बाघ सुमित त्रिपाठी की कविताएँ |
1.
बाघ की भूख
बाघ से नहीं डरती
मज़बूत जबड़ों से
वह उसे दबोचती है
चतुर चेष्टाएँ
विफल करती
वह मायाविनी
पैने पंजों की
पराजय से क्षुब्ध
भूख के तल में
बाघ आ गिरता है
2.
अज्ञात उत्कंठा के पीछे
वह भागा था
पर केवल
हिरन की मृत देह
वह पा सका
बाघ उसे
ढो कर लाया
अपनी हताशा में
उसने दाँत गड़ा दिए
3.
मैं हिरन था
जब बाघ ने मुझे देखा
नदी की धुंध से
वह उठता था
सफ़ेद कोहरे को हटा कर
निकल आया था
फिर वह
झरने की तरह गिरा
मैं हिरन था
जब बाघ
मुझे बहा ले गया
4.
लपट की तरह
वह फिरता है
झाड़ियों में
झील पर
दहकता है
वन से विदग्ध
बाघ
किस तरह जलता है !
5.
एक जंगल
बाघ के मन पर
उगा हुआ
कुटिल घास में
ढँके सब
संगीतमय क्षण
घने झुरमुट
उसके रहस्यों की
रखवाली करते हैं
बाघ झाँकता है
कभी-कभी
हरीतिमा की जाली से
फिर धूर्त आँखों के पीछे
छुप जाता है
6.
प्रथम आखेट का क्षण
माँ से अलगाव का क्षण भी था
बाघ फिर
उधर नहीं लौटा
माँ की स्मृतियाँ मगर
बनी रहीं
बाघ की गर्दन पर
वे गड़ी रहीं
7.
बाघ ने
मुँह की खाई थी
घास में
वह लेट गया
बूंद-बूँद बाघ
उससे रिस रहा था
बूँद-बूँद
धरती
उसे सोख रही थी
अपना घाव
उसने देखा
और अपने बाघ होने को
याद किया
8.
जब हिरन उसे नहीं सताते
एक दूसरा जीवन भी
बाघ जीता है
एक शांत घेरा
उसके चारों ओर
बन जाता है
वह अपनी बनाई
झील में होता है
जंगल तब
उसे ढूँढ़ नहीं पाता
9.
वन में बहुत गहरे
बाघ पैठता है
वहाँ तक
जहाँ वन
हरे का हठ छोड़
खुल जाता है
आखिरी इस द्वार को
बाघ विस्मय से देखता है
10.
(राइफ़ल)
बिजली कौंधी थी
बाघ के हृदय पर
असंभव एक गति
उसे भेद गई
पाँव पिघले
और मिट्टी में मिल गए
बाघ बुझ गया
सुमित त्रिपाठी की कुछ कविताएँ यत्र-तत्र प्रकाशित हुईं हैं |
बहुत अच्छी कविताएँ। बाघ का रूपक हमारे जीवन का रूपक बहुत अच्छे से बन सका है और उस जीवन को व्यक्त भी कर सका है। सुमित को हार्दिक शुभकामनाएँ। प्रस्तुत करने का धन्यवाद।
ग़ज़ब की कविताएँ हैं अरुण सर, बहुत बढ़िया। कितनी सीधी सादी और भेदक। कोई आडंबर नहीं, पेचीदगी नहीं, एक शब्द भी फ़ज़ूल नहीं। बहुत बधाई कवि और आपको
अच्छी कविताएँ हैं और मुझे पसन्द हैं। सुमित त्रिपाठी की कविताएँ इधर के अन्य युवा कवियों की कविताओं से भिन्न हैं और लगातार बेहतर हो रही हैं। मैं उसे उसकी शुरू की कविताओं से लेकर पढ़ता आ रहा हूँ।
सुमित की कविताएं बहुत अच्छी हैं भाई अरुण जी। बाघ के होने के मानी खोलती हुईं। बाघ अपने भय, रहस्य, हिंस्र इच्छाओं, कातरता और पराजयों समेत यहां उपस्थित है। और बाघ का अपनी तरह से अपने जंगल में होना, किस कदर सिर्फ उसे ही नहीं, जीवन को भी अर्थवान बनाता है। यह महसूस होता है।
फिर इन कविताओं में बाघ की तृप्ति का सुख है, तो उसकी गहरी अतृप्ति और उदासी भी जो हमारी आपकी उदासियों से किसी कदर भिन्न नहीं। और आखिरी कविता तो आंखें भिगो देती है, किसी करुण पुकार की तरह।…
अलबत्ता, इन सुंदर कविताओं को पढ़वाने के लिए ‘समालोचन’और आपका बहुत-बहुत आभार, भाई अरुण जी! प्रिय सुमित को मेरी उत्साहपूर्ण शुभकामनाएं!
स्नेह,
प्रकाश मनु
सुमित की कविता बाघ ,जीवन को दर्शाती है।बहुत बढिया।
शुभकामनाऐ।
इस कविता की विशेषता यह है कि इसमें बाघ का अदृश्य चेहरा बेनकाब हुआ है। इस रूपक से शक्ति की असमर्थता का भी बखूबी अंकन हुआ है। शब्दों की मितव्ययिता तो है ही।
सुमित त्रिपाठी की कविताएं अच्छी हैं पर इनमें बाघ का बाघपना है सिर्फ़ और वह भी एक फ्रेम में स्थिर या कहूं किसी क्षण विशेष के दृश्य भर तक सीमित. केदारनाथ सिंह के बाघ के बरअक्स इनका पाठ नहीं हो सकता. एक प्रसंग से अपनी बात पूरी कर रहा हूं. नामवर सिंह जी द्वारा
‘आलोचना’ में जब “बाघ” प्रकाशित की जा रही थी तो केदारनाथ सिंह जी ने परमानंद श्रीवास्तव जी को पत्र लिखा कि मेरी बाघ श्रृंखला की कविताएं अब आवयविक संग्रथन पा गई हैं.
वास्तव में वहां बाघ का बिम्ब अपनी अर्थ सघनता में आत्मीय भी हो सका है और जीवन से भरा हुआ भी —
कि यह जो प्यार है
यह जो करते हैं हम एक-दूसरे से
या फिर नहीं करते
यह भी एक बाघ है. ….
मंगलेश के यहां भी बाघ के डुकरने की आवाज़ कुछ मायनों में करुणामय ही लगती है, आंक्रांत नहीं करती.
सुंदर कविताएँ हैं. संभवानाओं से लबालब. सूक्तिपरकता भी चमकीली है. शुभकामनाएँ. युवा कविता के शोर में संगीत होना है तुम्हें, कवि ओ.
वाह! शानदार कविताएँ। सम्वेदना के बहुआयाम का कम से कम शब्दों में रूपायन, वह भी इतनी सहजता से- यह ख़ासा ध्यानाकर्षक है। कवि को बहुत बधाई।