मुहमद कबि कन्हावत गाये मलिक मुहम्मद जायसी कृत ‘कन्हावत’ का कथा रूपांतर . माधव हाड़ा |
(‘कन्हावत’ मलिक मुहम्मद जायसी (1492-1576 ई.) की अल्पचर्चित, लेकिन बहुत महत्त्वपूर्ण रचना है, जो कृष्ण कथा पर आधारित है. जायसी के रचना कर्म में ‘पद्मावत’ की वर्चस्वकारी मौजूदगी के कारण इसकी चर्चा हिंदी में नहीं के बराबर हुई. जायसी की रचनाओं की नाम सूची में इसका उल्लेख ‘घनावत’ के रूप में मिलता है. ‘कन्हावत’ का ‘घनावत’ के रूप में उल्लेख सबसे पहले गार्सां द तासी (1794-1878 ई.) ने तीन भागों में प्रकाशित अपने प्रसिद्ध इतिहास ग्रंथ ‘इस्त्वार द ला लितरेत्यूर ऐंदुई ऐं एंदोस्तानी’ (1839, 1847 एवं 1871 ई.) में किया. दरअसल उनको यह भ्रांति फारसी में वर्णों के उच्चारण वैविध्य के कारण हुई. ‘कन्हावत’ की रचना के समय के संबंध में अंतःसाक्ष्य उपलब्ध है. जायसी ने इसमें एक स्थान पर लिखा है कि- “सन नौ सै सत्यारस अहि. तहिया सरस बचन कवि कही.” यहाँ परमेश्वरी लाल गुप्त ने ‘सत्यारस’ का पाठ ‘सैतारिस’ कर के इसकी रचना का समय 947 हिज़री (1540-41 ई.) मानते हुए इसको ‘पद्मावत’ से पहले की रचना और हिंदी का ‘आदि कृष्ण काव्य’ कहा है. ‘कन्हावत’ में शाहे वक़्त हमायूँ का भी उल्लेख है. लिखा गया है कि- “देहली कहौं छत्रपति नाऊँ. बादशाह बड़ शाह हमायूँ.” इतिहासकारों के अनुसार हमायूँ 937 हिज़री में सत्तारूढ हुआ, 962 हिज़री में शेराशाह से परास्त होने के बाद 16 वर्षों तक पदच्युत रहा और 962 (1554-55 ई.) हिज़री के आसपास पुनः सत्तारूढ़ हुआ. रचना के अंतःसाक्ष्य की पुष्टि हमायूँ के इस समय से भी हो जाती है. ‘कन्हावत’ का रचना विधान भारतीय इस्लामी सूफ़ी प्रबंध काव्यों का रचना विधान है. ‘पद्मावत’ की तरह इसमें भी प्रत्येक कड़वक में सात यमक और उसके बाद एक घत्ता है. ईश्वर और मुहम्मद साहिब की स्तुति, चार यार, शाहे वक़्त, पीर-गुरु और नगर वर्णन जैसे विधान इसमें भी हैं. यहाँ कृष्ण कथा में निरंतरता है, इसका ‘पद्मावत’ की तरह खंडों में विभाजन नहीं है. ‘कन्हावत’ की कृष्ण कथा का स्रोत कुछ हद तक पौराणिक है, लेकिन यह पौराणिक कथा लोक से होकर जायसी के यहाँ आयी है. जायसी ने लिखा भी है कि- “कातिक मँह जो परत देवारी. गावहि अहिर कथिकै मारी॥ जायसी की कृष्ण कथा कहीं पुराण से मिलती है और कहीं इससे अलग भी हो जाती है. लोक प्रचलन अनुसार कृष्ण को इसमें कन्ह, राधा को राही और देवकी को देवइ कहा गया है. शुक्र और नारद, दोनों इसमें कंस के मंत्री हैं और शुक्र को ‘सुक’ कहा गया है. ‘पद्मावत’ में जैसे पद्मिनी और नागमती में प्रतिद्वंद्विता है, वैसे ही इसमें राधा की प्रतिद्वंद्वी, उसके जैसी ही सुंदर चंद्रावली है. पौराणिक कृष्ण कथा में चंद्रावली जैसा कोई चरित्र नहीं है. चंद्रावली प्रसंग, गोपियों का पवन के साथ संदेश, कृष्ण की गोरखनाथ के सिद्ध शिष्य से भेंट और विवाद, ऋषि दुर्वासा प्रसंग आदि भी पौराणिक कृष्ण कथा में नहीं हैं. जायसी का कुब्जा प्रकरण भी इसमें पारंपरिक और प्रचलित से हटकर है. जायसी के कवि के मूल्यांकन में सभी विद्वानों ने उनके सूफ़ी होने को पर्याप्त और निर्णायक महत्त्व दिया है, लेकिन इस रचना में सूफ़ी आध्यात्मिकता बहुत मुखर और स्पष्ट नहीं है. कथा योजना और जायसी के अपने से वर्णन ऐसा लगता है कि जैसे वे इसमें अवतारवाद और अद्वैतवाद का प्रतिपादन कर रहे हैं. ‘कन्हावत’ की संप्रति एक ही प्रति उपलब्ध हुई है. विख्यात जर्मन प्राच्यविद् एलाय स्प्रेंगर (1813-1893 ई.) 1844 से 1854 ई. तक दिल्ली मुहम्मदन कॉलेज और कलकत्ता मदरसा में रहे और यहाँ से 1856 ई. में लौटते समय 1972 पांडुलिपियाँ अपने साथ ले गए. ‘कन्हावत’ भी इन्हीं पांडुलिपियों में शामिल थी. बाद में यह पांडुलिपि बर्लिन के राजकीय संग्रहालय में चली गयी. पुरातत्त्वविद् डॉ.परमेश्वरी लाल गुप्त ने इसी संग्रहालय से प्राप्त प्रति के आधार पर इसका संपादन किया और 1981 ई. में इसका प्रकाशन (न्नपूर्णा प्रकाशन, बौलिया बाग, राम कटोरा, वाराणसी -212002) हुआ. पांडुलिपि में अक्षर बहुत स्पष्ट नहीं हैं और इसके आरंभिक स्तुति भाग के कुछ अंश भी नहीं हैं. प्रस्तुत कथा रूपांतर इसी संपादित प्रति पर आधारित है.) माधव हाड़ा
|
मथुरा में कंस का एकछत्र राज्य वैसा ही था, जैसा कभी लंका में रावण का था. सभी राक्षस और देवता उससे भयभीत थे और हमेशा उसकी सेवा में तत्पर रहते थे. शुक्र (सुक) और नारद उसके मंत्री थे. यमुना नदी के उस पार गोकुल में अहीरों की बस्ती थी, जहाँ से मथुरा दिखायी पड़ती थी. गोकुल की स्त्रियाँ दूध बेचने मथुरा जाती थीं. एक समय कंस ससैन्य अपनी मृत्यु को खोजने निकला. संसार घूम आने के बाद भी जब उसे अपनी मृत्यु कहीं नहीं मिली, तो उसने अपने मंत्री शुक्र (सुक) को बुलाकर उसकी तलाश करने का आदेश दिया. शुक्र ने उससे कहा कि-
“जैं मारा राम औतारा l सो आँवथ खों करे तुम्हारा॥”
अर्थात् रावण का वध करने वाले राम आकर तुम्हारा भी वध करेंगे.” उसने आगे कहा कि –“यदि मेरी बात पर तुम्हें विश्वास न हो, तो तुम इस संबंध में नारद को भी पूछ सकते हो.”
कंस के पूछने पर नारद ने यही बात दोहरायी. उन्होंने कहा कि तुम्हारा वध करने वाला तुम्हारी बहन देवकी की कोख से जन्म लेगा और वही तुम्हारा वध करने के बाद यहाँ का शासक भी होगा. नारद ने और खुलासा करते हुए विष्णु के विभिन्न अवतारों का ज़िक्र किया और कहा उसका वध करने के लिए भी वही अवतार लेंगे. कंस को यह सुनकर आश्चर्य हुआ. उसे विश्वास नहीं हुआ. उसने पूछा कि-
“एक बार जो अवतरि मरे l सो दूसरे कैसे अवतरे॥”
अर्थात् जो एक बार अवतार लेकर मर गया है, वह दुबारा कैसे अवतार लेगा? उसकी इस जिज्ञासा का समाधान नारद ने किया. नारद ने विष्णु के दस अवतारों का वर्णन उसके सामने किया. अपनी मृत्यु की बात सुनकर कंस क्रुद्ध हुआ और उसने अपनी बहन देवकी को मार डालने का विचार किया. यह सोचकर कि नारी हत्या पाप है, उसने अपना निर्णय बदल दिया और उसने देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाले बालक को मारने का निश्चय किया. उसने देवकी और वसुदेव के पैरों में बेड़ियाँ डाल दीं और उनके आवास पर पहरा बैठा दिया.
कंस के इस अभिमान के संबंध में जब ब्रह्मा ने सुना, तो वे नाराज़ हो गए. उन्होंने विष्णु को बुलाकर उनसे मथुरा में जन्म लेने के लिए कहा. विष्णु ने उत्तर में कहा कि-
“दुख पायों रामा अवतारा l अब नहि अवतरों यहि संसारा॥
अर्थात् रामावतार के दौरान मैंने बहुत कष्ट उठाए, इसलिए अब मैं संसार में फिर अवतार नहीं लूँगा. ब्रह्मा ने उन्हें विश्वास दिलाया कि–
“सोलह सहस गोपिता साजीं l ते सब मैं तो कँह उपराजीं॥
गेह करों पै तोहि सब जोगू l औतरि जगत मानु रस भोगू॥
बैरी केर करसि जनि चिन्ता l जो तैं चहब सो होंहि तुरन्ता॥”
अर्थात् ‘इस बार तुम्हारे भोग-विलास लिए सोलह सहस्र गोपियों की व्यवस्था और तुम्हारे योग्य रस भोग सब प्रबंध होगा. शत्रु की चिंता मत जैसा तुम चाहोगे, तुरंत वही होगा.’ विष्णु
“देखि सरूप इस्तिरी, पुनि माया लपटान l
पाछिल दुख सो बिसरिगा, जग अवतरा आन॥”
अर्थात् सुंदर स्त्रियाँ देख कर विष्णु फिर माया से लिपटकर अपना पिछला दुख भूल गये और उन्होंने संसार दूसरा अवतार ले लिया.
दो |
कंस ने देवकी के सात पुत्रों की हत्या कर दी. उसके आठवें शिशु का जब गर्भ में नवाँ महीना शुरू हुआ, तब एक दिन दुःखी देवकी यमुना के किनारे जाकर रोने लगी. संयोग से उसी समय यमुना के दूसरे तट पर यशोदा आयी. उसे देवकी के रोने की आवाज सुनायी पड़ी. यशोदा ने द्रवित होकर देवकी से उसके रोने का कारण पूछा. देवकी ने उसे बताया कि कंस ने उसके आठ पुत्रों की हत्या कर दी है और जन्म लेते ही वह उसके गर्भस्थ नवें शिशु की भी हत्या कर देगा. देवकी ने मित्रता दिखाते हुए कहा कि-
“पठै दिहसि यह बालक मोरें l आपुन बारि पठवों तोरें॥”
अर्थात् तुम अपने बालक को मेरे पास भेज देना और उसके बदले में मैं अपनी बालिका तुम्हें भेज दूँगी. भाद्रपद माह की अँधेरी रात्रि में विष्णु ने कृष्ण (कन्ह) के रूप में देवकी (देवइ) के गर्भ से जन्म लिया. ब्रह्मा को जब यह बात मालूम हुई, तो उन्होंने निद्रा योग का विधान किया, जिससे बंदीगृह के सभी रक्षक सो गए. देवकी ने अपने पति वसुदेव से निवेदन किया कि-
“किसी भी तरह इस बालक को बचा लो. गोकुल के नन्द महर की पत्नी यशोदा से मेरी मित्रता है और उसने मुझे मेरा बालक लेकर बदले में अपना बालक देने का वचन दिया है. आप तत्काल इसे वहाँ पहुँचा दो, नहीं तो सुबह होते ही कंस इसकी हत्या कर देगा.”
वसुदेव तत्काल बालक को लेकर यमुना के किनारे गए. यमुना बहुत बढ़ी हुई थी और उसका आर-पार कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता था. यह देखकर वसुदेव पहले तो दुविधा में पड़ गए और फिर यह सोचकर कि या तो पार जाऊँगा या डूब जाऊँगा, यमुना में उतर गए. उनको यमुना पार करने में कोई मुश्किल नहीं हुई. वे यमुना पार कर गोकुल आ गए और अपने नवजात शिशु को लेकर नन्द महर के घर पहुँचे.
संयोग से उसी समय यशोदा ने एक पुत्री को जन्म दिया था, इसलिए घर के सभी लोग जगे हुए थे. वसुदेव ने नन्द के घर पहुँचकर आवाज़ लगायी. उनकी आवाज़ सुनकर नंद बाहर आए और वसुदेव को बालक सहित अपने घर के भीतर ले गए. उन्होंने यशोदा के वचन के अनुसार अपनी शिशु कन्या वसुदेव को देकर उनसे बालक ले लिया. नंद वसुदेव को यमुना के तट तक पहुँचाने आए. वसुदेव को नाव पर बैठा कर वे लौट गए. वसुदेव सकुशल अपने घर आ गए. उनके घर पहुँचने के बाद रक्षकों की नींद टूटी और शिशु बलिका भी रोने लगी. बालिका के रोने की आवाज सुनते ही रक्षकों ने कंस को इसकी सूचना दी. उसने शिशु को तत्काल उसने अपने पास लाने का आदेश दिया. बालिका को जब वहाँ लाया गया, तो कंस ने उसे छीनकर शिला पर पटक दिया. बालिका वज्र बनकर आकाश में उड़ गयी. आकाश में पहुँच कर उसने कंस से कहा कि-
“तुम्हारे शत्रु ने अन्यत्र जन्म ले लिया है.”
यह सुनकर कंस चिन्तित हुआ और उसने शुक्र से अपने बचाव का उपाय पूछा.
सुबह होते ही गोकुल में यशोदा के पुत्र होने का समाचार फैल गया. सर्वत्र आनन्द-उत्सव होने लगे. ब्राह्मणों ने आकर आशीर्वाद दिया. तीसरे दिन लोगों की दावत हुई और पाँचवें दिन रात्रि जागरण हुआ और घर-घर पकवान बाँटे गए. छठे दिन पंडित बुलाए गए, जिन्होंने पत्रा देखकर कहा कि-
“नहपा विस्नु भा संसारा l अब अपनाँ कीन्हा अवतारा॥”
अर्थात् यह विष्णु ने संसार में का अवतार लिया है. उन्होंने यह भी कहा कि-
“राज करिह यह मँदिर में, अस है लग्न सँजोग l
सोरह सहस गोपिता, तिंह संग मानहि भोग॥”
अर्थात् यह राज्य का शासक होगा और सोलह सहस्र गोपियों के साथ भोग-विलास करेगा. साथ ही यह भी कहा कि गोकुल में घर-घर पद्मिनी जैसी रूपवान गोपियाँ जन्म लेंगी उन्होंने यह भी कहा कि
“राम रूप हुत सीता, कन्ह रूप तेहि राहि I
अस रुपवन्ति अवतरी, जगत सराहे ताहि॥”
अर्थात उनमें, जिस प्रकार राम के लिए सीता थीं, उसी प्रकार एक सबसे विशिष्ट एक राधिका (राही) होगी और उसके विशिष्ट रूप की सराहना संसार करेगा.
तीन |
एक रात्रि जब कंस शयन कर रहा था, तो उसने स्वप्न में देखा कि एक व्यक्ति बाँसुरी बजाता हुआ आया और उसने उसके ऊपर चढ़ कर हुँकार की. कंस इससे भयभीत हो गया और उसके मुँह से आवाज़ तक नहीं निकली. काल रूप वह व्यक्ति क्रोधित होकर अदृश्य हो गया. कंस रात्रि भर सो नहीं पाया. सुबह होते ही उसने शुक्र को बुलवाया और उसे रात्रि में देखे स्वप्न का वृत्तांत सुनाया. शुक्र ने वृत्तांत सुनकर कृष्ण के अवतार लेने की बात कही और सलाह दी कि यदि उगते हुए पौधे को तत्काल नहीं उखाड़ा नहीं गया, तो फिर वह वृक्ष बन जाएगा और फिर उसको उखाड़ना मुश्किल हो जाएगा. नारद ने कंस को कृष्ण के गोकुल पहुँच जाने और उनके नन्द के घर होने की बात भी बतायी. उसने सुझाव दिया कि वहाँ कोई ऐसी धाय भेजी जाए, जो अपने विष लगे स्तन को बालक के मुख में दे, तो वह मर जाएगा. कंस ने तत्काल राक्षसियों को बुलवाया और घोषणा की कि जो कोई कृष्ण के मुख में विष देगी, उसे मैं अपना चौथाई राज्य दे दूँगा.
सब राक्षसियों में से राक्षसी पूतना ने यह दायित्व लिया. वह गोकुल पहुँचकर नन्द के घर में प्रवेश कर गयी. वहाँ उसने अपनी मीठी-मीठी बातों से यशोदा का मन मोह लिया. उसने झूले में झूलते हुए कृष्ण के मुँह में अपना विषाक्त स्तन दे दिया. विष कृष्ण के मुँह जाकर में अमृत बन गया और सारा विष पूतना के रक्त में फैल गया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी. पूतना की इस प्रकार मृत्यु से नन्द और गोकुल के लोग भयभीत हो गए. कंस के भय से वे गाँव छोड़कर चले जाने को सोचने लगे. उन्होंने जल्दी-जल्दी यमुना के किनारे पूतना का दाह संस्कार कर दिया. कंस को जब पूतना की मृत्यु की सूचना मिली, तो उसने दो बेगियों को बुलाया और उन्हें कृष्ण को अंधा करने का दायित्व देकर गोकुल भेजा.
वे दोनों काक वेश में गोकुल आए. कृष्ण ने उनके आने की बात पहले से ही जान ली. कृष्ण ने अपने दोनों हाथ फैलाकर उनके सिर दबोच लिए और दोनों की गर्दनें मरोड़ दीं. कृष्ण ने क्रुद्ध होकर उनको इतने ज़ोर से फेंका कि वे कंस के आगे जा गिरे.
दूतों के मारे जाने पर कंस ने शुक्र से फिर परामर्श किया. शुक्र ने उसको सलाह दी कि–
“महेश (शंकर) के उद्यान में जो सरोवर है, उसमें सहस्रदल कमल खिलते हैं. शेषनाग वासुकि उस उद्यान की रक्षा करता है और जो कोई वहाँ जाता है, जलकर भस्म हो जाता है. नन्द को वहाँ जाने को निर्देश दिया जाए. स्वयं नन्द तो नहीं जाएँगे, लेकिन वह बालक कृष्ण वहाँ जाएगा. वहाँ जाने बाद उसका लौटना मुश्किल है. इस प्रकार उस बालक का अन्त किया जा सकता है.”
कृष्ण की आयु इस समय पाँच वर्ष की हो गयी थी. शुक्र के परामर्शानुसार कंस ने नन्द को बुलवाया और कहा कि-
“मैंने एक अनुष्ठान करने का निश्चय किया है, जिसमें एक लाख कमल अपेक्षित है और उन्हें तुम्हीं ला सकते हो.”
राजा का आदेश सुनकर मेहर नंद विचार में पड़ गए. उन्होंने सोचा कि-
“कंस कँवल ले माँगे, जो न कितहूँ संसार॥
को पतार हुत आयउ, कैं रे करत निस्तार॥
अर्थात् कंस ने जो कमल माँगे हैं, वे संसार में तो नहीं हैं. उनको पाने के लिए पाताल गये बिना छुटकारा नहीं है. एक दिन कृष्ण अपने सभी बाल-गोपाल मित्रों को लेकर यमुना नदी किनारे गए और शर्त लगाकर गेंद खेलने लगे. उन्होंने गेंद को इतनी ज़ोर से उछाला कि वह यमुना के बीच में जा गिरी. गेंद निकालने के लिए वे नदी में कूद गए और ऐसी गहरी डुबकी लगायी कि वे फिर ऊपर ही नहीं आए. गोकुल में हाहाकार मच गया कि कृष्ण डूब गए हैं. केवटों ने सारी यमुना छान डाली, लेकिन कृष्ण का कुछ भी पता न चला. गोकुल में सर्वत्र शोक छा गया. कंस के यहाँ तो आनन्द की सीमा ही नहीं रही.
कृष्ण अनेक नदियों और समुद्र से होते हुए पाताल लोक पहुँच गए. वे महेश के उद्यान में घुस गए. वहाँ नाग चारों ओर पहरा दे रहे थे. वासुकि नाग जहाँ सो रहा था, कृष्ण वहाँ पहुँच गए. शेषनाग वासुकि की पत्नी कृष्ण को देख कर बोली कि-
“कहस रे बालक तू कहाँ आवा l जहाँ जियत केउ जाइन पावा॥
जौलहि न जागा मोर पीऊ l बेटा भाग जाहु लै जीऊ॥
उठहि झार नाग फुँक्कारा l तैं तिंह आग होहसि जर छा(रा).”
अर्थात् हे बालक! तुम यहाँ कैसे आ गए? यहाँ जो भी आ जाता है, वह फिर कभी लौटकर नहीं जाता. जब तक मेरे पति नहीं जागते, तुम यहाँ से चले जाओ. उठते ही जब वे फुँकार करेंगे, तो तुम जलकर राख हो जाओगे. कृष्ण ने उत्तर दिया कि-
“मुझे इसका डर नहीं है. तुम चाहो तो अपने पति को जगा दो. मुझे एक लाख कमल चाहिए. उन्हें दे कर ही तुम्हारा पति छुटकारा पा सकता है.”
यह सुनकर नागिन क्षुब्ध हो गयी और कृष्ण भी कुद्ध हुए. शोर सुनकर नाग जाग गया. कृष्ण वहीं खड़े रहे और नाग की फुँकार से बेहोश होकर वे काले हो गए. देवताओं ने आकर उन्हें जीवित किया. जीवित होकर कृष्ण ने कमल नाल से वासुकि को नाथ दिया. एक लाख कमल तोड़कर उन्होंने उसके ऊपर लाद दिए और स्वयं उस पर सवार हो गए. नाग उन्हें लेकर चला, तो नागिन कृष्ण से प्रार्थना करने लगी और पूछा कि-
“आप कौन हैं?”
कृष्ण ने उसे अपना परिचय विष्णु के अवतार के रूप में दिया. उन्होंने कहा कि–
“बूंद समुँद जस दीखै, तस हों ताकर अंस॥
कन्ह रूप अवतरेउ, मारे आयउँ कंस॥”
अर्थात् जैसे समुद्र है, जो बूंद की तरह भी दिखायी पड़ता दरअसल वह समुद्र का ही अंश है. मैंने कंस को मारने के लिए ही कृष्णावतार लिया है. कृष्ण गोकुल लौट आए. गोकुल में प्रसन्नता छा गयी. नन्द ने कमल ले जाकर कंस को दे दिए.
शत्रु के मारने का प्रयत्न इस प्रकार जब विफल हो गया, तो कंस ने शुक्र और नारद को वापस बुलाया और नन्द के पुत्र के मारने के सम्बन्ध में उनसे मंत्रणा की. नारद ने उससे कि–
“अस कर काज न अति रिस कीजै l जो गुड़ मरे (न) माहुर दीजै॥”
अर्थात् क्रोध मत कीजिए. जो गुड़ से मर जाए, उसे ज़हर देने ज़रूरत नहीं है. नारद और शुक्र ने कंस को राय दी कि-
“जहाँ कृष्ण गायें चरा रहे हों, वहाँ अपने दैत्यों से जाने को कहो. वहाँ जाकर वे मेघ के समान ओलों की वर्षा करें.”
कंस ने दैत्यों को बुला कर वहाँ भेजा. कृष्ण वृन्दावन में गायें चराते हुए मल्हार की धुन पर बाँसुरी बजा रहे थे. उन्होंने बाँसुरी पर मेघ मल्हार का आलाप लिया और सभी दैत्य मेघ बन कर आकाश में सर्वत्र छा गए. तब कृष्ण ने बारह योजन ऊँचे और सात योजन विस्तृत पहाड़ को बायें हाथ पर टिका लिया. सभी गायों को हाँककर वे उसके नीचे ले आए. दैत्यों ने ओलों की वर्षा की, लेकिन कृष्ण के सामने उनके सभी उपक्रम विफल हो गए और वे सब परास्त होकर लौट गए.
चार |
कृष्ण गोकुल की गोपियों के साथ छेड़खानी करते थे, उनकी दूध-दही के मटकियाँ फोड़ देते थे. गोपियों ने नंद महरि यशोदा से जाकर कृष्ण की शिकायत की. कृष्ण बुलाए गए, तो वे रोते हुए आए और उन्होंने उल्टे गोपियों द्वारा अपने परेशान किये जाने की शिकायत की. उन्होंने कहा कि –
“देखहु हौं यह बहुत खिझावा॥”
अर्थात् देखो, गोपियों ने मुझे परेशान किया और अब ये मेरी झूठी शिकायत कर रही हैं. कृष्ण को रोते देखा, तो यशोदा गोपियों पर क्रुद्ध हुईं. उन्होंने गोपियों से कहा कि-
“बालक मोर दूध कर पोवा l सो कित खिझावहि जिंह अस रोवा॥”
अर्थात् तुम ऐसे रो रही हो, लेकिन मेरा कृष्ण अभी दूध पीता हुआ बालक है, वह तुमको कैसे चिढ़ा सकता है. उन्होंने गोपियों को और भी बुरा-भला कहा. वे सब लौट गयीं.
राधा (राही) देवचन्द महर की बेटी थी. रूप और सौंदर्य में वह अद्वितीय थी. राधा अपनी सहस्र सखियों को लेकर वृन्दावन पहुँची. कृष्ण भी वेश बदलकर वहाँ आए और उन्होंने राधा और उनकी सखियों का मार्ग रोक लिया. उन्होंने कहा कि-
“इहवाँ हौं राजा कर दानी l दान मारि तुम्ह नितहि परानी॥
और जितीं आई ग्वालिनी l देह देई दान गयीं सब जनी॥
तुम्ह न कबहु भेटैं मैं पायीं l हतो खोज भल भा तुम्ह आयीं॥
अब मैं करब मोर जस मानी l दूध-क-दूध पानि-कर-पानी॥”
अर्थात् मैं यहाँ राजा की ओर से नियुक्त दानी (कर उगाहने वाला) हूँ. तुम लोग नित्य दान बचा कर चली जाती हो. बहुत तलाश करने पर आज तुम सब मुझे मिल गयी हो. अब मैं जैसा उचित लगेगा, वैसा ही करूँगा. मैं अब दूध का दूध और पानी का पानी होगा. राधा ने उत्तर दिया कि-
“हमने कौन-सी व्यापार की सामग्री (टाँडे) लाद रखी है, जो तुम कर माँग रहे हो. दही और पानी पर कोई कर नहीं लगता है. तुम यहाँ एकाकी हो. अगर हम तुम्हें मार कर चली जाएँ, तो तुम क्या कर लोगे? हाँ, यदि गोरस चाहते हो, तो माँग कर ले लो.”
कृष्ण ने कहा कि–
‘राधे, तुम्हारे पास व्यापार सामग्री देख कर ही तो दान माँग रहा हूँ. व्यर्थ अभिमान में मत करो. पुरुष के सामने नारी कर ही क्या ही क्या सकती है? मैं गोरस लेकर क्या करूँगा, यह तो मेरे घर में भी बहुत है. तुम सुंदर स्त्री लगती हो. मुझसे जान-पहचान करो और निश्चिंत होकर इस वन प्रदेश में आओ-जाओ.’ उन्होंने कहा कि-
“रति माँगी तुरत सों दीजै॥”
अर्थात् मैं तुमसे रति माँगता हूँ, तुम वही मुझे दो.
यह सुनकर सभी गोपियाँ डर गयीं. वे राधा को एकाकी छोड़ कर भाग गयीं. राधा क्रुद्ध होकर कृष्ण से बोलीं कि-
“मैं तपस्विनी सती स्त्री हूँ. मैं उसके निमित्त बनी हूँ, जिसने समुद्र मंथन किया था. मैं उस जगह जाने की कल्पना भी नहीं कर सकती, जहाँ एक क्षण के लिए भी कोई पाप हो.”
कृष्ण ने प्रसन्न होकर अपना परिचय दिया और कहा कि-
“हहीं सो बिस्नु सरूप मुरारी॥”
अर्थात् ‘मैं ही तो वह कृष्णस्वरूप विष्णु हूँ.’
राधा को कृष्ण की बात पर विश्वास न हुआ, तब उन्होंने उन्हें अपना विश्व रूप दिखाया. राधा को विश्वास हो गया कि इन्हें ही ईश्वर ने मेरे लिए ही रचा है. राधा ने लज्जावश घूँघट निकाल लिया. कृष्ण उसे वन के भीतर उस जगह ले गए, जहाँ शय्या बिछी हुई थी. राधा सोचने लगी कि मैं क्या करूँ, जिससे अछूती घर जा सकूँ. उसने कहा कि-
“मैं घर जाती हूँ और शृंगार करके अपनी सखियों को लेकर आती हूँ. तब आप उन्हें आरती उतारने दें और मेरे साथ भाँवरें लें. इस प्रकार पहले मेरा-आपका विवाह हो.”
वचनबद्ध होकर राधा घर लौट गयी.
घर लौटने पर सखियों ने राधा से पूछा कि उसके साथ क्या हुआ? राधा ने अपनी सखियों को दानी वेश धारण करने वाले कृष्ण का परिचय दिया. उसने यह भी बताया कि-
“मैंने तुम्हारी अनुपस्थिति में कृष्ण के साथ विलास नहीं किया. मैं केवल वचनवद्ध होकर आयी हूँ. तुम सब फूल बीनने के बहाने मेरे पति को देखने चलो.”
कृष्ण राधा के विरह में रात्रि भर जागते रहे और बाँसुरी बजाते रहे और इधर राधा भी उसी प्रकार व्याकुल रही. सुबह होने पर राधा ने सहेलियों को बुलाया और अपने एकाकी होने की व्यथा बतायी और उनसे फूल बटोरने और गौरी पूजन करने के लिए चलने को कहा. सभी सखियों ने राधा का शृंगार किया और स्वयं भी शृंगार करके चलीं.
पांच |
राधा के आने में देर होते देखकर कृष्ण की व्याकुलता बढ़ गयी. वे चन्दन के वृक्ष पर चढ़ कर चारों ओर देखने लगे. इतने में राधा साखियों सहित आ गयीं. कृष्ण वृक्ष से उतर कर सघन वन में घुस गए. गोपियाँ भी वन में सर्वत्र बिखर गयीं और फूल बटोरने लगीं. वे परस्पर एक-दूसरे को फूलों से मार-मार कर क्रीड़ा करने लगीं. कृष्ण को जब लगा कि अब गोपियाँ लौटने वाली हैं, तो उन्होंने सोचा कि अब प्रकट होना चाहिए. जहाँ गोपियाँ क्रीड़ा कर रही थीं, वे वहाँ आए और आते ही पूछा कि–
“चोरी से वन में घुसने वाली तुम लोग कौन हो? तुम लोगों ने वृक्षों को अधमरा कर डाला और शाखाओं से फूलों को नोच लिया. तुम लोग रोज चोरी करती रहती हो. अब मेरे बस में हो, भाग कर कहाँ जाओगी? अब मैं तो तुम लोगों के साथ रस-भोग करूँगा.”
जब गोपियों ने अपने को हिरणियों की तरह चारों और से घिरा पाया, तो वे राधा के पास आयीं. राधा के पास आते ही एक आश्चर्य हुआ, चारों ओर कनक कोट खड़ी हो गयी, सारे मार्ग बन्द हो गए. गोपियाँ चिंतित हो गयीं कि हम सब अब कैसे यहाँ से जाएंगी. राधा समझ गयीं कि यह सब कृष्ण का किया-धरा है. वे गोपियों को दुःखी देखकर आगे और गोपियाँ उनके पीछे चलने लगीं. जब राधा ने कृष्ण को देखा, तो वे गोपियों से बोली कि-
“जनि गोपी केउ मरे डराई l इहै तो आह बाबुल बाल कन्हाई॥”
अर्थात् तुम सब डरो मत. यह तो मेरे बाबुल (प्रेमी) कृष्ण हैं. उसने कृष्ण से पूछा कि-
“कौन देखि तुम हम सों चोरी l कहहु तो फूल तुम्ह देहि बहोरी॥”
अर्थात् ‘तुमने हमारी कौन-सी चोरी देखी. तुम कहो, तो सारे फूल बिखेर दें.’
कृष्ण राधा को उनकी चोरी बताने लगे. उन्होंने एक-एक कर राधा के शरीर के सभी अंगों को किसी-न-किसी द्वारा चुराया हुआ बताया. राधा ने भी उन पर चोरी का आरोप लगाया. तब कृष्ण ने अपना रहस्य प्रकट किया. वे उससे साथ चलने, पास बैठने और मिल कर खेलने का आग्रह करने लगे. राधा-कृष्ण में कुछ वाद-विवाद हुआ. राधा जब निरुत्तर हो गयी, तब उन्होंने सखियों की ओर देखा. सखियों ने उन्हें कृष्ण के साथ जाने की सलाह दी. राधा और कृष्ण का विवाह हुआ. महादेव ने मण्डप छाया, पार्वती ने मंगल गीत गाए, अप्सराओं ने गठबन्धन किया और फिर राधा-कृष्ण ने मिल कर भाँवरें लीं. कृष्ण ने राधा से कहा कि-
“मोहि तोहि राही अन्तर नाहीं. जैस दीख पिण्ड परछाहीं॥”
अर्थात् शरीर और उसकी परछाई की तरह मेरे और तुम्हारे बीच में कोई अंतर नहीं है. राधा ने मान किया, तो उसकी सखियों ने उसे समझाया कि ऐसे मत करो, मान करने से विरोध बढता है. उन्होंने राधा को समझाया कि-
“हाथ के मानिक सँमुद(हि) जायी. लौटि न पाई हीर हेरायी॥”
अर्थात् हाथ का मोती यदि समुद्र में गिर जाए, तो यह ढूँढने पर भी नहीं मिलता.
विवाह के पश्चात राधा-कृष्ण ने शय्यासीन होकर रात्रि भर रति केलि की.
“मन सों मन तन सों तन गहा l होइ गे एक न अन्तर रहा॥”
अर्थात् मन ने मन को तन ने तन ग्रहण कर लिया, दोनों एक हो गये, कोई अंतर नहीं रहा. सुबह होने पर राधा भयभीत हुई कि घर के लोग पूछेंगे तो क्या कहूँगी. साथ आने वाली गोपियाँ सब मेरी अस्त-व्यस्त अवस्था देखकर क्या बोलेंगी. कृष्ण ने उनसे चलकर साथ आयी गोपियों का चरित्र देखने को कहा. राधा ने जाकर देखा तो पाया कि पास जितनी भी फुलवारी थी, सभी चित्रसारी (रति-केलि गृह) बनी हुई हैं और वहाँ सब गोपियों के आवास हैं. कृष्ण ने उन सबके साथ रमण किया है. राधा ने जिस किसी गोपी को बुला कर पूछा, उसने कहा कि कृष्ण ने उसके साथ रमण किया है. सभी की अपनी-सी दशा में देखकर राधा हँसती हुई लौटी और कृष्ण से बोली कि-
“मैंने तो समझा था कि तुम मेरे ही साथ रहे, लेकिन तुम तो सबके साथ रहे. जितनी भी गोपियाँ आयी थीं, तुमने उन सबके साथ रमण किया. अब पूछने जैसी कोई बात नहीं रही.”
जब राधा ने कृष्ण से घर जाने की आज्ञा माँगी, तो उन्होंने सब गोपियों को बुला लाने को कहा और कहा कि आज बसन्त धमार खेला जायेगा. सभी गोपियों ने शृंगार किया और वे कृष्ण के पास आयीं. सोलह सहस्र गोपियों के बीच कृष्ण ने बाँसुरी बजायी. सभी गोपियाँ मिलकर नाचने लगीं. इस प्रकार सारा दिन बसन्त धमार खेलने में व्यतीत हुआ. रात्रि में भी सब गोपियाँ वहीं रहीं. जब सुबह हुई तो कृष्ण ने उन्हें जाने की आज्ञा दी.
ईश्वर का स्मरण करती हुई गोपियाँ घर लौटीं. मन में सोचती रहीं कि तीन दिन तक जो कुछ हुआ, उसे जान कर लोग क्या कहेंगे. घर आने पर लोगों ने उनके अस्त-व्यस्त वेश का कारण पूछा और कहा कि लगता है कि कोई रमण करने वाला मिल गया था. यह सुनकर सब गोपियाँ बिगड़ गयीं. वे कहने लगीं कि हम सब सोलह सहस्र एक साथ थीं. कौन ऐसा है जो एकाकी हम सबके साथ रमण कर सके. हम सब तो वन में भटक गयी थीं और वहाँ से निकल नहीं पाने के कारण रोती रहीं.
छह |
गोकुल में कृष्ण दिन-रात भोग विलास में रत रहे और कंस का मृत्यु भय बढ़ता गया. उसने नारद और शुक्र से कृष्ण के गोवर्धन धारण आदि की बात कही और शत्रु के अन्त करने का उपाय खोजने के लिए कहा. दोनों ने सोच-विचार कर कहा कि-
“अगली दीपावली पर जब नन्द सभी अहीरों की कुश्ती दिखाने के लिए आएँ, तो उस समय कृष्ण को भी बुलाया जाए और शक्तिशाली मल्लों के साथ उनकी कुश्ती करायी जाए. सब मल्लों में चाणूर (चाँवरों) सबसे अधिक शक्तिशाली है. वह कृष्ण का संहार कर देगा.”
कुश्ती के लिए उन्होंने रंगभूमि तथा अच्छे-अच्छे मल्लों को दूध-शक्कर खिला कर तैयार करने की राय दी. मंत्रियों की राय के अनुसार रंगभूमि तैयार की गयी और चारो खंडों में जितने शक्तिशाली दैत्य थे सभी को खोज कर बुलाया गया. उनमें से एक चाणूर भी था, जिसे कृष्ण से जूझने का दायित्व सौंपा गया.”
कार्तिक के महीने में दीवाली आयी. नन्द महर ने सब ग्वालों को एकत्र किया और वे सब हँसते खेलते राज-द्वार पहुँचे और कंस को अभिवादन करके बोले कि कुछ देर हम नाचेंगे-गायेंगे. हम लोग बहुत आशा करके आए हैं कि आप प्रसन्न होकर हमें उपहार देंगे. कंस ने हँस कर नन्द को अपने पास बुलाया. उनको पान देकर कहा कि–
“तुम्हरे बालक नाँव कन्हाई॥
सुनत अही परसहि कर छोटा I पै भल सरों करे सो धोटा॥
वँह बिहान गोहन लै आवहु l औ अहिरँह संग आन खेलावहु॥
देखहिं हमहु सरों कस होई l औ पहिराइ पठावों सोई॥”
अर्थात् तुम्हारे बालक कृष्ण के सम्बन्ध में बहुत सुना है. कहते हैं कि वो देखने में तो वह छोटा है, लेकिन वह अच्छा व्यायाम कुशल है. कल तुम उसे साथ ले आओ और अहीरों के साथ उसका भी कौशल दिखाओ. मैं भी देखूँ की वह कितना कुशल है. सब लोगों को मैं अच्छी तरह पुरस्कृत करूँगा. राजा का आदेश सुनकर नन्द परेशान हो गए.
दूसरे दिन सुबह, सूर्य निकलने भी न पाया था कि राजा के यहाँ से बुलावा आ गया. कृष्ण ने मन में निश्चय किया कि वे आज मल्लों से अवश्य युद्ध करेंगे. बलभद्र को छोड़ कर और किसी साथी को यह बात मालूम नहीं थी. दोनों भाई मल्ल युद्ध में कुशल बीस सहस्र ग्वालों के साथ हाथ में हाथ लेकर चले. कंस कृष्ण को आया हुआ देखकर प्रसन्न हुआ. उसने नन्द को बुलाया और अपने मल्लों के साथ कृष्ण से युद्ध कराने के लिए कहा. नन्द का मुँह सूख गया और वे कहने लगे कि-
“बालक अभी युद्ध करने में समर्थ नहीं है. अहीरों से कहिये तो वे अवश्य परस्पर युद्ध करेंगे. यदि आपका स्नेह बालक के ऊपर ही है, तो वह धमार (नृत्य) दिखा सकता है.”
लोग नन्द को समझाने लगे कि राजा की अवज्ञा नहीं की जाती. अंततः नन्द पान लेकर बाहर आए. उन्हें दुःखी देखकर कृष्ण ने कहा कि–
“आप निराश न हों. मैं आज मल्लों के साथ उसी तरह युद्ध करूँगा जैसे महाभारत में भीम ने किया था.”
साथ ही, उन्होंने अपने विष्णु के अवतार होने की बात भी बतायी.
कृष्ण के कहने से लोगों के मन में आशा बँधी और जितने ग्वाल थे वे सब मैदान में आ डटे. ग्वालों के आते ही दैत्य भी सामने आए. ग्वालों और दैत्यों में जमकर युद्ध हुआ. दैत्य सब भाग खड़े हुए. कंस ने अंततः चाणूर को बुलाया. उसके साथ कृष्ण का भीषण युद्ध हुआ और वह मारा गया. यह देखकर कंस भयभीत हो गया और नन्द को बुलाकर अहीरों से युद्ध रोकने के लिए कहा और तत्काल रथ मँगा कर कृष्ण को भेंट किया और उनसे जाने के लिए कहा. कंस डर के मारे अपने महल में जाकर छिप गया.
सात |
विजयी कृष्ण के साथ सारे ग्वाल बजाते-गाते गोकुल लौटे. कृष्ण के विजयी होकर लौटने की बात जब राधा से दो वर्ष छोटी और उसके समान ही सुंदर चन्द्रावली ने सुनी, तो उसने अपनी दासी अगस्त से युद्ध जीतकर आने और चाणूर को मारने वाले योद्धा को देखने की इच्छा प्रकट की. जब अगस्त ने चन्द्रावली को रथ पर आते हुए कृष्ण को दिखाया, तो वह रूपासक्त होकर मूर्च्छित हो गयी.
अगस्त उसे मुँह पर पानी छिड़ककर होश में लायी. चन्द्रावली ने वह रात्रि आकुल-व्याकुल अवस्था में व्यतीत की. सुबह चन्द्रावली ने अगस्त से पुनः कृष्ण को दिखाने का अनुनय किया. अगस्त ने उसे बताया कि सायंकाल नन्द के घर उत्सव होगा और सब लोग उसमें भाग लेंगे. सायंकाल चन्द्रावली पूजा की थाल सजाकर सखियों के साथ नन्द के घर गयी. कृष्ण ने जब चन्द्रावली को देखा, तो वे उस पर मोहित हो गए. जब चन्द्रावली लौट गयी, तो वे विरह व्याकुल होकर अस्वस्थ गए.
कृष्ण को इस प्रकार अस्वस्थ देखकर यशोदा रोने लगीं और नन्द को बुलाया. सारे गोकुल में यह बात फैल गयी कि कृष्ण को नज़र लग गयी है. यह ख़बर सुनकर किसी काम से बाहर निकली अगस्त नन्द के घर गयी और बालक के स्वास्थ्य की बात पूछकर उसे देखने की इच्छा प्रकट की. यशोदा ने कृष्ण को दिखाया. अगस्त ने हँसकर कृष्ण से उनका हाल-चाल पूछा. जब यशोदा वहाँ से हट गयीं, तब कृष्ण ने उसके साथ पिछली रात्रि को आयी स्त्री को देखने की इच्छा प्रकट की. अगस्त ने उन्हें चन्द्रावली का परिचय दिया और उन्हें उसकी वाटिका में आने की सलाह दी. अगस्त की बात सुन कर कृष्ण के मन में आशा बँधी और वे प्रसन्न हो गए. यशोदा से पूजा करने और बच्चे को खिलाने-पिलाने की बात कहकर अगस्त चन्द्रावली के पास लौट गयी.
सुबह होते हो कृष्ण विरह उदासी बनकर चन्द्रावली की वाटिका में जा पहुँचे. कार्तिक की सुहानी शरद की रात्रि को चन्द्रावली ने अपनी सखियों को बुलाया और वाटिका में चलने को कहा. वे सब बगीचे में जाकर वहाँ धमाचौकड़ी करने लगीं. वहाँ चन्दन के वृक्ष के निकट ही एक चबूतरा था, जो चित्रसारी के समान था. उसी वृक्ष पर चढ़ कर कृष्ण बाँसुरी बजाने लगे. बाँसुरी की धुन सुनकर सभी ग्वाल-बालिकाएँ विमुग्ध हो गयीं. चन्द्रावली सुनते ही परेशान हो उठी और पूछने लगी कि इतनी रात्रि को कौन बाँसुरी बजा रहा है. अगस्त ने उसे बताया कि-
“…एक होइ धोटा l जो दीखे तो बालक छोटा॥
तिंह अस गुन कुछ कही न जाई l बसि सब्द जग रहा लुभाई॥
चौरा आइ थवारसि, नौरंग बारी माँह lभक्ति करै बैरागी, अछै चन्दन के छाँह॥
अर्थात् बाँसुरी बजाने वाला व्यक्ति देखने में तो छोटा बालक-सा लगता है, किन्तु उसके गुण अवर्णनीय है. उसकी बाँसुरी का शब्द संसार को मोहित करने वाला है. उसने अपने बैठने का स्थान नव रंग वाटिका में बनाया है. वह चन्दन के वृक्ष के नीचे बैरागी बन कर भक्ति करता रहता है. यह सुनकर चंद्रावली उसे देखने के लिए चली और जहाँ वैरागी था वहाँ आ खड़ी हुई. कृष्ण चन्द्रावली को और चन्द्रावली कृष्ण को देखकर एक-दूसरे पर सम्मोहित हो गए. दोनों में परस्पर वार्तालाप हुआ. बातों के बीच में कृष्ण ने बताया हम तुम एक ही हैं और सोलह सहस्र गोपियाँ हैं, वे सब मेरे लिए ही अवतरित हुई हैं, इसलिए तुम मुझसे अलग क्यों हो.
यह सुन कर चन्द्रावली हँसी और अगस्त की ओर देखा. सखियाँ परस्पर सोचने लगीं कि यह कौन ढीठ है, जो इस प्रकार की बात कह रहा है. अगस्त ने बताया कि यह वही व्यक्ति है जिसने चाणूर को मारा था, जिसके लिए तुम आकुल-व्याकुल हो और वह बैरागी होकर तुम्हारे लिए बाँसुरी बजाता है. यह सुन कर चन्द्रावली बिगड़ गयी. अगस्त ने उसे विश्वास दिलाया कि वह विष्णु का अवतार हैं और तुम्हारे योग्य है. यह सुन कर चन्द्रावली प्रसन्न हो गयी और अपनी सभी सखियों को बुलाकर उसने उनको अपने प्रेमी के रूप में कृष्ण का परिचय दिया.
चन्द्रावली कृष्ण के पास आयी, तो कृष्ण ने हँसकर उसकी बाँह पकड़ी. चन्द्रावली और कृष्ण में कुछ कहा-सुनी हुई, जिसमें कृष्ण ने अपने विष्णु के अवतार होने का ज़िक्र किया और अपने दस अवतारों का वर्णन किया. चन्द्रावली ने पूछा कि यदि तुम विष्णु हो, तो भिखारी बनकर गुप्त क्यों हो. कृष्ण ने इसका समाधान किया. कृष्ण और चन्दावली दोनों एक हो गए. चन्द्रावली के साथ कृष्ण ने जो रस भोग किया, वैसा ही उसकी सखियों के साथ भी किया. उन्होंने गाँठ जोड़कर भाँवर लिए. प्रातः होने से पूर्व ही चन्द्रावली अपने महल को लौट आयी.
सुबह होने पर चन्द्रावली की माँ ने उसे दही मथने के लिए पुकारा. चन्द्रावली को मथने का काम पूरा करने में देर लगाते देखा, तो वे स्वयं उसके पास आयीं और उसे अनमने ढंग से मथानी चलाते देखा. उसने जब चन्द्रावली से उनके अन्यमनस्क होने का कारण पूछा, तो उसने बहाना किया. उसने कहा कि-
“रात्रि में जब सोयी थी, तब स्वप्न में मुझे वन के बीच से जाते हुए एक सिंह दिखायी पड़ा, जिसे देख कर सब सहेलियाँ भाग खड़ी हुईं, लेकिन सिंह ने मुझे एकाकी को दौड़कर पकड़ लिया. मैंने दासियों को बुलाने की चेष्टा की, लेकिन वे जागी नहीं. मैं सारी रात्रि डर से काँपते हुए जागती रही.”
कृष्ण जिस वन में रहते थे वहाँ पकवान लेकर राधा गयी, तो देखा कि कृष्ण वहाँ नहीं हैं. वह बहुत दुःखी हुई और चारों ओर उनको ढूँढती फिरी. वह रात भर अकेली झूरती रही. सुबह कृष्ण राधा के पास आए. राधा का मलिन मुँह देखकर कृष्ण ने इसका कारण पूछा, तो वह मौन रही. कृष्ण ने उससे पूछा कि तुम रुष्ट क्यों हो, क्या तुमने कोई ऐसी-वैसी बात सुनी है. मैं तो गोरा के बाजार में बाँसुरी बजा रहा था. वहाँ दस-पाँच ग्वालिनों ने पकड़ लिया. वे नाचती-गाती रहीं, जिससे रात्रि बीत गयी. राधा ने कहा-
“मुझे भुलावा देते हो. तुम्हारे लक्षणों से ही प्रकट है कि तुम चन्द्रावली के पास रहे.”
कृष्ण ने राधा को मनाया. दिन राधा के साथ बीता. रात्रि में वे फिर चन्द्रावली के पास गए. वहाँ चन्द्रावली ने पूछा-
“दिन किसके साथ बिताया?” राधा के साथ रहने की बात जान कर उसने भी मान किया.
एक दिन कोई पर्व था. उस दिन सब स्त्रियाँ मन्दिर में पूजन करने गयीं. चन्द्रावली और राधा भी अपने सखियों के साथ आयीं. दोनों ने कृष्ण के अपने में अनुरक्त रहने की मान्यता मानी. राधा और चन्द्रावली जब मन्दिर से निकलीं, तो उन दोनों का आमना-सामना हुआ. चन्द्रावली ने राधा से दुःखी दिखायी देने का कारण पूछा, तो इस पर राधा चिढ़ गयी. दोनों में ख़ूब कहा-सुनी हुई और दोनों ने एक-दूसरे को बुरा भला कहा. अन्ततः दोनों हाथापायी पर उतर आयीं. कृष्ण को जब इसका पता चला, तो वे भागे-भागे आए और दोनों को अलग किया. उन्होंने दोनों को डाँटा-फटकारा और समझाया.
आठ |
कंस ने गोपियों की इस कहा-सुनी की बात सुनी और जब कृष्ण का यह रूप उजागर हुआ, तब नारद और शुक्र ने सोचा कि ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था. वे दोनों अंततः इस निश्चय पर पहुँचे कि कंस का अन्त पहुँचा है, इसलिए जितना भी अनाचार संभव है, अब उसको करना चाहिए. उन्होंने कंस से कहा कि यज्ञ का आयोजन कर सब गोपियों को बुलाओ और उनके साथ विवाह करो. कंस ने दूत भेजकर नन्द-यशोदा को बुलवाया और उन्हें, जहाँ देवकी और वसुदेव बन्दी थे, वहाँ ले जाकर कैद कर दिया. फिर गोकुल में सूचना भेजी कि जितनी भी ग्वालिनें हैं, वे सब आयोज्य यज्ञ में आएँ, जहाँ सभी गोपियों के साथ राजा का विवाह होगा. कृष्ण वन में गायें चरा रहे थे. वहाँ उन्हें इस बात की सूचना हुई. वे आए और ग्वालों की बीच विचार-विमर्श हुआ. लोग इस अनाचार से क्षुब्ध होकर गोकुल छोड़ कर अन्यत्र जाने की बात कहने लगे. कृष्ण ने उन्हें समझाया कि-
“भागें कितहूँ नाँहि उबारा l करै मया बिधि तो निस्तारा॥”
अर्थात् कहीं भाग कर जाने से मुक्ति नहीं मिलेगी. ईश्वर का स्मरण करो, वही जो चाहेगा होगा.
सुबह कृष्ण ने ईश्वर का स्मरण किया. मेघ घिर आए, गरजने लगे और बिजली चमकने लगी. प्रकृति का यह रौद्र रूप लेकर कृष्ण ने प्रस्थान किया. कंस की सभा बैठी हुई थी. सभी की दृष्टि गोकुल की ओर थी. सबने देखा कि उस ओर से आँधी-पानी चले आ रहे हैं. यह देख कर शुक्र ने कहा कि मेघ के रूप में यह चतुर्भुज (विष्णु) का कोप है. यह सुनकर कंस घबरा गया और अपने सब दैत्यों से उसका सामना करने के लिए कहकर वह महल में जाकर छिप गया. नारद ने कंस से कहा कि-
“तुम्हारे ये योद्धा कृष्ण के सामना नहीं कर पाएँगे. किसी बहाने से कृष्ण को बुलाओ और हाथी से कुचलवा दो.”
तत्काल अक्रूर बुलाए गए और उन्हें किसी बहाने से कृष्ण को मथुरा बुला लाने का आदेश दिया गया. अक्रूर गोकुल आए और कृष्ण को मथुरा चलकर कंस से मेल-मिलाप करने के लिए समझाया. कृष्ण-बलराम उनकी बात मान कर मथुरा आए. पीछे गोपियाँ उनके विरह में रोती रहीं.
कृष्ण जब मथुरा के निकट पहुँचे, तो बोले कि-
“इहाँ बसों मोर सुदामाँ l खिनक तहाँ करिहों बिसरामाँ॥
रामजनी है कुब्ज कलंकी l मुख भँवर पायहि त्रिबंकी॥
सो चन्दन राजा कँह घिसै l देखि बिलोन लोग सब हसे॥
वैं तप कीन्ह जरम बड़ सदा l ताकँह पुरुष दईं हो बदा॥
रूप देब ओकँह बड़ आजू ताकर जाई सँवारों काजू॥”
अर्थात् यहाँ मेरा मित्र सुदामा रहता है, मैं उसके पास कुछ देर विश्राम करूँगा. उसके बाद, यहाँ राजा के यहाँ चन्दन घिसने वाली कुब्जा है, उसने बहुत तप किया है, उसे आज रूप प्रदान करूँगा. अक्रूर राजा के यहाँ गए और कृष्ण-बलराम सुदामा के घर आए. उनके आने की सूचना पा कर सुदामा भागता हुआ आया. उससे मिल कर दोनों भाई कुब्जा के घर की ओर चले. वह चन्दन लेकर राजद्वार जाने के लिए निकली ही थी. मार्ग में ही उसकी कृष्ण से भेंट हो गयी. देखते ही उसने कृष्ण के शरीर पर चन्दन लगाया. कृष्ण ने उसके सिर पर अपना बायाँ हाथ रखा और बायें पैर से दोनों पैर दबाये और दाहिने हाथ से उसका सिर ऊपर उठाया. धीरे-धीरे उसके सारे टेढ़े अंग सीधे हो गए. कृष्ण कुब्जा से बोले कि-
“तुम कंस के यहाँ जा रही हो. उससे मेरा यह सन्देश देना कि जिसके कारण तुम भयभीत हो, वह मथुरा आया हुआ है. यदि अपनी भलाई चाहते हो, तो सभी बन्दियों को छोड़ दो, अन्यथा आज मैं तुम्हारी वही दशा करूँगा, जो मैंने रावण की की थी.
रूप पाकर होकर जब कुब्जा राजद्वार की ओर चली, तो मार्ग में सभी उस पर मुग्ध हो गए. राजद्वार पहुँचने पर सभी रानियाँ उसे देखने के लिए दौड़ीं. लोगों ने जाकर कंस से कहा कि कोई पद्मिनी स्त्री आयी हुई है. कंस भी उसे देखकर सुध-बुध खो बैठा. फिर सँभलकर उससे उसका परिचय पूछा. कुब्जा ने अपना परिचय देते हुए अपने सौन्दर्य का रहस्य बताया और कृष्ण का संदेश भी सुनाया. उसे सुनकर कंस जल-भुन गया. अक्रूर को बुलाकर उसने तुरंत कृष्ण को ले आने के लिए कहा. अक्रूर कुब्जा के घर गए और कृष्ण को साथ लेकर लौटे और उन्हें सचेत कर दिया कि उनके साथ कपट व्यवहार होगा.
कृष्ण ने योद्धा का रूप धारण कर लिया. मार्ग में लोग उनको देखने आए. रानियों ने कुब्जा से कृष्ण को दिखाने के का आग्रह किया. कृष्ण दुर्ग के निकट पहुँचे और प्रत्येक पौर पर सैन्य-व्यवस्था देख कर क्षुब्ध हुए और सब को मारते-पीटते सातवें पर आए. वहाँ कुबलया हाथी खड़ा था. कृष्ण ने उसे भी मार डाला. कंस ने अपने मल्लों को ललकारा. उन सबको पछाड़ कर कृष्ण कंस पर चढ़ बैठे और उसे मार डाला. उन्होंने नन्द-यशोदा और देवकी-वसुदेव को बन्दीगृह से मुक्त किया और फिर कंस के पिता को भी छुड़ाया. अन्त में कंस के पुत्र को बुलाकर उसका राजतिलक किया और स्वयं मथुरा में रहने लगे.
कंस वध के पश्चात मथुरा में रह कर कृष्ण कुब्जा के संग भोग-विलास में मग्न हो गए. कृष्ण के गोकुल न लौटने से गोपियाँ विरहाकुल हो उठीं. कृष्ण की वे एक वर्ष तक प्रतीक्षा करती रहीं. जब कृष्ण नहीं लौटे, तब उन्होंने पवन को अपना दूत बना कर भेजा. उन्होंने पवन से कहा कि-
“वह रे निछोहा मधुबन जहाँ I लेइ संदेस पहुँचावह वहाँ॥
तुम्ह बिनु गोपी मुवइ बियोगाँ l तुम्ह भूलह कुब्जा कै भोगाँ॥”
अर्थात् हे पवन! वह निष्ठुर मधुबन में है. वहाँ संदेश पहुँचाओ कि तुम्हारे वियोग में गोपियाँ मर रही और तुम उनको कुब्जा के साथ भोग-विलास में भूल गए हो. पवन वनों को जलाता हुआ, जहाँ कृष्ण बैठे थे, वहाँ पहुँचा और उन्हें गोपियों के विरह का सन्देश दिया. गोपियों का सन्देश सुनकर कृष्ण के मन में प्रेम का संचार हुआ. उन्होंने गोपियों को लाने के लिए दूत भेजे और नौकाओं को एकत्र कर यमुना में धमार खेलने की योजना बनायी. कृष्ण का बुलावा पाकर गोपियाँ प्रसन्न हो गयीं और साज-शृंगार कर यमुना तट पर आयीं. गोपियों को आया देखकर कृष्ण नावों को तट के निकट ले आए. सब गोपियाँ चढ़ने की चेष्टा करने लगीं. किसी को कृष्ण ने बाँह पकड़कर चढ़ाया, तो कोई चढ़ने के प्रयास में जल में जा गिरीं. इस प्रकार जो समर्थ थीं, वे तो नावों में चढ़ गयीं और जो चढ़ने में असमर्थ थीं, वे बिछुड़ गयीं. नौका-विहार करते हुए रात्रि व्यतीत हुई. कृष्ण ने अपने आवास के आस-पास गोपियों के लिए निवास तैयार कराया. ये सब कृष्ण के संग रह कर भोग विलास करने लगीं.
नौ |
कृष्ण ने मथुरा में एक धर्मशाला बनवायी. जो भी मथुरा आता इसमें ठहरता और उसे इसमें सभी प्रकार की सुख-सुविधा प्राप्त होती. ऋषि, यति और संन्यासी, जो भी मथुरा आए, इसमें ठहरे और भोजन किया. कृष्ण ने सुना कि यमुना पार दुर्वासा नामक कोई तपस्वी रहते हैं. वे मात्र दूब (घास) खाकर तप-साधना करते हैं. वे ही एक ऐसे थे जो कृष्ण के पास नहीं आए. कृष्ण ने सोचा कि यदि उन्होंने अन्न नहीं खाया, तो मेरी दान और सेवा सभी व्यर्थ है. उन्होंने सभी सोलह सहस्र गोपियों को बुलाया और प्रत्येक से एक-एक प्रकार का पकवान बनाने और यमुना पार उस तपस्वी के पास ले जाने और उन्हें भोजन कराने को कहा. इसी के साथ यह भी कहा कि सभी पैदल जाए, कोई नाव पर नहीं चढ़े. यह भी कहा कि-
‘यमुना किनारे जाकर उससे कहना कि यदि हमने कृष्ण के साथ रमण न किया हो, तो तुम स्थिर हो जाओ. तुम लोग डरना नहीं. इतना कहते ही तुम्हें यमुना की थाह मिल जाएगी.’
यह सुन कर गोपियाँ सोच में पड़ गयीं- सारा संसार जानता है कि कृष्ण गोपियों के साथ रमण करते हैं. फिर भी वे हमसे झूठ बोलकर यमुना पार करने को कहते हैं. इस झूठ से तो यमुना की जो थाह मिल सकती थी, वह भी नहीं मिलेगी. फिर राधा और चन्द्रावली ने विचार किया कि इसमें कुछ न कुछ रहस्य होगा और यदि न भी हो तो भी, प्रियतम की इच्छा का हमें सम्मान करना चाहिए. यह सोचकर सबने पकवान तैयार किया और यमुना के किनारे पहुँची. वहाँ पहुँच कर बोलीं- यदि कृष्ण ने हम गोपियों का नहीं पकड़ा हो, तो हम सब डूब जाएँ. यदि वे कभी हमारे निकट न आए हों, तो तुम सूख जाओ और हम पार हो जाएँ. यह सुनते ही यमुना घट गयीं और सभी गोपियाँ पार हो गयीं.
यमुना पार कर वे सभी दुर्वासा के पास पहुँची और पैर छूकर उनके सामने पकवान रखे. ऋषि ने भर पेट पकवान खाकर उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि-
“लौटते समय यमुना पार करने में डरना नहीं. पानी में पैर रखते हुए कहना कि यदि ऋषि ने खाना न खाया हो, तो तुम स्थिर जाओ.”
जब वे लौटीं, तो यही कहकर वे सब पार हो गयीं.
घर लौटकर वे सब सोच में पड़ गयीं कि ये दोनों ही बातें- कृष्ण के साथ रमण और ऋषि का अन्न-पान किस तरह से झूठी हैं. उन्होंने निश्चय किया कि जब तक कृष्ण इसका रहस्य न समझाएँगे वे सब रूठी रहेंगी. उन सबने अपने-अपने घरों में न तो दीप जलाए और न रसोई बनायी. सभी खटवास लेकर पड़ रहीं. जब सभी घरों में अन्धकार दिखायी पड़ा, तो कृष्ण सोच में पड़ गए कि गोपियों ने दीपक क्यों नहीं जलाए? उन्होंने गोपियों को बुलाया और उनसे रूठने का कारण पूछा, तो सबने अपने आश्चर्य की बात बतायी और उनसे इसका रहस्य समझाने को कहा. कृष्ण ने उन्हें अपना मुँह खोलकर दिखाया. गोपियों को उसके भीतर सारा ब्रह्माण्ड दिखाई पड़ा. फिर कृष्ण में उन्हें अपना अन्तर्पट खोल कर दिखाया. सबने देखा कि वे घट-घट में व्याप्त हैं. इस प्रकार गोपियों को संसार के रहस्य का ज्ञान हुआ.
एक दिन कृष्ण ने सुना कि यमुना के किनारे अपने दल-बल के साथ मछन्दरनाथ के शिष्य, गोरखनाथ के अनुयायी कोई सिद्ध आकर ठहरे हुए हैं. जितने भी लोग हैं, वे सभी सिद्ध और पवन आहारी हैं. वे लोग नाना प्रकार के रूप धारण करते हैं. यह सुनकर कृष्ण उस सिद्ध योगी को देखने निकले. उनके साथ दस सहस्र भक्त भी गोरख सिद्ध के पास गए. योगी ने कृष्ण को गृहस्थ जीवन छोडकर योगी बन जाने का परामर्श दिया. उन्होंने कृष्ण से कहा कि
“तज गृहस्त होहु अब जोगी॥”
अर्थात् गृहस्थ जीवन छोड़कर अब योगी हो जाओ. कृष्ण ने भोग को ही तप बताया और अपने धर्म-रत होने की बात कही. इस प्रकार दोनों अपने-अपने मत-योग और भोग की सराहना करते रहे. अन्त में अपने-अपने सिद्धान्त की श्रेष्ठता सिद्ध करने लिए दोनों ने परस्पर प्रहार करने का निश्चय किया और कहा कि जो मरेगा, वही पराजित माना जाएगा. दोनों ने एक दूसरे के विरुद्ध अपने-अपने शस्त्र चलाए, लेकिन कोई आहत नहीं हुआ. अन्त में निष्कर्ष निकला-
“जोगी केर जोग भल, भोगी कर भल भोग॥”
अर्थात् योगी के लिए योग भोगी के लिए भोग श्रेयकर है.
गोरख सिद्ध सुमेरु लौट गए और कृष्ण अपने घर पर आए गए.
दस |
एक दिन एक वृद्ध तपस्वी बैसाखी टेकता हुआ कृष्ण के पास आया. उसने अपने पेट पर लोहे का तवा (लोहंडा) बाँध रखा था. उसने कृष्ण से कहा कि–
“तुम्हारी कीर्ति बहुत सुनी है. तुम तपस्वियों की सेवा करते रहते हो, तुम्हारे सोलह सहस्र स्त्रियाँ है. उनमें से एक को वृद्धावस्था में सेवा करने के निमित्त मुझे दे दो.”
कृष्ण ने कहा कि-
“अभी तो आप भोजन करें. रात्रि के समय शयन गृह (कोहबर) में जाएँ. जिस नारी की शय्या आपको सूनी दिखाई पड़े, उसे आप सहर्ष ले जाइए.”
यह सुनकर ऋषि बड़ा प्रसन्न हुआ. रात्रि को उसने मन्दिर में प्रवेश किया. जिस गोपी के सेज पर उसने दृष्टिपात किया, वहीं से उसे पुरुष के खाँसने की आवाज़ सुनायी पड़ी. सुबह हो गयी पर उसे किसी नारी की शय्या पुरुष विहीन नहीं मिली. सत्य भाव को उसने परख लिया और वहाँ से चल पड़ा.
ऋषि जब जा रहा था, तब उसे रास्ते में कई यदुवंशी खेलते मिले. वे सब उसके विचित्र वेश को देख कर हँसने और उसका मखौल उड़ाने लगे. ऋषि ने क्रुद्ध होकर शाप दिया कि मेरे पेट पर जो तवा है, उसी से तुम्हारा नाश होगा और तुम सब आपस में जूझकर मर जाओगे. इस शाप की बात लोगों ने कृष्ण से जा कर कही. कृष्ण ने कहा कि दौड़ कर उससे तवा छीन लाओ. यदुवंशी दौड़ कर उससे तवा छीन लाए और यमुना के किनारे बैठकर उसको घिसने और एक दूसरे पर हँसने लगे. फलतः वे एक-दूसरे की बात सहन नहीं कर सके और परस्पर लड़-झगड़कर अंततः सभी यदुवंशी मर गए.
वहीं पर पड़े हुए तवे को एक मछली चारा समझ कर निगल गयी. जब राम ने अवतार लिया था, तब उन्होंने राजा बालि को छल कर मारा था. बालि ने इस काल में बिरिया-कोदया के रूप में जन्म लिया. उसने तवा निगलने वाली मछली को मारा. मछली का पेट फाड़ने पर उसमें से तवा निकला. उस तवे से मछुआरे ने बिचाखा (मछली मारने की बर्छी) बनायी. उसे लेकर वह नाव पर सवार हुआ और मछली मारने निकला. उधर कृष्ण ने जब सब यादवों के जूझ मरने की बात सुनी, तो अनुमान कर लिया कि उनका भी अन्तिम समय अब निकट है. तत्काल उन्होंने अपने भाई अर्जुन (बलदेव) को बुलाया और कहा कि मैं द्वारिका जा रहा हूँ. जो गोपियाँ मेरे संग आना चाहें, उन्हें मेरे साथ आने दो, जो सती होना चाहें, उन्हें सती होने दो और जो रह जाएँ, उनकी तुम रक्षा करना. किसी के साथ ज़बरदस्ती मत करना. लोग रोने लगे. कृष्ण ने सभी लोगों को रोता देखकर समझाया. यहाँ जायसी कहते हैं कि-
“झूठा धन्द प्रिथमीं, जग माया लपटान॥
दुयउ कर झार चला सब, ओ पाछें पछतान॥”
अर्थात् पृथ्वी का सब व्यापार झूठा है. संसार माया से लिपटा हुआ है. कृष्ण दोनों हाथ झाड़कर चल दिए और पीछे सभी पश्चाताप करने लगे. कृष्ण ने यमुना पार की और जब शाम हुई, तो वे पानी के किनारे लेट गए. उधर मछली मारता हुआ वही मछेरा बिरिया-कोदया आया. उसने समझा कि कोई रोहू मछली पड़ी है, इसलिए दौड़कर उसने अपना विचाखा चलाया. वह कृष्ण के पैर के तलवे में लगा, जिससे उनकी तत्काल मृत्यु हो गयी. जायसी कहते हैं कि
“जाकर बैर होइ जिंह सों, आपुन अस लेइ॥”
अर्थात् जिसका जिससे बैर होता है, वह ऐसे बैर लेता है.
माधव हाड़ा
आलोचक और अकादमिक माधव हाड़ा की दिलचस्पी का क्षेत्र मुख्यतः मध्यकालीन साहित्य और इतिहास है . उन्होंने आधुनिक साहित्य, मीडिया और संस्कृति पर भी विस्तार से विचार किया है . उनकी चर्चित कृति ‘पचरंग चोल पहर सखी री’ (2015) मध्ययुगीन संत-भक्त कवयित्री मीरांबाई के जीवन और समाज पर एकाग्र है, जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ 2020 में प्रकाशित हुआ और पर्याप्त चर्चा में रहा . यह कृति 32वें बिहारी पुरस्कार से सम्मानित भी हुई . उन्होंने भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में दो वर्षीय अध्येतावृत्ति के अंतर्गत (2019-2021) ‘पदमिनी विषयक देशज ऐतिहासिक कथा-काव्य का विवेचनात्मक अध्ययन’ विषय पर शोध कार्य किया, जो ‘पद्मिनी : इतिहास और कथा-काव्य की जुगलबंदी’ (2023) नाम से प्रकाशित हुआ है . प्राच्यविद्याविद् मुनि जिनविजय के अवदान पर भी उनका शोध कार्य है, जो साहित्य अकादेमी से प्रकाशित है . हाल ही में उन्होंने ‘कालजयी कवि और उनकी कविता’ नामक एक पुस्तक शृंखला का संपादन किया है, जिसमें कबीर, रैदास, मीरां, तुलसीदास, अमीर ख़ुसरो, सूरदास, बुल्लेशाह और गुरु नानक शामिल हैं . उनकी अन्य प्रकाशित मौलिक कृतियों में ‘देहरी पर दीपक’ (2021), ‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ (2012), ‘मीडिया, साहित्य और संस्कृति’ (2006), ‘कविता का पूरा दृश्य’ (1992), ‘तनी हुई रस्सी पर’ (1987) और संपादित कृतियों में ‘एक भव अनेक नाम’ (2021) ‘सौने काट ने लागै’ (2021) ‘मीरां रचना संचयन’ (2017) ‘कथेतर’ (2016) और ‘लय’ (1996) शामिल हैं . मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्ति के बाद, संप्रति वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान की पत्रिका ‘चेतना’ के संपादन से संबद्ध हैं . मो. 9414325302/ईमेल: madhavhada@gmail.com |
माधव हाड़ा ने यह श्रमसाध्य कार्य किया है।रोचक और पठनीय।
दिलचस्प कृति।कृष्ण की बाल लीलाओं की अबतक जानी-सुनी कथाओं में जायसी ने कहीं-कहीं कुछ अन्य श्रोतों का सहारा भी लिया है। मसलन,किसी पुराण में राधा-कृष्ण के गंधर्व विवाह की कथा का उल्लेख है। मिथकीय कथाओं पर आधारित यह एक कवि की अपनी साहित्यिक कृति है जिसमें उसका अपना भी बहुत कुछ है।समालोचन एवं माधव जी को साधुवाद।
शिवसहाय पाठक ने भी कन्हावत का सम्पादन किया है और महत्वपूर्ण सम्पादकीय लिखा है.
माधव हाड़ा जी को इस सुचिंतित आलेख के लिए साधुवाद.
कृष्ण लीला का यह एक और स्वरूप मोहक है– जायसी की इस दुर्लभ कृति को हिंदी में लाने के लिए माधव हाड़ा जी का कोटि कोटि आभार☘️☘️☘️