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समालोचन

Home » मार्कंडेय लाल चिरजीवी: सुजीत कुमार सिंह

मार्कंडेय लाल चिरजीवी: सुजीत कुमार सिंह

मार्कंडेय लाल चिरजीवी भारतेंदु के समकालीन कवि हैं, उन्हें कायस्थ समझा गया जबकि दलितों की एक जाति ‘दबहर’ से उनका सम्बन्ध था. यह शोध आलेख नवजागरणकालीन साहित्य में गहन रुचि रखने वाले सुजीत कुमार सिंह ने संभव किया है. हिंदी साहित्य के अकादमिक जगत में पिष्टपेषण का अम्बार है, नवोन्मेष के साथ शोध और अनुसंधान का श्रमसाध्य उद्यम मुश्किल से कहीं दिखता है. ऐसे में यह लेख इस तरह के शोध का रास्ता भी दिखाता है, और हमारी सामाजिक बनावट पर प्रकाश भी डालता है. सुजीत कुमार सिंह ने परिश्रम से यह आलेख तैयार किया है. प्रस्तुत है.

by arun dev
March 26, 2022
in शोध
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मार्कंडेय लाल चिरजीवी: सुजीत कुमार सिंह
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मार्कंडेय लाल चिरजीवी
इतिहास से गायब कर दिया गया एक दलित कवि

 

सुजीत कुमार सिंह

हिंदी नवजागरण के कुछ अध्येताओं ने यह मान लिया है कि हिंदी लोकवृत्त में अधिकतर लेखक हिन्दू समाज की कथित ऊंची जातियों से ही थे. उनका यह भी मानना है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, कायस्थ जैसी वर्चस्वशाली जातियों के लेखन से ही आधुनिक हिंदी भाषा और साहित्य का निर्माण हुआ है. यह गलत और आधा-अधूरा अध्ययन है. उन्नीसवीं सदी के एक भूले-बिसरे कवि की तरफ हमारा ध्यान युवा अध्येता समीर कुमार पाठक ने आकृष्ट कराया है जो अपने समय की महत्त्वपूर्ण पत्रिका ‘हिंदी प्रदीप’ में प्रमुखता से छप रहे थे. कलवार जाति में जन्म लेने वाले उस कवि का नाम परसन था. इलाहाबाद से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘कन्या-मनोरंजन’ में मोहनी चमारिन नामक एक कहानीकार अवधी भाषा में कहानियां लिख रही थीं.

बनारस में रहते हुए जब मैं नागरी प्रचारिणी सभा (काशी) के वार्षिक विवरणों का अध्ययन कर रहा था तो मेरा ध्यान उसमें प्रकाशित ‘हिंदी हस्तलिपि परीक्षा’ शीर्षक टिप्पणियों की तरफ गया. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के स्कूलों में फारसी और रोमन लिपियों की परीक्षाएं होती थीं. सुंदर अक्षरों में लिखने वाले विद्यार्थियों को सरकार पारितोषिक देती थी. इस परीक्षा में देवनागरी लिपि अर्थात् हिंदी नहीं थी. ‘सभा’ के कार्यकर्ताओं ने इस उपेक्षा भाव को शिद्दत से महसूस किया. अत: 4 जून 1894 ई. की बैठक में बाबू श्यामसुंदर दास के प्रस्ताव पर वर्नाक्यूलर स्कूलों में उत्तम नागरी लिपि लिखने वाले छात्रों को उत्साहित करने के लिए पारितोषिक देने का निश्चय किया गया. 1896 ई. तक यह परीक्षा बनारस डिविजन के वर्नाक्यूलर स्कूलों में ही होती रही. 1897 ई. में ‘सभा’ के दबाव पर सरकार ने यह परीक्षा पूरे पश्चिमोत्तर प्रदेश और अवध प्रांत के लिए जारी कर दी.

‘हिंदी हस्तलिपि परीक्षा’ शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित टिप्पणियों को पढ़ते हुए मैंने नोटिस किया कि इस परीक्षा में रुचि लेने वाले सिर्फ ऊंची जाति के ही बच्चे नहीं थे अपितु मुसलमान बच्चों के साथ-साथ लड़कियां भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही थीं. और तो और दलित और पिछड़े परिवार के बच्चे भी पीछे नहीं थे. विवरणों में कुछ ऐसे विद्यार्थियों के नाम दर्ज हैं जिनके नाम के आगे सरनेम नहीं है, कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अपना सरनेम लगा रखा है. जैसे- शिवदयाल राम (बलिया), रामाश्रय धोबी (रायबरेली), छट्टू चमार (बलिया), अतर सिंह यादव (मैनपुरी), शिवलाल चमार (कानपुर) इत्यादि.

यहाँ मैं लखनऊ से प्रकाशित होने वाली हिंदी की दो प्रमुख पत्रिकाओं ‘माधुरी’ व ‘सुधा’ का नाम लेना चाहूँगा जिसे उलटते-पलटते हुए मुझे जगन्नाथ प्रसाद चमड़िया, मंगल प्रसाद विश्वकर्मा, चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’, शिवकृष्ण विश्वकर्मा, श्रीप्रकाश यादव जैसे अनेक नाम दिखाई दिए.

मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि नवजागरणकालीन हिंदी साहित्य सिर्फ अभिजातों का ही साहित्य नहीं है. मेरी समझ में हिंदी लोकवृत्त की निर्मिति में मुसलमानों, दलितों, पिछड़ो व स्त्रियों का योगदान कहीं ज्यादा है. बस, हमारे मूर्धन्य आलोचकों ने इस उपेक्षित समुदाय की तरफ अब तक ध्यान नहीं दिया है.

 

(दो)

1843 ई. में कोपागंज में जन्में मार्कंडेय कवि को बहुत कम लोग जानते हैं. मैंने मार्कंडेय कवि को पहले-पहल मन्नन द्विवेदी गजपुरी लिखित पुस्तिका ‘गोरखपुर विभाग के कवि’ (1912 ई.) के माध्यम से जाना. इस पुस्तिका में विवेचित कुल तेईस कवियों में आज़मगढ़ जनपद के सात कवियों का संक्षिप्त परिचय है. गजपुरी जी ने मार्कंडेय कवि के परिचय के क्रम में उनकी जाति पर भी विचार किया है–

“चिरजीवी कवि का पूरा नाम लाला मार्कंडेयलाल था. आज़मगढ़ जिला के कोपागंज ग्राम के आप निवासी थे. लोग कहते हैं कि ये जाति के मोची थे. लेकिन आपने अपने ‘लक्ष्मीश्वर-विनोद’ ग्रन्थ में लिखा है– “चित्रगुप्त के वंश में मैं प्रसिद्ध जन सेय.” अस्तु आप अपने को कायस्थ कहते थे. हिन्दुओं में सिन्दूरहारे, हींग-हारे, दर्जी तथा मोची की जातियां होती हैं जो अपने को कायस्थ कहती हैं. परन्तु उनके रीति-रिवाज़ कायस्थों से बिलकुल नहीं मिलते हैं. मालूम होता है मार्कंडेय ऐसी ही जाति में से थे.”

गजपुरी जी के उक्त विवेचन से यह स्पष्ट नहीं होता है कि मार्कंडेय कवि की जाति क्या थी? फिर भी वे स्वीकार करते हैं कि मार्कंडेय कवि चित्रगुप्तवंशीय कायस्थ नहीं थे. भारतीय समाज में किसी की जाति जानने की चाह बड़ी प्रबल होती है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में रचनाकारों की जाति का उल्लेख यों ही नहीं किया है. मार्कंडेय कवि की जाति और उनकी कविताई को लेकर लिखे गए आरम्भिक लेखों में एक लेख पंडित श्यामापति पाण्डेय (जन्म: 1902 ई., आज़मगढ़) का मिलता है. श्यामापति पाण्डेय ने फ़रवरी 1926 की ‘माधुरी’ में ‘मार्कंडेय कवि और उनकी कविता’ शीर्षक एक लेख प्रकाशित कराया. काफी जाँच-पड़ताल के बाद वे सिद्ध करते हैं कि मार्कंडेय कवि कायस्थ नहीं थे. वे लिखते हैं:

“आज़मगढ़ प्रान्त में कोपागंज एक छोटा-सा कसबा है. सुकवि मार्कंडेय जी का जन्म यहीं, सन् 1843 ई. के लगभग, हुआ. इन्होंने अपने ग्रन्थ ‘लक्ष्मीश्वर विनोद’ में अपने को चित्रगुप्तवंशीय कायस्थ लिखा है; किन्तु वास्तव में यह जाति के ‘दबहर’ थे. इनके कुटुम्बी अभी तक कोपागंज में रहते हैं, और उनसे पूछने से यही पता चला कि केवल पढ़ने-लिखने के कारण ही इन्होंने अपने को कायस्थ लिखा है, अन्यथा यह जाति के दबहर ही थे.”

‘पढ़ने-लिखने के कारण’ जाति छिपाना!

क्या कारण रहा होगा कि अपने समय का एक प्रतिभाशाली कवि अपनी जाति छिपा रहा था? क्या वर्णव्यवस्था के अंतिम पायदान पर अपनी दरिद्र स्थिति देखकर मार्कंडेय कवि ने अपनी जाति छिपाई थी या अपनी कविता की कीर्ति के लिए? अथवा वर्चस्वशाली जाति के साहित्यकारों की पंक्ति में खड़ा होने के लिए? रोजी-रोटी का भी मामला हो सकता है क्या?

यहाँ मुझे डा. आम्बेडकर की याद आ रही है जब वह बड़ौदा के एक घर में पारसी बनकर रह रहे थे.

यहाँ थोड़ा विषयांतर करना चाहूँगा. मार्कंडेय कवि की जाति के सम्बन्ध में बनारस के जगन्मोहन वर्मा व इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक विद्यार्थी बांकेबिहारी लाल भटनागर ‘कृष्ण’ द्वारा कायस्थ जाति पर लिखे आलेखों का ज़िक्र यहाँ जरूरी समझता हूँ. जगन्मोहन वर्मा ने ‘कायस्थ’ शीर्षक एक लेख ‘लक्ष्मी’ पत्रिका में लिखा था जो फ़रवरी व मार्च 1912 के अंक में छपा है. जगन्मोहन वर्मा ‘पुराणादि के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि कायस्थ क्षत्रिय वर्ण के हैं. जब बौद्ध धर्म भारत का राष्ट्रधर्म हुआ तो कायस्थों ने शास्त्र में पंडितों को हरा दिया. इस पर विद्वेषवश ब्राह्मणों ने कायस्थों को शूद्र घोषित कर दिया.’ यहाँ यह ध्यान दें कि 1900 ई. में कलकत्ता हाईकोर्ट ने भी कायस्थों को शूद्र घोषित कर दिया था.

अक्टूबर व दिसम्बर 1928 की ‘माधुरी’ में प्रकाशित ‘भारतवर्ष में कायस्थ-जाति’ शीर्षक सुदीर्घ लेख में बांकेबिहारी लाल भटनागर ‘कृष्ण’ ने कायस्थों के व्यवसाय पर विस्तार से लिखा है. भटनागर जी के अनुसार ‘कायस्थों की आजीविका का मुख्य साधन जहाँ एक तरफ ज़मीन की आय, कृषि, ज़मींदारों की एजेंटी और मैनेजरी, जंगल की अफसरी, क्लर्की, पुलिस, सेना, वकालत, डाक्टरी, अध्यापन आदि है; वहीं दूसरी तरफ मज़दूरी, लकड़ी की कटाई, दूध बेचना, चरवाही करना, मछली पकड़ना, शिकार करना, गाड़ी हांकना, पालकी ढोना इत्यादि भी है.’

भटनागर जी ने दूसरी श्रेणी के जिन व्यवसायों का नाम लिया है वह महत्त्वपूर्ण है और उस पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है. एक प्रकार से देखा जाय तो ये व्यवसाय अभिजात वर्ग के लिए नहीं हैं. मन्नन द्विवेदी गजपुरी, श्यामापति पाण्डेय व भटनागर जी को पढ़ते हुए मुझे अपनी जन्मभूमि लाटघाट (आज़मगढ़) में बसे कुछ दबहर परिवारों की याद आ गयी. इनकी आजीविका का साधन वही है जिसका जिक्र भटनागर जी ने दूसरी श्रेणी में किया है. श्री रामबली (स्वर्गीय) ड्राइवरी करते थे. उनके ज्येष्ठ पुत्र मनोज भी ड्राइवरी करते हैं. मनोज की माता जी किसी समय बीड़ी बनाने का काम करती थीं. रामबली जी के पिता रामदास चमड़े के व्यवसाय के साथ-साथ वाद्य यंत्र भी बनाते थे. आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब रामबली जी ने अपनी पुत्री का विवाह तय किया और निमंत्रण-पत्र पर ‘रामबली श्रीवास्तव’ लिखाया. रामबली जी जाति के दबहर थे. उनका श्रीवास्तव सरनेम ही मार्कंडेय कवि की जाति को स्पष्ट कर देता है.

चार खंड में प्रकाशित ‘ट्राइब्स एंड कास्ट’ से यह ज्ञात होता है कि यह जाति गोत्रों में विभाजित है जिसमें श्रीवास्तव प्रमुख हैं. ये अपने को श्रावस्ती शहर से जोड़ते हैं. देहलीवाल, दारी, मोची, श्रीपत और बेंगर इनकी अन्य उपजातियां हैं. जनगणना सूची में श्रीवास्तव के साथ-साथ बनबासी, धलगर, गोलीवाला, कन्नोजिया नाम भी मिलता है. इस किताब में यह संभावना व्यक्त की गयी है कि व्यवसाय के आधार पर यह जाति चमारों की एक शाखा ठहरती है. केएस सिंह ने भी अपनी किताब ‘द शेड्यूल कास्ट’ (1993) में बताया है कि दबहरों को अक्सर चमार कहा जाता है. लेसी (1931) व रिस्ले (1981) के आधार पर उनका कहना है कि दबहर जाति चमार या मोची की एक उपजाति है. रामबली जी के पट्टीदार के एक सदस्य से बातचीत में मैंने जाति प्रमाण-पत्र देखने की जिज्ञासा प्रकट की तो ग्यारहवीं में अध्ययनरत आँचल ने अपना जो प्रमाण-पत्र दिखलाया, उसमें जाति चमार अंकित था.

उपर्युक्त अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि मार्कंडेय कवि जाति के कायस्थ नहीं थे. उनका जन्म एक अनुसूचित जाति के परिवार में हुआ था. वे दबहर थे.

 

(तीन)

मन्नन द्विवेदी गजपुरी, श्यामापति पाण्डेय और रामनिरंजन परिमलेंदु ने मार्कंडेयलाल की रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि कवित्त छंद आदि लिखने के पहले उन्होंने कजली लिखना आरम्भ किया था. कजली की एक किताब का ज़िक्र गजपुरी जी ने किया है. मार्कंडेय कवि की सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘लक्ष्मीश्वर विनोद’ है. रामनिरंजन परिमलेंदु इनकी एक अन्य रचना ‘श्रावण शृंगार’ का भी नाम लेते हैं. इसके अतिरिक्त महाराज शिवाजी के विषय में कुछ कविता की थी जो बंगवासी प्रेस की ‘भूषण ग्रंथावली’ के अंत में प्रकाशित है.

मार्कंडेय प्रतिभासंपन्न कवि थे. बचपन से ही वे सुंदर पद्य लिखते थे. इनके काव्य-चमत्कार तथा प्रतिभा को देखकर ही दरभंगा नरेश लक्ष्मीश्वर सिंह ने अपने दरबार में रख लिया था. ‘लक्ष्मीश्वर विनोद’ ग्रन्थ राजा साहब के आदेशानुसार लिखा गया था. इसके कुछ पदों में लक्ष्मीश्वर सिंह की प्रशंसा भी है. श्यामापति पाण्डेय के अनुसार,

“लक्ष्मीश्वर विनोद नव-रस-काव्य का एक बृहद् ग्रन्थ है. इसकी भाषा विशुद्ध ब्रजभाषा है. सरसता और सरलता भी बहुत कुछ है…. बातें कवि ने ठीक अपने अनुभव की लिखी है. वर्णन शैली भी हृदयग्राहिणी है.”

‘लक्ष्मीश्वर विनोद’ छह तरंगों में विभक्त है. इसमें नायक-नायिका का वर्णन है. लक्षण दोहों में तथा उदाहरण घनाक्षरी और सवैये में है. अंत में नायक-नायिकाओं का एक चक्र बना दिया गया है जिससे उनके भेद-प्रभेद सरलता से समझ में आ सके. ग्रन्थ के आरम्भ और अंत में मार्कंडेय कवि ने क्रम से ‘ग्रंथाद्यमयूख’ और ‘ग्रंथात्यमयूख’ जोड़ दिया है. इनमें क्रम से मंगलाचरण, नृप-स्तुति, कवि-प्रशंसा, काव्य-प्रशंसा तथा मान्यजन-वर्णन है. सब कुछ मिलाकर 326 पृष्ठों में यह ग्रन्थ समाप्त होता है.

श्यामापति पाण्डेय यह भी बताते हैं कि मार्कंडेय कवि के बनाए गीत देहातों में अत्यधिक प्रचलित थे. जनता इनके गीतों को गुनगुनाती रहती थी. मार्कंडेय कवि ने वसंत का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है :

कानन कैलिया ककै लगी
सुनि हूकै लगी हमरे उर अंत में.
पौनकी गौन सुगन्धमई भई
प्रीति परस्पर कामिनी कन्त में.
जोरि के हाथ कहै चिरजीवी
विसारिये ना परिकाज अनन्त में.
लोग वसन्त में आवैं घरे तुम
आई के जात हो कन्त वसन्त में.

मार्कंडेय कवि के बनाये हुए तमाम छंद मन्नन द्विवेदी गजपुरी को याद थे. ‘कवि-प्रशंसा’ में लिखे एक छंद को गजपुरी जी ने अपनी पुस्तिका ‘गोरखपुर विभाग के कवि’ के आवरण पृष्ठ पर दिया है. वह छंद इस प्रकार है :

सारे श्रम विद्या के विलुप्त ह्वै जैहैं प्यारे
विविध बड़ाई बाढ़ ही सी बह जावैगी.
चौदह की चौंसठ की चित्त की चसक चोखी
सारी निपुणाई एको देखै में न आवैगी.
कहैं चिरजीव जु पै कविता न कीनो तो
तिहारी पण्डिताई कौन अन्त में बतावैगी.
जा दिन जरोगे चिता चढ़ि के प्रवीन यह
|सारी सुघराई वाही रोज जर जावैगी.

मार्कंडेय कवि ने अंग्रेजी राज में हो रहे तमाम तरह के विकास कार्यों और परिवर्तनों को भी अपनी कविता का विषय बनाया है. नायिका ने अपने रमण का स्थान कहीं घर के बाहर निश्चित किया था. किन्तु ब्रिटिश-राज्य के आते ही वह स्थान ऐसा बना दिया गया कि अब वह वहां इच्छा कि पूर्ति नहीं कर सकती. यह देखकर वह अत्यंत दुःख के साथ ब्रिटिश-राज्य पर दोषारोपण करती है. वह कहती है – ब्रिटिश राज्य के आते ही अन्य देशों की ज़रखेज़ी चली गयी अर्थात् जहाँ ऊख इत्यादि खूब लम्बी होती थी, छोटी होने लगी और पैदावार में कमी आ गयी. चारों ओर नयी सड़कें बन गयीं. जितने कुञ्ज-कोट इत्यादि थे उनमें किले इत्यादि बन गए और वहां ब्रिटिश-ध्वज फहरा रहा है. अब हृदय में शीतल, मंद, सुगंध पवन ने काम उत्पन्न कर दिया है, किस प्रकार धैर्य धारण करूँ. नरकट भी कट गए; कपास भी सत्यानाश हो गयी; शेष बची थी ऊख और अरहर, वे भी उखाड़ ली गयीं –

चलित चहूदा कढ़ीं नई-नई डहैं;
कुंजन कलित बन ललित बिताने कितै,
गिरे गढ़ कोट मैं, बिलाती ध्वजा फहरे.
कहै ‘चिरजीवी’ कैसे धरों उर धीर बीर
त्रिबिध समीर ये करेजे बीच लहरै;
कटि गए नर्कट, कपास सत्यानास भई,
ऊख गयी उखरि, उखरि गयीं रहरै.

श्यामापति पाण्डेय ने अपने लेख में मार्कंडेय कवि के दस पदों को उद्धृत किया है. अंत में वे कहते हैं –

“बटलोई के केवल एक ही चावल से यह प्रकट हो जाता है कि चावल पका है अथवा नहीं. कविता पारखी लोगों के लिए दिए हुए पद्य ही अधिक हैं. मार्कंडेय कवि की कवित्व शक्ति का इतने ही से अनुमान किया जा सकता है.”

मन्नन द्विवेदी गजपुरी तो मार्कंडेय कवि की कविताओं पर मुग्ध थे–

“गोरखपुर-विभाग के कवियों में इस कवि का स्थान सर्वोच्च है. हमारे किसी भी कवि ने काव्य का इतना बड़ा और इतना अनूठा ग्रन्थ नहीं लिखा है… भूषण तो वीर रस काव्य के भूषण ही हैं, लेकिन मैं यह कहने में संकोच न करूंगा कि किसी अंश में चिरजीवी के कवित्त भूषण के काव्य से टक्कर लेते हैं.”

 

(चार)

हिंदी में समस्यापूर्ति काव्य की समृद्ध परम्परा रही है. रामनिरंजन परिमलेंदु ने अपनी किताब ‘भारतेंदुकाल के भूले-बिसरे कवि और उनका काव्य’ (2059 वि.) में लिखा है–

“सन् 1870 ई. में भारतेंदु हरिश्चन्द्र द्वारा स्थापित काव्यवर्द्धिनी सभा, वाराणसी  और उन्नीसवीं शती के अंतिम दशाब्द में काशी कवि समाज, कानपुर कवि समाज, काशी कवि मंडल, पटना कवि समाज, कवि मंडल (बिसवां) आदि अनेक कवि समाजों के द्वारा समस्यापूर्ति काव्य को गरिमा प्राप्त हुई. हिंदी साहित्य में भारतेंदु हरिश्चन्द्र के प्रवेश के बाद समस्यापूर्ति काव्य का स्वर्ण युग प्रारंभ होता है. द्विवेदी युग तक इसकी परम्परा रही है.”

सूर्यपुरा व दरभंगा राजदरबार के कवि होने के नाते रामनिरंजन परिमलेंदु ने मार्कंडेय लाल चिरजीवी को ‘पटना कवि समाज’ का कवि सिद्ध करने का प्रयास किया है. मार्कंडेय कवि समस्यापूर्ति काव्य में ठीक-ठाक दखल रखते थे.

श्यामापति पाण्डेय अपने लेख में एक ग़लत तथ्य प्रस्तुत करते हैं कि ‘पद्यों के चुराए जाने के भय से इन्होंने लगभग अपने रचित सभी पद्यों में अपना उपनाम “चिरजीवी” रक्खा है.’ दरअसल ‘चिरजीवी’ उपनाम न होकर काशी कवि समाज द्वारा दी गयी उपाधि है.

भारत जीवन यंत्रालय, काशी से सन् 1887 ई. में प्रकाशित ‘विक्टोरिया रानी’ पुस्तक की भूमिका के अनुसार महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण की अर्द्धशती-पूर्ति पर काशी कवि समाज के तत्त्वावधान में विक्टोरिया-प्रशस्तिमूलक काव्य की रचना की गयी. 13 फ़रवरी 1887 ई. की संध्या में भारत जीवन कार्यालय, काशी में विक्टोरिया-प्रशस्ति काव्य पाठ हुआ जिसमें अनेक कवियों ने भाग लिया. उक्त अवसर पर उपस्थित कवियों में श्री द्विज कवि, पंडित मन्नालाल, पंडित सुधाकर द्विवेदी, अवधेश कवि, पंडित अयोध्यानाथ, कवि द्विजबेनी, पंडित रामेश्वर दत्त, रसीले कवि बचऊ चौबे, कविवर मार्कंडेय लाल, रामकृष्ण वर्मा आदि प्रमुख थे. विक्टोरिया-प्रशस्तिमूलक श्रेष्ठ काव्य की रचना के पुरस्कार स्वरूप कोपागंज, जिला आज़मगढ़ निवासी लाला मार्कंडेय लाल को काशी कवि समाज की ओर से ‘चिरजीवी’ की उपाधि प्रदान की गयी.

विक्टोरिया हीरक जयन्ती काव्य उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के साहित्य की एक विशेष प्रवृत्ति थी. अत: मार्कंडेय कवि की समस्यापूर्तियों में ब्रिटिश-शासन की प्रशंसा मिलती है. विक्टोरियाकालीन भारत में अनेक तरह के विकास कार्य हुए. सेतु निर्माण, रेल, डाक, तार आदि इसी युग की देन है. अत: हिंदी के समस्यापूर्तिकारों ने विक्टोरियाकालीन उपलब्धियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है. रामनिरंजन परिमलेंदु ने ठीक ही लिखा है कि ‘राजभक्ति भारत के विक्टोरियाकाल की एक विशेष जीवनधारा थी.’

आगे चलकर यानी द्विवेदी युग में भी हम देखते हैं कि विक्टोरिया की मृत्यु पर हिंदी कवियों ने शोक काव्य लिखा. मिश्रबन्धु (श्यामबिहारी मिश्र, शुकदेव बिहारी मिश्र) का लिखा हुआ ‘श्री विक्टोरिया अष्टादसी’ (1901 ई.) नामक शोककाव्य प्रसिद्ध ही है.

काशी कवि समाज के तत्त्वावधान में रचित और काशिराज के आदेशानुसार ‘भारत जीवन’ सम्पादक रामकृष्ण वर्मा द्वारा प्रकाशित ‘विक्टोरिया रानी’ में चिरजीवी लाला मार्कंडेय लाल की समस्यापूर्तियां संकलित हैं –

जहाँ काफिलेहु लुटि जात हुते तहां नारीहू जाति जहां हुलसानी
जहाँ बाघ बटोहिन खात हुते तहां बालक जात हिये सुखमानी.
तुव राज मैं जू चिरजीव कहै सुख सोवै सबै अपनो यह तानी
एहि हेतु असीसें सबै तुम को जग जीवो सदा विकटोरिया रानी.

     *              *              *

जाकी प्रजा सदा चैन करे अरु जाकी प्रजा भई पंडित ज्ञानी
जाकी प्रजा को न त्रास कछू निरभै ह्वै कहौं सब सो प्रन ठानी.
ताते तुम्हैं यो असीसत हौं चिरजीव सुनैं प्रभु जो मम बानी
पुत्र पतोहुन संग लिए जगजीवों सदा विकटोरिया रानी.

 

(पाँच)

मार्कंडेय कवि की रुचियाँ विविध थीं. बाल्यावस्था में ही इनका ध्यान संगीत और चित्रकला की ओर गया. इनके बनाये चित्र सुंदर तथा भावपूर्ण होते थे. श्यामापति पाण्डेय के अनुसार–

“एक बार घोसी के तहसीलदार ने इनसे कहला भेजा कि एक ऐसा चित्र होना चाहिए, जिसमें सीता और लक्ष्मण श्रीरामचन्द्र के साथ बैठे हों और हनूमान् उनके पास खड़े हों. चित्र आकार में उतना ही होना चाहिए कि बिना मोड़े सोने के ताबीज़ में रखकर गले में पहना जा सके. मार्कंडेय जी ने उनके कथनानुसार ठीक चित्र बनाकर उनके पास भेज दिया. चित्र देखकर वह अत्यंत प्रसन्न हुए, और इनकी अत्यंत प्रशंसा की.”

मार्कंडेय कवि दुनिया को नश्वर मानते थे. उनकी नज़र में धन-दौलत, हाथी-घोड़े, फ़ौज, छत्र, चामर, पताका आदि माया है. माया से बचने के लिए वे ईश्वर भजन पर बल देते हैं. सांसारिक मोह-माया से बचने का एक ही उपाय है कि मनुष्य ईश्वर का नाम ले अन्यथा-

गलेंगे बतासे-से, बिलायेंगे लता से यह,
रंग-रूप खासे दिना चार के तमासे हैं.

मार्कंडेय कवि की दृष्टि में प्रेम का मार्ग अत्यंत क्षीण है. इस मार्ग पर प्रवीण लोग ही चल सकते हैं. कवि का मानना है कि जो स्त्री अपने कुल का परित्याग करके सिर्फ़ अपने प्रिय का नाम लेती है उसे धोखा देना उचित नहीं. जब प्रीति किया है तब प्रिया के साथ छल करना कहाँ तक ठीक है. अत: –

यह नेह की नाव चढ़ाय के प्यारे
प्रवाह के बीच न बोरियै जू.

मार्कंडेय कवि के पदों में लोकजीवन का सजीव चित्रण मिलता है. मार्कंडेय कवि की मृत्यु के दिन का कुछ ठीक-ठीक पता नहीं चलता. गजपुरी जी के अनुसार ‘आपके मरे हुए लगभग 15 वर्ष के हुए होंगे.’ चूँकि पुस्तिका 1912 ई. में प्रकाशित हुयी थी तो उनकी मृत्यु का अंदाज़ा लगाना थोड़ा आसान हो जाता है. श्यामापति पाण्डेय मानते हैं कि ‘सन् 1901 ई. के लगभग यह परलोकवासी हुए.’

ध्यातव्य है कि मार्कंडेय लाल सूर्यपुरा (जिला – रोहतास) राजदरबार के कवि होने के साथ ही दरभंगा नरेश लक्ष्मीश्वर सिंह के बहुत प्रिय थे. यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि छोटी जाति में जन्म लेने के बाद भी वे राजदरबार कैसे पहुँच गए?

इसका उत्तर मन्नन द्विवेदी गजपुरी और ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ की लिखी टिप्पणियों में मिलता है. आज़मगढ़ की मशहूर कवयित्री सरस्वती देवी (जन्म : 1876 ई.) के पिता रामचरित्र त्रिपाठी एक अच्छे कवि होने के साथ-साथ मार्कंडेय लाल के सच्चे मित्र थे. दबहर और ब्राह्मण की यह मित्रता चकित करती है लेकिन भारतीय समाज में इस तरह के सम्बन्ध चलते रहते हैं. ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ बताते हैं कि रामचरित्र जी डुमराँव के महाराज राधाप्रसाद सिंह के राजकवि थे. छियालीस वर्ष की अवस्था में 1893 ई. में रामचरित्र जी का निधन हो गया था. सरस्वती देवी ने मँझौली की राज्याधीश्वरी का एक सुन्दर जीवन चरित्र लिखा था. मँझौली की रानी साहिबा सरस्वती देवी पर मातृवत प्रेम रखती थीं. कारण यह था कि इनके पिता और मँझौली नरेश में बड़ी गाढ़ी मैत्री थी.

तो यह मैत्री भाव वह कारण हो सकता है कि रामचरित्र त्रिपाठी का कन्धा पकड़े मार्कंडेय कवि अपनी प्रतिभा व कविता के बल पर राजदरबार में पहुँच गए हों! मैं सोचता हूँ या आप भी सोच रहे होंगे कि रीतिकालीन राजदरबारों में मार्कंडेय चिरजीवी की तरह अन्य कवि अवश्य हुए होंगे जो राजदरबारों में अपनी जाति छिपाकर ज़रूर कविता लिखते रहे होंगे. यह सोचने का नहीं अपितु अनुसन्धान का विषय है.

सुजीत कुमार सिंह
नवजागरणकालीन साहित्य में विशेष रुचि. दो किताबों का संपादन और कुछ छपने के क्रम में. ‘वर्तमान साहित्य’ के सह-संपादक. उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में रहते हैं.

संपर्क: 9454351608

Tags: 20222022 शोधदबहरमार्कंडेय लाल चिरजीवीसुजीत कुमार सिंह
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Comments 11

  1. Shubhneet Kaushik says:
    3 years ago

    नवजागरणकालीन साहित्य और विस्मृतप्राय साहित्यकारों को प्रकाश में लाने का महत्त्वपूर्ण कार्य सुजीत जी लगातार पूरे मनोयोग से कर रहे हैं। यह लेख इसका एक प्रमाण है। बहुत बढ़िया

    Reply
  2. Madhav+Hada says:
    3 years ago

    सराहनीय लेख। ऐसे बहुत मनीषी हैं जो शोध संसाधनों के अभाव में हाशिए पर चले गए… हिंदी का दायरा नवजागरण काल में भी जितना हम जानते हैं उससे बड़ा है

    Reply
  3. अरुण कमल says:
    3 years ago

    चिरंजीवी जी पर शोध-लेख हेतु आपको एवं सुजीत जी को बधाई और आभार ।

    Reply
  4. सुशील मानव says:
    3 years ago

    बहुत ही लगन, रुचि और श्रम के साथ तैयार किया गया है यह शोध लेख जो पूरी नवजागरण साहित्य आलोचना व इतिहास को चुनौती देता है। सुजीत कुमार जी इसके लिये बधाई के पात्र हैं। समालोचन ने इसे प्रकाशित किया उन्हें भी बधाई।

    Reply
  5. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    वर्ण व्यवस्था के अमानवीय चरित्र ने समाज के दलित वर्ग से आये लेखकों के भीतर हीन भावना इस तरह से भर दी कि उन्हें अपनी जाति छुपानी पड़ी।यह प्रवृत्ति आज भी थोड़ी-बहुत बची हुई है।कुछ जातियों को आज भी किराये के मकान नहीं मिलते। सितंबर1914 की सरस्वती में पटना के हीरा डोम की एक भोजपुरी कविता छपी थी-अछूत की शिकायत। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जन्में ये पुनर्जागरण काल के संभवतः हिंदी के प्रथम दलित कवि थे। नि:संदेह इसका श्रेय सरस्वती के तत्कालीन संपादक महाबीर प्रसाद द्विवेदी और बाद में राम विलास शर्मा की पुस्तक-‘महाबीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण’ को है।सुजीत जी का यह आलेख वर्ण व्यवस्था पर आधारित हमारे समाज और साहित्य का एक दुखद पहलू है-खासकर नवजागरण काल की इन कविताओ में जिस तरह से महारानी विक्टोरिया के प्रति कृतज्ञता व्यक्त हुई है।इससे एक निष्कर्ष तो यह निकलता है कि हर काल में कविता की दोनों प्रवृत्तियाँ साथ-साथ चलती रही हैं-एक ओर प्रतिरोध और दूसरी ओर चारणवृति। इस आलेख के लिए उन्हें साधुवाद !

    Reply
  6. प्रीति चौधरी says:
    3 years ago

    बहुत अच्छा लेख।

    Reply
  7. आशीष मिश्र says:
    3 years ago

    गहन शोधपरक और व्यवस्थित आलेख है। साधुवाद!

    Reply
  8. बजरंगबिहारी says:
    3 years ago

    जरूरी लेख । पठनीय ।

    Reply
  9. रंगनाथ सिंह says:
    3 years ago

    मैं ऐसे गहन शोधपरक आलेख पर टिप्पणी करने के योग्य नहीं हूँ फिर भी सुजीत जी का ध्यान इस ओर दिलाना चाहूँगा कि “इनके कुटुम्बी अभी तक कोपागंज में रहते हैं, और उनसे पूछने से यही पता चला कि केवल पढ़ने-लिखने के कारण ही इन्होंने अपने को कायस्थ लिखा है, अन्यथा यह जाति के दबहर ही थे.” श्यामापति पाण्डेय के इस वाक्य का वह आशय नहीं प्रतीत होता है जो लेखक ने समझा, ‘पढ़ने-लिखने के कारण’ जाति छिपाना!। मेरे ख्याल से यहाँ बात पढ़ा-लिखा होने के कारण जाति छिपाने के बजाय कायस्थों के बारे में जातीय अवधारणा की है कि उसे पढ़ने-लिखने वाली जाति माना जाता है तो चिरजीवी जी ने शिक्षित होने के कारण खुद को कायस्थ कहा। यहाँ इस बात की तरफ भी ध्यान दिलाना चाहूँगा कि ‘उन्हें कायस्थ समझा गया’ का आशय ऐसा बन रहा है जैसे दूसरों ने उन्हें यह बनाया। इसी आलेख में बताया गया है कि चिरजीवी जी ने खुद को कायस्थ बताया है। मूलतः दूसरे लेखक उनके इस दावे पर सवाल उठाते प्रतीत होते हैं। यहाँ एमएन श्रीनिवासन के संस्कृतिकरण की अवधारणा को जहन में रखें तो इस पूरी परिघटना के कुछ अन्य पाठ भी सम्भव होते दिखेंगे। अभी इतना ही। सुजीत जी को इस बेहद अहम आलेख के लिए फिर से साधुवाद।

    Reply
  10. सूर्य नारायण says:
    3 years ago

    महत्वपूर्ण आलेख है। नवजागरण काल के ऐसे रचनाकारों को प्रकाश में लाना जरूरी है, जिनका उल्लेख नहीं हुआ है। इनके प्रकाश में आने से नवजागरण की तस्वीर बदलेगी। सुजीत जी को बधाई !

    Reply
  11. पवन says:
    7 months ago

    यह एक शानदार लेख है. सुजीत जी को बधाई. इस तरह के काम होने चाहिए.

    Reply

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