कहानी राहुल श्रीवास्तव |
/कुछ ज़्यादा ही महँगा होटल नहीं है? लिफ्ट में भी कार्ड लगाओ!
\रूम भी कार्ड से ही खुलेगा.
/मुझे लगा लंच पर बातें करेंगे, मुझे साइनस है. एयर कंडीशनर से उलझन होती है.
\बन्द कर दिया, अब बैठ जाओ.
/अन्दर आने का कोई खास कारण ?
\बाहर बैठने का भी कोई कारण नहीं था.
/पर बात वहाँ बाहर बैठकर भी हो सकती थी मतलब….
\मन हो तो दरवाजा खोल के रख लो.
/ऐसा लग रहा है जैसे गुस्सा निकालने आई हो.
\अब बैठ जाओ.
/लो… अब ठीक?
\बर्फ़ी खाओगे?
/दो….
\लो….
/घर से बनाकर लाई हो?
\स्टील के टिफिन में भी कोई मिठाई बेचता है क्या?
/अच्छी बनाई हो, खूब काजू बादाम भर-भर के पड़े हैं, पर बहुत देर से खिला रही हो.
\नीचे रेस्त्राँ में कैसे निकालती?
/हाहाहा….
\तुम्हें मुझ पर हँसी आ रही होगी न!
/क्यों?
\इस तरह से मिलने के लिए बुलाया
/नहीं-नहीं, उस पर नहीं पर तुम होटल में कमरा बुक की होगी ये अन्दाजा नहीं था.
\तो क्या सड़क पर घूमती रात को? और वैसे भी इतने सालों बाद मिल रहे हो. सिर्फ खाना खाकर थोड़े ही निकल जाते.
/पता नहीं, इतना सब नहीं सोचा. बस चला आया.
\मान लो कि अभी भी प्यार है.
/….
\चुप! उस समय तो ऐसा घर में घुसकर, पापा के सामने कार्ड दे गए थे.
/हाहाहा….
\याद है क्या लिखा था?
/बिलकुल, THIS YEAR, I have resolved to be strong, I won’t stammer, I won’t mumur but I will hammer this message to your home that I LOVE YOU… आर्चीज का साठ रुपये का कार्ड था.
\पैसे बोलना जरूरी था?
/यादें हैं, कोई अखबार की कटिंग थोड़े है कि उतना काट के रखा जितना काम का है.
\अगर पापा पकड़ लेते?
/नहीं पकड़ते.
\क्यों?
/क्योंकि उन्होंने अपनी जिन्दगी में कभी कोई समझदारी वाला काम किया ही नहीं.
\पापा के बारे में ऊटपटाँग मत बोलो बस.
/तुम्हें मिलना है तब तुम मिलोगी, क्या बोलना है मुझे, तुम निर्णय करोगी, सब तुम्हारी मर्जी का है? नए साल पर मेरा कार्ड रख लिया पर कभी जवाब देते नहीं बना न?
\सच बोलूँ उस समय मेरे मन में तुम्हारे लिए प्यार जैसा कुछ नहीं था, इसलिए समझ नहीं आया कि क्या बोलूँ.
/….
\क्या हुआ?
/अपने आपको इतना चूतिया लग रहा हूँ कि क्या बताऊँ!
\ये अपनी सड़कछाप भाषा मेरे सामने मत बोला करो.
/तुम्हारी नहीं सबकी समस्या है. पादने में बदबू आती है और fart में खुशबू. अभी nincompoop बोल देता तो पूछती क्या मतलब. जो शब्द आराम से समझ में आता है, भद्दा लगता है.
\मेरे ‘न’ कहने का गुस्सा?
/तुमने ‘न’ भी कहाँ बोला था? पर मैं आज तक यही सोच रहा था कि तुम शायद किसी डर से अपनी बात नहीं कह पाई पर आज पता चला कि मैं मूर्ख था जो इतने साल उसको अनकहा प्यार समझता रहा.
\तुमने भी तो बस एक कार्ड दे दिया और चुप बैठ गए.
/बस एक कार्ड? और क्या करता किडनैप कर लेता?
\क्यूँ? अगर जवाब नहीं दिया तुम्हारे साठ रुपये के कार्ड का, तो रास्ते में रोक लेते.
/कब?
\कॉलेज जाते समय.
/तुम लड़कियों से न कोई नहीं जीत सकता? रास्ते में रोक लेता? फिर बोलती कि हिम्मत कैसे हुई रास्ते में रोकने की!
\तुम्हारे बगल में बैठ जाऊँ?
/तुम्हारा कमरा, तुमने पैसा दिया है जहाँ मन हो बैठो?
\ये पैसे-पैसे क्यूँ कर रहे हो?
/पैसे-पैसे? तुम बाईस साल बाद बता रही हो कि तुम्हारे मन में कुछ नहीं था और ये सुनने के लिए मैं एक पागल की तरह फ्लाइट पकड़कर, पत्नी से झूठ बोलकर तुमसे मिलने आया हूँ.
\मैं भी तो झूठ बोलकर आई हूँ.
/अरे यार! मेरा ही क्यूँ कटता है.
\पहले बताओ तुम दोबारा क्यूँ नहीं आए?
/दोबारा? तुमको शायद पता नहीं होगा इसलिए बता दे रहा हूँ वो तुम्हारी दीदी, उन्होंने क्या बोला था बुलाकर – रुचि तुमसे बड़ी है और इसलिए ये सब बेकार है. मैंने भी पलटकर बोला था – अंजलि, सचिन से छह साल बड़ी है और वेंकटेश प्रसाद की बीवी ग्यारह साल बड़ी है.
\हाहा…हा, पता है दीदी और हम बहुत हँसे थे, मैंने ही दीदी को बोला था तुमको समझाने को.
/….
\पर पता नहीं था कि तुम इतनी जल्दी समझ जाओगे
/….
\गुस्सा हो?
/जाने दो, तुमसे बोला था पर रुक नहीं पाऊँगा.
\फोन पर तो बोल रहे थे कि दो दिन रहोगे.
/बेवकूफ हूँ न, इसलिए बोल गया, दीदी को बुला लो समझा देंगी.
\दीदी पर क्यों चिढ़ रहे हो?
/….
\अच्छा बताओ, मेरी मोपेड किस कलर की थी?
/लूना सुपर 8430, लाल और हेडलाइट गोल नहीं आयताकार.
\हे भगवान! इतना प्यार करते थे?
/….
\पर उस समय बुद्धि नहीं थी, जिसको देखो वही प्रपोज कर देता था.
/और कौन था?
\सामने जो बब्बू भैया रहते थे उन्होंने भी कोशिश की थी.
/वो बकलोल? साला दो बार इंटर फेल हुआ था.
\समझ नहीं आता उस समय हम लड़कियों को कि कौन सच्चा है और कौन मस्ती कर रहा है.
/मस्ती? तुम मोपेड सीखते समय फिसल गई थी तो कौन आया था उठाने मैं कि बब्बू?
\तुम न… हे भगवान सब याद रखे हो!
/मेरी याददाश्त ऐसी ही है, बब्बू ने कैसे प्रपोज किया था, वो तो प्रपोज भी नहीं बोल पाएगा ठीक से.
\पापा ने केबल टीवी नहीं लगवाया था तो न एक दिन मैं गेट पर खड़ी थी, आकर बोला – तुमको अगर मैच देखना हो आ जाना, हमारे यहाँ केबल लगा है.
/वो जिन्दगी भर ‘श’ को ‘स’ बोलता रहा और तुमको बुलाने आ गया – क्या बोला रुचि सरमा? आज भी अगर ये लाइन बोल दे तो जान जाएँ.
\लाइन!
/सुरेश शर्मा शरीफ नहीं शोशेबाज है.
\हाहाहा….
/बब्बू बोलेगा – सुरेस सरमा सरीफ नहीं सोसेबाज है.
\हाहाहा… तुम तो कहानियाँ भी लिखते हो न?
/हाँ, खाली समय में.
\और पढ़ाते क्या हो?
/इतिहास और शान्ति अध्ययन.
\तभी तुमको सब याद रखने की आदत है, अरे! अब बगल में बैठी हूँ तो छिटक क्यूँ रहे हो?
/मेरा दिमाग इस समय सुषुप्तावस्था में है उसे मत उकसाओ?
\क्यूँ? डरते हो कि मेरे बगल में बैठकर बहक जाओगे? ये बताओ मेरी शादी हुई, तुमको कब पता चला?
/तब मैं दिल्ली में सिविल की तैयारी कर रहा था.
\क्या किया तुमने, जब पता चला?
/जब तुम्हारे अन्दर मेरे लिए कोई भावना ही नहीं थी तो तुमको क्या लगता है, मैं रोया?
\मतलब तुम रोए थे!
/सनकी नहीं हूँ.
\रोए थे?
/नहीं! पर तुम तो विदाई में भी नहीं रोई थी, इतनी खुश थी शादी से?
\तुमको कैसे पता?
/तुम्हारे श्री श्री 1008 पिता श्री महाराज ने वी.एच.एस. कैसेट लगाकर जो दिखाया.
\कितना चिड़चिड़ाते हो? तुम शादी के बाद मेरे घर गए थे?
/घंटा नहीं जाता, पर मेरे बाप को, मेरे मामा जी की लड़की की शादी में तिलक के थाल में सजाने के लिए पचास और सौ के नोटों की नई गड्डी चाहिए थी, इसलिए जाना पड़ा. तुम्हारे पापा किसमें थे, पंजाब नेशनल में कि स्टेट बैंक में…?
\बहुत बुरा लग रहा है सोचकर कि तुम इतना प्यार करते हो?
/करता था.
\और अब ?
/क्या प्लान है तुम्हारा?
\मैं तो यहीं रुकूँगी, इतने सालों बाद निकली हूँ दोनों बच्चे और उनके पापा घर सँभालें.
/मैं निकल जाऊँगा, मेरी क्लासेस हैं.
\आते समय क्लासेस का नहीं सोचा था?
/तब नहीं सोचा था और ज़्यादा सोचता तो तुमसे मिलने नहीं आता.
\लंच तो साथ करोगे?
/हूँ….
\क्या खाओगे, रूम में ही आर्डर कर देती हूँ.
/पोर्क चॉप्स, मटन करी और चिकन बिरयानी.
\देखकर उलटी आएगी, मैं शुद्ध शाकाहारी हूँ.
/पता है पंडित हो, कोई पैदा हो तो पनीर, कोई मरे तो पनीर पर मैं क्या करूँ, तुम्हारे लिए अपने खाने की आदत बदल दूँ अब?
\एक दिन नहीं खाओगे तो क्या हो जाएगा?
/मैंने तुमको बोला कि तुम क्या खाओ, क्या न खाओ, किसको ‘हाँ’ बोलो किसको ‘न’ बोलो.
\हमको पता है तुम सुअर नहीं खा सकते.
/क्यूँ तुमने भी किसी बाबा के आश्रम जाना शुरू किया है?
\नहीं, जो जैसा खाता है वैसा हो जाता है, और तुम मुझे सुअर जैसे नहीं दिखते.
/हाँ तो पूरा यूरोप, अमेरिका सुअर की तरह दिखता होगा तुमको!
\तुम्हारी तरह बड़ी-बड़ी बातें नहीं आतीं. बस बोल दिया कि आज नहीं खाओगे तो नहीं खाओगे.
/मुझे भूख नहीं है, मैं सिगरेट पीने जा रहा हूँ.
\मैं भी ट्राई करूँ?
/नहीं तुमको अस्थमा है, खाँसी आएगी… रुचि! छोड़ो, मुझे सिगरेट पीनी है.
\सिर्फ गले लग रही हूँ, तुम्हारे साथ सोने नहीं आई हूँ.
/क्यूँ गले लग रही हो? अभी चूम लूँगा तो फिर घबड़ा जाओगी.
\फिर तो चूम ही लो आज.
/मुझे सान्त्वना पुरस्कार नहीं चाहिए.
\हट! अच्छा ही हुआ तुमको हाँ नहीं बोला, तुम्हारे साथ नहीं रह पाते.
/सही कहा, जो होता है अच्छे के लिए होता है.
\बस यही सोचा था कि तुम्हारे साथ दो दिन बिताऊँगी, फिर कभी नहीं बात करूँगी.
/वैसे भी तुम मेरे लिए अच्छा कब सोच पाई.
\नहीं, तुमको समझ नहीं आएगा कि लड़की होने की क्या समस्याएँ हैं.
/उफ्फ.
\अब क्या हुआ?
/विधू भी यही बोलती है. तुम लड़कियों का – चित मैं जीती और पट तुम हारे.
\शादी कब हुई? एक साल से चिट्ठी भेज रहे हो और आज जाकर तुम्हारी पत्नी का नाम पता चला.
/हम्म….
\रुक जाओ, फिर शायद कभी नहीं मिलेंगे.
/क्या करना है, मुझे पता चल गया कि तुम्हारे मन में क्या है मेरे लिए.
\क्या है?
/कुछ नहीं.
\मिलने से पहले बहुत कुछ था पर तुम शायद ठीक कह रहे हो, अब कुछ नहीं है.
/ऐसा ही होता है. कुछ सपने जब तक सपने रहें तभी अच्छे लगते हैं, अगर सच हो जाएँ तो हकीकत बुरी लगती है.
\लगता है जैसा तुमने सोचा था अब उतनी सुन्दर नहीं रह गई हूँ मैं!
/तो क्या 45 की उम्र में 20 साल के दिखेंगे हम दोनों!
\न…न! तुम 43 और मैं 45 पर तुम तो अभी भी बहुत जवान दिखते हो.
/विधू का कमाल है.
\अब बार-बार विधू का नाम क्यूँ ले रहे हो?
/तो किसका लूँ? तुम्हारी दीदी का?
\तुम मेरी दीदी और पापा को छोड़ दो, उनकी कोई गलती नहीं है. मैंने बेवकूफी की है और मेरी गलती….
/शादी गलती है तुम्हारी? इतनी बड़ी साड़ी की शॉप का मालिक है वो और हमसे ज़्यादा सुन्दर है.
\तुमने कब देखा?
/तुम लड़कियाँ होश में रहती हो कि नहीं! व्हाटसऐप में फोटो लगाओगी और पूछोगी कि तुमको कैसे पता?
\तुमने कभी नहीं लगाई?
/मुझे ये नौटंकी पसन्द नहीं है और सच बोलूँ, ये जितने भी मर्द अपनी बीवी को फेसबुक पर मेरे जीवन की शक्ति, मेरे जीवन का स्तम्भ, मेरी चाँद, मेरी ग्रह, मेरा उपग्रह लिखते हैं न! ये सब साले बाहर कहीं मुँह मार रहे होते हैं, इतना प्यार है तो, बीवी घर पर है, हाथ पकड़कर बोल दो, पूरी दुनिया को बताकर क्या मिलेगा.
\मतलब मैं तुमसे मिलने क्या आ गई तो मैं अपने पति से प्यार नहीं करती?
/अब तुम दो अलग बातों को जोड़ रही हो.
\पर तुम्हारे हिसाब से तो मैं भी उसी श्रेणी की हूँ.
/जो समझना है समझो, न अब तुम बच्ची हो और न हम वो पागल कि 22 साल से इसी खयाल में जी रहे हैं कि मैं तुम्हें याद आता होऊँगा.
\तुमने तो अपनी शर्तों पे जिन्दगी जी न?
/भ्रम तो ऐसा ही है, बाकी कल को पता चले जैसे तुमने हमको कभी पसन्द नहीं किया, वैसे जिन्दगी भी हमारा काट रही थी, अब फिर से चूतिया बोलूँगा तो गुस्सा जाओगी.
\नहीं, मैं भी अक्सर बोल लेती हूँ अकेले में जब गुस्सा आता है.
/क्या बात है! बस चूतिया कि और कुछ भी.
\क्यूँ बताऊँ! बाँसुरी वाले.
/हाहाहा… मत बताओ, वैसे दीदी कहाँ हैं आजकल?
\पापा-मम्मी के साथ
/क्यूँ? अपने पति को भी कुछ समझा दिया क्या?
\नहीं, वो शादी के 5 साल बाद सड़क ऐक्सिडेंट में जीजा जी चले गए तो दीदी और कनु पापा-मम्मी के पास ही रहने आ गए
/क्या? हे भगवान, बिलकुल भी पता नहीं था, अब?
\अब! दीदी जॉब करती हैं, मम्मी ने तो एक साल खाना नहीं खाया था पर कनु के साथ थोड़ा नार्मल हो गई हैं. तुम क्या घर नहीं जाते? तुमको पता नहीं चला?
/नहीं पापा-मम्मी अकेले थे तो घर बेचकर नागपुर ही शिफ्ट हो गए.
\वाह, अब सब साथ ही रहते हैं.
/मतलब! हाँ एक तरह से.
\मतलब?
/मतलब एक ही बिल्डिंग है पर फ्लैट अलग-अलग हैं.
\क्यों?
/अरे यार, मम्मी का घर था तो मम्मी ने अपनी तरह रखा. अब ये घर तो विधू का है तो उसे अपनी तरह से रखने का मन है. सही भी है, इसलिए एक साथ पर अलग-अलग फ्लैट में.
\इतनी समझदारी? मान गए?
/क्यूँ तुम्हारे यहाँ सब साथ रहते हैं ?
\दुकानवालों की फैमिली में अलग नहीं रह सकते, सब साथ ही रहते हैं एक ही रसोई, बस सुबह से शाम चौका-चूल्हा फिर बच्चों का स्कूल.
/और सितार?
\सितार?
/तुमने तो सितार सीखा था!
\हाँ! पर एक दिन गुस्से में तोड़ दिया.
/किससे गुस्सा थी?
\पता नहीं.
/मतलब अब नहीं बजाती?
\नहीं
/अच्छी चीजों को मत छोड़ा करो.
\अब जो छूट गया वो छूट गया.
/….
\अब शायद बोलने को कुछ नहीं बचा है.
/शायद.
\फिर तो रुकने का कोई फायदा भी नहीं है.
/क्यूँ? तुम तो घर से दूर रहना चाहती थी!
\नहीं वो तो ऐसे ही बोल दिया था कि शायद तुम रुक जाओ.
/नहीं सही नहीं रहेगा, न विधू के लिए और न ही तुम्हारे साड़ी बेचनेवाले के लिए.
\कितनी बातें बना लेते हो? पर कभी अपनी कहानियाँ नहीं भेजी?
/चिट्ठियाँ तो भेजी.
\ये बात समझ नहीं आई. तुमको फोन पर बात करने में उलझन होती है और चिट्ठियाँ इतनी मोटी-मोटी भेजते हो.
/इस देश में 80 प्रतिशत लोग तो फोन पर यही बोलते हैं, ‘और बताओ’, इसीलिए मिलकर बात कर लेना बेहतर है, ‘और बताओ’ – ‘और बताओ’ का झंझट भी खत्म. पर तुम भी गजब हो.
\क्या हुआ?
/तुमने मेरी एक चिट्ठी नहीं पढ़ी आज तक?
\बड़ा, नहीं पढ़ी होती तो मिलने आती?
/तुमने एक चिट्ठी नहीं पढ़ी है.
\पागल हो क्या?
/नहीं. तुमने अगर एक भी लिफाफा खोला होता तो शायद….
\मतलब…?
/मैंने सिर्फ सादे पन्ने भेजे थे.
\सारी चिट्ठियों में…?
/हाहाहा… अब पूछो मुझे कैसे पता कि तुमने एक भी चिट्ठी नहीं पढ़ी… मैं सोचता था कि एक दिन तुम पलटकर लिखोगी या डाँटोगी कि क्या मजाक है?
\तुम सिर्फ मुझे रोता देखना चाहते हो, जिससे तुम्हारा बदला पूरा हो जाए.
/इतने सालों बाद सिर्फ एक बार देखना चाहता था रुलाना नहीं.
\पर सादे पन्ने क्यूँ भेजे थे?
/मैं बहुत कम लिखता हूँ, चन्द कहानियाँ लिखी होंगी आज तक, पढ़ने वालों को कहानी की शुरुआत, मध्य और अन्त चाहिए और मेरे पास इतना कुछ कहने को है नहीं. लगता है क्या सिर्फ शैली ही लिखी हुई कहानी की पहचान नहीं हो सकती! मैं क्या सबको मजे देने के लिए बैठा हूँ?
\तुम बहुत अच्छा बोलते हो. जब तक हो ऐसे ही बातें करो.
/अब सिगरेट पी लूँ? एक चीनी कहानी सुनोगी?
\सुनाओ
/एक युवा, तीरन्दाजी सीखने एक गुरु के पास गया. गुरु ने एक तीर देते हुए कहा – एक साल इसके साथ रहो. मतलब खाना-पीना, सोना-जागना, हगना-मूतना….
\हाहाहा… तुमको मजा आता है न ऐसे शब्दों के प्रयोग में….
/गुरु ने समझाया – एक साल के लिए इसे अपने से अलग मत करना. एक साल बाद वो लड़का वापस गया.इस बार गुरु ने उसको कमान देते हुए वही बात दोहराई कि एक साल इस कमान को साथ रखना. एक साल और बीत गए. लड़के ने सोचा, इस बार तो कोई तकनीक बताएँगे पर इस बार गुरु ने नया पत्ता फेंका- अब तुम तीर-कमान दोनों के साथ एक साल रहकर आओ. एक साल और बीता और जब दोनों मिले तो गुरु ने एक बत्तख की तरफ इशारा करते हुए कहा- इसकी गर्दन पर तीर चलाओ. लड़के ने निशाना लिया और तीर सीधा गर्दन पर लगा. गुरु उदास होकर बोला- अभी तुम्हें साधना करनी चाहिए. तुम दूसरों के सामने खुद को सिद्ध करना चाहते हो, तीरन्दाज वह है जिसके हाथ से तीर न छूटे जबकि उसको विश्वास हो कि उसका निशाना चूकेगा नहीं.
\पर तुम सिद्ध कर चुके हो, तुम्हारा तीर सीधा मेरी गर्दन पर लगा है.
/नहीं… मुझे कुछ सिद्ध नहीं करना था. बस मिलना था एक बार और मिल लिया. अब निकलूँगा.
\कैसे जा रहे हो?
/शाम की जो भी फ्लाइट होगी पकड़ लूँगा.
\नीचे तक छोड़ दूँ?
/नहीं क्या फायदा. यहाँ छोड़ो या एयरपोर्ट तक, साथ तो छोड़ना ही है, चलो निकलता हूँ.
\खाना?
/मैं सुअर खाऊँगा और तुम साथ नहीं खा पाओगी इसलिए फिर कभी.
\ये साड़ी आंटी को दे देना, उनके लिए लाई थी.
/मम्मी से कब बात हुई तुम्हारी?
\सी.बी.आई. की मदद ली थी. अरे, कभी एक ही मुहल्ले में रहे हैं हम लोग.आंटी को साड़ी दे देना बस….
/विधू को दे दूँगा, अगर उसे कलर पसन्द आया तो.
\तुम सच में अच्छी कहानी कहते हो.
/अब भेजूँगा तो लिफाफा खोलना और पढ़ना.
\आज जो सुनी वो बहुत अच्छी थी और आगे कोई कहानी मत भेजना… और जब शादी हो जाए, कोई विधू मिल जाए तो एक बार मिलने जरूर आना खुशी होगी, लो तुम्हारी लिफ्ट आ गई.
राहुल श्रीवास्तव मुंबई में स्थापित फ़िल्म सम्पादक और निर्देशक हैं. ‘साहेब बीवी और गैंस्टर’ जैसी तमाम फ़िल्मों का सम्पादन, ‘इतवार’ लघु फ़िल्म का लेखन एवं निर्देशन और अनेक विज्ञापन फ़िल्मों का निर्माण उनके अब तक के सफ़र का हिस्सा हैं. ई-मेल : rahuldadda@gmail.com |
सशक्त, नाटकीय,परत दर परत कहानी। शुक्रिया
इस समय की शाश्वत कहानी परंतु थोड़ा लीक से हटकर । सामान्य कथाकार तो जो नहीं पड़ोसना होता वह भी उघार कर रख देता। राहुल जी ने कहानी को बचा लिया है जैसे किसी फाइल को हम सेव कर लेते हैं। भूमिका नहीं बाँधते सीधे संवाद से शुरू करते हैं और अंत भी वैसे ही। तीर और कमान का रूपक अनोखा है। प्रेम भी तीर की तरह है वह निकल ही गया तो बचा क्या। ऐसे भी कह सकते हैं कि यह प्रदर्शित करने और संसार से सत्यापित कराने की अपेक्षा नहीं करता है। यह तो सर्वथा गोपनीय है,इसे गुरु से भी क्या दिखाना। कहानी अंत में सूफियाना हो गयी है। कथा नायक शुरू से ही बेहद स्वाभाविक अंदाज में प्रस्तुत होता है और अंत में निस्पृह भाव से विदा लेता है। अंत में इतना ही कहूँगा कि देश और काल प्रेम के लिए चीन की दीवार नहीं बन सकता।22 वर्षों के बाद के चिर वियोग के बाद की यह मिलन गाथा एक मनमोहक प्रेम कहानी है,जिसे हम सफल कहानी कह सकते है,साहित्य के पन्ने और जीवन के पटल पर भी। यह मेरा पाठ है।आगे विमर्श के लिए प्रबुद्धजन तो हैं ही।
ललन चतुर्वेदी
Meri ruchi aur psand ki la-jwaab kahani. Pahli baar to nhien keh sakta, per haaN kuchh naey style se zroor likhi gyee hai.Is se pahley 1-2 kahaniyan ” Pustaknama” sahityak Varshiki me pdheeN.Ek Ravi Bule ki ‘Sroj’ aur doosri Prem Ranjan ki “Chand KhilonoN ki DaastaN, jo 9 alg alg qisson me rekhantit thee,gazab ki stylish aur experimental si kahaniyaN, aisi la jwaab ,bhawnatmik ythaarth liey huey !
( sbhi kahaniyan sab ke liey nhien hotieN, aisa mera man’naN hai)
( Punjai me bhi ek nai kahanikara ne entry mari hai,nao umr ladki hai.Abhi pahli kitaab aai hai
“6:45 PM” , jisney punjabi kahani ki nuhaar,
shklo soort hi badal dali.’Reman’ naam se likhti hain. Kafi charcha me hai kitab.)
Prof.Arun Dev ka ka sukrya jo be misaal achnaeyN bhejtey hain , bdhai ke patr.
वाह. मज़ा आ गया पढ़ कर. एकदम सच्ची कहानी है. मैंने इसके पहले राहुल की कहानी ‘पुई’ पढ़ी है. राहुल की कहानियों में सादगी है और साथ में भावनात्मक भी है, जो मुझे बहुत पसंद है. बहुत बहुत बधाई राहुल.
मित्र राहुल का फिल्मी दुनिया के साथ-साथ साहित्यिक सफ़र देखकर बहुत ही सुखद अनुभूति होती है।
यह यात्रा अनवरत चलती रहनी चाहिए मित्र!
प्रिय राहुल भाई
समालोचन में आपकी “कहानी” पढ़ी । खट- खट, धाराप्रवाह निकलते संवाद । कहीं भी सांस लेने की मोहलत नहीं दी अपनें। पढ़ते जाओ पढ़ते जाओ बस ।
दृश्य आंखों के सामने अपने आप बनते चले जाते हैं । मैं पात्रों के चेहरे उनकी छबि अपनी सहूलियत से बनता चला गया । ये कमाल है आपकी कलम का । बधाई ।
कुछ संवाद जो बरबस ही दिल को छू गए :-
यादें हैं, कोई अखबार की कटिंग थोड़े है कि उतना काट के रखा जितना काम का है.
जो शब्द आराम से समझ में आता है, भद्दा लगता है.
मुझे सान्त्वना पुरस्कार नहीं चाहिए.
कुछ सपने जब तक सपने रहें तभी अच्छे लगते हैं, अगर सच हो जाएँ तो हकीकत बुरी लगती है.
क्या सिर्फ शैली ही लिखी हुई कहानी की पहचान नहीं हो सकती!
फेसबुक पर अपनी बीवियों को लेकर नौटंकी करने वालों कॉमेंट करने वालों की अच्छी खबर ली है आपने ।
आपके कहानी संग्रह का इंतज़ार रहेगा । पुनः हार्दिक बधाई आपकी एक और अच्छी कहानी पढ़ने को मिली ।
०सुनील सक्सेना
भोपाल
इस तरह की कहानी पहली बार पढ़ी है। यह बेहतरीन कहानी है जो संवादों से शुरू और संवादों पर ही खत्म हो। लेकिन फिर भी इसमें दृश्यात्मकता साफ़ दिखाई देती है। राहुल जी बधाई
बिना झोल के कहानी कहना बड़े बूते की बात है। कथावस्तु सपाट है और पात्र इकहरे, फिर भी कहन इतनी पारदर्शी कि बीच में छोड़ते नहीं बना।
I have kind of lived some part of this story, not the end though. This is realistic! Jaise kisi ne uss moment par room mein camera laga diya ho.. Likhte rahen. Behtareen
Entire story was live,it seems happening around us . I like content.
Kyaa baat hai…. Loved the flow….. very different and looking like a real story.
बधाइयाँ! बधाइयाँ, राहुल, बेहद रोचक व अंत तक पढ़े बग़ैर न छोड़ी जाए…ऐसी मज़ेदार, दिलचस्प कहानी लिखने के लिए! आपकी शैली तो रोचक है ही, शब्द विन्यास भी अद्भुत एवं बेहद रियलिस्टिक है, जस कारण सहज ही slice-of-life वाली feel आती है! ईश्वर आपकी क़लम की धार को और ज़्यादा तेज़ी प्रदान करे ! अस्तु-