निशांत के दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उन्हें कविता का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार भी प्राप्त है. ‘फिलहाल साँप कविता’ उनके दूसरे कविता संग्रह, ‘जी हाँ लिख रहा हूँ’ से है. इस लम्बी कविता में युवा कवि निशांत ने सहित्य के तलघर में व्याप्त अराजकता को अपनी कविता का आधार बनाया है. ‘फिलहाल साँप कविता’ अपने समय के कविओं, संपादकों और पीढ़ियों के अन्तर्द्वन्द्व पर शायद हिंदी में पहली दीर्घ कविता है. पूरी कविता तीखे प्रतिपक्ष से आच्छादित है. यह प्रतिपक्ष हिंदी सहित्य के साम्राज्य में एक अदने से युवा कवि का है जिसके पास साहित्य के सरोकारों के सिवा कुछ भी नहीं है. कविता के अंदर-बाहर कविता आती जाती रहती है. कवि देखता है कि कविता के बाहर जो ताकते जनता के ख़िलाफ हैं कविता के अपने खुद के संसार में भी प्रतिरोध का स्वांग भरते उनके प्रतिनिधि मौज़ूद हैं. समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में उपस्थित विद्रूप का एक आख्यान है यह कविता जो अपने सवालों और सरोकारों से गहरे विचलित करती है.
निशांत
फिलहाल साँप कविता
(बाबा नागार्जुन को समर्पित)
(एक)
इस समय
एक आदमी
कचरे की पेटी में लिख लिख कर रखे जा रहा है शब्द
और खरीद खरीद कर शो-केश में रखे जा रहा है ट्राफियां
जनसत्ता, लोकसत्ता, प्रजासत्ता और गणसत्ता में बढ़ती जा रही है उसकी आस्था
उम्र बढ़ने के साथ साथ वह होता जा रहा है संत
बढ़ती जा रही है उसकी लोलुपता
दुनिया के सारे कवियों का भविष्य
गद्य लेखकों के पास सुरक्षित है
साहित्य कला विहीन समाज में ‘एक’ वही है कलावंत जामवंत हनुमंत
संपादक खुश हैं यह हमारा दौर है
दिल्ली कलकत्ता भोपाल बनारस लखनउ पटना से लेकर
अमेरिका तक बज रही है हमारी डुगडुगी
डुगडुग….डुगडुग….डुगडुग….
खलक खुदा का, मुलूक जनतांत्रिक तानाशाह का, हुक़्म संपादक का
डुगडुग….डुगडुग….डुगडुग….
शंकर नाच रहे हैं
पार्वती डमरू बजा रही हैं
कालिया नाग प्रेम में झूम रहा है
शिमला के राष्ट्रपति निवास में
राष्ट्राध्यक्ष पैसे लेकर ताली बजा रहा है
सैम पित्रोदा सारे संसार में ज्ञान का कटोरा लेकर भीख मांग रहे हैं
इसी समय
नज़दीक के एक घने जंगल में
‘दारा सिंह’ ईशा मसीह को शांति का संदेश सुना रहा है
बुद्ध् के पास से निकलकर अमेरिका के पास चला था यह संदेश
रास्ते में इसको रोककर सस्वर पाठ हो रहा है
इस तरह शांति की बात हो रही है
दूर एक पूंजीवादी उपग्रह
पृथ्वी की जासूसी कर रहा है
जब तक लोग समझते
यह आदमी
ललची कमीना लुच्चा और भ्रष्ट है
वह अमेरिका की सरकारी यात्रा पर था
और अमेरिका में ढूकने से पहले
वह नंगा होकर साहित्य कला संस्कृति और धर्म पर व्याख्यान दे चुका था
गिरवी रख चुका था अपनी पगड़ी
विश्वशांति पुरस्कार से सम्मानित राष्ट्राध्यक्ष की जेब में
फोन पर
एक कवि के सिर में दर्द है
इसलिए वह बात नहीं कर पाया ‘इस समय’ पर
एक कवि दूसरे कवि को कहता- ‘‘आपकी कविता अच्छी है’’
‘‘आपकी कविता अच्छी है’’
एक सोमरस पीकर मस्त है
कह रहा है-‘‘आप बड़े कवि हैं, चरण स्पर्श करता हूँ’’
‘‘बिना लिखे मैं नहीं रह सकता. इसलिए लिख रहा हूँ’’-तीसरा कहता.
चैथा चुप्पा चालाक और भीतर घुन्ना है
सभी जानते हैं, मुंह पर उसकी बढ़ाई और पीठ पीछे उसकी बुराई करते
फोन पर
एक पचास साला युवा-कवि-संपादक कह रहा है-
‘‘आपकी कविता ‘बड़ी कविता’ है.
अंधेरे में, लुकमान अली, गोली दागो पोस्टर आदि की परंपरा में यह कविता आती है.
मगर में इसे छाप नहीं सकता…’’
दूसरा उससे दस साला बड़ा कवि बड़ा आलोचक और अब बड़ा संपादक
कहता –
‘‘मैं तुम्हें एडजस्ट कर रहा हूँ’ . समझ रहे हो….’’
एक विदेशी मशीनी कवि आलोचक कह रहा है-
‘‘अट्ठाइस की उमर में भी तुम युवा. चूतिया समझ रहे हो, मुझे.’’
तो प्रबुद्ध् आलोचक ने घोषणा की-
‘‘भविष्य के पाठकों के लिए
लिखी जा रही हैं इस समय की सारी कविताएं.’’
कुछ युवा कवियों के पास/इस समय
अपनी अपनी संवेदनाएं हैं
अपनी अपनी करुणा
अपना अपना सौंदर्य
राजनैतिक वैश्विक ग्रामीण चेतना भी है
बस नहीं है आपस में बोलचाल
एक समझदारी भरी चुप्पी है
चुप्पी से चुप्पी की फसल उगा रहे हैं सब
देश की आर्थिक राजधानी में बैठा एक कवि आलोचक
युवा कवियों को कह रहा है- ‘‘पूछिए कि बैकुंठ कहां है?
और घोषणा की- ‘‘यह पीढ़ी बूढ़ों को रौंदते हुए चली जाएगी.
वे नहीं जानते कि बैलों की जगह घोड़ों के कंधें पर रख दिए हैं उन्होंने जुए
दूसरे ने राजधानी में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में घोषणा की कि-
‘‘ये लौंडे लपाड़े नहीं, आपके उस्ताद हैं.
कर रहे हैं आपका इस्तेमाल भस्मासुर की तरह.’’
इतना सुनते ही स्वर्गापति का डोल गया आसन
दौड़ा कामदेव ‘बदलता हुआ समय और युवा कविता’’ विषय पर शोध्-आलेख लिखने
राजधानी से दूर एक टीले पर बैठे/एक आलोचक ने कहा मुझसे-
‘‘पेड़ों से बात करो
वे बतलाएंगे तुम्हें ढेर सारी कविताओं तक पहुँचने के रास्ते
चिड़ियों से प्यार करो
वे देंगी तुम्हें कविताओं के जंगलों के पते
घोड़ों से प्यार करो
काले गुलाबों से प्यार करो
छः विदेशी और पांच संस्कृत के कवियों से प्यार करो
कला और फिल्मों के बारे में पढ़ो, देखों और लिखो
कुछ भी लिखो लेकिन लिखो श्रम से सौंदर्य की चिंता किए बिना
वे जरूर, जरूर होंगी कविताएं
अच्छी और उर्वर कविताएं होंगी वे. और दोस्त,
अंत में अपने से बात करो-
वे हो जाएंगी कविताएं, सिर्फ और सिर्फ कविताएं.’’
(दो)
इस समय
विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा का
सबसे प्रतिभाशाली युवा कवि
सिर्फ दो लोगों के लिए लिख रहा है कविताएँ
एक युवा तुर्क तीन लोगों के लिए
एक कुछ ‘विशिष्ट वर्ग के लोगों के लिए-
एक चिल्ला राह है-‘‘जी हाँ लिख रहा हूँ
बहुत कुछ बहुत बहुत!!
ढेर-ढेर सा लिख रहा हूँ
मगर आप उसे पढ़ नहीं पाओगे
देख नहीं सकोगे.’’
एक दूसरा चिल्ला रहा है-‘‘कबूल रहा हूँ कबूल रहा हूँ….’’
एक संपादक गुस्सा हो रहा है
एक खुश है
एक बुद्ध् हो गया है
जहाँ भी जाता है एक खास काट की पत्रिका निकालता
आधुनिक काल का चंद्रबरदाई है एक संपादक
पृथ्वीराज चाव्हाण के खजाने के लिए निकाल रहा है पत्रिका
हिंदी साहित्य के प्रबंध् मैनेजमेंट का सबसे बड़ा व्याख्याता आचार्य हो गया है वह इन दिनों
एक संपादक सरकारी कमरे में तीन तरफ
चाणक्य प्लेटो और ईश्वर के शांतिदूत प्रधनमंत्री की तस्वीर लगाए
चैथी तरफ अपनी तस्वीर लगाने की इच्छा लिए
थर-थर कांपता है रात को बिस्तर में
उसके सपने में आता है एक ‘रक्त-स्नात-पुरुष’
बीड़ी जलाता और अँधेरे में पूछता –‘‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’’
उसकी घिघ्घी बंध जाती और घुघ्घू की तरह वह बोलता
दूसरे दिन अपने सरकारी कार्यालय में
ज्ञानात्मक संवेदना’ ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ ‘अपने हिस्से की ईमानदारी’
और युवा कवियों का कविता का शिल्प बदलने की नसीहत बिना मांगे देता
कहता-‘‘निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध्, केदारनाथ सिंह से कितना काम चलाओगे तुम लोग……….
इस समय कविता ‘नए शिल्प की मांग कर रही है’
और धीरे से मुस्कुरा देता वह
भीतर से बेहद कांईया और उपर से खुश दिखता हुआ
इस समय
एक कहानी की पत्रिका के संपादक ने संपादकीय लिखकर घोषणा की
‘‘दुनिया के सारे कवियों का भविष्य
गद्य लेखकों के पास सुरक्षित है’’
पाठकों तक की पसंद को तय करने लगा है वह संपादक
‘‘शासकों की रुचियां ही जनता की रुचियां होती हैं.
और
‘जोर से बोलो तो झूठ भी सच हो जाता है’ में विश्वास करने वाला वो
तय करने लगा है किस घोड़े को लंबी रेस के घोड़े में तब्दील करना है
भीड़ में अपनी बच्ची के दो सफेद जूते तलाश रहा है एक कवि
एक आलोचक नीली जींस पहने चला आया है कविता में
जिसे एक फिल्म के डाइरेक्टर ने उपहार स्वरूप दिया था, जो एक
प्रतिभाशाली कवि भी था और इतिहास का विद्यार्थी भी
अब वह नीली शर्ट के लिए तलाश रहा है एक और प्रतिभाशाली कवि
सांस्कृतिक शून्यकाल और महान प्रतिभाशालियों से खाली दौर में
विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, धन कुबेरों और अफसरों ने लिखी हैं महत्वपूर्ण किताबें
शून्यकाल की कविता में इस तरह आया नया उछाल
राजधानी के कला अकादमी में कविता का सेंसेक्स उछला अपनी सबसे उचाई पर
कर्मचारी, मातहत, शोधार्थी छात्रा और पिछलग्गू कवि भरे सभागार में बजाते रहे ताली
लंबी, मझोली, छोटी कविता
छंद बंद,छंद मुक्त गद्य कविता
चारण भक्त रीतिवादी कविता
छायावाद प्रगतिवाद प्रयोगवाद के एक अजब कोकटेल से मिश्रित होकर
ये कविताकाल
एक अद्भुत काल में तब्दील हो रहा है
एक कवि आलोचक इसे संधिकाल कह रहा था
एक अपफसर और धन कुबेर के संयुक्त प्रयास से लाए गए एक कार्टून दारु देखकर एक कवि ने चिल्लाकर कहा
उदारवादी बाजारवादी और विज्ञापन के शिखर कालखंड में
दारु पीने पिलाने से इन्कार करने वाला व्यक्ति
सब कुछ हो सकता है कवि नहीं हो सकता
आदि मध्य आधुनिक के बीच संवाद रहने के बावज़ूद
कविता हांफ रही थी ‘इन्हेलर’ के लिए
एक कवि की आखें सपनीली थी
वह सपनीली आखों से छोटे छोटे सपने देखता था
एक कविता फ़िल्म में तब्दील हो गयी
बाक्स ओफिस पे हिट हुआ एक कवि एक फ्लाप एक औसत
एक रोता रहा दहाड़ मार मार कर
एक हो रहा-हो रहा चिल्लाता रहा
एक प्रेम को सहलाता रहा
एक कला फिल्मों की तरह रंगता रहा कैनवास
एक मंच पे गाता रहा अपने आका का गान
फिलहाल रात है और रात को सोना चाहिए
सभी कामों का एक निश्चित समय है और
निश्चित समय में ही करना चाहिए निश्चित काम
पढ़ने के वक्त पढ़ना
प्रेम के वक्त पूरा प्रेम
सोने के वक्त पूरा सोना
नौकरी के वक्त पूरी नौकरी
दफ्तर के वक्त पूरी दफ्तरी
कविता के वक्त कविता के अलावा और कुछ नहीं होना चाहिए
कविता से भी कुछ ज्यादा जरूरी चीजें कविता से पहले होनी चाहिए
मसलन पीली मटर की दाल का विज्ञापन
किसी भी पत्रिका के मुखपृष्ट पर सरकार को
सबसे पहले छपवाने का अध्यादेश देना चाहिए
कविता पढ़ने से पहले
श्रोताओं को पीली मटर की दाल का विज्ञापन पढ़कर कवियों को सुनाना चाहिए
दुनिया की सारी पीली मटर की दालें एक जैसी हैं
दुनिया की सारी कविताएं एक जैसी हैं
दुनिया के सारे कवि एक जैसे हैं
सारे कवियों को पीली मटर की दाल का विज्ञापन लिखना चाहिए
या पीली मटर की दाल की तरह कविता
अरहर की दाल नब्बे रुपये किलो है
दुनिया के सारे लोग अरहर की दाल नहीं खाते
कुछ कवि अरहर की दाल खाते हैं
पीली मटर की दाल पर कविताएं लिखने की सोचते हैं
कोई मतलब नहीं
उस दवावाले सब्जीवाले फलवाले बस कंडक्टर और मोबाइल वाले को
इस कविता और कवि और कविता समय से
बुद्ध् और गुलजार उन्हें पसंद हैं
एक ऊचाई पर जाकर कवि संत हो जाते हैं, कविता गीत
और श्रोता, पाठक क्रेता
(तीन)
इस समय
एक युवा कवि कह रहा है
अभी नहीं लिख पाया अपने समय की कविता
तो बाद में कुछ भी नहीं लिख पाउॅंगा
चूक जाउंगा….और लिखने लगा ढेर ढेर कविताएं
छपने लगीं उसकी ढेर ढेर ढर्रेदार कविताएं
होने लगी ढर्रेदार तारीफ (यह पहले से तय था)
एक अन्य युवा कवि
मोबाइल से कर कर के एस. एम. एस.
पूरे भारत के कवियों से बनाए रखता था संपर्क
इस बहाने आक्सीजन पाए जा रही थी उसकी कविता
एक अन्य
सप्ताह में जरूर एक बार तारीफ कर आता
बड़े कवियों अफसरों संपादकों आलोचकों को फोन पर
एक तो रिक्सा हो या हवाईजहाज
हमेशा लैपटाप पर ‘‘इस समय’’ का उपयोग कर लेता
बुद्धिजीवियों लेखकों कलाकारों से बतियाकर
ध्न्य है यह सूचना समय
ध्न्य है यह कवि
ध्न्य है यह संचार क्रांति
चल रही है कविता
दौड़ रही है कविता
सो रही है कविता
जग रही है कविता
एक कवि कह रहा है ‘‘जब कविता ही जीवन बन जाती है
नहीं लिख पाता अब कोई कविता.’’
दूसरा जो दिनरात कविता पर बहस करता था
अब काटने लगा है कन्नी
रहने लगा है चुप
पहली बार उसे सबसे कठिन लगता है किसी कविता पर बातचीत
और उसके शान में धडल्ले से लिख देता किसी संपादक को पत्र
‘उसके शान में गुस्ताखी करता है’ यह समझने लगा है वह
जबकि वह जानता है
हर तर्क एक गढ़ा हुआ तर्क लगने लगता है
कह चुकने के बाद, एकांत के क्षणों में
हर कविता एक मुखौटे में तब्दील हो जाती है छपने के बाद
एक झूटा कवि
झूठ को झकाझक सफेद सच में तब्दील कर देता, हमारी आखों के सामने
अब, वाचाल से चुप हो गया है वह
किसी किसी दिन वह कविता लिखते लिखते फफक फफककर रोने लगता
एक एक शब्द काग़ज़ पर उतारकर
वह उनकी हत्या कर देता है गला दबाकर
ऐसा वह सोचने लगता
गला रुंध् जाता….आँख भर जाती….
बुद्धू कहीं के….कहकर सर के बालों में हाथ फेरने लगती वह सफेद कागज़ से उठकर
वह उसके दोनो हाथों को पकड़कर फिर फपक पड़ता है
‘क्या हुआ बाबू….चुप हो जाओ…..पागल कहीं के’’ जैसे शब्द बहुत कोमलता से वह उच्व्चारती
माँ की तरह उसका सर अपने सीने से चिपकाए
‘कुछ नहीं…कुछ नहीं…’ भर्राए गले से वह कहता
उसे पकड़े चुपचाप सिसकता रहता …
चुप एक शब्द नहीं
पूरा भाव विस्तार है, इस समय का
रो रहा है कवि
हॅंस रहा है कवि
सो रहा है कवि
दौड़ रहा है कवि
गा रहा है कवि
अपने ही घर में
एक संपादक को दुख है कि सबसे ज़्यादा उसके पास ही आती हैं कविताएँ
‘‘पन्द्रह पन्द्रह दिन बाद करके फोन मुझे याद दिलाते रहिएगा….
आपकी कविताएं रखी हैं सुरक्षित….’’ कहकर कलावादियों की तरह
सामंतों जैसी हॅंसी हॅंसे जा रहा था वह फोन पर
संभावित कवयित्रियों को प्रोत्साहन देता है उनकी सुंदर सुंदर तस्वीरें छापकर
युवा कवियों को एडजस्ट करता है बूढे़ कवियों के बीच
एक दूसरा संपादक हर मिलने वाले की पूंछ उठाता
वहां उसे गोबर अर्थात कवि होने की गंध मिलती
वह गुस्सा है कि लगभग सारे पुरस्कार गोबर पर गिराए जा रहे हैं
एक ‘सरस सलिल’ के टाइप की पत्रिका के संपादक ने
सारे कवियों को कहानीकार बनाने का टेंडर ले रखा है
एक ने कहानीकारों का एक फोरम बना रखा है
उसे देखकर, एक कवि ने कवियों का फोरम बनाने का प्रस्ताव रखा है
बहुत गर्मी पड़ रही है.
जंगल में आग लग गयी है.
यहाँ कमरे में ‘कविता’ मर गयी है.
(चार)
इस समय
एक कवि लिख रहा है
एक लंबी चिट्ठी मित्र के पास
-‘‘मित्र
इस समय लिखी ही नहीं जा सकती महान कविता
‘हम अपने पौरुष से हताश जाति’ नहीं हैं
न ही है पराधीन की स्वाधीनता के स्वप्न के लिए कुछ लिखें
न हमें करुणा की जरूरत है
न हमें दुनिया को बदलने के लिए स्वप्न देखने हैं
न हमें किसी वैचारिक दर्शन की जरूरत है
इस समय
हम अपनी सच्ची भावनाओं से फ्रायड को याद करते हुए
अक्ल से या शब्दों केा सही खांचे में बैठाते हुए
सांचे में ढली हुयी कविता लिखनी है
लिखते रहना है
पूंजी हमारा परम मित्र है
जाति हमारी पहचान
सूचना जाल हमारे मददगार हैं
आप हमारे पालनहार
इस समय के पास है ही नहीं विचारों की वह सान
जो आंदोलन की जमीन बना सके
महान रचना महान जीवन की बात कर सके
दरअसल, सुविधावाद के चरम क्षणों में
जातिवाद के गर्भ में हमार बीज पड़ा था
‘चीजों के महाविजय के जुग में’ हम पले बढ़े हें
हम लिखे बिना रह ही नहीं सकते, इसीलिए लिख रहे हैं.
हमसे विरोध में मुटठी ताने खड़े होने की बात
तुम क्यों कहते हो मित्र…..?
हम तो इस समय की संवैधानिक संतानें हैं.
हमें चाहिए इस परंपरा की फेहरिश्त में अपना हिस्सा.
हम अपना मकान अपनी ही लुकाठी से नहीं जला सकते, मित्र.
विरोध नहीं सहयोग में हम रखते हैं विश्वास
गरीबों दलितों स्त्रिायों के प्रति सहानुभूति और
पैसों के प्रति ‘स्वस्थ्य दृष्टिकोण’ है हमारा, भले वह कोरिया से ही आए
आटा पन्द्रह चावल बीस और दाल साठ रु है
सरकार नैनो खरीदने और उसे रखने के लिए हमें कर्ज़ और जगह दे रही है
हम समाजवाद धर्मनिरपेक्षता और रामराज्य लेकर क्या करेंगें, मित्र….?’’
इसी समय
उसके मित्र का छोटा भाई लालटेन जलाकर
पढ़ रहा है अपने डायरी के लिखे हुए हर्फ ….
‘‘सीख रहा हूँ
धीरे धीरे स्टोव जलाना
रोटी बेलना
चावल पकाना
दाल में नमक डालना भी
धीरे धीरे सीख ही जाउंगा
आखिर इस देश में
भाई साहब सब जानते ही हैं
मैं भी जान ही जाऊंगा
आज नहीं तो कल
पढ़ने के लिए इतना दूर आना
अब, बेवकूफों की तरह लगने लगा है
आखिर इतना पढके क्या करते हैं, भाई साहब.
कविताएं लिखते हैं
स्थानीय अखबारों में कुछ समीक्षाएं वगैरह भी
वैसे फ्रीलांसर हैं
अखबार ही नहीं, अपनी जिंदगी के भी
प्रेमिका से शादी नहीं कर पाते
डरते हैं …
शादी के बाद तीन लोगों का खर्च
जीवन से इतना डरा हुआ आदमी
कवि ही हो सकता हैं.
अच्छा है
मैं कवि नहीं हूँ . (3 जनवरी 2010,)
उसी पेज के पीछे अब लिखता है –
‘‘सीख रहा हूँ , आजकल
कम्प्यूटर बनाना.
खाना बनाना
बड़ी वाली भाभी से भी अच्छा जान गया हूँ
जो आजकल गुजरात में है
अब तो वहीं है नैनो का कारखाना
यहाँ बांग्ला भी सीख रहा हूँ
करके एक बंगालिन से प्यार
जान रहा हूँ बंगाल
देख रहा हूँ दुर्गा प्रतिमाएं
हुगली के किनारे जूट मिले
लाल झंडे का हाल बेहाल
हैदराबाद बनने के लिए लालायित बंगाल
और चाय की दुकान
सीख रहा हूँ, आजकल
कम्प्युटर बनाना
भैया खुश है .
कि चलो
कमाने खाने की जुगाड़ में
भाई, लग ही जाएगा कुछ दिनों में.
अच्छा हुआ,
वह कवि नहीं हो रहा
कम्युटर मैकेनिक हो रहा है ….’’ (12 सितंबर)
इसी समय
एक संपादक अपनी छोटी सी सरकारी नौकरी में से पेट काटकर
चालीस हजार लगाकर प्रत्येक छः महीने में एक अंक निकालता है
चालीस हजार उसके लिए एक बड़ी रकम है तभी तक
जब तक वह विज्ञापन नहीं जुगाड़ पा रहा है
बाकी सारे संपादक विज्ञापन-विज्ञापन खेल रहे हैं
विज्ञापन-विज्ञापन खा रहे हैं
विज्ञापन-विज्ञापन की कार में घूम रहे हैं
इसी समय
कुछ कवि मुक्त ह्रदय से लिखने लगे कविता
ठीक रीतिकाल में ‘‘कन्हाई सुमिरन के बहानो है’’ की तर्ज पे
वे समझ गए हैं -इस समय कविता पढ़ने के लिए नहीं
सजे धजे पृष्ठों पर छपने के लिए लिखी जा रही है
कविता के सच्चे हितैषी हैं-अफसर कवि, मित्र कवि और संपादक कवि
एक युवा कवि एक लघु पत्रिका के तीन अंक निकालकर
एक प्रबंधक -संपादक की बड़ी पत्रिका में उप-संपादक हो गया है
एक और युवा कवि एक लघु-पत्रिका के सात अंक निकालकर
एक सरकारी नौकरी में सट गया है
लघु-पत्रिका आंदोलन-आंदोलन की फिल्म फ्लाप कर दी गयी है
अब, सारी लघु पत्रिकाएं मुंबइया फिल्मों की तरह निकल रही हैं
उनके संपादक की कुर्सी पर
अमिताभ, गोविंदा चंकी पांडे और आमिर बैठे हैं
उनमें छोटी छोटी बड़ी कविताएं छपतीं
वजनदार और बड़े कवियों का वहां बोलबाला था
सच्चे का मुंह काला था
युवा कवि चिल्लर थे, फिलर की तरह छपतीं उनकी कविताएं
अ-सरकारी संस्थान की पत्रिकाएं सरकार से लेकर पैसा
सरकार के विरोध में कविता-कहानी-लेख छापते
जनता इसी भुलावे में गदगद है कि कुछ लोग उनके पक्ष में बोल रहे हैं
अब, खून नहीं खौलता किसी की सरेआम हत्या पर
बस अख़बार में रिपोर्ट लिखी-पढ़ी जाती है
काली पट्टी बांधकर प्रदर्शन किया जाता है
मोमबत्ती जलाकर जुलूस निकाली जाती है
अंत में सारी घटनाएं एक फिल्म में तब्दील हो जाती हैं
और अंग्रेजी नाम से हिंदी में एक फ़िल्म बनती है
और जनता जनार्दन पापकोर्न खाते हुए
फ़िल्म को हिट कराते हुए घर आते हैं और बिस्तर पर सुख की नींद लेते हैं, पत्नी से चिपककर
इसी समय
नारे की शक्ल में एक छोटे से उत्तर आधुनिक विश्वविद्यालय में दीवारों पर हाथ से लिखी जा रही हैं विद्रोही की कविताएं
(विद्रोहियों की यही नियती है’’ –कहता है एक शोधार्थी)
पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के खिलाफ लगाए जाते हैं नारे क्रांतिकारियों की तरह
और नारे खत्म हो जाने पर अमेरिका-इंग्लैंड में करने पी.एच.डी.
और बहुराष्ट्रीय कंपनियों में करने नौकरी
चले जाते हैं -यहां के ईमानदार छात्र
भोगवाद जीत जाता है नारेवाद के सामने
और इतने तार्किक होते हैं यहां के छात्रा कि
सारी दुनिया में गाड़ आते हैं अपने तर्क के झंडे
विरोध के लिए विरोध होता है इस समय .
(पांच)
इस समय
तेजी से लिपिबद्ध् कर रहा है एक कवि समय को अखबार पढ़-पढ़कर
दूसरा अपने रोज के अनुभवों को डायरी में लिख रहा है
वह कविता नहीं, कविता में डायरी लिख रहा है
नहीं…नहीं…डायरी में डायरी के ढंग की कविता लिख रहा है.
(खैर छोड़िये वह गद्य कविता लिख रहा है)
तीसरा छोटी घटनाओं को छोटे ढंग से लिख रहा है
चौथा बड़ी घटनाओं को बड़े ढंग से लिख रहा है
पांचवा कविता में रोज मरने की बात करता है
छटवां जीने की
सातवां समन्वयवादी होकर क्रातिधर्मिता की
अब तो विज्ञापन की तरह चमकते हैं
सारी चीजों को बचाने की चिंता कविता मे
कोई घर बचाना चाहता है
कोई कुदाल
कोई संबंध बचाना चाहता है
कोई मनुष्यता
कोई शिल्प बचाना चाहता है
कोई कथ्य
कोई अक्ल बचाना चाहता है
कोई नकल
इस समय
मुंह में चांदी का चम्मच लिए
ज्ञान की पीठ पर सवार होकर सारे युवा
अपनी-अपनी महानता का इतिहास
अपनी-अपनी जेबों में लिए टहल रहे हैं
मोक्ष की तलाश में
वह महत्वपूर्ण कविता लिखने वाला कवि
अपने आका के लिए एक पूरी किताब संपादित कर रहा है
पत्नी के लिए फोहश शब्दों का प्रयोग करता है
अपने उम्र और समय से आगे की सोचकर उठाता है कोई भी क़दम
मनोरोग के रोगियों की तरह व्यवहार करता हुआ वह अपने मातहतों से
उन्हें भिखारी समझता
अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी और शुद्ध् हिंदी का उन पर रौब गांठता
प्रतिहिंसा का सुख, उसे बड़ा आनंद देता जीवन के साथ साथ साहित्य में भी
(छै)
इस समय
वादों अर्थात -ब्राह्मणवाद दलितवाद स्त्रीवाद
लालावाद पहाड़ीवाद जनवाद कलावाद दारुवाद आदि से
भरा पड़ा है यह समय
रचनाओं पर होने वाली सारी बहस
प्रतिबद्धताओं से निकलकर वर्णवाद के रास्ते पर चलकर
पूंजीवाद के दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती है.
‘बीच का काई रास्ता नहीं होता’ है के बदले
बीच वाला रास्ता ही सबसे ज्यादा चमक रहा है इस वक्त
भन्नाकर एक सांड बैठ जाता है बीच रास्ते पर
पानी के रंग का छाता लिए एक लड़की चलती चली जाती है चेरापूंजी के रास्ते पर
धूल उड़ाती हुयी एक गाड़ी आती है-जाती है
एक स्त्री एक पुरुष और एक बच्चा सरसों के कटे हुए खेतों से चुपचाप चले चलते हैं
उमस धूल और दूर जाती हुयी ट्रेन की आवाज़
कोई भी थोड़ी देर के लिए कविता में रुककर सुस्ताता नहीं
एक युवा डाक्टरनी सपने में कहती –
‘‘बोलो, बोलो. ऐसी कोई बात है क्या?…..’’
एक हरे पेड़ के बीच, एक हरी चिड़िया बैठी रहती चुपचाप
एक ठस और जड़ होते समय की
सारी ठसक और जड़ता दिखलाई पड़ती
इस जादुई समय के एक जादूगर कवि को
प्रकृति नहीं बदलती अपनी प्रकृति
हम बदल लेते हैं अपनी प्रवृत्ति
ईश्वर बदल रहा है अपना चेहरा
प्रेम बदल रहा है अपना धर्म
कभी दौड़ रहा है चूहों की दौड़ में
कविता, जो एक ख़ूबसूरत प्यारी सी लड़की है
कई कई विज्ञापनों में कर रही है कपड़े उतारने का काम
उसके ब्लाउज़ पर सलमें सितारे जड़ रहा है एक दर्जी
जो शायर भी था किसी जमाने में
वह जान गया था कि शायरी से नहीं चलती रोजी रोटी
फौरी तौर पर वह दर्जी था, बाद में शायर-अदीब
उसी से सीखकर काटना-जोड़ना, उसका शागिर्द चला आया था अदीबों की दुनिया में
कर रहा है उसका नाम रौशन, करके अदीबों की दलाली
तो भईया ! जब कविता से रोजी रोटी नहीं चलती
तो क्रांति कैसे चलेगी.
वह तो दर्जी बनने से ही चलेगी या दलाल बनने से
कपास की खेती करने वालों और जुलाहों की तो हालत बहुत बुरी है
औपनिवेशिक पूंजीवाद के साथ करके गठजोड़
मानवतावादी मुखौटा लगाए बैठ गया है राजगद्दी पर एक दलाल
अर्थशास्त्री’
‘जय हो …’
‘जन गण मन…’ की जगह बन गया है राष्ट्रीय गीत
रोज ही स्वतंत्रता, गणतंत्रता और मानवता का उपभोग करते हैं कुछ विशिष्ट नागरिक
चापलूस दलाल इस अर्थव्यवस्था में
मानवतावादी मुखौटा लगाए पूंजीवाद
इस समय दुनिया का ’बेस्ट सेलेबुल’ दर्शन बन गया है
भूख से बेचैन हो
‘अंधेरे में’ कुछ लोग करवट बदल रहे हैं
दलाल अर्थशास्त्री की प्रयोगशाला में घोषणा करता है एक प्रशासनिक अधिकारी कवि
-‘‘कवि पैदा नहीं, बनाए जाते हैं.
कविता लिखी नहीं, अपनी मोटी पत्रिका में छापी जाती है.’’
दरअसल कविता की स्कूल बनना चाहता है वह कवि
उसके स्कूल का एक छात्र लिखता है
यह कविता –‘‘जमीन पर चल रही थीं चार बत्तखें
तालाब इतने दिनों में जमीन हो गया था
पानी इस संसार से निकलकर ‘बिस्लेरी’ में आ गया था
आंखों में आंसू नहीं पानी है…’’
वह निराला नागार्जुन मुक्तिबोध की तरह कविता लिखना चाहता है
और अ. वा. की तरह जीवन जीना चाहता है
वह कविता में जितना आम आदमी की बात करता है
जीवन में उतना ही कविता की
कुछ और छात्र साधिकार कविता लिखते-छपते-पुरस्कृत होते हैं
बेचारे गरीब छात्र मजबूरी में छपे और सिर्फ प्रशंसित किए जाते हैं
जैसे पूंजीपति हक से लेते हैं करोड़ों करोड़ों रुपये का अनुदान
गरीब खैरात में पाते हैं कुछ हजार-सौ रुपए
‘क्रोध’ जोकर की पोशाक पहने कविता के मंच पर आ रहा है…जा रहा है…
जा रहा है ….आ रहा है…
दरअसल वह भुकभुकिया बत्ती की तरह भुकभुका रहा है
इसी समय
एक आदमी अपना सारा ध्यान कविता पर खर्च कर रहा है
एक आदमी रोजी रोटी पर
उसके पार जनतांत्रिक तानाशाह का दिया हुआ बीपीएल कार्ड है
उसकी आमदनी पिछले कुछ दिनों से बीस रुपये दैनिक से थोड़ी ज्यादा हो गयी है
वह अमीर कैसे बन रहा है इसकी जाँच के लिए
जनतांत्रिक तानाशाह ने बना दी है एक ‘खच्चर समिति’
उससे छीन ली गयी है पच्चीस रु. वाली रेलवे पास
उसे नहीं दिया जाएगा अब तीन रु. किलो गेहूं चावल
हिंद महासागर में फेंक दिए जाएंगे ‘भारतीय खाद्य निगम’ के सड़े हुए अनाज
वह इतना अमीर कैसे हो गया है, चल रही है इसकी जाँच
जरूर इसमें होगा पाकिस्तान का हाथ
आई एस आई से जुड़ा है उसका तार
उसका नाम है मुहम्मद इकबाल
कह रही है सरकार
इसी समय
तय नहीं कर पा रहा है खेत में खड़ा एक किसान
जिस एक किलो अन्न को उगाने के लिए मुझे तीस रु. खर्च करने पड़ते हैं
वह बाजार में सत्ताइस रु. में कैसे मिल जा रहा है
वह मेहनत को खेत में रखकर, आत्महत्या करने चल देता है
उसका बेटा टाटा को पत्र लिखकर ‘नैनो’ लगाने का आमंत्राण दे रहा है
एक देश पेट्रोल के लिए दूसरे देश पर देशद्रोही होने का आरोप लगाता है
पुरानी पीढ़ी से नयी पीढ़ी ज्यादा समझदार है!
किसान से मजदूर होना ज्यादा फायदेमंद है!
‘पूस की रात’ से इस जनवरी की रात ज्यादा मजेदार है!
इसी समय
एक आदमी अंग्रजी में नहीं लिख सकता अर्जी
न कर सकता है दायर जनहित याचिका
वह अब भी डरता है पुलिस वकील सरकार से
न वह कोई फिदा हुसैन है न कोई नसरीन
न वैद है कि उसके लिए जनसत्ता में उठाए कोई आवाज़
वह लिखता है टूटी-फूटी हिंदी में बमुश्किल अर्जी
नहीं समझ पाती उसे सरकार
पहले उसे कविता कहती है
फिर नक्सली साहित्य, जो बहुत खतरनाक है उसके लिए
और पैदा करता है प्रतिरोध्
फिर ‘प्रतिरोध् की संस्कृति’
और प्रतिरोध् की संस्कृति ‘वैकल्पिक संस्कृति’ है
यह ‘वैकल्पिक संस्कृति’ बहुत बहुत बहुत खतरनाक है
इस विचार पर सहमत है पगड़ीवाला
लुंगीवाला सूटवाला और ‘प्रशासनिक कवि अधिकारी’
विश्वबैंक अमेरिका और सरकार भी
(सात)
इसी समय
तीस साल से न्यायाधीश’ की कुर्सी पर बैठा एक ‘ख’ कवि
जो रूस की कलम अमेरिका से खरीदकर
चम्मच शिल्प में लिखता है अपने आका और
उसके आका के बच्चों के लिए कविताएं
घोषणा करता है वहीं बैठे-बैठे – ‘‘व्योम बहुत बड़ा है.
समय करेगा मेरे निर्णयों का हिसाब
किताब के रूप में….’’
और भव्य मंच से गब्बर सिंह की तरह नीचे उतारा गया
एक युवाकवि जिसके पास पूंछ है उसने किया उसका प्रशस्तिपाठ-
‘‘अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया’’
जीवन भर यही किया .
दूसरे को देख-देख जलने को खरे-खरे कहते रहे.
काम-कुंठा-हताशा का यही महाविस्फोट है.
सड़े-गले अंग को गले लगाए घूमते रहे,
यही तुम्हारा दोष है.
‘नदी किनारे सांप है, वही तुम्हारा बाप है .’
‘‘सांप! …कविता में सांप!’’- मैंने कहा
उसने फिर समझाया –
‘‘सांप छछूंदर बिच्छू यह सभी लात वाले जानवर हैं .
यह सिर्फ पांव में ही काटते हैं.
पांव को ही चाटते हैं .
इनका काटना और चाटना दोनो ही खराब है.’’
मैं हैरान और परेशान हूँ, क्या सांप छछूंदर और बिच्छू
सिर्फ कविता-कविता खेलने की चीज हो जाएंगे
युवा कवि खेलेंगे बिच्छू कविता-बिच्छू कविता
छंछूदर कविता-छछूंदर कविता
सांप कविता-सांप कविता
हरा वाला सांप कविता पीला वाला सांप कविता
असर वाला सांप कविता मंगल वाला सांप कविता
और यह सबसे खरा और बड़ा वाला सांप कविता
ले कविता दे कविता
ले दनादन दे दनादन
दे ले ले दे ले दे कविता
इसी समय
राजधानी में हाथी के पांचवे पांव के लिए लड़ रहे थे सारे लोग
यह ‘साहित्य की एक केन्द्रीय समस्या’ थी
जिसके हल हो जाने पर एक ‘बाबा’ हो जाता
बाकी सारे लोग उसका शिष्यत्व ग्रहण कर जय जयकार करने लगते
एक ने हाथ में सांप कविता लेकर घोषणा की
इस बार हाथी का पांचवां पांव मुझे ही मिलना चाहिए
मेरे पास है सबसे खरा और बड़ा वाला सांप
तभी यह रहस्य खुला कि
यह पांचवां पांव हाथी के साथ-साथ उसके बच्चे के पास भी है
जिसके लिए सारे युवा कवि-
सांप को दारु पिला रहे हैं!
प्रशस्तिपाठ कर रहे हैं!
कविता में उनके क्लोन बन रहे हैं!
इसी समय
इस ‘कविता समय’ को
उसकी सारी कोमलताओं में चबा रहा है एक बूढ़ा सांप
एक पूरी पीढ़ी उस सांप के ‘अद्भुत जहर’ में झूम रही है
अवसरवाद की राजनीति अपने चरम पर है
‘जिरहबख़्तर’ ओैर ‘बघनखा’ पहनकर
तभी एक वरिष्ठ कवि ने घोषणा की-
‘‘यह युवाओं का दौर है.
अब युवाओं को संभालनी चाहिये कवि-अध्यक्ष की कुर्सी. ’’
इसी समय
चार रु. किलो खरीद रही है एक लड़की टमाटर
इसे देखकर एक कवि चला गया है मुंबई
एक फ़िल्म की कहानी लिखने
एक राजस्थान में पढ़ाने लड़कियों को
एक मध्यप्रदेश में अधिकारी हो गया है
एक कोलकाता में डेढ़ सौ रु. की दिहाड़ी कर रहा है’’
इसी समय अमेरिका ने घोषणा की
‘‘जो हमारे साथ नहीं, वह दुश्मनों के साथ है.’’
इसी सूत्र वाक्य पर
एक युवा कवि ने लिख मारी एक लंबी कविता
इसी समय
राजधानी का एक युवा कवि बड़ी चिंता से
चांद के सिकुड़ने की ख़बर फोन पर सुना रहा है कस्बे के एक युवा कवि को
वह इंतज़ार कर रहा था कि आज कुछ चिट्ठियां आएंगीं
बहुत दिन हो गये, कोई पोस्टकार्ड नहीं आया
न ही बुक पोस्ट न कुरियर न रजिस्ट्री न अंतर्देशीय
वह इंतज़ार कर रहा है
उस बहुचर्चित बहुपठित और बहुमूल्यित पत्रिका से
जवाब तक नहीं आया कि वे छापेगे उसकी कविताएं
या फिर वापस कर देंगे इस चिट के साथ कि –
उम्र कम है और छपने से ज्यादा लिखने पर दो ध्यान.
उस पाठिका का पत्र भी नहीं आया
जो उसकी कविताएं पढ़ने के लिए पागल हुयी जा रही थी
और आज तक जवाब भी नहीं दिया कि –
‘‘मिल गयी हैं आपकी कविताएं. आपको धन्यवाद. ’’
या और भी कुछ….
जो एक युवा कवि सुनना चाहता है …
कविता के भविष्य पर हुए एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में
राजधानी के एक बड़े कवि ने चाय लेते हुए कहा था-
‘‘बारिश पर अच्छी कविताएं लिखी हैं, आपने.
उस लघु-पत्रिका के कविता विशेष अंक में …’’
बाकी बातें बाद में चाय पी लेने के बाद ….
एक चिट्ठी की उम्मीद उनसे भी कर रहा है वह
उनके पते पर अपनी कुछ और अच्छी कविताएं भेजने के बाद
गांव में रहने वाले उसके पिता, नहीं जानते लिखना-पढ़ना
मां अंगूठा छाप है
छोटा भाई गुजरात से कभी-कभी पड़ौसी के मोबाइल पर उसी तरह करता है फोन
बड़े भाई साहब गुस्सा होते हैं कि घर का पहला लड़का है
जो पढ़ रहा है इतना कलकत्ते में और
कर रहा है पैसा जियान लिख कर कविताएं
वे नहीं जानते कि छप चुकी है उसकी कविता
एक अख़बार में नाम पते और उसके फोटो के साथ
वे टेलिविज़न देखते हैं, अख़बार नहीं पढ़ते
बाकी समय में उन लोगों का दुख ही इतना बड़ा होता है कि
बाकी चीजों पर ध्यान ही नहीं दे पाते
एक चिट्ठी का इंतज़ार वह उनसे भी कर रहा है
दुखों के बीच खुश रहने की एक विशेष कला है उसके पास
जिसे वह, अपनी कविता में लाने की कोशिश कर रहा है लगातार
बस्ती से बंगाल आने के बाद वाले दिनों से
कल ही दीदी का गांव से आया था फोन –
‘‘छुटका आलू एकईस रुपया किलो हो गइल…’’
वह कह नहीं पाया कि –‘‘दीदी हफ्ता भर हो गइल आलू की सब्जी खइले….’’
वह खुश है.
वह निराश हो रहा है देखकर मंहगाई.
वह कई-कई दिनों से कर रहा है एक पत्र का इंतज़ार
इतना जानने वाले हैं उसके, कितना कम जानते हैं उसको
एक पत्र
सिर्फ एक पत्र
और कितना-कितना इंतजार
कितने-कितने पत्रों के बीच
कितने-कितने शहरों और संबंधों के बीच
वह नहीं जानता
इस समय राजधानी का उसका मित्र अमेरिका जाने की सोच रहा है
मोबाइल से निकलकर कंप्यूटर पर लिखी-पढ़ी जा रही है कविता
वहीं भेजा जा रहा है पत्र
लिखा जा रहा है पत्र
चढ़ाया जा रहा है पत्र
उतारा जा रहा है पत्र
ध्वंस किए जा रहे हैं गढ़
बनाए जा रहे हैं मठ
और वह लिख रहा है मित्र को एक पोस्टकार्ड –
‘यार, बहुत दिन हो गए नहीं आया तुम्हारा कोई पत्र.
यार, मिल जाते उन तीन कविताओं के कुछ पैसे ‘तद्भव’ से तो
खरीद लेता मैं भी कुछ और पैसे मिलाकर एक फोन
पड़ौसी बार-बार आना नहीं चाहता अपना मोबाइल आजकल
उसे न आजकल कविताएं अच्छी लगती हैं मेरी, न मैं …खैर छोड़ो
अपना बताओ, आजकल चांद का क्या हाल है और क्या चल रहा है वहां चांद की धरती पर…
इसी समय
ठीक इसी समय
उसे जरूरत है एक पत्र की
कि डाकिया दे जाए उसे एक पत्र
उसके उदास कमरे में एक खिले हुए लाल सुर्ख गुलाब की तरह
(आठ)
इस समय
राजधानी में बैठा एक वरिष्ठ कवि
बतलाता है चरणासीन एक युवाकवि को
‘‘साहित्य में कोई शोर्टकट नहीं होता
वही बचेगा, जो रचेगा
वही रचेगा, जो जीवन में धसेगा’’
और अंधेरे में हुआं…हुआं…शैली में लिखता है कविताएं
उसके सारे गिलास वाले दोस्त-‘‘अहो रूपं अहो ध्वनि’’ शिल्प में
सस्वर करते हैं उसका प्रशस्तिपाठ
ठनठनाकर खड़ा होता है गुस्सा
और शांत हो जाता है अंदर ही
इसी समय
एक और बूढ़ा कवि
हमें, सिपर्फ सोचने के बारे में सुझाव देता है
‘मुट्ठी तानने’ को भी कहता है
लेकिन ‘कांख के ढके रखने’ की भी नसीहत देता है
उसके ज्यादा पढ़े-लिखे से जनता घबराती थी
तर्क तक की बात तो आम जनता भी मान लेती थी
उसके कुतर्क से तो बड़े बड़े मान्यवर तक डरते थे
आखिर हिंसा से ही हारकर तो अशोक बौद्ध बना था
अनैतिकता का प्रश्न हमशा नैतिकता की खाल में ही क्यों प्रकट होता है
अपनी महत्वाकांक्षा की धार पर ही लोग क्यों शहीद होते हैं
देखिए, यह समय प्रतिरोध करने का नहीं
इसी तरह की कविता लिखने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है हमें
नख-दंत-विष विहीन कविताएं
जो कमरे के न्योन लाइट में बैठकर लिखी जाएंगी
न्योन लाइट में बैठकर पढ़ीं
जिसे राजधानी का एक युवा कवि
हाथ में एक लिजलिजे सांप की तरह लेकर फुफकारेगा….
अर्थात…
यह सांप कविता होगी
जो सिर्फ फिसफिसाएगी, काट नहीं पाएगी….!
बजार में इक्कीस रु किलो आलू है
छत्तीस रु किलो प्याज
तैंतीस रु किलो चावल है
चैबीस रु किलो आटा
साठ रु किलो चीनी है
नब्बे रु किलो दाल
एक आदमी आराम से खरीदेगा, मुस्कुराएगा, घर आएगा
खा-पीकर इतमीनान से पढ़ेगा किसी पत्रिका में छपी-‘एक कविता’
और फिर सो जाएगा……
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संपर्क-
निशांत
द्वारा/ बिजय कुमार साव
128 पेरियार हास्टल, जे एन यू नयी दिल्ली-67
09868099983