जंगलात प्रतिरोधों की हरी-भरी परम्पराशुभनीत कौशिक |
दिवंगत पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में तालाबों को बनाने-बनवाने वालों की समृद्ध परम्परा की याद दिलाते हुए लिखा था कि ‘सैकड़ों, हज़ारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे. इनके पीछे इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की. यह इकाई, दहाई मिलकर सैंकड़ा हज़ार बनती थी. लेकिन पिछले दो सौ बरसों में नए क़िस्म की थोड़ी-सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई, दहाई, सैंकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया.’[1] अनुपम मिश्र की तरह ही इतिहासकार शेखर पाठक इक्कीसवीं सदी में पर्यावरण संकट से जूझ रहे नए भारत को बीसवीं सदी में उत्तराखंड के स्थानीय समाज द्वारा रची गई हरी-भरी उम्मीद की याद दिलाते हैं. वह उम्मीद जिसे हिमालय के उस समाज ने अपने त्याग और बलिदान से ज़िंदा रखा, जिसे आज प्रायः भुला दिया गया है. आकस्मिक नहीं कि उस सीख को भुला दिए जाने का ख़ामियाज़ा हम आए दिन भुगत रहे हैं. उल्लेखनीय है कि ख़ुद अनुपम मिश्र ने बतौर पत्रकार ‘दिनमान’ में सत्तर के दशक में चिपको आंदोलन पर लेख लिखे थे. यही नहीं उन्होंने बाद में एक पुस्तिका भी चिपको आंदोलन पर लिखी और देश को इसके महत्त्व से परिचित कराने का काम किया था.[2]
समकालीन भारत में जब पर्यावरणीय आंदोलनों की बात होती हैं, तो गाहे-बगाहे उत्तराखंड में हुए चिपको आंदोलन की चर्चा भी होती है. यह चर्चा अक्सर चिपको को उसके ऐतिहासिक संदर्भों से काटकर होती है. जिसमें कुछ व्यक्तियों के नाम गिनाए जाते हैं और पेड़ों से चिपकने की कार्यवाही की याद की जाती है. मगर इस सतही चर्चा और स्मरण के क्रम में उस समाज को भुला दिया जाता है, जिसने चिपको आंदोलन को खड़ा किया. प्रायः यह भी विस्मृत कर दिया जाता है कि चिपको जैसे आंदोलन अचानक निर्वात में पैदा नहीं होते, उनके पीछे लम्बी तैयारी होती है, छोटे-छोटे प्रतिरोधों और आंदोलनों की समूची श्रृंखला होती है, जो उसकी पृष्ठभूमि तैयार करते हैं.
इतिहासकार शेखर पाठक अपनी महत्त्वपूर्ण किताब ‘हरी भरी उम्मीद’ में चिपको आंदोलन के साथ-साथ जंगलात के आंदोलनों की समृद्ध परम्परा को जीवंत करते हैं. चिपको आंदोलन को वे एक बहुपरती आंदोलन के रूप में देखते हैं, जिसमें व्यक्ति, संस्था, समूह तो थे ही, मगर वह आंदोलन उतना भर नहीं था. उस आंदोलन में हिमालय के समाज की आकांक्षाओं को मुखर अभिव्यक्ति मिली, सदियों से दमित-शोषित समाज को उसका स्वर मिला. बदले में उस आंदोलन ने उत्तराखंड के समाज की राजनीतिक चेतना को झकझोरा. अपनी आज़ादी के लिए, जंगलों के लिए, हक़-हकूकों के लिए लड़ना सिखाया, सत्ता और उसके कारिंदों के सामने डटकर पूरी प्रतिबद्धता के साथ, निडर होकर खड़े होना सिखाया.
जाहिर है कि एक ऐसा आंदोलन जिसमें समाज की इतनी सघन और सक्रिय भागीदारी रही हो, उसका इतिहास महज़ राज्य के अभिलेखागारों पर निर्भर होकर नहीं लिखा जा सकता. इतिहासलेखन में अपनी समूची अपरिहर्यता के बावजूद राज्य के अभिलेखागार अंततः राज्य द्वारा गढ़े गए आख्यान को ही पुष्ट करेंगे, इतिहास में जन की भूमिका और उनके प्रतिरोधों को अनदेखा करते हुए. इसलिए इतिहासकार के लिए ज़रूरी हो जाता है कि इतिहास में जन की भूमिका, उसकी मौजूदगी को चिह्नित करना है तो अभिलेखागारों से परे देखना होगा. बक़ौल शेखर पाठक, ‘इन दस्तावेज़ों से सिर्फ़ एकांगी इतिहास लिखा जा सकता है. इसके लिए “लोक” में उतरना निश्चय ही अनिवार्य है. कितना हम पकड़ पाते हैं, यह हमारी सीमाओं पर निर्भर है.’[3] लोक तक पहुँच कैसे हो, इसके लिए वे इतिहासकार द्वारा लोक-स्मृतियों, गीतों, पत्रों, कहावतों, स्थानीय अख़बारों, नेताओं के वक्तव्यों, प्रतिवेदनों, जीवनियों/आत्मकथाओं के इस्तेमाल का सुझाव देते हैं.
मगर इतिहास की यात्रा शुरू हो इससे पहले ज़रूरी है कि हम उस इलाक़े के भूगोल को भी जाने-समझें, जिसके इतिहास में हमारी दिलचस्पी है. कारण कि भौगोलिक बनावट इतिहास को आकार देने, दिशा देने का काम करती है. इतिहास के भौगोलिक आधार वाली यह बात बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में फ़्रांस के प्रसिद्ध अनाल्स स्कूल के इतिहासकारों ने बड़ी ज़ोर-शोर से की थी. लिहाज़ा शेखर पाठक आरम्भ में ही उत्तराखंड के भूगोल का गहन परिचय देते हैं. जिसमें एक ओर नदी, पहाड़ की चर्चा है तो साथ ही मानव भूगोल की भी. भूगोल के साथ ही वे शासन और प्रशासन से जुड़े इतिहास से भी हमें वाबस्ता कराते हैं. प्रशासनिक इतिहास की इस यात्रा में चंद और पंवार शासक, गोरखा शासक, ईस्ट इंडिया कम्पनी और आगे चलकर ब्रिटिश राज द्वारा नियुक्त कमिश्नर जुड़ते चले जाते हैं.
अंग्रेज़ी राज और जंगल का ‘स्वामित्व’ |
सामंतवाद से उपनिवेशवाद की ओर संक्रमण की इस ऐतिहासिक यात्रा में कुछ बातें विशेष रूप से समझने योग्य हैं. मसलन, गोरखा शासन तो समाप्त हुआ, मगर पहले से चली आ रही बेगार प्रथा जैसी शोषक व्यवस्था जस की तस चलती रही. यह सही है कि कुछ आमूलचूल बदलाव भी इस दौर में हुए. पहले कम्पनी और उसके बाद ब्रिटिश राज ने जो नीतियाँ अपनाईं, वे आगे चलकर पीढ़ियों से चली आ रही पारम्परिक जंगलात व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हुई. गाँव की जो सदियों से अर्जित आर्थिक आत्मनिर्भरता थी, उसे कम्पनी ने अपनी नीतियों से कुछ दशकों में ही ध्वस्त कर दिया. इस तरह हिमालयी समाज की परम्परागत समझदारी को धता बताते हुए औपनिवेशिक राज्य ने जंगलों और प्राकृतिक सम्पदा पर अपने स्वामित्व की मुहर लगा दी और अपने हिसाब से उनका प्रबंधन शुरू किया.
इस प्रक्रिया में हुआ यह कि जो जंगल कल तक जनता के अपने जंगल थे, वे एक झटके में ‘सरकारी जंगल’ बन गए. ‘संरक्षित जंगल’, ‘सिविल जंगल’ जैसी अपरिचित शब्दावली से पहली बार लोगों का पाला पड़ा. जब तक वे इसके गहरे निहितार्थ समझते और अपनी प्रतिक्रिया दे पाते, तब तक लोगों ने पाया कि अपने ही जंगलों के इस्तेमाल के लिए वे अब अंग्रेज़ी सरकार की ‘अनुकम्पा’ पर निर्भर हो चुके है. यही नहीं इन ‘संरक्षित’ जंगलों की सीमाएँ लोगों के घरों और खेतों तक पहुँच गई और उनका घर से निकलना, आजीविका चलाना मुहाल हो गया. जंगल से ईंधन या इमारती लकड़ी जुटाना, जड़ी-बूटी या रेशे ले पाना अब बीते दिनों की बात हो गई. नतीजा ये निकला कि वे लोग अपने ही वतन में जंगल के अधिकारियों के सामने हाथ फैलाने को मजबूर कर दिए गए. इन परिस्थितियों का बेबाक़ बयान शिव दत्त सती अपनी पुस्तक ‘घस्यारी पतरौल नाटक’ में कर चुके थे.
आरम्भ में कम्पनी ने खनिजों के दोहन, धातुओं के खनन और चाय, लीसा व भंगेले के लिए हिमालयी क्षेत्र का इस्तेमाल किया. कम्पनी और अंग्रेज़ी राज के लिए जंगलों के कटान से होने वाले आर्थिक मुनाफ़े और लकड़ियों का महत्त्व समझ पाने में अभी कुछ देर थी. इसका फ़ायदा शुरू में फ़्रेडरिक विल्सन जैसे मुनाफ़ाख़ोरों और शिकारियों ने उठाया. उसने ही हिमालय में जंगलों के कटान और बहान की शुरुआत की. इसके साथ ही उसने कस्तूरी मृग जैसे दुर्लभ जंगली जानवरों के शिकार और उनसे मिलनी वाली वस्तुओं जैसे कस्तूरी, जानवरों की खाल आदि का व्यापार भी शुरू किया.
मगर वह दिन भी आया, जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों की निगाह भी जंगलों पर बाज की तरह टिक गई. 1853 में एक ओर हिंदुस्तान में रेलवे की शुरुआत हुई तो दूसरी ओर जंगलों की शामत आ गई. देश के कोने-कोने से कच्चा माल बंदरगाहों तक पहुँचाने और इंग्लैंड के कारख़ानों में तैयार माल को बंदरगाहों से हिंदुस्तान के सुदूर इलाक़ों में पहुँचाने के लिए रेलवे सबसे सस्ता और तेज साधन बनने जा रही थी. मगर अभूतपूर्व गति से रेलवे लाइन के विस्तार के लिए स्लीपरों की ज़रूरत थी. लिहाज़ा भारतीय उपमहाद्वीप में रेलवे का विस्तार होता रहा और इस क्रम में हिमालय के जंगल अबाध गति से कटते रहे. इस बात को प्रमुखता से रेखांकित करते हुए रामचंद्र गुहा ने हिमालय में जंगलात से जुड़े आंदोलनों के अपने अध्ययन में लिखा भी है कि ‘उपनिवेशवाद और पर्यावरण के ह्रास के बीच जो गहरा सम्बन्ध है, उसकी ओर आधुनिक भारत के इतिहासकारों ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है.’[4]
जंगलों के दोहन को और सुव्यवस्थित बनाने के लिए पहले कम्पनी और बाद में अंग्रेज़ी राज ने बाक़ायदा जंगलात सम्बन्धी अध्ययन शुरू किए. विलियम रॉक्सबर्ग और नथेनियल वालिच जैसे औपनिवेशिक वैज्ञानिक इस काम में दत्तचित्त होकर लगे हुए थे. ‘वैज्ञानिक’ वानिकी नामक ज्ञान की नई शाखा उभर रही थी, जो केवल नाम भर में ‘वैज्ञानिक’ थी! व्यवहार में तो वह विशुद्ध रूप से व्यापारिक थी. इसी क्रम में, 1864 में जंगलात विभाग भी अस्तित्व में आ गया. जिसने अब संस्थागत और नियमबद्ध तरीक़े से जंगलों के दोहन की शुरुआत की. इस विभाग ने जहाँ एक ओर जंगलात से जुड़े क़ानून बनाने शुरू किए, वहीं दूसरी ओर इन क़ानूनों के ज़रिए प्राकृतिक संसाधनों में राजकीय हस्तक्षेप की शुरुआत भी की. जंगलात विभाग के अस्तित्व में आने के तीस साल बाद 1894 में बनी राष्ट्रीय वन नीति जंगलों के दोहन और उनके प्रबंधन से जुड़े अंग्रेज़ी राज की विरोधाभासी नीतियों का एक दस्तावेज है. इन नीतियों को ही गोविंद वल्लभ पंत ने क़ानूनी ढंग से ‘संसाधनों का अपहरण’ कहा था. इस तरह शेखर पाठक अपनी इस किताब में रिचर्ड ग्रोव सरीखे उन इतिहासकारों की स्थापनाओं को भी सशक्त और तर्कसंगत चुनौती देते हैं, जो अपनी पुस्तकों में साम्राज्यवाद को ही पर्यावरणीय चेतना के प्रसार का श्रेय दे रहे थे.[5]
उन्नीसवीं सदी में कुमाऊँ कमिश्नरी अस्तित्व में आ चुकी थी. ट्रेल, बैटन, रैमजे और बेकेट जैसे कुमाऊँ के कमिश्नरों ने बंदोबस्त शुरू किए. इन बंदोबस्तों में आम लोगों से बेगार का इकरारनामा भी शामिल था. जिसने आगे चलकर बेगार उन्मूलन के आंदोलन की भूमिका तैयार की. स्पष्ट है कि जहाँ एक ओर अंग्रेज़ी राज हिमालय के जंगल और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहा था, वहीं दूसरी ओर स्थानीय लोगों से बेगारी लेते हुए हिमालय के मानव-समुदाय का भी शोषण कर रहा था. इसके अलावा दुर्गम इलाक़ों के सर्वे से जुड़े दुस्साहस भरे कामों में भी स्थानीय लोगों की मदद ली जा रही थी. नैन सिंह रावत जैसे महान हिमालयी अन्वेषक तिब्बत और हिमालय के सुदूर इलाक़ों का सर्वेक्षण कर रहे थे, डायरियाँ लिख रहे थे, अक्षांश और उच्चावच का पता लगा रहे थे. हिमालय के उन महान अन्वेषकों की चर्चा शेखर पाठक ने अपनी एक अन्य पुस्तक ‘पंडितों का पंडित’ में की है.
अंग्रेज़ी राज द्वारा शासित इलाक़ों की तुलना में टिहरी जैसी देसी रियासतों की तस्वीर भी कुछ अच्छी न थी. फ़्रेडरिक विल्सन जैसे शिकारियों और मुनाफ़ाखोरों की नज़र टिहरी के जंगलों पर पहले से लगी थी. राजा से अनुमति प्राप्त कर उसने भी जमकर जंगलों का दोहन किया. अंग्रेज़ी राज ने जब रेलवे के विस्तार के लिए जंगलों का महत्त्व बखूबी जान लिया, तब उसने टिहरी रियासत के जंगलों पर भी अपना एकाधिकार जमा लिया. टिहरी रियासत में भी 1885 में जंगलात विभाग बना. मगर ध्यान देने की बात है कि पश्चिमोत्तर प्रांत ने टिहरी के जंगलों के दोहन का अधिकार अपने हाथ में पहले से ही ले रखा था.
हिमालय के पहाड़ी इलाक़ों में सेना के कैम्प, रानीखेत, चकराता, लैंसडाउन जैसे क्षेत्रों में छावनियाँ और प्राकृतिक सुषमा के धनी इलाक़ों में ‘हिल स्टेशन’ की संकल्पना भी इसी दौर में अस्तित्व में आई. कुछ इन्हीं बदलावों को लक्षित करते हुए गुमानी ने लिखा होगा :
करै फ़िरंगी राज आबादी धरती में ना जंगल हैं
कंपू पलटन जगे जगे पर, क़िले कोतघर बंगले हैं.
जहाँ एक ओर हिमालय के लोगों को उनके जंगलों से बेदख़ल किया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर आर्म्स एक्ट जैसे क़ानूनों के ज़रिए उन्हें हथियारों से भी वंचित किया जा रहा था. ग़ौरतलब है कि वाइसराय लिटन के समय में 1876 में बने ‘इंडियन आर्म्स एक्ट’ के ज़रिए अंग्रेज़ी राज भारतीयों को अस्त्र-शस्त्रों से वंचित कर देना चाहता था, ताकि वे भविष्य में 1857 के ग़दर सरीखा सशस्त्र विद्रोह न कर सकें. इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि हिमालय के इलाक़ों में ये अस्त्र-शस्त्र लोगों को ख़ूँख़ार जंगली जानवरों से बचाने में भी उपयोगी थे, उनकी आत्मरक्षा के हथियार थे. मगर अंग्रेज़ी राज ने उनकी एक न सुनी. कुमाऊँ के कमिश्नर रैमजे सरीखे उन अधिकारियों की भी बात नहीं सुनी गई, जो वाइसराय को ख़त लिखकर ध्यान दिला रहे थे कि अभी कुछ बरसों पहले कुमाऊँ के इन्हीं लोगों ने सत्तावन के विद्रोह में हमारी मदद की थी. अपने इन्हीं हथियारों के साथ वे हमारे साथ खड़े थे. अब अचानक एक क़ानून बनाकर हम उनकी बंदूक़ें कैसे छीन लें. मगर अंग्रेज़ी राज के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी.
यह दिलचस्प है कि जहाँ एक ओर स्थानीय निवासियों को शस्त्रों से वंचित किया जा रहा था. जंगलों में उनके प्रवेश पर तरह-तरह से रोक लगाई जा रही थी. वहीं अंग्रेज़ अधिकारी खूब मज़े में उन्हीं जंगलों में शिकार कर रहे थे. शिकार से ही जुड़ा एक दर्दनाक वाक़या तब सामने आया, आज अलमोड़ा के डिप्टी कलेक्टर शिकार पर गए. डिप्टी कलेक्टर साहब शिकार पर तो निशाना नहीं साध सके, उन्होंने अपने साथ गए कुली को अलबत्ता ज़रूर अपनी गोली से घायल कर दिया. ‘अलमोड़ा अख़बार’ ने जब इसके विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया दी तो उसे ‘वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट’ के अंतर्गत हमेशा के लिए बंद कर दिया गया. ‘अलमोड़ा अख़बार’ पर हुई इस अन्यायपूर्ण कार्यवाही और अंग्रेज़ी राज की विसंगतियों को उजागर करते हुए एक अन्य अख़बार ‘पुरुषार्थ’ ने टिप्पणी की थी :
एक फ़ायर में तीन शिकार
कुली, मुर्गी और अलमोड़ा अख़बार.
प्रतिरोध और राजनीतिक चेतना |
हिमालय के लोग अपने जातीय अधिकारों पर अंग्रेज़ी राज द्वारा लगातार किए जा रहे इन हमलों को चुपचाप बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे. 1903 में खत्याड़ी गाँव के किसानों ने बेगारी करने से साफ़ इंकार कर दिया. इस ऐतिहासिक मगर कम याद की जाने वाली घटना के तेरह सालों बाद 1916 में कुमाऊँ परिषद की स्थापना हुई. जिसने आगे आने वाले वर्षों में अलमोड़ा, हलद्वानी, कोटद्वार और काशीपुर में अपने वार्षिक अधिवेशन आयोजित किए और बेगार उन्मूलन व जंगलात पर स्थानीय लोगों के हक़ के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद की.
उल्लेखनीय है कि वह प्रथम विश्व युद्ध का दौर था, जिसमें उत्तराखंड के सैनिकों ने भी यूरोप में युद्ध के मोर्चों पर शहादत दी थी, घायल हुए थे. उत्तराखंड के एक ऐसे ही घायल सैनिक से जब इंग्लैंड के सम्राट मिले तो उसने कहा कि यहाँ मोर्चों पर हम संघर्ष कर रहे हैं और वहाँ हमारे अपने लोग जंगलात के अधिकारों और बेगारी के उन्मूलन के लिए लड़ रहे हैं. साफ़ है कि जब वे सैनिक अपने घरों को वापस आए तो उन्होंने यहाँ अपने ही लोगों का दमन होते देखा. युद्ध के मोर्चों से वे सैनिक एक समृद्ध राजनीतिक चेतना और अनुभव भी लेकर लौटे थे. अकारण नहीं कि आगे चलकर उनमें से कई ने बेगार आंदोलन और दूसरे प्रतिरोधों में अहम भूमिका निभाई. वर्ष 1921 में बागेश्वर में हुआ बेगार आंदोलन सफल रहा – क्षेत्रीय संगठन, सामूहिक नेतृत्व और स्थानीय राजनीतिक मुहावरों के इस्तेमाल के बल पर. जिसके बारे में शेखर पाठक 1987 में छपी अपनी गंभीर शोधपरक किताब ‘उत्तराखंड में कुली बेगार प्रथा’ में विस्तार से लिख चुके हैं.
दिलचस्प है कि व्यापक पैमाने पर हुए इन प्रतिरोधों को दर्ज़ करने के साथ ही शेखर पाठक रोज़मर्रा के जीवन में घटित होने वाले रक्तहीन प्रतिरोधों को भी दर्ज़ करते हैं. जैसे बेगारी से इंकार करना, जंगलों में लगी आग बुझाने में जंगलात विभाग की मदद न करना, जंगलात विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों को सही रास्ता न बताना, कुलियों और जंगलात विभाग के मज़दूरों की राह में अवरोध खड़े करना आदि. रोज़मर्रा जीवन में होने वाले ऐसे ही प्रतिरोधों को प्रसिद्ध राजनीतिविज्ञानी जेम्स स्कॉट ने ‘कमज़ोरों का हथियार’ (वीपंस ऑफ़ द वीक) कहा था. इस तरह एक ओर शेखर पाठक रोज़मर्रा के प्रतिरोध का ऐतिहासिक आख्यान रचते हैं. तो दूसरी ओर वे ‘समय विनोद’, ‘गढ़वाली’, ‘विशाल कीर्ति’, ‘कुमाऊँ कुमुद’, ‘शक्ति’ और ‘अलमोड़ा अख़बार’ जैसे स्थानीय समाचार-पत्रों के माध्यम से आंदोलन से जुड़े लोगों के राजनीतिक विचारों और विमर्शों की यात्रा को भी दर्ज़ करते हैं. ‘नीचे से अंकुरित होते राष्ट्रवाद’ की गहन पड़ताल करते हैं.
इसके साथ ही शेखर पाठक हिंदुस्तानी समाज में देशज पर्यावरणीय चेतना के विकास को भी लक्षित करते हैं. मसलन, ‘शक्ति’ जैसे अख़बार में वर्ष 1924 में छपे एक लेख के ज़रिए वे दर्शाते हैं कि स्थानीय समाज अपने अनुभवों से कैसे पर्यावरणीय चेतना विकसित कर रहा था. खेती और जंगलात के अन्योन्याश्रित सम्बन्धों को समझ रहा था. कैसे हिमालयी समाज जलवायु, जल वर्षा, भूमि, चौपायों और रोज़मर्रा की चीजों के लिए जंगलों की उपस्थिति के महत्त्व को जान रहा था और इसीलिए अपने उन जंगलों को बचाने के लिए कटिबद्ध था.
बीसवीं सदी में यह प्रतिरोध ब्रिटिश उत्तराखंड में ही नहीं टिहरी रियासत में भी देखने को मिल रहा था. जहाँ बेगार बर्दायश का विरोध ज़ोर पकड़ चुका था. यहाँ भी सामूहिक भागीदारी और स्थानीय नेतृत्व अपनी भूमिका निभा रहा था. मई 1930 में तिलाड़ी में टिहरी रियासत के दीवान ने किसानों पर गोली चलवाई. तिलाड़ी का यह नृशंस हत्याकांड उत्तराखंड के लोगों की स्मृतियों में हमेशा के लिए दर्ज़ हो गया. इस हत्याकांड ने रियासत के शासकों की प्रजावत्सलता का छद्म भी वैसे ही उघाड़ दिया, जैसे ग्यारह बरस पहले 1919 में जलियाँवाला बाग नरसंहार ने अंग्रेज़ी राज के ‘क़ानून के शासन’ वाले दावे को दुनिया के सामने बेनक़ाब कर दिया था. तिलाड़ी के उक्त बर्बर कांड के बाद जब टिहरी रियासत ने उल्टे ग्रामीणों पर ही मुक़दमा चलाया और उन्हें बाहर से वकील की मदद लेने की अनुमति तक नहीं दी. तो उन ग्रामीणों ने रियासत की अदालत में अपनी पैरवी ख़ुद की और न्याय के पाखंड को बेबाक़ी से उजागर किया. तिलाड़ी हत्याकांड में किसानों का बलिदान और आगे चलकर टिहरी रियासत में आंदोलन का नेतृत्व कर रहे श्रीदेव सुमन की शहादत उत्तराखंड के लोगों के लिए प्रेरणादीप बन गई. जो आज़ादी के बाद उत्तराखंड के सबसे मुश्किल दौरों में भी आंदोलनरत लोगों को राह दिखाती रही, उनका मार्गदर्शन करती रही, उनकी उम्मीदों को अविस्मरणीय शहादत की स्मृतियों से हरा-भरा करती रही.
आज़ादी के बाद |
वर्ष 1947 में जब हिंदुस्तान को आज़ादी मिली तो उत्तराखंड के लोगों ने उम्मीद बांधी कि अब जंगलों पर उनके हक़-हकूकों को स्वीकृति मिलेगी, जंगलात पर उनके अधिकार फिर से बहाल होंगे. मगर जैसे-जैसे समय बीतता गया, उन्हें अपनी उम्मीदें धूमिल होती नज़र आयीं. उत्तर-औपनिवेशिक राज्य ने दूसरे मसलों की तरह ही जंगलात के संदर्भ में भी उन्हीं नियमों, क़ानूनों और नीतियों को यथावत अपना लिया, जो औपनिवेशिक राज्य के शासनकाल में प्रचलित थे. स्वाधीन भारत की सरकारें जंगलों के संदर्भ में औपनिवेशिक राज्य द्वारा निर्मित नीतियों से कुछ अलग हटकर सोचने और करने की इच्छाशक्ति तक नहीं जुटा सकीं. मसलन, आज़ादी के पाँच साल बाद वर्ष 1952 में जब भारत में जंगलात की नीति बनी, तो वह 1927 के वन अधिनियम के अनुरूप ही बनी और लागू की गई. जंगलों को आज़ाद हिंदुस्तान की सरकारों ने भी राजस्व के सतत स्रोत और उद्योगों के लिए कच्चे माल के भंडार के रूप में ठीक वैसे ही देखा, जैसे कि अंग्रेज़ी राज देखता आया था. इस तरह अंग्रेज़ी राज की तरह ही स्वतंत्र भारत में भी जंगलों का व्यापारिक दोहन बदस्तूर जारी रहा. इसी क्रम में सहारनपुर के स्टार पेपर मिल्स और रेजिन कम्पनी आदि को जंगलों में पेड़ काटने का अधिकार मिला. स्थानीय लोगों ने जब अपने जंगलों को इस तरह अंधाधुंध कटते देखा तो उन्होंने इसके विरुद्ध प्रतिरोध शुरू किया.
शेखर पाठक स्वाधीन भारत में जंगलात के इन आरम्भिक प्रतिरोधों को तत्कालीन राजनीतिक संदर्भ में अवस्थित करते हैं. जिसमें एक ओर कांग्रेस, समाजवादी, साम्यवादी दलों से जुड़े राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता जंगलात के प्रतिरोधों से जुड़ते हैं तो दूसरी ओर सर्वोदयी कार्यकर्ता. पचास के दशक में विनोबा भावे ने देश में भूदान और ग्रामदान आंदोलन चलाया था. वह आंदोलन उत्तराखंड में भी सर्वोदयी कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में शुरू हुआ. मगर सर्वोदयी नेताओं ने जल्द ही समझ लिया कि उत्तराखंड में समस्याएँ कुछ और ही हैं. मसलन, उन्हें लगा कि यहाँ समस्याएँ नशाबंदी और जंगलात पर अधिकारों से अधिक जुड़ी हैं. इसी दौरान लक्ष्मी आश्रम, पर्वतीय नवजीवन आश्रम, दशौली ग्राम स्वराज संघ जैसे संगठनों की स्थापना हुई. सरला बहन, सुंदरललाल-विमला बहुगुणा, चण्डीप्रसाद भट्ट जैसे लोगों ने पहले शराबबंदी और फिर जंगलात सम्बन्धी आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभाई.
वर्ष 1959 में जंगलात नीति, जंगलों पर स्थानीय समुदायों के हक़-हकूकों, भूमिहीनों की समस्या आदि के विश्लेषण के लिए कुमाऊँ जंगलात जाँच समिति (कुजजास) का भी गठन हुआ था. उक्त समिति ने वन पंचायतों की स्थापना के साथ ही स्थानीय समुदायों के हक़-हकूकों को मान्यता देने और जंगलों के संरक्षण, विकास और विस्तार जैसे महत्त्वपूर्ण सुझाव भी दिए थे. मगर जैसा कि हिंदुस्तान में दूसरी समितियों की रपटों के साथ होता आया है, कुजजास की रपट के साथ भी वही हुआ. उसे एक के बाद एक सरकारों ने ठंडे बस्ते में डाल कर छोड़ दिया. यद्यपि जंगलात आंदोलनों से जुड़े कार्यकर्ता कुजजास के सुझावों की याद सरकार और जंगलात के अधिकारियों को बराबर दिलाते रहे.
जंगलात का यह मसला परम्परागत अधिकारों के साथ-साथ आजीविका और आर्थिक प्रश्नों से भी गहरे जुड़ा था. वनों पर आधारित स्थानीय उद्योग खड़े करने के प्रयास भी दशौली ग्राम स्वराज संघ जैसी संस्थाओं ने किए थे. मगर सरकार की वन नीति और प्रशासनिक अधिकारियों के सौतेले व्यवहार ने स्थानीय उद्योगों को पनपने का अवसर ही नहीं दिया. विरोधाभास देखिए कि जो वन विभाग स्टार पेपर मिल्स और दूसरी कम्पनियों को पेड़ काटने और लीसा निकालने के अधिकार सहज ही देता था, वही स्थानीय संगठनों को जंगल सम्बन्धी रियायतें देने या लीसा की टिपान की अनुमति देने में लगातार अवरोध खड़े करता रहा. जो वन विभाग खेल से जुड़े सामान बनाने वाली कम्पनी को तो अंगू के पेड़ काटने के अधिकार देता था, वही विभाग किसानों द्वारा खेती के उपकरणों के लिए अंगू के या चमखड़िक के पेड़ की माँग करने पर नियमों का हवाला देकर हाथ खड़े कर देता था. इस दौरान उत्तराखंड में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ ही स्थानीय मानव-समुदाय के शोषण, पुरावशेषों और दुर्लभ मूर्तियों के तस्करी की जो प्रक्रिया निर्बाध चल रही थी, उस पर शेखर पाठक मार्मिक टिप्पणी करते हैं :
1950 से 1970 के बीच उत्तराखंड के औसत संसाधनों पर लगातार हमला हुआ, कब्जा हुआ और उन्हें लूटा गया. यदि मनुष्य को लें तो वह पलायन को विवश था. यदि वह बच्चा/तरुण था तो घरेलू नौकर या होटल रेस्तराँ का बैरा, यदि युवा और स्वस्थ था तो कोई भी कार्य करने को अभिशप्त तथा मजदूर या फौज में सिपाही बनने को तत्पर था. यदि वह कर्ज या बंधुआ मजदूरी में फंसे (जैसे विशेष रूप से जौनसार, देहरादून तथा रंवाई, उत्तरकाशी में) परिवार की लड़की या औरत थी तो इलाके से भगाई जाने और वेश्यावृत्ति को विवश. यदि प्रकृति को लें तो लूट और अति दोहन के लिए अभिशप्त. पेड़ है तो कटने और ले जाने; लीसा है तो जमा होने, ले जाने; जड़ी-बूटी या खनिज है तो खुदने और ले जाने; वन्यजीव हैं तो मारे जाने और ले जाने को अभिशप्त (कीड़ाजड़ी अभी प्रकट नहीं हुई थी) और यदि वह मनुष्य और प्रकृति के अतिरिक्त हैं जैसे मूर्ति शिल्प गहने स्मारक आदि तो चोरी और तस्करी को प्रतीक्षारत. (पृ. 175)
आज हिमाल तुमन कैं धत्यूछ, जागौ जागौ हो मेरा लाल… |
अलकनंदा की बाढ़ जैसी आपदाओं ने उत्तराखंड के लोगों को जंगलात की समस्या पर नए सिरे-से संगठित होने का अवसर दिया था. ऐसी आपदाओं को लेकर हिमालयी समाज की प्रतिक्रिया को समझने के साथ ही शेखर पाठक उन सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों की पड़ताल करते हैं, जो गढ़वाल और कुमाऊँ में विश्वविद्यालयों की मांग, शराबबंदी, अस्पृश्यता उन्मूलन और वन सम्पदा से जुड़े विविध आंदोलनों को एक सूत्र में जोड़ते थे.
इसी क्रम में अक्टूबर 1971 में गोपेश्वर में ऐतिहासिक सम्मेलन हुआ, जिसमें जंगल पर हक़दारी की बात उठी, ठेकेदारी के अंत का आह्वान किया गया. उत्तराखंड के छात्र और युवा भी जंगलात के इस आंदोलन से धीरे-धीरे जुड़ते चले गए. जंगलात के आंदोलन ने प्रतिरोधों के क्रम में अपने सांस्कृतिक औज़ार भी गढ़े. गौर्दा, गिर्दा, घनश्याम सैलानी, जीवानंद श्रियाल के गीत आंदोलनों में शामिल लोगों के ही नहीं हिमालय के सुदूर गाँवों तक के बच्चों के ज़ुबान पर भी चढ़ गए.
मंडल, फाटा रामपुर से होते हुए जंगलात का यह आंदोलन रेणी तक पहुँचा. जहाँ मार्च 1974 में महिला मंगल दल की प्रमुख गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने चिपको आंदोलन के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ा. और जंगलात के आंदोलन में पैंठ बनाते वादों, व्यक्तित्वों के विस्तार को अपने अद्वितीय प्रभाव से कुछ समय के लिए ढक दिया. रेणी में जब नशे में धुत बंदूक़धारी फ़ॉरेस्ट गार्ड ने निहत्थी महिलाओं को बंदूक़ का ख़ौफ़ दिखाना चाहा तो गौरा देवी ने निर्भय होकर कहा ‘लो मारो बंदूक़ और काट ले जाओ हमारा मायका’. जंगल को मायका बताने और बंदूक़ के सामने एक निहत्थी महिला के यूँ खड़े होने ने ठेकेदार, गार्ड और जंगल काटने गए मज़दूरों को अवाक् कर दिया और सर्वत्र चुप्पी छा गई. शेखर पाठक के शब्दों में, ‘नीचे ऋषिगंगा बह रही थी और ऊपर नंदादेवी की तरफ़ उठते पहाड़ खड़े थे. बीच में यह प्रतिरोध के पराकाष्ठा पर पहुँचने की चुप्पी थी. इतिहास का एक असाधारण क्षण था यह.’ (पृ. 208) गौरा देवी और उनके साथ गई रेणी की महिलाओं ने कोई नारे नहीं लगाए, बल्कि अपने कर्म से ही रेणी के उन जंगलों में चिपको आंदोलन की मूल भावना को जीवंत कर दिया था. शेखर जी ने ठीक ही लिखा है कि ‘दरअसल चिपको के नारे उनकी कार्यवाही बन गए थे. शब्द जब कर्म बन जाते हैं तो उन्हें उच्चारित करने की ज़रूरत नहीं रहती है.’
1974 के उसी साल में असकोट-आराकोट की यात्रा शुरू हुई, जिसमें भागीदार युवाओं ने उत्तराखंड के पूर्वी छोर से पश्चिमी छोर की यात्रा करते हुए हिमालय के समाज को अधिक गहराई से जाना और समझा. उसी बरस पर्वतीय वन बचाओ संघर्ष समिति की भी स्थापना हुई. देश में जब आपातकाल लागू हुआ तो जंगलात के आंदोलन कुछ थम-से गए. मगर आपातकाल के हटने के बाद जंगलात के आंदोलन नई उमंग और ऊर्जा के साथ फिर से उठ खड़े हुए. शमशेर बिष्ट के नेतृत्व में 1977 में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी की स्थापना हुई, जिसने जंगलों की नीलामी का प्रतिरोध शुरू किया और जंगलात के आंदोलन को संघर्षशील बनाते हुए खास राजनीतिक तेवर भी दिया. वाहिनी से सच्चिदानंद भारती, योगेश बहुगुणा और प्रदीप टमटा सरीखे लोग भी जुड़े थे. एक जनांदोलन से प्राप्त विरासत को राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित करने की मुहिम में क्या कठिनाइयाँ या अड़चनें आती हैं या उत्तराखंड के संदर्भ में यह अभिनव प्रयोग किन कारणों से असफल हुआ, इसकी ओर भी शेखर पाठक इशारा करते हैं.
नीलामी के विरोध के दौरान नवम्बर 1977 में नैनीताल कांड भी घटित हुआ, जिसने आपातकाल के बाद मिली ‘दूसरी आज़ादी’ की निर्मम वास्तविकता को उजागर कर दिया. उस दौरान जैसा पुलिसिया दमन नैनीताल में देखने को मिला वह अभूतपूर्व था. मगर सत्ता के उस क्रूर दमन के सामने भी लोग डटे रहे. उनके इसी प्रतिबद्धता की वजह से आंदोलन का विस्तार अदवाणी, हेंवलघाटी, भ्यूंढार (फूलों की घाटी), चांचरीधार जैसे इलाक़ों में हुआ. आंदोलनों में विश्वविद्यालय और कॉलेज के छात्र ही नहीं स्कूली बच्चे भी शामिल हो रहे थे. जंगल रूपी अपने मायके को बचाने के लिए इसमें मूलो देवी, इंद्रा देवी, श्यामा देवी, बचुली देवी, झाबरी देवी, सुदेशा देवी, बचनी देवी सरीखी हज़ारों ग्रामीण महिलाएँ जुड़ रही थीं. जंगलों को बचाने के लिए वे आम महिलाएँ वन विभाग, सरकार, ठेकेदार से तो टकरा ही रही थीं. ज़रूरत पड़ने पर वे अपने गाँवों के मर्दों, यहाँ तक कि अपने पतियों के ख़िलाफ़ भी खड़े होने का विलक्षण साहस दिखा रहीं थीं.
इसी दौरान 1980 में सरकार द्वारा तीन महत्त्वपूर्ण फ़ैसले लिए गए:
पहला, अखिल भारतीय स्तर पर वन संरक्षण अधिनियम लागू हुआ;
दूसरा, विवादों के केंद्र में रही स्टार पेपर मिल्स के साथ 1961 में हुए करार का नवीनीकरण नहीं हुआ; और
तीसरा, एक हज़ार मीटर से ऊपर स्थित जंगलों में अगले पंद्रह सालों तक हरे पेड़ों के कटान पर रोक लगी.
वन अधिनियम के प्रावधानों के लागू होने के बाद चिपको की शाखाएँ जिस तरह नए आंदोलनों के रूप में फूटीं, उसकी चर्चा भी इस किताब में हुई है. इनमें पर्यावरण शिविर और वृक्षारोपण, बीज बचाओ आंदोलन, पाणी राखो आंदोलन, माउंटेन शेफ़र्ड, रक्षासूत्र आंदोलन, चेतना आंदोलन, मैती आंदोलन, नदी बचाओ, खनन विरोधी-जंगल बचाओ आंदोलन आदि प्रमुख रहे, जो विभिन्न स्वरूपों में आज भी चल रहे हैं.
जंगलात से जुड़े इस समूचे आंदोलन में अनिकेत, युगवाणी, नैनीताल समाचार, द्रोणाचल प्रहरी, सीमांत प्रहरी, जंगल के दावेदार जैसे पत्रों ने अहम भूमिका निभाई. जिस हिम्मत के साथ जंगलात के मसले पर इन पत्रों ने रिपोर्टिंग की, उसे भी शेखर पाठक रेखांकित करते हैं. रघुवीर सहाय द्वारा संपादित ‘दिनमान’ ने जंगलात आंदोलन से जुड़ी खबरों को प्रमुखता से प्रकाशित ही नहीं किया, बल्कि अनुपम मिश्र जैसे लोगों को इस आंदोलन की रिपोर्टिंग करने के लिए भेजा. आंदोलन के नेतृत्व की वैचारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि को भी शेखर पाठक विश्लेषित करते हैं. इसके साथ ही वे चिपको आंदोलन की वैचारिकी की भी पड़ताल करते हैं.
आंदोलन का कालक्रमिक विवरण देने के क्रम में और फिर आंदोलन में शामिल व्यक्तियों का जीवन-वृत्त दर्ज़ करने, आंदोलन की वैचारिकी की पड़ताल करने में इस किताब में कई जगहों पर अनावश्यक दुहराव भी हुए हैं. कई जगह अतिशय तथ्यात्मक विवरण किताब के नैरेटिव को बोझिल भी बनाते हैं. मुद्रण की त्रुटियाँ भी जगह-जगह किताब में दिखती हैं और पाठकीय आस्वाद को किरकिरा भी करती हैं. इस किताब का चुस्त संपादन इसे और पठनीय, अधिक दिलचस्प बना सकता था. जिसकी कमी खलती है.
प्रासंगिक है कि चिपको आंदोलन कोई एकांगी आंदोलन नहीं था. आर्थिकी, पारिस्थितिकी और सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम भी इस आंदोलन से गहरे जुड़े हुए थे. इसलिए चिपको या जंगलात के दूसरे आंदोलनों को आर्थिक या परिस्थितिकी पक्ष तक ही सीमित करना उनके प्रभाव और विस्तार को कम करके आंकना होगा और यह उस आंदोलन में शामिल लोगों के प्रति अन्याय होगा. इस आंदोलन ने दर्शन और व्यावहारिकता दोनों का संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया. चिपको और जंगलात के इन प्रतिरोधों का फलक क्षेत्रीय ज़रूर था, मगर उनमें संकुचित क्षेत्रीयता नहीं थी.
समकालीन इतिहास, सामाजिक आंदोलनों का इतिहास कैसे लिखा जाना चाहिए, इसकी एक बेहतरीन नज़ीर शेखर पाठक ने ‘हरी भरी उम्मीद’ में पेश की है. राज्य अभिलेखागारों के साथ स्थानीय समाचार-पत्रों का इस्तेमाल, आंदोलन में शामिल लोगों के पत्राचार, उनके लेखों और संस्मरणों का इस्तेमाल तो इस किताब को समृद्ध बनाता ही है. साथ ही, आंदोलन में सक्रिय लोगों के साथ शेखर पाठक द्वारा की गई भेंटवार्ताओं के रूप में मौखिक इतिहास का सचेत इस्तेमाल भी इस किताब को विशिष्ट बनाता है. सामाजिक आंदोलनों का इतिहास लिखने में जिस गहन संवेदना और इतिहासबोध की आवश्यकता होती है, वह भी इस किताब में दृष्टिगत होती है.
शेखर पाठक, हरी भरी उम्मीद : चिपको आंदोलन और अन्य जंगलात प्रतिरोधों की परम्परा (नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2019).
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सन्दर्भ
[1] अनुपम मिश्र, आज भी खरे हैं तालाब (नई दिल्ली : गांधी शांति प्रतिष्ठान, 1993), पृ. 16.
[2] अनुपम मिश्र, चिपको आंदोलन (नई दिल्ली : गांधी शांति प्रतिष्ठान, 1978).
[3] शेखर पाठक, हरी भरी उम्मीद : चिपको आंदोलन और अन्य जंगलात प्रतिरोधों की परम्परा (नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2019), पृ. 75.
[4] रामचंद्र गुहा, द अनक्वाइट वुड्स : इकॉलॉजिकल चेंज एंड पीजेंट रेजिस्टेंस इन द हिमालय (ऑक्सफ़ोर्ड : ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1989), पृ. xiii.
[5] देखें, रिचर्ड ग्रोव, ग्रीन इंपीरियलिज़्म : कॉलोनियल एक्सपैंसन, ट्रॉपिकल आइलैंड ईडन्स एंड द ओरिजिंस ऑफ़ एनवायरमेंटलिज़्म, 1600-1860 (कैम्ब्रिज : कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1995).
शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. kaushikshubhneet@gmail.com |
एक अनिवार्य पुस्तक.इसका व्यापक प्रसार होना चाहिए.धन्यवाद कौशिक जी,
शेखर पाठक पहाड़ वाले चुप समाज के प्रफुल्ल संभाषी हैं और हिमालयी समाज, जन, लोक, संस्कृति, संपदा, पर्यावरण और संकट को लेकर उनका जो मानीखेज़ काम है, वह पुरस्कारों, कीर्तियों या प्रशस्तिगान गान की खांची या कंडोलक में अटा ही नहीं सकता. “हरी भरी उम्मीद” के अनुवाद ‘ The Chipko Movement — A people’s History. ‘
( मनीषा चौधरी ) को पिछले वर्ष कमला देवी चटोपाध्याय न्यू इंडिया फाउंडेशन बुक प्राइज से नवाज़ा गया.
अक्टूबर 2019 को कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल एंड आर्ट्स के बैनर तले नैनीताल में Himalayan Echoes का जलसा मुनअ`किद हुआ तो संदर्भित क़िताब की झलक मैंने तभी पा ली थी और किताब का उनवां मुझे इतना भाया कि मैंने अपनी एक कविता “आग वाला चूरन” में ‘ हरी भरी उम्मीद ‘ को प्रयुक्त भी कर लिया.
शुभनीत कौशिक के आलेख से याद फिर से हरी हो गई.
शेखर पाठक भी हैरान होंगे कि अब उम्मीद नाउम्मीद में बदलती जा रही है। चिपको में जहां महिलाएं पेड़ों से चिपक गई थीं वहीं आज चार धाम यात्रा में हजारों पेड़ कटे । कोई नहीं चिपका I जोशीमठ दरक रहा है । मुट्ठी भर लोग प्रतिरोध करते हैं ! जनमानस टीवी पर चिपका है !