ज्योति शर्मा की कविताएँ |
1.
अगर प्रेमचंद मेरा बॉयफ़्रेंड होता
अगर प्रेमचंद मेरा बॉयफ़्रेंड होता
मैं खेलती उसकी झबरी मूँछों से
पूस की रात जब गंगा से उठकर खिड़की से आती बर्फीली हवाएँ
मैं उसके साथ रज़ाई में जागती
जैसे शिव से कहती हैं पार्वती
मैं कहती
सुनाओ कहानी मेरे प्रेम
अगर प्रेमचंद मेरा बॉयफ़्रेंड होता
तो परवाह न करती कि उसका व्यवहार
पात्रों से कैसा है
यह देखती वह मुझे कैसे समझता है
उसे मैं करती इतना प्यार
हिरणी जैसे अपने छौने से करती है
फिर वह कैसे लिख पाता इतना कुछ !
अगर प्रेमचंद मेरा बॉयफ़्रेंड होता
उसके लिए बुन देती ऊनी मोज़े
फटे जूतों से उसके पैर का अंगूठा न निकलता
बाहर
मेरे प्रेम को न लगती ठंड.
२.
महादेवी वर्मा के लिए
महादेवी आपसे पहले आपके घरेलू पशुओं से
मिलना चाहती हूँ
आपकी कविता से ज़्यादा आपके गद्य संसार की
यात्रा करना चाहती हूँ
कविता लेकर क्या करूँगी ?
मैं नीर भरी दुःख की बदली नहीं हो सकती
न ही मेरा कोई रहस्यमयी प्रेमी है
एक पति है जो रोटी कमाकर लाता है
जो कभी कभी जता देता है प्रेम
कभी कभी लगा देता है डाँट
कभी दांत
कभी नाख़ून
महादेवी, मुझे आपकी कविता से ज़्यादा
आपके मोटे चश्मे की ज़रूरत है
देख सकूँ दूर तक देख सकूँ देर तक
देख सकूँ अपनी बहनों की पीठ पर
गुमचोट
महादेवी
मुझे आपकी सहेली सुभद्राकुमारी चौहान की लक्ष्मीबाई की तरह
मर्दानी नहीं होना है
मुझे स्त्री ही रहना है
जो मार खा रोती नहीं
जो मारनेवाला का हाथ पकड़ती है
जो बेधड़क पकड़ लेती है उसका हाथ
जो करता है उससे प्रेम.
3.
मण्डला
रोज़ देखती हूँ मध्यप्रदेश के नक़्शे पर
कहाँ है मण्डला
यात्रा से ज़्यादा रोमांचक है
उसके बारे में सोचना
मण्डला की नदी में नहाने का सपना देखते देखते
भीग जाती हूँ पसीने से
दोपहर सोते हुए देखा मैंने एक बाघ
तुम मण्डला के जंगलों के हो न
मैंने पूछा
उसने कहा नहीं वह तो रज़ा के चित्रों का बाघ है
मैंने कहा वह तो ऐसे चित्र बनाते ही नहीं थे
बाघ हो जिनमें
उसने कहा ढूँढो उसे रजा के चित्रों में
मैंने उस बाघ को ध्यान से देखा
बरसों पहले बिछड़ा जैसे कोई मेरा
उसका नाम मण्डला ही है
उसे मण्डला ही पुकारो, नीलमाधव.
4.
मैं उद्दीप्त हो जाती हूँ
मैं उद्दीप्त हो जाती हूँ
दयाद्र मनुष्य देख
हो जाती हूँ उद्दीप्त
देखकर सुगठित शरीर सुविकसित दिमाग़
चमकती आँखें
मैं भर जाती हूँ रति की चाह से, जब कोई
किसी से प्रेम से भीगी बातें कर रहा होता है
उद्दीप्त हो जाती हूँ
जब कोई किसी में डूबा लिख रहा होता है
संदेश नीली रौशनी में
मैं इतनी ख़ूबसूरत ज़िंदगी से भरी
दुनिया को देखकर उद्दीप्त हो जाती हूँ
मेरी सहेली कहती है
उसे प्यार है एक ऐसे आदमी से
जिससे वह कभी नहीं मिली
उद्दीप्त हो जाती हूँ
उस युवा संन्यासी को देखकर
जिसने सबकुछ त्याग दिया अपने जीवन का.
5.
दढ़ियल आदमी
वह दढ़ियल आदमी
जो मेरे सामने कुर्सी पर बैठा है
बुखार है उसे
घूम रहा है उसका माथा
डॉक्टर कहता है कान का पानी हिल गया है
कितना सुंदर लग रहा है वह
बीमारी में आदमी सुंदर हो जाता है
बच्चा हो जाता है
लगता है उसका सिर रखूँ अपनी गोदी में
और उसे बताऊँ
मज़बूत होना ही मर्द होना नहीं है
नाज़ुक होना भी मर्द होना है
जैसे नाज़ुक होना ही औरत होना नहीं है
अवेध्य होना भी औरत होना हो सकता है
उसके गाल से रगड़ना चाहती हूँ गाल
पर लौटना भी है घर
जहाँ बेटे के लिए बनानी है पराँठा और दही कबाब
पर उससे पहले उसके गंजे होते सिर को
सहलाना चाहती हूँ.
6.
अश्लील बातें
अश्लील बातें करनेवाला वह आदमी
जब तब आ जाता है इनबॉक्स में
शुरुआत तारीफ़ों से करता है
और चाहता है बातें होती जाएँ कामुक
कितना अकेला है वह
स्तनों की तारीफ़ करना चाहता है करता आँखों की है
उसके शब्दों से टपकती है रति की चाह
कितनी सुनसान है उसकी रातें
बे-रौनक
सुनो
तुम भूखे आओगे चौखट पर
तुम्हें खिला दूँगी रोटी साग
दूंगी कटोरी घी वाली
तुम्हारी वासना का क्या करूँ
तुमपर केवल करुणा जगती है.
7.
टॉकीज में चुम्मी
तुम्हें याद हो कि न याद हो
मुझे याद है मेरी पहली चुम्मी
टॉकीज में दी थी तुमने
कुछ-कुछ होता है फ़िल्म के बीच
इंटरवल के ठीक पंद्रह मिनट बाद
औरत सब याद रखती है
दी हुई चुम्मियाँ भी
खाई हुई गालियाँ भी
पड़ी हुई मारें भी
गुमचोटों और चुम्मियों से मिलकर बनती है औरत.
8.
जब तुमने मिलने के लिए कहा
हुमायूँ के मक़बरे में जब तुमने कहा
मिलने के लिए
मेरे लिये यह बड़ी बात थी
शादीशुदा औरत तब तक नहीं आती मिलने किसी से
जब तक वह अपने प्रेम के राक्षस से
लहूलुहान न हो गई हो
मुझे लगा हुमायूँ का नहीं मेरा ही मक़बरा है यहाँ
इतना डरी हुई थी मैं
जब वापस लौटी तो जैसे कचनार की फूलों से झुकी
डाल थी.
9.
प्रेम
वह जानती थी
प्रेम के लिए एक दिन चुनना होगा पुरुष
उसे ही सौंपनी होगी देह
तुम्हें जो दिखाई देती है स्त्री
केवल स्त्री नहीं
उसमें कहीं छुपा है एक पुरुष भी
उसे अपनी सखी के आसपास होने से
सुकून मिलता है
घंटों एक दूसरे के साथ बैठे अंतहीन बातें करना
एक दिन कृष्ण बनकर
उसने अपनी सखी से किया प्रेम
आलिंगन कर लिया पहला चुम्बन
नदियों के बीच की रिक्तता का विलाप
किसी को नहीं दिखाई देता न !
10.
अभिसारिका
पूर्णिमा की रात्रि
मौन चंद्रमा को धवल चादर ओढ़े देख
रात्रि के दूसरे पहर
मैं नदी के मुहाने चली गयी
मैं वन गुर्जर हूँ
तुम्हारे आलिंगन के लिए
डेरे और नदी के रास्ते के बीच
घने साल के वृक्षों से घिरे किनारे
दुर्गम दूरी तय करती हूँ
मैं भेड़ियों के बीच से गुज़रती हूँ
मैं अपनी गंध छिपाती हुई
गुलदार के मल मूत्र से लिपटे कम्बल पहन
निकलती हूँ घाटियों से
गुलदार बनकर
तुम्हारे प्रेम के लिए.
ज्योति शर्मा हरिद्वार कविता संग्रह-‘नेपथ्य की नायिका’ बोधि प्रकाशन से प्रकाशित. jyotigaurav116@gmail.com |
बहुत सुंदर कविताएँ। बिल्कुल सरल सुबोध भाषा। ज्योति शर्मा को बधाई।
आज सुबह उठते ही कविता ने मेरी उँगली थाम कुछ ऐसी जगहों पर ले गयी जो मेरे अनुभूत का ही करीबतर हिस्सा थीं पर जिन्हें मैं अबतक छू नहीं पाया था। यकीनन कविता एक दृष्टि भी है। एक स्त्री की आँखों से चीजों को,अपने परिवेश और इस संसार को देखना और कई अनदेखे रास्तों और प्रदेशों से होकर गुजरना सचमुच एक रोमांचक यात्रा है।पर एक बात जो गौरतलब है कि कुछ लोगों का कद इतना ऊँचा होता है कि उनपर लिखी हर कविता बेअसर होती है अगर उसे बहुत डूबकर न लिखा जाय।लेखन और कर्म में हमारी जातीय अस्मिता के प्रतीक- प्रेमचंद और गाँधी, ऐसे ही दो चरित्र हैं।शुक्रगुज़ार हूँ ज्योति शर्मा और समालोचन का।
अच्छी कवितायें हैं केवल इतना ही कहना पर्याप्त नहीं है। कहना यह है कि ज्योति शर्मा की यह ज्योति बरकरार रहे।