सदाशिव श्रोत्रिय
विष्णु खरे की कविता पढ़ते हुए लगता है कि रहस्यमयता उनकी कविता का एक विशिष्ट गुण है. अपनी कविता के माध्यम से यह कवि कुछ उन भाव-स्थितियों से हमारा परिचय करवाता है जिन तक सामान्यतः हमारी पहुँच नहीं होती. विष्णुजी की कविता में हम घटनाओं के जो लम्बे वर्णन देखते हैं वे दरअसल उनके द्वारा सृजित वे मार्ग हैं जिन पर चलते हुए कविता के किसी सहृदय और संवेदनशील पाठक द्वारा भाव- चेतना के उन विशिष्ट अनुभवों तक पहुंचा जा सकता है. भाव-चेतना की जिस स्थिति को सामान्य तरीके से व्यक्त नहीं किया जा सकता उसी को व्यक्त करने की कोशिश मुझे उनकी अधिकतर कविताओं में नज़र आती है. उदाहरणार्थ यदि पिछला बाक़ी संग्रह से उनकी कविता अव्यक्त ( पेज 18 ) को ही लिया जाए तो हम देखते हैं कि इसमें वर्णित छात्र (जो संभवतः कवि स्वयं ही है – मुझे खरे जी की कविता में बहुत से वर्णन आत्मकथात्मक लगते हैं – वे शायद इसे छिपाना भी नहीं चाहते –इसी संग्रह की पहली कविता टेबल में उनके वंश की चार पीढ़ियों का वर्णन मिल जाता है) एक दिन मध्यांतर के बाद क्लास में न लौट कर समीप के एक बगीचे में जा बैठता है और वहां से सुनाई देने वाली आवाज़ों से उन तमाम गतिविधियों का अनुमान लगाने की कोशिश करता है जो उस समय स्कूल में या आसपास हो रही होंगी. ऐसा करते हुए वह अपने आप को सामान्य जन की दुनिया से बाहर हो गया महसूस करता है – जैसे वह अपने शरीर से विच्छिन्न एक अदृश्य आत्मा हो गया हो जिसके लिए दूसरों को देख पाना संभव है पर जिसे अब कोई नहीं देख सकता. एक अकेले रह गए बच्चे के लिए यह निश्चय ही एक असामान्य और कुछ भयभीत सा करने वाला अनुभव है :
मेरे आसपास सिर्फ़ दूर से आती हुई आवाज़ें थीं
जिन्हें मैं धुंधले रूप से पहचान रहा था
……………..
किन्तु अचानक उस क्षण और उसके बाद
वहां बैठे रहना मेरे लिए दूभर हो गया – एक अजीब साँसत में था मैं
एक अव्यक्त सुखद भय से घिरता हुआ
……………….
भयावह क्षण था वह अपने सब कुछ परिचित से कटने का
और एक अस्पृश्य विराट से जुड़ने का
……………….
उसके बाद अपनी परिचित चीज़ों और लोगों को
उसके पहले की तरह देखना मेरे लिए कठिन हो गया
कविता की अगली कुछ पंक्तियाँ प्रमाणित करती हैं कि इस स्थिति में इस तरह का कोई विचार कि अपनी क्लास छोड़ कर बगीचे में जा बैठने का काम शायद वही कर सकता है जो या तो पूरी तरह होशोहवास में न हो या जो किसी भूत-बाधा से प्रभावित हो गया हो संभवतः कवि के मन से बहुत दूर नहीं रहा होगा :
मैं यह भी साफ़ कर दूं कि मैं पूरी तरह होशोहवास में था
और वह जगह भूत-प्रेत की अफवाहों से मुक्त थी
पार्थिव अनुभवों के माध्यम से रहस्यमय और कुछ कुछ अव्याख्येय चेतना-स्थितियों तक पहुँचने का यह सिलसिला विष्णु जी की कविता में बराबर जारी रहता है. गर्मियों की शाम ( पेज 20 ) में यह कवि अपने वयःसंधिकाल को और उस समय के यौनवर्जना वाले उस मध्यवर्गीय कस्बाई समाज को याद करता है जिसमें माता-पिता अपने बच्चों को अपनी निगरानी में रखते हुए आगे बढ़ाना चाहते थे. इस कविता में वर्णित ऐसे कुछ माता-पिता शाम के समय अपने लड़के-लड़कियों को साथ-साथ घूमने की छूट देते हैं :
यही समय है जब एक मास्टर का ,एक वकील का , एक डाक्टर का और एक साइकिलवाले सेठ का
‘चार लड़के दसवीं क्लास के निकलते हैं घूमने के लिए
डाक्टर और सेठ के लड़कों के साथ एक-एक बहन भी है लगभग हमउम्र
चारों पिता आश्वस्त हैं अपने लड़कों के दोस्तों से
इन लड़कों की आंखों में डर है , अदब है , पढ़ने में अच्छे हैं
बड़ों के घर में आते ही वे अच्छा अब जाते हैं कहकर चले जाते हैं
और क्या चाहिए
यौन-वर्जना में इस थोड़ी सी ढील से वयःसंधिकाल में हासिल विशिष्ट खुशी के भाव का इस कविता में जो वर्णन विष्णु खरे करते हैं उससे किसी भी कस्बाई व्यक्ति को, जो अतीत के उस दौर से गुज़रा है अपना वयःसंधिकाल किसी न किसी रूप में याद आए बिना नहीं रहता ; उसके मन में वह शायद एक खास तरह की नोस्टेलजिक याद भी छोड़ जाता है. कविता में इस सायंकालीन भ्रमण के दौरान :
अचानक जेल के बगीचे से एक कोयल बोलती है
और लड़कियां कह उठती हैं अहा कोयल कितना अच्छा बोली
इस गर्मी में पहली बार सुना
कोयल की बोली पर आम सहमति है
लेकिन एक लड़का चुप है और उससे पूछा जाता है
मुझे नहीं अच्छा लगता कोयल का इस वक़्त बोलना वह कहता है
अजीब हो तुम लड़के कहते हैं
एक लड़की पूछती है अँधेरे में गौर से उसे देखने की कोशिश करती हुई
क्यों अच्छा नहीं लगता
पता नहीं क्यों – वह जैसे अपने-आप को समझाता हुआ कहता है –
यौवानागम- काल में भविष्य के स्वप्न देखते हुए अपने हमउम्र लड़के-लड़कियों के साथ घूमने और किसी लड़के के साथ की लड़कियों को अपने ढंग से प्रभावित करने का विशिष्ट चेतनानुभव ही इस कविता का केन्द्रीय विषय है किन्तु कवि अपने पाठक को इस अनुभव तक उस पूरे घटनाक्रम के माध्यम से ही ले जा सकता है जो इस कविता का कलेवर है.
अपने वयःसंधिकाल के इन्हीं दिनों को याद करते हुए विष्णुजी ने एक और कविता सरोज-स्मृति लिखी है जो और अन्य कविताएं के पृष्ठ 105 पर संकलित है . यह इस उम्र के लड़के-लड़कियों के बीच विकसित होने वाले एक बहुत नाज़ुक किस्म के प्रेम की कविता है जिसे विष्णुजी जैसे पुराने कवि ही अब अपनी कविता में दर्ज़ कर सकते हैं. कविता का नायक एक दिन अचानक अपने क़स्बे की किसी गली में इस सरोज नाम की कनकछरी जैसी लड़की से टकरा जाता है जिसके परिवार के लोग कभी :
…… उसके यहाँ पांच रुपए किराए से रहते थे
और वह पढ़ने के बहाने उसे सरोता कहकर चिढ़ाता था
यह किशोरी अब लोगों के घरों में पानी भरने का वही काम कर रही है जो उसकी माँ देउकी और बाप लक्खू गोंड करते थे जबकि नायक अपना क़स्बा छोड़ कर अब उच्च शिक्षा के लिए खंडवा चला गया है. नायिका के सर पर कँसेड़ी रखी है जिससे पानी उसके हर बोल पर उसके माथे आंखों और पोलके तक छलक आता है
उसे और उस लड़के को
अब चौराहे के नुक्कड़ों के पानवालों
और बनारसी होटल के गाहक
कुछ अजीब निगाहों से देखने लगे थे
…………….
और तभी कवि उस नाजुक किस्म के किशोर प्रेम का काव्यात्मक वर्णन करता है :
उसके मन में आया
कि चुम्हरी समेत उसकी गागर अपने सिर पर रख ले
और उसके साथ बरौआ बनकर उस घर तक चला जाए
जहाँ उसे यह पानी भरना था
लेकिन उससे तमाशा खड़ा हो जाता
अपने बाल्यकाल में पूरे परिवार की सुरक्षा के साथ रेलयात्रा के एक इसी तरह के एक अन्य अत्यंत सुखद और आत्मीय अनुभव की पुनर्रचना विष्णु खरे पाठांतर की एक कविता किसलिए (पेज 40) में करते हैं और उसके अब हमेशा के लिए खो जाने के कारण गहरी हताशा से भर उठते हैं :
…. सिग्नलों की जगमगाती हरी बत्ती और झिलमिलाते तारों
का जादू
पहली बार मुझ पर उतर रहा है , लेकिन सबसे बढ़ कर वह खुशी –
बाबू, भौजी ,बुआओं , मन्नू जी और चच्चा की वह खुशी ,
जिसे मैं चुपचाप देखता रहा कि अपन सब ऐसे ही रहें , ऐसे ही रहें , ऐसे
ही रहें .
ईश्वर,अपने जीवन की उस सबसे खुश शाम को मैं सो कब गया .
और सोया तो जागा किसलिए .
बचपन में माँ की मृत्यु का ट्रॉमेटिक अनुभव विष्णुजी की अनेक कविताओं को प्रभावित करता है . 1946 की एक रात ( पाठांतर ,पृष्ठ 13) जैसी कविता जहाँ उस मृत्यु की मर्मान्तक वेदना को व्यक्त करती है वहीं चोर सिपाही (पाठांतर , पृष्ठ 9 )या हँसी ( पिछला बाकी ,पृष्ठ 23) जैसी कविताएं एक मातृविहीन बालक के अकेलेपन को पूरी शिद्दत और मार्मिकता के साथ चित्रित करती हैं. हँसी कविता के उदाहरण से यह भलीभांति समझा जा सकता है कि इस कविता के पर्सोना की हँसी को ठीक से समझने के लिए वह विस्तृत वर्णन ज़रूरी है जिसके लिए यह कविता लिखी गई है. उस हँसी के पूरे अर्थ और कारण तक पाठक उस लम्बे वर्णन के माध्यम से ही पहुँच सकता है .
मानव जीवन के अनेक रहस्यों और अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के बारे में , जो अब भी विभिन्न रूपों में हमारे आज के संसार में भी अक्सर खड़े नज़र आते हैं ,कविता लिखना विष्णु खरे को निषिद्ध नहीं लगता. पाठांतर की एक कविता फिर भी ( पृष्ठ 52 ) में वे पुनर्जन्म को एक संभावना के रूप में देखते हुए एक ऐसी स्थिति की कल्पना करते हैं जिसमें किसी अगले जन्म में उनके परिवार के सभी लोग कहीं अचानक उनसे टकरा जाएंगे और तब उन्हें लगेगा कि वे लोग पहले भी कहीं एक दूसरे को देख चुके हैं. कवि-कल्पना के उस अगले जन्म में इस परिवार का मुखिया उनके जैसा गंभीर प्रकृति का व्यक्ति न होकर कोई दूसरा ही “हँसमुख” व्यक्ति होगा.
और जब वह उन्हें ध्यान से देखेगा
तो अचानक उसे लगेगा कौन औरत है यह कौन बच्चे
कहाँ देखा है इन्हें
उसे अपनी तरफ़ इस तरह देखते हुए देखकर
वे भी कुछ अस्तव्यस्त हो जाएंगे
वे उसे फिर भी पहचान नहीं पाएंगे
लेकिन एक क्षण के लिए
कौन कैसा आदमी है यह
उनके चेहरों पर आकर चला जाएगा
हँसमुख मुखिया सपरिवार अपना परिचय देकर
स्थिति सहज करेगा
विचित्र और रहस्यमय की खोज कवि को किसी की मानसिक रूप से असामान्य स्थिति और अंधविश्वासों तक भी ले जा सकती हैं. गिद्धों व उल्लुओं जैसे पक्षियों से जुड़ी मान्यताएं जहाँ उन्हें चित्तौड़ :विहंगावलोकन (पिछला बाक़ी ,पृष्ठ 55 ) और उल्लू ( पिछला बाक़ी ,पृष्ठ 53 ) जैसी कविताएँ लिखने के लिए प्रेरित करती हैं वहीं पाठांतर की कविता आगाही (पृष्ठ 74 ) में वे कुत्ते के रोने से जुड़े प्रचलित अंधविश्वासों का इस्तेमाल कर लेते हैं :
रात काफ़ी गुज़र जाने पर कहीं कोई जो कुत्ता रोने लगता है …वह लगातार एक अजीब सुर निकालता है जो बेशक रात के बियाबान में भयावह लगता है जिससे सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं और उन्हें अपने पर विपत्ति की तबाही की और मृत्यु तक की डरावनी कल्पनाएँ आने लगती हैं क्योंकि ऐसा खौफज़दा विश्वास चला आता है कि कुत्ता ऐसा तभी करता है जब उसे कुछ ऐसा अपने आसपास आता दिखायी या सुनायी देता है या कोई पूर्वाभास हो जाता है जो आदमियों को नहीं होता ……..
और अन्य कविताएं की तत्र तत्र कृतमस्तकांजलि (पृष्ठ 65) में वे अपने क़स्बे छिन्दवाड़ा के एक कथावाचक सोनीजी (जिन्हें वहाँ के कुछ लोग गोसांई तुलसीदास का अवतार मानते थे ) और उनकी कथा सुनने आने वाले एक व्यक्ति का वर्णन करते हैं जिसे लोग हनुमानजी समझते थे :
सब मानते थे कि वह हनुमानजी हैं
किन्तु आपस में भी ऐसा कहने और बताने की मनाही थी
………….
कुछ दुस्साहसी भक्तों ने पता लगाने का जोखिम उठाया
कि वे किस दिशा से प्रकट होते हैं और कहाँ अदृश्य
लेकिन सिंगारे मास्साब वाले अँधियारे चौराहे के बाद वह दीखते न थे
कहते हैं कि कोमल इसीलिए पागल हो गया था कि
एक रात उसने कुछ देख लिया था
फिर कथा में उसका आना बंद करना पड़ा
क्योंकि हनुमानजी को देखते ही वह अचेत होकर गिर पड़ता था
महत्वपूर्ण यह है कि इन सब विचित्र बातों का वर्णन करते हुए और पाठक को उन विशिष्ट भाव -स्थितियों तक ले जाने की कोशिश करते हुए भी यह कवि कभी अपने सोच में अवैज्ञानिक होने का आभास नहीं देता. वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक के बीच के इस संतुलन को साधना कवि से विशिष्ट कुशलता की अपेक्षा रखता है जिसका निर्वाह विष्णुजी पूरी मुस्तैदी से करते हैं. पाठांतर की कविता प्रतिरोध (पृष्ठ 35) में वे गणेश जीसे सम्बंधित कथा का उपयोग करते हुए जो मज़ेदार प्रश्न करते हैं वे अपने आप में एक रोचक व पठनीय कविता का रूप ले लेते हैं :
जब हाथी का मस्तक काट कर
मानव धड़ पर जोड़ा जा सकता था
तो माता की आज्ञा को पिता के आदेश से अधिक मान्य समझाने वाले
मातृप्रिय पुत्र का मूल शिर ही क्यों नहीं
या कदाचित् उसे उस हत कुंजर का यूथ उठा ले गया
आंसू बहाते हुए उसके माता पिता के साथ
और हाथियों के उस झुण्ड ने
शीर्षहीन कबंध एवं कबंधहीन शीर्ष को एक साथ गाड़ दिया
इसी संग्रह की एक अन्य कविता दम्यत् (पृष्ठ 71)में वे एक सामाजिक कार्यकर्त्ता के मनोरोगी हो जाने का किस्सा सुनाते हुए एक खास तरह के काव्यानुभव के सृजन का प्रयत्न करते हैं :
हक्के – बक्के रह गए नर्सिंग-होम के सब लोग छोटी बहू को काटो तो खून नहीं
ज़िंदगी में पहली बार सुने थे उसने ऐसे शब्द
लेकिन हिम्मती थी वह उसने फिर कहा मैं हूं बाबूजी आपकी सावित्री बिटिया
आँखें तो खोलिए
लेकिन भाईजी के मूर्च्छित मस्तिष्क ने दुहराया
तेरी माँ की चूत
रोती हुई लगभग भागी बहू अपने पति की शरण में
अपने काव्य-सृजन के लिए विष्णु खरे और भी कई तरह की विशिष्ठ स्थितियों का उपयोग कर लेते हैं . पिछला बाक़ी संग्रह की कविता प्रारंभ ( पेज 28 ), या पाठांतर की “ ग़र रोयी हूँ ज़िंदगी में अब तक की तो सिर्फ़ एक के ही लिए ” (पृष्ठ 28) अथवा परस्पर (पृष्ठ 64) में वे एक कम उम्र लड़की और एक अनुभवी और उमरयाफ़्ता व्यक्ति के बीच विकसित होने वाले रूमानी संबंधों की पड़ताल करते हैं और इस तरह अपने पाठक को एक ख़ास तरह की चेतना-स्थिति तक ले जाने का प्रयास करते हैं :
अठारह वर्ष की उम्र से मैं उन आँखों की
इस चमक को जानता हूं- यह नीली कौंध
जिसकी चिंगारियां पिघलती हुई
सीधी आत्मा नामक किसी चीज़ में समा जाती हैं
संगीत के उस स्वरूप में ढलती हुई जिसे शायद
सिर्फ़ ओइस्त्राख़ जानता होगा अपने अमाती पर
मोत्सार्ट की व्याख्या करता हुआ
(प्रारंभ)
हमेशा यह होता है
जब किसी को बेख़ुदी की हद तक चाहना
एक बेहतरीन सपने की तरह टूट जाता है
लेकिन सत्रह बरस की तू भला इसे क्या जानती थी
(“ग़र रोयी हूँ ज़िंदगी में अब तक की तो सिर्फ़ एक के ही लिए ” )
साथ का आख़िर यह भी कैसा मक़ाम
कि आलिंगन और चुम्बन तक से अटपटा लगने लगे
ऐसे और बाक़ी शब्द भी अतिशयोक्ति मालूम हों
इसलिए उन्हें एकांत किसी जगह पर भी
महज़ एक-दूसरे के हाथ छूते हुए से बैठना होगा
(परस्पर)
और अन्य कविताएं के मुखपृष्ठ पर आलैन के चित्र को लेकर साहित्य-प्रेमियों में काफ़ी विवाद रहा है पर जिस कवि की अनेक कविताएं जीवनेतर अस्तित्व का ज़िक्र लिए हुए हो उसके लिए आलैन के भाग्य से प्रभावित होना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह मोटे तौर पर मानवीय क्रूरता और हृदयहीनता का एक ज्वलंत दस्तावेज़ बन गया है. पाठांतर की 1946 की एक रात (पृष्ठ 13 ) की मरणासन्न माँ को याद करते हुए एक दिवंगत माँ के दृष्टिकोण से उसके मासूम बच्चे का यह चित्रण उस अमानवीयता और असंवेदनशीलता को पुनः रेखांकित करता प्रतीत होता है जिसकी ओर ध्यान दिलाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने इस चित्र का इतना व्यापक उपयोग किया था :
चल अब उठ छोड़ इस सर्द रेत के बिछौने को
…………
मिलें तो मिलने दे फूफ़ी और बाबा को रोते हुए कहीं बहुत दूर
………
उठ हमें उनींदी हैरत और ख़ुशी से पहचान
हम दोनों को लगाने दे गले से तुझे
………..
चाहे तो देख ले पलटकर इस साहिल उस दूर जाते उफ़क को
जहाँ हम फ़िर नहीं लौटेंगे
चल हमारा इन्तिज़ार कर रहा है अब इसी ख़ाक का दामन
वर्ग – वैषम्य और नागरिक असमानता की मार झेलते हुए लोगों के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति को प्रमाणित करने वाली कविताएं हमें विष्णुजी के संग्रहों में काफ़ी बड़ी संख्या में मिल जाएंगी . पिछला बाक़ी की अकेला आदमी(पृष्ठ 31),कोमल (पृष्ठ 67),कार्यकर्त्ता (पृष्ठ 74),वापस (पृष्ठ 80),पाठांतर की शुरूआत (पृष्ठ 68), करना पड़ता है (पृष्ठ 76 ),हिन्दी मालवी में एक अरज (पृष्ठ 81),शिवांगी (पृष्ठ 86),फ़रोख्त (पृष्ठ 95 ) और और अन्य कविताएं की तुम्हें (पृष्ठ 70),और नाज़ मैं किस पर करूँ (पृष्ठ 101),सरोज- स्मृति (पृष्ठ 105) आदि में हम वंचितों के प्रति उनकी गहरी हमदर्दी को निकट से महसूस कर सकते हैं .
अपनी रुचि के व्यक्तियों की कुछ चारित्रिक विशेषताओं की सूक्ष्म पहचान और हृदयग्राही वर्णन में खरेजी को काफ़ी महारत हासिल है . इसे उनकी पिछला बाक़ी की कोमल (पृष्ठ 67 )और गूँगा (पृष्ठ 84) जैसी कविताओं में आसानी से देखा जा सकता है . पिछला बाक़ी की दोस्त (पृष्ठ 70) शीर्षक कविता में वे एक नौजवान पुलिस सब –इंस्पैक्टर का वर्णन करते हैं :
तुम पाओगे कि तुम्हारी ही तरह
वह गेहुँआ और छरहरा है ,उसे टोपी लगाना और वर्दी पहनना
पसंद नहीं है
………
तुम्हें इसका भी पता चलेगा कि उसने सर्किल इंस्पैक्टर से कह कर
अपनी ड्यूटी वाहन लगा ली है जहाँ लड़कियों के कॉलिज हैं
…………
उससे हाथ मिलाने पर
तुम्हें उसकी क़रीब-क़रीब लड़कीनुमा कोमलता पर आश्चर्य होगा .
इसी कविता के अगले भाग में वे इस नौजवान में कुछ समय की पुलिस नौकरी के कारण आ जाने वाले परिवर्तनों का प्रभावी वर्णन करते हैं :
लेकिन दो -तीन बरस बाद तुम अचानक पाओगे
कि सड़क जहाँ पर रस्से लगा कर बंद कर दी गई है
…………
और तमाशबीनों की क़िस्तों को बार-बार तितर-बितर किया जा रहा है
पास ही की दूकान से बैंच उठवा कर वह वर्दी में बैठा हुआ है
टेबिल पर टोपी और पैर रख कर .
………
बड़े लोगों की रंगीन रातों की कुछ अत्यंत
गोपनीय बातें बताते हुए वह उस समय एकाएक चुप हो जाता है
जब सड़क के उस ओर दूर पर भीड़नुमा
कुछ नज़र आता है
और मेहनत के साथ वह उठते हुए कहता है
अच्छा , अब तुम बढ़ लो ,ये मादरचोद आ रहे हैं .
इसी तरह पाठांतर की कविता सिला (पृष्ठ 22) में सही मूल्यों के प्रति समर्पित एवं प्रतिबद्ध किसी योग्य राजनेता के आवश्यक रूप से राजनीतिक पदों की दौड़ में पिछड़ जाने का जो वर्णन वे अर्जुनसिंह के माध्यम से करते हैं वह हमारे देश के आज के राजनीतिक परिदृश्य पर एक सशक्त और मार्मिक टिप्पणी का रूप ले लेता है :
क्या नहीं था तुम्हारे पास
अच्छी शिक्षा-दीक्षा उम्दा बुद्धि बढ़िया वक्तृत्व शक्ति
पचास वर्षों का राजनीतिक अनुभव …..
………..
गांधी-नेहरू के मूल्यों में आस्था
सबसे बड़ी बात इंदिरा संजय राजीव सहित
अब सोनिया राहुल और प्रियंका परिवार तक का अकुंठ समर्थन
………..
लेकिन सोनिया गाँधी ने बनाया मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री
तुम्हें नहीं अर्जुनसिंह
………..
अपने इसी झुनझुने में मगन रहो चुरहट के राजकुँवर
कि तुम्हें शिक्षा और बच्चों को मुक्त करना है नफ़रतों के ज़हर से
देते रहो चुनौती राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
विहिप शिवसेना भाजपा बजरंगियों को
……………….
…………….
अपनी त्रासदी पहचानो अर्जुनसिंह
सिर्फ़ वफ़ादारी काफ़ी नहीं
पूरी तरह से मौन बिछना पड़ता है
…………..
वक़्त आ चुका है कि तुम पुस्तकों संस्थाओं और देश के
शुद्धीकरण का यह ख़ब्त छोड़ो
अपनाओ सौम्य सवर्ण हिंदुत्व को
…………
वर्ना नमरूदों की इस ख़ुदाई में
तुम्हारी तरह की बंदगी से तुम जैसों का तो भला होने से रहा
एक और विशेष बात जिसे हम विष्णुजी की कविता में साफ़ साफ़ देख सकते हैं वह ज़मीन से जुड़े साधारण लोगों में असाधारणता – कभी कभी तो महानता के स्तर को छूती असाधारणता – को पहचान लेने की उनकी क्षमता है. एक विशिष्ट और असाधारण चेतना-स्थिति की उनकी तलाश इस तरह की कविताएं लिखते हुए भी जारी रहती है. पाठांतर की कविता जिनकी अपनी कोई दूकान नहीं होती (पृष्ठ 59 ) को, जिसमें कुछ अजीब खटमिट्ठे फल या कोई अप्रचलित सब्ज़ी-भाजी / या मिट्टी के खिलौने पोत-गुरिया और ऐसा ही मनिहारी का सामान /या कारीगर हुए तो काठ या लोहे की अनगढ़ चीज़ें / एक बरते हुए कपड़े पर बिछा कर बेचने के वास्ते सड़क किनारे कहीं भी बैठ जाने वाले लोगों का वर्णन है,मैं उनकी एक ऐसी ही कविता पाता हूं :
इसीलिए अजीब शुब्हा होता है
कि सड़क के किनारे बिला नागा़
इस तरह अपनी पोटली बिछाकर बैठ जाने के पीछे
शायद वे जताना चाहते हैं कि वे
बाज़ार में बैठे हैं बेचवाल नहीं हैं
उनका मक़सद शायद सिर्फ़ सब लोगों सारी दूकानों को देखना है
शायद वे उन सबकी खुशी देखकर खुश होते हों
जिनका कुछ बिक पाया और जो कुछ खरीद सके
और उन सभी का दुःख देख कर दुखी होते हों
जिनका सब बिन बिका रह गया और जो कुछ भी ले नहीं पाए
शायद यह पूरी सड़क ये सारे लोग ये इतनी दूकानें
तमाम शोरूम समूचे शॉपिंग मॉल ही
उन्हें अपनी अजीब निजी दूकान लगते हों और उनमें वे ही उनके
गुज़रे ग्राहक
कहना न होगा कि खरे जी की इस कविता को वह पाठक कुछ दूसरे ही दार्शनिक अंदाज़ में पढ़ेगा जो के एल सहगल के गाए “दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं ” से परिचित है ; ठीक उसी तरह ,जैसे और अन्य कविताएं की झूठे तार (पृष्ठ 61) को सहगल और शेक्सपियर की कृतियों से परिचित पाठक अधिक गहराई और अधिक काव्यानंद के साथ पढ़ पाएगा .
विष्णु जी की कविता की एक विशेषता उसका ब्रह्मांडीय आयाम है जो उनकी रचनाओं में तरह तरह से प्रकट होता है. पाठांतर की द्विगुणित (पृष्ठ 83 ) जैसी कविताओं में वे सीधे सीधे ‘समानांतर ब्रह्माण्ड’ जैसी किसी आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणा के हवाले से जीवन की रहस्यमयता से हमारा परिचय करवाते हैं :
बताता है सृष्टिविज्ञान
कि जिस तरह हमारी यह पृथ्वी है
ठीक उसकी दर्पणछाया या प्रतिलिपि की तरह
सौ प्रतिशत वैसी ही एक दुनिया और है
वहाँ एक और बैठा हुआ हूं मैं
और वैसे ही तुम
हर पल वही देखते सोचते करते जीते मरते हुए
इतने ही अरब बाशिंदे
या वहाँ ( पाठांतर,पृष्ठ 34 ) जैसी किसी कविता में सृष्टि, पृथ्वी,मनुष्य और ईश्वर के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न उठाते हैं:
इस पृथ्वी की पहेली जिसमें इतनी प्रकृति इतने जीवन
और उसमें मानव का अस्तित्व और उसका प्रयोजन
दो मानव अर्द्धांशों के परस्पर पूरक आकर्षण का आदिम क़िस्सा अलग
साथ में आदमी का आदमी के प्रति वात्सल्य सख्य चिंता और निबद्धता
सबके लिए समता न्याय सृजन सार्थक श्रम जीवन का सहस्वप्न
किन्तु अन्य विषयों पर लिखी उनकी कविताओं में भी कई बार यह ब्रह्मांडीय सन्दर्भ परोक्ष रूप से विद्यमान रहता है. उदाहरणार्थ यदि और अन्य कविताएं की उनकी कविता ABANDONED (पृष्ठ 18 ) को लिया जाए जिसमें वे उन परित्यक्त मकानात की बात करते हैं जिन्हें रेलवे लाइन बिछाने जैसा कोई काम पूरा हो जाने के बाद यूं ही उजड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है तो हम पाते हैं कि इस कविता का अंत भी वे इसे एक ब्रह्मांडीय मोड़ देते हुए करते हैं :
कभी एक फंतासी में एक अनंत अन्तरिक्ष यात्रा पर निकल जाता हूं देखने
कि कहीं पृथ्वियों आकाशगंगाओं नीहारिकाओं पर
या कि पूरे ब्रह्माण्ड पर भी कौन सी भाषा कौन सी लिपि में किस लेखनी से
कहीं कोई असंभव रूप से तो नहीं लिख रहा है धीरे-धीरे
परित्यक्त
अव्याख्येय , अनंत और रहस्यमय तक विष्णुजी की यात्रा कई बार काफ़ी परोक्ष और सांकेतिक तरीके से होती है. इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण मैं और अन्य कविताएं की एक कविता संकेत (पृष्ठ 47) में पाता हूं. इस कविता में एक उम्रदराज़ आदमी , जो अब अपने जीवन के अंत को शायद बहुत दूर नहीं देख रहा है , किसी जाती ठंड की शाम को किसी वृक्ष के तने के पास / एक चलायमान पहिए की छोटी आकृति में / परिक्रमा करते हुए कुछ जुगनुओं को देखता है . इनमें से एक जुगनू अपने वर्तुल से अलग होकर उस आदमी की बांह पर बैठने की कोशिश करता है जैसे उसे खींचता हो और फिर से उसी वर्तुल में जा मिलता है . इस संकेत को यह आदमी जिस तरह व्याख्यायित करता है वह इस कविता को विष्णु खरे की विशिष्ट कविता बना देता है :
हाँ लगता है मैं समझ गया जो तुम कहने आए थे
लेकिन इतने अचानक कि इसी लम्हा मेरी तैयारी नहीं है
बस मैं आ ही रहा हूं तुम्हारे पीछे पीछे तुम्हारे सहारे
मेरे लिए कोई भी एक जगह रखना
तुम्हारा यह आवर्त मेरे बस का नहीं
लेकिन इतने हों तो एक की ख़ामियां छिपा ही लेते हैं
और फिर उसके बाद कहीं रुकना या लौटना तो है नहीं
हमारे समय में आ रहे बहुत से सामाजिक और पारिवारिक परिवर्तन इस कवि को भी अप्रभावित नहीं छोड़ते और किसी नई कविता का कारण बन जाते हैं . निरंतर बढ़ती हुई आत्मकेन्द्रितता और असंवेदनशीलता के हम आए दिन जो एक से एक बड़े उदाहरण देखते हैं उनमें से एक उस अधेड़ आदमी और उसकी घरवाली का भी है जिनका चित्र कवि के मित्र-पत्रकार के केबिन में लगा रहता था . और अन्य कविताएं की फ़ासला (पृष्ठ 58) शीर्षक कविता में कवि इस चित्र का वर्णन इस तरह करता है :
थोड़ा झुका हुआ देहाती लगता एक पैदल आदमी
अपने बाएं कंधे पर एक झूलती – सी हुई वैसी ही औरत को ढोता हुआ
जो एक हाथ से उसकी गर्दन का सहारा लिए हुए है
जिसके बाएं पैर पर पंजे से लेकर घुटने तक पलस्तर
दोनों के बदन पर फ़कत एकदम ज़रूरी कपड़े
अलबत्ता दोनों नंगे पांव
उनकी दिखती हुई पीठों से अंदाज़ होता है
कि चेहरे भी अधेड़ और सादा रहे होंगे
कविता में कवि आगे लिखता है कि दुपहर के समय सूनी सड़क पर बड़ी मुश्किल से अस्पताल की ओर जाते इन कष्ट पाते लोगों को देख कर भी आज के समय में इस बात की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती कि कोई उनकी सहायता के लिए आया होगा :
मुझे अभी तक दिख रहा है
कि वह दोनों अब भी कहीं रास्ते में ही हैं
गाड़ियों में जाते हुए लोग उन्हें देख तो रहे हैं
लेकिन कोई उनसे रुक कर पूछता तक नहीं
बैठाल कर पहुँचाने की बात तो युगों दूर है
इसी संग्रह की कविता फाँक ( पृष्ठ 114 ) इसी तरह हमारे परिवारों में तेज़ी से आ रहे एक अन्य प्रकार के परिवर्तन के सम्बन्ध में है. यदि परिवार का मुखिया किसी गंभीर गतिविधि से जुड़ा हुआ और उसके लिए प्रतिबद्ध व्यक्ति है तो आजकल हम देखते हैं कि उसकी पत्नी और बड़ी उम्र के बच्चे ( जो अक्सर पूरी तरह आज की उपभोक्तावादी संस्कृति की गिरफ़्त में आए हुए होते हैं ) उसे सनकी और असामान्य कह कर उसके हाल पर छोड़ देते हैं और एक तरह से उसके खिलाफ़ एक पारिवारिक मोर्चा सा बना लेते हैं :
वे चारों सामने के बड़े कमरे में बैठे हुए हैं
सामने टीवी चल रहा है लेकिन कोई देख नहीं रहा है
एक-साँस गप्पागोष्ठी हाहाहीही धौलधप्पा चाय कॉफ़ी
अचानक होम-डिलीवरी से खाने को कुछ स्पेशल
यूँ तो सभी ख़ुश हैं लेकिन माँ सबसे ज़्यादा बौराई हुई है
और उनकी हम- या कमउम्र सहेली बनी हुई है
इस गंभीर मुखिया का बीच में आ जाना सभी को अखरता है ,इसीलिए
अब उसने अपनी एकतरफ़ा शिरकत बंद कर दी है
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यही बहुत है कि बीच-बीच में उससे पूछ लिया जाए
हम लोग चाय बना रहे हैं तुम भी पिओगे क्या
या फिर
बच्चों ने इतना अच्छा पित्ज़ा मंगवाया है
तुम भी यह एक स्लाइस खाकर देखो
यहाँ दिन भर सूमड़े जैसे पड़े रहते हो
भाषाओं के साथ तरह तरह के रचनात्मक प्रयोग भी विष्णुजी ने अपनी कई कविताओं में अत्यंत सफलतापूर्वक किए हैं. पाठांतर की हिन्दी मालवी में एक अरज (पृष्ठ 81) जैसी कविता में तो उनकी इस प्रयोगात्मकता को साफ़-साफ़ देखा ही जा सकता है पर और अन्य कविताएं की दज्जाल (पृष्ठ 54) और जा, हम्मामबादगर्द की ख़बर ला (पृष्ठ 56) भी मुझे मुख्यतः इस भाषाई प्रयोगात्मकता से प्रेरित लगती हैं .
विष्णु खरे के संग्रहों की कुछ अन्य कविताएं भी भाषा के साथ उनके खिलंदड़ेपन का परिणाम लगती हैं ,जैसे और अन्य कविताएं की नई रोशनी (पृष्ठ 35) :
अव्वल चाचा नेहरू आए
नई रोशनी वे ही लाए
इन्दू बिटिया उनके बाद
नई रोशनी जिंदाबाद
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यह जो पूरा खानदान है
राष्ट्रीय रोशनीदान है
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उनकी ऐसी नई रोशनी में जीवन जीना पड़ता है
यह क्लेश कलेजे में ज़ंग लगे कीले-सा हर पल गड़ता है
पिछला बाक़ी की डरो (पृष्ठ 48) और पाठांतरकी लगेंगे हर बरस मेले (पृष्ठ 98) तथा क़ानून और व्यवस्था का उप-मुख्य सलाहकार सचिव चिंतित प्रमुखमंत्री को परामर्श दे रहा है (पृष्ठ 25) को भी मैं उनके इस तरह के आधे गंभीर राजनीतिक और आधे हास्य-व्यंग के भाषाई प्रयोगों के रूप में देखता हूं. पाठांतर की कविता आगाही (पृष्ठ 74) को मैं उनका एक खास तरह का भाषा प्रयोग मानता हूं जिसमें पूरी कविता जैसे एक ही वाक्य में लिख दी गई है. कल्पना की उड़ान और भाषा पर अधिकार की विष्णुजी की रेंज का अनुमान हम उनकी दो कविताओं अंधी घाटी( पिछला बाक़ी ,पृष्ठ 92) और संकेत (और अन्य कविताएं ,पृष्ठ 90) से भी भली भांति लगा सकते हैं.
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सदाशिव श्रोत्रिय
(12 दिसम्बर 1941 को बिजयनगर, अजमेर)
एंग्लो-वेल्श कवि आर. एस. टॉमस के लेखन पर शोध कार्य.
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नाथद्वारा के प्राचार्य पद से सेवा-निवृत्त (1999)
1989 में प्रथम काव्य-संग्रह \’प्रथमा\’ तथा 2015 में दूसरा काव्य-संग्रह \’बावन कविताएं\’ प्रकाशित
2011 में लेख संग्रह ‘मूल्य संक्रमण के दौर में’ तथा 2013 में दूसरा निबंध संग्रह ‘सतत विचार की ज़रूरत’ प्रकाशित.
2014 में आचार्य निरंजननाथ विशिष्ट साहित्यकार सम्मान
स्पिक मैके से लगभग 15 वर्षों से जुड़े हुए हैं आदि
सम्पर्क:
आनन्द कुटीर, नई हवेली, नाथद्वारा –313301
मोबाइल: 8290479063, 9352723690/ ईमेल: sadashivshrotriya1941@gmail.com