विष्णु खरे
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विष्णु खरे ने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी. उनके जीवन या जीवन कथा के बारे में भी प्रायः कुछ नहीं लिखा गया. पर संयोग से उनका लिखा विलक्षण आत्मकथ्य ‘मैं और मेरा समय’ उपलब्ध है, जो ‘कथादेश’ पत्रिका में इसी स्तंभ के तहत प्रकाशित हुआ था. यह एक विलक्षण दस्तावेज है. एक मानी में विष्णु खरे की संक्षिप्त आत्मकथा भी, जिससे उनके जीवन और शख्सियत के बारे में बहुत कुछ पता चल जाता है. फिर उनके कुछ चर्चित इंटरव्यू भी हैं, जिनमें उन्होंने प्रसंगवश अपने बारे में बहुत कुछ बताया है. उनकी जीवन कथा वहाँ सिलसिलेवार न सही, पर जहाँ-तहाँ बिखरी हुई देखी जा सकती है. साथ ही इन मुलाकातों में जगह-जगह उनके जीवन के वे प्रसंग भी उभरकर आते हैं, जिनकी उनके मन पर गहरी छाप पड़ी, और जो अंत तक उनकी स्मृतियों में दस्तक देते रहे.
इसके अलावा विष्णु जी की बहुतेरी आत्मपरक कविताएँ तो हैं ही, जिनमें उनके बचपन, किशोर काल और परवर्ती जीवन के साथ-साथ उनके परिवार के लोगों, विशेषकर माँ और पिता के बारे में बड़े विरल साक्ष्य उपलब्ध हैं. सच पूछिए तो विष्णु खरे शायद हिंदी के उन विरले कवियों में से हैं जिनकी कविताओं में काफी ज्यादा आत्मकथा है. हो सकता है, कविता में इतनी आत्मकथा लिख पाने वाला कोई दूसरा कवि हमारे यहाँ हो ही नहीं. इसका जिक्र करना इसलिए जरूरी लगा कि कहानी में आत्मकथा लिखना तो आसान है. इसकी तुलना में कविता में आत्मकथा लिखना कठिन है-एक बहुत दुष्कर काम. पर विष्णु खरे बगैर कोई दावा किए-और यहाँ तक कि बगैर कोई दिखावा किए यह काम करते हैं.
कविता में निजी जिंदगी के अक्स यकीनन आते हैं-और निजी अहसास या अनुभूतियाँ आएँगी तो भला निजी जिंदगी कैसे बच रहेगी? तो भी कविता में निजी जिंदगी के कुछ इधर-उधर छिटके अक्स ही ज्यादातर दिखाई देते हैं. मानो समझ लिया गया हो कि कविता का पेटा इतने से ही भर जाता हो. जबकि विष्णु खरे की कविताओं में उनकी आत्मकथा ज्यादा खुलकर और अपने पूरे वर्णनात्मक विस्तार के साथ आती हैं. सच कहूँ तो उनकी कविताओं के एक पाठक के तौर पर मुझे यह बहुत अच्छा और सुखद लगता है.
विष्णु खरे जिस नास्टेलजिया या कहूँ कि गहरी भावनात्मक तड़प के साथ अपने जीवन में आए या आवाज़ाही करते लोगों, घटनाओं और चीजों का जिक्र करते हैं, वह मुझे सचमुच उनकी कविताओं का एक मुग्ध कर देने वाला फिनोमिना लगता है. और कहीं-कहीं तो घटनाओं या हादसों के ठीक-ठीक सन् ही नहीं, दिन, तारीख और स्थानों के इतने सीधे-सीधे ब्योरे भी हैं कि उनकी कविताएँ ‘एक और आत्मकथा’ जान पड़ती हैं. बेशक ऐसी कविताएँ भी जरूरी साक्ष्य की तरह ही हैं. कोई सतर्क लेखक या पाठक चाहे तो इन कविताओं में छिपी हुई आत्मकथा न सिर्फ डिस्कवर कर सकता है, बल्कि इनके आधार पर विष्णु खरे की एक अच्छी जीवनी भी लिखी जा सकती है.
खासकर ‘सबकी आवाज़ के पर्दे में’ संग्रह की ‘दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है’, ‘चौथे भाई के बारे में’, ‘अपने आप’, ‘मंसूबा’, ‘स्कोर बुक’, ‘खामखयाल’ सरीखी कविताओं को जरा याद करें. आपको लगेगा, यह कविताओं में लिखी गई सीधी-सीधी आत्मकथा है और इनके साथ जुड़े पारिवारिक प्रसंगों, पात्रों और घटनाओं का दर्द या विडंबना इतनी गहरी है कि वह कविताओं को भी कहीं अधिक मार्मिकता दे देती है.
इन सभी को सँजोकर उनकी एक संक्षिप्त जीवन कहानी को शायद तलाशा और तराशा तो जा ही सकता है. चलिए, थोड़ी कोशिश यहाँ करते हैं.
१: आरम्भ |
विष्णु खरे का जन्म 9 फरवरी 1940 को मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा शहर में हुआ था. अपने आत्मकथ्य में वे बड़े अनूठे ढंग से इसे उकेरते हैं, और अपनी कहानी को गर्भाधान तक ले जाते हैं-
“वह मई 1939 के पहले पखवाड़े का कोई दिन रहा होगा और उसका कोई एकांत पहर. दर्म्याने कद का वह खूबसूरत सा युवक 22 वर्ष का था, कस्बाई निम्न मध्यवर्गीय जि़ला अदालत के एक मँझोले कारकुन का इकलौता बेटा, जिसके बाप ने उसकी शादी करवा दी थी, बी.एस-सी. तक पढ़ा दिया था और उसके लिए एक छोटा-सा मकान और जवान होती दो कुँवारी बहनों की सौगातें छोड़ दी थीं. उसकी वह 20 वर्षीया पत्नी उसे अभी एक बरस पहले ही एक बेटा सौंप चुकी थी, लेकिन उस मई के पूर्वार्द्ध में शरीर विज्ञान के युवक स्नातक को अपनी मिडिल पास पत्नी का प्रेम या बदन फिर कुछ असामान्य ढंग से खींच रहा था, युवती उर्वरा थी. हजारों शुक्राणु नष्ट होते हैं लेकिन एक रहस्यमय संयोगवश कोई एक गर्भाशय में अपना जीवन जारी रखने में सफल हो जाता है. वह युवती एक चमत्कारपूर्ण कोख की धनी थी-दूसरी बार भी उसे बेटा ही होना था, और आगे तीसरी बार भी और चौथी बार भी.”
9 फरवरी को जब विष्णु खरे का जन्म हुआ, देश-दुनिया में कैसे हालात थे, इसका बड़ा दिलचस्प वृत्तांत विष्णु खरे प्रस्तुत करते हैं-
“1940 के उस चालीसवें दिन भी भारत गुलाम था. विक्टर अलेक्जेंडर जॉन रोप, मार्क्वेस ऑफ लिनलिथगो, भारत का वाइसरॉय और गवर्नर-जनरल था. हिटलर पोलैंड पर कब्जा कर चुका था, उसके साथ संधिबद्ध सोवियत संघ स्तालिन के नेतृत्त्व में फिनलैंड पर हमला किए हुए था. पहली लड़ाई की तरह दूसरी लड़ाई में भी हिंदुस्तानी फौजी मित्र-राष्ट्रों के लिए लड़ रहे थे-कुछ फ्रांस में तैनात थे. हिटलर ने यहूदियों का संहार शुरू कर दिया था. ब्रिटेन और फ्रांस ने अभी जंग का ऐलान नहीं किया था. गाँधी कह रहे थे कि भारत खुद फैसला करेगा कि उसकी जरूरियात क्या हैं लेकिन लड़ाई को देखते हुए अभी सविनय अवज्ञा न करने का भरोसा भी दे रहे थे. नेहरू ने ब्रिटिश सरकार से कहा कि कोई रिश्ते नहीं रखे जाएँगे. एम.एन. रॉय ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव न लड़ने का फैसला किया. जिन्ना की पाकिस्तान की माँग जोर पकड़ चुकी थी और कुछ नेता उसका विरोध भी करने लगे थे.”
अब जरा उस समय की आर्थिक, सामाजिक और अन्य स्थितियों का यह खाका भी देखें, जिसमें रुपहले पर्दे पर कामयाबी हासिल कर रही ‘अछूत’, ‘जवानी की रात’ और ‘पुकार’ जैसी फिल्मों का भी जिक्र है-
“बड़ी मंडियों में उस दिन तैयार गेहूँ का भाव 3 रुपए 1 आने मन था. चाँदी जो पिछले बरस 52 रुपए 5 आने 6 पाई सेर थी, वह 56 रुपए 6 आने हो गई थी. सोना पिछले बरस के 37 रुपए 3 पाई तोले से बढ़कर 42 रुपए 4 आने 3 पाई पर चल रहा था. अहमदाबाद में आम हड़ताल थी, लेकिन सेंट्रल प्रॉविंसेज में बस कर्मचारी काम पर नहीं आए थे इसलिए छिंदवाड़ा से नागपुर-जबलपुर मोटर-यातायात बंद था. ‘अछूत’, ‘जवानी की रात’ और ‘पुकार’ रुपहले पर्दे पर कामयाबी हासिल कर रही थीं. संभ्रांत दर्शक ‘मिस्टर स्मिथ गोज टू वॉशिंगटन’, ‘द्विविजर्ड ऑफ ऑज’, ‘कन्फेशंस ऑफ ए नात्सी स्पाई’ और मार्क्स ब्रदर्स की ‘एट दि सर्कस’ देख रहे थे. नागपुर यूनिवर्सिटी के उस साइंस ग्रेजुएट को यह सब पता था या नहीं, कह नहीं सकते, लेकिन किसी तुफैल में उसकी दिलचस्पी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में थी. 9 फरवरी 1940 को, जिस दिन सूर्योदय 7.11 पर हुआ और सूर्यास्त 6.36 पर, वह शाम 7.10 बजे दुबारा एक बेटे का बाप बना तो उसने उसका नाम अपने प्रिय गायक विष्णुपंत पागनीस से मिलता-जुलता रखा.”
विष्णु खरे के जन्म के समय उनके पिता सुंदरलाल खरे की वय तेईस वर्ष थी, और माँ रामकुमारी इक्कीस बरस की थीं. विष्णु जी से एक वर्ष पहले उनके बड़े भाई श्याम खरे का जन्म हो चुका था, जिन्हें परिवार में सब मन्नू जी कहकर पुकारते थे. वे विष्णु जी से लगभग दो बरस बड़े थे. विष्णु जी के बाद उनके छोटे भाई गोपाल खरे का जन्म हुआ, जिसका घरेलू नाम गोपी था. परिवार में ये तीन संतानें ही थीं. तीनों भाई, बहन कोई नहीं. यों उनका एक भाई और भी जनमा, जो अल्प काल में ही चल बसा. विष्णु जी की कविता ‘चौथे भाई के बारे में’ में उनका काफी विस्तार से जिक्र है.
‘सबकी आवाज़ के पर्दे में’ संग्रह में शामिल इस मर्मस्पर्शी कविता की शुरुआत किसी औचक कथा की तरह होती है, जो धीरे-धीरे हमें अपने प्रभाव की गिरफ्त में ले लेती है-
यह शायद 1946 की बात है जब हम तीन भाई
घर में पड़े रामलीला के मुकुट पहनकर खेल रहे थे
तब अचानक विह्वल होकर हमें बताया गया
कि मेरे और मुझसे छोटे के बीच तुम भी थे
और यदि आज तुम होते तो हम चार होते
राम लक्ष्मण भरत शत्रुघन की तरह
बतलाने के बाद माँ या बुआ सहम गई थीं
और कुछ न समझने के बावजूद हमारा खेल
मंद सा पड़ गया था लेकिन तब से लेकर आज का दिन है
कि मैं कई बार तुम्हारे बारे में सोचता हूँ.
और फिर पिछली बातों के स्मरण के साथ कविता दूर तक फैलती जाती है, जिसमें परिवार का वर्तमान और अतीत भी चला आता है और करुणा की एक गहरी गूँज हमें दूर तक सुनाई देती है-
मैं अब माता-पिता के फोटो और हम तीन भाइयों के चेहरों में
तुम्हारा चेहरा खोजता हूँ
बचपन से लेकर अब तक की हमारी तसवीरों से
मैंने कल्पना में तुम्हारे कई आइडेंटिकल हुलिए बनाए हैं
एक ऐसे शाश्वत गुमशुदा की अनंत तलाश में
जिसे ‘तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा’ के लाख आश्वासन
कभी लौटा नहीं लाएँगे
वे यहाँ तक कल्पना करते हैं कि कहीं असमय गुजरा उनका चौथा भाई ही उनकी दो बेटियों या बेटे के रूप में फिर से लौटकर तो नहीं आ गया.
2: बचपन में ही जो देखा और जिया |
विष्णु जी के दादा मुरलीधर खरे जिला अदालत में नाजिर थे, और उनका काफी नाम था. वैसे भी वे बड़े सुरुचि संपन्न व्यक्ति थे, जिनका उर्दू और अंग्रेजी पर बड़ा अधिकार था. विविध तरह की रुचियों वाले मुरलीधर खरे छोटा बाजार की रामलीला के संयोजक थे, जो रामलीला का सारा कामकाज सँभालते थे. उसमें खुद अभिनय भी करते थे.
उनके होते घर के हालात ठीक थे, पर वे जल्दी चले गए. उनका निधन विष्णु जी के जन्म से पहले ही हो चुका था, संभवतः 1939 में. उस समय विष्णु जी के बड़े भाई का जन्म हो चुका था. इसका जिक्र ‘खुद अपनी आँख से’ संग्रह में शामिल ‘टेबिल’ कविता में है, जिसमें प्रकारांतर से उन्होंने अपने परिवार की चार पीढ़ियों की कहानी दर्ज कर दी है-
और एक चिलचिलाती शाम न जाने क्या हुआ कि घर लौट
बिस्तर पर यों लेटे कि अगली सुबह उन्हें न देख सकी
और इस तरह अपने एक नौजवान शादीशुदा लड़के
दो जवान अनब्याही लड़कियों और बहू और पोते को
मुहावरे के मुताबिक रोता-बिलखता लेकिन असलियत में मुफलिस
छोड़ गए
विष्णु जी के पिता सुंदरलाल खरे को विज्ञान में सेकंड डिवीजन में ग्रैजुएट होने के बावजूद काफी समय तक नौकरी नहीं मिली. उनकी बेरोजगारी के कारण घर की स्थितियाँ बिगड़ती गईं. इसलिए विष्णु जी के जन्म के समय घर की स्थितियाँ बहुत अच्छी न थीं.
जब विष्णु खरे करीब दो बरस के थे, वे गंभीर रोग की चपेट में आ गए. वे मृत्यु के बहुत करीब आ चुके थे, पर ममतालु माँ की अहर्निश सेवा ने उन्हें बचा लिया. एक लंबी बातचीत में उन्होंने मुझे बताया था कि वे संभवतः गायक या संगीतकार संगीतज्ञ होना चाहते थे. पर उनकी आवाज़ बचपन में ही, जब वे एक-डेढ़ साल के थे, तब निकली चेचक की वजह से कुछ बैठ सी गई. वे बताते हैं-
“मुझे बताया तो यह गया कि चेचक का असर गले पर था और मेरी आवाज़ बिल्कुल चली गई थी और मैं गूँगा ही हो गया था. तब मेरी माँ ने जो बड़ी ही धुनी और दृढ़निश्चयी महिला थी, यह सोचकर कि मेरा बेटा गूँगा क्यों रहे, लगातार तीमारदारी करके मेरी आवाज़ को पूरी तरह नष्ट होने से बचा लिया.”
दूसरे विश्वयुद्ध के समय बहुत युवकों की सेना में भरती हुई. विष्णु जी के पिता सुंदरलाल खरे भी अंग्रेजी फौज में शामिल हो गए और बरमा में तैनात हुए. युद्ध समाप्त हुआ तो हजारों नौजवानों की छँटनी हुई, जो फौज में स्थायी नौकरी के सपने देखते थे. इनमें सुंदरलाल खरे भी थे. लिहाजा “सेकंड लेफ्टिनेंट के समकक्ष रैंक से निकाले गए 28 वर्षीय नागपुर के बी.एस-सी. को राशनिंग विभाग में क्लर्की करनी पड़ी और वह भी उसे 1946 में फकत 29 बरस की उम्र में विधुर बनने से न रोक पाई.”
विष्णु कोई छह बरस के थे, जब उन्हें माँ के न होने की दुखद पीड़ा झेलनी पड़ी, और यह दुख, यह कष्ट उन्हें जीवन भर रहा. बल्कि सच तो यह है कि माँ के न रहने की दारुण परिस्थितियों ने उन्हें भीतर-बाहर से एकदम बदल दिया. वे समय से पहले ही बड़े हो गए और बचपन उन्होंने लगभग जिया ही नहीं. हालाँकि माँ की कुछ विरल स्मृतियाँ उनके भीतर रह गईं, और उनका जिक्र उन्होंने कहीं-कहीं किया है.
‘काल और अवधि के दरमियान’ संग्रह की ‘1991 के एक दिन’ कविता में वे माँ को याद करते हैं, जिनकी मृत्यु सन् 1946 में हुई, जब वे केवल सत्ताईस बरस की थीं. कविता में इस बात का भी जिक्र है कि विष्णु जी का विवाह सत्ताईस वर्ष की अवस्था में हुआ था, और तब वे उम्र में माँ से बड़े थे-
दूसरी तरफ मैं इससे भी लज्जित हूँ
कि सताईसवें बरस में जब मैंने विवाह किया
तो मुझे 1946 में गुजरी अपनी सत्ताईस वर्षीया माँ का स्मरण तो रहा
लेकिन उनसे बड़ा होने का अहसास क्यों नहीं हुआ
क्या इसलिए कि मैं उनकी मृत्यु पर छह बरस का ही था
माँ की मृत्यु मुझे इतनी दूर क्यों लगती है कि समय से परे हो
पिता की मृत्यु अभी कल हुई घटना की तरह दिखती है
इससे पता चलता कि जीवन के किसी भी मोड़ पर वे असमय गुजरी माँ और पिता को भूलते नहीं है. बल्कि वे ऐसे जरूरी संदर्भ हैं, जिनसे जोड़कर ही वे अपने समय और समूची जीवन कथा को देख पाते हैं. माँ और पिता का इस तरह असमय चले जाना, उनके लिए एक बड़े और विकल कर देने वाले धक्के की तरह था. लिहाजा यह दुख उनके भीतर से कभी गया नहीं, और रह-रहकर उनकी कविताओं और बातों में भी उभरकर आता रहा.
विष्णु जी का बचपन कैसा था? इस बारे में पूछे जाने पर एक लंबी बातचीत में उन्होंने कहा था कि बचपन को उन्होंने कभी बचपन की तरह जाना ही नहीं. वे बचपन में ही बड़े हो गए थे. विष्णु जी के ‘पाठांतर’ संग्रह की पहली कविता ‘चोर-सिपाही’ भी जैसे इसी बात की ताईद करती है. बचपन में वे अपने दोस्तों के साथ चोर-सिपाही खेल रहे थे, जो उस दौर में काफी प्रचलित था. यह खेल बहुत बच्चे खेलते थे, पर विष्णु खरे खेल में इस कदर डूब गए थे कि उन्हें किसी और चीज का ध्यान ही नहीं रहा. और फिर शाम का झुटपुटा होने पर उन्हें शंका हुई कि क्या पता खेल अभी जारी है भी या नहीं. पर सभी दोस्त अपने-अपने घरों में वापस जा चुके थे.
जाहिर है, उस समय विष्णु जी को भी एकाएक घर की याद आई और खेल पीछे रह गया. उस समय उनकी मनःस्थिति क्या थी, कविता की आखिरी पंक्तियों से यह जाहिर हो जाता है-
जो खेल का सामान रखता था उस हँसते हुए दोस्त संतोष को
अपनी सिपाही वाली नाकामयाब काठ की पिस्तौल सौंपते हुए
याद आया कि अपने मातृहीन घर के काम की जवाबदेही
आज शाम मेरी थी
चूल्हा सुलगाना तो दूर
खुले बरामदे में भी अब तक अँधेरा हो चुका होगा
जहँ बैठा होगा मेरा कुसूर मेरी बाट जोहता हुआ
यह कविता पढ़ते हुए पता चलता है कि बचपन में ही मातृहीन घर की जिम्मेदारियों ने विष्णु खरे को एकाएक बड़ा बना दिया था. लिहाजा वे दोस्तों के साथ खेल पाएँ या नहीं, घर के अपने हिस्से के काम-काज पूरे करना उनके लिए कहीं अधिक जरूरी था. इसीलिए बचपन की मस्ती और उमंग को उन्होंने जाना ही नहीं. चिंताओं का बोझ बचपन को बचपन नहीं रहने देता, और लगभग यही हालत विष्णु खरे की थी, जिन्होंने बहुत छोटी उम्र से ही जीवन की कठिन डगर पर चलना शुरू कर दिया था.
विष्णु जी के पिता की शास्त्रीय संगीत में गहरी रुचि थी, और वे अच्छा गाते थे. विष्णु जी बचपन में उन्हें सुना करते थे. संभवतः इसी कारण संगीत बचपन से ही उन्हें भी आकर्षित करने लगा. वे अच्छा गाते तो थे ही, संगीत सुनने का भी उन्हें शौक था. ‘मंसूबा’ कविता में विष्णु जी बचपन में ग्रामोफोन के अपने शौक का जिक्र करते हैं जिसमें रिकार्ड घूमने का रोमांच उन्हें मुग्ध करता था. बाद में भी उनका यह शौक और दीवानगी बनी रही-
पुराने 78 आर.पी.एम. रिकार्डों की हसरत
उसे कहाँ-कहाँ नहीं ले गई है
जब अपने कसबे भी लौटता है तो अब भी
खोद-खोदकर पूछता रहता है
और कभी-कभी कुछ अप्रत्याशित हाथ लग भी जाता है
जैसे उस खँडहरनुमा दो कमरों में रहने वाले
उस मुंशी के यहाँ से बारह बरस पहले
दस दिलचस्प भले ही कामचलाऊ हालत के तवे मिल गए थे
यों यह कम विचित्र बात नहीं कि पुराने ग्रामोफोन के तवों का शौक विष्णु जी को साठ बरस के उस खस्ताहाल बेनीप्रसाद के पास ले गया, तो रिकार्डों के साथ-साथ एक करुण कहानी भी उन्हें मिल गई थी. बचपन में दुर्व्यवहार के कारण जिस शख्स से वे बदला लेने के मंसूबे बाँध रहे थे, उसकी खुद समय ने ऐसी दुर्दशा कर दी थी कि उससे बदला लेने की बात सोचना ही निरर्थक था.
3: माँ की कुछ विरल स्मृतियाँ |
विष्णु जी के आत्मकथ्य ‘मैं और मेरा समय’ में भी माँ से जुड़ी ऐसी ही यादें हैं. माँ उन्हें अपने साथ शहर के पाटनी पिक्चर पैलेस में ‘सिकंदर’, ‘शकुंतला’ और ‘राम राज्य’ दिखाने ले गई थीं. इसके लिए वे हमेशा माँ का स्नेह-भरा अहसान महसूस करते रहे. इतना ही नहीं, पिता बर्मा में लड़ाई के मोरचे पर थे, इसलिए माँ ने ही उन्हें स्कूल में भरती भी कराया. जब पता चला कि स्कूल में दाखिले के लिए अभी बच्चे की उम्र एक साल कम है, तो उन्होंने उम्र एक साल बढ़ाकर लिखवा दी.
इसी आत्मकथ्य में बड़े कारुणिक ढंग से माँ को याद करते हुए विष्णु खरे लिखते हैं,
“ननिहाल से कोई सहारा न था, सो वह अकेली और, जो स्वयं एक युवती ही थी, किस तरह मंडाले, मेम्यो, चिंदविन सरीखे शहरों से आए अपने मृत्यु या अन्य दुर्घटना-आशंकित पति के अनियमित मनीऑडरों से, अपनी दो जवान ननदों और तीन बच्चों को टी.बी. ग्रस्त होने के बावजूद पालती होगी, यह एक ऐसी कहानी है जिसका असली बयान करने वाला कोई भी अब जि़ंदा नहीं है.”
इसी संदर्भ में विष्णु खरे ने एक पारिवारिक फोटोग्राफ को भी बड़ी कशिश के साथ याद किया है, जिसमें माँ के साथ-साथ पूरे परिवार की बडी आत्मीय छवि दर्ज है. पिता, बड़े भाई, दो बुआएँ, मौसी-मौसा और उनकी संतानें भी. इसमें पिता खासे फब रहे थे, इसका जिक्र किंचित गर्व के साथ उन्होंने किया है. इस फोटोग्राफ में खुद विष्णु माँ की गोद में हैं-
“एक फोटोग्राफ है जिसमें वह अपनी गोद में उस चार-पाँच महीने के बच्चे को लिए खड़ी है. पास में ही उसका दो वर्षीय पहला बेटा फोटो खिंचाने के लिए उम्दा तैयारी में बैठा हुआ है. लड़कों के मौसी-मौसिया भी अपनी संतानों के साथ हैं और उनका पिता, यानी उसका साइंस ग्रेजुएट पति भी, सूट और टाई में, बहुत स्मार्ट, अपने साढू से कहीं ज़्यादा. उसकी दोनों कुँवारी, जवान ननदें भी.”
लेकिन फिर समय की निर्दय कूँची ने एक-एक चेहरे को साफ करना शुरू कर दिया. सन् 1946 में माँ गईं, 1948 में बड़ी बुआ, 1950 में छोटी बुआ. और फिर एक-एक करके मौसा-मौसी और उनकी संतानें भी.
यहीं ‘पाठांतर’ में शामिल विष्णु जी की बेहद मार्मिक कविता ‘1946 की एक रात’ को उद्धृत किया जा सकता है, जिसमें उन्होंने माँ के जीवन की आखिरी रात का भीतर तक छूने वाला बड़ा ही कारुणिक चित्र उपस्थित किया है-
पसीने से लथपथ वह उठी होगी किसी वक्त
जब खाँसी के साथ हलक तक आया उसका खून
जीभ पर कुछ ज्यादा गाढ़ा खारा हो गया होगा
और उसने जान लिया होगा
किसी तरह छोड़ा होगा उसने
वह सबसे दूर बिछाया गया अपना पलंग
जिसकी निवार में गठानें लगी हुई थीं
सिरहाने रखी राख से भरी जंग लगी बालटी को
अपनी ठोकर की आशंकित आवाज़ से बचाते हुए
घर में अँधेरा रहा होगा
लेकिन बाहर का कुछ न कुछ उजाला अंदर आ ही जाता है
उसके और दीवार के बीच
वह किसी तरह उस दरवाजे तक पहुँची होगी
जहाँ से परछी में सोया उसका पति दिखा होगा
जिसकी आधी तनख्वाह उसके इलाज में जाती थी
और कोई मौका होता तो वह
उसके पैताने तक पहुँच उसके पैर छू भी लेती
जो जब उससे स्नेह जताना चाहता था तब उसे भालू जी कहता था
लेकिन उस वेला में
उससे उसे यहीं से प्रणाम कर लेना उचित समझा होगा
शायद उसने उससे माफी माँगी हो कि उसकी सेवा न कर सकी
कविता की आखिरी पंक्तियों में अपने आसपास के जीवन, घर-परिवार और अपनी ही बनाई हुई उस छोटी सी दुनिया से विदा लेती माँ का करुण चित्र है, जब उसकी साँसें चुक रही हैं, पर आँखों के सपने अभी खत्म नहीं हुए-
पता नहीं आले में रखे भगवान जी को उसने हाथ जोड़े या नहीं
इन दिनों वह कभी-कभी ही उनकी पूजा होते देखती थी
वहीं खड़े-खड़े सिर्फ अपनी निगाह से छू लेने
वह अपने घर के कोने-कोने तक गई होगी
आने वाले बरसों के खुशी भरे सपने देखने के लिए
धीरे-धीरे लौटकर फिर उसने आँखें मूँद ली होंगी
विष्णु जी की यह कविता टी.बी. के कारण असमय गुजरी माँ की आखिरी रात की कविता है, जिसे पढ़ते-पढ़ते आँखें भीगने लगती हैं, और फिर कुछ समय तक हम आगे कुछ और नहीं पढ़ पाते. यों विष्णु जी के यहाँ भीतर तक द्रवित करने वाली कई और भी आत्मकथात्मक कविताएँ हैं. पर ‘1946 की एक रात’ उनमें अप्रतिम है, इसलिए कि इसके शब्द-शब्द में उनकी माँ का होना महसूस होता है और उनके जीवन की आखिरी साँसें, हसरतें और बिछोह के आखिरी पल भी.
जब-जब हम इसे पढ़ते हैं, अनायास ही विष्णु जी के जीवन में बहुत अंतरंगता से शामिल होने का अहसास होता है, और फिर उनके जीवन की पूरी व्यथा-कथा हमारे आगे खुलने लग जाती है.
‘पाठांतर’ संग्रह में ही शामिल विष्णु जी की ‘किसलिए’ कविता भी अद्भुत है, जिसमें उनके बचपन की एक बड़ी मधुर याद है, जब वे केवल चार बरस के थे. कविता में पूरे परिवार की एक सुखद रेलयात्रा का वर्णन है, जिसमें सभी लोग दूर के एक चच्चा के यहाँ जबलपुर दीवाली मनाने जा रहे हैं-
गोंडवाना सतपुड़ा की शुरुआती सर्दियों वाली शाम का घिरता अँधेरा
गाड़ी जब रफ्तार पकड़ती है तो पीले बल्ब कुछ तेज होते हैं
डिब्बे में इतने लोग हैं कि उसमें एक गरमाहट सी आ गई है
सब साथ में हैं बाबू भौजी दोनों बुआ
हम तीनों भाई छह महीने का गोपी सात बरस के मन्नू जी
चार साल का मैं और हमारे दूर के अंबिका चच्चा जिनके यहाँ
हम दीवाली के लिए छिंदवाड़ा से जबलपुर जा रहे हैं
कविता में पूरे परिवार के एक साथ होने का अहसास, जाहिर है, इस रेलयात्रा को और भी सुखद और मनोरम बना देता है. और इस यात्रा में सचमुच घर के सब लोग इतने खुश हैं कि विष्णु खरे को लगता है, इससे ज्यादा खुशी का क्षण उनके लिए कुछ और हो नहीं सकता. तब चार बरस का वह छोटा बच्चा मानो मन ही मन प्रार्थना सी कर उठा, कि हम सब लोग ऐसे ही रहें, हमेशा ऐसे ही रहें और अपूर्व सुख का यह क्षण समय की लंबी धारा में कहीं बिला न जाए-
बंगाल नागपुर रेलवे के कभी दिखते कभी छिपते छोटे इंजन की छुक-छुक
सीट और पहियों की आवाज़ धुएँ की खुशबू पीछे छूटते गाँव
डिब्बे का हिलना सिग्नलों की जगमगाती हरी बत्ती और झिलमिलाते तारों का जादू
पहली बार यह मुझ पर उतर रहा है लेकिन सबसे बढ़कर वह खशी
जिसे मैं चुपचाप देखता रहा कि अपन सब ऐसे ही रहें, ऐसे ही रहें, ऐसे ही रहें
ईश्वर, अपने जीवन की उस सबसे खुश शाम को मैं सो कब गया
और सोया तो जागा किसलिए
यह स्वाभाविक ही था कि अपार सुख के इन क्षणों में वह चार साल का छोटा सा बच्चा सो गया. पर विष्णु जी इसके लिए खुद को कभी माफ नहीं कर पाते, इसलिए कि उनकी नींद में सुख का यह अपूर्व क्षण गुम हो गया. और उनके जीवन में ऐसा हँसी-खुशी का आह्लादित क्षण फिर कभी नहीं आया, जब कि पूरा परिवार एक साथ हो, खूब खुश हो, और दूर-दूर तक उस पर कहीं दुख की झाँईं न हो.
4: पिता जो संगीत रसिक थे |
विष्णु खरे के पिता की शास्त्रीय संगीत में गहरी रुचि थी. इसलिए बचपन में विष्णु को बाँसुरी, सितार और हारमोनियम पर उनका गायन सुनने का सुख मिला. घर में एक ग्रामोफोन था, जिस पर बड़े शास्त्रीय संगीतकारों और गायकों के रिकार्ड बजते रहते थे. घर पर सुरुचिपूर्ण साहित्यिक माहौल था, इसका असर भी विष्णु खरे के व्यक्तित्व पर पड़ा-
“फारसीदाँ दादा को नाटकों और रामलीला में अभिनय का शौक था. पिता को शास्त्रीय संगीत का आकर्षण और ज्ञान कब से हुआ, यह पता नहीं लेकिन वह उनकी बाँसुरी, सितार और हारमोनियम पर उनका गायन सुनता रहा. एक ग्रामाफोन था और मनहर बर्वे, पुलस्कर, विष्णुपंत पागनीस, जूथिका राय और सहगल वगैरह के रिकॉर्ड थे. फिल्म और फिल्म संगीत हतोत्साहित किए जाते थे. सस्ते उपन्यासों पर रोक थी लेकिन 1948 से ‘माया’, ‘मनोहर कहानियाँ’ आते थे. ‘कल्याण’ और ‘संगीत’ की मासिक ग्राहकी थी तथा गीताप्रेस, गोरखपुर की अनेक दर्शन और भक्ति एवं सदाचार से भरी पुस्तकें थीं.”
पिता उदार धार्मिक विचारों के थे, इसका प्रभाव घर के पूरे माहौल पर पड़ा. होली, दीवाली सरीखे त्योहार मनाए जाते थे, पर बड़ी ही सादगी से. लेकिन “शेष कोई तीज-त्योहार, कर्मकांड नहीं होता था. छोटों या बड़ों का कोई जन्मदिन कभी नहीं मनाया जाता था.”
अपने आखिरी संग्रह ‘और अन्य कविताएँ’ की ‘और नाज मैं किस पर करूँ’ कविता में विष्णु जी अपने बचपन के दिनों का जिक्र करते हैं, जिसमें कहीं भी जाने पर लोग स्वभावतः उनसे पिता का नाम पूछते थे. फिर उनके बताने पर, ‘अच्छा, तम सुंदर के बेटे हो’ कहकर उनके पिता के बचपन और उस समय की उनकी आदतों वगैरह का रस ले-लेकर वर्णन करने लगते थे, तो उनके लिए बड़ी अटपटी स्थिति हो जाती थी. उनके पिता कभी छोटे भी थे और स्कूल जाते थे, उनके लिए तो यह सोच पाना ही कठिन था. और फिर लोगों की बातें सुनकर अचानक हुआ यह अहसास उन्हें भीतर तक विस्मय से भर देता है. यहाँ तक कि बड़े होने पर भी वे उस विस्मयपूर्ण अटपटे अनुभव को भूल नहीं पाए.
‘और नाज मैं किस पर करूँ’ पढ़ते हुए विष्णु जी के पिता सुंदरलाल खरे की एक आत्मीय छवि तो सामने आती ही है, साथ ही लगता है, जैसे खुद हम भी छिंदवाड़ा में बीते उनके बचपन के दिनों में पहुँच गए हों. कविता में विष्णु जी बिना कुछ अधिक कहे, पिता की एक प्रियतर छवि अंकित कर देते हैं, जो लोगों की स्मृतियों से होती हुई, खुद उनकी स्मृति में स्थायी रूप से अंकित हो जाती है.
इसी तरह ‘दगा की’ कविता में पिता की एक घरेलू छवि है. वे अभी-अभी स्नान करके बाहर आए हैं, और उघारे बदन बाल काढ़ रहे हैं. विष्णु जी ने पहली बार उनकी देह की कांति देखी, और उनकी वह सुरूप छवि हमेशा के लिए उनकी स्मृति में रह गई-
घर में कोई स्त्री न बची थी और न आती थी
तीन बेटे ही थे
लेकिन पिता नहाने के बाद कमर पर तैलिए के ऊपर
बनियान पहने बिना सपन्ने से निकलते न थे
पर उस पहली और अंतिम सुबह
मैंने उन्हें उघारे बदन देखा
आईने के सामने अपने कम होते बाल काढ़ते हुए
चौड़ा उभरा उजला कुछ अधिक रोमहीन सीना जिस पर एक मसा
दोनों सुघड़ गहरी हँसलियाँ एक-दूसरे से संतुलित
नीचे की पसलियाँ स्पष्ट
बदन पर रत्ती भर चर्बी नहीं
ऊँछने के लिए मुड़े हाथों के कारण उभरे बाजुओं पर दिखती
दो सुंदर नीली नसें दाईं बाँह पर एक तिल
खूबसूरत पीठ जिसे एक गहरी रीढ़ दो समान हिस्सों में बाँटती हुई
मैंने वे भी देखे जिन्हें किसी उपयुक्त नाम के अभाव में
पुरुष कुचाग्र ही कहना पड़ेगा
विष्णु जी ने पहली बार यह महसूस किया कि उनके पिता बहुत सुंदर हैं. उनका मन हुआ कि काश, लोग उनकी यह सुंदरता देख पाते-
कमीज या बुशकोट में वे दुबले लगते थे इसलिए मुझे विचित्र खयाल आया
कि काश लोग उनका वह बदन देख पाते
मैं सबसे बताना चाहता था कि मेरे पिता तगड़े हैं और चुस्त
और सचमुच सुंदर हैं
सन् 2000 में मध्यप्रदेश का पुनर्गठन हुआ और छत्तीसगढ़ अलग राज्य बना. पर विष्णु जी के जेहन में वह जस का तस बना रहा. भला वे उसे अपनी स्मृतियों से जुदा कैसे कर सकते थे. ‘पृथक छत्तीसगढ़ राज्य’ में विष्णु जी बहुत भावविह्वल होकर इसका वर्णन करते हैं. यों यह विष्णु खरे की एक ऐसी आत्मकथात्मक कविता है, जिसमें वे बहते हैं तो बहते चले जाते हैं और उनके बचपन की छोटी से छोटी स्मृतियाँ भी यहाँ दर्ज हो जाती हैं. तब स्कूली दिनों में वे मध्यप्रदेश का नक्शा बनाया करते थे, जिसे वे बरसों बाद भी भूले नहीं-
अब जब यह सब सोचने पर आ ही गया हूँ
तो याद आता है अपने जिला छिंदवाड़ा का भी नक्शा
मेरे प्राइमरी स्कूल के दिनों के बरसों बाद तक
सिवनी दुबारा जिला नहीं बना था उसी छिंदवाड़ा जिले में था
जिसे मैं अभी भी कागज पर खींच सकता हूँ
उसी तरह ठीक-ठाक पहचानने लायक
जैसे 1956 के पहले के मध्यप्रदेश को 1947 के पहले के भारत में
जिसमें वह लगभग बीचोंबीच बैठे हुए नंदी की तरह लगता था
विष्णु खरे की बेहद सख्त किस्म की कविताओं के बीच इन भावुक प्रसंगों को पढ़ना मानो पाठक के लिए अपनी-अपनी आत्मकथाओं के बंद द्वार खोल देता है और उनका अपना बचपन या किशोरावस्था भी कहीं साथ ही साथ दस्तक देने लगती है.
विष्णु जी की कुछ कविताओं में बचपन में नजदीक से देखे गए पिता के स्वभाव का भी जिक्र है. उन्हें अकेले में बड़बड़ाते हुए अपने आप से बातें करने की आदत थी. पिता को इस तरह अपने आप से बातें करते देखते, तो उन्हें बड़ी हैरानी होती थी और वे कुछ भी ठीक-ठीक समझ नहीं पाते थे. इसके पीछे बेशक उनके दुख और असफलताओं का भी बहुत सारा दबाव रहा होगा, जिसे समझने में विष्णु जी को कुछ समय लगा. ‘अपने आप’ कविता में वे पिता की अपने आप से बातें करने की आदत का पूरा चित्र खींच देते हैं-
मैंने जब पहली बार पिता को अपने आप से बातें करते सुना
तो मैं इतना छोटा था कि मैंने समझा
वे मुझसे कुछ कह रहे हैं
मेरे डरे हुए सवाल का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया
और पाँच मिनट बाद
वे फिर खुद से बोलने में मशगूल हो गए
बाद में उनकी यह आदत कुछ और बढ़ गई. यहाँ तक कि अपने बेटों की उपस्थिति से भी उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता था-
पहले पिता हमारी उपस्थिति से चुप हो भी जाते थे
लेकिन बाद में उन्हें कोई संकोच न रहा
और मैं देखता था कि मैं उन्हें चाय देने आ रहा हूँ
फिर भी वे एक लंबे और जटिल स्वगत के बीच में हैं
और मुझसे या प्याले से उन्हें कोई असुविधा नहीं है
विष्णु जी ने एक-दो बार दरवाजे के पीछे खड़े होकर उन्हें सुनने की कोशिश की, पर कुछ भावनाबोधक अव्ययों को छोड़कर, कुछ भी उन्हें समझ में नहीं आया. लेकिन आगे चलकर वर्षों बाद जब विष्णु जी ने अकेले में खुद को बातें करते सुना, तो वे बुरी तरह चौंक गए-
यह पिता की मौत के बाईस सालों बाद हुआ
और बुदबुदाते हुए मैंने यह भी सोचा
कि जो मुझ पर पचास साल का होने पर गुजरी
उससे कहीं ज्यादा वे तीस साल में ही देख चुके थे
अब अकसर बातें कर लेता हूँ अपने आप से
क्योंकि उसके दौरान पिता से बात कर लेने की
स्वतंत्रता भी रहती है
खूब जानते हुए कि वे मेरी किसी चीज का जवाब नहीं देंगे
इस तरह इशारा करते हुए
कि तुम खुद ही पाओ जवाब अपने से अपने सवालों के
यह पिता के बारे में लिखी गई इतनी सच्ची और खरी कविता है, कि इसे विष्णु जी की जीवन कथा के एक जरूरी दस्तावेज की तरह सहेज लेना चाहिए. और यह एक सुखद आश्चर्य की तरह है कि इसमें तिथियों के एकदम सही ब्योरे भी हैं.
‘खुद अपनी आँख से’ संग्रह में शामिल विष्णु जी की ‘टेबिल’ कविता भी इसी तरह एक जरूरी दस्तावेज की तरह है, जिसमें टेबिल के जरिए दादा मुरलीधर नाजिर से लेकर उनके परिवार की कोई चार पीढ़ियों की कहानी सामने आ जाती है. मानो यह बड़ी सी मेज उसकी साक्षी रही हो, और अपनी चुप्पी में भी बता रही हो, कि समय के साथ इस परिवार में क्या कुछ हुआ. समय बदला, पीढ़ियाँ बदलीं, लेकिन मेज वैसी ही रही. विष्णु जी के जन्म से कोई दो बरस पहले, सन् 1938 में दादा मुरलीधर नाजिर ने यह फोल्डिंग टेबिल बनवाई थी, और इस पर लिखने-पढ़ने का सारा काम करते थे. इस पर बैठकर उन्होंने डिप्टी कमिश्नर को अर्जियाँ लिखीं. उनकी रामलीला में रुचि थी, इसलिए छोटा बाजार में होने वाली रामलीला में हिस्सा लेने वालों की पोशाकें और सारा सामना भी यहीं रखा जाता था.
जब दादा जी गुजरे, विष्णु के पिता सुंदरलाल जी का विवाह हो चुका था, और वे एक बेटे के पिता भी बन चुके थे. बाद में फौज से मुक्त होकर पिता वापस लौटे तो अपने बेकारी के दिनों में इसी टेबिल पर उन्होंने नौकरी के लिए अर्जियाँ लिखीं. पहले उन्होंने क्लर्की की, फिर वे मास्टर और फिर हैडमास्टर हुए. और यह टेबल इस सब की साक्षी रही. कोई पचास वर्ष की अल्पायु में कैंसर से ग्रस्त होकर वे एक सरकारी अस्पताल में वे गुजरे, तो घर-गृहस्थी की बाकी चीजों के साथ यह मेज भी छोड़ गए.
पिता के जाने के बाद विष्णु खरे उस फोल्डिंग टेबल को दिल्ली ले आए. इस पर घर का बहुत सारा अटरम-पटरम सामान रखा जाता रहा, जिसमें सबसे अधिक दिलचस्पी उनकी तीन बरस की बेटी की थी, जो उस टेबिल के पायदान पर खड़ी होकर, उझक-उझककर उस आश्चर्यलोक को बड़ी उत्सुकता से देखने की कोशिश करती थी. ठीक उसी तरह, जैसे विष्णु जी बचपन में अपने पिता को उस टेबल पर शेव बनाते देखते, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य होता था, और वे किसी तरह उझककर उन्हें देखने की कोशिश करते थे.
यों यह बड़ी सी फोल्डिंग टेबिल कहने को तो टेबिल ही थी, पर साथ ही साथ ही विष्णु खरे के दादा मुरलीधर नाजिर से लेकर बेटी तक, कोई चार पीढ़ियों का इतिहास भी इसके साथ गुँथा हुआ था. इसलिए कोई निर्जीव वस्तु न होकर, यह भी मानो परिवार का एक जरूरी सदस्य ही बन गई.
विष्णु खरे की बचपन की स्मृतियों में देश की आजादी का दिन भी है. वे सात वर्ष के थे, जब 15 अगस्त 1947 को देश को स्वतंत्रता मिली और पूरे देश में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया. हालाँकि विडंबना यह थी कि निम्न मध्यवर्गीय लोगों के लिए स्वतंत्रता दिवस कोई उत्साह भरी हिलोर लेकर नहीं आया था. इसलिए जैसे और दिन गुजरते थे, वह भी गुजर ही गया. कहीं कोई मन को सुकून दने वाला बदलाव नजर नहीं आया.
‘स्वर्ण जयंती वर्ष में एक स्मृति’ कविता में भी विष्णु खरे ने आजादी के दिन की स्मृति को शब्दों में पिरोया है. हुआ यह कि स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पहले मुन्नू खाँ हेडमास्टर ने ऐलान किया कि कल सुबह छिंदवाड़ा मेन बोर्ड प्राइमरी स्कूल के सारे बच्चे और अध्यापक कल अच्छी ड्रेस में पुलिस ग्राउंड पर जमा होंगे, जहाँ परेड होगी, झंडा फहराया जाएगा और मिठाई बँटेगी. लिहाजा आजादी वाले दिन विष्णु खरे तथा स्कूल के दूसरे बच्चे पुलिस ग्राउंड पहुँचे, जहाँ और स्कूलों के बच्चे भी आए हुए थे. इसलिए भारी भीड़ थी. बच्चों के साथ-साथ शहर के कथित बड़े लोग भी वहाँ मौजूद थे.
उस समारोह के बाद, जिसमें बच्चों को आजादी की खुशी की मिठाई तो क्या, एक बूँद पानी भी नसीब नहीं हुआ था, बच्चों का भूख-प्यास के मारे बुरा हाल था. इसलिए रास्ते में कुछ घरों से पानी माँगकर पिया. साथ ही सजावट के बंदनवारों और द्वारों पर जो झंडियाँ लगाई गई थीं, उनमें लगी हुई ज्वार और मक्के की लाई को उन्होंने लूटकर खाया.
विष्णु खरे आजादी वाले दिन बच्चों की दुर्दशा का जो कारुणिक चित्र खींचते हैं, वह बाद में जाकर भी बदला नहीं. 17 अगस्त 1997 को अखबारों में स्वर्ण जयंती समारोह के ब्योरे पढ़ते हुए उन्हें लाल किले में बच्चों की ऐसी ही घोर उपेक्षा की खबर पढ़ने को मिली-
17 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता की राष्ट्रव्यापी स्वर्ण जयंती के ब्योरों के बीच
जब अखबार में यह पढ़ा कि लाल किले में
इकट्ठा किए गए बच्चों को
तीन बार जयहिंद कहने के बावजूद
सारे वक्त खाने-पीने को कुछ न मिला
तो मुझे 1947 के छिंदवाड़ा और 1997 की दिल्ली के बीच
पचास साल के बावजूद ऐसी समानता से विचित्र आश्चर्य हुआ
आजादी के कुछ ही महीनों बाद देश को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की शहादत की विडंबना झेलनी पड़ी. विष्णु खरे उस समय कोई आठ बरस के थे, पर गाँधी जी की हत्या के समाचार से पूरे शहर में जिस तरह का सन्नाटा छा गया था, उसकी काफी अच्छी स्मृति उनके जेहन में है. शहर में फैली स विचित्र सनसनी का जिक्र करते हुए वे लिखते हैं-
“30 जनवरी 1948 की शाम जब बनारसी होटल के बड़े बुश रेडियो से गाँधी जी की हत्या की खबर फैली तो सतपुड़ा-गोंडवाना की ठंड वाले उस कस्बों में एक विचित्र अँधियारी सनसनी फैल गई थी. वह शायद अपने पिता के लिए कैंची सिगरेट का पैकेट लेने गया था कि अचानक लोग पैदल और साइकिलों पर भागने लगे, पान के ठेले, किराने की दुकानें और होटल धड़ाधड़ बंद हो गए, यहाँ तक कि पाटनी पिक्चर पैलेस में चलती ‘उलटी गंगा’ भी रोक दी गई और सिनेमा खाली हो गया.”
गाँधी जी को विष्णु ने सिर्फ सैकड़ों तस्वीरों और कैलेंडरों में देखा था और वे उसे अच्छे लगते थे लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं. उनके पिता अब स्कूल मास्टर हो गए थे. उन्होंने स्कूल की हस्तलिखित पत्रिका में बापू को श्रद्धांजलि देते हुए, “अर्पित करने दो सुमन मुझे, श्रीपग बापू के छूने दो” सरीखी पंक्ति लिखी तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ था. गाँधी जी के प्रति उनके मन में ऐसी श्रद्धा थी, यह उन्हें तभी पता चला था.
5: टूटा-बिखरा सा बचपन |
विष्णु छह बरस के थे, जब उन्होंने अक्षरों को जोड़-जोड़कर पढ़ना सीख लिया था. तभी से वे महाभारत पढ़ते आए हैं. महाभारत और महाभारत के कृष्ण के साथ उनका इतना गहरा तादात्म्य है कि उन्होंने महाभारत के प्रसंगों पर बहुत बेहतरीन कविताएँ लिखीं, जिन्हें बहुत सराहा गया. शायद समकालीन कवियों में विष्णु खरे अकेले हैं, जिन्होंने महाभारत की कथा पर केंद्रित इतनी कविताएँ लिखीं, और उनके जरिए जीवन की विडंबनाओं की ओर हमारा ध्यान खींचा है. खुद उनके जीवन दर्शन और सोच में महाभारत बार-बार उभरता है. लिहाजा यह कहना अन्यथा न होगा कि महाभारत की बहुत गहरी छाप उनके जीवन पर पड़ी. महाभारत ने उन्हें गढ़ा और भीतर-बाहर से बदला भी.
इस आत्मकथ्य में विष्णु खरे महाभारत और उसके महानायक कृष्ण को उनकी पूरी विराटता के साथ उभारते दिखाई देते हैं-
“वह 1946 से, यानी जब से उसने अक्षरों को जोड़-जोड़कर पढ़ना सीखा और जाना कि उस तरह से वह सब कुछ जान और सीख सकता है, गीताप्रेस गोरखपुर का महाभारत पढ़ता आ रहा है. वह उसके कई अंश सैकड़ों बार और संपूर्णता में बीसियों बार पढ़ चुका होगा. अपने केंद्रीय पात्र कृष्ण के साथ महाभारत उसके सारे समयों की केंद्रीय पुस्तक है. ‘सब कुछ जो बाहर है वह इसमें है और जो इसमें नहीं है वह बाहर कहीं नहीं है’ की महाभारतीय गर्वोक्ति उसे हमेशा सही लगी है.”
विष्णु खरे का बचपन कैसा था? इसकी सबसे बडी सनद उनकी कविताएँ हैं, जिनमें टुकड़ों में ही सही, उनके बचपन की कहानी है. ‘खुद अपनी आँख से’ संग्रह में ऐसी कई कविताएँ हैं. खासकर ‘टेबिल’, ‘अव्यक्त’, ‘गरमियों की शाम’, ‘हँसी’, ‘प्रारंभ’, काफी ब्योरों से भरी ऐसी कविताएँ हैं, जिनकी निजता पर ध्यान जाए बगैर नहीं रहता. इनमें हम एक किशोर को जो अपनी उम्र से ज्यादा समझदार और संवेदनशील है, धीरे-धीरे आगे बढ़ते और एक अलग सी शख्सियत हासिल करते देखते हैं.
याद कीजिए, ‘हँसी’ कविता का वह बच्चा जिसने हिंदी प्रचारिणी पुस्तकालय में निबंध, कविता और वाद-विवाद प्रतियोगिता तीनों में शील्ड जीतकर सबको हैरान कर दिया था-
छोटे और मझोले कपों और तमगों के बाद
तीन चल-वैजयंतियाँ ही रह गई थीं टेबिल पर
एक दुबला लंबा सा लड़का धँसी आँखों वाला
सफेद सूती पतलून और चौखाने की भूरी कमीज पहने
कविता प्रतियोगिता की शील्ड जीतकर भी वहीं खड़ा रहा
क्योंकि बाकी दो भी उसी ने जीती थीं
कुछ देर बाद एक साथ तीन शील्ड जीतकर निस्तब्ध रात के सन्नाटे में वह बच्चा पैदल घर लौट रहा है. इसलिए कि उस समय कोई ताँगा मिलना मुश्किल था. मिलता भी तो वह सवा रुपए से कम न लेता, जबकि बच्चे की जेब में सिर्फ दस आने थे. उसे जोर की भूख भी लग आई थी. रास्ते में एक ठेले वाले से उसने थोड़ी नमकीन भुनी हुई मूँगफली और पेठा लिया. एक हाथ से जेब में पड़ी मूँगफलियाँ और पेठा खाते, दूसरे से तीन शील्ड सँभाले वह चलता जा रहा था. पर तभी अचानक एक शील्ड के अचानक गिर जाने पर पैदा हुई आवाज़ और रात गश्त लगाते सिपाही के सवालों से वह कुछ अचकचा गया था. घर पहुँचकर सावधानी से तीनों शील्ड को नीचे रखकर उसने ताला खोला. यह सोचते हुए कि कल किताबों के साथ-साथ इन्हें भी स्कूल ले जाना होगा, और वहाँ ये हेडमास्टर जी के कमरे में रखी जाएँगी.
अगले दिन का दृश्य भी कम दिलचस्प नहीं है. विद्यालय में वे शील्ड अलग एक मेज पर रखी गईं, और हेडमास्टर जी ने शील्ड जीतने पर अपने स्कूल के मेधावी छात्र विष्णु खरे की सराहना करते हुए बड़ा भावपूर्ण भाषण दिया. हालाँकि इस सारे उद्यम के बीच वह दुबला सा बच्चा, विष्णु खरे जिसका नाम था, और जिसने सबसे ज्यादा इनाम जीते थे, एकदम चुप और तटस्थ सा खड़ा हुआ था. उसकी आँखों के आगे बार-बार रात का वह दृश्य आ रहा था, जब अँधेरे में वह ये तीनों शील्ड उठाए घर लौट रहा था. फिर अचानक एक शील्ड के गिरने पर सिपाही की विचित्र पूछताछ के बारे में सोचकर वह नीचे मुँह किए हँस पड़ा था.
कविता में एक अकेले छोटे बच्चे का यह आत्मविश्वास और समझदारी दोनों ही चकित जरूर करते हैं. वह किशोरवय बच्चा उम्र से पहले ही बड़ा हो गया है और चीजों को समझने लगा है, यह भी पता चलता है.
इसी तरह ‘अव्यक्त’ कविता में विष्णु जी के किशोर काल की एक छोटी सी घटना का जिक्र किया है. वे तब दसवीं कक्षा में पढ़ते थे. एक दिन आधी छुट्टी के बाद वे स्कूल नहीं गए और पास ही एक बगीचे में देर तक बैठे रहे. तभी एकाएक उन्हें ध्यान आया कि उनके न होने के बावजूद कक्षा में पढ़ाई जस की तस चल रही होगी. सारे बच्चे बैठकर ध्यान से पढ़ रहे होंगे. पीरियड के खत्म होने पर अध्यापक जा रहे होंगे, नए अध्यापक आ रहे होंगे. उनके कक्षा में न होने से कुछ भी फर्क नहीं पड़ा होगा, और चीजें उनके न होने पर भी जस की तस हो रही होंगी.
यानी इस दुनिया में वे हों या न हों, चीजें तो अपने ढंग से चलती ही रहेंगी. यह अनुभव उनके लिए इतना करुण, मार्मिक और अविस्मरणीय था कि भीतर एक गहरी कचोट उन्होंने महसूस की, और फिर उस बगीचे में बैठे रहना उनके लिए असंभव हो गया. वे उठे और चुपचाप बस्ता लिए अपने स्कूल की ओर चल दिए-
मैं यह नहीं कहूँगा कि वह ‘मेरे दृष्टिकोण के विस्तृत होने’ का क्षण था
किंतु यह अवश्य है कि उसके बाद अपनी परिचित चीजों और लोगों को
उसके पहले की तरह देखना मेरे लिए कठिन हो गया
और अपने होने और सुबह, रात और ऋतुओं के बदलने में
मेरी दिलचस्पी कुछ और बढ़ने लगी
और मैं उठा
क्योंकि फिर वहाँ उस बगीचे की बेंच पर बैठे रहने में कोई राहत नहीं थी
और न स्कूल में डेस्क पर बैठने में कोई असुविधा-हाँ मैंने यह जरूर सोचा था
कि किसी न किसी को यह बात बतानी है…
इसी तरह ‘गरमियों की शाम’ कविता में भी एक छोटा सा प्रसंग है. वे शाम के समय दसवीं कक्षा के अपने मित्रों के साथ घूमने जा रहे हैं, और आपस में खूब बातें हो रही हैं. दो मित्रों के साथ उनकी छोटी बहनें भी हैं. इस तरह कुल छह प्राणी निस्संकोच बातें करते जा रहे हैं. तभी अचानक कोयल की कूक के साथ कुछ ऐसी बात हुई कि वे सभी चुप और अपने-अपने एकांत में चले गए. यह छोटा सा क्षण उन्हें याद रह गया, और यह भी कि इसके बाद वे मित्रों से मिलने उनके घर जाते थे, तो उनकी बहनें जो दरवाजों की ओट में होती थीं, धीरे-धीरे और पीछे खिसकती जाती थीं.
किशोरावस्था में वयसंधि का एक छोटा सा अनुभव, जिसे विष्णु जी ने कविता में बहुत बारीकी से उभारा है.
विष्णु खरे की ‘सरोज स्मृति’ कविता में भी बचपन का एक प्रीतिपूर्ण रागात्मक चित्र है. बिल्कुल अलग सा. वे बाहर पढ़ने गए थे, खंडवा में. कविता में इसका जिक्र है. लौटे तो उन्हें वह किशोरी दिखाई दी, जो अब थोड़ी बड़ी होकर अपनी माँ देउकी और पिता लक्खू गोंड की तरह ही सिर या काँवड़ पर मीठे कुओं से लोगों के घर पानी लाया करती थी. कभी वे लोग विष्णु जी के घर में किराए पर रहते थे, फिर कहीं और चले गए. बचपन में विष्णु उसे सरौता कहकर चिढ़ाया करते थे. समय बीता, पर स्मृति तो मन में थी ही. इसलिए बीच रास्ते में अचानक उससे मिलना हुआ, तो थोड़ी झिझक के बावजूद बहुत कुछ था उनके पास कहने के लिए-
किशोरी वह वही काम कर रही थी
जो उसकी माँ देउकी और बाप लक्खू गोंड करते थे
सिर या काँवड़ पर मीठे कुओं से
घरों में पीने का पानी भरने का
कनकछरी जैसी अब वह
उसका चेहरा और गरदन काँपते थे हलके-हलके
चुम्बरी पर रखी भरी गगरी के छलकने से
किसी नर्तकी या गुड़िया सरीखे
हाँ में या ना में समझना मुश्किल
पहचान लेने पर जो कुछ भी आँखों में आ जाता है
उससे उसने पूछा
कहाँ चला गया तू
फिर इसी तरह की और भी छोटी-छोटी सरल बातें, पर उनमें किशोरावस्था के एक प्रेमिल अनुभव की सुगंध बसी हुई है. कुछ इस कदर कि-
उसके मन में आया
कि चुम्हरी समेत उसकी गागर अपने सिर पर रख ले
और उसके साथ बरौआ बनकर उस घर तक चला जाए
जहाँ उसे यह पानी भरना था
लेकिन उससे तमाशा खड़ा हो जाता
एक ओर किशोरावस्था का आकर्षण, दूसरी ओर समाज के लोगों द्वारा देखे जाने की झिझक. इस बीच यह छोटा सा अनुभव भी किसी सच्चे मोती की तरह अनमोल लगता है. कविता में विष्णु जी की किशोरावस्था की बड़ी आत्मीय छवि है, जो भुलाए नहीं भूलती.
तरुणाई के दिनों में ही, जब विष्णु जी विद्यार्थी थे, क्रिकेट में उनकी खासी रुचि थी. ‘स्कोर बुक’ कविता में उन्होंने इसका बड़ा दिलचस्प वर्णन किया है. क्रिकेट के अपने दो महानतम क्षणों को याद करते हुए वे कहते हैं कि उनके जीवन का एक ऐतिहासिक क्षण वह था, जब उन्होंने अपनी लगातार तीन गेंदों में तीन मित्रों को क्लीन बोल्ड किया था. तब उन्हें लगा था, जैसे आकाश के किसी देवता का उन्हें वरदान मिल गया हो. मगर क्रिकेट से जुड़ा उनका दूसरा ऐतिहासिक क्षण तो और भी गजब का था, जब उनके सिर पर टीम से निकाले जाने का खतरा मँडरा रहा था. पर फिर उन्होंने एक के बाद एक, लगातार तीन कैच लेकर हर किसी को अवाक कर दिया था. आइए, विष्णु जी की कविता की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए, उस रोमांच को महसूस करें-
दूसरा ऐतिहासिक क्षण वह था जब कॉलेज टूर्नामेंट में
फुल टॉस पर नितांत अनैतिहासिक ढंग से जीरो पर आउट होने के बाद
जिसके कारण पहले से ही संशयी साथियों और पैवेलियन के स्कूली दर्शकों में
स्थायी रूप से साख खत्म होने का खतरा तो था ही
टीम से निकाले जाने तक की नौबत थी
अचानक बुरहानपुर की टीम के तीन कैच ले डाले
पहला कवर पाइंट पर दूसरा मिड ऑन पर तीसरा शॉर्ट स्क्वेयर लेग पर
इनमें शायद पहला जयपकाश चौकसे का था और आसान नहीं था
तीनों कैसे पकड़ में आ गए कहा नहीं जा सकता
टीम में जिसका भविष्य ही असुरक्षित हो गया हो
उसे मैदान में सब कठिन लगने लगता है और होश नहीं रहता
खासकर उस समय जब एक बढ़िया कैच लेने के बावजूद
सारे साथी अविश्वास से हँसते हुए लोटपोट हो गए हों
लेकिन जो तीसरे के बाद यदि कायल नहीं हुए
तो सकते में तो आ ही गए
इस तरह पक्की हुई टीम में मेरी जगह
यहीं विष्णु जी इस बात का भी जिक्र करते हैं कि बाद में टीम में काना राजा ही सही, वे कप्तानी तक पहुँचे.
ऐसे ही ‘दोस्त’ सरीखी उनकी कविताओं में छोटे-छोटे प्रसंगों के जरिए, विष्णु खरे के बचपन, किशोरावस्था और तरुणाई के कुछ न भूलने वाले अक्स सामने आते हैं. यहाँ तक कि इन कविताओं को पढ़ना विष्णु जी के बचपन, किशोर काल और तरुणाई के चेहरे को बहुत नजदीक से देख लेने की मानिंद है.
बचपन में ही गरीबी और अभावों को बहुत करीब से देखने और महसूस करने के कारण विष्णु जैसे असमय ही बड़े हो गए. समाज में पैसे की जरूरत और अस्मिता को उन्होंने पहचाना, तो साथ ही यह भी समझ में आ गया कि अगर थोड़ा सा धन उनके पास होता, तो न उनकी माँ असमय चली जातीं और न उनकी दो बुआएँ यों कुँवारी मरतीं. जिन लोगों के पास पैसा है, वह आया कहाँ से और कैसे है, यह भी बहुत कम वय में वे समझने लगे थे. इसके लिए जो लोग और चीजें जिम्मेदार थीं, उनके लिए उनके मन में एक गहरा आक्रोश भी भरता चला गया. और यही चीज उन्हें साहित्य और बड़े साहित्यकारों के करीब ले आई-
“उसका पारिवारिक समय गरीबी और अभाव का था. ऐसा नहीं है कि उसके पिता और स्वयं उसके दोस्तों में पैसे वाले लोग नहीं थे, लेकिन उसका आसपास, उसकी बराबरी या उससे भी निचले लोगों का था. वह वक्त से बहुत पहले मुफलिसी और गैर-बराबरी को समझ और जान चुका था. उसे मालूम हो चुका था कि कुछ ही सौ रुपए उसकी माँ को बचा सकते थे और कुछ ही हजार रुपयों से उसकी दोनों बुआओं को कुँवारी मरने से रोका जा सकता था. वह देख रहा था कि बहुत सारे लोग इससे भी बदतर हालात में थे. उसे पता चल गया था कि पैसा और ताकत किसके पास और कैसे हैं. उसे इन हालात, उनके कारणों और उनके लिए जि़म्मेदार तत्त्वों से हमेशा के लिए शत्रुता और नफरत हो गई. फिर उसने प्रेमचंद, गोर्की, ओस्त्रोव्स्की, मंटो, यशपाल, राहुल सांकृत्यानन, बेदी, अब्बास, कृश्न चंदर, अण्णाभाऊ साठे, विभूतिभूषण, ताराशंकर पढ़े.”
लिहाजा केवल पंद्रह वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपने जीवन की राह चुन ली, और फिर जीवन भर उससे नहीं भटके. किशोरावस्था में ही विष्णु को कुछ ऐसा देखना और सहना पड़ा कि उसका जीवन हमेशा के लिए बदल गया. उनके जीवन के ये निर्णायक वर्ष थे, जिनकी चुभन और यंत्रणा वे कभी भूल नहीं पाए-
“यदि उससे पूछा जाए कि उसके किन वर्षों ने उसके समय को हमेशा के लिए बदल डाला और अब भी बदल रहे हैं तो वह कहेगा शायद 1953-55, क्योंकि उन्हीं दिनों वे अपने ही मकान में किराएदार बने, पैसे न होने के कारण पढ़ाई में तेज बड़े भाई 16 बरस की उम्र में एअर फोर्स में चले गए और फिर उसकी जिंदगी में कभी उस तरह नहीं लौटे और 1955 में पिता के तबादले की वजह से उसे अपने दोस्तों, मुहल्ले, स्कूल और घर समेत, जो भले ही किराए का हो चुका था, अपना कस्बा इस तरह छोड़ना पड़ा कि वह फिर कभी वहाँ उस तरह नहीं लौटा. ‘अब कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा’ को उसने उस समय समझा, जब वह एक महीने बाद ही लौटा और पाया कि उसे अपने पढ़ते हुए दोस्तों का इंतजार क्लास-रूम के बाहर बैठकर करना पड़ा और जब वह उनके साथ बोला और खेला तो वे अधिकतर अपनों-अपनों से ही मुखातिब और मुब्तिला रहे, मुहल्ले के लोग भी उससे कुछ पूछकर अपने-अपने काम पर चले गए और महीने की उधारी देने वाले सेठ ने कुछ आशंका से पूछा कि तुम लोग तो पिपरिया चले गए ना?”
इसके बाद का समय विष्णु के लिए एक ऐसे अंतरिक्ष यात्री सरीखा है, जिसकी गर्भनाल जैसी जंजीर अपने उपग्रह से कट जाती है, और वह सबसे टूटकर बड़ी तेजी से स्पेस में चक्कर खा रहा है. इस करुण यंत्रणा को सहने के सिवाय स्वयं विष्णु के पास कोई और रास्ता न था.
किशोरावस्था की यह टूटन जल्दी ही जल्दी ही विष्णु खरे को लेखन की ओर ले आई. गो कि उनका रास्ता औरों से अलग था, और वह होना ही था.
विष्णु खरे के लेखन की शुरुआत कविताओं से हुई, भले ही आगे चलकर उन्होंने कहानियाँ भी लिखीं. उनके बड़े भाई कविताएँ लिखते थे, और स्कूली प्रतियोगिताओ में इनाम जीतकर लाते थे. इस बात ने विष्णु खरे को भी आकर्षित किया. यों बड़े भाई की होड़ में उन्होंने भी कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं. विद्यार्थी काल में ही उनकी कविता और कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी थीं, और उनके द्वारा किए गए अनुवाद की एक पुस्तक भी छप चुकी थी-
“उसने अपने बड़े भाई की होड़ और नकल में कविताएँ लिखना शुरू किया था. जब वे अपने हुनर से स्कूली प्रतियोगिताओं में तमगे और कप जीतकर लाते तो वह सोचता कि वह भी यह क्यों नहीं कर सकता. लेकिन यह ईर्ष्या कब एक स्थायी चुनाव में बदल गई. उसे पता न चला. 1956-57 तक वह पत्रिकाओं में छपने लगा था. जहाँ तक शिक्षा का सवाल है, उसका आठवीं क्लास का सालाना पर्चा जाँचकर रसूल खाँ मास्साब ने उसके पिता को बेसाख्ता सलाह दे डाली थी कि इस बच्चे को अंग्रेजी में ही एम.ए. करवाइए, जिसे उस फर्माबरदार ने दस बरस बाद 1963 में अंजाम दिया. लेकिन उस दरमियान उसकी कुछ कहानियाँ, कुछ कविताएँ और एक किताब, भले ही वह अनुवाद ही क्यों न हो, आ चुकी थीं, वह दो सगी बहनों से अलग-अलग प्लैटॉनिक और असफल, तथा तीन कृपालु युवतियों से सफल प्रेम कर चुका था. खुदमुख़्तार तो वह एम.ए. में हो गया था, लेकिन लेक्चरर नियुक्त होने के बाद जब उसे पढ़ाने को एम.ए. कक्षाएँ मिलीं और कमाने को तीन सौ रुपया और रहने को अपने कुँवारे सिविल जज दोस्त की सिविल लाइंस संगत तो उसे वाकई फिरदौस हमींनस्त लगा.”
यों अंग्रेजी में प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति ने विष्णु खरे के भीतर कुछ आत्मविश्वास जरूर भर दिया. लगा कि अब उन्हें दुख और विपन्नता से मुक्ति मिल गई है. हालाँकि जीवन में अभी बहुत उतार-चढ़ाव आने थे, और वे आए भी.
जल्दी ही पिता के असामयिक निधन का शोक उन्हें सहना पड़ा. पिता, जो अब एक स्कूल के प्रिंसिपल हो गए थे, कैंसर से ग्रस्त होकर गए. हालाँकि कुछ अरसा पहले ही विष्णु जी अपनी पत्नी और छोटी सी बेटी के साथ अस्पताल में उनसे मिलने भी गए थे. नई नौकरी से किसी तरह अवकाश लेकर आए बेटे और पिता का यह मिलन किसी करुण त्रासदी जैसा ही लगता है.
विष्णु जी की ऐसी बहुतेरी कविताएँ हैं जिनमें विष्णु जी की माँ और पिता को लेकर स्मृतियों के कभी न भूलने वाले अक्स हैं, जो पाठक को भीतर तक झिंझोड़ देते हैं. इनमें ‘1991 के एक दिन’ तो एकदम असाधारण कविता है. इसमें न सिर्फ माँ और पिता के गुजरने की तारीखें और ब्योरे हैं, बल्कि इस चीज को लेकर विष्णु जी का एक अजीब-सा अपराध-बोध सामने आता है कि उनकी उम्र माँ और पिता से अधिक हो गई है. यानी माँ जब गुजरी थीं, तब उनकी जो उम्र थी, उसे वे बरसों पीछे छोड़ आए हैं. इसी तरह पिता के गुजरने के समय उनकी जो उम्र थी, वह भी अब पीछे निकल गई है और कम से कम उम्र में वे अपनी माँ और पिता से बड़े हैं-
कल मैं अपने पिता के बराबर हुआ
आज मैं उनसे एक दिन बड़ा हूँ
1968 के जिस दिन वे गुजरे थे
1991 के इस दिन मैं उसी उम्र का हूँ
यानी इक्यावन बरस और कुछ दिन
आज से मैं उनसे बड़ा होता जाऊँगा
कब नहीं रहूँगा उनसे कितना बड़ा होकर गुजरूँगा
यह कौन बता सकता है
पर क्या वे सचमुच माँ और पिता से बड़े हैं? यह सवाल आते ही विष्णु जी के भीतर जिस तरह का भावनात्मक उद्वेलन शुरू होता है और माँ, पिता की स्मृतियों का जैसा अंधड़ उठता है, वह विचलित कर देने वाला है. लगता है, माँ-पिता को याद करते ही, फिर से वे अपने बचपन और किशोरावस्था में लौट गए हैं और उनकी उम्र घटकर कोई चार-पाँच वर्ष के शिशु या फिर बारह वर्ष के किशोर की-सी हो गई है.
6 : छिंदवाड़ा का जिक्र जो आया |
विष्णु जी का जन्म छिंदवाड़ा में हुआ, और यहीं उनकी तीन पीढ़ियों का इतिहास दर्ज है. लिहाजा कह सकते हैं कि छिंदवाड़ा में उनकी जड़ें हैं. छिंदवाड़ा में उनका बचपन और किशोरावस्था बीती. दोस्त बने और आत्मीय जनों की पूरी एक दुनिया भी. लिहाजा छिंदवाड़ा के चप्पे-चप्पे पर उनकी स्मृतियाँ बिखरी हुई हैं, जिनकी उनके दिल में गहरी छाप है और वह अंत तक रही.
इसीलिए छिंदवाड़ा का जिक्र आते ही अकसर विष्णु जी भावुक और कुछ-कुछ विह्वल हो उठते थे. मैंने एक बार पूछ लिया कि विष्णु जी, आपकी कविताओं में प्रकृति के कोमल रूप बहुत कम हैं. ऐसा क्यों? जवाब देते हुए विष्णु जी को छिंदवाड़ा याद आ गया और उन्होंने बड़ी संजीदगी से कहा-
“मेरा जीवन तो ऐसी जगहों पर कटा है कि जिन्हें प्राकृतिक सुंदरता के लिहाज से आप भुला ही नहीं सकते. छिंदवाड़ा, जहाँ का मैं हूँ-से कुछ आगे चलकर ही एक जंगली पहाड़ी शुरू हो जाती थी. जंगल की हालत यह थी कि जब हमें साँप देखने का शौक लगता था, तो हम जंगल जाते थे और जिस भी चट्टान को हटाओ तो नीचे से फुफकारता हुआ साँप या दुम उठाए हुए बिच्छू निकल आता था! और हमें हद से हद चार बजे तक उस जंगल से लौट आने की हिदायत दी जाती थी, क्योंकि उसके बाद वहाँ घुप्प अँधेरा छा जाता था….पीछे लौटकर जब मैं बरसों बाद वहाँ गया तो मैंने देखा, पूरा जंगल साफ. एकदम प्लेन, जैसे कहीं कुछ था ही नहीं. मैं आपसे सच कह रहा हूँ कि मुझे बिल्कुल यकीन नहीं हुआ. मेरे लिए सोच पाना मुश्किल था कि यह हो क्या रहा है और ये कौन लोग हैं जो ऐसा कर रहे हैं? कौन इसकी इजाजत दे रहा है? ये लोग मानवता और सभ्यता और देश के दुश्मन हैं जो ऐसा कर रहे हैं….”
कहते-कहते विष्णु जी कुछ देर रुकते हैं, जैसे अपनी उत्तेजना पर काबू पाने की कोशिश कर रहे हों. फिर थोड़ा सहज होकर कहते हैं-
“मेरी कुछेक कविताओं में छिंदवाड़ा और उसके प्राकृतिक स्थल (धर्मटेकड़ी वगैरह) इतने रूपों में आए हैं कि आपको बताऊँ, एक दफा मैं कहीं कविता पढ़ रहा था तो बाद में किसी श्रोता ने कहा, ‘साहब, कहीं आप छिंदवाड़ा के तो नहीं हैं? आपने जिन स्थलों का वर्णन किया है, वे मैंने खूब देखे हैं, बल्कि मैं भी अकसर ही वहाँ घूमने गया हूँ.”
‘सबकी आवाज़ के पर्दे में’ संग्रह में शामिल ‘मिट्टी’ कविता में छिंदवाड़ा के लिए विष्णु जी का लगाव और कशिश पूरी शिद्दत से सामने आती है. कविता की शुरुआत ही एक गहरी आत्मवेदना से भरी हुई है-
बहुत लौटाते रहे हो तुम छिंदवाड़ा को
अपनी स्मृतियों में विष्णु खरे
बहुत भुनाया है तुमने
मध्य प्रदेश के रंगों गंधों और आवाज़ों को
प्रचुर स्वाँग किया है
अपने मिट्टी से जुड़े हुए होने का
खूब सपने देखते रहे हो अभी तक
छिंदवाड़ा के पातालेश्वर और छोटे बाजार के
समझते रहे हो जैसे छिंदवाड़ा तुम्हारी बपौती है…
लेकिन इसी छिंदवाड़ा के राजनीतिक हालात उन्हें काफी तकलीफ देते हैं, जिसमें जनता के दुख-दर्द से किसी का वास्ता नहीं है. तब वे मानो दर्द से तिलमिलाते हुए, प्रतिनिधि जी को सामने खड़ा करके सवालों की झड़ी लगा देते हैं-
क्या कर लोगे इसके सिवाय
कि डूब जाओ एक प्रादेशिक शर्म में
या करने लगो कुछ रोमानी मेलोड्रामाटिक सवाल
मसलन, क्या गड़ा है नरा प्रतिनिधि जी का
छिंदवाड़ा के एक उजाड़ घर की ढहती हुई कुठरिया की मिट्टी में
क्या हुआ उनकी माँ को तपेदिक बुधवारी मुहल्ले में
क्या बीता उनका बचपन
मिट्टी के तेल की पीली रोशनी और तीखी गंध वाले
एक ऐसे घर में जिसमें करीब-करीब कुछ भी नहीं था
क्या चला गया उनका बड़ा भाई फौज की नौकरी पर
अस्सी रुपट्टी महीने के लिए
क्योंकि उनके बाप के पास उसे कॉलेज भेजने को पैसे नहीं थे
क्या देखा है उन्होंने धरमटेकरी को
जब उसके पेड़ों को काट नहीं डाला गया था
क्या हाथ डुबोया है उन्होंने बोदरी के गुनगुने पानी में ठंड में
जब वह रेत से सूख नहीं गई थी
क्या रहे कभी वे चंदनगाँव और तामिया के गोंडों के पड़ोस में…
कविता में छिंदवाड़ा के बुधवारी मुहल्ले, धरमटेकरी, बोदरी नदी, और चंदनगाँव और तामिया को गोंडों का जिस आत्मीयता से जिक्र है, वह अभिभूत कर देने वाला है. सच पूछिये तो यह ऐसी आर्द्र कर देने वाली कविता है, जिसमें छिंदवाड़ा की मिट्टी और चीजों की चप्पे-चप्पे में बसी यादें हैं…बल्कि कहना चाहिए कि यादों की ऐसी बारिश है कि उससे न भीगना नामुमकिन है. हालाँकि साथ ही बदले हुए समय के साथ लगातार छीजते गए छिंदवाड़ा की कुछ ऐसी करुण तस्वीरें भी, जिनका सामना करना कठिन है. चाक पर बर्तन बनाते हुए उनके पड़ोस में रहने वाले छुट्टू कुम्हार का पसीजता हुआ स्वर एकाएक बहुत सारी असलियत को सामने ले आता है-
जितने लोग थे सब भैया बाहर ही चले गए
ये धंधा अब पहले जैसा रहा नहीं
कबेलू के मकान अब कोई बनाता नहीं
कौन पीता है चिलम कौन रखता है सुराही-घड़े
बस नए बँगलों-कोठियों में कुछ गमलों की गाहकी रहती है
वो भी ऐसी नहीं कि हमारे दस-पंधरा घरों में चूल्हा जलता रहे
कहता रहेगा छुट्टू कुम्हार और तुम देखते रहोगे
उसके चलते हुए चाक पर
छिंदवाड़ा की गीली मिट्टी और उस पर अपने चेहरे को
घूमते हुए
क्या से क्या बनते हुए
अपनी मिट्टी, अपनी जमीन और लोगों से विष्णु जी का यह लगाव पाठकों को भी भावुक कर देता है. छिंदवाड़ा और छिंदवाड़ा के छुट्टू कुम्हार का जो दर्द उन्होंने बयाँ किया है, वह केवल छिंदवाड़ा की नहीं, उन सभी छोटे शहरों और कसबों की करुण कहानी समेटे हुए है, जो दिनों दिन श्रीहीन और लाचार होते जा रहे हैं.
विष्णु जी छिंदवाड़ा में जनमे, यह आकर्षण तो उनमें था ही, पर बहुत कुछ और भी था, जो उन्हें पुकार-पुकारकर पास बुलाता था. यही कारण है कि जीवन के उत्तर काल में काफी असुविधाओं के बाद भी वे एक लंबे अरसे तक छिंदवाड़ा में जाकर रहे. छिंदवाड़ा में उन्हें लिखने-पढ़ने का एक बेहतर वातावरण मिल जाता था. वहाँ अब भी बहुत कुछ था, जिससे उनके मन में उम्मीद बँधती थी. लिहाजा किशोर काल में छिंदवाड़ा छूट भले ही गया हो, पर एक नॉस्टेल्जिया की तरह वह जीवन भर उनका पीछा करता रहा.
यहाँ तक कि दिल्ली में अपना फ्लैट ले लेने पर भी वे छिंदवाड़ा वाले अपने घर को भूलते नहीं हैं, और उसे दिल्ली वाले फ्लैट में ही बसा लेने की बड़ी असंभव सी कोशिश करते हैं. ‘दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है’ कविता में घोर आर्थिक तकलीफों में घर-परिवार के जो लोग गुजर गए, उन्हें स्मृतियों के साथ-साथ एक छोटे-से फ्लैट में बसाने की यह कोशिश बड़ी मार्मिक है-
इस तरह माता-पिता और बुआओं से और भर जाता घर
इस घर में और जीवित हो जाता एक घर बयालीस बरस पुराना
वह और उसकी पत्नी और बच्चे तब रहते
बचे हुए एक कमरे में
जिसमें बेटियों के लिए थोड़ी आड़ कर दी जाती
कितने प्राण आ जाते इन कमरों में चार और प्राणियों से
हालाँकि वह यह भी जानता है कि अब यह मुमकिन नहीं है. जो गुजरा है, वह गुजर गया और अब कभी वापस नहीं आएगा. लेकिन इसके बावजूद उस गुजरे हुए अतीत के साथ-साथ उन सबको आवाज़ लगाए बिना भी वह रह नहीं पाता, जिनके बिना उसकी घर की कल्पना कभी पूरी नहीं होती-
इसलिए वह सिर्फ बुला सकता है
पिता को माँ को छोटी बुआ बड़ी बुआ को
सिर्फ आवाज़ दे सकता है उस सारे बीते हुए को
पितृपक्ष अमावस्या की तरह सिर्फ पुकार सकता है आओ आओ
यहाँ रहो इसे बसाओ
अभी यह सिर्फ एक मकान है एक शहर की चीज एक फ्लैट
जिसमें ड्राइंग रूम डाइनिंग स्पेस बैडरूम किचन
जैसी अनबरती बेपहचानी गैर चीजें हैं
आओ और इन्हें उस घर में बदलो जिसमें यह नहीं थीं
फिर भी सब था और तुम्हारे पास मैं रहता था
जिसके सपने अब भी मुझे आते हैं
कुछ ऐसा करो कि इस नए घर के सपने पुराने होकर दिखें
और उनमें मुझे दिखो
बाबू भौजी बड़ी बुआ छोटी बुआ तुम
मुझे कहना चाहिए कि यह पुकार सचमुच मर्मभेदी है. और क्या यह किसी ऐसे व्यक्ति की पुकार हो सकती है, जो भावुक नहीं है? भला इधर की कविताओं में पारिवारिकता की इतनी विकल कर देने वाली उपस्थिति आपको और कहाँ मिलेगी? साथ ही ऐसी करुणा जो अंदर तक थरथरा देती है.
विष्णु जी दिल्ली में रहे, मुंबई में भी, पर फिर भी छिंदवाड़ा उन्हें लगातार अपनी ओर खींचता रहा. अपने गृहनगर के लिए एक गहरी पुकार उनके मन में उठती, और वे दौड़कर वहाँ पहुँच जाते. सुपरिचित लेखक गोवर्धन यादव, जो छिंदवाड़ा में पोस्ट मास्टर भी रहे, विष्णु जी के बहुत करीब थे. विष्णु जी जब भी छिंदवाड़ा जाते, उनसे जरूर मिलते थे.
छिंदवाड़ा आने पर उनके रुकने का सबसे प्रिय स्थान था, सूर्या लॉज का कमरा नम्बर 201, या फिर 202. इन दोनों कमरों की खिड़की और दरवाजा बाहर बालकनी में खुलता था, जिससे आने-जाने वाले लोगों को देखा जा सकता था. शहर की एक सुंदर झलक भी दिखाई पड़ जाती थी. इसीलिए ये दोनों ही कमरे विष्णु जी को पसंद थे. यहाँ आकर वे फोन करते तो उनकी आवाज़ के कंपन से गोवर्धन समझ जाते कि विष्णु जी छिंदवाड़ा आए हुए हैं, और वे फौरन उनसे मिलने पहुँच जाते.
गोवर्धन यादव ने ऐसे कई प्रसंगों का जिक्र किया है, जब विष्णु जी एकाएक छिंदवाड़ा पहुँच जाते और उनका मन होता कि वे दौड़-दौड़कर सभी परिचित जगहों को देख लें. ऐसी ही एक मुलाकात का जिक्र करते हुए वे बताते हैं-
“एक बार उनका अचानक आगमन होता है. मेरे फोन की घंटी बजती है. मैं फोन उठाता हूँ. फोन पर विष्णु खरे होते है. फिर एक शांत और गंभीर आवाज़ गूँजती है, गोवर्धन भाई, क्या चल रहा है? शहर के क्या हाल है, साहित्यिक गतिविधियाँ कैसी चल रही है…?”
थोड़े संक्षिप्त वार्तालाप के बाद गोवर्धन लॉज पहुँचते हैं. वहाँ फिर से थोड़ी बातचीत. घर-परिवार की चर्चा. फिर चाय का एक अनौपचारिक दौर. इस बीच हलकी-हलकी बारिश होने लगती है और विष्णु जी का मन जैसे बेकाबू हो गया. छिंदवाड़ा दोनों हाथ उठाए उन्हें अपनी ओर खींच रहा था.
आगे गोवर्धन यादव के शब्दों में उस दिन की एक झलक देखें, जिसमें विष्णु जी के मन में बसा छिंदवाड़ा बार-बार हमारी आँखों के आगे आ जाता है-
“रिमझिम बरसते पानी में उन्हें अचानक घूमने की बात सूझती है. हम नीचे आते हैं. रिक्शा तय करते हैं. अब हमारा रिक्शा नागपुर रोड पर आगे बढ़ने लगता है. रास्ते में एक तिराहा है. वे बताते है कि यहाँ पर कभी मौलसिरी के बड़े-बड़े दरख्त हुआ करते थे. उनके फ़ूलों की भीनी-भीनी सुगंध चारों तरफ फैला करती थी. मुझसे पूछते हैं कि क्या तुमने उन वृक्षों को देखा था? मैंने कहा, ‘हाँ, मैंने इस पेड़ों की एक लंबी श्रृंखला देखी है. कई बार तो झरे हुए फ़ूलों को उठाकर सूँघा भी है…!’ बातों का सिलसिला थमाता नहीं है. कुछ ही समय में बोदरी का पुल आ जाता है. वे रिक्शे वाले को रुकने को कहकर उतर जाते है और बतलाते हैं कि बोदरी नदी के किनारे एक प्लॉट लेने का मन हो रहा है. बड़ी शांत जगह है. यहाँ लिखने-पढ़ने का अच्छा मूड बनेगा.”
विष्णु जी बोदरी नदी से वापस लौटे, लेकिन मन में जैसे कोई अंधड़ चल रहा हो. ऊपर से शांत, लेकिन भीतर गहरी उत्तेजना थर-थर करती हुई. गोवर्धन यादव उसे समझे नहीं. पर थोड़ी देर बाद ही चीजें साफ होने लगीं. विष्णु जी का घर-उनका अपना घर उन्हें बुला रहा था, जिसमें उनका बचपन बीता, किशोरावस्था भी, और जो बार-बार उनकी कविताओं में लौटता रहा. एक अजब सी कशिश के साथ. यहाँ तक कि ‘दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने पर एक आदमी सोचता है’ कविता में तो वह पूरा का पूरा चला आया है.
गोवर्धन यादव के शब्दों में विष्णु जी की मनःस्थिति ही नहीं, उन पलों का रोमांच भी महसूस किया जा सकता है-
“हलकी-हलकी फुहारें अब भी चल रही हैं. अब हम वापस लौटते हैं. पोस्ट आफिस के पास आते ही वे उसे बुधवारी की ओर चलने को कहते है. रिक्शा अब बनारसी होटेल के ठीक पीछे वाली गली में, कुम्हारी मोहल्ले में रेंगने लगता है. मोड़ पर एक मंदिर है. वहीं वे उसे रोकने को कहकर उतर जाते हैं. फिर गर्व के साथ बतलाते हैं कि यह (एक घर की ओर इशारा करते हुए.) कभी हमारा मकान हुआ करता था. फिर पास-पड़ोस के लोगों से बतियाते हुए पूछते हैं, ‘क्या तुम मुझे पहचानते हो? मैं विष्णु खरे हूँ. मेरे पिता का नाम सुंदरलाल खरे है. मेरे दादा मुरलीधर खरे ने इसे बनाया था. काफ़ी समय पहले इसे बेच दिया गया था.’ वे जिससे बातें कर रहे थे, वह कोई महिला थी. जब उसने पहचानने से इनकार कर दिया तो उन्होंने पूछा, तुम कहीं फलाने की लड़की तो नहीं हो? वह हामी भरती है. कहाँ हैं तुम्हारे पिता? पूछने पर वह कहती है कि उन्हें गुजरे तो काफ़ी समय हो गया. उसकी बात सुनकर वे थोड़े गंभीर हो जाते है. फिर कहते हैं, अरे, वे तो मुझसे उम्र में काफ़ी छोटे थे, क्या बीमार थे…? खैर, तुम्हारे पिता होते तो मुझे पहचान जाते-वे कहते हैं.”
“मैं हैरत में हूँ और सोचने लग जाता हूँ कि जमाना बदल गया है. पीढ़ियाँ बदल गई हैं. नई पीढ़ी के लोग आखिर एक लंबे अंतराल के बाद कैसे जान पाएँगे कि आप हैं कौन? लेकिन नहीं, वे बराबर अपने जाने-पहचाने उम्रदराज लोगों के बारे में पूछते हैं. एक-दो लोग मिले भी. मिलते ही उन्हें गले लगा लेते हैं और पूछते हैं, कैसे हो विष्णू भाई….!”
इतना ही नहीं, विष्णु जी आसपड़ोस के हर उस घर में जाते हैं, जहाँ बचपन में उन्हें प्यार और आत्मीयता मिली. मानो वे थोड़ा सा ही सही, उसका कर्ज उतार देना चाहते हों.
एक और अचरज की बात यह कि उन्हें थोड़े ही अरसे बाद किसी विशेष कार्यक्रम में भाग लेने के लिए जर्मनी जाना था. पर जर्मनी की यात्रा पर निकलने से पहले, उन्हें अपने गृहनगर की यात्रा जरूरी लगी. अपनी मिट्टी, अपनी जमीन और जड़ों से प्यार करने वाले ऐसे लेखक भला कितने होंगे?
बाद में विष्णु जी को दिल्ली छोड़कर मुंबई जाना पड़ा, जो उन्हें ज्यादा रास नहीं आया. बहुत बार फोन पर उन्होंने मुझे बताया कि यहाँ उनका लिखने-पढ़ने का मन नहीं बन पाता. जिस इलाके में उनका घर था, वहाँ शोरगुल ज्यादा था. फिर वहाँ का माहौल भी उन्हें ज्यादा पसंद नहीं आया, और दिल्ली के साहित्यिक वातावरण में वे जिस तरह रमे हुए थे, वैसा मुंबई में आकर उन्होंने महसूस नहीं किया. दिल्ली में रहते हुए ही छिंदवाड़ा उन्हें खींच रहा था. फिर मुंबई जाने पर तो उसकी पुकार और तेज हो गई. इसलिए थोड़े समय बाद उन्होंने छिंदवाड़ा जाने का निर्णय कर लिया.
“प्रकाश जी, मैंने छिंदवाड़ा जाने का निश्चय कर लिया है. वहाँ एक कमरा किराए पर लेकर मैं अपना मनपसंद लिखने-पढ़ने का काम करूँगा.” उन्होंने फोन पर मुझे बताया, तो मुझे बड़ी हैरानी हुई थी.
“वहाँ क्या आपको परिचित माहौल मिल जाएगा? वहाँ तो अब सब कुछ बदल गया होगा….लोग अब शायद आपको पहचानें भी नहीं.” मैंने कहा.
“पर मुझे लगता है प्रकाश जी, वहाँ मुझे लिखने-पढ़ने का माहौल मिल जाएगा. बहुत से काम अधूरे पड़े हैं. मुझे लगता है, मैं वहाँ जाकर काफी काम कर लूँगा.”
उन्होंने विश्वासपूर्वक कहा, तो सुनकर मुझे भी अच्छा लगा.
मुंबई जाकर जैसे उनका रास्ता खो गया था. और यह तकलीफ उनकी बातों से पता चलती थी. मुझे लगा, शायद छिंदवाड़ा जाकर वह खोया हुआ रास्ता उन्हें मिल जाए.
असल में विष्णु जी महसूस कर रहे थे कि अब उनके पास समय बहुत कम रह गया है. जाने से पहले वे बहुत से काम पूरे कर जाना चाहते थे. उन्हें लग रहा था कि छिंदवाड़ा समय के साथ बदला जरूर है, पर तमाम तब्दीलियों के बावजूद वह अब भी एक शांत शहर है, जहाँ वे अपने अधूरे काम पूरे कर सकेंगे. इसलिए छिंदवाड़ा जाने की पुकार उनके भीतर लगातार तेज होती चली गई, और वे वहाँ जाकर काफी समय तक रहे भी. निस्संदेह, मन का बहुत सारा काम भी उन्होंने वहाँ जाकर पूरा किया.
उनके बचपन और कैशोर्य का छिंदवाड़ा जीवन के उत्तर काल में एक बार फिर से उनके लिए अर्थवान हो उठा था. और उसने बाँहें फैलाकर उन्हें सहारा भी दिया.
फिर एक-दो बार छिंदवाड़ा से भी उनके फोन आए, और उन्होंने बताया कि वे यहाँ आकर बहुत अच्छा महसूस कर रहे हैं. विष्णु जी कोई साल-डेढ साल छिंदवाड़ा में रहे. यह समय उनका काफी सुकून भरा रहा. फिर वे अचानक मुंबई चले गए.
लेकिन मुंबई वे थोड़े ही समय रह पाए. फिर छिंदवाड़ा ने उन्हें वापस बुला लिया. यहाँ पिछली बार कोई साल-डेढ़ साल उन्होंने बड़े सुख से काम किया था. शायद वही आकर्षण उन्हें दुबारा खींच लाया. कोई चार-छह महीने बाद ही वे फिर से छिंदवाड़ा रहने आ गए. गोवर्धन यादव लिखते हैं-
“चार-छह माह रहने के बाद फिर वे छिंदवाड़ा आ गए. शायद मुंबई उन्हें उतना सुकून नहीं दे पा रही थी. चार-पाँच महीने बाद अचानक उनकी तबीयत ज्यादा खराब हो गई. आधी रात बीत चुकी थी. वे समझ नहीं पा रहे थे, इतनी रात गए किसे फोन लगाएँ. आनन-फानन में उन्होंने लीलाधर मंडलोई जी को दिल्ली फोन लगाया. मंडलोई जी ने कथाकार मनगटे जी को फोन लगाकर तबीयत खराब होने की सूचना दी. चूँकि मनगटे जी का आवास काफ़ी निकट था. उन्होंने आकर देखा और डाक्टर के पास ले गए. जाँच में पता चला कि हलका सा स्ट्रोक आया है और तत्काल ही उन्हें युरोकाइनेस इंजेक्शन लेने की सलाह दी गई. इंजेक्शन की कीमत करीब तीस हजार बतलाई गई थी. आपस में परामर्श हुआ और यह तय हुआ कि उन्हें अब मुंबई लौटकर किसी बड़े अस्पताल में किसी कुशल डाक्टर को दिखलाना चाहिए. मुंबई लौटकर उन्होंने डॉक्टर को दिखाया. तब तक तो माइल्ड अटैक अपना असर दिखा चुका था. बायाँ हाथ काम नहीं कर पा रहा था और बायाँ चेहरा भी थोड़ा चपेट में आ गया था. लंबे उपचार के बाद हाथ काम करने लगा….अब वे अपने आपको पहले जैसा ही महसूस करने लगे थे. एक दिन अचानक वे किसी मित्र से मिलने के लिए नागपुर आए और दो-तीन दिन साथ रहने के बाद छिंदवाड़ा आ गए.”
विष्णु जी 22 मई 2018 को छिंदवाड़ा पहुँच चुके थे. चार दिन बाद, 26 मई को उन्होंने गोवर्धन यादव को इसकी सूचना दी. कहा,
“मैं यहाँ आया हुआ हूँ, लेकिन यह बात किसी अन्य मित्र को पता नहीं चलनी चाहिए.”
संभवतः उन्हें अधिक एकांत की दरकार थी.
गोवर्धन खुशी-खुशी उनसे मिलने पहुँचे. पर इस बार उन्हें विष्णु जी पहले से वे काफ़ी दुबले और अशक्त लगे. चाल भी वैसी नहीं रह गई थी. चेहरे पर हलका सा खिंचाव अलग ही दीख रहा था. गोवर्धन यह कहने से खुद को नहीं रोक पाए कि ऐसे हालत में आपको नहीं आना चाहिए था.
विष्णु जी बोले,
“गोवर्धन भाई, यह माइनर अटैक एक संदेशा लेकर आया था कि भविष्य के लिए सँभल जाओ. सँभल तो गया हूँ लेकिन अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है. दिमाग में इतना कुछ भरा हुआ कि चार-छह किताबें लगातार लिखी जा सकती हैं. लेकिन यह सब मुंबई में रहकर संभव नहीं लगता….छिंदवाड़ा से बेहतर और कोई जगह हो नहीं सकती मेरे लिए. मैं यहीं रहते हुए लिख पाऊँगा.”
फिर उन्होंने कहा, “छिंदवाड़ा में मेरा नरा गड़ा है, मुझे यहीं सुकून मिलता है. मन की शांति मिलती है.”
आश्चर्य, ऐसे हालात में भी जब उन्हें घर पर रहकर निरंतर सेवा-सुश्रूषा की जरूरत थी, वे छिंदवाड़ा चले आए. इससे छिंदवाड़ा के लिए उनकी कशिश पता चलती है.
उनका बचपन और किशोरावस्था तो यहाँ बीती ही, जिसकी बहुत सी स्मृतियाँ उनके मन में थीं. यहीं वे पढ़े और एक प्रतिभावान छात्र के रूप में उनकी पहचान बनी. फिर उनके स्कूली मित्रों और आत्मीय जनों की पूरी एक दुनिया थी यहाँ. छिंदवाड़ा के चप्पे-चप्पे में वे स्मृतियाँ बिखरी हुई थीं, इसलिए अंत में छिंदवाड़ा के लिए उनके मन की पुकार तीव्र से तीव्रतर होती गई. अपने निधन से केवल चार महीने पहले, 22 मई 2018 को वे यहाँ आए, तो शायद छिंदवाड़ा की धरती को आखिरी प्रणाम करने ही आए थे, भले ही वे स्वयं भी न जानते रहे हों कि इतनी जल्दी उन्हें यहाँ से चले जाना है.
7 : विष्णु खरे के कन्फेशंस |
विष्णु जी को अपने जीवन में कुछ चीजों के लिए मलाल रहा और उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में कन्फेशंस भी किए हैं. मुझे याद है, एक बार मैंने उनसे पूछा कि विष्णु जी, अगर आपको फिर से जीवन जीने को मिले तो? ऐसा क्या है जिसे आप नहीं दोहराना चाहेंगे? इस पर उन्होंने बड़ी संजीदगी से कहा-
“एक तो यह कि समय बहुत नष्ट किया है मैंने कुछ बेकार के कामों में, कुछ आलस्यवश. उसका परिणाम अब दिखाई पड़ रहा है और कभी-कभी घबराहट भी होती है इस वजह से. मैं नए सिरे से जीवन जिऊँ तो समय का अच्छा उपयोग करना चाहूँगा, ताकि मन की चीजें लिख लूँ. दूसरे, इमरजेंसी की एक घटना है, मैं वह भूल नहीं दोहराना चाहूँगा और इसके लिए अब तक मुझे बेहद ‘गिल्ट’ महसूस होता है. हुआ यह कि उन दिनों मेरे रतलाम के एक विद्यार्थी मित्र बंसीलाल गाँधी मुझसे मिलने आए. वे तब युवक कांग्रेस में आ गए थे और मध्य प्रदेश युवक कांग्रेस के किसी अच्छे पद पर थे. एक दिन वे घर आए और बताया कि उन्हें मेरी मदद की जरूरत है. वे दिल्ली मुख्यालय से युवक कांग्रेस की कुछ पत्रिकाएँ निकालना चाहते हैं जो मेरी मदद के बिना संभव नहीं है और वे ‘हाँ’ कह आए हैं. मैंने उनसे कहा कि यह मुमकिन नहीं है और मेरी और उनकी विचारधारा में बहुत फर्क है. लेकिन उनका कहना था कि इस फर्क के बावजूद वह पत्रिका निकालने में मेरी मदद चाहते हैं. मैं उनके ट्रैप में आ गया और फिर फँसता चला गया, हालाँकि यह कहना गलत है. सवाल यह है कि मैं क्यों ट्रैप में आ गया? आखिर मैं कोई भोला-भाला बच्चा तो था नहीं. मुझे नहीं फँसना चाहिए था. आकर्षण बस यही था कि बंसीलाल गाँधी मेरे मित्र थे, अब भी हैं, मेरे ‘स्टुडेंट’ भी थे और मेरा आदर करते थे. मेफिस्टो और फाउस्ट की पैरॉडी जैसा मामला था. मैं उन्हें मना नहीं कर सका.”
उन दिनों बंसीलाल गाँधी के सुझाव पर ही विष्णु खरे संजय गाँधी से भी मिले थे. उन्होंने उससे किशोर कुमार के गानों पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने और अपने कवि मित्र गिरधर राठी जी को, जो जेल में थे, छोड़ने के लिए कहा था.
इसी प्रसंग पर विष्णु खरे की एक खासी मर्मस्पर्शी कविता है, ‘मुआफीनामा’. इसे पढ़कर समझ में आ जाता है कि ऊपर की पंक्तियों में विष्णु जी ने अपने जिन कवि मित्र की चर्चा की है, वे कोई और नहीं, बल्कि जाने-माने कवि गिरधर राठी हैं. कविता में विष्णु खरे राठी जी का एक अविस्मरणीय चित्र आँकते हैं. बात आपातकाल के दिनों की है, जब बहुत से और लेखकों की तरह राठी जी भी रातोंरात गिरफ्तार कर लिए गए थे और जेल में थे. विष्णु जी की तब संयोगवश संजय गाँधी से निकटता थी. अपने मित्र को छोड़ने की बात उन्होंने संजय गाँधी से कही तो उनका कहना था कि अगर वे माफी माँग लें तो उन्हें छोडा जा सकता है.
जेल में संक्षिप्त मुलाकात के समय विष्णु खरे यही प्रस्ताव लेकर राठी जी के पास गए थे. वहीं राठी जी का चिंतित परिवार भी मौजूद था. पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चे. एक बड़ा ही उदास माहौल, जिसमें विष्णु जी ने संजय गाँधी का प्रस्ताव राठी जी को बताया, तो अपनी उदास तंजिया मुसकराहट के साथ उन्होंने इसे ठुकरा दिया-
मुझे मालूम था कि इस बातचीत से कुछ हासिल नहीं होगा
फिर भी औपचारिक फर्ज था कि बतलाता
भाई संजय गाँधी कहता है कि आपका दोस्त माफी माँग ले तो छूट जाएगा
छोड़िए आप किन चक्करों में पड़े हैं
कहा गिरधर ने और अपने तरीके से मुसकराता चुप हो गया
फिर वह मुसकान भी चली गई
अंत में उनको थाने के लॉन में अपने परिवार से बातें करते छोड़, विष्णु जी वापस लौटते हैं. पर उनके मन में एक ऐसा उदास बिंब अटका रहता है, जिसे वे कभी भूल नहीं पाए. यह एक कवि के स्वाभिमान और उदासी, दोनों का एक साझा बिंब है, जिसे पढ़ते हुए आपातकाल के दिनों की बड़ी दुखद स्मृतियाँ आँखों के आगे कौंध जाती हैं-
बाहर आया तो थोड़ा दौड़ाकर चालू करना पड़ा स्कूटर
जिसे बेचे हुए आज इकतीस बरस हो गए
और पार्लियामेंट्री थाने समेत सब कुछ कई-कई बार बदल गया
आज यहाँ से सीधे संसद-सदन नहीं जा सकते
दिल्ली भी छूट गई
उस मंजर के साथ कि
गिरधर लान पर बैठा हुआ है किरन उसकी तरफ आशंका से देखती हुई
विशाख और मंजरी के चेहरे कुम्हलाए हुए
उन पर तीसरे पहर की जर्द चमकती हुई सर्दी की धूप
मेरी पीठ की तरफ सूरज डूबता हुआ
बिना कुछ कहे विष्णु जी ने चंद पंक्तियों में आपातकाल की दुस्सह स्मृतियों और एक कवि की खुद्दारी का जो अछूता चित्र खींचा है, वह हमारे दिलों में भी देर तक खिंचा ही रहता है. साथ ही, आपातकाल के अन्यायों की पूरी तस्वीर आँखों के आगे आ जाती है, जिसमें विष्णु जी का कुछ-कुछ पछतावे भरा अनकहा दुख भी शामिल है.
8: संगीत जो उनके रोम-रोम में बिंधा था |
विष्णु जी अकसर कहा करते थे कि वे कोई होलटाइमर साहित्यकार नहीं हैं और न होना चाहते हैं कि पूरे दिन केवल साहित्य के बारे में ही सोचें. वे आम आदमी की तरह जीवन जीना और उसे महसूस करना चाहते थे. यह दीगर बात है कि कविता लिखते समय वे इन सारे अनुभवों को पूरी संवेदनात्मक आँच के साथ कविता में पिरोते हैं. इतना ही नहीं, साहित्य के अलावा भी उनकी बहुत रुचियाँ थीं, जिनका जिक्र उन्होंने कई जगह किया है.
मुझे याद है, एक लंबी मुलाकात में मैंने उनसे पूछा कि अगर आप लेखक-पत्रकार न होते, तो क्या होते विष्णु जी? सवाल सुनकर विष्णु जी बड़े प्रसन्न हुए. फिर बड़े उत्साह से मेरे सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा-
“हाँ, यह मैं बताना चाहता हूँ. अगर मैं पत्रकारिता में न आया होता तो मैं संभवत: पुरातत्ववेत्ता होना चाहता, जिसके लिए मेरे मन में बचपन से ही दीवानगी की हद तक उत्सुकता और उत्साह है. तब मैं और अधिक गहराई तक इस विषय में जाता और कुछ बढ़िया चीजें खोजता. खासकर प्राचीन इतिहास की खोज करना मुझे बेहद प्रिय है. हो सकता है, यह बचपन से ही बड़ी तल्लीनता से ‘महाभारत’ पढ़ने का असर हो. या फिर मैं संगीतज्ञ होना चाहता. गायक, संगीतकार या वादक कुछ भी! हो सकता है, वादक ही होता अपनी आवाज़ की वजह से, जो बचपन में ही, जब मैं एक-डेढ़ साल का था, तब निकली चेचक की वजह से गड़बड़ हो गई. मुझे बताया तो यह गया कि चेचक का असर गले पर था और मेरी आवाज़ बिल्कुल चली गई थी और मैं गूँगा ही हो गया था. तब मेरी माँ ने जो बड़ी ही धुनी और दृढ़निश्चयी महिला थी, यह सोचकर कि मेरा बेटा गूँगा क्यों रहे, लगातार तीमारदारी करके मेरी आवाज़ को पूरी तरह नष्ट होने से बचा लिया. हालाँकि यह जानकर हिंदी के बहुत सारे लोग बेचारी मेरी माँ को कोसेंगे.”
कहते हुए उनके चेहरे पर शरारती हँसी आ जाती है.
और सच पूछिए तो संगीत और पुरातत्व-ये विष्णु जी की रुचियों के ही क्षेत्र नहीं हैं, बल्कि इन विषयों में उनका खासा दखल और जानकारी थी, यह भी बीच-बीच में उनसे हुई बातों से खुद-ब-खुद खुलने लगता था.
विष्णु जी ने संगीत को लेकर कुछ अद्भुत कविताएँ लिखी हैं, जिन्हें पढ़ते हुए हम किसी ऐसी दुनिया में पहुँच जाते हैं, जो शब्दातीत है और एक अर्थ में जादुई भी है. वे स्वयं संगीत के रस में कितने गहरे डूबे हुए हैं और किसी संगीत रचना के बारे में कितने अधिकार के साथ बात करते हैं, यह भी यहाँ प्रकट हो जाता है. ‘सबकी आवाज़ के पर्दे में’ संग्रह में शामिल उनकी ‘व्याख्यातीत’ ऐसी ही कविता है, जिसमें बहुत कुछ एक साथ घटित होता है-
कोमल कर्कश संवादी विवादी
स्वर कहाँ होते हैं वे
जब इन्हें सुनते हो तो कभी एक सुनाई देता है
जबकि सिर्फ उस एक में सबकी गूँजें सुन सकते हो
जितने सुर संभव हैं यहाँ हैं इन क्षणों में
वे सारी स्वरलिपियाँ जो बनी थीं बनेंगी
और कभी नहीं बन पाएँगी
सुनो सुनो इनमें सब हैं
स्त्री-पुरुष शरीरों और आत्माओं का मेल
नवजात शिशुओं का पहला रोना और किलकना
बूढ़ों की उखड़ती आखिरी साँसें
अट्टहास आर्तनाद दैन्य पराक्रम
किन्हीं अकेलों के महाप्रयाण अक्षौहिणियों के कूच
जो भी बोल या गा सकता है उनकी आवाज़ें और समूहगान
यहाँ सुनाई देगा तुम्हें सृष्टि का बनना और नष्ट होना
अस्तित्व का शब्दातीत यदि स्वरों में बदल सकता है तो यहाँ है
संगीत के इसी सघन और सर्वव्यापी प्रभाव को विष्णु जी के ‘पाठांतर’ संग्रह की ‘प्रवाह’ कविता में भी महसूस किया जा सकता है, जिसमें गायक, वादक, कार्यक्रम सुनने वाले संगीत रसिक और यहाँ तक कि संगीत के तरह-तरह के वाद्य भी एक अलग तरह के महानाद में विलीन हो जाते हैं, परस्पर एक साथ, बल्कि एक होकर, एक ही प्रवाह में बहते हुए-
यदि संगीत सुनना ही है
तो इस तरह कि धीरे-धीरे लगे
तुम ही वह गायक या वादक होते जा रहे हो
और उससे आगे तुम ही वह संगीत
फिर तमाम सुनने वालों के बीच
तुम अजीब ढंग से अदृश्य हो जाओगे
बल्कि तुम ही सभी सुनने वाले बन चुके होगे
क्योंकि वे भी अंतर्धान हो गए हैं
और आगार में एक नीरवता छा जाएगी
होते हुए भी अच्छा संगीत एक नीरवता फैला देता है
संगीत फिर भी सुनाई देता होगा
एक संक्रमण में यह सब वादक गायक और संचालक तक पहुँच जाएगा
उनमें से कोई तुम्हें कनखियों से भी नहीं देखेगा
लेकिन सब एक और अँधियारे में तब्दील होता जाएगा
तुम सारे सुनने वाले पूरा आगार उसके खंभे और उसकी गुंबद
सारी मद्धिम रोशनियाँ भी लगेंगी बुझती हुई
सब अपने को ही सुनते होंगे
जो सुना जा रहा है वह बनते हुए
और समझ जाएँगे
कि सब एक हो चुके हैं
तुम सुनने वाले मंच पर बैठे फनकार
सारे वाद्य उनके सुर और लिपियाँ
और कोई नहीं चाहेगा कि वह खत्म हो
इसी तरह ‘पाठांतर’ संग्रह की ‘उम्मीद’ कविता में भी संगीत रचना को लेकर विष्णु जी की हद दर्जें की दीवानगी पता चलती है. वे यहाँ एक ऐसी अद्भुत संगीत रचना को संभव करने की कोशिश करते हैं जो बेटहोफन, हाइडन या मोत्सार्ट सरीखे विश्वविख्यात संगीतकारों की आश्चर्यों से भरी संगीत की दुनिया में भी असंभाव्य है. पर वे लगातार उसके बारे में सोचते हैं और एक दीवानगी भरे लगाव या पागलपन के साथ आखिर उसे संभव कर दिखाते हैं.
संगीत किस तरह हमें एक नए रूप में पुनर्नवा कर देता है, यह संगीत पर लिखी गई विष्णु खरे की इन असाधारण कविताओं को पढ़कर जाना जा सकता है. समकालीन कविता में संगीत के गहन जादुई प्रभाव पर लिखी गई ऐसी कविताएँ निस्संदेह विरल हैं, और विष्णु जी यहाँ बड़े विलक्षण ढंग से खुद को हिंदी का एक अप्रतिम और अद्वितीय कवि साबित करते हैं, जहाँ तक दूसरों की रसाई संभव नहीं है.
विष्णु खरे सरीखा होना तो असंभव है ही, विष्णु खरे तक पहुँचना भी यहाँ असंभव लगता है.
इससे पता चलता है कि संगीत के साथ विष्णु जी का रिश्ता कितना गहरा है और उसकी जड़ें कितनी दूर तक चली गई हैं.
9 : पारिवारिक जीवन और दांपत्य की कुछ विरल छवियाँ |
विष्णु खरे की कई कविताओं में उनके पारिवारिक जीवन और दांपत्य की विरल छवियाँ हैं. इस लिहाज से ‘काल और अवधि के दरमियान’ संग्रह की एक लंबी आत्मकथात्मक कविता ‘पृथक छत्तीसगढ़ राज्य’ बहुत महत्वपूर्ण है. विष्णु जी याद करते हैं कि कुछ अरसा पहले मध्यप्रदेश से अलग, एक स्वायत्त छत्तीसगढ़ राज्य बन गया. इस कारण बहुत सी तबदीलियाँ हुईँ. अलग राज्य बनने से कुछ दूरियाँ भी आ गईं. पर जब छत्तीसगढ़ अलग न हुआ था, तब वहाँ के अंबिकापुर, रायगढ़, पुसौर, धर्मजयगढ़ तथा कई अन्य शहरों और जगहों की तमाम खटमिट्ठी यादें उनके मन में हैं. क्या वे भी उनसे छीन ली जाएँगी? भला कौन उन्हें उनके जीवन और स्मृतियों से अलग कर सकता है? कविता में ये स्मृतियाँ एक गहरी पुकार की शक्ल में सामने आती हैं-
सिर्फ स्मृतियाँ हैं चालीस बरस पहले पिता के अंबिकापुर तबादले
फिर वहाँ से रायगढ़ पुसौर और धर्मजयगढ़ भेजे जाने की
और उन सिलसिलों में
खंडवा इंदौर रतलाम महू दिल्ली से मेरे वहाँ जाने की
धर्मजयगढ़ में 51 वर्षीय प्रिंसिपल पिता के कैंसरग्रस्त होने की
छत्तीसगढ से बाहर उनकी मौत ही उन्हें महाकोसल लाई थी
जबलपुर के सरकारी अस्पताल में
धर्मजयगढ़ शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के
उनके अध्यापकों और छात्रों को
अश्रुपूरित नेत्रों से उनके अंतिम दर्शनों के बिना ही
काम चलाना पड़ा होगा
पर सिर्फ इतना ही नहीं. छत्तीसगढ़ के शहरों और तमाम स्थलों से जुड़ी उनकी स्मृतियों का तो जैसे कोई अंत ही नहीं. इनमें धर्मजयगढ़ पिता से जुड़ी स्मृतियों के कारण उन्हें बराबर पुकारता जान पड़ता है, तो महासमुंद के जंगल के साथ अशोक वाजपेयी, उनकी पत्नी रश्मि वाजपेयी, और चंपा वैद के साथ बैठकर जीप में यात्रा करने की बड़ी विलक्षण स्मृति जुड़ी हैं, जिसमें विष्णु जी की पत्नी कुमुद जी भी उनके साथ थीं. इसी जंगल में शेर से उनका सामना हुआ था, तो और भी ऐसी अद्भुत स्मृतियाँ हैं, जो रह-रहकर भीतर कौंधती हैं-
फिर भी कभी कोई पुरानी चीज कोई नाम
कोई वाकया कोई स्मृति लौटते हैं एक संगीत में
पहली बार कटनी से दक्षिण-पूर्व जाना
और शहडोल के बाद एक असंभव घाटी पर सूर्यास्त
मनेंद्रगढ़ स्टेशन पर उस तूफानी रात में
पानी अँधेरे और प्राणियों के बीच सुबह की अंबिकापुर बस का इंतजार
लाल साहब का घर बब्बा की अभूतपूर्व आधी नीली रोमक नाक
और उनका खुशबूदार हुक्का
अशोक रश्मि और चंपा के साथ जीप में मेरा और कुमुद का
महासमुंद के भटके हुए जंगल में निहत्थे शेर देखना
उसके पहले दिन में हमारी जीप देखकर एक आदिवासी का भागना
धर्मजयगढ़ में विधुर पिता द्वारा
बहुओं समेत दोनों नवविवाहित बेटों की अगवानी
पुसौर में एक बूढ़े भिखारी का सुबह-सुबह शायद उड़िया में भजन
जिसकी धुन अड़तीस बरस बाद भी याद है…
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य, इनमें तुम मुझसे कभी अलग नहीं हो सकते
यहाँ एक बात गौर करने लायक है कि पृथक छत्तीसगढ़ में शामिल हुए जिन शहरों और स्थलों को विष्णु खरे इतनी आकुलता से याद कर रहे हैं, उनमें से कई तो बहुत मामूली लोगों से जुड़ी उनकी स्मृतियों के कारण ही, उनके लिए अविस्मरणीय बन जाते हैं. और इतना ही नहीं, जब वे रेलगाड़ी की यात्रा में अपने आसपास बैठे लोगों को “चारों तरफ अधिकतर सादा भले लोग मेरे लोग” कहकर याद करते हैं, तो समझ में आता है कि विष्णु खरे का परिवार कितना बड़ा है, जिसके साथ वे गहरा भावनात्मक तादात्म्य महसूस करते हैं.
इसी तरह विष्णु जी के दांपत्य की कुछ विरल छवियाँ उनकी कविताओं में हैं. खासकर ‘अकेला आदमी’ तो उनकी ऐसी कविता है जिसे कभी भूला ही नहीं जा सकता. बेशक यह विष्णु जी की आत्मकथात्मक कविता है, जिसमें उनके पारिवारिक जीवन का बड़ा भावनात्मक चित्र है. कविता की शुरुआत में विष्णु खरे घर में अकेले हैं, और पत्नी और बच्चों के वापस लौटने की बाट जोह रहे हैं. ऊपर से खासे खुरदरे दिखाई देने वाले विष्णु खरे की इस अकेली और उदास जिंदगी के भीतर एक अंतर्धारा भी है-प्रेम और भावुकता की अंतर्धारा, जो इन रूखे, रसहीन दिनों में भी उन्हें जिलाए रखती हैं.
कविता में पत्नी, दो नन्ही बेटियों और एक अबोध बेटे की यादें हैं. पत्नी के पुराने खत और फोटो हैं और एक सपना है कि वह उन्हें अपने साथ रेलगाड़ी में बिठाकर वापस आ रहा है-
अकेला आदमी अपना आपा खो चुका है
खुद पर तरस खाने की हदों से लौट-लौट रहा है
उसे याद आने लगी है पाँचवीं क्लास की उस साँवली लड़की की
जो एक मीठी पावरोटी पर खुश
पैदल स्कूल जाती है निर्मम चौराहे पार करती हुई
याद आती है उससे छोटी की
जो उसे हाथ पर काटकर पिटी थी
और हमेशा खुश उसकी जो अब चलना सीख रहा है
और अचानक थककर कहीं भी सो जाता है
अकेला आदमी छटपटाकर पाता है
कि वह उन सबसे बहुत प्यार करता है
बहुत-बहुत माफी माँगता है
पूरे कपड़े पहने हुए सो जाता है
बिस्तर पर जिसमें उन सबकी गंध है
जिन्हें वह सपने में अपने साथ रेलगाड़ी में आते हुए देखता है
इन पंक्तियों में पत्नी और तीन छोटे-छोटे चंचल बच्चों की यादों के साथ-साथ विष्णु खरे के स्नेह से डब-डब करते जो अक्स हैं, उन्हें आप चाहेंगे भी तो भूल नहीं पाएँगे. ऊपर से कुछ-कुछ रूखी और बे-रस नजर आती इस कविता में विष्णु जी का अपनी पत्नी और बच्चों के लिए जो भावुक प्रेम और आर्द्रता है, इसे कहा नहीं, बस समझा ही जा सकता है.
विष्णु जी के संग्रह ‘काल और अवधि के दरमियान’ में भी ‘अनकहा’ शीर्षक से पत्नी के लिए एक सुंदर कविता है, जिसे भूल पाना कठिन है. हालाँकि यहाँ प्रेम और सुंदरता का बहुत खुला चित्रण नहीं है, पर संकेतों में, बल्कि कहना चाहिए कि कुछ लकीरों में ही उनके दांपत्य प्रेम की बड़ी आत्मीय छवि है-
मैं उसे छिपकर देखता हूँ कभी-कभी
अपने निहायत रोजमर्रा के कामों में तल्लीन
जब उसकी मौजूदगी की पुरसुकून चुप्पी छाई रहती है
उसकी हलकी से हलकी हरकत संपृक्त
ऐसा एक उम्र के अभ्यास से आता है
उसके दुबले हाथों को देखता हूँ मैं
कितनी वाजिब और किफायती गतियों में
अपने काम करते हैं वे
और उसका चेहरा जो अभी भी सुंदर है
इस तरह अपने में डूबा और भी सुंदर बल्कि उद्दाम
भले ही समय ने उस पर अपनी लकीरें बनाई हैं
और वह बीच-बीच में स्फुट कुछ कहती है
पता नहीं किससे किसके बारे में
विष्णु जी बहुत थोड़े अल्फाज में यहाँ अपने दांपत्य जीवन की समूची तस्वीर आँक देते हैं, जिसके पीछे प्रेम की गहरी आँच है, और एक बे-बनाव सादगी भी. इसीलिए प्रेम और सौंदर्य पर लिखी गई सैकड़ों कविताओं में यह कविता अलग नजर आती है.
विष्णु जी अपने घर-परिवार और दांपत्य जीवन के बारे में क्या सोचते हैं? यह उनसे हुई बातचीत में भी सामने आता है. एक बार उनकी घरेलू शख्सियत के संबंध में जानने की गरज से मैंने उन्हें टटोला, कि क्या उनके लेखक होने का असर उनके घर-परिवार पर भी पड़ता है, तो उन्होंने कहा-
“मेरे बच्चों को अपने हिसाब से जीवन जीने की पूरी छूट है. मैं उन्हें अपने कंट्रोल में या सख्त अनुशासन में रखने की कभी कोशिश नहीं करता और न बात-बात पर टोकता या उपदेश झाड़ता हूँ. मैंने आपको बताया था, मेरे पिता ने पूरे जीवन भर हमसे कभी कुछ नहीं कहा. पूरे जीवन में उन्होंने मुझसे सिर्फ बीस वाक्य कहे होंगे, इससे ज्यादा नहीं. मुझे लगता है, जब वह पूरे जीवन में बीस वाक्य बोलकर अपना काम चला सके तो मैं तो अपने बच्चों से इतनी बातें, बहसें करता हूँ, फिर उन्हें अलग से उपदेश देने की मुझे जरूरत क्या है? यह पिता का ही असर है और वह मुझमें इस कदर बढ़ता आ रहा है कि कभी-कभी तो अपनी बात सुनकर मुझे लगता है, यह पिता तो नहीं बोल रहे हैं? अपनी पदचाप सुनकर लगता है, अरे, यह तो पिता की पदचाप है. अपने खाँसने के बाद लगता है, अरे, पिता यहीं कहीं मौजूद तो नहीं है?”
कभी-कभी विष्णु खरे के मन में यह प्रश्न भी उठता है कि कहीं वे अतीतजीवी तो नहीं होते जा रहे? पर उनका मानना है कि अतीतजीवी होना भले ही अच्छा न हो, पर अतीत राग तो बुरा नहीं, क्योंकि उससे जुड़ी स्मृतियाँ मनुष्य को आत्म विस्तार देती हैं. नहीं तो जीवन शायद यांत्रिक हो जाए. विष्णु खरे लिखते हैं-
“खुद तुम्हारा एक निजी समय है, इस तुम्हारे दुनियावी समय से अलग, जिसमें तुम बार-बार लौटते-होते हो. अतीतजीवी होना शायद श्रेयस्कर नहीं, अतीतमोह संभव है, एक दुर्बलता, एक रोग हो, लेकिन अतीत-राग को नॉस्टेल्जि़या का नाम देकर उसे एक लज्जास्पद चीज सिद्ध करने की कोशिश की जाती रही है. किंतु वह क्या है जो स्मृति को वांछनीय बनाता है और नॉस्टेल्जि़या को वर्जनीय? वह बारीक सीमारेखा क्या और कहाँ है? अतीत-राग को तुमने हमेशा एक लांछित अवधारणा समझा है इसलिए हमेशा उसका पक्ष लिया है.”
और कहना न होगा कि विष्णु खरे की समूची कविताओं में ये स्मृतियाँ बिखरी हुई हैं.
अलबत्ता, जिस तरह विष्णु जी की कविता की सतरों से सहज ही छनकर उनकी आत्मकहानी सामने आ जाती है, वैसा मैंने किसी और कवि की कविता में देखा नहीं. विष्णु जी की कवि शख्सियत जो कई मायनों में विलक्षण है, इस लिहाज से भी मुझे अद्वितीय और बेमिसाल लगती है.
प्रकाश मनु 12 मई, 1950. शिकोहाबाद (उत्तर प्रदेश) अंकल को विश नहीं करोगे, सुकरात मेरे शहर में, अरुन्धती उदास है, जिन्दगीनामा एक जीनियस का, तुम कहाँ हो नवीन भाई, मिसेज मजूमदार, मिनी बस, दिलावर खड़ा है, तुम याद आओगे लीलाराम, भटकती ज़िंदगी का नाटक (कहानी संग्रह), यह जो दिल्ली है, कथा सर्कस, पापा के जाने के बाद (उपन्यास), एक और प्रार्थना, छूटता हुआ घर, कविता और कविता के बीच (कविता-संग्रह), मुलाकात (साक्षात्कार), यादों का कारवाँ (संस्मरण) आदि प्रकाशित. साहित्य अकादेमी के लिए देवेन्द्र सत्यार्थी और विष्णु प्रभाकर पर मोनोग्राफ. बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं में डेढ़ सौ से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन. कई सम्पादित पुस्तकें और संचयन भी. बाल उपन्यास एक था ठुनठुनिय’ पर साहित्य अकादेमी का पहला बाल साहित्य पुरस्कार. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के ‘बाल साहित्य भारती’ पुरस्कार और हिंदी अकादेमी के ‘साहित्यकार सम्मान’ से सम्मानित. कविता संग्रह छूटता हुआ घर पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार. आदि |
विष्णु जी पर संलग्नता से प्रकाश मनु जी ही बेहतर लिख सकते हैं। इस आलेख के लिए उन्हें बधाई और आभार। विष्णु खरे का लेखन, जीवन सर्जनात्मक उत्खनन की माँग करता है और उसमें से हर बार कुछ नये विस्मय, नये खनिज बरामद होंगे।
बरेली होटल में विश्व मोहन बडोला, वीरेन डंगवाल, प्रियदर्शन मालवीय और मैं रसरंजन में बैठे हुए हैं. बडोला जी के पास संस्मरणों का खजाना है अश्क जी से लेकर विष्णु खरे तक. वे अपनी रौ में सुनाए जा रहे हैं.तभी प्रसंग विष्णु खरे की ओर घूमता है-दारू पार्टियों में वो जब मंगलेश डबराल और तुम्हें खरी खरी गालियां सुनाता है तब तुम्हें सांप क्यों सूंघ जाता है.बीहड़ प्रतिभा के धनी विष्णु खरे का यह रूप केवल उनके नजदीकी मित्र तस्दीक कर सकते हैं.अपनी इस आदत के कारण उन्होंने दुश्मन ज्यादा बनाए. उनके जैसा श्रेष्ठ अनुवादक होना मुश्किल है.स्पेनिश महाकाव्य का अनुवाद एक मानक है. काश कोई उनकी पूरी जीवन यात्रा को आंक सके तो बडा काम होगा.
विष्णु खरे जी जैसी दुर्लभ मेधा और विराट व्यक्तित्व पता नहीँ अब हिन्दी साहित्य को कब मिल सकेगा। उनका व्यक्त्तित्व और जीवन निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है, पर हमेँ उनकी आलोचना और कविता को उनके जीवन से निरपेक्ष समझ कर पढ़ना नई दृष्टि दे सकता है। कम से कम एक काल-खण्ड से बाहर कवि कितना प्रतिष्ठित हो सकता है, यह विष्णु खरे की कविताओँ की निरपेक्ष और निमर्म मूल्याङ्कन से ही सम्भव है।
विष्णु खरे के जीवन और कविता पर इतना शानदार और अविस्मरणीय लेख प्रकाश मनु जी ही लिख सकते थे। बधाई समालोचन को भी।
विष्णु खरे के जीवन को प्रकाश मनु ने जिस आत्मीयता और अंतरंगता से रचा बुना है, उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं। आपातकाल के दिनों में कारावास की सजा भुगत रहे गिरधर राठी की स्मृति दुर्लभ है। पहली बार विष्णु खरे के बारे में बहुत सी दुर्लभ जानकारियां पढ़ने को मिलीं।
प्रकाश मनु का लिखा यह संस्मरण एक सांस में पढ़ गया.
विष्णु जी की कविताओं का मुरीद रहा हूँ. उनके जीवन के तमाम प्रसंग पढ़ने को मिले.
छिंदवाड़ा को लेकर उनके मन में जो दीवानगी थी वह उनकी
कविताओं में भी दिखाई देती थी.
बहुत ही गहरी मार्मिकता और अपनापे से लिखी गई विशद और विरल टिप्पणी। ऐसी कि जिन्होंने विष्णु खरे को जरा भी नहीं पढ़ा और जाना है वे भी विष्णु जी के जीवन और कवि व्यक्तित्व में आकंठ डूब जाएं। प्रकाश मनु जी के श्रम, साधना और संवेदनशील स्वभाव को शत शत नमन।
पापा के लिए आपके समर्पण, स्नेह, आदर और उनके व्यक्तित्व की समझ को नमन। उनका हमारे बीच न होना मेरे लिए अब भी अविश्वसनीय है। उनकी तस्वीर देखती हूं, या जब वो ज़हन से अचानक और अक्सर सामने आते हैं, तब भी उनसे कुछ कह नहीं पाती, जो कहना चाहती रही हूं। बहुत बहुत धन्यवाद चाचाजी
क्या ही खूब! बेमिसाल जीवनाख्यान है यह। अद्भुत। मेरे लिए अभूतपूर्व। अगर कभी छिंदवाड़ा जाऊंगी तो अब
विष्णु खरे के बरक्स देखकर देखूंगी कि कैसे एक शहर को जज़्ब किए जीता है एक बड़ा कवि? प्रकाश मनु जी ने शब्दबद्ध किया, आभार उनका।
बहुत शानदार। सुविस्तृत। कविताओं, साक्षात्कार, और आत्मकथ्य के वितान में यह जीवनवृत्त। प्रकाश मनु जी ने विष्णु जी का जो साक्षात्कार ‘पहल’ के लिये लिया था वह अविस्मरणीय है। जब विष्णु जी से मैंने उस इंटरव्यू की तारीफ़ की तो उन्होंने एक चौंकाने वाली बात कही, जो पता नहीं कितनी सच है। उन्होंने कहा कि प्रकाश मनु ने उस बातचीत को स्मृति से लिखा था, कोई नोट्स वगैरह नहीं लिए थे। इस पर विश्वास तो नहीं होता और विष्णु जी की अतिरंजनाप्रियता के चलते न होना ही उचित है; लेकिन बताया उन्होंने यही।
प्रिय भाई आशुतोष जी,
विष्णु जी ने आपसे उस इंटरव्यू के बारे में जो कुछ कहा, उसका एक-एक शब्द सही है। और केवल यही नहीं, विष्णु जी से मेरे तीन इंटरव्यू और भी हैं, वे भी इसी तरह लिखे गए। रामविलास जी, नामवर सिंह, कमलेश्वर, शैलेश मटियानी, रामदरश जी सरीखे कई दिग्गजों से लिए गए मेरे इंटरव्यू भी एक लंबे वार्तालाप की तरह ही हैं, जिनका एक शब्द भी नहीं लिखा गया। गो कि वहाँ से घर आने के बाद कोई महीने भर की लंबी भाव-समाधि सरीखी एकाग्रता की स्थिति में मुझे रहना होता है, जहाँ मेरे प्रिय नायक का बोला हुआ एक-एक शब्द ही नहीं, बोलते समय की सारी भाव-भंगिमाएँ भी मेरी आँखों के आगे आ जाती हैं।
और जिस इंटरव्यू का आपने जिक्र किया, उसका रोमांच तो मैं आज तक नहीं भूल पाया। उस लंबी बातचीत में मुझे लगा, जैसे विष्णु जी ने अपने अंत:करण का पुरजा-पुरजा खोलकर मेरे आगे रख दिया है और मैं उनके अंत:करण में छिपे हर रहस्य और भेद को जान सका हूँ। और उनकी हर शक्ल और मूड और छोटी से छोटी प्रतिक्रिया से भी परिचित हो रहा हूँ।
उस दिन सुबह नौ बजे से लेकर शाम को सात-साढ़े बजे तक वे जिस तरह लगातार और गहरे आविष्ट स्वर में बोलते रहे, उस सामर्थ्य के साथ वही और सिर्फ वही बोल सकते थे। और मुझे लगा, वे बोलते रहें, बोलते रहें…बस, और मैं सुनता रहूँ। उस समय मैं लगभग निष्कवच था। न कोई टेप, न नोट्स और न पहले से तैयार किए गए सवाल। हाँ, कुछ बड़ी जिज्ञासाएँ विष्णु जी के कवि और पत्रकार को लेकर मन में थीं और लगता था कि इन्हीं में से कुछ को उठा लूँगा और इनके सहारे आगे बढ़ता जाऊँगा। फिर बात जिधर जाती है, जाए! सवाल जो भी होंगे, उसी में से निकलेंगे।
लेकिन यह कम हैरत की बात नहीं कि बिना टेप किया हुआ यह इंटरव्यू आज भी मेरे भीतर ज्यों का त्यों टेप किया हुआ है और मैं अब चाहूँ, जहाँ से चाहूँ…आगे जाकर या फिर पीछे रिवाइंड करके उसे सुन सकता हूँ। ज्यों का त्यों। शब्द-दर-शब्द। मैं बहुत मामूली शक्तियों वाला एक छोटा-सा आदमी हूँ। पर कुछ चमत्कार मेरे जीवन में घटित हुए हैं। विष्णु खरे से हुआ यह सघन इंटरव्यू ऐसा ही एक चमत्कार है।
सुबह जब वे बातचीत के लिए तैयार होकर बैठे थे, तो इत्मीनान से तख्त पर से पैर नीचे लटकाकर बैठे थे। बातचीत आगे बढ़ती गई और वे रौ में आकर लगभग बेखुदी में बोल रहे थे, बोलते जा रहे थे। इस बीच शरीर का जैसे उन्हें कोई होश ही न हो! दोपहर तक वे कुछ अधलेटे से हो गए, शाम चार बजे के आसपास वे सीधे लेट गए। मैं पूछता जा रहा था और वे बोलते जा रहे थे—उसी रौ में, उसी गहरे आवेश में भिदे हुए-से! आवाज धीमी, बहुत धीमी हो गई थी, लेकिन अब भी उतनी ही नाटकीय और गहन भावनाओं से लबालब।
इस समय तक विष्णु जी की हालत यह थी कि जैसे कोई नीम बेहोशी में बोलता है। और यह नीम बेहोशी ऐसी थी कि मुझे लगा, इस समय वे चेतना के सर्वोच्च शिखर पर स्थित हैं।…पर वह आवाज कुछ इस कदर मंद पड़ती जा रही थी और विष्णु जी कुछ इस कदर थके हुए, शांत, निस्पंद लेटे थे कि मुझे लगा कि मैं उन पर अत्याचार कर रहा हूँ। उस समय शाम के कोई पाँच-साढ़े पाँच बजे थे। मैंने उनसे कहा, “विष्णु जी, मुझे लग रहा है, मैं आप पर अत्याचार कर रहा हूँ। आप कहें तो इसे यहीं खत्म कर दिया जाए।” एक क्षण तक विष्णु जी का स्वर नहीं सुनाई दिया। फिर उन्होंने फीकी आवाज में पूछा, “क्या तुम्हारे सवाल खत्म हो गए?” “नहीं, अभी तो हैं।” मैंने कहा। “तो फिर पूछो।” वही मंद, लेकिन भीतरी ताप से तपी हुई दृढ़ आवाज।
और शाम को साढ़े सात बजे जब मैं इस इंटरव्यू का आखिरी सवाल पूछ रहा था तो न सिर्फ मेरी, बल्कि विष्णु जी की हालत भी कुछ अजीब हो गई थी। अपने सवालों के साथ-साथ कागज-पत्तर समेटकर जब मैं चलने लगा तो मैंने कुछ झिझकते हुए-से कहा, “आज आपको बहुत परेशान किया है।”
“ऐसा नहीं! बल्कि मैं ही शायद बहुत-कुछ उलटा-सीधा बोल गया। सबका सब लिख मत डालना…!!” विष्णु जी का उत्तर। अलबत्ता विष्णु जी का इंटरव्यू लेकर जब मैं बाहर निकला तो मेरी अजीब हालत हो रही थी। लगा, मैं अकेला नहीं हूँ और हजारों-हजार छवियों के साथ विष्णु खरे ने मुझे घेर रखा है। और मैं जहाँ भी जाऊँगा, विष्णु खरे मेरे साथ जाएँगे।
उस दिन मैं घर कैसे पहुँचा, मैं सचमुच नहीं जानता। अलबत्ता घर पहुँचा तो मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला, “मुझे थोड़ी-सी चाय दे दो सुनीता। चाय पीकर मैं सोऊँगा।” हालाँकि सोना इतना आसान कहाँ था! देर तक चीजें आपस में गड़बड़ाती रहीं। सब कुछ डगमग-डगमग हो रहा था। पूरी स्क्रीन पर बस विष्णु खरे का चेहरा…और फिर सिर्फ होंठ! वे कुछ कह रहे हैं—हाँ-हाँ, यह कहा था, यह कहा था, यह भी कहा था, यह-यह कहा था…वह-वह कहा था!
और यह इंटरव्यू जितने अद्भुत ढंग से हुआ, लिखा भी उतने ही अद्भुत ढंग से गया।
अगले दिन सुबह उठकर मैंने चाय पी और कागजों का एक गट्ठर लिया, फिर एक पेन। और फिर वह पेन चलने लगा। चलने क्या, दौड़ने लगा। लिख तो शायद मैं ही रहा था, पर वह पेन कहाँ से शुरू होकर किधर जा रहा था, मैं नहीं जानता।
और उस दिन मैंने क्या लिखा, कैसे लिखा, मुझे कुछ याद नहीं। बस, इतना याद आता है कि शायद यह लिखा था, यह लिखा था…यह-यह लिखा था। और जो-जो याद आता था, उसके आसपास और आगे-पीछे का भी बहुत कुछ याद आता था। बगैर क्रमबद्धता का खयाल किए मैं उसे लिखता, बस लिखता जाता था और रात होते-होते मैंने कोई सौ-डेढ़ सौ पन्ने लिख लिए। फिर अगले पंद्रह-बीस दिनों तक, जब तक वह पूरा इंटरव्यू सिलसिलेवार नहीं लिखा गया—मैं शपथ खाकर कह सकता हूँ, मैं रात-दिन, चौबीसों घंटे विष्णु खरे के साथ था।…
शायद इससे कुछ अंदाज मेरी स्थिति का आप लगा सकें।
मेरा स्नेह,
प्रकाश मनु
आदरणीय, आप सचमुच अद्वितीय चमत्कारिक शक्ति से नवाज़े गये हैं। कृतज्ञता ।
विष्णु खरेजी जब छिंदवाड़ा लौटकर आए थे, कई बार उनके सानिध्य में उनके किराये वाले मकान में, छिंदवाड़ा में उनकी लंबी-लंबी संगत में रहने का मुझे भी मौका मिला था। मैं भी छिंदवाड़ा का ही हूँ और तब तक स्थानंतरित होकर अपने गृह जिले छिंदवाड़ा में लौट चुका था। प्रकाश मनु जी ने उनके छिंदवाड़ा प्रवास को जीवंत कर दिया है। बहुत आत्मीय, गहरे उदास कर देने वाला आलेख है।
प्रकाश मनु का विष्णु खरे जी के ऊपर ये संस्मरण मैने पुरवाई में भी पढ़ा था शायद। तब भी आश्चर्यचकित रह गई थी और आज भी रह गई। ये विष्णु जी को प्रकाश मनु की दृष्टि से देखने और उनको अधिक जानने का संस्मरण मात्र नहीं है।ये प्रकाश मनु के विष्णु जी के लिए स्नेह का आख्यान भी है। प्रकाश मनु एक संवेदनशील लेखक कवि हैं। यह संस्मरण इस बात की पड़ताल करता है। विष्णु खरे से वे कितने गहरे जुड़े हैं, किसी को समझने में तनिक भी देर नहीं लगेगी, वो जो कोई भी इस संस्मरण को पढ़ेगा। क्योंकि संस्मरण कई बार लेख आलेख से बन जाते स्मृतियां सहेजने में कहीं दूर केवल एक औपचारिकता भर निभाते से दिखते हैं।लेकिन ये संस्मरण जहां विष्णु खरे जी को अधिक जानने में सहयोगी है। वहीं प्रकाश मनु जी को भी अधिक जानने की सहूलियत देता है। इस संस्मरण को पढ़कर कई बार मन द्रवित हुआ।एक बढ़िया संस्मरण के लिए प्रकाश मनु जी को बधाई। विष्णु जी को सादर नमन।समालोचना का आभार जो नित नई शानदार जानकारियों से पाठक का कोष समृद्ध करते हैं।
वह अलग संस्मरण है. यह पहली बार यहीं प्रकाशित हो रहा है.
प्रिय पूनम जी,
आपने इतनी रुचि से आलेख पढ़ा। इसके लिए बहुत-बहुत आभार। पर इससे पहले ‘पुरवाई’ में जो संस्मरण आपने पढ़ा था, वह पूरी तरह से एक भिन्न रचना है। उसमें विष्णु जी से जुड़ी मेरी स्मृतियाँ हैं, जिन्हें मैंने बहुत कशिश के साथ लिखा। शायद इसीलिए आपको रुचा भी।…पर यहाँ आपने जो पढ़ा, वह विष्णु जी की ‘आत्मकहानी’ है। विष्णु जी ने अपनी कविताओं में बहुत कुछ ऐसा लिखा है, जो आत्मकथात्मक है और कोई गौर से उसे देखे, पढ़े, सुने, तो उसमें बहुत कुछ ऐसा है, जिसमें विष्णु जी की अनलिखी आत्मकथा के पन्ने हवा में फड़फड़ाते नजर आ सकते हैं। मैंने उन पन्नों को सहेजा और एक तरतीब दी। इसके अलावा विष्णु जी का आत्मकथ्य ‘मैं और मेरा समय’ उपलब्ध है, जो एक दुर्लभ साक्ष्य है। इसमें विष्णु जी ने बीच-बीच में बड़ी संवेदनशीलता से अपने जीवन प्रसंगों का जिक्र किया है। तीसरा साक्ष्य है उनसे हुई बातचीत। मैंने विष्णु जी से चार लंबे इंटरव्यू किए हैं, जो उन पर लिखी गई मेरी कोई साढ़े तीन सौ सफे की पुस्तक ‘एक दुर्जेय मेधा विष्णु खरे’ में संगृहीत हैं। उनमें भी कई जगह उन्होंने अपने बारे में बहुत खुलकर कहा है।
यह सारी सामग्री मैंने एक साथ सँजोई और उसे एक जीवन आख्यान सरीखा रूप देने की कोशिश की। मैं कितना कर पाया, कितना नहीं, यह अलग बात है, पर कोशिश मैंने की। और फिर जो कुछ बना, वह इस संवेदनात्मक आत्मकहानी के रूप में ‘समालोचन’ में आपने पढ़ा।
यह कैसा बना, कैसा नहीं, यह तो विष्णु जी से गहराई से जुड़े और उन्हें प्यार करने वाले लेखक, पाठक ही बता पाएँगे। पर इसे लिखना मेरे लिए कैसा रोमांचक अनुभव था, यह मैं जानता हूँ। और इस आनंद और रोमांच को कितना भी चाहूँ, बता पाना मेरे लिए संभव नहीं है।
अलबत्ता, इस लंबी आत्मकहानी को आपने इतने धैर्य के साथ पढ़ा और पसंद किया, इसके लिए मेरा आभार।
स्नेह,
प्रकाश मनु
विष्णु खरे पर यह एक संश्लिष्ट और गहन आलेख है. आस्वाद से भरा और आत्मीय भी. उनका जो कुछ भी पढ़ा-जाना है वह कुछ ऐसा भी है जो उनके जीवन और तमाम अनुभवों की उनकी दुनिया को देखने के लिए उकसाता है. उनका गजब का अध्ययन था और एक ऐसी बेचैनी भी जो उनके लिखे से इतर उनसे बातचीत में भी झलकती थी. यह आलेख कई तरह से उन बातों से जोड़ता है. बधाई.
विष्णु खरे पर लिखा गया यह विरल आलेख कितनी सांद्र आत्मीय अनुभूतियों से लैस है,यह पूरे मनोयोग से पढ़कर समझा जा सकता है।विष्णु जी के बारे में मनु ने कितने विस्तार और
डूब कर लिखा है, उन्हें बधाई!
प्रकाश जी ने बड़ी सघन आत्मीयता से लिखा है। इसमें स्मरण की आर्द्रता भी है और जीवनी की तथ्यात्मकता भी। इन तत्त्वों तथा कवितांशों और बातचीत के ब्योरों ने इसे एक स्वतंत्र रचना बना दिया है। तेज़ी जी ने इसकी औपन्यासिकता की ओर ठीक ही इंगित किया है।
लेकिन, मुझे लगता है कि एक दूसरे स्तर पर यह लेख एकांकी या एकांगी बन जाता है। इसमें विष्णु जी की विकलता और अवसाद की छायाएं ज़्यादा वजनी हो गईं हैं। स्पष्ट कर दूं कि इससे प्रकाश जी के लेख का सौष्ठव या उसकी महत्ता कम नहीं हो जाती। कहने का आशय कुल इतना है कि अपनी प्रभाव-क्षमता के कारण यह लेख विष्णु खरे के जीवन को बहुत स्याह बना देता है— कई दफ़ा तो ऐसा लगता है जैसे हम एक त्रासद जीवन की कथा पढ़ रहे हैं! जबकि हम जानते हैं कि विष्णु जी के लिए यह एक चुना हुआ जीवन था। और जीवन के इसी आवेग से उनका कवि, सिनेमा का अध्येता, व्यावहारिक शिष्टता के नीचे छुपी फफूंद को दूर से देख लेने वाली आंख और कुछ भी दो-टूक कह देने की बेनियाज़ी पैदा हुई होगी।
लिहाज़ा, पाठक को गिरफ़्तार कर लेने वाली पठनीयता के बावजूद यह लेख अपने समग्र प्रभाव में विष्णु खरे का एक ऐसा चित्र बन जाता है जिसमें उनके केवल आधे चेहरे पर रोशनी पड़ रही है!
कविताओं और बातचीत के सहारे इतना मकनतीसी लेखन ! अद्भुत है। विष्णु जी साकार हो गए।
प्रिय भाई नरेश जी,
आपकी कही बातों पर मैंने काफी गौर किया है। आपको इस आत्मकहानी से बनने वाला विष्णु का चित्र कुछ अधिक संजीदा और स्याह लगा। और इसलिए एकांगी भी। इस पर मैंने विचार किया। इसमें ऐसे करुण प्रसंग हो सकता है, कुछ अधिक उभरे हों, जिनमें उनकी पारिवारिक त्रासदी, दुख, मुश्किलें और परेशानियाँ हैं। पर अन्य रस और छवियाँ भी हैं तो अवश्य ही। उदाहरण के लिए दांपत्य और किशोर वय का अछूता प्रेम। छात्र जीवन में क्रिकेट सरीखे खेल के लिए विष्णु जी का उद्दाम आकर्षण और रोमांच। संगीत की रसिकता और उसके लिए करीब-करीब अतींद्रिय किस्म का प्रेम। और फिर अपनी निजी गृहस्थी में बच्चों के साथ दोस्ताना ढंग से जीने का ढब। फिर भी चित्र स्याह अधिक लगता है, तो एक कारण यह भी हो सकता है कि उनकी कविताओं में जहाँ आत्मकथात्मक विवरण हैं, वहाँ पारिवारिक त्रासद स्थितियाँ ही कुछ ज्यादा उभरकर सामने आती हैं। उनके आत्मकथ्य ‘मैं और मेरा समय’ और उनसे हुई बातचीत में भी उनका आविष्ट रूप ही कुछ ज्यादा छाया रहा है। निजी जीवन में उनमें विनोद भाव कम न था। पर इस आत्मकहानी के जो साक्ष्य मुझे मिले, वहाँ ऐसा क्यों न था, समझना खुद मेरे लिए भी खासा मुश्किल है।
फिर एक बात और। यह आत्मकहानी जो आप पढ़ रहे हैं, वह मूल रूप से करीब सौ पन्नों में लिखी गई। पर इतना लंबा कोई आलेख तो छपने दिया नहीं जा सकता था, इसलिए बहुत कुछ तराशकर मुझे इसे संक्षिप्त कलेवर देना पड़ा। इस सिलसिले में बहुत चीजें छूटीं। उनके मित्रों की बहुत आत्मीय और अंतरंग स्मृतियाँ, कुमुद जी द्वारा बताए गए इस अनूठे प्रेम विवाह और दांपत्य के कुछ विरल प्रसंग और विष्णु जी का बहुत घरेलू किस्म का रूप।…यह सब देता तो आलेख बहुत लंबा हो जाता। अब हो सकता है, अलग से ये सारी चीजें किसी और आलेख के रूप में सामने आएँ।
और एक आखिरी बात यह कि इसे पढ़कर बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन जी के अंतेवासी रहे भाई वाचस्पति जी का प्रबल आग्रह कि मैं विष्णु जी की जीवनी लिखूँ। और मैंने बहुत डरते-डरते उसके लिए हाँ भी कर दी है। अलबत्ता, ऐसा एक सपना तो मेरे भीतर अब झलमलाने ही लगा है। विष्णु जी की जीवनी लिखने का यह काम कितना दुर्वह, कितना कठिन है, यह मैं जानता हूँ। पर फिर भी जो-जैसा हो सकेगा, करूँगा तो जरूर। इसके लिए बीच-बीच में मुझे आपके परामर्श की भी दरकार होगी।
बहरहाल, इस आत्मकहानी को इतनी बारीकी से पढ़ने और उस पर इतने खरे और सुविचारित ढंग से अपनी बात कहने के लिए आपका बहुत शुक्रगुजार हूँ भाई नरेश जी।
मेरा स्नेह,
प्रकाश मनु
आदरणीय प्रकाश जी,
आपकी विनम्रता से अभिभूत हूं। जैसा कि मैंने अपनी टिप्पणी में स्पष्ट किया था, यह आपके लेख की प्रभाव-क्षमता ही थी कि उसे पढ़कर मैं लगभग थर्रा गया था। इस लेख में आपने विष्णु जी के जीवन और उनके रचनात्मक लोक को जिस तापमान पर गढ़ा है, उसे संवेदना का सामान्य सांचा बहुत देर तक नहीं संभाल सकता। मैं इसे भाषा की संप्रेषणीयता का महत्तम उदाहरण कहूंगा।
ख़ैर, यह पढ़कर बहुत अच्छा लगा कि आप विष्णु जी जीवनी लिखने पर विचार कर रहे हैं। एक तरह से देखें तो यह लेख उस प्रस्तावित जीवनी का कोई न कोई अध्याय तो बन ही चुका है ।
आपको अग्रिम शुभकामनाएं।
सादर,
Aadarniya Bishnu khare ka maine lekh rachana, You tube me barta aur anudit kabita bhi padha hai . Unka lekhan shailee alag prakar ka lagta hai, Unka kho ji ascharya janak lagta hai. Abhibadan !