल्के रंग का पुराना, फीका सा स्वेटर पहन कर स्टूडिओ में फ़ोटो खिंचवाने आ जाने वाली बात पर गुस्सा हो आते हैं. ख़ैर दीदी लड़के वालो को पसंद आ जाती है, शादी भी हो जाती है. कुछ समय बीत जाता है-
पिता गए कुछ महीनों बाद दीदी के ससुराल
मैं भी गया समधौरा में
वहाँ फ्रेम में मढ़ी गयी वहीं फ़ोटो सजी थी मेज पर
उसे देखते हुए पिता ने दीदी को उपहार दिया
एक नया सिंदूरी स्वेटर.
(दीदी की फोटो, पृष्ठ- 53)
इन छोटी-छोटी बातों और घटनाओं में ही हमारे कवि की कविता घटित होती हैं. जी हां, यह घटित ही हो रही हैं. हमारे सामने. किस क्षण यह पाठक के भीतर घटित होगी, यह पाठक के अभ्यास पर निर्भर करता है.
इन कविताओं में बीत रहे जीवन में उसकी माँ भी है. वह उन्हें किस तरह याद करते हैं, यह हमें देखना चाहिए. जैसे ‘रेडियो’ कविता में वह हैं. वह पिता की अलग-अलग नामों वाली सब्जी लाने पर प्याज के काले बीज, ज़ीरे से उन्हें छौंकती खाना बना रही हैं. इनमें एक कविता है- ‘माँ का नाम’ –
मैं जीवन भर उसका नाम न जान सका
एक दिन पिता के सरकारी दस्तावेज़ों में
‘विशना’ नाम दिखा मुझे
संशय है अब भी
कि माँ के नाम वाला ‘स’
तालव्य ही है या कि होना चाहिए दंत्य
या फिर कहीं ऐसा तो नहीं
वह रहा होगा वहाँ मूर्धन्य.
(पृष्ठ – 54)
एक स्त्री जो किसी की माँ रही, उसका नाम उनका बेटा जान ही नहीं पाया. इस न जान पाने में नाम की उपयोगिता को देखने से पहले माता और पुत्र के संबंध में नाम की आवश्यकता पर गौर किया जाना चाहिए. पिता के किसी सरकारी कागज में भले संभाल कर रखा गया था मां का नाम पर इस नाम का न दिख पाना और कभी नाम न जानने की इच्छा का समाज में स्त्रियों को सामने पाकर भी उन्हें न देख पाने का स्वांग ही तो है. यह कविता इस बात को उघाड़ कर रख देती है. सब दिख रहा होता है, पर हम देखना नहीं चाहते.
(4)
इन सारी बातों के साथ इन कविताओं को एक साथ रखने पर इस संग्रह की मूल संवेदना क्या है या तह में जाकर हमें क्या मिलता है ? इस प्रश्न के जवाब हम सबके पास यहाँ तक आते-आते एक आकार ज़रूर ले रहे होंगे. इस संग्रह के जितने पाठक होंगे, वह अपनी तरह से लेंगे. मेरे लिए यहाँ उत्तम पुरुष में बात करना अपरिहार्य लग रहा है. इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे कैसा लगा ? यहाँ स्मृतियाँ हैं. किसी घटना या दृश्य का ब्यौरा है. कोई खास भाव है, जिसे कवि हमें दिखा देना चाहता है. इस सबमें इस संग्रह की एक कविता के साथ अपनी बात को समाप्त करता हूँ. आप भी पढ़िये. कविता का शीर्षक है, ‘पत्थर की दहाड़’.
एक दिन ऐसा होगा
अब
कि मनुष्य चीख़ना-चिल्लाना छोड़ देगा
तब्दील हो जाएगा
एकदम ख़ामोश और ठोस पत्थर में
जम जाएगा नदी के बीचों बीच वह
धारा को दो भागों में बांटेगा फिर
छोटी मछलियां छिपा करेंगी उसकी जड़ में
बड़ी मछलियों से टकराएगा वह
पानी के साथ बहकर आने वाली
घास और पत्तियाँ
पत्थर के साथ लगकर
झाग बनाएँगी कुछ देर
तब आगे बढ़ेंगी
दिन में यूँ लगेगा पत्थर
जैसे कोई अपना बदन छुपाता हो वहाँ
कोई अपना सर उठाता हो जैसे
रात को यूँ लगेगा पत्थर
एक दिन नदी भी सूख जाएगी
वह पत्थर दहाड़ेगा उस दिन
उसकी दहाड़ सुनेंगे
धूप में फैले
आसपास के दूसरे पत्थर.
(पृष्ठ- 60)
इस कविता को पढ़कर इसमें आए बिंबों पर थोड़ी देर ठहर कर अपने मन में एक बहती हुई नदी का चित्र बना कर देखिये. पहाड़ों के बीच इधर-उधर मुड़ती नदी की धारा और उस उजले पानी के भीतर पड़े हुए गोल और ऊबड़-खाबड़ पड़े पत्थरों को अपनी कल्पना में रचकर देखिये. पानी के बहने, पत्थरों से टकराने की आवाज़ है. घास और काई दिखाई दे रही है. पानी बिलकुल वैसे बह रहा है, जैसे कविता बता रही है.
बस हुआ इतना है, हम सब अभी पत्थर हुए नहीं हैं.
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