गांधी सेवा संघ के मलिकंदा सम्मेलन में गांधी और गांधी जनों के समक्ष विरोध में नारे लगे. ‘गांधी वाद ध्वंस हो’ चिल्ला रहे थे कई लोग. ऐसे नारों से गांधी जन आहत हुए. पर गांधी जी परेशान नहीं हुए. नारेबाजी के बाद जो भाषण गांधी जी ने दिया, उससे यह पता चलता है. गांधी जी ने अपने लोगों को समझाया. उन्होंने कहा कि जो लोग गांधी वाद के विरुद्ध कुछ कहना चाहते हैं, उन्हें वैसा कहने की आजादी दीजिए. इतना ही नहीं, विरोध में नारेबाजी करनेवालों से किसी प्रकार का द्वेष या वैर न करने की सलाह दी. यहाँ भी अहिंसा की कसौटी की याद दिलायी. अहिंसा के लिये जरूरी बताया कि विरोधियों के साथ शांति से निबाहें.
गांधी जी के समक्ष उनके शब्द और कर्म के विरोध में नारेबाजी का यह पहला वाकया नहीं था. दक्षिण अफ्रीका के दिनों से ही ऐसा होता रहा था. पहले व्यक्ति गांधी का विरोध शुरू हुआ. फिर उनके विचारों का. पर गांधी जी के यहाँ अपने विरोधियो के प्रति भी वैर–भाव का साक्ष्य नहीं दिखता.
इतिहास के उस दौर में गांधी के विचार लीक से हटकर थे. लोगों को अपने से भिन्न सोच दिखता था उनके चिंता और चिंतन में. विचार की इस भिन्नता को लक्षित करते हुए उसे गांधी वाद कहा गया. जैसे–जैसे गांधी जी की स्वीकार्यता का दायरा बढ़ा, उनके विचार–दर्शन से प्रभावित और उस राह पर चलने वालों को ‘गांधी वादी’ कहा जाने लगा.
किसी भी व्यक्ति या विचार को खाँचे में बाँटकर देखने में, देखनेवालों को सुविधा होती है. जिस किसी व्यक्ति या विचार में समाज को कुछ अलग, थोड़ा भिन्न–जिसे वह मौलिक मानने की भी जिद करता है–दिखता है, उसकी एक अलग कोटि बना देता है. उस व्यक्ति या विचार को ‘वाद’, ‘सम्प्रदाय’ या ‘पंथ’ का नामकरण करता है. मानव–इतिहास पर गौर करने पर दिखता है कि कई दफे उस विचार के नाम पर ‘वाद’, ‘सम्प्रदाय’ या ‘पंथ’ प्रत्यय चस्पा किया जाता है तो कई बार विचार–प्रणेता या प्रवक्ता के नाम के साथ. कभी उस प्रणेता के जीवन–काल में ही वाद, सम्प्रदाय, पंथ बनने लगते हैं अथवा इसकी संज्ञा मिलने लगती है तो कभी उसके मरणोपरांत.
कोटि–निर्माण का यह कार्य कभी प्रशंसक, समर्थक, अनुयायी, भक्त करते हैं तो कभी उससे घनघोर अहसमति रखने वाले भी. यदा–कदा यह भी दिखता है कि विचार–परम्परा को समझने के दौरान अध्येता खास विचार को रेखांकित करने, उस पर अतिक्ति बल देने के लिए उसे ‘विचारधारा’ या ‘वाद’ कहकर संबोधित करते हैं.
इतिहास में ऐेसे उदाहरण भी मिलते हैं जब किसी व्यक्ति या समूह ने पंथ, मठ, गढ़ की सत्ता–संरचना के खिलाफ विचार व्यक्त किए, कालांतर में उसे भी खास पंथ, मठ या गढ़ में तब्दील कर दिया गया. विरोधी ऐसा करें तो समझा जा सकता है. पर विडंबना यह कि चाहने वाले भी ऐसा करते हैं. संत कबीर इसकी बेहतरीन मिसाल हैं .
महात्मा गांधी के जीवनकाल में ही उनके नाम के साथ ‘वाद’ जोड़ दिया गया. मानव सभ्यता के इतिहास में गांधी जी विरले हैं, जिन्होंने कई दफे इसे अस्वीकार किया. साथ ही जोर देकर कहा कि मैंने कोई नये सिद्धांत प्रस्तुत नहीं किये हैं, बल्कि पुराने सिद्धांतों को ही पुन:प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया है .
‘यंग इण्डिया’ (25 अगस्त 1921) में उन्होंने लिखा,
“मैं स्वयं को भारत और मानवता का एक अदना सेवक मानता हूँ और इसी प्रकार सेवा करते हुए मर जाना पसंद करूँगा. मुझे कोई संप्रदाय चलाने की कामना नहीं है. मैं सचमुच इतना महत्वाकांक्षी हूँ कि मेरा अनुगमन केवल एक संप्रदाय करे, इससे मुझे संतोष नहीं होगा. चूँकि मैं किन्हीं नये सत्यों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, मैं (चिरंतन) सत्य का, जैसा कि उसे जानता हूँ, अनुगमन और प्रतिनिधित्व करने का प्रयास करता हूँ. हाँ, यह अवश्य है कि मैं अनेक पुराने सत्यों पर नयी रोशनी डालता हूँ.”
यहाँ गांधी जी ने स्वयं के बारे में जो कही है और जो कामना की है, महत्त्वपूर्ण हैं. वे खुद को भारत का सेवक मानते हैं, अदना सेवक. मानो गांधी यह जताना चाहते हों कि सिर्फ सेवक कहने से थोड़े अहंकार का गंध आता है, इसलिए अदना जोड़ दिया. अहंकार किसी किस्म का हो, किसी का भी, सेवक या स्वामी काय उन्हें गवारा नहीं. वे मृत्युपर्यंत सेवक बने रहना चाहते हैं, कुछ और नहीं. सेवक भी सिर्फ भारत का नहीं, मानवता का भी. मानवता भारत की सीमाओं से बंधी नहीं है. इसमें सम्पूर्ण संसार समा गया है. मानवता शब्द में निहित व्यापकता और गहराई इतनी है कि यह मनुष्य जाति तक सीमित नहीं रह सकती. इसमें गोचर–अगोचर सभी शामिल हैं. गांधी को जानने वाले इस की तस्दीक करेंगे कि मानवता तमाम हदबंदी के पार जाती है. हद और बेहद दोनों को तज देती है, कबीर की तरह. इसमें समूची प्रकृति के लिए चिंता और संवेदना है. तब यह पारे की तरह साफ है कि इस सेवक के लिए भारत–सेवा और संपूर्ण मानवता की सेवा के बीच लेशमात्र भी फर्क नहीं. गांधी की भारत–सेवा समूची मानवता की सेवा है. भारत उनकी चिंता के केंद्र में है और यह चिंता उनके हिसाब से मानवता की चिंता ही है .
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(गांधी रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ)
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यह सवाल किया जा सकता है कि अगर कभी नौबत आए, जब भारत–हित–साधना मानवता को नजरअंदाज करे, तब गांधी –मार्ग क्या होगा ? इसमें दो मत नहीं कि गांधी मानवता की फिक्रमंदी की राह चलते.
देश–काल ने जब कभी ऐसा प्रश्न गांधी के समक्ष प्रस्तुत किया, उन्होंने मानवता की पूरी परवाह की. उनकी अगुवाई में चल रहे स्वाधीनता–संग्राम–जिसे वे सच्चे मायने में मानवता को सिद्धांत देने की व्यावहारिक कार्रवाई बनाना चाहते थे– में ऐसे अवसरों की पहचान कर सनद किया जा सकता है. इतिहास ने तलवार की धार पर चलने जैसी, इस तरह की, चुनौती जब कभी गांधी के सामने प्रस्तुत की, वे डिगे नहीं. उन्होंने मानवता का साथ न छोड़ा. कीमत की परवाह किये बगैर. तब खूब आलोचना हुई गांधी की. निंदा तक को स्पर्श करते हुए.
जो लोग गांधी में विश्वास प्रगट करते थे, वे भी दुविधाग्रस्त दिखे, ऐसे निर्णयों पर. कई तो हिल भी गए. गांधी अडिग दिखे. संभव है कि ऐसे मौके गांधी के आस्तिक मन को भी संशय में डालने में सफल होते हों पर वे निर्णय मानवता के पक्ष में ही करते थे. ऐसे प्रश्नों पर गांधी के द्वारा लिये गए फैसले अब बताते हैं कि दुविधा का कुहासा छँटने में देर न लगता था.
कहना न होगा कि ऐसे ही संदर्भ और प्रसंग गांधी जी को अपने दौर का, न सिर्फ भारत अपितु दुनिया का एक महान नेता साबित करते हैं. ये अवसर और निर्णय गांधी जी को तत्कालीन ऐसे नेताओं, जो किसी समूह, जाति, धर्म, भाषा या भूगोल के प्रतिनिधि थे, से अलग करते हैं, साथ ही विशिष्ट और श्रेष्ठ भी साबित करते हैं .
संप्रदाय चलाने की कामना से जिद भरा इंकार करने वाले गांधी जी यह भी कहते हैं कि उनका अनुगमन केवल एक सम्प्रदाय करे, उतने से संतोष नहीं होगा, कि उनकी महत्वाकांक्षा की भरपाई नहीं होगी. इनको संतोष तब मिलेगा जब सम्प्रदायों की सीमायें मिटाकर सभी आएं. ऐसा लगता है कि गांधी जी भारत में मौजूद विभिन्न सम्प्रदायों की प्रकृति, आदर्श और असलियत नजदीक से देख रहे थे. इन सम्प्रदायों की विचारधारात्मक दीवारें इतनी मजबूत और ऊँची थीं कि इतर सम्प्रदायों के गुण और सुगंध बाहर रोक देती थीं. गांधी सरीखा व्यक्ति ऐसे सम्प्रदायों से हमनवाई कैसे रख सकता था! इनका तो स्पष्ट मानना था कि अपने विचार की जमीन पर पैर टिके रहे और खिड़कियाँ भी खुली रहे ताकि बाहर की हवा आ–जा सके. दरअसल सम्प्रदाय किसी–न–किसी सत्य पर निर्मित होते हैं, पर धीरे–धीरे ऐसा बन जाते हैं कि दूसरे सम्प्रदायों का सत्य स्वीकार नहीं कर पाते . गांधी जी के मुताबिक यह भारतीय विचार नहीं हो सकता, जिसमें भिन्न सत्यों की स्वीकृति न हो.
गांधी सत्य की बहुलता के समर्थक थे. अपना सत्य मानते थे पर दूसरों के सत्य के प्रति भी संवेदनशील एवं उदार रूख अख्तियार करते थे. वे सत्य को बहुवचनात्मक प्रत्यय मानते थे, एकास्मिक नहीं. ‘सत्य’ के स्थान पर ‘सत्यों’ का प्रयोग संबंधी समझ गांधी –चिंतन का महत्वपूर्ण और मजबूत पक्ष है. उनका यह कहना काबिलेगौर है कि मैं किन्हीं नये सत्यों का प्रतिनिधित्व नहीं करता. जो सत्य गांधी जानते–मानते हैं, जो उनके विचार में चिरंतन हैं, उसका अनुगमन और प्रतिनिधित्व करने की कोशिश भी करते हैं. गांधी –चिंतन में ‘सत्य’ केंद्र–बिंदु है. वे अनुगमन और प्रतिनिधित्व अगर किसी का करते हैं तो इसी ‘सत्य’ का, किसी और का हरगिज नहीं.
वे साफ शब्दों में कहते हैं कि अनेक पुराने सत्यों पर नयी रोशनी डालता हूँ. गांधी जी की दृष्टि में पुराना, चिरंतन ‘सत्य’ भी एक नहीं, अनेक हैं और नया सत्य भी. वे पुराने सत्यों पर नयी रोशनी डालते हैं. नये परिप्रेक्ष्य में पुराने सत्यों की व्याख्या करते हैंय उसे नवीन संदर्भ और अर्थवत्ता प्रदान करते हैं. जिन्हें विचार की व्यापक परम्परा का अभिज्ञान नहीं, उन्हें यह मौलिक लगता है. गांधी जी इससे भली–भाँति अवगत हैं, फिर वे स्वयं को किसी नये सत्य का प्रस्तावक कैसे कहें ? पर लोग हैं कि उन्हें पुराने सत्य नहीं दिखते, वे नयी रोशनी मात्र ही देख पाते हैं. और इस रोशनी को ही नया सत्य मानने–बताने की जिद करते हैं. जो लोग इस रोशनी के पार जाकर अनेक सत्यों की बहुल परंपरा देखने में सफल होते हैं, वे मानते हैं कि गांधी जी भारत की विशाल परम्परा के मौलिक प्रतिनिधि हैं. इसलिए गांधी –चिंतन के इंद्रधनुष में वे अनेक रंगों को लक्षित भी कर पाते हैं. विचार–दर्शन परम्पराओं के ये इंद्रधनुषी रंग गांधी , विचार को सौंदर्य एवं गहराई प्रदान करते हैं और मजबूत भी बनाते हैं.
2 दिसंबर 1926 के ‘यंग इंडिया’ में भी उन्होंने इसरार किया कि
“मैंने कोई नये सिद्धांत प्रस्तुत नहीं किए हैं बल्कि पुराने सिद्धांतों को ही पुन: स्थापित करने का प्रयास किया है .”
गांधी वाद की चर्चा जोर–शोर से होती थी. यही वजह है कि अलग–अलग संदर्भ और प्रसंग में गांधी जी इस पर जोर देकर अपना मत स्पष्ट करते थे. ‘हरिजन’ (28 मार्च 1936) में उन्होंने पूरी साफगोई से कहा है,
“गांधी वाद जैसी कोई चीज नहीं है और मैं अपने बाद कोई सम्प्रदाय छोड़कर जाना नहीं चाहता. मैं यह दावा नहीं करता कि मैंने किसी नये सिद्धांत को जन्म दिया है. मैंने तो सनातन सत्यों को अपने दैनंदिन जीवन और समस्याओं के समाधान में अपने ढंग से लागू करने का प्रयास भी किया है––– दुनिया को सिखाने के लिए मेरे पास कोई नयी बात नहीं है. सत्य और अहिंसा उतने ही पुराने हैं जितने पर्वत. मैंने केवल इन दोनों को लेकर बड़े–से–बड़े पैमाने पर प्रयोग करने का प्रयास किया है. ऐसा करते समय मुझसे गलतियाँ हुई हैं और इन गलतियों से मैंने सबक लिया है. इस प्रकार, जीवन और उसकी समस्याओं ने मेरे लिए सत्य और अहिंसा पर आचरण के अनेक प्रयोगों का रूप ले लिया है.”
गांधी की मनोभूमि के मुताबिक कोई उनका अनुगामी भी नहीं हो सकता, भक्त तो दूर की बात है. इस लिहाज से गांधी अपवादस्वरूप हैं. ऐसे देश–काल में जब कई बड़े समझे जाने वाले लोग भी इस लोभ का संवरण नहीं कर पाते और अपने साथियों तक को अनुयायी बनने के लिए पे्ररित करते हैंय यह प्रचारित–प्रसारित करते हैं कि उन्होंने सत्य की खोज कर ली है और एक मात्र सत्य यही है, शेष सबको महज अनुगमन करना है. तमाम ज्ञान–विज्ञान के विकास के बावजूद यह प्रवृत्ति आज और भी प्रबल हुई है, यह कहने की जरूरत नहीं! गांधी किसी को अपना अनुगामी नहीं मानते. वे साफ–साफ शब्दों में (2 मार्च 1940 हरिजन) कहते हैं, कोई यह न कहे कि वह गांधी का अनुगामी है. अपना अनुगमन मैं स्वयं करूँ, यही काफी है. मुझे पता है, मैं अपना कितना अपूर्ण अनुगामी हूँ, क्योंकि मैं अपनी आस्थाओं के अनुरूप जी नहीं पाता. आप मेरे अनुगामी नहीं हैं बल्कि सहपाठी हैं, सहयात्री हैं, सहखोजी हैं और सहकर्मी हैं.
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An admiring East End crowd gathers to witness the arrival of
Mahatma Gandhi on September 22, 1931 in East London,
as he calls upon Charlie Chaplin. Getty Images
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यहाँ दो बातों पर ध्यान देने की जरूरत है. एक, ऐसा व्यक्ति जो संख्या के लिहाज से खुद को अपना अनुगमन करने हेतु पर्याप्त मानता हो, साथ ही स्वयं को भी खुद का अपूर्ण अनुगामी कहता हो, यह समझता हो कि मैं भी अपनी आस्थाओं के अनुरूप जी नहीं पाता और वह व्यक्ति महात्मा गांधी होय तो उसकी आस्था की विराटता का अनुमान किया जा सकता है. दूसरी बात यह कि गांधी के यहाँ कोई अनुगामी नहीं है. गांधी जिस सत्य की तलाश में अहिंसा की राह पर चल रहे हैं, जिसे हम गांधी –मार्ग कह सकते हैं, उस पर विश्वासपूर्वक चलने वाले सहपाठी, सहयात्री, सहखोजी और सहकर्मी तो हो सकते हैं, अनुगामी या अनुयायी तो कतई नहीं. गांधी जी के बारे में सभी वाकिफ हैं कि वे ऐसा कुछ नहीं कहते जिस पर पहला कदम खुद न उठा सकें . यह उनका जीवन–सत्य है. ऐसा शख्स भी स्वयं को खुद का अपूर्ण अनुगामी कहे तो इसकी अभिव्यंजना सहज ही समझी जा सकती है.
अव्वल तो यह कि गांधी जी ऐसे किसी व्यक्ति को अपना अनुगामी बनाना नहीं चाहते जो उनके हर कहे–अनकहे का अनुसरण करे. वे लोगों को परामर्श देते हैं. गोया उन्हें परामर्शदाता की भूमिका से परहेज नहीं; शर्त इतनी भर कि जब तक गांधी जी का परामर्श उस व्यक्ति के दिलो–दिमाग को सही न लगे, तब तक उसे मानने की जरूरत नहीं. ऐसे वक्त में जब अनेक लोग गांधी जी के एक कथन पर अपना पूरा जीवन होम करने के लिए तत्पर हों, वे जोर देकर कहते हैं (हरिजन, 15 जुलाई 1939) कि जिसे सचमुच अपने अंदर की आवाज सुनाई देती है, उसे मेरा परामर्श मानने की खातिर अपने अंदर की आवाज की अवज्ञा नहीं करनी चाहिए. अपनी यह बात दूसरे शब्दों में भी अभिव्यक्त करते हैं,
“मेरा परामर्श उन्हीं के अनुसरण के लिए है जिन्हें अपने अंदर की आवाज का बोध नहीं है और जिन्हें मेरे अपेक्षाकृत अधिक अनुभव तथा सही निर्णय लेने की क्षमता पर भरोसा है.’’
मतलब साफ है. वे किसी को न तो अनुगामी बनाना चाहते हैं और न ही अंधभक्त. इसलिए इसरार करते हैं कि जिसे सचमुच अंदर की आवाज सुनाई देती हो, उसे अपनी सुननी चाहिएय न कि गांधी जी की. गांधी जी अपने सुनने वालों से अपेक्षा करते हैं कि केवल भावातिरेक में उनकी बातों पर अमल न करे. वे दिल और दिमाग दोनों पर जोर देते हैं. आशय है कि निर्णय में भावना और बुद्धि दोनों का सामंजस्य हो. गांधी –मार्ग पर चलने वालों से कामना सिर्फ इतनी कि भावना और बुद्धि किसी की उपेक्षा न करें. किसी एक को दूसरे से कमतर न मानें. दिल भावना पर जोर देता है तो दिमाग तर्क पर. दोनों साथ होते हैं तो भावना तर्क से पुष्ट होती है और तर्क भी महज बुद्धि–विलास का अभिपे्रत नहीं होता. तर्क विहीन भावना विवेक शून्य बना देती है और अंध–भक्ति के लिए पे्ररित करती है. भावना रहित तर्क चालाकी और धूर्तता की जमीन तैयार करता है, संवेदनहीन भी बना देता है. कहना होगा कि सिर्फ तर्क की भावना मनुष्य की संवेदनाशीलता और मानवीयता को निगल जाती है तो केवल भावना का तर्क–भावना मात्र पर आधरित तर्क–भी दूसरे का पक्ष देखने–समझने से इंकार कर असंवेदनशील बनने की दिशा में धकेल देता है. इसलिए गांधी –मार्ग पर चलने का सच्चे मायने में अधिकारी वही है जिसका भावनात्मक लगाव तर्क से परिचालित हो और तार्किकता भावना रहित न हो. दरअसल तर्क और भावना (बुद्धि और हृदय) को निहायत भिन्न और परस्पर विरोधी देखने–समझने की बौद्धिक रवायत रही है. गांधी के शब्द और कर्म इसका रचनात्मक प्रतिवाद करते हैं. हमें भूलना नहीं चाहिए कि तर्क की भी भावना होती है और भावना का भी तर्क होता है.
मलिकंदा सम्मेलन में गांधी जी ने इसरार किया कि
‘‘आपको ‘गांधी वाद’ नाम को ही छोड़ देना चाहिए, नहीं तो आप अंध–कूप में जाकर गिरेंगे.’’
इन्होंने ‘वाद’ की परिणति सम्प्रदाय बनने और बनाने में देखी . कहा कि–
‘‘आप सांप्रदायिक न बनें. (यह) मेरे ख्वाब में भी नहीं आया. मेरे मरने के बाद मेरे नाम पर अगर कोई सम्प्रदाय निकला तो मेरी आत्मा रूदन करेगी. इतने बरसों तक हमने जो चीज चलाई, वह कोई वाद नहीं है. हमें किसी वाद में नहीं पड़ना है, मौन धारण करके अपने सिद्धांतों के अनुसार सेवा करते रहना है. लोग चाहे जो कहें, सेवा का कोई सम्प्रदाय नहीं बन सकता. वह तो सबके लिए है. हम सबको स्वीकार करेंगे. सबके साथ चलने की कोशिश करेंगे. यही अहिंसा का रास्ता है. अगर हमारा कोई वाद है तो वह यही है. गांधी वाद कोई चीज नहीं.’’
गांधी का रास्ता अहिंसा का है. इसमें सबके लिए सेवा–भाव है. गांधी की भाषा कोमल होती थी. यह सौम्यता की भाषा है. अपवादस्वरूप ही कठोर भाषा का प्रयोग दिखता है उनके लेखन या भाषण में . ‘वाद’ के बारे में वे कहते हैं कि यह ‘निकम्मी चीज’ है. इसलिए वे सम्प्रदाय के अर्थ में ‘गांधी वाद’ से सहमत नहीं हैं . वे कहते हैं –
“गांधी वाद का ध्वंस हो’ की आवाज मुझे प्यारी लगती है. वाद का तो नाश ही होना उचित है. वाद तो निकम्मी चीज है. असली चीज अहिंसा है. वह अमर है. वह जिंदा रहे, इतना मेरे लिए काफी है . गांधी वाद का ध्वंस तो मैं शीघ्र ही देखना चाहता हूँ.’’
इतिहास में ऐसा उदाहरण शायद ही मिले कि किसी नेता, विचारक या दार्शनिक ने इतनी स्पष्टता से अपने नाम के साथ जुड़े ‘वाद’ के प्रति निरपेक्ष भाव से विचार प्रकट किया हो.
जेहन में यह सवाल उठता है कि लोग ‘गांधी वाद’ का अभिप्राय क्या समझते थे ? इसके विरोधी हों या समर्थक, इस शब्द के जरिये क्या अर्थ ग्रहण करते थे ? और आज भी इससे क्या मतलब हासिल करते हैं ?
गांधी का नाम लेते ही एकबारगी दो शब्द मस्तिष्क में आते हैं, सत्य और अहिंसा. ये गांधी के बीज भाव हैं. गांधी –चिंतन में सत्य और अहिंसा परस्पर संबद्ध विचार–प्रत्यय के रूप में दिखते हैं. दुनिया के तमाम विचार, धर्म, दर्शन, ‘सत्य’ के नाम पर ही सामने आये. पर, अपने ‘सत्य’ के नाम पर दूसरों के ‘सत्य’ का कितना हनन हुआ, मानव–सभ्यता इसकी गवाह है.
गांधी –दर्शन में अहिंसा का वितान काफी विस्तृत है और बहुआयामी भी. मूल्य के तौर पर अहिंसा साधन भी है और साध्य भी. गांधी के लिए सत्य और अहिंसा सिद्धांत मात्र नहीं हैं. वे लिखते हैं, ‘‘सत्य और अहिंसा कोई आकाश–पुष्प नहीं हैं. वे हमारे प्रत्येक शब्द, व्यापार और कर्म से प्रकट होने चाहिए.’’ वे सत्य और अहिंसा को दुनियावी जीवन में उतारना चाहते हैं. इसे सिद्धान्त से आगे जीवन के हर क्षेत्र में सिद्ध करना चाहते हैं. सत्य के संदर्भ में कहते हैं.
‘‘आज कहा जाता है कि सत्य व्यापार में नहीं चलता, राज–प्रकरण में नहीं चलता. तो फिर वह कहाँ चलता है ? अगर सत्य जीवन के सभी क्षेत्रों में और सभी व्यवहारों में नहीं चल सकता, तो वह कौड़ी कीमत की चीज नहीं है. जीवन में उसका उपयोग ही क्या रहा ? मैं तो जीवन के हर व्यवहार में उसके उपयोग का नित्य नया दर्शन पाता हूँ.’’
गांधी के दौर से लेकर आज तक सत्य को सबसे बड़ा मूल्य स्वीकार करते हैं लोग य पर साथ ही राजनीति, व्यापार सरीखे क्षेत्र के लिए इसे अनुपयुक्त मानते हैं . ‘सत्य’ में ईश्वर तक का दर्शन करने वाले गांधी का आस्तिक मन आहत होता था ऐसे विचारों से. कारण कि वे जीवन के हर क्षेत्र, प्रत्येक आयाम और सभी व्यवहार में इसे आजमाते थे, प्रयोग करते थे और कारगर भी पाते थे. इसके जरिये सत्य का नित्य नवल दर्शन करते थे. अगर कभी कारगर न पाते तो इसे अपनी कमी मानते न कि सत्य की. वे पुनह प्रयोग करते. फिर आजमाते. उनका दृढ़ विश्वास था सत्य पर. कहना न होगा कि गांधी जी सत्य को लाभ–लोभ के परिप्रेक्ष्य में नहीं आँकते. जो लोग तात्कालिक लाभ–लोभ की परवाह करते हैं, वे सत्य को जीवन के सभी कार्य–व्यापार में कारगर नहीं मानते. बावजूद इसके, सिद्धांत के रूप में सत्य की महत्ता कोई अस्वीकार नहीं करता. अलबत्ता अहिंसा का विरोध गांधी –काल में भी खूब हुआ और आज भी देखने–सुनने को मिलता है.
अहिंसा का विरोध करने वाले सभी लोगों के तर्क एक–से नहीं हैं. अहिंसा को मानने वालों की राय में भी एका नहीं है. इसे स्वीकार और विरोध करने वाले ऐसे बहुतायत में मिलते हैं जो निजी गुण के रूप में इसे जायज मानते हैं. ऐसे लोगों के लिए व्यक्तिगत गुण के तौर पर अहिंसा स्वीकृत हो सकती है, सार्वजनिक विशेषता के रूप में नहीं. गांधी –विचार में ऐसा नहीं है. उनके यहाँ हिंसा न तो सिर्फ मनोवैज्ञानिक समस्या है और न अहिंसा व्यक्तिगत गुण मात्र. गांधी इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं–
‘‘अहिंसा अगर व्यक्तिगत गुण है तो वह मेरे लिए त्याज्य वस्तु है. मेरी अहिंसा की कल्पना व्यापक है. वह करोड़ों की नहीं हो सकती, वह मेरे लिए त्याज्य है, और मेरे साथियों के लिए भी त्याज्य ही होनी चाहिए. हम तो यह सिद्ध करने के लिए पैदा हुए हैं कि सत्य और अहिंसा केवल व्यक्तिगत आचार के नियम नहीं हैं. वह समुदाय, जाति और राष्ट्र की नीति हो सकती है. मेरी श्रद्धा इतनी गहरी है. इसे सिद्ध करने के लिए मैं जीऊँगा और उसी प्रयत्न में मरूँग. मेरा यह विश्वास है कि अहिंसा हमेशा के लिए है. वह आत्मा का गुण है, इसलिए वह व्यापक है, क्योंकि आत्मा तो सभी के होती है. अहिंसा सबके लिए है, सब जगहों के लिए है, सब समय के लिए है. अगर वह दरअसल आत्मा का गुण है, तो हम सबके लिए वह सहज हो जाना चाहिए.’’
ऐसी अगाध श्रद्धा थी गांधी की अहिंसा पर. अदम्य विश्वास था उनका. क्या यह कहने की जरूरत है कि सत्य और अहिंसा की राह पर चलना ही वह कारण था कि एक क्रूर पागल ने उनकी हत्या की.
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Crowd flanked Mahatma Gandhi when he left the Friends\’ Meeting House,
Euston Road, after attending the Round Table Conference on
Indian constitutional reform. Getty Images
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गांधी –दर्शन में सत्य–अहिंसा की व्यापकता इतनी अधिक है कि वह हर जगह मुमकिन है. धरती के हर कोने में. यह आकाश–कुसुम नहीं है कि मस्तिष्क के विचार–व्यापार में ही रहे . बुद्धि–विलास के लिए यह हरगिज नहीं है. इसकी भौतिक जमीन है. यह भाववादी प्रत्यय तो बिल्कुल नहीं है. अहिंसा की जड़ें समाज और संस्कृति में नहीं देख पाने के कारण कई लोग इसे भाववाद से जोड़ते हैं. ऐसे लोगों को हिंसा का भौतिकवाद से रिश्ता दिखता है, पर अहिंसा का नहीं. दरअसल हिंसा की विचारधारा और विचारधारा की हिंसा ऐसे लोगों के अवचेतन में जड़ जमा लेती है. ऐसे लोग हिंसा को ऊपरी तौर पर स्वीकार करने से परहेज करें, पर विचारधारात्मक हिंसा का कारण ढूँढ ही लेते हैं, भले ही भौतिकवाद के नाम पर. गांधी की ‘प्रौढ़ बात’ समझ न पाने के कारण अनेक लोग यह आरोप उल्टे गांधी पर मढ़ देते हैं कि हिंसा की भौतिक संरचना की उपेक्षा कर रहे हैंय कि उसे मनोवैज्ञानिक सवाल मान रहे हैं.
क्या यह कहने की जरूरत है कि अभी भी अहिंसा का शास्त्र पूर्णरूपेण बन नहीं पाया है, भले ही अहिंसा चाहे जितनी पुरानी हो. मनुष्य जाति की जितनी प्रतिभा हिंसा के विभिन्न उपकरणों–उपादानों की खोज में लगती है, उसका अल्पांश ही हिंसा की शास्त्र–निर्मिति में लगता है. हिंसा के संरचना–निर्माण में मानव–सभ्यता का बहुलांश लगा है. यह गांधी को चिंतित करता था. वे अपने साथियों से सत्य–अहिंसा का शास्त्र गढ़ने, इस दिशा में नये–नये शोध करने के लिए अपील करते थे,
‘‘हिंसा के आधार पर बना हुआ समाज भी विशारदों द्वारा ही चलता है. हम एक नये समाज का निर्माण सत्य और अहिंसा के आधार पर करना चाहते हैं. उनका शास्त्र बनाने के लिए हमें विशारदों की जरूरत है . जिस तरह से आज जगत चल रहा है, वह हिंसा और अहिंसा का मिश्रण है. जगत का बाह्य रूप उसकी भीतरी हालत का प्रतीक है. जर्मनी जैसा मुल्क जो हिंसा को ही ईश्वर मानता है, रात–दिन उसी के विकास में लगा है, उसी को सुशोभित करने की कोशिश में लगा हुआ है. हिंसा के पुजारी जो–जो कर रहे हैं, हम देख रहे हैं.’’
गांधी जी यह समझ रहे थे कि,
‘‘हिंसा का मार्ग पुराना और रूढ़ है. उसमें खोज करना उतना कठिन नहीं है, अहिंसा का रास्ता नया है. अहिंसा का शास्त्र अभी बन रहा है. हम उसके सारे अंग नहीं जानते. इसमें खोज और प्रयोग का विशाल क्षेत्र पड़ा है . आप अपनी सारी बुद्धि लगा सकते हैं.’’
क्या यह कहने की आवश्यकता है कि कितने विशारदों ने अपनी बुद्धि लगायी अहिंसा के विशाल क्षेत्र की खोज में या अहिंसा का प्रयोग करने में . अब तो लगभग सारी दुनिया के देश जर्मनी की राह पर ही दौड़ रहे हैं . गांधी के दौर की जर्मनी को पछाड़ भी चुके हैं. तमाम विशारदों की बुद्धि भी इसी में अपना लाभ और भविष्य देख रही है .
हिंसा की तुलना में अहिंसा का दर्शन नया है. अहिंसा का विचार समाज में मौजूद रहा है. इसकी जड़ें गहरी धँसी हैं. लेकिन जैसे जीवन–जगत के हर क्षेत्र में, राज–काज से समाज–काज तक, गांधी जी प्रयोग कर रहे थे, उस तरह बड़े पैमाने पर उसके प्रयोग की मिसाल न के बराबर रही है . इसीलिए गांधी जी अहिंसा को लेकर लगातार प्रयोग पर बल दे रहे थे. अहिंसा के संदर्भ में नये–नये शोध करने के लिए बुद्धि–विशारदों से अपील भी कर रहे थे.
सत्य और अहिंसा को लेकर प्रतिरोध के नये तरीकों की खोज करते हुए गांधी जी ‘सत्याग्रह’ तक पहुँचे थे . इसमें विसम्मति प्रगट करने से लेकर विरोध में सड़क पर उतरना भी शामिल था. संघर्ष का यह रास्ता इतना नया और जोखिम भरा था कि लोग इसे सर्वथा अपरिचित मान रहे थे. गांधी सत्य और अहिंसा पर आधारित ढाँचा और साँचा तैयार कर रहे थे. इसका नूतन होना मालूम था उन्हें.
‘‘हमने एक अनोखी नीति को लिया है. उस नीति के प्रयोग के साधन भी अनोखे होंगे. वे क्या होंगे, उसकी मैं खोज करता रहता हूँ. प्रयोग कर रहा हूँ. बदलती हुई परिस्थिति में मुझे अपने तरीके भी बदलने पड़ते हैं. लेकिन मेरे पास कोई बना–बनाया शास्त्र नहीं है. हमारा प्रयोग एकदम नया है. उसके कदमों का क्रम कहीं निश्चित नहीं है. मैं तो एक जिज्ञासु हूँ . सत्याग्रह के विज्ञान की खोज और विकास मैं धीरज के साथ कर रहा हूँ. इस खोज से नित नया ज्ञान और नित नया प्रकाश पा रहा हूँ .’’
लोग संघर्ष के इस तरीकों को गांधी से जोड़कर ‘गांधी वाद’ कहते थे. जबकि प्रयोग में परिस्थिति के साथ आये बदलावों को भी विकास–क्रम में नहीं देख पा रहे थे. और उसका विरोध भी करते थे. अहिंसा पर आधारित यह संघर्ष गांधी के मुताबिक वीरों का धर्म हैय पर लोग इसे डरपोक का मजबूरी में उठाया कदम समझ रहे थे. गांधी की मजबूती के पर्याय को कमजोर का अस्त्र समझने की भूल हो रही थी. ऐसी गलती सिर्फ अहिंसा के विरोधी ही कर रहे होते तो उतनी चिंता की बात न थी. गांधी के पीछे चलने वालों में से भी कुछ ऐसा भाव रखते थे, यह तथ्य उन्हें ज्यादा व्याकुल करता था.
‘‘अगर हमारी अहिंसा वीर की अहिंसा न होकर कमजोर की अहिंसा है, अगर वह हिंसा के सामने झुकती है, हिंसा के आगे लज्जित और बेकार हो जाती है तो ऐसे गांधी वाद का भी ध्वंस होना चाहिए. उसका ध्वंस होने ही वाला है. हम अंग्रेजों से लड़े, मगर उसमें हमने अशक्त लोगों के शस्त्र के रूप में अहिंसा का प्रयोग किया. अब हम उसे बुलंद, शक्तिशाली का शस्त्र बनाना चाहते हैं. अहिंसा एक हद तक अशक्तों का शस्त्र भी हो सकती है. लेकिन एक हद तक ही. परंतु वह बुजदिलों का, कायरों का शस्त्र तो हरगिज नहीं हो सकती.’’
सत्य और अहिंसा के बारे में गांधी की निजी भावना उदात्त है. इसमें वे किसी तरह का हीला–हवाला नहीं देते . कोई समझौता नहीं करते. अगर इसका पालन ठीक से नहीं होता तो वे जरा भी नहीं बख्शते . चाहे इसका नाम गांधी से जोड़कर ‘गांधी वाद’ ही क्यों न कहा जा रहा हो, उसके नाश की कामना करने में लेश भर भी नहीं हिचकते.
सत्य और अहिंसा गांधी –चिंतन के निर्गुण–भाव हैं. जीवन–जगत में भले ही हर पल देखा–महसूस किया जाता हो और व्यवहार में भी लाया जाता हो, पर है तो निराकार ही. उनके चिंतन का सगुण भाव है चरखा. गांधी का नाम लेने पर जैसे सत्य और अहिंसा शब्द मस्तिष्क में उगते हैं, वैसे ही चरखा का बिंब या चित्र आंखों के सामने बनता है.
लोकमान्य तिलक के निधनोपरांत गांधी जी ने तिलक स्वराज फंड बनाकर इसके जरिये चरखे का व्यापक प्रचार–प्रसार किया. इसके सकर्मक प्रयासों के कारण चरखा राष्ट्रीय आंदोलन का अनिवार्य उपादान बना. इसके माध्यम से स्वदेशी आंदोलन मजबूत हुआ और गहरा भी. गांधी जी ने चरखे के जरिये अंग्रेजी साम्राज्यवाद की अर्थव्यवस्था को चुनौती दी. चरखा से हाथों को काम मिला. इसके सूत से लोगों को मिला पेट के लिए भोजन और तन ढँकने के लिए कपड़ा . इस हुनर ने लोगों को स्वावलंबी बनाया. आत्मसम्मान की भावना पल्लवित हुई. आम लोग स्वाधीनता की आर्थिकी समझने लगे. गांधी जी के चरखा–प्रयोग पर बल देने के कारण इसकी लोकप्रियता इस कदर बढ़ी कि उनके नाम के साथ चरखा चस्पां हो गया. धीरे–धीरे चरखा स्वाधीनता आंदोलन का प्रतीक बन गया.
जिक्रतलब यह है कि गांधी जी किसी भी विचार या वस्तु को प्रतीक बनाने के पक्षधर नहीं. प्रतीकीकरण उनके विचार से मेल नहीं खाता. आखिर प्रतीक से वे परहेज क्यों करते थे ? इसका सीधा जवाब प्रतीक के साथ अनिवार्यतह जुड़ा इसका कमजोर पक्ष है. प्रतीक में जितनी पवित्रता और प्रतिबद्धता अपेक्षित होती है, वह धीरे–धीरे नष्ट होती जाती है. समय के साथ एक कामचलाऊपन की प्रवृत्ति पनपने लगती है. प्रतिबद्धता के स्थान पर प्रतीक के साथ कट्टरता पैदा होती है और अंधश्रद्धा भी . इसके इर्द–गिर्द पाखण्ड भी निर्मित होने लगता है. गांधी का मानस इसे स्वीकार नहीं कर सकता.
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Mahatma Gandhi and George Lansbury (1859 – 1940)
grin as they pose with a group of children in London, in 1931.
Getty Images
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लोग भले चरखे में स्वदेशी की आर्थिकी और स्वराज–प्राप्ति का मार्ग देख रहे हों, साथ ही गांधी जी द्वारा चरखा को केन्द्र में रखकर विकास की रूपरेखा को भी बड़े पैमाने पर समझ रहे हों, पर गांधी जी के लिए चरखा इतना ही नहीं था. वे इसकी ध्वनि मेें संगीत सुनते थे. इसको चलाना आध्यात्मिक अनुभव था. उनके लिए चरखा अहिंसा से जुदा नहीं था. उनका चरखा व्यापक और बहुआयामी अर्थबोध से भरा था. वे चरखा को सूत कातने वाला महज यंत्र नहीं समझते थे, पर विरोध करने वाले स्वर इससे ज्यादा देख नहीं पा रहे थे. और इसे सीमित कर रहे थे. विडंबना तो यह है कि चरखा चलाने वाले काफी लोग और गांधी से जुड़े कतिपय नेता भी चरखा को यंत्र मात्र ही समझते थे. कहने की जरूरत नहीं कि मौजूदा दौर में भी गांधी की आलोचना की एक बड़ी वजह चरखा है. इस चरखा के कारण लोग उन्हें तकनीक विरोधी समझ लेते हैं. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के नियंता भी यह सोचते थे, आज भी ऐसा सुनने को मिलता हैµकि चरखा चलायेंगे तो देश पीछे रह जायेगा.
चरखा प्राथमिक तौर पर यंत्र है. गांधी ने चरखा में काफी अनुसंधान करवाया था. विकास भी हुआ चरखे का. पर इस यंत्र के साथ गांधी ने जिस संरचना की कल्पना की थी उसकी भरपूर उपेक्षा हुई. दिलचस्प यह है कि एक तरफ चरखा पर आधारित उनकी कल्पित संरचना विचार–विमर्श से बाहर रखी गयी, चरखा–भावना की कद्र तक न की गईय दूसरी तरफ लोगों ने चरखा को यंत्र मात्र मानकर गांधी की एक छवि बनाई और समाज के सामने प्रस्तुत की. गांधी की पीड़ा कितनी बढ़ जाती होगी यह देखकर कि विरोधी और समर्थक दोनों उसकी भावना को समझ नहीं पा रहे हैं और चरखा को सिर्फ यंत्र समझ रहे हैं . उनके कथन से इस अभिप्राय को समझा जा सकता है.
‘‘अगर गांधी वाद का अर्थ सिर्फ यंत्र की तरह चरखा चलाना ही है तो उसका ध्वंस होना ही ईष्ट है. –––सिर्फ चरखा चलाने से देश का कल्याण नहीं होगा. पुराने जमाने में भी कई पंगु और स्त्रियाँ चरखा चलाती थीं तो वे भी गुलामी में डूबी हुई थीं . कौटिल्य ने जो लिखा है कि उस जमाने में चरखे चलाये जाते थे, उसी के साथ–साथ उन्होंने यह भी लिखा है कि राजदंड के डर से चरखा चलवाया जाता था. चरखा चलाने वाले अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि मजबूरी से, बेगार के तौर पर, चरखा चलाते थे. औरतें चरखा चलाने के लिर हारबंद (कतार में) बैठती थीं, लेकिन वह सब जबरदस्ती का मामला था. –––अगर हमारा मतलब फिर से उसी चरखे को जारी करने से है, तब तो उस चरखे का ध्वंस ही होना चाहिए और उस चरखे का महत्त्व मानने वाले गांधी वाद का भी ध्वंस होना चाहिए.’’
गांधी का अभिप्राय था कि जो कोई चरखा चलाये वह स्वेच्छा से चलाये. इसकी अहमियत समझकर सूत काते. इसके साथ ही चरखा पर टिकी संरचना को भी समझे.
गांधी –विचार का जब कभी सम्मेलन होता था, चरखा चलता था. पर सिर्फ इसे चलता देख खुश नहीं होते थे गांधी. वे कहते थे,
‘‘हमें यह देखना चाहिए कि हम चरखा चलाते हैं तो क्या उसमें से हममें अहिंसा की शक्ति पैदा होती है ? सम्मेलन में सूत्र–यज्ञ के समय मात्र दो से चार तक चरखा चलाते हैं, क्या उस वक्त आप उसका अहिंसा से अनुसंधान करते हैं. क्या उसमें से आपकी अहिंसा की शक्ति नित्य बढ़ती रहती है ? कोई दो घंटे में छह सौ गज काते या एक घंटे में छह सौ गज काते, उसका महत्व तो है, लेकिन सबसे महत्त्व का सवाल तो यह है कि क्या कातने से हमारी अहिंसा –शक्ति बढ़ी ? हमारा अहिंसा का दर्शन बढ़ा ? अगर हमारा चरखा हमारी अहिंसा को नित नया बल नहीं देता, हमारा अहिंसा का दर्शन नहीं बढ़ता तो मैं कहता हूँ कि गांधी वाद का ध्वंस हो .’’
अहिंसा–दर्शन की श्रीवृद्धि के साथ असम्बद्ध मानकर चरखा चलाने और उससे अच्छा–भला सूत कात लेने वाले की तुलना गांधी जी ने जड़वत माला फेरने वाले से की और इसे आत्मवंचना माना. यही वजह है कि वे देश में तमाम चरखा चलाने वालों को ‘गांधी सेवा संघ’ में शामिल नहीं करना चाहते. स्मरणीय तथ्य है कि प्राथमिक तौर पर चरखा और उससे काते गए सूत की आर्थिकी को गांधी तवज्जो देते थे पर चरखे की भूमिका यहीं तक सीमित नहीं मानते थे. वे इसकी भूमिका वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखते थे. तभी वे यह कहते थे कि ‘‘चरखे में जो अर्थ भरे हैं उनको न समझकर अगर आप चरखा चलाते हैं तो या तो उसे पद्मा नदी में फेंक दीजिए या जलाकर जाइए . तब सच्चा गांधी वाद प्रकट होगा. सिर्फ चरखा चलाने तक ही जो गांधी वाद सीमित है, उसके लिए तो मैं भी कहूंगा कि ‘गांधी वाद का ध्वंस हो.’’
उन्होंने यह याद दिलाया है कि ‘‘वे लोग ध्वंस के नारे पागलपन में लगा रहे हैं, रोष में आकर कह रहे हैं. लेकिन मैं तो बुद्धिपूर्वक कह रहा हूँ.’’
गांधी के हिसाब से अहिंसा का अनुसंधान करते हुए ध्यान पूर्वक चरखा चलाना है. चरखा और अहिंसा गांधी –दर्शन में एक–दूसरे से गहरे सम्बद्ध हैं और पूरक भी. ये गांधी –दर्शन के सगुण और निर्गुण रूप हैं.
गांधी जी के शब्द–कर्म और संदेश की भावना को न समझ इसे यंत्रवत मानने वाले नयी चुनौतियों के संदर्भ में गांधी –मार्ग को देखने में असफल साबित होते हैं . गांधी ने व्यक्ति, प्रकृति, समाज, देश और दुनिया के आपसी सम्बन्धों को जिस रूप में व्याख्यायित किया,अपने युग की चुनौतियों को समझा और हल निकाला, कहना होगा कि उसमें अंतर्निहित विचार–भाव आज की समस्याओं में भी राह सुझाते हैं.
गांधी–दर्शन में गत्यात्मकता है. जहाँ गति होगी, परिवर्तन भी होगा. इसलिए उसमें परिवर्तनशीलता भी है. गांधी–विचार नदी की कल–कल बहती धारा है, किसी सरोवर का ठहरा पानी नहीं. गांधी बदलती परिस्थितियों के हिसाब से विचार बदलने में हिचकते नहीं थे . करणीय और अकरणीय का जाग्रत विवेक था उनके पास . पहले कोई बात कह दी, इसलिए सदा उसका बचाव करना हैय इसे ठीक नहीं मानते थे. पूर्ववर्ती विचार की कमी का अहसास होते ही उसे नूतन समझ से परिवर्तित कर लेते थे. उनके विचार के प्रवाह को जो देखते हैं, उन्हें परेशानी नहीं होती. जो साँचे और खाँचे में देखने के आदी हैं, वे विचारों की प्रवहमानता को देख उलझ जाते हैं . गांधी के यहाँ नित्य नवनीत की अपेक्षा है . आपने पाठकों से वे (29 अप्रैल, 1933, ‘हरिजन’) इसरार भी करते हैं,
मेरे लेखों का मेहनत से अध्ययन करनेवालों और उनमें दिलचस्पी लेनेवालों से, मैं यह कहना चाहता हूँ कि मुझे हमेशा एक ही रूप में दिखाई देने की कोई परवाह नहीं है. सत्य की अपनी खोज में, मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें मैं सीखा भी हूँ. उमर में भले मैं बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता है कि मेरा आन्तरिक विकास होना बन्द हो गया है या देह छूटने के बाद मेरा विकास बन्द हो जाएगा. मुझे एक ही बात की चिन्ता है, और वह है प्रतिक्षण सत्य–नारायण की वाणी का अनुसरण करने की मेरी तत्परता. इसलिए जब किसी पाठक को, मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो, तो वह एक ही विषय पर लिखे, दो लेखों में से, मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने.
इस प्रवहमानता को गर ‘गांधी वाद’ कहने का लोभ संवरण न किया जाए (गांधी जी के बार–बार रोकने के बावजूद) तब यह सोचना होगा कि इस नवनीत अर्थ में भी गांधी वाद रहे या न रहे ? स्वयं गांधी क्या सोचते ? गांधी जी कतई नहीं चाहते कि केवल विचार मात्र के तौर पर उनके मत की मौजूदगी बनी रहे. कारण कि विचार–दर्शन प्रस्तावित करना उनके चिंतन का नियामक नहीं था. वे तो अपने देश–काल की चुनौतियों की नदी में गहरे उतरे थे. उससे पार पाने के क्रम में विचारों का हिलोरा निर्मित हुआ था. यही वजह है कि गांधी को जब अपना विचार नयी चुनौतियों के लिए नाकाफी लगता, स्वयं रद्दोबदल करते थे.
लिहाजा वे ‘वाद’ के रूप में बचने या बचाये रखने का मोह क्यों करते! गांधी कामना करते थे मानवीय सभ्यता और संस्कृति के आदर्श रूप की, जो मनुष्य, परिवार, समाज, देश–
दुनिया और प्रकृति के तमाम अंगों–उपांगों में बराबरी व अहिंसा के मूल्यों और पारस्परिक सम्बन्धों पर आधारित हो, अगर यह कायम होता है तब भी ‘वाद’ के तौर पर क्यों कर रहे!
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राजीव रंजन गिरि
हिंदी विभाग
राजधानी कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय)
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गांधी विचार तो रहेंगे ही
गांधी विरोधी लोगों को यह लेख जरूर पढ़ना चाहिए। गांधी केवल एक नाम नहीं है यह एक युग है जिसे समझने के लिए अंदर तक उतरना होगा। बहुत ही सुन्दर और ज्ञानवर्धक लेख है, गुरुदेव।