तथागत का समय |
हम सब भारतीयों के लिए यह अभिमान का विषय है कि ईसा पूर्व छठी सदी के पूर्व इस देश में ऐसी पाँच विचारधाराएँ मौजूद थीं और उसके लाखों अनुयाई भी थे जिनके विचारधाराओं ने ईश्वर के अस्तित्व को ही नकारा था. जहाँ एक ओर यूरोप में अभी मनुष्य इतना सुसंस्कृत नहीं था और न इतना विवेकी और बुद्धिजीवी भी कि ईश्वर के अस्तित्व को नकार दें. परंतु भारत में यह चमत्कार हुआ था. एक ओर ये विचारधाराएँ थीं तो दूसरी ओर उसके अनुयाई. तो तीसरी ओर वैदिक यज्ञ, कर्मकांड, ब्राह्मण वर्चस्व भी था. वैदिक विचारधारा ईश्वर, यज्ञ, कर्मकांड, वर्ण व्यवस्था का समर्थक थी तो ये पाँच विचारधाराएँ वैदिक व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, पुरोहितशाही के विरोध में थे. इन दो धारणाओं में संघर्ष तब से लेकर आज तक बरकरार है.
इस संघर्ष को उस काल के भीतर जाकर समझ लेना वास्तव में बहुत ही चुनौतीपूर्ण, अत्यंत परिश्रम भरा कार्य है. इस चुनौती को इस उपन्यास के लेखक श्री प्रदीप गर्ग ने स्वीकारा है.
उस काल के इतिहास को पढ़ते समय इस उपन्यास के लेखक श्री प्रदीप जी के मन में कुछ बुनियादी सवाल उठ खड़े हुए थे. वह यह कि एक ही काल में, एक ही क्षेत्र में, बुद्ध और महावीर ने सारे सुखों को त्याग कर संन्यास को क्यों स्वीकार किया था?
प्रश्न है कि वे कौन-सी सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक परिस्थितियाँ थीं जिनके कारण उन्होंने इस मार्ग को चुना? और उन्हें उस काल में लाखों अनुयाई भी मिले. इन कारणों की खोज करते समय गर्ग जी को लगा इसके मूल में महाभारत युद्ध और उस युद्ध में जो हिंसा हुई उसकी समितियाँ भी रही होंगी. क्योंकि महाभारत के 200 वर्षों बाद बुद्ध और महावीर का काल आता है. अलावा इसके उनके काल में जो युद्ध हो रहे थे, यज्ञ में जो हिंसा हो रही थी वह भी कारण रहे होंगे. जो भी हो वह काल और ये महापुरुष किसी भी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति को लेखन के लिए उकसाते रहे हैं.
ईसापूर्व शती से अब तक पिछले 3000 वर्षों में बुद्ध यूरोप और एशिया के चित्रकारों, मूर्तिकारों के लिए प्रेरणा स्रोत रहे हैं. चूंकि 1956 में महाराष्ट्र में डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर जी ने अपने पाँच लाख अनुयायियों के साथ बुद्ध धम्म को स्वीकार किया था. तब से लेकर आज तक महाराष्ट्र के सृजनशील लेखकों कवियों, नाटककारों ने मराठी में बुद्ध के व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों पर लिखना शुरू किया है. उनके जीवन पर 1956 से आज तक हजारों पुस्तकें और हजारों कविताएं लिखी गई हैं, लिखी जा रही हैं. गौतम बुद्ध पर डीडी कोसांबी जैसे प्रकांड पंडित ने बुनियादी शोधकार्य किया है. मराठी के एक दूसरे विद्वान डॉ. आ. ह. सालुंके जी ने बुद्ध पर एक महत्वपूर्ण शोध ग्रंथ लिखा है .
मराठी के इन ग्रंथों से एक पाठक के रूप में गुजरते समय मैं प्रदीप जी के इस उपन्यास के लिए उन ग्रंथों में जगह तलाश रहा था. पूरे उपन्यास को पढ़ने के बाद मैं इन निष्कर्षों पर आया हूं कि
1) मराठी में तथा महात्मा बुद्ध से संबंधित यूरोपीय ग्रंथों के केंद्र में महात्मा गौतम बुद्ध और उनका दर्शन रहा है. तो इस ग्रंथ में बुद्ध का कालखंड केंद्र में है.
2) बुद्ध से संबंधित अन्य भाषाओं के ग्रंथ सृजनात्मकता की अपेक्षा शोध तथा दर्शन से संबंधित हैं. प्रदीप गर्ग का यह ग्रंथ सृजनात्मक स्तर पर जाकर बुद्ध और उनके कालखंड को समझने का प्रयास कर रहा है. इस कारण यहाँ कल्पना का भरपूर उपयोग किया गया है. भले शीर्षक “तथागत फिर नहीं आते” दिया गया हो तो भी यहाँ तथागत की अपेक्षा अन्य काल्पनिक पात्र अधिक हावी हो गए हैं .
3) कुल 405 पृष्ठों और 30 प्रकरणों के इस उपन्यास में तथागत के जीवन से संबंधित केवल 183 पृष्ठ हैं और 30 में से केवल 13 प्रकरण तथागत से संबंधित हैं. दूसरी ओर काल्पनिक चरित्र सुकन्या और उसका बेटा सुमित्र से संबंधित कुल 12 प्रकरण हैं, 171 पृष्ठ इनके जीवन से संबंधित हैं. शेष 54 पृष्ठ प्रसेनजीत से संबंधित हैं. मतलब 405 पृष्ठों में से 222 पृष्ठ उस कालखंड से तथा सुकन्या, सुमित्र, प्रसनजीत से संबंधित हैं. इस कारण उपन्यास बुद्ध से संबंधित है ऐसा नहीं कहा जा सकता.
4) इस उपन्यास के आरंभ में “अनुच्छेद” के अंतर्गत लेखक ने लिखा है कि “इस पुस्तक के लिखने का उद्देश्य यह समझना और समझाना भी था कि एक आम आदमी उस काल में विचारों के झंझावात से कैसे प्रभावित हुआ होगा. अतः इसमें सुमित्र नामक पात्र की कथा भी बुद्ध कथा के साथ साथ चलती है.” वास्तविकता यह है कि सुमित की कथा ही जाने अनजाने केंद्र में आ गई है. सुमित्र की कथा के साथ-साथ बुद्ध की कथा भी चलती है ऐसा कहना होगा. सुमित्र की माँ सुकन्या है जो बाद में वैशाली की नगरवधू बन जाती है और सुहासिनी नाम धारण कर लेती है. इस सुहासिनी का वैभवपूर्ण जीवन, पुत्र सुमित्र का अलग-अलग समय में अलग-अलग युवतियों से संबंध आदि का विस्तार यहाँ है. परिणामतः पाठक इसी कथा में अधिक रमता है.
5) सुकन्या के अलावा प्रसेनजीत की जीवन कथा भी उपन्यास में कथा के रूप में आती है. कौशल नरेश प्रसेनजीत और उनके राजपुरोहित के माध्यम से तत्कालीन समाज में वैदिक या ब्राह्मण व्यवस्था तथा उसके विरोध में उठ खड़ा हुआ बौद्ध दर्शन इसका बहुत ही सटीक चित्रण यहाँ किया गया है. इस संघर्ष की प्रासंगिकता अधिक मुखर हो गई है.
6) इस उपन्यास की पहली उपलब्धि यह है कि यहाँ पहली बार बुद्ध के कालखंड का विस्तार से विवरण मिलता है. उस काल के अंतर्विरोध, उस काल की बौद्धिक चर्चाएं, एक दूसरे के विरोध में किए गए षड्यंत्र अर्थात ये षड़यंत्र केवल वैदिक व्यवस्था के समर्थक कर रहे थे. क्योंकि बौद्ध दर्शन के कारण वैदिक समाज पर संकट पर आ गया था. ब्राह्मणों का वर्चस्व और उनका व्यवसाय खतरे में आ गया था. इन षड्यंत्रों का इतना जीवंत चित्रण मराठी के इस विषय से संबंधित ग्रंथों में मेरे पढ़ने में नहीं आया है.
7) इस उपन्यास की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता बुद्ध के संघ जीवन पर, वहाँ के नियमों पर तत्कालीन अनुयायियों द्वारा उठाए गए प्रश्न हैं. प्रव्रज्या लेकर संघ में जो प्रवेश ले चुके थे वे थे तो मनुष्य ही. सभी बुद्ध की तरह से मोह, तृष्णा से मुक्त नहीं हुए थे. इस कारण जब उनकी कमजोरियाँ उभरकर सामने आती तो बुद्ध को संघ के नियमों में परिवर्तन करना पड़ता था. अथवा कठोर नियमों को शिथिल करना पड़ता था.
8) बुद्ध से संबंधित पुस्तकों में संभवत: गर्ग जी की पहली पुस्तक है जिसके एक प्रकरण में “भग्नचित्त” में तत्कालीन विचारधाराओं में स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर जो चर्चाएं चल रही थी उसका विवेचन है. पृष्ठ 362 पर चार्वाक पीठ में इस विषय पर जो चर्चा चल रही थी, उसका विवेचन है. अप्रत्यक्ष रूप से बुद्ध दर्शन में परिव्राजकों के लिए जिस कड़े ब्रह्मचर्य व्रत का आग्रह किया गया था उस पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया है. इस प्रकार के कड़े बंधनों के कारण जो विकृतियां उभर कर आ रही थी उसका भी उल्लेख हुआ है. जैसे एक भिक्षु बंदरिया से संभोग करते रहता है. जब उसे बुद्ध के पास ले जाया गया और बुद्ध ने उससे पूछा “वर्जित होने पर भी उसने ऐसा क्यों किया?” तो उसका उत्तर था “उसे नहीं पता कि बंदरिया के साथ भी संभोग वर्जित है” और तब यह नियम विनय पिटक में जोड़ा गया कि बंदरिया अथवा अन्य किसी भी पशु के साथ संभोग अपराध है. ठीक इसी तरह “अनुस्मरण” शीर्षक प्रकरण में. बिम्बसार और सुहासिनी के संवाद हैं. सुहासिनी कहती है,
“मेरे विचार से न तो काम को निषिद्ध करना उचित है और न ही इसका अनिर्बााध प्रचलन. दोनों ही स्थितियों में विकृतियाँ उत्पन्न होंगी.”
(पृष्ठ 321)
ठीक इसी प्रकार बुद्ध ने संघ में औषधि के रूप में मदिरापान की छूट दी थी, जीवक के परामर्श पर. पर उसमें धांधली शुरू हुई. मदिरापान कर भिक्षुक मारपीट पर उतर आने लगे. इस कारण बुद्ध ने कहा
“औषधि के रूप में मदिरापान की छूट को मैं सीमित करता हूं. अब चिकित्सक द्वारा विहार प्रमुख तथा अन्य भिक्षुकों के समक्ष दिए गए परामर्श के पश्चात ही मदिरा दी जा सकेगी. वह भी दिन भर में एक हाथ की अंजुली से अधिक नहीं और अधिकतम 5 दिनों तक.”
(पृष्ठ 303)
संघ में समय-समय पर जो अनियमितताएँ होती थीं, जो झगड़े हुआ करते थे उसे पहली बार गर्ग जी ने रेखांकित किया है. इसके अलावा राजपुरोहित द्वारा बुद्ध और उनके संघ को बदनाम करने के लिए जो षड्यंत्र रचे जाते थे उसका विस्तार भी यहाँ है. अंततः इन षड्यंत्रों का भंडाफोड़ हो जाता था और बुद्ध की महिमा और भी बढ़ती थी. परंतु इस बीच जो तनाव निर्माण होते थे, उसका उहापोह यहाँ है. अर्थात ये षड्यंत्र काल्पनिक नहीं हैं. इसके आधार बुद्धचरित में मिलते हैं. और इनके उल्लेख मराठी के ग्रंथों में भी हुए हैं. उसका विस्तार यहाँ पढ़ने मिला.
9) इतिहास की परिभाषा में एक परिभाषा यह भी है कि “अतीत का वर्तमान से निरंतर संवाद ही इतिहास है”. लेखक जब अतीत के किसी महामानव, व्यक्ति या घटना पर लिखना चाहता है तो उसकी इस चाहत के मूल में उसका वर्तमान होता है. इतिहास या अतीत से संवाद करने का अर्थ यह नहीं है कि वर्तमान से उसका मोहभंग हुआ है. अतीत में चले जाने का अर्थ है वर्तमान को नये ढंग से समझना, अतीत की प्रासंगिकता बतलाना. लेखक को बुद्ध पर लिखने की प्रेरणा इसलिए मिली क्योंकि बुद्ध और महावीर के काल ने उनके मन में अनेक प्रश्न उठाए थे. जितनी गहराई में जाएंगे उतने अधिक प्रश्न उठेंगे ही. इन प्रश्नों का वर्तमान से कोई संबंध है क्या इसकी खोज जब करेंगे तब स्थितियाँ अधिक स्पष्ट होने लगती हैं. अतीत में वर्तमान मिलेगा. जैसे बुद्ध और महावीर के समय जो मुख्य पाँच दर्शन थे उनमें मुख्य प्रश्न ईश्वर के अस्तित्व को लेकर था. ईश्वर के अस्तित्व को मानने से जो कर्मकांड, जो हिंसा, जो शोषण हो रहा था उस कारण ही उस काल के बुद्धिजीवी इन प्रश्नों से जूझ रहे थे. एक ओर भौतिक सुखों की अति हो चुकी थी. तो दूसरी ओर यज्ञ याग की अधिकता. ठीक सुमित्र की तरह आज के बुद्धिजीवियों या मध्यवर्ग की स्थिति रही है. सुमित्र जीवन भर भटकता रहा. उसकी यह भटकन आज के आम आदमी की भटकन की याद दिलाती है. योगा, विपस्यना, आर्ट ऑफ लिविंग से लेकर कई बाबाओं के यहाँ उसका भटकना उसकी नियति बन गई है. इसलिए इस सुमित्र को अंत में वह रहस्यमय काल पुरुष जो कहता है वह आज के लिए ही नहीं भविष्य के मनुष्य के लिए भी सच है.
“वस्तुतः मध्यम मार्ग सर्वोचित मार्ग है. अति बुरा है इसमें कोई संदेह नहीं.
वासना त्याज्य हो सकती है सुमित्र, परंतु प्रेम तो त्याज्य नहीं. प्रेम तो एक अत्यंत उदात्त भाव है, इस सृष्टि के अस्तित्व का आधार है.”
(पृष्ठ 397)“जिन उद्वेगों को सामान्यतः बुरा कहा जाता है सुमित्र, वे भी सभी एक सीमा तक अच्छे हैं. सीमा के भीतर क्रोध अच्छा है. लालच अच्छा है, गर्व अच्छा है, भय अच्छा है और वासना भी. बुराई भोग में नहीं, विवेकहीन भोग में है. भोग में भी मध्यम मार्ग ही सम्यक है. न इसका अति न इसका पूर्णत: निषेध”
(पृष्ठ 398)
वास्तव में यही तो बुद्ध का मार्ग है. सच्चाई यह है कि बुद्ध लगातार अष्टांग मार्ग पर बल देते हैं. परंतु आश्चर्य है कि संघ के परिव्राजकों के लिए वे ब्रम्हचर्य से लेकर खानपान तक अति कर रहे थे. इसी कारण तो संघ में हमेशा कुछ न कुछ विपरीत घटित होता था.
इस उपन्यास के माध्यम से पाठक ढाई हजार वर्षों पूर्व के कालखंड से गुजरता है. उस कालखंड की तुलना वर्तमान से करते समय इसका तीव्रता से एहसास होने लगता है कि वह कालखंड आज की तुलना में अधिक विवेक संपन्न था. जीवन और मृत्यु, ईश्वर, यज्ञ, कर्मकांड, भौतिक सुख, स्री पुरुष संबंध, ब्रम्हचर्य, व्यापार-व्यवसाय, सुरक्षितता, पाप पुण्य को लेकर ढेरों प्रश्न उस काल के मनुष्य में थे और आज के मनुष्य में भी हैं. परंतु तब का मनुष्य अपने प्रश्नों के समाधान हेतु तत्कालीन बुद्धिजीवियों के पास जाता था. उनसे प्रश्न पूछता था और जिनसे उसका समाधान होता था, उनका वह अनुयायी हो जाता था.
बुद्ध के पास गणिका से लेकर व्यापारी और किसान अपने अनेक प्रश्नों को लेकर जाते थे और बुद्ध उनके प्रश्नों के बड़े विस्तार से उत्तर देते थे. आज भी प्रश्न वही हैं परंतु उसका उत्तर देने वाले नहीं के बराबर. उलटे उनके उन प्रश्नों का उपयोग आज के तथाकथित बुद्धिजीवी या बाबा लोग उसके आर्थिक और शारीरिक शोषण के लिए ही कर रहे हैं. तब का प्रश्नकर्ता लूटा नहीं जा रहा था. आज का प्रश्न कर्ता लुटा जा रहा है. मैं लूटा जा रहा हूं इसका एहसास उसे नहीं है. तब का सामान्य मनुष्य अपने विवेक का उपयोग कर जीवन संबंधी निर्णय लेता था. उदाहरण, सुमित्र, सुकन्या, मल्लिका आदि. किसी के कहने पर बहकने वाले लोग उस काल में नहीं थे. पर आज बहकने वालों की भीड़ बढ़ रही है.
यह प्रश्नाकुलता नवजागरण काल में भी थी. राजा राममोहन राय, महर्षि दयानंद, म.जोतिबा फुले जैसे समर्थ बुद्धिजीवी लोगों की प्रश्र्नाकुलता को उकसा रहे थे और उन्हें योग्य मार्गदर्शन भी कर रहे थे. उस काल की तुलना में आज वैचारिक अराजकता अधिक है.
पृष्ठ 339 पर बुद्ध कहते हैं
“किसी भी कथन पर मात्र इसलिए विश्वास मत कर लेना कि तुमने आचार्यों से ऐसा सुना है. परंपराओं पर इस कारण विश्वास मत करो कि वे पीढ़ियों से चली आ रही हैं. किसी भी कथन को मात्र इसलिए मत मान लो कि बहुत सारे लोग ऐसा कहते हैं, ऐसा मानते हैं.
किसी भी कथन को तुम इसलिए भी मत स्वीकार लेना कि शास्त्र ऐसा कहते हैं. बुद्धिमान लोग बिना सोचे-समझे विश्वास नहीं करते. प्रश्न करो, तर्क करो, अपने अनुभव का भी उपयोग करो. पूरी छानबीन करने सूक्ष्मता से परीक्षण करने के पश्चात तुम्हें लगे कि कथन तर्कसंगत है, प्रत्येक के कल्याण की बात है, सबके हित की बात है, इसको जीवन में उतारने से अपना तथा दूसरों का भी भला होता है: तभी उसे स्वीकारो. उसके अनुरूप अपना आचरण ढालो.”
इसे लिखते समय प्रदीप गर्ग जी के सामने निश्चित ही आज का उनका वर्तमान ही तो है. इन बातों की प्रासंगिकता बताने की जरूरत नहीं है. इसलिए यह स्पष्ट हे कि यह उपन्यास वास्तव में अतीत के साथ वर्तमान का संवाद है.
वह काल इतना विवेक संपन्न था कि तब के जननायक अनुयायियों को विवेकसंपन्न करने की कोशिश कर रहे थे. उनकी तुलना में आज के जननायक अपने अनुयायियों को विवेकहीन बनाने में लगे हैं; इसका एहसास पाठकों को हो जाए तो यह इस लेखन की सार्थकता होगी.
इस उपन्यास की प्रस्तावना में इस उपन्यास से संबंधित सामग्री प्राप्त करने के लिए लेखक ने जो यात्राएँ की, हिंदी के 15, अंग्रेजी के 33 ग्रंथों तथा वेब से 28 संदर्भ जो लिए हैं उनका उल्लेख किया है. अर्थात इस उपन्यास को या कहें बुद्ध के कालखंड को अधिक विश्वसनीय बनाने की जी तोड़ कोशिश उन्होंने की है. भारतीय भाषाओं के कुछ अपवादस्वरूप लेखक उपन्यास लेखन के पूर्व इतना कठोर परिश्रम करते हैं. इसलिए वे बधाई के पात्र हैं.
इस लेखन में उन्हें अद्भुत सफलता मिली है. वह इस अर्थ में कि किसी भी उपन्यास की सफलता के दो ही महत्वपूर्ण निकष होते हैं. एक तो वह पठनीय हो, रोचक हो तथा पाठकों को अनुभूति या विचार के स्तर पर समृद्ध करता जाए. इन दो निकषों पर यह उपन्यास निश्चित ही सफल हुआ है.
बुद्ध दर्शन के उन्हीं पहलुओं को वे उजागर करते हैं जिनका संबंध व्यावहारिक जीवन और आचरण के साथ है. उस काल में प्रचलित किसी भी दर्शन को वे क्लिष्ट होने नहीं देते. उलटे उपन्यास पाठकों के मन में अनेक प्रश्न पैदा करता है तथा उसे आत्मपरीक्षण के लिए ललकारता है. पाठक उस काल में भ्रमण करते हुए चाहे अनचाहे उस काल की तुलना अपने वर्तमान से करने लगता है. अपने काल की सीमाओं से और उस काल की विवेकशीलता से रूबरू होने लगता है .
ठीक इसी तरह यह उपन्यास आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व यह देश भौतिक वस्तुओं के उत्पादन में, शिल्पकला में, चित्रकला में, भवन निर्माण में, विश्व के अन्य देशों की तुलना में कितना उन्नत था, इसका विवेचन करता है. इस देश का विश्व के अनेक देशों के साथ व्यापारिक संबंध था और यहाँ के उत्पाद को विश्व में भरपूर माँग थी, इसका एहसास वैशाली शहर के चित्रण को पढ़ते समय बार-बार होता है.
इस उपन्यास की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें पहली बार बुद्ध के पारिवारिक जीवन का यथार्थ चित्रण किया गया है. मराठी में यशोधरा तथा बुद्ध परिवार के अन्य सदस्यों का उदात्तीकरण अधिक किया गया है. परंतु प्रदीप गर्ग जी इस प्रकार के उदात्तीकरण की अपेक्षा उनके माननीय पक्ष को अधिक को उभारते हैं. इस कारण इस उपन्यास की यशोधरा और प्रजापिता अधिक मानवीय, सहज और यथार्थ लगती हैं.
बावजूद इसके यह तो स्पष्ट है कि यह बुद्ध जीवन पर लिखा उपन्यास कम और बुद्ध कालखंड पर लिखा गया उपन्यास अधिक है.
प्रस्तावना में लेखक ने लिखा है कि “यह पुस्तक उस कालखंड की भी कहानी है”( पृष्ठ 11) यहाँ “भी” के स्थान पर “ही” शब्द अधिक सटीक होगा.
इस उपन्यास की भाषा को लेकर लेखक ने काफी परिश्रम किए हैं. उस काल के कई नामों का उद्धार किया गया है तथा कई ऐसी क्रियाओं के लिए जो शब्द उस काल में थे उसका ही प्रयोग हुआ है.
इस उपन्यास को आकर्षक रूप में तथा निर्दोष रूप में प्रकाशित करने हेतु लोकभारती प्रकाशन के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना भी जरूरी है.
फिर से प्रदीप जी का अभिनंदन करता हूं और उनसे निवेदन करता हूं कि हो सके तो इस उपन्यास का मराठी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो ताकि अधिकाधिक पाठकों में इसकी चर्चा हो.
यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त करें
सूर्यनारायण रणसुभे (अगस्त 1942)
मातृभाषा मराठी
एम.ए. हिंदी इलाहाबाद वि.वि..से,1965 में.
दयानंद कालेज, लातूर महाराष्ट्र में 37 वर्ष हिंदी साहित्य का अध्यापन.
ललित निबंध, समीक्षा, अनुवाद और संपादन से संबंधित 75 पुस्तकें प्रकाशित.
मराठी में आठ पुस्तकें प्रकाशित.
स्थायी निवास लातूर (महाराष्ट्र)