कविता का आलोक और उपन्यास उदयन वाजपेयी |
हिन्दी साहित्य में अधिकांश कविताएँ कल्पना के और अधिकांश उपन्यास यथार्थ के जिम्मे हो गये हैं. इस वाक्य को थोड़ा सुधारने की ज़रूरत है. हिन्दी की आलोचना को भ्रम है कि कविताएँ कल्पना और उपन्यास यथार्थ से सम्भव होते हैं. ऐसा हो सकना असम्भव है, क्योंकि यथार्थ और उपन्यास के बीच उपन्यासकार की आँखें हैं और ये आँखें (यानी सभी इन्द्रियाँ) केवल देखती भर नहीं है, यथार्थ पर अपनी धारणाएँ आरोपित भी करती हैं. हम जो देखते हैं या सुनते हैं, उसमें हम भी अपनी ओर से योगदान देते हैं. सम्पूर्ण वस्तुनिष्ठता का विचार उन्नीसवीं शती के वैज्ञानिकों और उनसे प्रभावित समाज-शास्त्रियों और बाज़ार के अलावा कोई नहीं मानता. पर यह विज्ञान वैज्ञानिक चेतना से लैस हिन्दी की आलोचना को बताने से कोई फायदा नहीं.
हिन्दी के श्रेष्ठ कवियों की अधिकांश कविताओं में कल्पना और स्मृति की लगभग नियामक भूमिका रही है. यह प्रवृत्ति बीसवीं सदी के प्रसाद और निराला से शुरू होकर अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, श्रीकान्त वर्मा आदि से होती हुई आज के कमलेश, जितेन्द्र कुमार, विनोद कुमार शुक्ल, शिरीष ढोबले, ध्रुव शुक्ल, तेजी ग्रोवर, संगीता गुन्देचा, सपना भट्ट, आस्तीक वाजपेयी और अम्बर पाण्डे आदि तक आती है. इनके अलावा भी कुछ कवि ऐसे हैं जिनकी कविता में यह प्रवृत्ति प्रमुखता से अपनी भूमिका निभाती है.
दुर्भाग्य से हिन्दी उपन्यास में शुरू से ही कल्पना और स्मृति का निवेश उतना नहीं होता आया है जितना उसे प्रभावकारी होने के लिए आवश्यक था. हमारे अनेक उपन्यासकार उपन्यासों के नाम पर गजेटियर लिखते आये हैं. आज भी वही करते जा रहे हैं. लेकिन इसके कई दमकते हुए अपवाद भी हैं.
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जयशंकर प्रसाद की कृति ‘कामायनी’ दरअसल भारतीय ढंग से लिखा गया हिन्दी का पहला उपन्यास है. हम चाहे तो इसे पद्य में लिखा उपन्यास कह सकते हैं. आज तक इसे महाकाव्य कहने वाले आलोचकों को सम्भवतः उपन्यास और महाकाव्य के बीच का अन्तर या तो स्पष्ट नहीं हो सका या उनके लिए इस अन्तर की कोई विशेष भूमिका नहीं रही. उन्होंने कामायनी को बार-बार महाकाव्य कहने में ज़रा भी संकोच नहीं किया. यह इस सैद्धान्तिक फ़र्क के बाद भी होता रहा कि महाकाव्य समुदायों के बारे में होता है जबकि उपन्यास का केन्द्र समुदाय से अलग हुआ व्यक्ति होता है. यह वह व्यक्ति है जो बिल्कुल अकेला पड़ गया है, इस अकेले व्यक्ति को किसी भी समुदाय के सदस्य के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता. चाहे दोस्तोयवस्की का रोस्कोल्निकोव हो या फ्लाबे की मदाम बावेरी ये दोनों और दूसरे ऐसे ही उपन्यासों के केन्द्रीय चरित्र हमेशा समुदाय से कटे व्यक्ति रहे हैं. जबकि हम चाहे न चाहे रामायण के नायक राम को रघुवंश के सदस्य के रूप में ही प्रस्तुत किया गया है. इसीलिए यह संयोग नहीं कि रामायण के बाद लिखे कालिदास के ‘रघुवंश’ में राम के समूचे वंश का या कि समुदाय का ज़िक्र है.
इसी तरह महाभारत के विभिन्न चरित्र भी हैं, उन्हें भी उनके समुदायों के सदस्यों के रूप में देखा गया है. कामायनी के नायक मनु का मसला इनसे अलग है. इसमें कोई सन्देह नहीं कि जयशंकर प्रसाद ने मनु को किसी समुदाय के सदस्य के रूप में चरितार्थ नहीं किया. उसका चित्रण बिल्कुल अलग तरह से किया गया है. पृथ्वी पर वह अकेला व्यक्ति है. प्रलय के उपरान्त संसार का पहला मनुष्य. ज़ाहिर है, वह किसी समुदाय से विलगित होकर बना व्यक्ति नहीं है, पर तब भी वह है अकेला, निश्छाय मनुष्य. प्रसाद जी ने यूरोपीय उपन्यास की नकल करने की जगह एक बिल्कुल नये तरह के व्यक्ति की कल्पना की जो समुदाय के टूटने से नहीं बना है, बल्कि जिसे समुदाय में जाने का अवसर ही नहीं मिला है. लेकिन क्या मनु का अकेलापन ही वह अकेलापन नहीं जो हम सब आज अपने भीतर महसूस करते हैं? क्या यह वही अकेलापन नहीं है जो औद्योगिक समाजों के अकेले पड़ गये व्यक्ति के मानस की परतों के नीचे किसी उजले घाव की तरह लौंकता रहता है?
इस दृष्टि से देखने पर मुझे यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं है कि कामायनी महाकाव्य न होकर पद्य में लिखा गया अनूठा उपन्यास है. यह आवश्यक न था, न है कि उपन्यास को गद्य में ही लिखा जाए. उपन्यास के बारे में कुछ भी विचार करने से पहले यह जान लेना बेहतर है कि वह कविता का विस्तार है, न कि कहानी का.
उपन्यास महाकाव्य के रूपान्तर के फलस्वरूप अस्तित्व में आया है और महाकाव्य जैसा कि उसका नाम ही बता रहा है, काव्य है. पद्य में पहले भी और अब भी उपन्यास लिखे जा रहे हैं. जापान में कामायनी के बरसों बाद युवा उपन्यासकार माची तवारा ने कामायनी की तरह (तन्का) छन्द में एक उपन्यास प्रकाशित किया है ‘सेलेड एनवर्सरी’.
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प्रसाद के बाद मैं जैनेन्द्र कुमार को महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार मानता हूँ. जैनेन्द्र कुमार के ‘त्याग-पत्र’ में भाषा की संक्षिप्तता और स्मृति की भूमिका केन्द्रीय है. इस उपन्यास में भी कल्पना का भरपूर उपयोग किया गया है. जैनेन्द्र जी की सृजनात्मकता और प्रेमचन्द जी की साहित्य दृष्टि के फ़र्क का निदर्शन एक रोचक किस्सा करता है. जैनेन्द्र जी ने अपनी एक कहानी के हंस पत्रिका में प्रकाशन का यह किस्सा एक बार भोपाल में सुनाया था. उन्होंने अपनी एक कहानी को इटली के शहर वेनिस में अवस्थित किया. यह कहानी प्रकाशनार्थ हंस पहुँची. हंस के सम्पादक प्रेमचन्द जी को लगा कि यह किसी विदेशी लेखक की कहानी है जिसका जैनेन्द्र जी ने हिन्दी में अनुवाद किया है. वे यह कल्पना भी नहीं कर पाये कि हिन्दी का कोई कहानीकार अपनी कहानी वेनिस में अवस्थित कर सकता है. इसका फल और क्या होता, वह कहानी वापस कर दी गयी.
जैनेन्द्र के बाद दो ऐसे उपन्यासकार हिन्दी में आये जिन्होंने यथार्थ को जस-का-तस देखने की जगह उनमें कल्पना और स्मृति को आयत्त किया. ये उपन्यासकार थे फणीश्वरनाथ रेणु और निर्मल वर्मा. इनके पहले यह काम सीमित अर्थों में अज्ञेय भी कर चुके थे, पर जितनी तल्लीनता और समग्रता से यह सृजनात्मक कर्म रेणु और निर्मल जी के उपन्यासों में हुआ, हिन्दी में अभूतपूर्व था. निर्मल जी ने प्रसाद की तरह पद्य में उपन्यास लिखने की जगह गद्य की गहराइयों में ही कविता को खोज निकाला और फिर ऐसा गद्य लिखा जिसे पाठक अपनी सभी इन्द्रियाँ से ग्रहण करता है. ऐसा गद्य जिसे पढ़ना विशुद्ध बौद्धिक व्यापार नहीं इन्द्रियों का उत्सव है. इनके साथ ही हिन्दी उपन्यास में एक बिल्कुल नया और कल्पनाशील आयाम लेकर कृष्ण बलदेव वैद के उपन्यास आये. उनके जैसी नाचती भाषा हिन्दी उपन्यास में तब तक दूर-दूर तक नहीं थी. वह हिन्दी भाषा होते हुए भी उसका एक ऐसा विस्तार थी जिसका पूर्वाभास हिन्दी के तब तक के उपन्यासों में कहीं नहीं था.
वैद के उपन्यास बरसों इसलिए तिरस्कृत रहे आये क्योंकि उन्हें पढ़ने का शऊर हिन्दी की साहित्य संस्कृति में था ही नहीं. उस संस्कृति में पोषित पाठक यह सोच भी नहीं पाता था कि ऐसे उपन्यास भी लिखे जा सकते हैं जिनकी कहानी को सुनाया न जा सके और जिनकी नृत्यरत भाषा यथार्थ का विवरण प्रस्तुत करने के स्थान पर अपने आप से ऐसी खिलवाड़ करती हो जिसका फल हर पाठक को अलग ढंग से प्राप्त होता हो. इन तीनों महान हिन्दी उपन्यासकारों में एक बात सामान्य थी कि इन तीनों का गद्य कविता की ओर जाता हुआ गद्य था. वह ‘कवयाता’ गद्य नहीं था जिसका इस्तेमाल करने से अमरिकी कवि विलियम कार्लोस विलियम्स ने हमें दशकों पहले आगाह किया था. कवयाना न सिर्फ़ गद्य के लिए ख़राब होता है, वह कविता के लिए उससे भी ज़्यादा घातक हुआ करता है.
हिन्दी उपन्यास के कल्पना को आधार बनाने के इतिहास में कुछ उपन्यासकार और भी है जिन्हें याद करना हिन्दी आलोचना का न सही, इस आलेख का धर्म अवश्य है. ये उपन्यासकार हैं, कृष्णा सोबती, विनोद कुमार शुक्ल और सुरेन्द्र वर्मा. इन तीनों ने ही अपने उपन्यासों में औपन्यासिक कल्पना को वैसे उड़ने का अवसर दिया है, जैसा हिन्दी में आमतौर पर नहीं हो पाया. हिन्दी साहित्य ने दुर्भाग्य से यूरोपीय बल्कि ब्रिटिश औपन्यासिक मूल्यों को अंगीकार करते हुए देवकीनन्दन खत्री जैसे विलक्षण उपन्यासकार को हाशिये पर डालकर मानो अपनी शुरुआत में ही कल्पनाशीलता को उपन्यास-लेखन-कर्म के निर्णायक कारकों की फहरिस्त से हटा दिया था.
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आनन्द हर्षुल के उपन्यासों में औपन्यासिक कल्पना मुख्य भूमिका निभाती है. इनके उपन्यास औपन्यासिक कल्पना के आलोक में यथार्थ को पुनर्विन्यस्त कर एक नये और अप्रत्याशित यथार्थ को जन्म देते हैं. जब मैं यह कह रहा हूँ कि हिन्दी उपन्यास ने कल्पनाशीलता को वह भूमिका नहीं निभाने दी जिसकी वह हक़दार है, मेरे कहने का आशय यह था कि हिन्दी में ऐसे बहुत कम उपन्यास लिखे गये हैं जिनमें उपन्यासकार अपनी कल्पनाशीलता के सहारे अपने चारों ओर के या उससे अधिक व्यापक यथार्थ को रूपान्तरित करते हों.
आनन्द के पिछले दोनों ही उपन्यासों में यह रूपान्तरण बेहद खूबसूरती से सम्भव हुआ है. आनन्द उपन्यास कहते नहीं, वाक्य-दर-वाक्य उसे बेहद महीन बुनते हैं. चूँकि यह बुनायी हमारी आँखों के सामने सम्पन्न होती है, हम खुद भी पूरी उत्सुकता के साथ उस बारीक प्रक्रिया का अंग बन जाते हैं. लेकिन तब भी उपन्यासकार की तरह ही हमें देर तक पता तक नहीं चलता कि उनकी इस बुनायी के फलस्वरूप कौन-सा रूप या घटना अचानक हमारे सामने आ जाएँगे. ऐसे लेखन में पाठक की प्रत्याशा इतनी तीव्र इसलिए रहती है क्योंकि खुद उपन्यासकार के लिए भाषा किसी बने बनाये या पहले से खोजे जा चुकी सत्य के वहन करने का साधन न होकर, सत्य तक जाने का अनिश्चित मार्ग हुआ करती है. इस लेखन में अप्रत्याशित का पूरी धीरज से इन्तज़ार किया जाता है, उसे प्रकट करने भाषा पर दबाव नहीं डाला जाता. अधीर पाठक इस धीरज से परेशान हो सकता है पर अगर वह अपने को थामे रख सका/सकी, उसे किसी न किसी अप्रत्याशित दृष्टि का चमकता उपहार मिलना पक्का है.
आनन्द के पिछले उपन्यास ‘चिड़िया बहनों का भाई’ ग़रीब परिवार की कहानी बुनते-बुनते धीरे-से ऐसी छलांग लेता है कि वह लगभग पौराणिक ऊँचाइयों पर जा पहुँचता है. यह वह जगह है जहाँ आनन्द छत्तीसगढ़ के विलक्षण नाट्य रूप ‘नाचा’ की उत्पत्ति का मिथक रच देते हैं. वे नाचा के वर्तमान को अतीत में ले जाकर उसे अपनी कल्पना के सहारे इस तरह रचते हैं कि उसके अस्तित्व में आने की कथा को अपनी तरह से कह सकें.
निर्मल वर्मा ने अपने लेख ‘कला, मिथक और यथार्थ’ में लिखा है कि कला अपने उदात्तम क्षणों में मिथक होने का स्वप्न देखती है. ‘चिड़िया बहनों का भाई’ में कला का यह स्वप्न बहुत हद तक पूरा होता लगता है. यह उपन्यास एक स्तर पर आवेगमय प्रेम कथा है, एक दूसरे स्तर पर यह अकेले ग़रीब लड़के भुलवा के और अधिक अकेले होते जाने की दास्तान है. यह सब लगभग स्वयं इन्द्रिय हो गयी भाषा में चरितार्थ होता है.
चन्द्रमा देख रहा है विराजो के सुन्दर-सुडौल स्तन और नंगी हो गयी जाँघें सुन्दर-सुडौल. थोड़ी ही देर देख पाया चन्द्रमा, फिर उसे भुलवा की देह एक धब्बे की तरह नाचती दिखी विराजो की देह के ऊपर. इस तरह चन्द्रमा ने पहली बार विराजो को देखते हुए यह देखा कि कैसे स्त्री की देह बदल जाती है चन्द्रमा में. स्त्री-चन्द्रमा. देखा कि धरती पर कैसे उगता है एक चन्द्रमा. कैसे धरती आसमान हो जाती है. धरती में अचानक उग आए चन्द्रमा पर कैसे उभरता है एक धब्बा. उभरते धब्बे को कैसे ग्रहण करता है धरती का चन्द्रमा. धरती का चन्द्रमा जैसे उभरे धब्बे को पूरी तरह समा लेना चाह रहा हो अपने भीतर. धरती में उग आए चन्द्रमा को मुग्ध होकर देख रहा है आकाश का चन्द्रमा… इस उपन्यास का इस आवेगमय प्रेम से अलग एक और स्तर है जहाँ भुलवा, चिड़िया बहनों का भाई संयोग से खुद को महादेव शिव की दिव्य उपस्थिति में पाता है.
यह उपन्यास इस जगह पहुँच कर देवलोक और मनुष्य लोक के बीच के अन्तराल को औपन्यासिक आकाश में कुछ देर के लिए मिटा देता है. महादेव शिव अब अन्य लोक के वासी न रह जाकर उसी लोक में उपस्थित हो जाते हैं जिसमें भुलवा जैसे साधारण मनुष्य रहा करते हैं (लेकिन क्या ऐसा एक भी मनुष्य हमारी पृथ्वी पर है या हुआ है जो साधारण हो?). यह संयोग नहीं कि देव लोक और मनुष्य लोक के बीच के इस अन्तराल का समाप्त होना उपन्यास में एक पर्वत पर होता है. यह पर्वत पौराणिक कैलाश पर्वत नहीं है जिस पर महादेव शिव का वास माना जाता है. यहाँ यह पर्वत ‘चिड़िया बहनों के भाई’ भुलवा के गाँव के पास का पर्वत है. इस पर्वत की सिर्फ़ यह विशेषता है कि उस पर दो सरोवर हैंः सोनई और रुपई. इन दो सरोवरों से सज्जित इस पर्वत में ऐसा कुछ नहीं है जिसे अलग से दिव्य कहा जा सके. लेकिन आनन्द इस पर्वत को कुछ इस तरह बुनते हैं कि हम उसमें दिव्यता की आसन्नता महसूस करने लगते हैं. हमें यह लगने लगता है मानो यह पर्वत ही कैलाश हो, मानो हर पर्वत में ‘कैलाश-तत्त्व’ अन्तर्भूत हो जिसे कुशल उपन्यासकार सतह पर ले आता हो. यह पढ़ते हुए मुझे अर्जेन्टाइना के महान लेखक जार्ज लुई बोर्खेज़ की कहानी ‘पैरासेल्सस का गुलाब’ के नायक का एक वक्तव्य याद आया. यह नायक प्रसिद्ध एल्केमिस्ट पैरासेल्सस है. जब इसके पास एल्केमी विद्या को सीखने की इच्छा लिए एक युवक पैरासेल्सस पर अविश्वास के कारण लौट जाता है, पैरासेल्सस दुःखी होकर खुद से यह कहता है, ‘यह न देख पाना कि यह संसार ही जन्नत है, दरअसल दोज़ख है!’
‘चिड़िया बहनों का भाई’ में बुना हर स्थान दिव्यता की आसन्नता से स्पन्दित है. वहाँ यह व्यंजित है कि देव लोक और कहीं नहीं, हमारे आसपास ही हैं. यहाँ देवलोक कोई धार्मिक लोक न होकर वह अवकाश है, वह स्पेस है जहाँ कलाएँ अपनी सम्पूर्ण आभा में उद्घाटित होती हैं. दूसरे शब्दों में ये वे स्थान हैं जहाँ सत्य परोसे नहीं जाते, जहाँ उन्हें खोजने के मार्ग उद्घाटित किये जाते हैं.
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‘देखना’ आनन्द हर्षुल का नया उपन्यास है. यह अपेक्षाकृत कम पृष्ठों की कृति है. पर इसमें जितनी सघन करुणा व्याप्त है, हिन्दी के बहुत कम उपन्यासों में मिलती है. यहाँ यह कहते चलें कि आनन्द अपने उपन्यासों और कहानियों को कविता के बहुत पास रखकर चलते हैं. यह उनका गद्य कौशल है कि वे उसे न तो लद्दड़ होने देते हैं और न ही उसे पूरी तरह कविता में फिसलने का अवसर देते हैं.
आनन्द का गद्य पढ़ते हुए आपको उसमें कहीं बहुत गहरायी से कविता का आलोक उठता हुआ महसूस होता है. मानो कविता की रौशनी में आनन्द का गद्य आकार ले रहा हो. यह बात जितनी ‘देखना’ के साथ सही है, उतनी ही ‘चिड़िया बहनों का भाई’ समेत आनन्द की अन्य कृतियों के साथ भी है. वे न तो अपने गद्य को इतना पारदर्शी बनाने का प्रयास करते हैं कि उसके माध्यम से यथार्थ के ज्यों-के-त्यों दर्शन हो सकें और न ही वे उसे इतना अधिक काव्यात्मक होने देते हैं कि उसमें वर्णित संसार महज प्रतीक होकर रह जाये और इस प्रक्रिया में अपनी ऐन्द्रिकता खो दे.
‘देखना’ देखने के सुख और देखने की पीड़ा के बारे में है. यह देखने के जादू और उसकी सीमा को चिह्नित करता है. यह उपन्यास एक ऐसे बच्चे की कहानी है जिसकी आँखों में बचपन से ही ज्योति नहीं है. उपन्यास में इसका कारण आनुवंशिक बताया गया है. यानी बच्चा, छुटकू-अन्धा जन्म से ही अन्धा है. सम्भवतः उसके शरीर में आँखों की ज्योति की ‘जीन’ नहीं है. उसकी माँ आँख वाली है पर पिता की आँखें वीरान हैं. उसकी माँ ही इस छोटे-से परिवार की आँखें है. उसी की आँखों से छुटकू-अन्धा और उसका पिता जितना भी देख सकते हैं, संसार देखते हैं. यह परिवार एक छोटे शहर के प्लेटफॉर्म पर रहता है. आनन्द ने इस उपन्यास में प्लेटफॉर्म पर गुज़रने वाले जीवन को जितनी गहरायी से देखा है, उसका जितना विशद् वर्णन किया है, मैंने कहीं और नहीं पढ़ा.
‘देखना’ को पढ़ते हुए आप यह महसूस करते हैं कि जीवन हज़ारों-लाखों तरह से प्रस्फुटित हो सकता है. ग़रीबी में बीतता जीवन मानो किसी विशाल शिला के नीचे उगी घास हो जो किसी-न-किसी तरह अपने को जीवित रखने का रास्ता खोज ही लेती है. प्लेटफॉर्म पर जीवन बिताते भिक्षार्थी रेलगाड़ी आने पर खिड़की-दर-खिड़की भीख माँगते हैं, कुछ पलों के लिए उनके भीख देने या न देने वालों से रिश्ते बनते हैं, फिर रेलगाड़ी चल पड़ती है, जो भी क्षणिक रिश्ते बने थे, टूटकर बिखर जाते हैं. भिक्षार्थी वापस किन्हीं अभिनेताओं की तरह अपनी-अपनी निर्धारित जगहों पर लौट जाते हैं और अगली गाड़ी का इन्तज़ार करने लगते हैं.
कहने को तो ‘देखना’ में वर्णित यह रेलवे प्लेटफाॅर्म का जीवन है पर क्या इस पृथ्वी पर आधुनिक मनुष्य का हर तरह का जीवन ऐसा ही नहीं है? मानो समूची ज़िन्दगी ही प्लेटफॉर्म पर बिताया गया वक़्त है. हमारा आपका घर प्लेटफॉर्म पर बनी बैंचो से ज़्यादा और है भी क्या. अमरीका के प्रसिद्ध डिज़ाइनर बर्कमिन्स्टर फुलर ने यह पूछे जाने पर कि अन्तरिक्ष यान में कैसा अनुभव होता है, कहा था कि हमारी पृथ्वी भी अन्तरिक्ष यान ही है. आपको यहाँ जो लग रहा है, वह अन्तरिक्ष यान पर हुआ अनुभव ही है.
यदि इस प्रश्नोत्तर को हम ‘देखना’ उपन्यास के सन्दर्भ में देखें, हमें कहना होगा कि हम सब का जीवन अलग-अलग तरह के प्लेटफॉर्म पर बिताया हुआ जीवन ही है. कोई किसी प्लेटफॉर्म पर जी रहा है, कोई किसी. इस उपन्यास की खूबसूरती इस बात में है कि यह आभास कि हमारी ज़िन्दगी भी प्लेटफॉर्म पर ही बितायी हुई ज़िन्दगी है, इससे सीधे-सीधे व्यक्त नहीं होता. यह केवल तब होता है जब हम इसे पढ़ने में अपनी कल्पना का उसी शिद्दत से निवेश करें जितना उपन्यासकार ने उसे लिखते हुए किया था. दूसरे शब्दों में यह उपन्यास अपने को किसी भी हाल में अन्योक्ति की तरह प्रस्तुत नहीं करता. उसे पढ़ने की प्रक्रिया में जो बदलाव हमारी दृष्टि में होते हैं उसी के कारण हमें अपना जीवन प्लेटफॉर्म पर बिताया-सा लगने लगता है और हम अपने जीवन को एक बिल्कुल नये कोण से देखने को बाध्य हो जाते हैं.
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प्लेटफॉर्म पर रहते भिक्षार्थियों की ग़रीबी और बदहाली से घिरे जीवन में छुटकू-अन्धा का देख न पाना इस उपन्यास में एक ऐसी गहरी करुणा का संचार करता है जो उपन्यास के पहले पन्ने से लेकर आख़िरी वाक्य तक तानपूरे की तरह स्पन्दित होती रहती है. न देख पाने का एकान्त कैसा और कितना विशाल होता है इसका कुछ-कुछ अहसास इस उपन्यास को पढ़ कर होता ही है. छुटकू-अन्धे के लिए प्लेटफॉर्म का अंधेरा जेल के अंधेरे से अलग नहीं होता. चाहे प्लेटफॉर्म हो या जेल छुटकू-अन्धे के लिए ये दोनों ही जगह अन्धकार का अटूट सिलसिला ही हैं. लेकिन इसके साथ ही हमें यह अनुभव भी होता चलता है कि एक इन्द्रिय (देखना) के अभाव में सारा जीवन अर्थहीन नहीं हो जाता. उसका स्वरूप अवश्य बदल जाता है पर उसकी अर्थवत्ता और उसमें तरह-तरह की संवेदनाओं की सम्भावना कम नहीं होती.
छुटकू-अन्धा के युवक होने पर प्लेटफॉर्म पर ही भीख माँगने वाली एक लड़की से उसका इतना सूक्ष्म आत्मीय सम्बन्ध विकसित होता है जो किसी भी व्यक्ति के लिए उपलब्धि ही कही जायेगी. इन दोनों के बीच के इस प्रेम को इतनी बारीकी से आनन्द ने लिखा है कि उसे पढ़ कर कुछ ऐसा महसूस होता है जैसे आप बेहद डूब कर गाया गया कोई शाम का राग सुन रहे हों. इस सम्बन्ध की भंगुरता को आनन्द ने ऐसी कुशलता से साधा है कि उसे पढ़ते हुए पाठक लगभग प्रार्थना करता है कि कैसे भी वह भंगुरता चरितार्थ न हो जाये. यहाँ यह कहना शायद अनावश्यक हो कि जितना भी कोई सम्बन्ध भंगुर होगा, वह उतना ही गहन और अर्थपूर्ण होगा, उसे उतनी ही अधिक जीवन और मृत्यु की परछाईयाँ अलंकृत करेंगी.
‘देखना’ में अन्धे-छुटकू की प्लेटफॉर्म से जेल तक की यात्रा भले ही एक अँधेरे से दूसरे अँधेरे का सफ़र हो, इसमें कदम-कदम पर संवेदनाओं के मोड़, हमें क्षण भर को भी उदासीन नहीं होने देते. हम ‘देखना’ के ‘न देखने’ को पल-पल घटते हुए देखने की प्रत्याशा में निरन्तर इसे थामे रखते हैं.
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भारतीय काव्यशास्त्र में यह इशारा मिलता है कि भक्ति और वात्सल्य का श्रृंगार रस में समावेश है. अगर श्रृंगार रस को एक स्केल मान लिया जाए तो उसके एक छोर पर वात्सल्य होगा दूसरे पर स्त्री-पुरुष के प्रेम वाला श्रृंगार. भक्ति बीच में कहीं होगी. ‘देखना’ में श्रृंगार रस के दोनों छोर अपनी ओजस्विता में प्रकट होते हैं. एक ओर छुटकू-अन्धा और मुन्नी का ओस बूँद सा काँपता प्रेम आकार लेता है दूसरी ओर छुटकू-अन्धे की माँ व छुटकू-अन्धे और मुन्नी का अपने-अपने बच्चों के प्रति अनुराग प्रस्फुटित होता है. ऐसा कम होता है कि श्रृंगार रस के स्केल के इन दोनों छोरों को इस सुन्दरता से रूपायित किया जाए, जैसा ‘देखना’ में हुआ है. वात्सल्य में विरह की पीड़ा उसी तीव्रता से उद्घाटित होती है जितनी ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में काण्व मुनि व्यक्त करते हैं, जब वे कहते हैं कि शकुन्तला के वियोग का मुझ जैसे आश्रमवासी को इतना कष्ट हो रहा है, अपनी बेटी की विदाई पर गृहस्थों की पीड़ा का कहना ही क्या. ‘देखना’ उपन्यास के न देखने के अन्धकार में श्रृंगार रस के ये दोनों छोर दो चन्द्रमाओं की तरह चमकते हैं और हमारे चारों ओर गाढ़ी उजास बिखेर देते हैं.
उदयन वाजपेयी जन्म : 4 जनवरी, 1960; सागर, मध्य प्रदेश प्रकाशित पुस्तकें : ‘कुछ वाक्य’, ‘पागल गणितज्ञ की कविताएँ’, ‘केवल कुछ वाक्य’ (कविता-संग्रह); ‘सुदेशना’, ‘दूर देश की गन्ध’, ‘सातवाँ बटन’, ‘घुड़सवार’ (कहानी-संग्रह); ‘चरखे पर बढ़त’, ‘जनगढ़ क़लम’, ‘पतझर के पाँव की मेंहदी’ (निबन्ध और यात्रा वृत्तान्त); ‘अभेद आकाश’ ( फ़िल्मकार मणि कौल); ‘मति, स्मृति और प्रज्ञा’ (इतिहासकार धर्मपाल), ‘उपन्यास का सफ़रनामा’ (शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी), ‘विचरण(दार्शनिक नवज्योत सिंह), ‘कवि का मार्ग’ (कवि कमलेश), ‘भव्यता का रंग-कर्म’ (रंग-निर्देशक रतन थियाम), ‘प्रवास और प्रवास’ (उपन्यासकार कृष्ण बलदेव वैद); का.ना. पणिक्कर पर ‘थियेटर ऑफ़ रस’ और रतन थियाम पर ‘थियेटर ऑफ ग्रेंजर’; वी आँविजि़ब्ल (फ्रांसीसी में कविताओं के अनुवाद की पुस्तक); ‘मटमैली स्मृति में प्रशान्त समुद्र’ (जापानी कवि शुन्तारो तानीकावा के हिन्दी में अनुवाद); कविताओं, कहानियों और निबन्धों के अनुवाद तमिल, बांग्ला, ओड़िया, मलयालम, मराठी, अंग्रेज़ी, फ्राँसीसी, स्वीडिश, पोलिश, इतालवी, बुल्गारियन आदि भाषाओं में ‘समास’ का सम्पादन. कुमार शहानी की फ़िल्म ‘चार अध्याय’ और ‘विरह भर्यो घर-आँगन कोने में’ का लेखन. कावालम नारायण पणिक्कर की रंगमंडली ‘सोपानम्’ के लिए ‘उत्तररामचरितम्’, ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ की हिन्दी में पुनर्रचना, पणिक्कर के साथ कालिदास के तीनों नाटकों के आधार पर ‘संगमणियम्’ नाटक का लेखन. 2000 में लेविनी (स्वीट्ज़रलैंड) में और 2002 से पेरिस (फ्रांस) में ‘राइटर इन रेसिडेंस’, 2011 में नान्त (फ्रांस) में अध्येता के रूप आमंत्रित. मई 2003 में फ्रांस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में भारतीय कवि की हैसियत से व्याख्यान वाराणसी, भुवनेश्वर, पटना, मुम्बई, दिल्ली, पेरिस, मॉस्को, जिनिवा, काठमांडू आदि स्थानों पर कला, साहित्य, सिनेमा, लोकतंत्र आदि विषयों पर व्याख्यान. ‘रज़ा फ़ाउंडेशन’, ‘कृष्ण बलदेव वैद पुरस्कार’ और ‘स्पंदन कृति सम्मान’ से सम्मानित. गाँधी चिकित्सा महाविद्यालय, भोपाल में अध्यापन |
उदयन जी ने बहुत बढ़िया लिखा है, चिड़िया बहनों का भाई, के भी कई आयाम मेरे लिए खुले, देखना उपन्यास की प्रतीक्षा रहेगी
कविता और उपन्यास की वैचारिकता को समग्र रूप से प्रतिपादित करते जब उदयन कामायनी को पद्य उपन्यास घोषित करते हैं जो तर्कसंगत और मूल भावना को उद्घाटित करता है जिसे उन अकादमिक विद्वानों ने इसे बारम्बार महाकाव्य से मण्डित ( महिमा नहीं) किया है दरअसल वह अधूरी और लगभग अवांछित कोशिश भर है.
अधिकांश उपन्यास के लिक्खाड़ों के अखाड़ों ने गफ़लत में,जल्दबाज़ी में,किश्तों में छपने की स्वादिष्ट प्रतीति में लिखते रहे और वे चुनाँचें ‘ गज़ेटियर ‘ होते गये.
इससे हटकर अंधेरे में रौशनी फैलाते सच्चाई ( यथार्थ) को केंद्र में रखकर लिखे गये हैं वे उपन्यास कम ज़रूर हैं लेकिन हाथ ठेलों में भरे पड़े उपन्यासों के विरुध्द जीवन्तता का असली संसार निरूपित करते हैं-यही वजह है कि वे चिरंजीव हैं.
उदयन ने उपन्यास और कविता के वृहत फलक को अपने इस लेख में रामायण महाभारत से लेकर रघुवंश और कई पीढ़ियों के अंतराल को उल्लेखित करते आज के कवियों तक की गहन-यात्रा करते कराते हैं.
उदयन एक साफ़गोई दृष्टि के सर्जक हैं. उनके कई विचारोत्तेजक लेख, नोट्स, साक्षात्कार, समीक्षा के साथ-साथ वे बेबाक़ संपादक के रूप में जगज़ाहिर हैं.
वे खुद इस सदी के ( अपने आप से निर्मम वार्तालाप करते ) अत्यंत महत्वपूर्ण कवि, उपन्यासकार,कहानीकार,अनुवादक तो हैं ही साथ ही साथ वे विविध कलाओं के मर्मज्ञ (मर्मस्पर्शी ) हैं.
आनन्द हर्षुल पुनर्विन्यस्त अप्रत्याशित उपन्यास रचयिता हैं. उनकी बुनायी अचानक आकर हमसे ( पाठकों) अन्तर्निहित संवाद करने लगती है और अधीरता और धैर्यता के पुल पर वे छोड़ देती हैं,जहाँ भाषा का उदात्तत्व मुखरित होकर भटकनें नहीं देता. उनकी भाषा, शिल्प हमें जो कविता की तरह बल्कि कविता ही है के वातायन में स्पन्दित होकर एकाग्र छोड़ देती है.
आनंद जी के उपन्यासों की उजास और उसे प्रकाशित करने वाला उदयन का यह समीक्षात्मक आलेख अद्भुत है- पढ़ने को ( इस अकाल समय में ) जब अच्छा मिल रहा है तो पढ़ना चाहिए- ये सिर्फ़ विनम्र आग्रह है.
वंशी माहेश्वरी
बोर्हेज़ की कहानी का संदर्भ लड़खड़ा गया है. पारासेल्सस कि यह उक्ति दोजख़ के बारे में नहीं बल्कि fall या पतन के बारे में हैं. याद दिला दूँ कि पतन या स्वर्ग से निष्काषन पश्चिमी मध्य-युगीन विचार में मनुष्य की यातना का उत्स है. और, बोर्हेज़ की कहानी में, यह ख़ुदकलामी नहीं बल्कि एक प्रश्न है उस युवक से जो पारासेल्सस का शिष्य बनने का आकांक्षी है. वह युवक जब अड़ियल लहजे में कहता है कि हम स्वर्ग में नहीं हैं, चाँद तले सब नश्वर है. तब पारासेल्सस भड़क कर कहता है – ” तो हम कहाँ हैं? क्या तुम सोचते हो कि ईश्वर स्वर्ग के अलावा भी कुछ बना सकता है? क्या तुम्हें लगता है कि हम स्वर्ग में रहते हैं, इस तथ्य से अनजान रहने से सिवा भी पतन कुछ होता है? ”
बाक़ी उदयन वाजपेयी की बातों से संगीन इख़्तिलाफ़ हैं. ्
ऐसी आलोचना का सुख यह भी है कि यह गहन अंतर्दृष्टि के साथ साथ ऐन्द्रिकता की प्रतीति देती है और अच्छी खासी आख्यानात्मक युक्तियों को भी प्रस्तावित करती है। एक तरह की समानांतर टेक्स्ट जो उस कृति जितना ही आनंद देती है जिसपर मनन किया जा रहा है।
साथ में यह भी कि ऐसे पाठ में सैद्धांतिक बिन्दु भी प्रस्फुटित होते हैं, लेकिन जो कभी रूढ़ न होने की कैफ़ियत भी लिए रहते हैं।
आनन्द हर्षुल के उपन्यासों पर केन्द्रित उदयन वाजपेयीका आलेख वृहत् सन्दर्भों को समेटे हुए बारीक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। किनु उनका यह कहना भी कि’ महाकाव्य समुदायों के बारे में होता है जबकि उपन्यासका केन्द्र समुदाय से अलग हुआ व्यक्ति होता है’ भी साहित्य की विधा विशेष को परिभाषाओं में बाँधना है | अब हर विधा नेअपने में विजातीय विधाओं को स्वीकार कर लिया है ।पाठकों ने भी उन्हें विजातीय मानकर उन्हें अस्वीकार नहीं बल्कि स्वीकार किया है।
आभार उदयन जी और अरुण देव जी, आनंद हर्षुल के उपन्यासों के बहाने उपन्यास की संरचना पर भी बिल्कुल नए दृष्टिकोण के लिए। सुंदर आलोचना।
उदयन जी की आलोचना हमेशा ही पठनीय, मननीय, रोचक और सृजनात्मक स्फुरण देने वाली होती है।
आनंद हर्षुल के प्रकाशनाधीन उपन्यास ” देखना ” के संदर्भ में उदयन जी का यह लेख महत्वपूर्ण है।आनंद की औपन्यासिक संरचना अलहदा है।
सुन्दर विश्लेषण।
उदयन जी से पाठ और लेखन के औचित्य पर बहुत कुछ समझने मिलता है।
आनन्द जी का लेखन अद्भुत है।
उदयन जी की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि उपन्यास कविता का विस्तार है, पर इस नाते कहानी से उसका कोई वास्ता नहीं, एक गलत धारणा को स्थापित करने की कवायद भर है । अगर उनका तात्पर्य केवल महाकाव्यात्मक काव्य मात्र से है तो उस अर्थ में उपन्यास को कविता का विस्तार कहा जा सकता है। क्योंकि महाकाव्य में कोई न कोई कथा अथवा कहानी होती ही है । इसलिए कथा उसके केंद्र में है । बाक़ी पद्य और गद्य का अंतर तो निराला ही बता गए हैं कि गद्य जीवन – संग्राम की भाषा है । उपन्यास उनकी इस परिभाषा के नज़दीक बैठता है ।
वस्तुतः उपन्यास अपने पूर्व के तीनों साहित्य रूपों कविता, कहानी और नाटक का मिला जुला महाकाव्यात्मक विकास है । विस्तार और विकास के फर्क को भी समझना चाहिए ।
उदयन वाजपेयी जिस अर्थ में आधुनकितावादी साहित्यिक विचार – दृष्टि के हिमायती हैं, वह विचार दृष्टि तो शुरू से ही कहानी विरोधी विचार दृष्टि रही है । उस पर अलग से विस्तार में बातचीत की जा सकती है । बहरहाल, आनंद हर्षुल को उनके नए उपन्यास के लिए बधाई ।
आनन्द हर्षुल जी के उपन्यास ‘ देखना’ के सन्दर्भ से उदयन जी ने कहानी और उपन्यास विधा पर अत्यन्त मौलिक विचार किया है, जो चिन्तन के लिए प्रेरित करता है। आलेख की भाषा तो अद्भुत है ही। ‘ देखना’ के प्रकाशित होने की प्रतीक्षा बनी हुई है। आनन्द जी को बहुत बहुत बधाई । अरुण जी को साधुवाद।
सबसे पहले आलोचना की भाषा में इतनी कविता पढ़कर मन उत्सुक हो गया। कामायनी को उपन्यास के रूप में जानकर उसके एक नए सौंदर्य की प्रतीति हुई।
आनंद हर्षुल जी के उपन्यास पढ़ने के लिए मन जिज्ञासु हो गया। उदयन जी और अरुण देव जी आप दोनों ही के प्रति आभार।