श्रीकला शिवशंकरन अनुवाद : सविता सिंह |
एक कविता
हम कभी एक ही पृष्ठ पर नहीं थे
कुछ शब्द, कुछ आश्चर्य चिन्ह
कुछ पंक्तियाँ जो हमने साथ में लिखी थीं
हमारे बीच में मीलों की दूरी थी
कागज़ के चारों सिरों के बीचोबीच
जहाँ हम कभी-कभी एक दिल का इमोजी बनाते थे
मेरी राख मिट्टी में मिल गई है
दो साल तक इधर-उधर रहने के बाद,
मेरे अवशेषों की हर एक धूल तुम्हारी नज़रों से ओझल हो गई है
फिर भी मेरी पीड़ा की गहराई से
टूटी हुई, कुचली हुई और जलती हुई
मैं तुम्हारे मोबाइल स्क्रीन पर स्पैम की तरह रेंगती हूँ
एक खबर जो उभर आती है जिसे तुम अनदेखा कर देते हो
तुम अनदेखा कर देते हो मेरी आत्मा को
जो पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है कानून की मार से
बिना गुस्से वाला इमोजी लगाए भी,
तुम एक और तस्वीर, एक और वसंत, एक और प्यार पसंद करते हो
जिसे तुम आज़ादी कहते हो
और मैं फिर से मर जाती हूँ
मैं तुम्हारे समक्ष अपनी स्मृतियों को कैसे पुनर्जीवित करूं?
तुम मुझे देखो इसके लिए कैसे कोई दिलचस्प खबर बनाऊं?
वो चंद पंक्तियाँ और विराम चिह्न जो हमने साझा किए
मेरे विनाश के साथ ही पूरी तरह विलुप्त हो गईं
मैं प्रेत भी नहीं हूँ जिसे घूमने की आज़ादी हो
तुम्हारे पसंदीदा पेड़ से बंधी जंजीर नहीं मैं
क्योंकि जंजीरें
एक गूंजते हुए नारे को खड़खड़ा सकती हैं
मैं एक ऐसी आवाज़ हूँ जो कभी नहीं सुनी गई
एक उखाड़ी गई जीभ हूँ मैं.
तुम हर दिन जन्म लेते हो
मैं प्रतिरोध कर रही हूँ
भूमि और पसंदीदा जानवर
बच्चे जो पेड़ बन गए
पक्षी जो समुद्र पार उड़कर आए
मैं हर चीज़ का प्रतिरोध कर रही हूँ
दोस्त और दुश्मन
गीले खेतों की महक
यह रचनात्मकता मुझ पर थोपी गई
एक बोझ
मैंने तुम्हें देखा और सुना
तुमने हमारे लिए क्या लिखा
सालों के पर्दे के पीछे से
जब तुमने अपने दिल से लिखा
हमने तब से वही पंक्तियाँ लिखीं
अब मेरे गर्भ में किसका दर्द बढ़ रहा है?
मुझे खून बहाने और फिर से खून बहाने के लिए मजबूर करके
रोते हुए सिर को देखे बिना
इस दर्दनाक दुनिया की रोशनी से लड़ना
तुम मुझे कब्रिस्तान ले गए
तुमने सावधानी को हवा में उड़ा दिया
फिर भी तुम मुझे दूर से सावधान करते हो
निश्चित रूप से जानते हुए कि
मौत कैसे आगे बढ़ती है
कवियों की गलियों में
जूते और बंदूकों के साथ
मैं तुम्हें अब हर जगह देखती हूँ
लोग तुम्हारी सूरत अपनी छाती पर ओढ़े हुए हैं
क्या वे तुम्हारी कविताओं का पुनर्जन्म हैं?
वे हर दिन पैदा होते हैं
वे हर दिन भागते रहते हैं
केंचुओं के लिए एक स्मारक
माटी की गंध कहाँ है?
उस पर जीवन की हलचल?
और वे किसान मित्र जिन्हें
तुम बुलडोजर से मिटा देते हो?
मैं विध्वंस के सिवा कुछ भी नहीं देख पाती
जो आतंकित करते हैं
और तुम इसे प्रगति कहते हो!
यह कुछ भी नहीं
तुम्हारी हत्यारी मशीनें हैं
निसहाय जिंदगियों को बस नेस्तनाबूद करती हुई.
इंसान जिन्हें
तुम सत्ता के गुलाम बनाते हो
हिस्सेदारी के बदले वोट की जिनसे भीख मांगते हो
मैं अपनी अंतिम विदाई लिखती हूँ
तुम्हारे कल के वादों को लेकर
वही जो बस तुम्हारी जेबें भरते हैं
और बचे खुचे को तुम डाल देते हो भूखे मुख में
यदि तुममें साहस है तो
केंचुओं की सामूहिक हत्या पर शोक मनाओ
तुम्हारे कंकरीट इमारतों के घेरे में
उनकी मरमांतक चीखें गूंजती हैं
किसी भी भविष्यवाणी की परवाह किए बिना
किसी जीत की ख्वाहिश के बगैर
हाँ हाँ वाली विचारधारा को दरकिनार कर के
आज मैं अपने दिल की खामोशी में
केंचुओं के लिए एक स्मारक बनाती हूँ.
जब पैर कहानी कहते हैं
पथों की भूल भुलैया में
जहाँ हर कदम पर पत्थर और काँटे चुभते हैं
झुर्रियाँ त्वचा का कपड़ा
और पैर की उंगलियाँ धरती की ओर इशारा करती हैं
इन पैरों में एक कहानी है, कोई चेहरा नहीं बता सकता !
खामोश विस्तार में, साँप रेंगते हैं
समय हाँफता है, घोड़े की चाल की प्रतिध्वनि करता है
जड़ें गहरी खोदती हैं
आम गुच्छों में गिरते हैं
एक सिम्फनी, प्रकृति की ध्वनि
इन पैरों में एक कहानी है, कोई चेहरा नहीं बता सकता!
घास के मैदान गले में लगाते
जंगली नदियों की सांत्वना
रेत, केकड़ों के लिए एक खेल का मैदान
आह! बिखरा हुआ गौरैया का घोंसला,
समय का एक हल्का सा झुकाव !
इन पैरों में एक कहानी है, कोई चेहरा नहीं बता सकता!
जंगल आग की तरह जलती है
निराशा में
लाल आंसू की एक बूंद
पिघला हुआ लावा नाचता हुआ
लाल रंग में रंगा पहाड़
इन पैरों में एक कहानी है, जिसे कोई चेहरा नहीं बता सकता !
नित्यकल्याणी
(मेरी दादी के लिए)
अगर मैं आपको याद कर पाऊं
तो मैं आपको एक जानवर के रूप में याद करती हूँ
जिसे पीट-पीटकर मार डाला गया है
आपके शरीर का कोई अवशेष नहीं बचा
आपकी संतानों को विचार करने के लिए
वे अभी भी कठिन यादों में भटकते हैं
गुमनाम लाशों पर ठोकर खाते हुए
अगर मैं आपको याद कर पाऊं
तो मैं आपको एक डेन्चर के रूप में याद करती हूँ
लकड़ी की अलमारी पर रखा हुआ
बच्चे उन्हें देखकर कितना डरते थे!
वे कितने चमकदार थे, कितने अवास्तविक!
मुझे नहीं पता कि आप कैसे मुसकुराती थीं
कोई हँसी की तस्वीरें नहीं हैं
हड्डियों के बीच केवल खड़ी घाटियाँ हैं
और उनमें तूफानों की यादें
बिना रुके बारिश और भयावह बाढ़
आप दलदल में हल चला रही थीं
साँप फन उठाकर एक दिन दुश्मन बन गए
एक दिन जानी-पहचानी पदचाप आतंक में बदल गई
आप कीचड़ भरे पानी में चलीं
बिना किसी डर के, अकेले लड़ती हुई
आप भागने वाली नहीं थीं
आपकी दुनिया गहरी और अंधेरी
ब्रह्मांड की हवाएँ आपको नीचे ले गईं
जहाँ आपने लाशों के ढेर देखे
औरतों के लाशें के ढेर!
मैं आपको अकेले चलने वाले के रूप में याद करती हूँ
जाति के कीचड़ को पीछे छोड़ते हुए
आतंक के डरपोक घर और
आदर्श चारपाइयों के आराम को छोड़ कर
आप उन रास्तों पर चलीं
जहाँ कोई नहीं चलता
मैं अब आपको गले लगा सकती हूँ
आप नित्यकल्याणी हो
कब्र में उगते हुए दांत
सर्पिली लता जो
रात की गोद में खिलती है
उदार सूंड कटहल का, जिसमें ढेर सारा फल
उठी हुई भुजाएँ नारियल के पेड़ की
जो मीठा पानी डालते हैं
पारिजात का वो सुगंधित गुलदस्ता
जो बरसात के दिन मेरी ओर बढ़ा आता है.
अक़्ल दाढ़
अक़्ल दाढ़
सभी दिशाओं में बढ़ रहा है
यह क्या करेगा?
मुझे नहीं पता
मुझे नहीं पता
यही मैं जानती हूँ
यह कहाँ-कहाँ बढ़ सकता है?
यह आपके गालों तक बढ़ सकता है
यही वह जगह है जहाँ यह दर्द करता है
यही वह जगह है जहाँ यह सूज जाता है
मैं सूजन महसूस कर सकती हूँ
मैं दर्द महसूस कर सकती हूँ
यही मेरे पास है
बस यही मेरे पास है.
श्रीकला शिवशंकरन sreekalasiva2014@gmail.com |
सविता सिंह savita.singh6@gmail.com |
इन कविताओं की ताज़गी, तेवर और आँच अलग से अनुभव होती है। दादी वाली कविता ने खास तौर पर छुआ। श्रीकला जी, सविता जी और समालोचन का बहुत आभार।
दिल को मरोड़ते हुए दिमाग में घुप जाने वाली! क्या कविताएं हैं! उखाड़ी हुई जीभ से निकली मुखर चीत्कार सरीखी। श्रीकला शिवशंकरन से भेंट कराने के लिए शुक्रिया। यह स्पैम की तरह मानसपटल के स्क्रीन पर तैरती रहेंगी। दादी के डेंचर की तरह डराएंगीं भी। केंचुओं की सामूहिक हत्या पर मन में स्मारक बनाने की वेदना और विवशता एक साथ उभर आते हैं। कहीं कहीं सीधे सीधे कही गई राजनैतिक हस्तक्षेप के कंकरों के बावजूद आज के सच के कितने ही पहलू इसमें हैं।
सविता सिंह का अनुवाद भावों को संप्रेषित करने में सक्षम है। क्या मलयालम से सीधा अनुवाद है? कुछ इसपर भी संपादकीय भूमिका में लिखा होता तो अनुवाद के नए तरीकों का पता चलता।
सविता सिंह ने कहीं कहीं बोलचाल की भाषा इस्तेमाल की होती, ऐसी इच्छा मन में जागी। पर ऐसा कहीं कहीं ही है।
कवि और अनुवादक, दोनों को सलाम।
समालोचन नई रचनाओं, रचनाकारों, निबंधकारों और आलोचकों से मुलाकात कराकर समकालीन साहित्य में जैसी रुचि जगा रहा है इसके लिए अरुण देव को बधाई।
संवेदन की अलग ही भूमि पर खड़ी हैं ये कविताएं । देर तक और दूर तक जाती है इनकी खनक । कम्माल की कविताएं । दादी वाली कविता तो अद्भुत है ।
Each poem stirred me with the vivid imageries of pain, helplessness ,tremendous sufferings , deep anguish but the image of the poet herself is so very empowering , inspiring who articulates her thoughts from the sphere of the burnt earth and ‘vomiting sky’.
Savita Singh , being a great poet herself , has translated Sreekala sivashankaran’s poetry with such insight .
Gratitude to both of you
श्रीकला एक संवेदनशील कवि हैं, और केरल के
मातृसत्तात्मक संस्कृति की विलक्षण चेतना इनकी कविताओं में है। इसलिए अनुवाद का मन मैने बनाया। अनुवाद करने में समय लगा। मलयालम, फिर अंग्रेजी, फिर हिन्दी, ऐसे चलता रहा।
समालोचन भारतीय भाषाओं से जोड़ने का महत्वपूर्ण काम कर रहा है। प्रस्तुत कविताएँ मार्मिक हैं और अनुवाद भी उम्दा है। कवि,अनुवादक और समालोचन को बधाई।
वाक़ई दादी वाली कविता से मैंने भी कुछ सीखने का प्रयास किया। ब्रिलियंट, बोल्ड, एंड ब्यूटीफुल पोयम्स।
अनुवाद और कविताएं दोनों बाकमाल हैं। इस कवि का संकलन हिंदी में आना चाहिए।
हम कवियों को ऐसे प्रयास करते रहना चाहिए। अंग्रेज़ी के माध्यम से क्यूँ जाएँ? जब भारतीय कवि एक दूसरे के साथ बैठकर इतना कमाल कर सकते हैं तो क्यूँ नहीं?