मनुष्य और प्रकृति के अद्वैत की कहानियाँ |
मैं यह बात इस तरह शुरू करना चाहता हूँ- पृथ्वी पर एक जगह है जहाँ एक भरा-पूरा जीवन है. वहाँ हवाएँ चलती हैं, मौसम बदलते हैं. आकाश में तारे टिमटिमाते हैं. कोई चिड़िया एक डाल से उड़कर अचानक दूसरी डाल पर बैठ जाती है. बाक़ी जगहों की तरह यहाँ भी मनुष्य कामकाज करते हैं. लेकिन, मुझे यह नहीं पता कि यह जगह हमारी इसी पृथ्वी पर मौजूद है. फिर, संयोग से किसी दिन वह जगह मेरे सामने अकस्मात् प्रकट होती है और मैं विस्मित रह जाता हूँ.
चार साल पहले समालोचन पर अशोक अग्रवाल मेरे सामने पृथ्वी की ऐसी ही अनजान जगह की तरह नमूदार हुए थे. उनका परिचय बताता है कि वे आधी शताब्दी से लिख रहे हैं. वे पढ़े गए हैं, सराहे गए हैं. लेकिन मैं उनके नाम से नितांत अपरिचित था. समालोचन के उस अंक में अशोक जी के संग्रह- ‘आधी सदी का कोरस’ से एक कहानी ‘कोरस’ शीर्षक से छपी थी.
यह अनूठे भाव-बोध की कहानी थी जिसे किसी पूर्व-विन्यस्त और स्थापित श्रेणी में नहीं रखा जा सकता था. कहानी की पृष्ठभूमि यह है कि सूखे के कारण लोगबाग गांव-ढाणी छोड़ने को मजबूर हो गए हैं. यह राजस्थान के अलग-अलग गावों से अपनी गायों को पानी और चारे की खोज में लेकर चल रहे चार लोगों की कथा है. भूख से व्याकुल गायों को जब चारा नहीं मिलता तो वे पानी पी-पीकर पेट भरने लगती हैं. नतीजा यह होता है कि उन्हें अफारा आने लगता है- वे मरने लगती हैं. इस संकट का दूसरा पहलू यह है कि सेवण खाने के बाद उन्हें असहनीय प्यास लगती है, और वे फिर नहर की ओर भागने लगती हैं. संक्षेप में, अपने और गायों के जीवन को बचाने के लिए पात्रों द्वारा लिया गया फ़ैसला निष्फल हो गया है. इस कहानी में मनुष्यों और गायों का दुख कुछ इस तरह चारों ओर पसरा था कि कथा के विस्तार के लिए पुरानी युक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था. मनुष्य और पशुओं की इस बेबसी को एकमुश्त और चतुर्दिक ढंग से ही व्यक्त किया जा सकता था. मुझे यह बात कई दफ़ा पढ़ने के बाद समझ आई कि इस कहानी को डाक्यूमेंट्री-शैली में ही लिखा जा सकता था.
प्रस्तुत कहानी संग्रह के संपादक सत्यनारायण अशोक अग्रवाल की कहानियों के लिए ‘चलचित्र शैली’ का इस्तेमाल करते हैं. उनका कहना है कि
“अशोक अपने कथानक का ‘आगा-पीछा करते हुए कहानी गढ़ने के साथ चलचित्र भी बनाते हैं. शब्दों द्वारा साक्षात चलचित्र, जिसके माध्यम से पाठक जीवन का सिनेमा देखता है.“
मैं सत्यनारायण के इस वक्तव्य में केवल यह जोड़ना चाहता हूँ कि अगर अशोक अग्रवाल की इन कहानियों की एक समेकित चलचित्र के रूप में कल्पना की जाए तो उनमें वृत्तचित्र की प्रवृत्ति ज़्यादा प्रबल है. यहाँ वृत्तचित्र से हमारा आशय घटनाओं और दृश्यों के प्रति एक तरह की निस्संगता और वस्तुपरकता से है.
दरअसल, इस संग्रह में कम से कम चार कहानियों- ‘मांधाता के वंशज’, ‘मसौदा गांव का बूढ़ा’, ‘आहार घोंसला’ और ‘जलसूंघा’ में कथा-प्रवाह का एक उल्लेखनीय हिस्सा वृत्तचित्र की शैली में उभरता है. इन कहानियों में कई स्थल ऐसे हैं जहां पाठक को लगता है कि कहानीकार के शब्दों को कैमरे की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
लेकिन, इस विषय पर हम कभी अलग से बात करेंगे. फिलहाल हम सत्यनारायण द्वारा संपादित इस कथा संग्रह ‘आहार घोंसला’ में संकलित चार कहानियों पर केंद्रित रहेंगे. इसकी एक ख़ास वजह यह है कि संग्रह की शेष कहानियों की बनिस्बत इन चार कहानियों में मनुष्य और प्रकृति के अद्वैत की एक विशिष्ट संरचना उपस्थित है.
(1)
मांधाता के वंशज
इस कहानी को एक रूपक कथा की तरह भी पढ़ा जा सकता है- एक ऐसी कथा जिसमें किसी स्थान के आदि-निवासी धीरे-धीरे हाशिये पर ठेल दिये जाते हैं. उनकी संस्कृति-समाज और मान्यताओं को विस्मृत कर दिया जाता है. यहाँ तक उस स्थान का आदि-संस्थापक भी कोई और ही घोषित कर दिया जाता है. मसलन, नर्मदा और कावेरी के संगम पर स्थित एक प्राकृतिक टापू को इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा की तपस्थली से जोड़कर मांधाता कहा जाने लगता है.
बक़ौल कहानीकार, सदियों पहले इस उजाड़ टापू पर एक भील पुरुष अपनी स्त्री के साथ आया था. सागौन और जामुन के विशाल दरख्तों से आबाद इस टापू पर जब उनकी बेटी का जन्म होता है तो कुलांचे भरते हिरण और पेड़ों पर छलांग लगाते लंगूर भी उसे देखने आते हैं. नन्ही बच्ची को हिरण उपहार में अपनी आँखों का आकार देते है, लंगूर अपनी चपलता तो सागौन उसे चमक और अनूठा रंग देते हैं. कहना न होगा कि यह प्रकृति और मनुष्य की अंतर्निर्भर सामुदायिकता है. इसमें भील या उसके बच्चे टापू के स्वामी नहीं हैं. यह एक स्वस्थ सहज सह-अस्तित्व है. लेकिन एक समय के बाद राजशाही के प्रतिनिधि बाहर से आकर इस टापू पर क़ाबिज़ होने लगते हैं.
परमार राजा को एक ही दिन रण में विजय और पुत्र की प्राप्ति होती है. उसी रात राजकुमारी के सपने में यह टापू आता है. फिर एक दिन पुजारी राजा को लेकर टापू पर आता है और उसे बताता है कि ‘कुलदेवता ने इसी स्थल की ओर संकेत किया है… जहाँ हज़ारों साल पहले महान ऋषि कपिल और मार्कन्डेय ने घोर तप किया था. आदि भील का नातिन कोदो यह सुनकर हतप्रभ रह जाता है क्योंकि उसकी स्मृति में तो उसका ‘बड़बाबा’ ही टापू का पहला पुरखा था.
कहना न होगा कि राजशाही अपने सत्ता-क्षेत्र का इसी तरह अपना विस्तार करती है. किसी भूभाग पर क़ब्ज़ा जमाने से पहले वह उसकी सांस्कृतिक घेरेबंदी करती है. उसकी सांस्कृतिक इयत्ता को अपने इतिहास में समाहित करती है. उसकी खाली जगहों पर अपनी आस्था के प्रतीक स्थापित करती है.
अशोक अग्रवाल टापू के उपनिवेशन की इस प्रक्रिया को बारीक ब्योरों के साथ दर्ज करते हैं. यहाँ एक बात और उल्लेखनीय है- हमारे यहाँ उपनिवेशीकरण को एक जमात केवल इंग्लैंड और भारत के दृष्टांत तक सीमित करके देखती है. वह यह स्वीकार नहीं करना चाहती कि उपनिवेशवाद की एक आंतरिक संरचना भी होती है जिसमें किसी समाज के ताकतवर और वर्चस्वशाली लोग अन्य कमजोर लोगों के संसाधनों का दोहन-अपहरण- अधिग्रहण करके उसकी स्वतन्त्रता और स्वायत्तता को लील जाती है.
भीलों के इस टापू पर बाहरी लोगों के आगमन का यह परिणाम होता है :
“दूर देशों से कुशल कारीगर आए, भाँति-भाँति के लोहे के औजार, विंध्याचल के शिखरों का लाल पत्थर, कई किस्म की धातुओं के चमकदार बर्तन, भोजन पकाने की विधियाँ, नए पहनावे और विचित्र रीति-रिवाज. मजदूरों और सेवकों की पूर्ति टापू ने की.
रात-दिन छऽन-छऽन की आवाज़ से टापू गूंज उठा लंगूरों, हिरनों और पक्षियों के लिए ये डरावने स्वर थे. वे घाटी में और नीचे उतर गए. युवक और बच्चे- सिपाहियों और कारीगरों के डेरों के आसपास मँडराने लगे. घाटी की जामुन, शहद के छत्ते, मोर और हिरनों के बच्चे भी, उन डेरों के भीतर पहुँचने लगे. दूरी से कोदो ने और भी बहुत कुछ देखा. वह गहरी साँस ले घाटी में अकेला उतर जाता.
परमार राजा और उसका काफिला दूसरी बार उस दिन आया जब राजकुमार ने पाँचवें साल में अपना कदम रखा. तीन मंजिले भव्य देवालय का निर्माण पूरा हुआ. परमार राजा ने नर्मदा के मध्य सूरज की किरणों से चमचमाते विशाल स्वर्ण कलश के ऊपर फर… फर, फहराते राज्य के ध्वज को देख अपार सुख और गर्व का अनुभव किया.
गर्भगृह में कुल देवता प्रतिष्ठित हुए. सभा मण्डप, भूगर्भ, अंतराज और दीवारों पर देवताओं के मुखिया, गंधर्व, यक्षणियाँ और विभिन्न मुद्राओं में क्रीड़ा करते हाथियों का समूह विराजमान हुआ.“ (पृ. 29)
इस किंचित लंबे उद्धरण से पता चलता है कि राजतंत्रीय व्यवस्था नातेदारी पर आधारित सरल सामुदायिक समाज को अपनी राज्य शक्ति, व्यावसायिक हितों की घेरेबंदी और सांस्कृतिक नियोजन के दम पर किस तरह छिन्नभिन्न कर देती है.
एक समय बाद टापू की संस्कृति का अपघटन होने लगता है- बच्चे घाट और देवालयों के आसपास मंडराने लगते हैं. युवा टापू पर आने-जाने वाले यात्रियों के लिए नाव खेने लगते हैं. और यह विडंबना अपनी परिणति पर तब पहुंचती है जब देवालयों की बुर्जियों पर बैठे लंगूर भी मनुष्यों की तरह हाथ फैलाने लगते हैं. और ‘देवताओं के कंधों, आंखों की कोरों और नाभियों पर उभरती दरारें नए मौसम के साथ अधिक गहरी और चौड़ी होती जातीं’ हैं.
इस कहानी का आखि़री हिस्सा तो जैसे एक वृत्तचित्र में अंतरित हो जाता है : एक दशक पहले भीलों के टापू और नर्मदा के दूसरे किनारे को जोड़ने वाला पुल बनने के बाद कोदो-कुटकी से शुरू हुए वंश की नियति यह बन गयी है कि उसकी वर्तमान पीढ़ी के वारिस- ननकू, मंगल, संगती और टटकू ‘मिट्टी खा-खाकर पलते हैं और फ़सल की तरह उगते’ हैं. वे टापू पर फैले छोटे-छोटे देवालयों के खंडहरों में ‘सूखे बताशों, मिठाईयों के टुकड़ों और लावारिस सिक्कों‘ के लिए भटकते रहते हैं. नर्मदा के ‘किनारे पर बिखरे टीन के पिचके डिब्बों, प्लास्टिक की रंग-बिरंगी थैलियों और मुड़े-तुड़े पाइपों को खंगालते’ रहते हैं. उनकी हालत यह है कि उन्हें ‘फफूंद लगी, सीली और पिलपिली वस्तुओं से भी कोई परहेज’ नहीं रह गया है. और उनकी यह विकल्पहीनता इस मुक़ाम पर जा पहुंची है कि जब कोई आगंतुक या पर्यटक टापू पर उतरता है तो बच्चों की यह भीड़ उसके पीछे चल देती है.
उनमें एक लड़की कहती है : ‘टापू घुमाऊंगी, तालाब से कमल ला दूंगी’. दूसरा लड़का इस लड़की को पीछे ठेलते हुए कहता है : ‘वहाँ मंदिर हैं, ढेरों मूर्तियां, ढेरों मूर्तियां, दो रुपये देना’. इसी बीच उनमें धक्का-मुक्की शुरू हो जाती है. फिर तीसरा अपनी आवाज़ ऊंची करते हुए कहता है : ‘ इन्हें कुछ नहीं मालूम… मैं जानता हूँ… बस एक रुपल्ली देना’. चौथा तीसरे की ऐड़ी में चोट मारते हुए अपनी दावेदारी पुख़्ता करना चाहता है : ‘मुझे अठन्नी देना’. आखि़र में एक स्थिति यह आती है कि पांचवा चौथे को पीछे धकेलते हुए इस पर भी तैयार हो जाता है : ‘ मैं कुछ नहीं मांगता… फोकट में आपको ले चलूंगा’.
विकल्पहीनता की इस दयनीय प्रतिस्पर्धा का अंत यह होता है कि रुपल्ली फोकटिया को टंगड़ी मारकर गिरा देता है. फोकटिया की कुहनियों पर ख़ून छलछला आया है. वह मुंह में भर आई रेत का बाहर थूकता है और रुपल्ली को गाली देने लगता है.
(2)
मसौदा गांव का बूढ़ा
यह भी एक ऐसी कहानी है जो जीवन की सामान्य गति से चलते-चलते लोककथा में प्रवेश कर जाती है. वह एक आमफ़हम दृश्य से शुरू होती है. अपनी साइकिल पर सवार एक युवक देहात की सड़क पर जा रहा है. आसमान बादलों से ढका है. चलते हुए बीच में बारिश आ जाती है तो युवक सिर छिपाने के लिए पास दिखते एक टुटहे बरामदे की ओर पैडल मारने लगता है. तभी उसे पीले कपड़ों की एक झलक दिखाई देती है. रास्ते में एक लड़की खड़ी है. वह उससे बरामदे तक साथ चलने की गुज़ारिश करती है. युवक कुछ समझने की कोशिश करता है. वह आसपास देखता है. बाग में दो आदमी उंकड़ू बैठे बीड़ी फूंक रहे हैं. वह लड़की के संकट को भांप लेता है. आखि़र में वह यह फ़ैसला करता है कि लड़की को उसके गांव तक पहुंचाना ही उचित होगा.
दोनों घर पहुंच जाते हैं. यह एक टूटा-फूटा घर है. कुछ भी साबुत नहीं. न दीवार, न कमरा. लड़की का बूढ़ पिता ओसारे में बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा है. लड़का वापस लौट जाना चाहता है. लेकिन, लड़की उसे समय और मौसम का वास्ता देकर रोक लेती है. वह पिता और लड़के के लिए खाना बनाती है. परोसती है. खाना तो मोटा-झोटा है, लेकिन उसमें कृतज्ञता और लगाव का स्वाद है.
असल में, यह तो एक तरह से पृष्ठभूमि है. कहानी अगली सुबह से शुरू होती है. बूढ़ा सामान्य दिनों की तरह जंगल के लिए निकलने की तैयारी कर रहा है. लड़की दोनों को रास्ते के लिए रोटियां और अचार बांध देती है.
“सुरग का फूल सच में होता है भइया. जग लाख ठिठौली करे, मैंने उसे देखा है. हां, कोई उसे बूझ नहीं पाता. मायावी कुसुम ठहरा. पल में दिखता और पल में खो जाता है…. सुरग का फूल बहुत मसखरा है. देखते-देखते बुद्धू बना देता है. आंखें बचा वह अपना प्रतिरूप पकड़ा देता है.‘’
जंगल में दाखि़ल होते ही बूढ़े के भीतर जैसे वनदेवता आ विराजता है. वह जंगल की हरेक मौजूदा, अगली और पिछली हरकत को दर्ज करते हुए चल रहा है. एक ‘दयालु पिता की तरह वह कल्लोल करती चिड़ियाँ, शाखों पर ठिठौली करते बंदरों और आँखें बंद किए पेड़ की छाया में सुस्ताते जुगाली करते साँड के मुँह से भोजन चुराते कौए को देखकर हँसता’ है. पौधों और लताओं के कोमल पत्तों को प्यार से दुलारता है. सूखे दरख्तों को देखकर उसकी आंखों की चमक मद्धिम पड़ने लगती है.
एक तरह से कहा जाए तो यह पूरी कहानी जंगल के साथ बूढ़े की एक आत्मीय बातचीत है. वह शहतूत के एक चोटिल पेड़ की दशा से दुखी होता है. उसका मुआयना करता है. वह धुंए से काले पड़े उसके कोटर को देखता है. ज़मीन पर शहतूत के तने के छिलके पड़े हुए हैं. उन्हें देखकर वह सिहर जाता है. तनों के निचले हिस्से और सतह पर उभर आए जड़ों के जाल को देखता है. उसके भीतर दुख की एक कटार-सी लहरा जाती है. लेकिन आखिर में उसका ढांढस बढ़ाते हुए कहता है :
“बुजुर्गवार क्या शान की जिंदगी जिए और अभी भी तन्नाए खड़े हैं. इस मौसम से हार मानने वाले नहीं. दो-चार तूफ़ान झेलने की ताक़त अभी बची है.‘’
बूढ़ा पेड़ को आदर से छूता है और कहता है :
“मेरे से एकाध साल बड़े ही हो. तुम्हारी खोज-खबर लेता रहूँगा. दगा नहीं करना. आऊं तो देखूं तुम अपनी जगह नन्हें शहतूत को पकड़ा गए हो.‘’(46)
वह युवक के साथ आगे बढ़ता है तो जंगल की सूखती नदी को देखकर विषाद से भर जाता है. और फिर नानी नामक इस नदी से बात करने लगता है :
“शहतूत की तरह तुम भी सूख गईं. मैंने तुम्हें हिरनी के छौने-सी कुलांचे भरते देखा है… मुझे आए कित्ते बरस हुए? और चुपचाप नदी के किनारे चलने लगा.‘’
बूढ़ा युवक के साथ नदी के किनारे-किनारे देर तक चलता रहता है. यकायक उसे जंगल की गोद में सोया एक सोता दिखाई पड़ता है. वह लपककर वहाँ पहुंचता है. सोते के सिर पर छांव किए वटवृक्ष के पास खड़ा होकर वह युवक को अपने पास बुलाता है और पानी में उठते बुलबुलों को दिखाते हुए कहते है :
‘’देखो भइया, वृक्ष सांस ले रहे हैं.‘’
बूढ़े के साथ चलते हुए युवक कभी झाडि़यों में उलझ जाता है, कभी लताओं में अटक जाता है. दोनों और आगे बढ़ते हैं तो उन्हें दलदल और पानी से भरी एक पोखरी मिलती है. बूढ़े की नज़र दलदल में फंसे पत्ते पर सूंड उठाए एक परेशान गुबरैले पर पड़ती है. बूढ़ा कहता है :
‘’नाव पर बैठे थे, यहाँ भंवर में अटक गए.‘’
और वह गुबरैले को उसके संकट से मुक्त कर देता है. पोखर के किनारे फलियां लटकी हैं जिनसे काले-काले बीज झांक रहे हैं. बूढा इन बीजों को अपनी हथेली पर रखता है और फूंक मारकर पोखरी की तरफ़ उड़ा देता है. और कहता है :
‘’अगहन-पूस में तुम्हें देखने आऊंगा. नीले फूलों से तुम्हारी गोद भरी होगी.‘’
यहाँ युवक के मन में एक संशय जन्म लेता है. उसे लगता है कि वह व्यर्थ ही बूढ़े के पीछे-पीछे चला जा रहा है. उसे ‘सुरग के फूल’ की बात भी बेमानी लगने लगती है. लेकिन बूढ़ा इससे ग़ाफि़ल है. वह कभी चिडि़याओं, कभी हवा तो कभी आसमान से बात करता आगे चलता जा रहा है. आखि़र में बूढ़ा एक गड्ढे के पास जाकर रुक जाता है जिसमें बैंजनी, नीले और सफ़ेद रंग के जंगली फूलों की लतरें फैली हैं. युवक हताश हो चुका है. लेकिन, बूढ़ा फूलों को मंत्रविद्ध देखे जा रहा है. तभी वह युवक का हाथ पकड़ता है और उसे फूलों के बीच लेकर चलने लगता है. अब हर तरफ़ फूल ही फूल हैं. और यहीं एक क्षण बूढ़ा शरारती अंदाज़ में युवक से पूछता है :
“सुरग का फूल इन्हीं लाखों फूलों में छिपा है. चीन्हों तो जानूं.‘’
युवक अकबका गया है, जबकि यह कहकर बूढ़ा कांस की झाडियों की चल दिया है. तभी पीली गुलदुपहरियों की जड़ों से पीले फूलों सरीखी अनगिनत तितलियां उड़ने लगती हैं. युवक जब तितलियों की इस निदाघ छांव से बाहर निकलता है तो देखता है कि बूढ़ा झाडि़यों में ग़ायब हो गया है. वह उसे खोजने के लिए आगे बढ़ता है तो महसूस करता है कि आकाश मेघाच्छन्न हो गया है.
इसके बाद :
“हवा में तिरती वही जानी-अनजानी गंध उसके श्वास-रंध्रों में पैठने लगी, जो पिछली शाम प्याऊ से मसौदा की ओर साइकिल खींचते आई थी.
गंघ का स्रोत खोजते झाड़ियों की ओट छिपा वह अनोखा पौधा यकायक उसके सामने चला आया.
भूरी खुरदुरी छाल, जैसे बूढ़े की त्वचा. सफेद महीन रोयों से भरी शाखाएँ, जैसे बूढ़े के हाथ. सबसे ऊपरी शाखा पर शंखनुमा गोलाई लिए दूधिया कुसुम, जैसे बूढ़े की आँख. आसपास या झाड़ियों के पार बूढ़ा कहीं भी नज़र नहीं आ रहा था.‘’ (पृ. 50)
संक्षेप में कहें तो यह कहानी मनुष्य और प्रकृति के अद्वैत को निरूपित करती है. और इस मायने में उस स्थूल प्रत्यक्षतावाद के खि़लाफ़ एक चाक्षुष तर्क के रूप में उभरती है जिसने मनुष्य और प्रकृति को दो पृथक् और अतुलनीय श्रेणियों में बांटकर उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर दिया है. जंगल के जीवों और पेड़-पौधों के साथ बूढ़े की ट्यूनिंग हमारे सामने सह-अस्तित्व का एक नया व कल्पनातीत संसार का उद्घाटित करती है जिसमें मनुष्य शिकारी द्वारा नष्ट-भ्रष्ट कर दिए शहतूत के प्रति सहानुभूति व्यक्त करता है. उसका ढांढस बढ़ाता है. अचानक नेवले और सांप के बीच पड़ जाने पर नेवले से माफ़ी मांगता है. जंगल में सूख रही एक नदी से बात करता है. और आखिर में अपने साथ चल रहे युवक को यह अंतर्दृष्टि थमाकर अदृश्य हो जाता है कि ‘सुरग का फूल’ उसके सामने खिले इन्हीं लाखों फूलों में मिलेगा.
(3)
आहार घोंसला
अपनी संवेदना की बुनावट के स्तर पर यह कहानी भी मनुष्य और प्रकृति के अद्वैत का दृष्टांत प्रस्तुत करती है. लेकिन, इसमें एक अलग सकर्मक तत्त्व भी है जो इच्छित यूटोपिया को साकार करने के लिए निजी संसाधनों के सामाजिक उपयोग की ओर संकेत करता है.
यहाँ काकी की मृत्यु के बाद अवसाद और अकेलेपन से घिर गए काका जब अपने आसपास देखते हैं तो पाते हैं कि उनकी मुक्ति की पगडंड़ी तो काकी पहले ही बनाकर चली गयी है. काकी की मृत्यु से पहले काका उसके संसार से तो परिचित थे. वे जानते थे कि
“काकी ने ढेरों गर्दन कटे मटके, कूंडे, परातें और मिट्टी के सकोरे घर और घेर में चुनी जगहों पर रखे हुए थे, जिन्हें वह पानी से लबालब रखतीं. रोज बासी पानी को बदलतीं. रात की बची रोटियाँ मींड चीनी-घी मिला चूरमा तैयार करतीं और उसे बर्तनों के आसपास और मुँढेरी पर बिखेर देतीं.
काकी पता नहीं कहाँ-कहाँ भटककर तरह-तरह के फूलों के नन्हें-नन्हे पौधों को आँचल से ढक ले आतीं और चुपके से उन्हें कहीं भी बसा देतीं. पौधों और घेर को काकी ने पक्षियों के बसेरे में बदल दिया. काकी एक कोने में बैठी टकटकी लगाए अपने पाहुनों की प्रतीक्षा करतीं’ रहती. (पृ. 52)
काका यह भी जानते थे कि काकी अकेले में पक्षियों से उन्हीं की भाषा में बात करती है. वह कोयल को उसी की ज़बान में उत्तर देती है. और कभी-कभी कोयल उससे तीखी आवाज़ में लड़ना भी शुरू कर देती है. कई दफ़ा यह सब देखकर काका डर भी जाते थे. ‘काकी की कृशकाया सहसा उन्हें रहस्यमय, अनजानी और अछूती लगने लगती’.
काका अपने अवसाद तब बाहर आते है जब एक दिन उनकी नज़र ख़ाली और धूल से लिथड़े हुए मटकों, कूंडों और सकारों पर जाती है. उन्हें धक्का लगता है. वे तुरंत उठकर उनकी साफ़-सफ़ाई में जुट जाते हैं. उनमें पानी भरते हैं. और थाली में बाजरा भरकर उन-उन जगहों पर बिखेर देते हैं जहां-जहां उन्हें काकी दिखाई देती है.
पक्षियों की यह जिम्मेदारी काका को अपने भाई के परिवार पर निर्भर होने से बचा लेती है. चूंकि उन्हें अपने भोजन के अलावा पक्षियों के दाने-पानी का भी इंतज़ाम करना पड़ता है, इसलिए काका अपने छोटे भाई से स्पष्ट कह देते हैं कि
‘कल से नहीं लाना, हाथ पर हाथ धरे दिन कैसे कटेंगे?’
धीरे-धीरे काका पक्षियों से एकमेक हो जाते हैं. और उनके लिए आहार-घोंसलें बनाने में जुट जाते हैं. वे बया, दर्जिन, कोयल, मैना, गौरेया, कठफोड़वा और राममंगरा- सबके लिए घोंसले बनाते हैं. इस प्रक्रिया में हर पक्षी की आदतों, उसके रहन-सहन के ढंग से परिचित होते जाते हैं. काका यह सब तो करते ही हैं. इसके साथ प्रवासी पक्षियों को देखने के लिए गंगा किनारे उगी झाडि़यों में छिपी पगडंडियों पर फेरे लगाते रहते हैं. एक समय यह भी आता है जब काका ख़ुद भी प्रवासी पक्षियों से वार्तालाप करने लगते हैं. इस रूपांतरण से गुज़रने के बाद काका को अब जाकर एहसास होता है कि वे काकी को कुछ-कुछ समझने लगे हैं.
इस कहानी का दूसरा चरण और काका की चेतना का दूसरा अध्याय तब शुरू होता है जब काका का ध्यान इस बात पर जाता है कि गांव के बच्चों को स्कूल पहुंचने के लिए पहले ढाई किलोमीटर लंबी धूलभरी पगड़ंडी पार करनी पड़ती है. धूल और पसीने से हलकान बच्चों को देखकर उन्हें छोटी-छोटी चिडियाओं की याद आने लगती. इसके बाद काका के मन में एक नया मंसूबा सिर उठाने लगता है.
काका काकी के संदूक से उनकी हंसुली, पाजेब, करधनी और चांदी के सिक्के इकट्ठा कर शहर जाते हैं और एक बढ़ई के साथ वापस लौटते हैं और एक नयी बैलगाड़ी गढ़वाने लगते हैं. पूरा गांव भौचक है. किसी को लगता है कि काका तीर्थयात्रा पर जाएंगे. कोई कुछ और अनुमान लगाता है. बैलों की नयी जोड़ी ख़रीदने के लिए काका अपना खेत भी बेच डालते हैं. लोगों को लगता है कि काका पगला गए हैं.
लेकिन, बैलगाड़ी का यह रहस्य उस दिन खुलता है जब काका बच्चों को बैलगाड़ी में बिठाकर स्कूल छोड़ने निकल पड़ते हैं. इसके बाद काका की बच्चा-गाड़ी पूरे इलाक़े की ख़बर बन जाती है. बच्चों की किलकारियों और लटक-पटक में काका को अपने पोते की छवि भी मिल जाती है. स्कूल को जाते और लौटते समय बच्चों को पक्षियों की कहानियां सुनाते हैं.
इस दौरान काका गंभीर रूप से बीमार भी पड़ जाते हैं. बेटा-बहू और पोता सब मिलने आते हैं. गांव वाले भी कहते हैं कि काका को शहर में इलाज कराना चाहिए. लेकिन, उन्हें लगता है कि आखिरी वक़्त में वे पक्षियों और बच्चों के इस इतने बड़े परिवार को अनाथ नहीं छोड़ सकते. काका अपनी बीमारी से उठ खड़े होते हैं. इस बार उनकी चिंता यह है कि बच्चों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, इसलिए अब उन्हें एक छकड़ा और बनवाना पड़ेगा ताकि उसे बच्चा-गाड़ी के पीछे बांधा जा सके!
एक गहरे स्तर पर यह व्यक्तित्वांतरण की कहानी है. ग़ौरतलब है यहाँ कहानी का मुख्य पात्र काका पहले पहल आसपास की सामाजिकता से असंपृक्त व्यक्ति के रूप में दिखाई देता है. लेकिन काकी की मृत्यु से उपजा एकांत उसे एक प्रतिबद्ध व्यक्ति में रूपांतरित कर देता है. और इस संदर्भ में यह बात कम मानीखेज़ नहीं है कि काका की यह प्रतिबद्धता केवल पक्षियों की फ़िक्र तक सीमित नहीं रह जाती. यानी पक्षियों की चिंता एक अवसादग्रस्त व्यक्ति का मनोग्रह नहीं है. उनकी यह फ़िक्र धूल-धक्कड़ और पसीने से लथपथ स्कूल जाते बच्चों तक जाती है. इस प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए उन्हें काकी के जेवर और अपनी ज़मीन बेचनी पड़ती है. ज़ाहिर है कि चेतना का यह उन्नयन निजी संपत्ति के मोह से मुक्ति पाये बिना नहीं हो सकता. इस बिन्दु से देखें तो यह एक छोटे-से यूटोपिया को साकार करने की कहानी भी है.
(4)
जलसूँघा
‘जलसूँघा’ पर्यावरण, संस्कृति और ज्ञान-परम्परा के लोप, विस्मृति–विस्थापन की बेहद प्रभावशाली कथा है. भूमिगत जल की खोज-विद्या को केंद्रस्थ करके यह कहानी समाज के जीवन-दर्शन और व्यवहार में आए गहरे व्यतिक्रम को उजागर करती है. यह मिट्टी के प्रकारों के विश्लेषण, कंकड़-पत्थर की मौजूदगी तथा वनस्पति की प्रजातियों के आधार पर जल-संस्कृति की ऐसी सूक्ष्म जानकारी देती है कि जिससे शायद जल-विज्ञान के विशेषज्ञ ही परिचित होंगे. मसलन, पानीबाबा के अनुसार-
“धरती के गर्भ में सिर्फ नौ शिराएँ नहीं, उनसे फूटने वाली सैकड़ों शिराएँ होती हैं और उन सभी के अलग-अलग नाम हैं. सिद्ध जलसूँघा इन सभी नाड़ियों की धड़कनें सुनने में पारंगत होता है. उसे यह भी पता होता है कि जो शिराएँ नीचे से ऊपर की ओर निकलती हैं वह शुभ होती है, लेकिन कोणों से निकलने वाली शिराओं में प्रवाहित होने वाला जल क्षीण, अल्पायु और अशुभ होता है. जो जलसूँघा भूमि की जलराशि पकड़ने में पारंगत होता है, वह यह भी जान लेता है कि पानी किस स्वाद और रस का होगा. सदा मिलता रहेगा या कुछ समय बाद मिलना बंद हो जाएगा.” (67)
अपने शिष्य केदार को इस विद्या के गुर सिखाते हुए पानीबाबा यह भी कहते हैं :
“माटी के स्वभाव से एकरस हुए बिना कोई जलसूँघा सिद्ध नहीं हो सकता. आकाश से बरसी जाल की बूँदें एक रंग और एक स्वाद की होती हैं. वही जल भिन्न स्वभाव वाली मिट्टी से मिलकर अनेक रंगों और अनेक स्वादों वाला हो जाता है. राख के रंग जैसी कपिला मिट्टी के नीचे का पानी लिबलिबा नमकीन तो कुछ-कुछ नीलापन लिए हल्की काली मिट्टी के नीचे का पानी मीठा हो जाता है.” (पृ. 65)
गुरु अपने शिष्य को यह भी बताते हैं कि प्रकृति के साथ मनुष्य का संबंध कैसा होना चाहिए. गुरु कहता है :
“पाने की इच्छा मन में हो तो याचक भाव से उसके समीप जाना चाहिए, चाहे फिर वह नीम हो या माटी. जलसूँघा कोई ऐसा करेगा? वह पूजा भाव से वृक्ष के समीप जाता है और वृक्ष उसकी मनचाही यष्टिका अपने आप पकड़ा देता है. जब उसे वृक्ष से यष्टिका उतारनी होती है तो पहले वह उससे क्षमायाचना करता है, फिर इतनी सावधानी से यष्टिका उतारता है कि उसे कम से कम तकलीफ हो, फिर उसके जख्म पर माटी का लेप करता है.” (पृ.66)
यह उल्लेखनीय है कि पानीबाबा ने यह ज्ञान विधिवत् अर्जित किया है. और केदार को यह ज्ञान प्रदान करते हुए उसे यंत्र की प्रधानता से बचने की सीख देते हैं.
मसलन, पानीबाबा कहते हैं :
“खाली यष्टिका से तू धरती की कोख में छिपे जल को पकड़ लेगा? यह यष्टिका तो जल-धाराओं की धड़कनों को सुनने का छोटा-सा उपकरण भर है. उसे जीवन में अपने आसपास हो रही प्रकृति ही हलचलों से सीखना होता है. कीड़े-मकोड़े, तितली, पक्षी, दीमक, गोह, साँप, नेवला, वनस्पतियाँ और सभी तरह की माटी… सभी उसके गुरु हुए.” (पृ. 66)
कहना न होगा कि पानीबाबा का यह उद्बोधन ज्ञानार्जन की प्रक्रिया को केवल गुरु की महिमा तक सीमित नहीं रहने देता. हमारे विचार में यह गुरु का अवमूल्यन नहीं बल्कि ज्ञान की प्रक्रिया में अन्य सामाजिक-प्राकृतिक कारकों की महत्ता को स्वीकार करना है. एक दूसरे स्तर पर यह उद्बोधन (Evocation) यांत्रिक तार्किकता तथा उपयोगितावाद की मानसिकता को भी प्रश्नांकित करता है.
इस कहानी में अकाल के समय तालाब के निर्माण लोककथा और आधुनिक-औद्योगिक संस्कृति में तालाब को पाटकर रेलवे प्लेटफार्म का निर्माण समाज की बदलती प्राथमिकताओं तथा लोकजीवन की सांस्कृतिक स्मृति को विच्छिन्न करती प्रौद्योगिकी के परिणामों की ओर संकेत करती है. यह कहानी एक लोक-कथा की तरह ही खुलती है. यहाँ कहानी का सूत्रधार गांव में तालाब की खुदाई की कथा को अपनी बड़ी ताई के हवाले से जिस लोकरस के साथ बयान करता है, उससे यह कहानी अविस्मरणीय बन गई है.
एक तरह से यहाँ दो समयों- एक तालाब के निर्माण और दूसरे उसके उजड़ने के समय का समक्षीकरण हमारी सांस्कृतिक-पर्यावरणीय त्रासदी का प्रतिनिधि साक्ष्य बनकर उभरता है. थोड़ा जोखिम लेकर कहा जाये तो असल में यह कहानी लोक-कथा और कहानी के प्रचलित विन्यास का अतिक्रमण करके एक नयी श्रेणी बन जाती है जो एक तरफ़ कहानी के रूढ़ ढर्रे में नयी संभावनाएं पैदा करती हैं तो दूसरी तरफ़ लोक-कथा के प्रारूप में समकालीनता के लिए जगह तैयार करती है.
विमर्श के लिहाज़ से देखें तो यह कहानी लोक या देशज ज्ञान के विस्मरण, राजनीतिक-आर्थिक सत्ता के बरक्स समाज की आपेक्षिक स्वायत्तता के अवसान, पूंजीवादी आधुनिकता के दबावों-स्वार्थों को बारीक ब्योरों के साथ प्रस्तुत करती है.
लेकिन, अपने बड़े वितान के बावजूद इस कहानी का एक पक्ष उसके अभिप्रेत से विसंगत लगता है. पानीबाबा की भाषा अत्यंत संस्कृतनिष्ठ है. कहानी का सूत्रधार भी इस बात का जि़क्र करता है कि उसके मित्र और पानीबाबा से विद्या सीख रहे केदार की भाषा में भी कुछ अनजाने शब्द जुड़ने लगे थे. मेरे ख़याल में इस कहानी का परिवेश ज्ञान की किसी लोक भाषा का परिवेश है. अब अगर उसमें गुरु जैसा कोई व्यक्ति इतनी प्रांजल भाषा बोलता है तो ऐसा लगता है कि वह एक बाहरी व्यक्ति है जिसका ‘लोक’ के प्रतिनिधि के तौर पर बखान किया जा रहा है जबकि हम सब जानते हैं कि लोक के पास अपनी एक सबल ज्ञान-परंपरा होती है.
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नरेश गोस्वामी सम्प्रति: |
नरेश विमर्श के नये तरीके अपनाते हैं, जो कहानी को पढने और समझने का एक औज़ार है, और यह औजार हिंदी आलोचना के लिए जीवनदायी है, यूटोपिया में भटकाता नहीं। हिंदी कहानी आलोचक के लिए भी नरेश गोस्वामी का यह लेख एक पाठ की तरह होना चाहिए।
शुरू से ही मैं उनकी कहानियों का मुरीद रहा हूँ. वे क्रांति के कथाकार नहीं जीवन और प्रकृति से जुड़े हुए लेखक है. उनकी कहानियाँ काल्पनिक नहीं है. बल्कि उनका जीवित संसार है..
अशोक अग्रवाल की कहानियां पढ़ते मुझे उनकी तीन चीज़ें बड़ी शिद्दत से याद आती रहती थीं। एक तो उनका चीज़ों को देखने का वह ऑप्टिकल ऐंगिल जहां से देखने वाले वह उस समय अकेले होते हैं। दूसरा है उनका शब्द चयन जो विस्मय पैदा करता है। तीसरा है उनके यात्रा-अनुभव जो कहानियों को ऐसी ऑथे॔टीसिटी देती हैं जिसे हम चाहें तो मणिकांचन योग भी कह सकते हैं। ये सभी मिलकर उन्हें एक प्रकृति-दार्शनिकता देती हैं। नरेश गोस्वामी जी द्वारा लिखा गया यह पाठ दिखाता है कि अशोक की कहानियों और यात्रावृत्तांतों को किस तरह पढ़ा-समझा जाय। नरेश जी को बहुत-बहुत बधाई।