मुख्य धारा बनाम हाशिये की कवितादया शंकर शरण |
‘सीवान की कविता’ सीवान शहर के अज्ञात कुल-शील छह कवियों का काव्य संकलन है जिसका संचयन और संपादन 1997 में श्री मैनेजर पाण्डेय ने किया था. महीने में एक बार ये गुमनाम छह कवि बारी-बारी से नियमित काव्य गोष्ठी का आयोजन अपने-अपने घरों पर किया करते और एक दूसरे की कविताएँ सुनते-सुनाते. यह सिलसिला 1992 से अनवरत 2003 तक चलता रहा. इसके साथ-साथ सन् 1992 के ही आसपास श्री बालेश्वर सिंह की प्रेरणा से बकायदा एक साहित्यिक पत्रिका भी निकलनी शुरू हो गयी जिसका नाम ‘अद्यतन’ रखा गया. इन सारी गतिविधियों के पीछे भी मुख्य श्रेय कवि बालेश्वर का ही रहा. दुर्भाग्य से उनके देहावसान के साथ ‘अद्यतन’ का अस्तित्व भी समाप्त हो गया.
इसी एक दशक की अवधि के दरम्यान बहुत से साहित्यकारों का साथ मिला, ‘सीवान की कविता’ का प्रकाशन भी उसका ही प्रतिफल है.
मैनेजर पाण्डेय की यह सोच थी कि अपने सीमित साधनों में गाँव और कस्बों में रहकर जो लोग साहित्य कर्म में दिन-रात लगे रहते हैं और जिनकी कोई मुकम्मल पहचान नहीं बन पाती , उनकी उपस्थिति को भी साहित्य में दर्ज किया जाना आलोचना कर्म का एक जरूरी दायित्व है. समाज के हाशिए पर संघर्षरत और साहित्य के हाशिए पर सृजनरत- दोनों की स्थिति और गति कमोबेश एक जैसी होती है. ‘सीवान की कविता’ की लंबी भूमिका में उन्होंने लिखा है-
“हाशिये की कविता में उन लोगों के जीवन की स्थितियों और आकांक्षाओं की चिंता होती है, जो समाज के हाशिए पर जीते हैं. हमारे समाज में जो लोग शासक वर्ग के शक्ति तंत्र के शिकार हैं, समाज से बहिष्कृत हैं, जातिवादी व्यवस्था की सामाजिकता के सताये हुए हैं और वंचना की संस्कृति के लतमरूआ हैं, उनके जीवन की वास्तविकताओं और अनुभवों की कविता ही हाशिए की कविता है.”
‘हाशिये का समाज’ एक अवधारणा के तौर पर इतालवी मार्क्सवादी विचारक अंतोनियो ग्राम्शी द्वारा प्रयुक्त सबाल्टर्न से आया है. ग्राम्शी के अनुसार सबाल्टर्न में दुनिया के सभी वंचित,शोषित,दलित शामिल हो सकते हैं जो किसी-न-किसी तरह के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, नस्लीय भेदभाव या वंचना के शिकार रहे हैं. साहित्य में भक्ति आंदोलन, धर्म में बौद्ध धर्म का उदय और राजनीति में स्वाधीनता आंदोलन हाशिये के आंदोलन थे. प्राचीन काल में संस्कृत की अभिजात्य साहित्य परंपरा के बरक्स प्राकृत-पाली, अवहठ्ठ या अपभ्रंश जैसी जनभाषाओं में रचित काव्य, भक्तिकाल में दलित-वंचित वर्ग से आये संत-कवियों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों की रचनाएँ एवं स्वाधीनता आंदोलन काल में रचा गया साहित्य इसका प्रमाण है. आधुनिक काल का हिन्दी साहित्य इन्हीं बीज स्रोतों से आधार, प्रेरणा एवं प्रभाव लेकर आगे बढ़ता है, जहाँ हाशिये की अस्मिताएँ पूरी शिद्दत से अपनी मौजूदगी दर्ज कराती हैं. ‘हाशिए का समाज’- अवधारणा ने कई विमर्शों को जन्म दिया है. दलित विमर्श, स्त्री विमर्श एवं विस्थापित, अल्पसंख्यक और आदिवासी चेतना से जुड़े तमाम विमर्श अपने मूल रूप में हाशिये के हीं विमर्श रहे हैं.
साहित्य में मुख्यधारा के बरक्स हाशिये की पहचान कई आलोचकों ने अपनी-अपनी तरह से की है. मैनेजर पाण्डेय ने भी अपने आलोचना कर्म को एक गंभीर सामाजिक दायित्व मानते हुए कई कोणों से इसपर विस्तार से चर्चा की है. ‘सीवान की कविता’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है-
‘अब मुख्यधारा का मिथक टूट रहा है. राजनीति में केंद्रवाद तथा वर्चस्व के विरुद्ध आवाजें उठ रही हैं. ऐसी स्थिति में साहित्य में मुख्यधारा का मिथक बहुत दिनों तक नहीं चल सकता. अब हाशिये के लोग अपनी अस्मिताओं की स्वतंत्रता के बारे में सजग हो रहे हैं और उनके रचनाकार अपनी रचनाशीलता की नयी राहें बना रहे हैं. सीवान की कविता ऐसी ही कोशिश की एक अभिव्यक्ति है, इसलिए इसमें मुख्यधारा की कविता से अलग रूप-रंग और स्वरों की कविताएँ मिलें तो किसी को चकित नहीं होना चाहिए.’
उनका मानना है कि कविता अपने समय का ‘कम्पास’ (दिशा सूचक यंत्र) होती है. कविता का सृजन होता ही इसलिए है कि वह मानवीय मूल्यों को जीवन के हाशिए से उठाकर केन्द्र में प्रतिष्ठित करे. लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है . मुख्यधारा की अवरोधी शक्तियाँ उसे केंद्र में आने नहीं देतीं. हाशिए की यही जिद उसका आत्मसंघर्ष है, जो बार-बार कुचले जाने पर भी सर उठाती है. यह एक सतत द्वंद्वात्मक एवं गतिमान प्रक्रिया है. रूढ़ मान्यताओं की तरह इसे किसी पूर्व निर्धारित खाँचे में देखना भी एक किस्म का सरलीकरण है. जीवन कोई डबरा नहीं बल्कि एक बहती हुई नदी है जो अपनी तमाम लहरों की हलचल लिए और रास्तों के सभी घात-प्रतिघातों को झेलते अपनी दिशा तय करती रही है. चूंकि कविता का यथार्थ जीवन के यथार्थ से भिन्न नहीं होता, इसलिए कविता के मूल्यांकन की एक अनिवार्य कसौटी यह जीवन यथार्थ और उसकी संवेदना भी है .
कविता के इतिहास को देखें तो इसकी विकास-यात्रा में हमें कई पड़ाव मिलेंगे जिनसे होकर कविता आज यहाँ तक पहुँची है. आजादी के बाद सन् 1950 को हम विभाजक रेखा मानें, तो उसके बाद से ही नये भाव-बोध की कविताएँ लिखी जाने लगी थीं. ‘नयी कविता’ के प्रारंभिक इतिहास को देखा जाये तो यह प्रकारांतर से प्रयोगवाद का ही एक और संस्करण थी. लेकिन बाद में चलकर नयी कविता अपने को प्रयोगवाद से अलग एक स्वतंत्र धारा के रूप में स्थापित करती चली गयी. सामाजिक संदर्भों में यथार्थवाद की पहचान का जो संकट कविता के सामने था, प्रगतिवाद ने कविता को उस संकट से उबारकर पाठक को एक यथार्थवादी दृष्टि दी थी. परिधि पर जीवन के जद्दोजहद से भरी अपनी संवेदना का विस्तार करती प्रगतिवादी कविताएँ एक तरह से हाशिये की कविताएँ थीं. लेकिन प्रगतिवाद ने कविता पर वाद का ऐसा मुलम्मा चढ़ाया कि कविता का अपना रंग फीका पड़ता गया. कविता से कविता गायब होती गयी और कविता, कविता न रहकर राजनीतिक बयानबाजी और प्रचार का पर्याय बनती गयी. इस संदर्भ में स्वयं मार्क्सवादी आलोचकों ने भी इस बात पर जोर दिया था कि साहित्य में विचारवाद को स्थूल रूप में न लाकर सूक्ष्म रूप में पूरे कलात्मक संयम, सिद्धि और कौशल के साथ इस रूप में पिरोकर विकसित किया जाना चाहिए कि वह पाठक को एक दृष्टि दे सके. साथ ही, आज की प्रगतिशील चेतना संपन्न कविता ने पूर्ववर्ती कविताओं के सौंदर्य विधान को भी उस सीमा तक ही स्वीकार किया है, जहाँ तक कविता अपने शिल्पगत आग्रहों से मुक्त होकर अर्थ-बोध के संकट से आक्रांत नहीं है.
यह कहने की जरूरत नहीं कि कविता हर काल में अपना सौंदर्यबोध अपनी जमीन से ही अलग-अलग रूपों में गढ़ती रही है और समय के बदलते हुए यथार्थ के साथ सौंदर्य के प्रतिमान भी बदलते रहे हैं. चाँद जैसे चेहरे की उपमा ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ में बदल गयी . इसलिए कविता ने अपनी विकास-यात्रा में जितने पड़ाव तय किये, जिन वादों का संवहन किया, उन सबका सौन्दर्यशास्त्र भी अलग-अलग है. रीतिवाद की परंपरा से अलग छायावाद ने जिस सौंदर्यबोध को विकसित किया,वह प्रगतिवाद के सौंदर्यबोध से काफी अलग है. प्रगतिवाद ने पहली बार सौंदर्य के अभिजात्य को तोड़कर श्रम के सौंदर्य का एक नया प्रतिमान विकसित किया. साहित्य में उसने पूरी ताकत से सौंदर्य की अभिजात्यवादी मानसिकता को खारिज किया. उसने कहा कि जीवन का वास्तविक सौंदर्य स्त्री की सुगढ़ देहयष्टि या उसके शारीरिक अंग-प्रत्यंग की कामुकता में नहीं , बल्कि खेतों में काम कर रही एक स्त्री के धूप से लाल हुए चेहरे पर बिखरी हुई पसीने की बूंदों में भी प्रतिबिंबित है.
निराला की कविताएँ-वह तोड़ती पत्थर,कुकुरमुत्ता इत्यादि अपने युग की संवेदनाओं के अनुरूप नये सौंदर्यबोध की कविताएँ हैं. आज की कविता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है अपने युग-बोध की संवेदना और उसकी जड़ों की पहचान. कविता अगर समय का कम्पास है, तो जाहिर है यह हमारे समय की खबर भी है. कविताएँ बताती हैं कि हम किस दिशा में हैं और यह दिशा सही है या नहीं. हमारे समय की सारी अमानवीयताएँ एवं संवेदनाओं का क्षरण आज की कविता की मूल चिंता है. हमारे समय की अच्छी कविताओं में हमारे समय की तमाम बुरी खबरें दर्ज हैं. समकालीन कविता के केंद्र में समाज के हाशिए पर जी रहे लोगों की आशा-आकांक्षाएँ हैं, न कि ‘एलिट क्लास’ की चकाचौंध भरी जिंदगी के व्यक्तिगत रूमानी सरोकार. आज की कविता जिंदगी की आत्ममुग्ध ऊँचाई को नहीं,उसके समतल क्षितिज को छूना चाहती है .
मैनेजर पाण्डेय ने ‘सीवान की कविता’ की भूमिका में लिखा भी है-
‘इधर कुछ वर्षों से भारतीय समाज में मुख्यधारा का मिथक खूब जोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है. इतिहास में उसके श्रोतों की खोज,पहचान और व्याख्या की जा रही है. यह हाशिए के लोगों के आक्रोश और प्रतिरोध को दबाने के अभियान का हिस्सा है. इसमें परंपरा की पवित्रता और कला की श्रेष्ठता के नाम पर मुख्यधारा का मिथक गढ़ा गया है. हाशिए पर रहनेवाले रचनाकारों से कहा जा रहा है कि वे मुख्यधारा में आयें. लेकिन हाशिए के लेखक मुख्यधारा की गंगा में डूबकर गंगा-लाभ प्राप्त करने के लिए तैयार नहीं हैं .’
आज जबकि न सिर्फ़ साहित्य और विचारधारा,बल्कि पूरा जीवन ही हाशिए पर आ गया है,इसलिए साहित्य में मूल्यबोध का एक हीं अभिप्राय है- मानवीय मूल्यबोध. दूसरी बात कि समाज में जो नैतिक और सांस्कृतिक पतन हुआ है, उसके लिए भी व्यक्ति को कटघरे में खड़ा किया जाना गलत है. व्यवस्था का वह ढाँचा जो सदियों से आर्थिक और राजनीतिक शोषण के तानेबाने से बुना गया है, सत्ताएँ जिनपर फलती-फूलती रही हैं और एक खास किस्म के अमानवीय साँचे में ये मनुष्यों को कल-पुर्जे की तरह ढालती गयी हैं, इसलिए आज कविता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह पाठक या श्रोता के दृष्टिकोण को बदल पाती है अथवा नहीं. लू शुन ने कहा था-
‘दबे-पिसे लोगों को दवा की उतनी जरूरत नहीं जितनी उनके दृष्टिकोण में बदलाव की है और यह बदलाव साहित्य के द्वारा संभव है.’ कविता को बिना उपदेशक या प्रचारक बने मनुष्य की आत्मा को विद्रोही और मुक्तिकामी बनाना है. इसलिए आज की कविता के लिए राजनीति से मुंह मोड़ना भी शुतुरमुर्ग बनना है. अगर हवा में जहर है,तो क्या यह संभव है कि हम साँस लेना ही छोड़ दें. हमारे जीवन में राजनीति का दखल सीधा है और वो भी कुछ इस कदर कि हमारी साँसों में ऑक्सीजन और कार्बन की मात्रा भी वहीं से तय होती है. वही अंतिम नियामक है. इसलिए कविता की राजनीति हमारे समय की मांग है.
मुक्तिबोध का प्रश्न(पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर !) अब हर कवि की आत्मा का एक यक्ष-प्रश्न है . मगर विडंबना यह है कि इन दिनों ‘साहित्य की राजनीति’ के बदले ‘साहित्य में राजनीति’ अधिक चल रही है. हमें सिर्फ़ यह देखना होगा कि जो कविता पढ़ी या सुनी जाती है,उसकी राजनीति क्या है.
‘नये बादल’ की भूमिका में मोहन राकेश ने यह प्रश्न उठाया है कि किसी खास वर्ग पर लिखी गयी कहानी ही क्यों उत्कृष्ट मानी जाये? क्या यह जीवन की विशाल भूमि और उसके विकासशील रूप को नकारना नहीं है?उनका तर्क था-‘जीवन का क्षेत्र नि:सीम है और रचना की वास्तविक सिद्धि उसके प्रभाव की व्यापकता में है. जीवन की सहज अनुभूतियाँ हमें जीवन के हर वर्ग और पहलू से प्राप्त हो सकती हैं.’ यह सवाल भी अपनी जगह सही है अगर हम इस सत्य से मुंह मोड़ लें कि जिंदगी में चारों तरफ अमन-चैन ही है और कहीं कोई भूख से नहीं मरता. लेखक सबसे पहले शोषित समाज का नुमाइंदा है, न कि सुख-सुविधा भोगते समाज का. इसलिए प्राथमिकतायें तय करनी होंगी कि हम किसके साथ हैं. जिस लेखक ने कुत्तों की पांत में इंसानों को जूठे पत्तल चाटते देखा है,उसकी संवेदना आखिर किस ओर जायेगी ? मन अगर दुःख से भरा हो,तो सुंदरता भी अच्छी नहीं लगती. प्रकृति का सौंदर्य भी कसक पैदा करता है. एक सवाल आत्मा में रह रहकर चोट करता है कि प्रकृति हमारे आसपास जब इतनी सुन्दर है,तो हमारा जीवन ही इतना कुरूप क्यों है? मैथ्यू आर्नल्ड ने कविता को जीवन की आलोचना माना है. इसलिए संवाद-प्रतिवाद करती व्यवस्था के विरोध में लिखी हर कविता राजनीतिक है और जिस समाज में प्रेम वर्जित हो,कई तरह के पहरे, पाबंदियां और यातनाएँ हों, वहाँ प्रेम कविताएँ भी राजनीतिक हैं . हर दबाई गयी आवाज हाशिये की आवाज है .
मैनेजर पाण्डेय एक प्रबुद्ध मार्क्सवादी आलोचक होने के नाते मानते हैं कि द्वंद्व ही विकास का शाश्वत नियम है. हर विचार अपने भीतर अपने विरोध का बीज भी लिए रहता है. संसार की प्रत्येक वस्तु में अंतर्विरोध है. अपने ही परिवार में एक प्रगतिशील है,तो दूसरा प्रतिक्रियावादी -यह अपने परिवार का अंतर्विरोध है. ऐसा ही अंतर्विरोध हर समूह और समाज में है. इसलिए हमें अपने समय और समाज के मुख्य अंतर्विरोधों को पहचानना होगा. इतिहास और विचारधारा के अंत के ढिंढोरे चाहे जितने भी पीट लिए जायँ, समाज में जबतक भेदभाव और विषमताएं रहेंगी,विचारधाराएँ भी रहेंगी और इतिहास भी . उन्होंने सीवान की कविता की भूमिका में एक जगह लिखा भी है- ‘आज की हिन्दी कविता की मनगढ़ंत बौद्धिक औतार भाषिक रहस्यमयता से जो पाठक उबे हुए हैं, उन्हें इस संकलन की अनेक कविताओं की नयी रचना-दृष्टि आकर्षित करेगी.’
मैनेजर पाण्डेय ने ‘इंडिया टुडे’ साहित्य वार्षिकी-2002 के अपने आलेख-‘सरोकारों से साक्षात्कार’ में लिखा है-
‘नयी पीढ़ी की काव्यानुभूति की संस्कृति में बदलाव का एक परिणाम यह हुआ है कि कुछ समय पहले जड़ों की तलाश में जो हिन्दी कविता संस्कृत की तरफ जा रही थी, वह अब लोकभाषाओं की ओर मुड़ रही है.’
इस संदर्भ में यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि जब मुख्यधारा अपने चाल और चरित्र से संदेह के घेरे में हो और सत्ता-सुख में आकंठ गर्क हो, तो उसकी धार इतनी कुंद पड़ जाती है कि वह बाँझ बनकर ही रह सकती है . ‘सीवान की कविता’ की भूमिका में भी उन्होंने लिखा है-
‘आजादी के बाद जैसे-जैसे हिन्दी साहित्य का केंद्रीकरण बढ़ रहा है, वैसे-वैसे दिल्ली से दूर के शहरों, कसबो और गाँवों में रहकर साहित्य रचने वाले हाशिये पर जीने के लिए मजबूर होते जा रहे हैं. इधर हिन्दी साहित्य की दुनिया सिमट रही है और उधर हाशिये पर रहनेवालों की आबादी बढ़ रही है.’
सीवान की कविता में छह कवियों की कविताएँ हैं. भूमिका के प्रारंभ में उन्होंने लिखा है-
‘इस संग्रह के कवि हिन्दी साहित्य के सिवान के कवि हैं. इन कविताओं में हाशिये की कविता की विशेषताएँ हैं. सीवान की कविता का यह संकलन हिन्दी कविता के नये सिवान की ओर संकेत करता है.’
साहित्य में भी उर्ध्वगामिता या उदग्रता एक अहंकारी और एक तरह से दर्प से भरा अभिजात्य का लक्षण है. इसके ठीक विपरीत क्षितिज का विस्तार एक नयी जनतान्त्रिक संवेदना का वाहक है. इसे समाज के हाशिए पर जी रहे लोगों की आशा और आकांक्षा से जोड़कर देखा जाना चाहिये .’मुख्यधारा बनाम हाशिया’ भी ‘वाद-विवाद-संवाद’ की एक द्वंद्वात्मक गतिमान प्रक्रिया है और उनके वैचारिक अंतःसंघर्षों का प्रतिफल भी. प्राचीन काल में संस्कृत के बरक्स प्राकृत और पाली जैसी जन भाषाओं का उभार,भारतीय नाटकों में स्त्रियों के लिए वर्जित पंडितों की भाषा-संस्कृत का देवभाषा होने का गुमान जैसी प्रवृतियों को उसकी द्वंद्वात्मकता में ही समझा जा सकता है.
हिन्दी समाज और साहित्य में पूरा भक्तिकाव्य हाशिये का काव्य है. अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि-कुम्भन दास ने कहा था-
‘संतन को कहा सीकरी सो काम
आवत जात पनहियाँ टूटी,बिसरी गयो हरि नाम
जिनको मुख देखे दुःख उपजत, तिनको करिबे पड़ी सलाम .’
मैनेजर पाण्डेय ने 2013 में मध्यकालीन हिन्दी कविता पर व्याख्यान देते हुए कहा था-‘भक्ति काल और भक्ति काव्य की बुनियादी विशेषता यह है कि प्रत्येक भक्त कवि अपनी मातृभाषा का कवि है. विद्यापति तीन भाषाओं में कविता लिखते थे, संस्कृत में, अवहठ्ठ या अपभ्रंश में और अपनी मातृभाषा मैथिली में. पर महाकवि न संस्कृत के हैं न अपभ्रंश के,महाकवि मैथिली के हैं. उसी तरह तुलसीदास अवधी और ब्रजभाषा दोनों में लिखते थे,लेकिन महाकवि अपनी मातृ भाषा अवधि के हैं, ब्रजभाषा के महाकवि सूरदास हैं. इसलिए बुनियादी मूल्य मातृभाषा का है.’
मार्क्स ने भी कहा है कि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है. माँ से सीखी हुई भाषा जन्मजात काव्यात्मक होती है, जैसे किसी अबोध बच्चे की तुतलाती भाषा स्वयं में कविता है. यह अकारण नहीं है कि संसार में अपनी जड़ों की तरफ वापसी भाषाओं में भी हो रही है. पूरी दुनिया के साहित्य में अपनी मातृभाषा में लिखने का रुझान बढ़ रहा है. मातृभाषा का नाभि-नाल संबंध लोकभाषा और संस्कृति से है. लोकभाषा उस जनता की भाषा है जो समाज के हाशिए पर रहती है.
भारतीय परंपरा और इतिहास में एक स्त्री की हैसियत भी हाशिए की रही है. वह कितनी दयनीय थी, इसका अंदाजा मैनेजर पाण्डेय के इस व्याख्यान से लगाया जा सकता है-‘संस्कृत में जो नाटक लिखे जाते थे- प्राचीनतम नाटक जैसे भास के,कालीदास के, उनमें स्त्रियों को संस्कृत में संवाद बोलने की आजादी नहीं थी,वे प्राकृत में बोलती थीं. यह कैसी विडंबना है कि पुरुष बोल रहा है संस्कृत में और स्त्री प्राकृत में .
अंततः संकलित कविताओं के बारे में चंद बातें. इसमें कुल छह कवि हैं- बालेश्वर सिंह, ब्रज नंदन किशोर, तैयब हुसैन, सत्य प्रकाश, मनोज कुमार वर्मा और खुद मैं. पाण्डेय जी के शब्दों में —
‘इस संकलन के सारे कवि एक हीं शहर के हैं. शहर है सीवान;छोटा-सा शहर,गतिहीन और जब्दा हुआ. उसे कस्बा कहना ज्यादती न होगी. इस संकलन के कवि कविता को ‘खाने, कमाने और चरित्र चमकाने की चीज'(धूमिल) नहीं समझते. इनके लिए कविता अपने समय और समाज से संवेदनशील संबंध बनाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है. इनकी कविताओं में आत्मा की लीला और शब्दों की क्रीड़ा की जगह भयावह घटनाओं से भरी हुई दुनिया के अनुभवों से शब्द के बदलते रिश्तों की पहचान है. ये कवि किसी अपूर्व काव्य-विवेक का न दावा करते हैं और न दंभ. जिनकी दिलचस्पी जीवन की सच्चाई और मनुष्यता में होगी,उन्हें ये कविताएँ जरूर आत्मीय लगेंगी. इन कविताओं में विषय से अधिक महत्वपूर्ण है,वह कवि-दृष्टि,जो समान विषयों पर लिखी नागर कविताओं से हाशिये की कविता के अभिप्राय और प्रयोजन को अलग करती है.’
अपनी लंबी भूमिका-‘कविता का नया सिवान’ में वे लिखते हैं-
आजकल हिन्दी साहित्य का केंद्र दिल्ली है. दिल्ली के अनेक आकर्षण हैं. यहाँ सत्ता के करीब होने का मादक सुख है. बहुत सारे कारकों ने मिलकर दिल्ली के हिन्दी साहित्य की संस्कृति को आज की राजनीति की संस्कृति का प्रतिबिंब बना दिया है. एक जमाना था जब कवि दिल्ली से दूर रहना चाहते थे. आज से पाँच सौ वर्ष पहले महाकवि जायसी ने लिखा था- ‘सो दिल्ली अस निबहुर देसा. ‘आजादी के बाद जब दिल्ली हिन्दी साहित्य की राजधानी बन रही थी तब मुक्तिबोध के मन में यह द्वंद्व उपजा था:
क्या करूँ
कहाँ जाऊँ
दिल्ली या उज्जैन ?
यह द्वंद्व सत्ता बनाम संस्कृति का द्वंद्व था. नेहरू के नगर से कालिदास के नगर का द्वंद्व. मरणासन्न मुक्तिबोध दिल्ली आये पर जीते जी नहीं. रघुवीर सहाय लखनऊ से दिल्ली आये थे. यहाँ बहुत पापड़ बेलने के बाद जब उन्हें लगा कि वे दिल्ली के नहीं हो सके हैं,तब उन्होंने लिखा था: दिल्ली मेरा परदेश. ऐसा अनुभव कई दूसरे लेखक भी करते रहे हैं और उन अनुभवों के बारे में लिखते भी रहे हैं. फिर भी लेखकों की दिल्ली दौड़ जारी है. कोई भी हाशिए पर नहीं रहना चाहता. आगे वे लिखते हैं–इस संकलन के किसी भी कवि के लिए कविता पेशा नहीं है. इन छह कवियों में चार अध्यापक हैं और दो बैंक में कर्मचारी. ये सब एक पीढ़ी के भी नहीं हैं. इनकी संवेदना और कविदृष्टि में भी फर्क है. बालेश्वर सिंह राजनीति से जुड़े होकर भी उनकी कविता में राजनीतिक भाषा का बड़बोलापन नहीं है. वे कविता के रूप और भाषा में नये प्रयोगों के बदले पुराने रूपों का नया उपयोग करते हैं. वे प्रायः छन्द में कविता लिखते हैं और बोलचाल की भाषा के मुहावरों को नये ढंग से रचते हैं;उनसे नया अर्थ पैदा करते हैं. पर उनकी संवेदना में वैसी तल्खी, बेचैनी और आक्रामकता नहीं है, जैसी बाकी पाँच कवियों में है. ब्रजनंदन किशोर मुक्तिबोध की परंपरा के कवि लगते हैं, इसलिए उनकी कविता में गहन विचारशीलता दूसरों से अधिक है. दया शंकर मुकुल, सत्य प्रकाश और मनोज कुमार वर्मा आज के समय की विडंबनाओं, समाज की विसंगतियों और राजनीति की क्रूरताओं के अनुभव के कवि हैं. इस संकलन के कवियों के काव्यानुभव में गाँव और शहर के अनुभवों के बीच वैसा अलगाव नहीं है जैसा आज की नागर कविता में दिखाई देता है.इस संकलन का एक आकर्षण काव्यभाषा की अनेकरूपता है. ब्रज किशोर की भाषा में आज की जिंदगी के अनुभवों से लाये गये बिम्बों और प्रतीकों के साथ परंपरा की स्मृतियों का रचनात्मक मेल है,तो दूसरी ओर तैयब हुसैन की भाषा में हाशिये के लोगों की जिंदगी के कर्म और अनुभव से जुड़ी हुई हिन्दी का वह रूप है जिसे हिन्दुस्तानी कहा जाता है. उसमें भाषा की हर एक खनक में जनजीवन की धड़कन सुनाई देती है.
परंपरा की चिंता तैयब हुसैन भी करते हैं. वे आज की जिंदगी की उलटबासियों को कबीर की कविता से जोड़ते हैं और कबीर की उलटबासियों की मदद से आज की वास्तविकताओं को समझने की कोशिश करते हैं. इस प्रक्रिया में दोनों के नये अर्थ खुलते हैं. दयाशंकर मुकुल की भाषा में ऐसी लोच है कि वह एक ओर आतंक और दहशत के अनुभवों को व्यक्त करती है तो दूसरी ओर जनजीवन में छिपी हुई उम्मीद और ज़िन्दादिली की तलाश कर लेती है. सत्य प्रकाश की कविता में अपने आसपास के साधारण जन की जिंदगी की वास्तविकताओं के चित्र हैं, संवेदनाओं की खबरें हैं. उनकी भाषा परस्पर विरोधी स्थितियों की यात्रा करती हुई भी कहीं असहज और निगूढ़ नहीं होती.मनोज कुमार वर्मा आज के गद्यमय जीवन में खोई हुई कविता की खोज करते हैं. वे कहते भी हैं:
इन दिनों
मैं कोई कविता नहीं गा रहा हूँ
घर में आग लगी है
और मैं चिल्ला रहा हूँ.
यही कारण है कि उनकी कविता में गद्य का हठीलापन है.वे कभी-कभी कविता में कथा,संवाद,स्वगत कथन और निबंध की पद्धति का उपयोग करते हुए भाषा को जटिल स्थितियों की अभिव्यक्ति के लायक बनाते हैं.
अपनी भूमिका के अंत में वे कहते हैं- आजकल किसी रचना का दिलचस्प होना बहुत अच्छा नहीं माना जाता. शायद रचनाकारों के मन में यह बात बैठ गयी है कि दिलचस्प होना अबौद्धिकता का लक्षण है. लेकिन रचना तो रूचि से संभव होती है. इसीलिए कहा गया है कि कवि को जैसे रूचता है,वैसे ही संसार को बदल देता है (यथास्मै रोचते विश्वं तदैथ परिवर्तते). जब रचना का रूचि से इतना अंतरंग रिश्ता है तो उसका होना जरूरी क्यों नहीं ?असल में जब से कविता में बौद्धिक ऊहापोह बढ़ा है, तब से दिलचस्प होना अनावश्यक हो गया है.
‘सीवान की कविता’ का यह संकलन हिन्दी कविता के एक नये सिवान की ओर संकेत करता है. अगर आप समकालीन हिन्दी कविता के नागर आग्रहों से मुक्त होकर इन कविताओं को पढ़ेंगे तो आज के जनजीवन को नये ढंग से पढ़ने की प्रेरणा पायेंगे.’
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दयाशंकर शरण नब्बे के दशक से साहित्य लेखन और पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित. मैनेजर पाण्डेय द्वारा संपादित ‘सीवान की कविता’ में कविताएँ संकलित. एक दशक तक ‘अद्यतन’ पत्रिका में सक्रिय रचनात्मक सहयोग. |
कविता अपने समय का ‘कम्पास’ होती है. दबे-पिसे लोगों को दवा की उतनी जरूरत नहीं जितनी उनके दृष्टिकोण में बदलाव की है और यह बदलाव साहित्य के द्वारा संभव है.’
हाशिये के लोगों को प्रत्यक्ष सामने लाने की ज़िम्मेदारी कोई सच्चा साहित्य अनुरागी ही उठा सकता है।
सीवान के वे छः कवि और मैनेजर पाण्डेय जी का सम्पादन इस बात का साक्षात प्रमाण है।
बहुत सुंदर लिखा आपने Daya Shanker Sharan जी
हाशिये की कविता पर एक सार्थक लेख।बहुत उम्दा लिखा है आपने।अपनी की कविता की पंक्तियां है
हम छोटे छोटे जनपद के कवि
सदा हाशिये पर रहेंगे
हम वहां तक कभी नही जाएंगे
जहां तक वे चले जायेंगे
फिर भी हम लिखेंगे
जन से सीधा संवाद करेंगे
“समालोचन” में दयाशंकर शरण ने मैनेजर पाण्डेय संपादित”सीवान की कविता”का सुसंगत जिक्र किया। हिन्दी में यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि 1997में छपी पुस्तक की चर्चा2021में संभव हुई!सुदूर देहात-कस्बों में हिन्दी-कविता हमेशा से लिखी जा रही है।पर मुख्यधारा में उसका नोटिस प्रायः नहीं लिया जाता।आरा-छपरा-भिलाई आदि के कवि किसी सलवाजुडूम-ग्रीनहंट के प्रणेता की शरण में जाकर अपना क़द बढ़ाने की जुगत में रहते हैं।अगर पास में अपनी कोई लघु पत्रिका है तो मुख्यधारा के75या80 वाले पर विशेष अंक निकाल कर हाशिये से केन्द्र में आने की भरपूर कोशिश करते हैं।मगर धारा के विरुद्ध चलनेवाले मुख्यधारा की तनिक भी परवाह नहीं करते!
फिलहाल एक उदाहरण लें।निर्मला गर्ग के चार कविता-संग्रह निकल चुके हैं।हिन्दी की महिला कवियों में ही नहीं, आज की कविता में उनकी अपनी ख़ास पहचान है।
कृति ओर पत्रिका ने उन्हें धनराशि के साथ साथ सम्मानित किया।पुरस्कार राशि में निर्मला जी ने उतना ही धन मिला कर तीन सौ पृष्ठ का सामूहिक काव्य-संग्रह 2017ई. में प्रकाशित कराया।कथित मुख्यधारा के बहुचर्चित-पुरस्कृत कवियों से हटकर देश के कोने अँतरे में बैठे सक्रिय तमाम कवियों को *दूसरी हिन्दी* नाम देकर प्रकाशित किया।पंजाबी क्रांतिकारी कवि लाल सिंह दिल को समर्पित इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में 66कवि-कवयित्री हैं जोअल्पसंख्यक-आदिवासी-दलित चेतना के साथ मुख्यधारा से कहीं बहुत दूर हैं! *दूसरी हिन्दी* नाम पर ही मुख्यधारा वाले अटके रहे।कविताओं के कथ्य -शिल्प पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया! निर्मला जी ने”कृतिओर”पत्रिका से प्राप्त पुरस्कार को इस तरह विशेष रचनात्मक अर्थवत्ता प्रदान की।हिन्दी में बहुतेरे पुरस्कार हैं पर निर्मला जी जैसा क़दम विरले ही उठा पाते हैं!-
प्रकाश चन्द्र
मूल आलेख और टिप्पणियां कविता में मुख्यधारा बरक्स हाशिया
पर विचार पठनीय हैं, लेकिन आज भी मुख्यधारा साहित्य की सत्ता संरचना में हाशिया का कविता कर्म उपेक्षित , अपमानित
और वर्जित ही है तरह-तरह के उपादान गढ़ कर ?
लेख पढ़कर अच्छा लगा। हिंदी कविता के बदलते स्वरूप में बेबाकी से अपनी बात कहना रुचिकर लगा। हाशिये के समाज मि अभिव्यक्ति आजादी के बाद शैन शैन बढ़ रही।