यह इस देश की बहुत बड़ी विडंबना है कि यहाँ अपनी ही भाषा को अपनी जगह तलाशनी पड़ती है और उसे किसी परायी भाषा के सामने बार-बार अपनी काबिलियत का इम्तिहान देना पड़ता है. जी हाँ, हिंदुस्तान में ही हिंदी को बार-बार उसकी औकात बताई जाती है और अंग्रेजी को हर बार ज्यादा काबिल करार दिया जाता है! यह तो सर्वविदित है कि इस देश का अंग्रेजीदाँ तबका, शासन-प्रशासन और शिक्षा-तंत्र पर हावी अंग्रेजीदाँ लॉबी और अंग्रेजी मीडिया अंग्रेजी को अनिवार्य, अपरिहार्य, सर्वश्रेष्ठ भाषा और संवाद-संपर्क-संचार का सर्वप्रिय-सर्वस्वीकार्य माध्यम बताने और इसके मुकाबले हिंदी को निरर्थक-नकारा-अयोग्य ठहराने की कुचेष्टा में कभी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती. लेकिन इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि यहाँ हिंदी की खाने वाले ही हिंदी को दिन-रात गरियाते फिरते हैं और हिंदी की ऐसी-तैसी करते रहते हैं. ये हिंदी वाले ही हैं जो हिंदी को \’नौकरानी\’ से लेकर \’मेहतरानी\’ तक कहने से गुरेज नहीं करते. महाविद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में हिंदी की अध्यापकी-प्रोफेसरी करने वाले और हिंदी में साहित्य-सृजन कर नाम और शोहरत, पद और पुरस्कार कमाने वाले अधिकांश छोटे-बड़े साहित्यकारों तक ने हिंदी को वह सम्मान नहीं दिया जिसकी वह हकदार रही तो बाकी से शिकवा ही क्या करे. हिंदी के अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में काम करने वाले तमाम बुद्धिजीवियों और हिंदी की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के तमाम संपादकों ने भी हिंदी को कहाँ बख्शा?
हिंदी के लब्धप्रतिष्ठित कवि (स्व.) रघुवीर सहाय ने तो \’हमारी हिंदी\’ शीर्षक कविता में हिंदी को \’दुहाजू की नई बीवी\’ तक कह डाला! 1957 में रची गई इस कविता की आरंभिक पंक्तियाँ ही स्पष्ट कर देंगी कि वह हिंदी को किस तरह देखते थे-
हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है
बहुत बोलने वाली, बहुत खाने वाली, बहुत सोने वाली
गहने गढ़ाते जाओ
सर पे चढ़ाते जाओ
वह मुटाती जाए
पसीने से गंधाती जाए
घर का माल मैके पहुँचाती जाए
पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े.
ठीक इसी तर्ज पर हिंदी के युवा कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी भी \’सरकारी हिंदी\’ शीर्षक अपनी कविता में हिंदी के बारे जो मंतव्य देते हैं, उसे पूरा-पूरा समझने के लिए उनकी इस कविता को यहाँ पूरी की पूरी उद्धृत करना अत्यंत अनिवार्य होगा। जरा देखिए, वे क्या फरमाते हैं-
डिल्लू बापू पंडित थे
बिना वैसी पढ़ाई के
जीवन में एक ही श्लोक
उन्होंने जाना
वह भी आधा
उसका भी वे
अशुद्ध उच्चारण करते थे
यानी ‘त्वमेव माता चपिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश चसखा त्वमेव’
इसके बाद वे कहते
कि आगे तो आप जानते ही हैं
गोया जो सब जानते हों
उसे जानने और जनाने में
कौन-सी अक़्लमंदी है?
इसलिए इसी अल्पपाठ के सहारे
उन्होंने सारे अनुष्ठान कराये
एक दिन किसी ने उनसे कहा:बापू, संस्कृत में भूख को
क्षुधा कहते हैं
डिल्लू बापू पंडित थे
तो वैद्य भी उन्हें होना ही था
नाड़ी देखने के लिए वे
रोगी की पूरी कलाई को
अपने हाथ में कसकर थामते
आँखें बन्द कर
मुँह ऊपर को उठाये रहते
फिर थोड़ा रुककर
रोग के लक्षण जानने के सिलसिले में
जो पहला प्रश्न वे करते
वह भाषा में
संस्कृत के प्रयोग का
एक विरल उदाहरण है
यानी ‘पुत्तू. क्षुधा की भूख
लगती है क्या?’
बाद में यही
सरकारी हिंदी हो गयी.
देश की आजादी के सड़सठ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में सुदूर अतीत और सद्य: वर्तमान से लिए गए ये मात्र दो उद्धरण यह बताने के लिए काफी हैं कि हिंदी वाले ही हिंदी के बारे में क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं. लेकिन हिंदी साहित्य में ऐसे उदाहरणों की भरमार है जिसमें हिंदी के अध्यापन से लेकर हिंदी में सृजन-संपादन कर्म से जुड़े तमाम लोगों ने यानी हिंदी की रोटी खाने वाले तमाम बुद्धिजीवियों ने ही हिंदी के बारे में बहुत हताशाजनक और लगभग अपमानजनक बातें बहुत हास्यास्पद ढंग से और बहुत हिकारत से कही हैं. मानो सरकारी तंत्र में हिंदी के काम में लगे सब के सब मूर्ख, जाहिल, गँवार ही हों, और जिन्हें न तो ठीक से संस्कृत ही आती है और न ही ठीक से हिंदी. उन्हें अंग्रेजी आने का तो सवाल ही नहीं उठता. उनका परोक्ष या प्रत्यक्ष लेकिन स्पष्ट आशय यही है कि सरकारी कामकाज में इस्तेमाल हो रही हिंदी यानी राजभाषा हिंदी और इसकी तथाकथित दुर्दशा में अंग्रेजी से ओतप्रोत सरकारी तंत्र से कहीं ज्यादा जिम्मेदार तो उस तंत्र में बैठे ये कूढ़मगज हिंदी वाले हैं, जो हिंदी के नाम पर मजे से रोटी तोड़ रहे हैं यानी काम के न काज के, दुश्मन अनाज के! हिंदी वाले यानी राजभाषा/हिंदी अधिकारी, हिंदी अनुवादक आदि-आदि और राजभाषा हिंदी के काम से जुड़ा पूरा का पूरा महकमा वगैरह-वगैरह.
यहाँ मौजूँ सवाल यह है कि आखिर ये सब के सब हिंदी की खाने वाले लेकिन हिंदी को ही गरियाने वाले लोग आखिर किस हिंदी को हिकारत से देख रहे हैं और किस हिंदी की तथाकथित दुर्दशा पर घड़ियालू आँसू बहा रहे हैं? क्या सरकारी तंत्र में जो हिंदी चलती है, उस सरकारी हिंदी पर? क्या जनता जो हिंदी बोलती है, उस बोलचाल की हिंदी पर? क्या जो हिंदी विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यायों में विद्यार्थियों-शोधार्थियों को पढ़ाई-लिखाई जाती है, उस अकादमिक हिंदी पर? क्या जो हिंदी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छपती है, उस साहित्यिक हिंदी पर? क्या जो हिंदी साहित्यिक रचनाओं में लिखी जाती है, उस सर्जनात्मक हिंदी पर? क्या जो हिंदी लुग्दी साहित्य में लिखी जाती है, उस चालू हिंदी पर? क्या जो हिंदी अखबारों में छपती है, उस अखबारी हिंदी पर? क्या जो हिंदी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बजती है, उस \’रीमिक्स\’ हिंदी पर? क्या जो हिंदी विज्ञापनों में इतराती-इठलाती है, उस चटपटी हिंदी पर? क्या जो हिंदी बाजार बरतता है, उस बाजारू हिंदी पर? क्या जो हिंदी मुंबइया फिल्मों में मटकती है, उस टपोरी हिंदी पर?
यदि ये सरकारी हिंदी यानी राजभाषा हिंदी को हिकारत से देख रहे हैं और उसपर निर्लज्ज फब्तियाँ कस रहे हैं तो वे कृपया बताएँ कि उन्हें इस राजभाषा हिंदी से क्या-क्या शिकायतें हैं। और यदि इतनी सारी शिकायतें हैं और माना कि इनमें से कुछेक शिकायतों में कुछ दम है तो क्या उन्होंने कभी बेहद ईमानदारी से और निष्ठापूर्वक इस राजभाषा हिंदी की इन कमियों-खामियों को दूर करने-करवाने का गंभीर प्रयास किया? कभी एकजुट होकर, संगठित होकर सरकार को कभी कोई ज्ञापन भेजा? धरना-प्रदर्शन-आंदोलन किया? कभी एकजुट होकर, संगठित होकर \”अंग्रेजी हटाओ-हिंदी लाओ-हिंदी बचाओ\” जैसा नारा लगाया? जन-आंदोलन किया? चलिए, आप तत्काल कहेंगे कि अजी, ये हमारा काम नहीं है! तो चलिए, आपसे पूछता हूँ, आप तो सरकारी हिंदी यानी राजभाषा हिंदी और राजभाषा हिंदी वालों को तो भरदम गरियाते हैं लेकिन आप जिस महाविद्यालय-विश्वविद्यालय में हिंदी उर्फ साहित्यिक हिंदी पढ़ाते हैं, उस महाविद्यालय-विश्वविद्यालय में आपकी वाली हिंदी का क्या हाल है? क्या आपकी वाली हिंदी के विद्यार्थियों-शोधार्थियों की संख्या दिन-दुनी, रात-चौगुनी बढ़ती ही जा रही है और ऐसे शिक्षा संस्थानों में आपकी वाली हिंदी का दर्जा और दबदबा आसमान छूने लगा है? या फिर वहाँ भी आपकी वाली हिंदी का खस्ता हाल ही है? क्या वहाँ भी आपकी वाली हिंदी को बाकी लोग भाव नहीं दे रहे हैं और वहाँ भी जो विद्यार्थी-शोधार्थी आपकी वाली हिंदी आपसे पढ़ रहे हैं, उनमें से अधिकांश खुल्लमखुल्ला यही बोल रहे हैं कि अरे, कहीं और एडमिशन नहीं मिला तो यहाँ आ गया! यहाँ कंपीटिशन कम है न! और यह भी तो सच है न कि आपसे से ही आपकी वाली हिंदी ही पढ़कर आपके ही कई विद्यार्थी-शोधार्थी सरकारी हिंदी की सेवा में भी बहाल होते हैं!
आप यह भी तो बताएँ कि हिंदी की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में जो हिंदी छपती है, यदि वह बहुत जनप्रिय, लोकप्रिय, सहज-सुग्राह्य वगैरह-वगैरह है तो फिर आप हिंदी की इन साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के पाठकों के लगातार कम होते जाने का रोना क्यों रोते रहते हैं? इन अपरिहार्य पत्र-पत्रिकाओं के लगातार बंद(?) होते जाने का रोना क्यों रोते रहते हैं? जबकि अखबारी हिंदी छापकर हिंदी के अखबार लगातार अपने पाठकों की संख्या दिन-दुनी, रात-चौगुनी बढ़ाए जा रहे हैं और नगर-नगर नए-नए संस्करण निकाले जा रहे हैं. हिंदी के न्यूज और बिजनेस चैनल अपनी \’रिमीक्स\’ हिंदी बोलकर ही अपनी \’व्यूअरशिप\’ बढ़ाए जा रहे हैं! और तो और, डिस्कवरी चैनल, ज्योग्राफिक चैनल, स्टार स्पोर्ट्स चैनल जैसे विदेशी चैनल भी अपनी अच्छी हिंदी बोलकर भारत में हिंदी संस्करण धड़ल्ले से चला रहे हैं और वाहवाही पा रहे हैं. इसपर आप तपाक से कहेंगे- अरे, हम भी तो यही चाहते हैं कि हमारी हिंदी डिस्कवरी चैनल वाली हिंदी जैसी हो! अरे, क्या गजब की हिंदी बोलते हैं उसमें. तो मैं भी तपाक से आपसे पूछ लेना चाहता हूँ कि फिर आप सीएनबीसी आवाज वाली \’रीमिक्स\’ हिंदी पर क्यों बिफर जाते हैं? और फिर ये \’दिल माँगे मोर\’ वाली विज्ञापनी हिंदी पर आप क्यों चहक उठते हैं कि देखो, बाजार का काम भी हिंदी फेंटे बिना नहीं चलता?
आप जरा यह भी बता दें कि कविता की किताबें तो छोड़िए, साहित्य में अपेक्षाकृत अधिक पठनीयता और लोकप्रियता का दमखम भरने वाले और \’बेस्टसेलर\’ होने का दावा करने वाले उपन्यास और कहानियों की किताबें भी बिक्री में सैंकड़ों का आँकड़ा भी पार नहीं कर पाती हैं जबकि आपकी नजर में लुग्दी साहित्य, रद्दी साहित्य, घटिया साहित्य कहलाने वाले \’वर्दी वाला गुंडा\’ टाईप उपन्यास धड़ल्ले से लाखों की संख्या में क्यों बिक जाते हैं? क्या आपके वाले गंभीर साहित्य में जो हिंदी है, वह जनता से कटी हुई है और यह जो \’वर्दी वाला गुंडा\’ टाईप घटिया साहित्य में जो हिंदी है, वह जनता को बहुत पसंद है, प्रिय है? आप कहेंगे कि यह विषयांतर है और ये सब अप्रासंगिक तर्क हैं, कुतर्क है.! आप तो कहेंगे कि राजभाषा हिंदी की बात कीजिए! सरकारी हिंदी की बात कीजिए. सरकारी हिंदी जनता से इसलिए नहीं जुड़ पा रही है कि क्योंकि वह सहज नहीं है, सरल नहीं है. वह बोलचाल की हिंदी नहीं है. वह संस्कृतनिष्ठ हिंदी है, भारी-भरकम हिंदी है, अनुवाद की हिंदी है, वगैरह-वगैरह! चलिए, राजभाषा हिंदी पर आऊँ, इससे पहले मैं बस आपसे बेहद विनम्रतापूर्वक एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि आपके साहित्य में आलोचना की हिंदी कैसी है? आपके साहित्य में शोध की हिंदी कैसी है? क्या यह बहुत सरल-सहज हिंदी है? क्या यह लंबे-लंबे, लच्छेदार, घुमावदार, उलझाऊ वाक्यों वाली और अंतत: अनुवाद की हिंदी नहीं है? यह संस्कृतनिष्ठ हिंदी नहीं है? यह जनता से कटी हिंदी नहीं है? आप कहेंगे कि यह कविता-कहानी थोड़े न है. यह आलोचना है, शोध है तो इसकी हिंदी तो गंभीर होगी ही! इसमें अनेक संदर्भ, उद्धरण, सिद्धांत, परिभाषाएँ, संस्थापनाएँ, संकल्पनाएँ, अवधारणाएँ इत्यादि-इत्यादि होती हैं तो इसकी हिंदी थोड़ी क्लिष्ट-जटिल तो होगी ही.
फिर श्रीमान, आप राजभाषा हिंदी में सोलह आने सहजता-सरलता की अपेक्षा क्यों कर रहे हैं? यहाँ भी तो आदेश, ज्ञापन, निर्णय, नियम, उप-नियम, विनियम, अधिनियम, कानून, विधि, प्रावधान, राजपत्र, परिपत्र, शुद्धिपत्र, प्रतिवेदन, विज्ञप्ति, अनुज्ञप्ति, निविदा, संविदा, समझौते, करार, प्रणालियाँ, पद्धतियाँ, प्रक्रियाएँ, संहिताएँ, कार्रवाई, सिद्धांत, सूचना, अधिसूचना, प्रतिसूचना, संकल्पनाएँ, विधान-संविधान इत्यादि-इत्यादि होते हैं! ये सब भी तोता-मैना की कहानियाँ तो नहीं ही होते. ये सब के सब तथ्य और कथ्य में गूढ़-गंभीर ही नहीं, बल्कि तकनीकी और कानूनी निहातार्थों से आदि से अंत तक लैस होते हैं! तो इसकी हिंदी भी तो थोड़ी जटिल होगी न. और आप यह तो मानेंगे न कि शासन-प्रशासन में अब भी लिखा-पढ़ी का मूल कार्य अंग्रेजी में ही होता है. और आप यह भी तो मानेंगे न कि इस अंग्रेजी की बनावट-बुनावट कितनी जटिल होती है! आप यह भी तो मानेंगे ही न कि हमारे देश में शासन-प्रशासन के सभी नियम-कायदे अब भी ब्रिटिश शासन काल के ही हैं जिनमें कमोबेश कोई खास फेर-बदल अब तक नहीं हुआ है.
लेकिन इसके बावजूद यह बहुत संतोषजनक और सुखद बात है कि यह अंग्रेजी भी लैटिन इंगलिश, विक्टोरियन इंगलिश, क्वीन्स इंगलिश, ब्रिटिश इंगलिश, मॉडर्न इंगलिश आदि पड़ावों को पार करते हुए अब इंडियन इंगलिश तक पहुँच गई है और यह अंग्रेजी अब अपने लंबे-लंबे वाक्यों, लैटिन-फ्रेंच-ग्रीक पदावलियों-शब्दावलियों और लच्छेदार, घुमावदार, पेंचदार, मगजमार बुनावट-बनावट से बाहर आने की भरसक कोशिश कर रही है, खुद को छोटे-छोटे, सहज-सरल वाक्यों और मॉडर्न-क्रिस्पी-क्रंची-स्ट्रेट इंगलिश के शब्दों-पदों से खुद को लैस कर रही है और दुहराव-तिहरावग्रस्त शब्दों, वाक्यों और विन्यासों से खुद को मुक्त कर रही है ताकि यह शासन-तंत्र और बाजार में आ रहे बदलावों के दौर में अपने पाँव टिकाए रख सके.
यदि अदालतों में और वकीलों द्वारा अब भी कमोबेश लिखी जा रही, बाबाआदम जमाने से चली आ रही कानूनी-अदालती अंग्रेजी को छोड़ दें तो यह मानना पड़ेगा कि आज की अंग्रेजी बहुत चुस्त-दुरूस्त, संक्षिप्त और मितव्ययी हो गई है. यही कारण है कि अब अंग्रेजी में भी \”It is informed\” की जगह \”We inform\” का चलन बढ़ने लगा है और कर्म वाच्य (Passive voice) की बजाय, कर्तृ वाच्य (Active voice) में बातें कहने यानी \’कम्युनिकेट\’ करने का चलन जोर पकड़ने लगा है। लेकिन यह बदलाव अंग्रेजी में धीरे-धीरे आ रहा है और सरकारी व्यवस्था और ढाँचे में इसे पूरी तरह बदलने में थोड़ा वक्त तो लगेगा। जहाँ तक राजभाषा हिंदी का सवाल है तो इस मामले में यानी अपने को चुस्त-दुरूस्त, सरल-सहज-पठनीय बनाने में राजभाषा हिंदी यानी सरकारी हिंदी सरकारी अंग्रेजी से बहुत आगे निकल गई है और वह बोलचाल की हिंदी के बहुत करीब आ गई है. लेकिन इसके बावजूद अब भी समस्या यह है कि राजभाषा अधिनियम के मुताबिक हिंदी में मूल पत्राचार, टिप्पण, प्रारूपण आदि करने के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद, शासन-प्रशासन में बैठे हिंदीभाषी क्लर्क से लेकर शीर्ष पर विराजमान अधिकारी-उच्चाधिकारी तक सहूलियत और कानूनी-तकनीकी सावधानी-सतर्कता बरतने की आड़ में हिंदी में मूल कार्य नहीं करते हैं और उनका सारा कार्य पीछे से पीछा करती या पीछे से जबरन आगे लाई गई अंग्रेजी में होता है.
ऐसे में राजभाषा नीति, राजभाषा अधिनियम और राजभाषा नियम के अनुपालन हेतु मूलत: अंग्रेजी में लिखे गए इन दस्तावेजों का हिंदी में अनुवाद ही करना पड़ता है. और अनुवाद की हिंदी में, चाहे लाख कोशिश कर लें, वह स्वाद और रवानियत तो नहीं ही आएगी, जो मूल रूप से हिंदी में तैयार दस्तावेज में होती। यहाँ अनुवादक, लाख चाहे, इस सरकारी दस्तावेज के अंग्रेजी पाठ के पुर्नसृजन की पूरी छूट कतई नहीं ले सकता. वह बस यही और इतना ही कर सकता है कि अपने हिंदी अनुवाद को भरसक सरल, सहज, सुग्राह्य और पठनीय बनाए। अपने अनुवाद में अंग्रेजी के बड़े-बड़े वाक्यों को हिंदी के छोटे-छोटे, सहज-सरल वाक्यों में तोड़कर, अधिकाधिक प्रचलित-स्वीकृत शब्दों और बोलचाल के शब्दों को इस्तेमाल कर वह ऐसा करता भी है.
लेकिन यदि आप कहें कि वह राजभाषा हिंदी में, सरकारी कामकाज में \’letter\’ को \’पत्र\’ की जगह \’पाती\’ लिखे, \’Correspondence\’ को \’पत्राचार\’ की जगह \’चिट्ठी-पतरी\’ लिखे, \’Dance & Music\’ को \’नृत्य-संगीत\’ की जगह \’नाच-गाना\’ लिखे, \’Dance & Drama\’ को \’नृत्य एवं नाटक\’ की जगह \’नाच-नौटंकी\’ लिखे, \’Order\’ को \’आदेश\’ की जगह \’फरमान\’ लिखे, \’आवेदन\’ को \’अर्जी\’ और \’आवेदक\’ को \’अरजदार\’ लिखे या इसी तर्ज पर सबकुछ तो बोलचाल की हिंदी के नाम पर यह न केवल भाषा का मजाक बनाना होगा बल्कि एक सुपरिभाषित कार्यपद्धति और प्रणाली का भी अपमान होगा क्योंकि हरेक \’सिस्टम\’ का एक \’डेकोरम\’ होता है और हरेक क्षेत्र-विशेष (यथा, बैंकिंग, प्रशासन, विज्ञान, विधि, अनुसंधान, उड्डयन, प्रौद्यगिकी, चिकित्सा आदि-आदि) में प्रयुक्त होने वाली भाषा की अपनी एक विशिष्ट शब्दावली और पदावली होती है, उसका अपना एक \’डिक्शन\’ होता है, अपना एक \’लिंग्विस्टिक-रजिस्टर\’ (विशिष्ट शब्द-चयन एवं लेखन-शैली) होता है, जैसे जुडिशियरी का रजिस्टर, एडमिनिस्ट्रेशन का रजिस्टर, साइंस का रजिस्टर, मेडिसिन का रजिस्टर आदि-आदि. और इसी दायरे में रहकर अनुवादक को अनुवाद करना होता है ताकि पाठ की, कथ्य की, तथ्य की और विषय की न केवल प्रमाणिकता वरण् उनका और उसमें प्रयुक्त भाषा का सौंदर्य और सामर्थ्य दोनों ही बना रहे। उदाहरण के लिए, किसी अपराध अण्वेषण विभाग की एक रिपोर्ट का एक छोटा-सा वाक्य ही ले लें: \’The evidence was doctored.\’ यहाँ \’doctored\’ की जगह \’altered\’ का प्रयोग सटीक नहीं होता क्योंकि यह उनका मानक और तकनीकी शब्द-चयन है क्योंकि यह कई सारे कानूनी पेंच और कानूनी विश्लेषण का मामला है। इसी तरह चिकित्सा का और एक सामान्य वाक्य लें: \’The injection was administered.\’ यहाँ \’administered\’ की जगह \’given\’ का प्रयोग सटीक नहीं होता.
ठीक इसी तरह राजभाषा हिंदी में भी \”आपको सूचित किया जाता है\” को \”आपको बताया/बोला/कहा जाता हैं\” लिखना सटीक नहीं होगा. लेकिन इतनी सारी भाषाई, तकनीकी, कानूनी, प्रशासनिक जटिलताओं के बावजूद, सरकारी कामकाज में जो हिंदी इस्तेमाल हो रही है, वह अंग्रेजी पाठ के मुकाबले कहीं अधिक जल्दी से समझ में आ जाने वाली और सहज-संप्रेष्य है। यहाँ युपीएससी की आरंभिक परीक्षा-2014 के प्रश्न पत्र में दिए गए विवादित हिंदी पाठ/रूपांतर/अनुवाद का उदाहरण देना इसलिए उचित और विवेकसम्मत नहीं होगा क्योंकि संभवत: वह अंग्रेजी पाठ का भावानुवाद भी न होकर, महज शब्दानुवाद भर था, जिसे किसी नौसिखिए अनुवादक ने ही किया होगा. कोई मंजा हुआ अनुवादक इसके हिंदी पाठ में कम से कम इतने लंबे-लंबे वाक्यों का इस्तेमाल करने से जरूर बचता और भाषा में सहज प्रवाह जरूर बनाए रखता. यहाँ सवाल यह भी है कि यह कैसे मान लिया जाए कि यह किसी सरकारी अनुवादक द्वारा किया गया अनुवाद ही था। यह आउटसोर्सिंग का एक चौंकाऊ नतीजा भी हो सकता है, क्योंकि बाजार में गूगल ट्रांसलेशन जैसी कई फौरी ऑनलाइन तकनीकों का भी बोलबाला है, जहाँ अनुवाद में ढेरों सुधार-संशोधन की भारी दरकार रहती है! वैसे भी जिस अखिल भारतीय स्तर की परीक्षा से हिंदी भाषा को बाहर निकाल फेंकने की कुचेष्टा हो रही हो, वहाँ यह हिंदी में उत्तर देने वालों और प्रश्न-पत्रों के हिंदी अनुवाद के स्तर और गुणवत्ता की सहज उपेक्षा का लापरवाही भरा मामला भी तो हो सकता है.
जहाँ तक सरकारी अनुवादकों की योग्यता-अयोग्यता का मामला है तो वे एक मानक और विस्तृत परीक्षा-साक्षात्कार इत्यादि से गुजरकर ही चुने जाते हैं। लेकिन इसके वावजूद हरेक अनुवादक की योग्यता अलग-अलग तो होगी ही। यहाँ उनका कार्यानुभव, पठन-पाठन, रुचि-अभिरूचि इत्यादि जैसे कारक ही उनके अनुवाद को निखारेंगे. तब भी यह कहा जा सकता है कि जैसे हिंदी साहित्य में हरेक कवि मुक्तिबोध और निराला नहीं है, हरेक कथाकार या उपन्यासकार प्रेमचंद या चंद्रधर शर्मा गुलेरी नहीं है, ठीक वैसे ही अनुवाद कार्य करने वाला हरेक सरकारी या गैरसरकारी अनुवादक भी एक जैसा नहीं होता और एक ही अंग्रेजी पाठ का हिंदी अनुवाद अनिवार्यत: एक जैसा नहीं होता। उदाहरण के लिए, \’Friends and Foes\’ को कोई \’मित्र एवं शत्रु\’ लिखेगा तो कोई \’दोस्त और दुश्मन\’! यह मूल पाठ की प्रकृति, भौगोलिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, संदर्भ, प्रसंग, लक्ष्य पाठक-वर्ग इत्यादि जैसे अनेक कारकों पर भी निर्भर करता है.
जहाँ तक राजभाषा हिंदी पर भारी-भरकम, तत्सम और संस्कृतनिष्ठ हिंदी होने का आरोप है तो यह निराधार आरोप है। राजभाषा हिंदी में बोलचाल की हिंदी और सभी को सरलता से समझ में आ जाने वाले शब्दों तथा समाज में प्रचलित और रूढ़ हो चुके शब्दों का भरपूर प्रयोग किया जाता है, जिसमें उर्दू, फारसी, अरबी शब्दों की भी बहुतायत बनी रहती है। उदाहरण के लिए, इस्तेमाल (उपयोग), फैसला (निर्णय), तारीख (दिनांक), तबादला (स्थानांतरण), किफायती (मितव्ययी), मियाद (समयसीमा), सिफारिश (अनुशंसा), मंजूरी (स्वीकृति), जवाब (उत्तर), हाजिरी (उपस्थिति), देरी (विलंब), गलती (त्रुटि), छुट्टी (अवकाश), हक (अधिकार), सबूत (साक्ष्य), मसौदा (प्रारूप), कारोबार (व्यवसाय), रकम (राशि), नकदी (रोकड़), खर्च (व्यय), कीमत (मूल्य), बदलाव (परिवर्तन), अदला-बदली (विनिमय), असर (प्रभाव), मुफ्त (नि:शुल्क), खिलाफ (विरूद्ध), फीसदी (प्रतिशत), खामियाँ (त्रुटियाँ), गड़बड़ी (विसंगति), हर्जाना (क्षतिपूर्ति), खबर (समाचार), पुश्तैनी (पैतृक), सालाना (वार्षिक), खातेदार (खाताधारक) आदि-आदि जैसे सैकड़ों शब्द हैं जो सरकारी पत्राचार में उनके संस्कृत पर्यायों के बदले बेधड़क इस्तेमाल हो रहे हैं.
इसके अलावा बढ़त, खपत, लागत, सौदा, लेनदेन, कर्ज, बीमा, बहाली, वायदा, जायजा, गिरावट, मंदी, हुंडी, घरेलू, लिखत, महंगाई, मंदड़िया, तेजड़िया, सटोरिया, सर्राफा बाजार, सट्टा बाजार, वायदा बाजार, शेयर बाजार, जोखिम, रुख, रियायत, तैनाती, कटौती, चुकौती, उधार, उधारी, वसूली, अदायगी, उगाही, बकाया, खरीद-बिक्री, मुनाफा, मुनाफाखोरी, फायदा, फायदेमंद, नुकसान, नुकसानदेह, नीलामी, दिवालिया, लेनदार, देनदार, कागजात, दस्तावेज, सुपुर्दगी, बरामदगी, बर्खास्तगी, जमाबंदी, बंदोबस्ती, बंधुआ, छूट, शर्त, पाबंदी, मझौला, रखरखाव, खराबी, भाड़ा, माल, लदान, खेप, दिहाड़ी, रोजाना, मजूरी, मजदूरी, मियादी, बेमियादी, किस्त, कब्जा, औजार, दस्तखत, दस्तकारी, काश्तकारी, मंडी, जमीन, बेचान, ठेका, जायदाद, हाशिया, हकदार, गुंजाइश, एकमुश्त, एकबारगी, दावा, मुआवजा, इलाज, महकमा, कारखाना, हासिल, हैसियत, सहूलियत, वसीयत, विरासत, सुनवाई, गवाह, गवाही, फर्जी, जाली, नकली, फरार, कमी-बेशी, घट-बढ़, भूल-चूक, उतार-चढ़ाव, हिसाब-किताब, खाता-बही, खरीद-फरोख्त, फेर-बदल, आवाजाही, आवक-जावक, कामकाज, खाता, जमा, चालू खाता, बचत खाता, लागू, निपटान, निगरानी, वापसी, ढाँचा, पर्ची, पट्टा, सट्टा, सुलह, खोया-पाया, दाखिल-खारिज, बयान, बयानबाजी, पेशी, पेशगी, पेशकार, हवलदार, चौकीदार, फौज, फौजदार, फौजदारी, मुकदमा, मामला, अर्दली, दफ्तरी, फर्राश, अफसर आदि-आदि जैसे जुबान पर चढ़े हजारों शब्द हैं जो सरकारी कामकाज में खूब इस्तेमाल होते हैं और प्रशासनिक शब्दावली, बैंकिंग शब्दावली आदि में बाकायदा दर्ज हैं.
इतना ही नहीं, सूचना प्रौद्योगिकी, बैंकिंग आदि जैसे तेजी से बढ़ते क्षेत्रों के सैकड़ों-हजारों शब्द अपने मूल रूप में ही रोजाना सरकारी कामकाज की हिंदी में सहज शामिल और स्वीकृत हुए जा रहे हैं। जैसे- मोबाइल बैंकिंग, कोर बैंकिंग, नेट बैंकिंग, एटीएम, मोबाइल, एप्प, सॉफ्टवेयर, हार्डवेयर, मदरबोर्ड, कीबोर्ड, माऊस, पेनड्राइव, पोर्ट, केबल, डोमेन, इनपुट, आऊटपुट, डाउनलोड, प्रिंटआउट, केबल, इंटरफेस, डिजिटल, इलेक्ट्रॉनिक, नेटवर्क, ई-मेल, इंटरनेट, एसएमएस, सर्फिंग, बॉन्ड, बिल, शेयर, इक्विटी, डिबेंचर, स्टॉक, ट्रेडिंग, रेटिंग, होल्डिंग, मार्जिन, एक्सपोजर, स्प्रेड, ब्रांड, ब्लू चिप, टैरिफ, गारंटी, वारंटी, डेबिट/क्रेडिट कार्ड, कूपन, बायोमेट्रिक, सिंगल विंडो, आउटसोर्सिंग, किऑस्क, काउन्टर, चेक, ड्राफ्ट, ओवरड्राफ्ट, डीमैट, कैलेंडर, कंपनी, एजेंसी, एजेंट, मल्टीप्लेक्स, जेनरेटर, काउंटर, चेक-इन, बोर्डिंग पास, ई-टिकट, पासपोर्ट आदि-आदि। ऐसा नहीं हैं कि इन शब्दों के समर्थ हिंदी पर्याय नहीं हैं (यथा, कीबोर्ड: कुंजीपटल, केबल: तार, डोमेन: क्षेत्र, टैरिफ: दर, इनपुट: निविष्टि, आऊटपुट: परिणाम/परिमाण, पासपोर्ट: पारपत्र, जेनरेटर: जनित्र आदि) या इनके समर्थ पर्याय बनाना संभव नहीं है. लेकिन भाषा में सहजता बनाए रखने की गरज से इन शब्दों को यथावत इस्तेमाल को खूब बढ़ावा दिया जा रहा है.
लेकिन हिंदी में ऐसे भी हजारों-हजार शब्द हैं जो पारिभाषिक, अवधारणा-मूलक, प्रक्रियामूलक या क्रियात्मक आदि जैसी प्रकृति के हैं और हिंदी में जिनके अत्यंत सुपरिभाषित, सुविचारित और सर्वस्वीकृत रूप लंबे समय से प्रचलित हैं. इन शब्दों को संस्कृतनिष्ठ, भारीभरकम और अपरिचित-अनजाना कहकर खारिज करना निरा अज्ञानता है और इनको इसी आधार पर इस्तेमाल से बाहर बनाए रखना और इनकी जगह इनके अंग्रेजी शब्दों को चुनना-चलाना चरम हठधर्मिता है। भारत सरकार के वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग ने तो पाँच लाख से अधिक अंग्रेजी शब्दों के समर्थ हिंदी पर्याय तैयार किए हैं, जो न केवल सहज-सरल-सुग्राह्य हैं बल्कि जहाँ एक अंग्रेजी शब्द के यथासंभव अर्थ और अर्थ-छटाएँ दी गई हैं. लेकिन लोग इसे महज सरकारी शबदवली बोलकर खारिज कर देते हैं, जो एक बेहद बचकाना नजरिया और गैरजिम्मेदाराना रवैया है। आप उसे देखें तो सही। यदि आप इन हिंदी पर्यायों का इस्तेमाल ही नहीं करेंगे तो ये शब्द चलेंगे कैसे, जुबान पर चढ़ेंगे कैसे? कोई शब्द समाज में लगातार इस्तेमाल होने पर ही स्वीकृत, प्रचलित और रूढ़ होता है. आप इन शब्दों से मुखातिब तो होइए! जो समझ में आए, उसका इस्तेमाल करें और जो न समझ में आए तो उसके बेहतर पर्याय सुझाएँ और इस आयोग को लिख भेजें। लेकिन यदि सिर्फ निंदाकर्म में ही लिप्त रह जाएँगे तो इसमें सुधार-संशोधन कहाँ से हो पाएगा.
शासन-प्रशासन के क्षेत्र में हिंदी के ऐसे हजारों शब्द हैं जो रोजमर्रा के सरकारी कामकाज में बेहद सहजता से चलते हैं जैसे: सेवा, नियुक्ति, प्रतिनियुक्ति, विभाग, प्रभाग, अनुभाग, मंत्रालय, कार्यालय, प्रकोष्ठ, ईकाई, परिपत्र, आदेश, ज्ञापन, स्थानांतरण, पद, पदनाम, पदभार, कार्यभार, पदस्थापन, निलंबन, निरसन, आधिकारिक, अधिकृत, अनधिकृत, प्राधिकृत, कर्मचारी, अधिकारी, प्राधिकार, प्राधिकारी, प्रभारी, कार्यकारी, कार्यपालक, चयन, परीवीक्षा, परीवीक्षाधीन, साक्षात्कार, संकाय, पात्रता, अहर्ता, प्रावधान, अनुपालन, अनुमोदन, अनुशंसा, संस्वीकृति, पदोन्नति/प्रोन्नति, वेतनमान, वेतन-निर्धारण, वेतन-वृद्धि, सेवाकाल, सेवानिवृति, अधिवर्षिता, नियमन, विनियमन, निष्पादन, संपादन, संचालन, संकलन, संशोधन, परिचालन, प्रदर्शन, नियंत्रण, अनुरक्षण, कार्यान्वयन, क्रियान्वयन, अभियोजन, प्रशिक्षण, प्रशिक्षु, कार्रवाई, कार्यवाही, कार्यवृत्त, पत्र, प्रपत्र, अनुमति, पुष्टि, सत्यापन, सत्यापित, अभिप्रमाणित, प्रमाणित, प्रमाणिक, प्रमाणपत्र, नेमी, तत्काल, गोपनीय, गोपनीयता, नीति-निर्देश, दिशा-निर्देश, विषय-सूची, अनुक्रम, प्रथम दृष्टया, निरीक्षण, अधीक्षण, पर्यवेक्षण, अण्वेषण, प्रेषण, अग्रेषण, व्यवधान, व्याप्ति, प्रेषक, प्रेषिती, अधिग्रहण, अतिक्रमण, प्रस्ताव, प्रस्तुति, प्रतिनिधि, प्रतिनिधित्व, संरक्षण, प्रक्रिया, पद्धति, प्रणाली, कार्यविधि, प्रवर्तन, प्रत्यर्पण, प्रख्यापन, प्रबंधन, निबंधन, पंजीयन, परिशिष्ठ, अनुबंध, उपबंध, अनुलग्नक, संलग्नक, प्रतिपूर्ति, क्षतिपूर्ति, समिति, आयोग, आयुक्त, उपायुक्त, अधीक्षक, अध्यक्ष, सभापति, सचिव, महासचिव, सचिवालय, निदेशक, महानिदेशक, निदेशालय, प्रतिष्ठान, प्रवास, प्रवासी, आवासीय, गैर-आवासीय, आव्रजन, प्रव्रजन, व्यवहार्य, सुग्राह्य, सुग्राही, उपयोगिता, मांगपत्र, शुद्धिपत्र, घोषणा, उदघोषणा, प्रकटीकरण, अप्रकटीकरण, लोकपाल, योजना, परियोजना, आयोजना, बाध्यकारी, जनता, जनादेश, सरकार, संसद, सांसद, संविधान, शासन, प्रशासन, मतपत्र, मतदान, मताधिकार, वस्तुनिष्ठ, प्रभार, संपदा, भूसंपदा, नमूना सर्वेक्षण, चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण, निर्वाचन, परांकन/पृष्ठांकन, वरीयता, प्राथमिकता, वरीय/कनीय, वरिष्ठ/कनिष्ठ, व्यस्क/अव्यस्क, अवर/अपर, आकस्मिक/अर्जित अवकाश, नकदीकरण, कार्योत्तर स्वीकृति, आचार/दंड-संहिता, लोकतंत्र, सार्वजनिक, प्रवक्ता, वकील, वादी, प्रतिवादी, महान्यायवादी, महाधिवक्ता, मुख्तारनामा, वकालतनामा, न्याय, न्यायधीश, जिलाधीश/जिलाधिकारी, दंडाधिकारी, फौज, थलसेना, वायुसेना, नौसेना, न्यायाधीन, न्यायिक, न्यायालय का अवमान, अनुमोदनार्थ/अवलोकनार्थ/सूचनार्थ/आदेशार्थ/हस्ताक्षरार्थ प्रस्तुत इत्यादि-इत्यादि.
विज्ञान, गणित, चिकित्सा, रेलवे आदि जैसे क्षेत्रों में भी ऐसे हजारों शब्द हैं जो बेहद जाने-सुने और सहज-संप्रेष्य हैं, जैसे- अणु, परमाणु, तत्व, यौगिक, धातु, खनिज, लवण, अयस्क, ऊर्जा, ध्वनि, पराध्वनि, प्रकाश, छाया, किरण, इंद्रधनुष, तरंग, तरंगधैर्य, आवृति, ऊष्मा, गुप्त ऊष्मा, ताप/तापमान, द्रवणांक, क्वथनांक, हिमांक, विद्युत, धारा, विभव/विभवांतर, प्रतिरोध, सु/कुचालक, तड़ित चालक, गति, चाल, वेग, आवेग, संवेग, बल, शक्ति, कार्य, त्वरण, द्रव्यमान, भार, नाभिक, रासायनिक सूत्र/समीकरण/अभिक्रिया, आवर्त-सारणी, गुरुत्वाकर्षण, चुंबकत्व, कोशिका, उत्तक, जीवद्रव्य, गुणसूत्र, अंडाणु, बीजाणु, शुक्राणु, प्रकाश संश्लेषण, निषेचन, प्रजनन, परागकण, पुंकेसर, पंखुड़ी, विषाणु, जीवाणु, संक्रमण, रोग, रोगी, अंग-प्रत्यारोपण, शल्य-क्रिया, मेरूदंड, मेरू-रज्जू, तंत्रिका-तंत्र, पाचन-तंत्र, कंकाल-तंत्र, उत्सर्जन-तंत्र, रक्त संचार, रक्तस्राव, औषध, स्वास्थ्य/आरोग्य, रसायन, आसव, द्रव, परखनली, उपकरण, प्रयोगशाला, प्रयोगविधि, प्रविधि, प्रजाति, अभियंता, विज्ञानी, वैज्ञानिक, चिकित्सक, शल्यचिकित्सक, शिशुचिकित्सक, दंतचिकित्सक, प्रसूति विशेषज्ञ, हृदय विशेषज्ञ, अवशोषण, अपसरण, परावर्तन, अपवर्तन, प्रकीर्णन, प्रसारण, आशोधन, परिशोधन, परिमार्जन, परिमार्जक, खान, खनन, ईंधन, उत्प्रेरण, उत्प्रेरक, चुंबकीय अभिप्रेरण, जीव विज्ञान, शरीर विज्ञान, आयुर्विज्ञान, भूविज्ञान, समुद्र विज्ञान, भौतिकी, पराभौतिकी, गतिकी, तारा-भौतिकी, अभियांत्रिकी, सूचना प्रौद्योगिकी, जैवप्रौद्योगिकी, दूर संचार, यंत्र, संयंत्र, उपस्कर, उपग्रह, अंतरिक्ष, प्रक्षेपण, प्रक्षेपास्त्र, विमानन, उड्डयन, नौकायन, नौवहन, जहाजरानी, पारेषण, कर्षण, प्रगत संगणन, सुदूर संवेदन, खाद्य प्रसंस्करण, वातानुकूलित यान, शयनयान, आरक्षण, आगमन-प्रस्थान, सुरक्षा एवं संरक्षा, अग्निशमन, अग्निशामक यंत्र, प्रशीतलन, संघनन, संघनित्र, तापमापी, दाबमापी, दूरबीन, रक्तचाप, मधुमेह, हृदयाघात, पक्षाघात, निकटदृष्टि/दूरदृष्टि दोष, मोतियाबिंद, वातरोग, क्षयरोग, पीलिया, सर्दी-जुकाम, क्रमांक, अंक, संख्या, शून्य, ईकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार, लाख, अरब, खरब, दशक, शतक/अर्धशतक, गुणक, गुणांक, घातांक, सम/विषम/रूढ़, विभाज्य/अभाज्य, भाज्य-भाजक, शेषफल, भागफल, गुणनफल, वर्गफल, हर/अंश, लघुत्तम/महत्तम समापवर्तक, पहाड़ा, प्रतिशत, क्रय-विक्रय, लाभ-हानि, साधारण/चक्रवृद्धि ब्याज, दर, मूल/मिश्रधन, घनत्व, क्षेत्रफल, आयतन, अक्ष, अक्षांश, देशांतर, कोण, समकोण, बिंदु, रेखा, त्रिभुज, चतुर्भुज, आयत, वर्ग, बेलन, वृत्त, अर्धवृत्त, गोलार्ध, परिधि, त्रिज्या, तिर्यक, कर्ण, विकर्ण, लंब, आधार, ज्यामिति, क्षेत्रमिति, अंकगणित, बीजगणित, समीकरण/प्रमेय, पुरातत्व सर्वेक्षण, सौर/पवन/परमाणु ऊर्जा, पनबिजली, पवनबिजली, मुद्रण, मुद्रक, प्रकाशन, प्रकाशक, संकेतक, दूरदर्शन, आकाशवाणी, विमान, जलपोत, युद्धपोत, वायुयान, मोटरयान इत्यादि-इत्यादि.
ऐसे ही बैंकिंग, उद्योग, कारोबार आदि क्षेत्रों में भी ऐसे हजारों शब्द हैं जो खूब जाने-पहचाने हैं और धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे हैं, जैसे- ऋण, ऋणदाता, जमा, जमाकर्ता, कर, करदाता, निकासी, नामे, अग्रिम, निपटान, चेक समाशोधन, धन-शोधन, आहरण, आहरणकर्ता/आहर्ता, नामिती, तुलनपत्र, प्रतिफल, प्रतिभूति, निवेश, निवेशक, हित, हितधारक, निक्षेप, परिलाभ, लाभ, हितलाभ, परिलब्धियाँ, साख, शुद्ध, सकल, निवल, आय, अर्जन, अंशदान, अनुदान, अभिदाय, प्राप्तियाँ, देयताएँ, आस्तियाँ/परिसंपत्तियाँ, निधि/कोष, शेष/अधिशेष, अधिभार, राजस्व, वित्त, राजकोष, विदेशी मुद्रा, चल/अचल, अर्जक/अनर्जक, पूँजी पर्याप्तता, पूर्ण स्वामित्व, परक्राम्य लिखत, परक्राम्यता/बेचनीयता, वित्तपोषण, उत्पाद, उत्पादन, विपणन, आबंटन, आकलन, अंतरण/हस्तान्तरण, अधिप्रमाणन, परिसमापन, परिसमापक, न्यायनिर्धारण, लेखापरीक्षा/अंकेक्षण, अभिधारण, विलय, यौगिक/मिश्र, अनुषंगी, धारणाधिकार, सहकारी, मुद्रास्फिति, व्यय, परिव्यय, प्राक्कलन, नेमी, भुगतान, पूर्णांकन, आपूर्ति, रूपरेखा, संरचना, अवसंरचना, विनिर्माण, नवीकरणीय, पुर्नवीकरणीय, वर्षानुवर्ष, नगण्य, आँकड़े, सूचकांक, बजट, बजट-अनुमान, वित्तीय/राजकोषीय घाटा, भविष्य निधि, पेंशन, पेंशनभोगी, अशोध्य, अनिर्धारणीय, अप्रतिदेय, अप्रतिसंहरणीय/अविकल्पी, आर्थिक, व्यापारिक, व्यावसायिक, वाणिज्यिक, औद्योगिक, शैक्षणिक, मासिक/तिमाही/छमाही/वार्षिक विवरण/विवरणी, पूर्णकालिक/अल्पकालिक/अंशकालिक सेवाएँ, रुग्न ईकाई, नवोन्मेष, उद्यम, उपक्रम, निकाय, निगम, न्यास, संस्था, संस्थान, संगठन, अवशिष्ट आस्तियाँ, प्रविष्टियाँ, प्रतिबंधित, मोचन/प्रतिदान, संवितरण, संवर्धन, मूल्यवर्धित कर, अधिमान, अधिमानी, अधिमानत:, समय-पूर्व निकासी/नकदीकरण, परिपक्वता, आयात-निर्यात, समेकन, संगामी/समवर्ती लेखापरीक्षा, लेखापरीक्षक/अंकेक्षक, लेखाकार, लेखपाल, लेखा-मिलान, व्यापार-संवर्धन, बुनियादी/बचत/चालू/उचंत/संयुक्त/शून्यशेष बैंक-खाता, दावा, दावा-अस्वीकरण, धन का नियोजन/दुर्विनियोजन/पुनर्विनियोजन/समायोजन इत्यादि-इत्यादि.
जहाँ तक सरकारी कामकाज में हिंदी के इस्तेमाल होने, नहीं होने का मामला है तो बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश जैसे हिंदी भाषी राज्यों में राज्य सरकारों के शासन-प्रशासन और बहुत हद तक अदालती कामकाज में भी हिंदी का इस्तेमाल बखूबी हो रहा है और वहाँ जनता और सरकारी महकमा दोनों को ही इस हिंदी से कोई परेशानी नहीं है. इसलिए यह तो पूरे विश्वास से कहा ही जा सकता है कि समस्या हिंदी में नहीं है, बल्कि समस्या हिंदी के प्रति अपनाई गई मानसिकता में है. हिंदी में सरकाजी कामकाज नहीं करने की मानसिकता शासन-प्रशासन के शीर्ष स्तरों और अधिकांशत: केंद्र सरकार के कार्यालयों में ज्यादा दिखाई पड़ती है। इसके बावजूद हिंदीभाषी राज्यों में स्थित केंद्र सरकार के कार्यालयों में भी तमाम कर्मचारी-अधिकारी ऐसे हैं जो राजभाषा हिंदी में कामकाज करने को तरजीह और अहमियत देते हैं. ऐसे कार्यलयों में जो दक्षिण भारतीय कर्मचारी-अधिकारी हैं, वे भी हिंदी में लिखने-पढ़ने और हिंदी को बढ़ावा देने को तत्पर दिखते हैं. असल समस्या तो वैसे हिंदीभाषी कर्मचारियों-अधिकारियों आदि के साथ ही है जो अच्छी-भली हिंदी जानते हुए भी सरकारी कामकाज में हिंदी के इस्तेमाल से जानबूझ कर परहेज करते हैं और जबरन फाइलों में अंग्रेजी परोसते रहते हैं। इतना ही नहीं, वे हिंदी इस्तेमाल न करने और अंग्रेजी इस्तेमाल करने के पक्ष में तमाम मनगढ़ंत तर्क प्रचारित करने से गुरेज भी नहीं करते. यहाँ यह याद दिलाना लाजिमी होगा कि आम धारणा के उलट, ये श्री अयंगर जैसे कई दक्षिण भारतीय नेता ही थे, जिन्होंने संविधान सभा में हिंदी को सरकारी कामकाज की आधिकारिक भाषा यानी राजभाषा बनाने की पुरजोर वकालत की थी.
जहाँ तक हर साल 14 सितंबर को सरकारी कार्यालयों में हिंदी दिवस/समारोह/पखवाड़ा आदि मनाने के औचित्य या ढोंग का सवाल है तो इसे बस ठीक उसी तरह से देखें जैसे आप 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस, 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस, 02 अक्तूबर को गाँधी जयंती, 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस, 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस, 01 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस, 10 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस आदि-आदि को देखते हैं. आप भी तो मदर्स डे, फादर्स डे, फ्रेंडशिप डे, वैलेंटाइन डे आदि-आदि जैसे हर माह कोई न कोई दिवस, जन्मदिन, सालगिरह आदि मनाते ही रहते हैं.क्या माता-पिता, मित्र, प्रेमी, पति आदि के प्रति प्यार जताने के वास्ते किसी खास दिन की जरूरत है? और यदि 15 अगस्त, 1947 को आजादी हमें हासिल हो ही गई थी तो हर साल स्वतंत्रता दिवस मनाने की क्या जरूरत है? भाई, चाहे हिंदी दिवस बस रस्मअदायगी तक ही सिमट कर क्यों न रह जाए, तब भी अंग्रेजीदाँ माहौल में हिंदी की एक लहर हर बार पैदा तो हो ही जाती है न! जहाँ तक हिंदी दिवस मनाने से हिंदी के भला होने, नहीं होने का सवाल है तो जनाब, आप हिंदी में काम करने से कतराने वालों को कोसिए! अंग्रेजी-अंग्रेजी का दिनरात जाप करने वालों को कोसिए! सरकाजी कामकाज में हिंदी का विरोध करने वालों को कोसिए! आप हिंदी, हिंदी दिवस, हिंदी अनुवादक, हिंदी अधिकारी आदि को क्यों कोस रहे हैं? आप इन तक अपनी बहस को सीमित करके मुद्दे से भटक क्यों रहे हैं? बहस को मोड़ क्यों रहे हैं? लोगों को गुमराह क्यों कर रहे है? और आप खुद भी गुमराह क्यों हो रहे हैं जनाब.
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