बिहार में नवजागरण और शिवपूजन सहाय |
हिंदी पट्टी में नवजागरण की चर्चा अक्सर होती रहती है और इस चर्चा में उत्तर प्रदेश के लेखकों का जिक्र भी होता रहता है लेकिन इस चर्चा में बिहार के लेखकों के योगदान पर बात कभी नहीं होती.
वैसे तो कई लोग यह मानते हैं कि हिंदी पट्टी में बंगला नवजागरण की तरह कोई नवजागरण हुआ ही नहीं और हिंदी नवजागरण की जगह हमें भारतीय नवजागरण पर बात करनी चाहिए.
कुछ लोगों ने हिंदी नवजागरण को हिन्दू नवजागरण भी कहा है और हिंदी को “राष्ट्रवाद” और “हिंदुत्व “से भी जोड़ने का प्रयास किया है. इन विवादास्पद अवधारणाओं को हम अगर थोड़ी देर के लिए अलग कर दें और नवजागरण पर विचार करें तो क्या बिहार में यह नवजागरण नहीं हुआ था? और अगर हुआ तो इसकी सैद्धान्तिकी किसी ने विकसित क्यों नहीं की या इसकी जांच पड़ताल क्यों नहीं की गई. यह काम नवजागरण विमर्शकारों और इतिहासकारों का है.
क्या रामविलास शर्मा की तरह बिहार के नवजागरण का कोई इतिहासकार सामने आया जिसने इस अवधारणा की आधार भूमि तैयार की हो.
रामविलास शर्मा का मानना रहा कि हिंदी नवजागरण 1857 की क्रांति के बाद हुई. इस क्रांति के बाद हिंदी पट्टी में स्वतंत्रता की जो लहर फैली उसमें न केवल हिंदी भाषा और पत्रकारिता का भी विकास हुआ बल्कि एक सांस्कृतिक लहर भी फैली और पुस्तक प्रकाशन के केंद्र भी खुले- चाहे वह लखनऊ का नवलकिशोर प्रेस हो, पटना का खड्ग विलास प्रेस हो, बनारस का ज्ञानमंडल हो, कोलकत्ता का बालकृष्ण प्रेस हो या इलाहाबाद का इंडियन प्रेस हो.
इसी दौर में बिहार में शिक्षा का विकास भी हुआ. खुद वीरकुंवर सिंह के प्रयास से आरा में स्कूल खुले जैनियों के प्रयास से स्कूल कालेज भी खुले तो लंगट सिंह के प्रयास से मुजफ्फरपुर में कालेज खुले और पटना, आरा शहरों में लड़कियों की शिक्षा के भी प्रयास हुए.
आजादी की लड़ाई में बिहार के कई लेखक जेल भी गए. चाहे बेनीपुरी हों या केदारनाथ सिंह, मिश्र प्रभात, महतो लाल वियोगी, हवलदार त्रिपाठी सहृदय, रेणु या वीरेंद्र नारायण.
इस हिंदी नवजागरण की लहर का सम्बंध बिहार राज्य की स्थापना के लिए चले आंदोलन से भी रहा जिसका नेतृत्व डॉक्टर सच्चिदानंद सिन्हा ने किया ओर उसमें महेश नारायण तथा इमाम बन्धु भी शामिल थे. इस लहर का एक सम्बन्ध गांधी के चंपारण आंदोलन और गांधी की बिहार यात्राओं से भी रहा. गांधी ने चंपारण आंदोलन के कारण बिहार के लोगों पर काफी असर डाला. गांधी ने गया, आरा, मुंगेर आदि की यात्रा की थी जिसका प्रभाव लेखकों पर भी पड़ा. बिहार में स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में हुए किसान आंदोलन से भी इस नवजागरण को हवा मिली. इसी दौर में समाजवादी आंदोलन की भी नींव पड़ी और जमींदारी उन्मूलन की आवाजें तेज हुईं.
राहुल सांकृत्यायन और भिखारी ठाकुर ने भी जनपदीय लोक संस्कृति की चेतना फैलाई.
उस जमाने में बिहार के शिक्षाशास्त्री सर गणेश दत्त ‘बिहार बन्धु’ के केशव राम भट्ट, मदन मोहन भट्ट और हसन अली, खड्ग विलास प्रेस के रामदीन मिश्र, खड़ी बोली आंदोलन के सूत्रधार अयोध्या प्रसाद खत्री के कार्यों को देखा जाए तो इस हिंदी नवजागरण का चेहरा दिखाई पड़ता है.
भारतेंदुकालीन लेखकों में आरा के नाटककार जैनेन्द्र किशोर जैन, शिवनंदन सहाय के अलावा 1902 में स्थापित आरा नागरी प्रचारिणी सभा ने भी इस नवजागरण में अपनी प्रमुख भूमिका निभाई थी. आरा के अलावा मुजफ्फरपुर, दरभंगा भागलपुर लहेरियासराय जैसे शहर भी पठन-पाठन तथा पुस्तक प्रकाशन के केंद्र बने जहाँ साहित्य नाटक नृत्य संगीत आदि की गतिविधियां रहीं लेकिन इस पूरे नवजागरणकालीन गतिविधियों के केंद्र में अगर कोई व्यक्ति हिंदी को राष्ट्र की सेवा मानकर हमेशा मुस्तैद और तत्पर दिखाई देता है और सबको आपस में जोड़े रखता है तो वह आचार्य शिवपूजन सहाय ही थे.
इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि उन्होंने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध, बीसवीं सदी के आरम्भ, और प्रेमचन्द युगीन साहित्य को समेटकर बिहार में एक विमर्श खड़ा करने का प्रयास किया. उनकी कहानियों उपन्यास, डायरियों, पत्रों, लेखों, पुस्तकों और हिंदी के विकास के लिए गए कार्यों का आप अध्ययन करें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है.
हिंदी साहित्य और पत्रकारिता तथा राष्ट्र निर्माण की जैसी व्यापक चिंता उनके लेखन और मन में थी वैसी चिंता उस समय के किसी लेखक में नहीं थी. यह अकारण नहीं कि उन्हें बिहार का महावीर प्रसाद द्विवेदी और बिहार का प्रेमचन्द भी कहा गया. यह महज संयोग नहीं कि उन दोनों लेखकों से शिवपूजन जी का सम्बन्ध भी थे.
उन्होंने द्विवेदी जी को अपना आराध्य मानकर ही साहित्य की दुनिया में प्रवेश किया था और हिंदी के विकास का संकल्प व्यक्त किया था और उनकी सेवाओं को देखते हुए महावीर प्रसाद द्विवेदी पर अभिनंदन ग्रंथ का प्रस्ताव किया. जब काशी नागरी प्रचारिणी सभा की बैठक में बाबू श्यामसुंदर दास तथा रायकृष्ण दास ने इस प्रस्ताव को स्वीकारा तो शिवपूजन बाबू उसके कार्यकारी संपादक बनाये गए. इलाहाबाद के इंडियन प्रेस के पुस्तकालय में शिवपूजन जी ने सरस्वती की फाइलों की छानबीन कर द्विवेदी जी के समस्त लेखन की एक सूची बनाई जो उनकी रचनावली में प्रकाशित है जिससे द्विवेदी जी के विपुल लेखन की जानकारी हिंदी साहित्य को मिली.
शिवजी की साहित्य की इस चिंता के केंद्र में सदल मिश्र,राजा राजेश्वरी प्रसाद और अयोध्या प्रसाद खत्री भी शामिल हैं तभी तो उन्होंने इन तीनों नायकों की रचनावलियों को प्रकाशित-संपादित किया. उनके महत्व को रेखांकित किया. खड्ग विलास प्रेस पर तो एक पुस्तक ही निकलवाई. किसी प्रकाशन गृह पर वह पहली किताब है.
राजा राधिकारण सिंह ने लिखा है कि अगर शिवपूजन जी ने मेरे पिता की रचनावली को संपादित नहीं किया होता तो हिंदी वालों को पता नहीं चलता कि मेरे पिता ब्रजभाषा के कवि थे. राजा राजेश्वरी प्रसाद, रवींद्र नाथ टैगोर के मित्र थे और राजा राधिकारण प्रसाद सिंह टैगोर के अभिभावकत्व में भी कोलकात्ता में रहे.
राजा राधिकारण प्रसाद सिंह के पुत्र उदयराज सिंह ने लिखा है कि मेरे पिता की हर रचना का संपादन संशोधन शिवपूजन बाबू ने किया था. राजा राधिकारमण ने शिवपूजन जी के निधन पर लिखा था कि किसी में रंगों बू ऐसा न पाया.
शिवपूजन जी की चिंता के केंद्र में लेखक समुदाय ही नहीं बल्कि एक तरफ गांव का विकास है, भारतीय संस्कृति की रक्षा और न्याय तथा समानता की कामना है तो गरीबी से मुक्ति दिलाने का स्वप्न भी है, स्त्रियों की शिक्षा, विधवा विवाह, प्रकाशन गृह और पुस्तकालयों के जरिये पुस्तक संस्कृति का विकास पुरानी पांडुलिपियों पोथियों को सहेजना तथा हिंदी के पुराने लेखकों की रचनाओं को संरक्षित करने उनकी स्मृति में स्मारक बनाने पत्रिकाओं को प्रकाशित करने का जतन भी रहा.
अगर हिंदी में रंग-समीक्षा का इतिहास लिखा जाए तो उसमें शिवपूजन जी का नाम ऊपर रहेगा क्योंकि “मतवाला” में उन्होंने पारसी थियेटर पर लिखा तब हिंदी में रंग-समीक्षा शुरू नहीं हुई थी.
बाद में भी उन्होंने नाट्य मण्डलियों पर टिप्पणियां लिखीं. आरा में अपने गुरु लेखक ईश्वरी प्रसाद शर्मा के साथ नाटकों में अभिनय भी किया.
अगर व्यंग्य लेखन का भी इतिहास लिखा जाए तो शिवपूजन जी का नाम रहेगा क्योंकि मतवाला में उन्होंने व्यंग्यात्मक शैली में लेख लिखे. “दो घड़ी ” उनके व्यंग्य निबंधों की अद्भुत किताब है. दरअसल शिवपूजन जी का बहुआयामी व्यक्तित्व था. जब वे राजेन्द्र कालेज छपरा में शिक्षक बने तो मैट्रिक पास होकर कालेज में छात्रों को पढ़ाने वाले वह एकमात्र लेखक थे. रामचन्द्र शुक्ल और बाबू श्यामसुंदर दास ने शिवपूजन जी के लिए इस बात के प्रमाणपत्र दिए कि वे इस पद के अधिकारी एवम् सर्वथा योग्य व्यक्ति हैं क्योंकि नियमतः एक मैट्रिक पास की कालेज में शिक्षक पद पर नियुक्ति नहीं हो सकती थी.
शिवपूजन बाबू की हिंदी सेवाओं में उनके द्वारा संपादित 4-5 महत्वपूर्ण अभिनंदन ग्रंथ भी शामिल हैं. इतने अभिनंदन ग्रंथों का सम्पादन किसी एक लेखक ने नहीं किया. रामलोचन सरन की स्मृति में निकला अभिनंदन ग्रंथ हिंदी का सबसे बड़ा अभिनंदन ग्रंथ हैं जिनमें प्रकाशित लेखों को पढ़कर आप बिहार के साहित्य पत्रकारिता का इतिहास जान सकते हैं. अगर शिवपूजन सहाय नहीं होते तो आप हिंदी के उन वीतरागी सेवियों और भूले बिसरे लेखकों को नहीं जान पाते जिन्होंने हिंदी के विकास के लिए इतना कार्य किया.
रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास से भी वह जानकारी नहीं मिलती जो शिवपूजन जी के लेखकों पर लिखे गए संस्मरणों और स्मृति-लेखों से मिलती है. उनके पास हज़ारों पत्रों के विशाल भंडार और डायरियों में भी हिंदी साहित्य का इतिहास छिपा है. शिवपूजन जी नहीं होते तो बिहार के हिंदी साहित्य के इतिहास की योजना पूरी नहीं होती जो उनके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण योजना थी. वैसी योजना किसी राज्य के साहित्य इतिहास लिखने की नहीं बनी.
उन्होंने 1926 में प्रकाशित अपने उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ में जिस तरह जाति विमर्श और स्थानीय सत्ता विमर्श को दिखाया है, वह उस जमाने में दुर्लभ है. परमानंद श्रीवास्तव, खगेन्द्र ठाकुर दूधनाथ सिंह, वीरेंद्र यादव ने इस उपन्यास के महत्व को रेखांकित किया है.
वे हिंदी साहित्य की बोलियों की शक्ति को जानते थे इसलिए उन्होंने अपने इस उपन्यास में आंचलिक भाषा का निर्माण किया जिसकी बुनियाद पर 28 साल बाद रेणु ने ‘मैला आँचल’ के रूप में अपना प्रसाद खड़ा किया.
यह संयोग है कि ‘मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ के विमोचन समारोह की अध्यक्षता शिवपूजन सहाय ने की थी और उन्हें युवा लेखक का पुरस्कार भी दिया. शिवपूजन बाबू ने हिंदी की प्रतिभाओं को पहचानने का काम किया था तभी तो निराला की ‘जूही की कली’ जब महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लौटा दी तो उसे 1922 में आदर्श में छापा, दिनकर के प्रथम संग्रह को पुस्तक भंडार से प्रकाशित किया उसकी भूमिका लिखी, बेनीपुरी जी को पत्रकारिता में प्रवीण बनाया जिसके कारण बेनीपुरी जी ने उनको अपना ‘साहित्यिक पिता’ कहा. बेनीपुरी जी जब जेल जाते थे तो शिवपूजन बाबू उनकी पत्नी को घर चलाने के लिए बीस रुपये महीना देते थे.
हिंदी में साहित्यकार तो बहुत हुए पर शिवपूजन बाबू साहित्य निर्माता थे और अपने आप में एक संस्था जिन्होंने अपने त्याग तप से खुद को पर्दे के पीछे रहकर साहित्य की देश की सेवा की. उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा राहुल जी ने की तो उनकी कर्मठता और शील की प्रशंसा हजारी प्रसाद द्विवेदी ने की तो उनकी विनम्रता की प्रशंसा अज्ञेय ने की है.
शिवपूजन सहाय के कार्यों का अभी समुचित मूल्यांकन नहीं हुआ है. उन्होंने अपने जीवन काल में तेरह पत्रिकाओं और दूसरों के सैकड़ों ग्रंथों का संपादन संशोधन किया, इतिहास-दर्शन धर्म राजनीति मुद्रण कला प्रबंधन तंत्र विद्या के गौरव ग्रंथ छापे.
यह शिवपूजन जी ही थे जिन्होंने आचार्य नरेंद्र देव से बौद्ध धर्म पर महान ग्रंथ लिखवाया वासुदेव शरण अग्रवाल से हर्षचरितम लिखवाया, गोपीनाथ कविराज की तंत्र साधना पर किताब लिखवाई हजारी प्रसाद द्विवेदी को आदिकाल पर चार व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया और द्विवेदी जी की हिंदी साहित्य का आदिकाल छपी. राहुल जी का मध्य एशिया का इतिहास दक्खिनी हिंदी काव्य धारा प्रकाशित किया. इससे पता चलता है कि हिंदी के ज्ञानभंडार को भरने में उनकी कितनी रुचि थी.
आज जो लोग कहते है कि हिंदी में समाज-विज्ञान और विज्ञान की पुस्तकें नहीं हैं उन्हें बिहार राष्ट्र भाषा की पुस्तकों की सूची देख लेनी चाहिए तब पता चलेगा कि शिवपूजन बाबू ने रबर और पेट्रोलियम पर भी हिंदी में किताब निकलवाई.
काशी नागरिणी प्रचरणी सभा के बाद बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ही एकमात्र संस्था थी जिसने हिंदी के विकास में बड़ी भूमिका निभाई लेकिन जब राजनीतिक नेतृत्व ने दिलचस्पी लेनी बन्द कर दी तो वह संस्था बर्बाद हो गयी.
राजेन्द्र बाबू के शब्दों में शिवपूजन जी की हिंदी सेवा उनके लिए राष्ट्रसेवा थी. रामविलास शर्मा के शब्दों में शिवपूजन जी पुरानी पीढ़ी के साहित्यकार थे उनका रंग ढंग समझना आसान नहीं था.
जयप्रकाश नारायण शिवपूजन जी के महत्व और अवदान से परिचित थे उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को पत्र लिखकर कहा कि शिवपूजन जी की साहित्य के प्रति सेवाओं को देखते हुए उनकी स्मृति में एक शोध-संग्रहालय बननी चाहिए लेकिन वह आजतक नहीं बना.
हिंदी साहित्य की पूरी बहस प्रेमचन्द, निराला और प्रसाद पर केंद्रित रही जिससे उनके अन्य समकालीन राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, कौशिक जी, सुदर्शन, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ बेनीपुरी आदि के समुचित योगदान के बारे में हम नहीं जान सके.
हिंदी के वरिष्ठ कवि एवं पत्रकार विमल कुमार पिछले चार दशकों से साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में सक्रिय हैं. 9 दिसम्बर 1960 को बिहार के पटना में जन्मे विमल कुमार के पांच कविता-संग्रह, एक उपन्यास, एक कहानी-संग्रह और व्यंग्य की दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. 9968400416. |
शिवपूजन सहाय जैसे व्यक्तित्व की सम्यक जानकारी देकर विमल कुमार जी ने महत्त्वपूर्ण काम किया है. शिवपूजन जी ने बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की महत्ता शिखर तक पहुँचाई थी, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज वह जीर्णशीर्ण अवस्था में है. शिवपूजन जी जैसे ही पुरखों के साहित्यिक-सांस्कृतिक योगदान के कारण बिहार अंध-हिंदुत्व से बचा हुआ है. बिहार में बोली जानेवाली बोलियों का साहित्य मेऔ भी नवजागरण के बीजतत्त्व मौजूद हैं. संपूर्णक्रांति के दौर के बाद साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में एक फिसलन की स्थिति रही है. अब दशहरा के मौक़े पर कोई गंभीर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित नहीं होते? शिवपूजन जी को पढ़े बिना बिहार के साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य को समझना मुश्किल है….यहाँ तक कि फणीश्वरनाथ रेणु का मैला आँचल आँचलिक उपन्यास का शीर्ष है तो शिवपूजन जी के देहाती दुनिया से आँचलिक उपन्यास के परंपरा की शुरुआत होती है.
बिहार के कथित नवजागरण का एक बड़ा सच है कि 1857 की क्रांति के बाद 1911 तक का पूरा दौर प्रतिक्रांति अर्थात अंग्रेजों से सहयोग और भक्ति का है। महारानी विक्टोरिया से लेकर षष्ठ जॉर्ज तक के गीत गये। यह पूरा दौर बंगाली भगाओ अभियान का दौर है। अगर यही नवजागरण है तो मुझे कुछ नहीं कहना!