ओम निश्चल
हिंदी कविता में लीलाधर मंडलोई ने एक लंबी यात्रा तय की है और साठ की सीमा छूते-छूते कविता में वह मुकाम हासिल कर लिया है जो जीवन-समाज-संवेदना और शब्द-शक्तियों के सतत् साहचर्य से संभव होता है. गरबीली गरीबी की कोख से पैदा हुए और दुर्वह नियति के गलियारे से होते हुए जीवन और संसार के मैले-कुचैले व धूसर उपमानों को अपनी कविता में बीनने बटोरने वाले मंडलोई का कवि-मन सदैव ऐसे मूल्यों का पक्षधर रहा है जिनसे एक बेहतर दुनिया का निर्माण संभव होता है.
मंडलोई का बचपन सतपुड़ा की घाटियों में बीता है. छिंदवाड़ा जिले के एक छोटे से गांव गुढ़ी में जनमे लीलाधर मंडलोई ने कोयले के खान मजदूरों का जीवन बहुत करीब से देखा है. उनके मॉं पिता दोनों ने श्रमिक का जीवन जिया. इसलिए उनकी दृष्टि में मजदूरों का कठिन जीवन संघर्ष रहा है. सतपुड़ा की घाटियों का सौंदर्य उसे लुभाता था तो आदिवासियों की विपन्न दुनिया उसे कष्ट पहुंचाती थी. \’कवि ने कहा\’ की भूमिका में मंडलोई ने आदिवासी इलाकों के जंगलों के नीचे कोयले के भंडारों का दोहन करने वाली कंपनियों के कारण मजदूरों के विस्थापन की चर्चा की है. मजदूरी के बहाने पड़ोस के राज्यों से ले आए गए मजदूरों को दो जून का खाना मिल सके, इससे ज्यादा उनकी नियति में न था. अपनी जगह से छिन्नमूल मजदूरों के बारे में मंडलोई लिखते हैं: \’विस्थापितों ने अपनी बस्तियॉं खुद खड़ी कीं और लौटने की जगहँसाई से बचने के लिए जीने का मुहावरा सीखा.\’ इन अभावों के बीच जीवन गुजारते हुए आदिवासियों में आक्रोश होना स्वाभाविक था. किन्तु वे इस आक्रोश के बावजूद जीने का सम्मानजनक साधन जुटाने में अक्षम थे. एक व्यक्ति और वहां के रहवासी के रूप में मंडलोई का भी इन मजदूरों- आदिवासियों से एक सहज-सा नाता बना—जो उनके जीवन की दुश्वारियों को बखूबी समझ सकते थे.
व्यथा की इन सरणियों से गुजरते हुए प्रतिकार और प्रतिरोध के जो बीज पनपे वे आगे चल कर मंडलोई के कवि के अंत:करण में पल्लवित पुष्पित होते रहे. वे आजादी की खुली हवा के बीच मजदूरों व आदिवासियों को उनके अधिकारों से वंचित करने की जो मुहिम देख रहे थे, उनके भीतर पनपते कवि के लिए यह दुस्सह था. उनके भीतर की वर्गचेतना प्रखर और प्रतिरोधी बन कर उभर रही थी. आपातकाल के आसपास मंडलोई ने लिखना आरंभ किया था. यह वह दौर था जहॉं एक तरफ आपातकाल को अनुशासन पर्व बताया जा रहा था, दूसरी ओर देश के रचनाकार और बुद्धिजीवी जोखिम उठा कर इसके विरोध के लिए सन्नद्ध थे. एक तरफ लोग सत्ता के प्रति अपनी झुकी हुई रीढ़ों की गवाहियां दे रहे थे, दूसरी तरफ एक कवि कह रहा था: मैने कुबड़े यथार्थ को कंधा दिया इस देश में. मंडलोई उन प्रतिकृत कवियों में हैं जिन्होंने ऐसे सुधी रचनाकारों से काफी कुछ सीखा. प्रकृति के मध्य वे तफरीह के भाव से नहीं जाते बल्कि प्रकृति से मनुष्य के रिश्ते की संवेदनशीलता के नाते जाते हैं. वे कहते हैं:\’ मैं कविता में एक पर्यटक होने की जगह प्रथमत: और अंतत: एक संवेदनशील मनुष्य होने का स्वप्न देखना चाहता हूँ.\’ मंडलोई कविता में सूक्ष्मश्रवा का गुणसूत्र खोजते हैं जो पानियों के नीचे मछलियों के स्वप्न तक में उतर जाए तथा जिसमें बाजार की छुपी तहरीरों को पकड़ सकने का माद्दा हो. मध्यवर्गीय संवेदना से परे तलछट में अपनी कविता का निवास घोषित करने वाले मंडलोई की कविताऍं सबाल्टर्न संवेदना की एक नई दुनिया गढ़ती हैं.
कहना न होगा कि मिजाज़ से ही कवि दिखने वाले मंडलोई के लिए कविता कोई बाहरी कवच-कुंडल नहीं है. वह उनके अंत:करण का आईना है. शायद इसीलिए उन्होंने बहुधा कविता पर न केवल विचार किया है बल्कि तमाम कविताऍं कविता और शब्द के सरोकारों पर लिखी हैं. \’एक बहुत कोमल तान\’ में\’आग\’ पर एक कविता है. वे लिखते हैं:
\’मेरी मेज़ पर टकराते हैं शब्द से शब्द
एक चिंगारी उठती है
और कविता में आग की तरह फैल जाती है
आग नहीं तो कविता नहीं.\’
इसी तरह वे एक कविता में लिखते हैं:
\’\’मेरे भीतर कोमल शब्दों की एक डायरी होगी जरूर
मेरी कविता में स्त्रियॉं बहुत हैं
मेरा मन स्त्री की तरह कोमल है
……………..मेरे भीतर शब्द बच्चों की तरह बड़े होते हैं
अपना अपना घर बनाते हैं\’\’
\’लिखे में दुक्ख\’ में वे कहते हैं: मैं लिखता हूँ उस भाषा में जो मुझे जानती है.\’ और सबसे बढ़ कर उनका यह कहना कि \’ मेरे लिखे में अगर दुक्ख है/ और सबका नहीं/ मेरे लिखे को आग लगे.\’ खास तौर से ग़ौरतलब है. इन कुछ उदाहरणों से वे शब्द और भाषा से तो अपनी कविता का साहचर्य जताते ही हैं, कविता में आग और दुख की अपरिहार्य भूमिका भी उद्घाटित करते हैं.
एक कवि अपनी थकान कहॉं उतारता है, किस ठीहे पर अपनी हताशा,अपनी निराशाऍं,अपनी
क्षुब्धताऍं उतारता है? शायद कविताऍं ही ऐसा ठीहा हैं, जहॉं वह सबसे ज्यादा सुकून महसूस करता है, जहॉं उसकी पीड़ा, उसकी सफरिंग्स घनीभूत होकर सामने आती है. मंडलोई की कविताऍं अपनी ज़मीन पहचानती हैं. वे ऐसे कवि हैं जो कविता लिखते समय उस जगह, ज़मीन, इलाके और वहां के लोगों को भूल नहीं जाते जिनके बीच से वे निकल कर आए हैं. \’काल बांका तिरछा\’ में कुबड़े यथार्थ की पहचान करने वाले इस कवि की \’इतनी कीमती हँसी चोखेलाल की\’, \’खखरे का टोप\’, \’तोड़ल, बच्चे और दुकान\’, \’उन पर न कोई कैमरा\’ और ‘अमर कोली’ जैसी कविताओं से यह बात सत्यापित होती है. जब वे कहते हैं कि मेरी कविता में स्त्रियॉं बहुत हैं या मेरा मन स्त्री की तरह कोमल है तो वे उस या उन स्त्रियों की बात कर रहे होते हैं जिनके जीवन में सुख की आमद बहुत कम है. \’लिखे में दुक्ख\’, \’एक बहुत कोमल तान\’ और \’मनवा बेपरवाह\’ में ऐसी कविताऍं हैं जिनमें वे स्त्रियों के जीवन को बारीकी से देखते हैं और उदास होते हैं. वे कहते हैं: \’रूप की हाट में/गाए जाते हैं जो गीत/ उनमें चिड़ियों के कराहने की आवाज़ सुनाई देती है\’ (हाट) \’मैं वो स्त्री हूँ जिसके भाग्य में ससुराल नहीं/ मैने कोख में नाचना शुरू कर दिया था.\'(भाग्य) \’रोने की वजह/तलाक़ नहीं/ इसमें लग गया इतना समय/ कि शुरू न हो सका दूसरा जीवन.\'(वजह) ये कविताऍं ऐसी हैं कि इन्हें पढ़ कर मन गीला हो उठता है. नरेश सक्सेनाने उनकी कविताओं पर लिखते हुए ठीक कहा है कि \’बेटियां हों या अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करती अनाम मजदूरिनें, स्त्रियों के प्रति उनकी काव्य दृष्टि न सिर्फ गहरी ममता से भरी है बल्कि वह उनकी अपराजेयता का मंगलगान भी करती है.\’
मंडलोई बहुत लंबी कविताओं के कवि नहीं रहे. \’घर घर घूमा\’, \’मगर एक आवाज़\’ और \’काल बांका तिरछा\’ में कुछ लंबी तो कुछ मछोले आकार की कविताऍं हैं. उसके बाद आए संग्रहों \’लिखे में दुक्ख\’, \’एक बहुत कोमल तान\’ और \’मनवा बेपरवाह\’ में छोटी छोटी कविताऍं हैं. पर कुल मिलाकर कविताओं के आकार पर नहीं, उसके घनत्व पर जाऍं तो वे आम आदमी के सुख दुख से सरोकार रखने वाली कविताओं के कवि ठहरते हैं. अंडमान निकोबार द्वीप समूह में रहते हुए उन्होंने समुद्री जीवन को बारीकी से देखा और लिखा: \’समुद्र पर खाते हुए रोटियॉं/ पहुंचेगा समुद्र अपने आप भीतर/और हम स्वाद का समुद्र हो जाऍंगे एक दिन.\’ \’घर-घर घूमा\’ आदिवासियों के बीच रहते उन्हें समझते हुए उनके जीवन को कविता में उतारने का उपक्रम है. इसी संग्रह में \’एक मॉं का होना\’कविता है, पर इसे पढ कर जब तक बताया न जाए आप समझ नहीं सकते कि यह ग्रेट अंडमानी मॉं के बारे में है. एक गहरे ममत्व का निदर्शन करती यह कविता स्त्री की ममता की एक सार्वभौम छवि उद्घाटित करती है. \’मगर एक आवाज़\’ से मंडलोई की कविता सयानी होती है और तब वे \’मेरी उम्र बयालीस के आगे की परछाईं है\’ व \’टेमा-ढिबरी\’ जैसी यथार्थवादी कविताऍं लिखते हैं.
मंडलोई ने पिता लक्ष्मण मंडलोई के संघर्ष से जीवन जीना सीखा है तो मॉं की देखभाल के बीच कविता की विरल किस्में सँजोई हैं. अपनी आत्मकथा जैसी कविता \’मेरी उम्र बयालिस के आगे की परछाईं है\’ की ये पदावलियॉं इस बात की तस्दीक करती हैं:
मॉं कहती हैं चल नहीं सकती अब थोड़ा भी
जा बेटा, ले जा थोड़ी-सी चांदनी
मेरे हिस्से की हवा, बादल, हँसी और धीरज कि
लौट सके कुछ तो मेरे पहाड़ में
झरे हुए पत्तों का हरा समय
बॉंसुरी लायक बॉंस के झुरमुट( मगर एक आवाज़)
किसी कवि की कविताओं का उत्स जानना हो तो उसकी डायरियों में झॉंकना चाहिए. मंडलोई की डायरी प्रकाशित है. वह उनके आंतरिक व्यक्तित्व का दर्पण भी है. डायरी की पीठ पर एक कविता अंकित है. सबसे पहले उसे पढ़ता हूँ:
तुमने एक बूढ़े के पॉंव छुए फिर बटुआ टटोला
तुमने एक औरत की तारीफ की फिर देह से जा सटे
तुमने एक बच्चे को चूमा फिर चाकलेट देना भूल गए
तुमने सितार पर बंदिश सुनी फिर खाने को सराहा
तुमने चुने हुए दोस्तों को फिलाई फिर वाहेगुरू को याद किया
यह सब करते हुए लोगों ने तुम्हें पहचान लिया.
ये पदावलियाँ लीलाधर मंडलोई की डायरी ‘दानापानी’ से उद्धॄत हैं. डायरी में तिथियाँ नहीं हैं. बिना किसी तरतीब के दर्ज इस कवि की दैनंदिनी को छूते-पढ़ते हुए एक काव्यात्मक अहसास होता है. हालाँकि इस डायरी में सत्रह सालों का जीवनानुभव समाया हुआ है. 1987 से 2004 तक के दौरान गुजरे वक़्त को मंडलोई ने अहसास की रोशनाई से लिखा है. अपने प्राक़्कथन में प्रभु जोशी का कहना है, ये वक़्त की मोटी और ज़र्द किताब की जर्जर ज़िल्द से बिखर गए बेतरतीब और तिथिहीन ऐसे सफे हैं, जिनमें चौतरफा एक निरवधि काल उत्कीर्ण है. भवभूति ने भी तो यही कहा है– कालोह्य निरवधिः विपुला च पृथ्वी . और यह डायरी होते हुए भी डायरी के शिल्प में नहीं है. यह घटनाओं का नहीं, अनभूतियों का दस्तावेज़ है. मंडलोई के लेखे उन्होंने जो कुछ लिखा, उस सबका कच्चा माल इन डायरियों में ही जमा होता रहा. वे कहते हैं, मैं इनके साथ कुछ वैसा ही भागता रहा हूँ जैसे एक माँ भागती-दौड़ती हुई अपने बच्चों के कामों के साथ अपने काम में भी सदैव डूबी हुई पायी जाती है.
यहडायरी औरों से अलग है. मसलन इसके ब्यौरों में लेखकीय महिमा का दर्पस्फीत भाव नहीं है, न ही समाज के प्रति किसी प्रतिकार की जिद. यही वजह है कि जब मैंने उनका संस्मरण बचपन की पाठशाला पढ़ कर उनसे पूछा कि क़्या कभी अपने प्रति किए गए अपमान का प्रतिकार करने का मन हुआ तो माँ की इस कहनात को याद करते हुए कहा था, माँ कहती थीं, छै मइना की नई बारा मइना की सोच के चलने है. और देखिए, मंडलोई का मन वाकई किसी बच्चे सा निर्मल है–अनकंडीश्ड और समावेशी. उन्होंने यातना और फरेबकारी से भरे दिन भी देखे हैं. निलंबित होने की यातना झेली है. ‘मगर एक आवाज़’ उन्ही दिनों की उपज है. काल बाँका तिरछा पर भी इस निष्करुण समय की छाया है. ऐसे निलंबित और आस्थगित समय में जब रातें नींद से विरक़्त हो गयी हों, दिन में भी भीतर भीतर कुछ टूटता-सा महसूस होता हो–प्रारब्ध से लड़-झगड़कर अंततः उन्होंने अपनी बेगुनाही सिद्ध की.
मंडलोई ने डायरी को स्थूल घटनाओं का अजायबघर नहीं बनाया है बाल्कि उन्हें अपनी चेतना की छन्नी से छान कर एक ऐसे काव्यात्मक पाठ में बदला है जिससे यह पता चले कि कवि अपने समय को किस तरह उदात्त संवेदना के साथ देखता है. आज के विज्ञापनी दौर में जहाँ मौजूदा समय के बाज़ारवादी चरित्र का चेहरा स्वत: ही उजागर हो, मंडलोई की चिंता स्त्री-देह के विज्ञापन ब्रांड में बदलते जाने का शोक मनाती है:
मुझे दीखते हैं प्रकाशित कविता के बीचोबीच विज्ञापन….
कि इस तरह कला भी होगी ब्रांड आश्रित एक रोज़….
मेरी खरीद में अब ज्यादा वक़्त शेष नहीं
मैं इसे लिखता हूँ अपनी घायल आत्मा के प्रायोजित सफे फर….
कि यही आगत भविष्य…
मंडलोई की यह डायरी पढ़ते हुए दिनन दिनन के फेरपर निगाह पड़ती है. रहिमन चुप ह्वै बैठिए देखि
दिनन कै फेर/ जब नीके दिन आइहैं बनत न लगिहै बेर. डाकिये के हाथ में खाकी सरकारी लिफाफे को लेते हुए हाथ कॉंप उठते . नींद दस्ताने फहन कर उतरती और घर सहम उठता. न्याय ऐसा कि विश्वास की धरती दरकी हुई. क़्योंकि धाराओं की लपलपाती लौ बिना किसी जाँच के कठघरे में ढकेल देती है. समय से तेज़ चलना कभी कभी दुनिया को रास नहीं आता. राजेश जोशी ने लिखा है, ‘’कमीज़ पर जिनके दाग़ नहीं होंगे, मारे जाएंगे’’. व्यवस्था को बेदाग़ चरित्र वालों की उदात्तता भली नहीं लगती. संगी-साथियों को अपने ही साथी की मकबूलियत से चिढ़ होने लगती है और जाल-फरेब की सुरंगें बिछाने की भूमिगत कार्रवाई शुरु हो जाती है. मंडलोई कहते हैं, दुख ने ही मुझे रचनात्मक रूप से माँजा है. मैं दुखों का शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने मुझे चुना. लेकिन यह डायरी मंडलोई के दुखों का इश्तहार नहीं है, यह सहनशीलता का विकल और विचलित कर देने वाला गवाक्ष है.
सरस्वती के आखिरी संपादकीय में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा था, मेरे ऊपर दुखों के पहाड़ टूटे, अनेक विपत्तियॉं आईं किन्तु कभी उनका रोना सरस्वती के पन्नो पर नहीं रोया. मंडलोई की यह डायरी सहिष्णुता और मानवीय कॄतज्ञता के सहमेल से उपजा जीवनवॄत्त है, जिसका सबसे बेहतरीन हिस्सा–छठा खंड वक्त की बेतरतीब किताब में है. बचपन की यादें, दैन्य के अकुंठ वॄत्तांत , बारिश में टपकती झोपड़पट्टियों का रहन-सहन और माँ व अन्य परिजनों, संगी-साथियों के संस्मरण. प्रकॄति के दिए फल, फूल, पेड़ पौधों, छालों से हर तरह की बीमारी-हकारी दूर करने में सुघर वैद्य बनी माँ पारिवारिक कुशल-क्षेम का केंद्रबिन्दु होतीं. अपने मूड़े-माथे चिंताओं की पोटली लादे वे अनार, अमरूद, जामुन, आम, हर्र – बहर्र इत्यादि से नाना प्रकार की दवाइयाँ ईजाद कर लेतीं. अमरूद को अमॄत फल कहतीं. बकौल मंडलोई, माँ इस तरह दूर की सोचतीं और आने वाले दिनों के लिए लड़ाई के साधन जुटातीं.
आज मॉं नहीं हैं तो क्या अभी कुछ अरसा पहले माँ की छत्रछाया में रहते आए मंडलोई की आँखें उन्हें यादकर नम नहीं हो उठती होंगी. जैसे जैसे वक्त गुजरेगा, आँखों में बसी यह नमी सूखेगी तो जरूर लेकिन बचपन में किसी भी चोट फर छाल फीस कर चटफट मलहम लगा देने वाली और हर तबादले पर घर की रसोई सजाने-सँवारने वाली माँ की याद मंडलोई को हर वक्त आएगी. इधर जब भी उनसे बात हुई है, उनकी आवाज़ में जैसे एक गहरी थकान रच बस गयी है. मानो(मुाकिक़्तबोध के शब्दों में)एक समूचा वाक़्य टूट कर बिखर गया है. मंडलोई ने माँ की स्मॄतियों को डायरी के पन्नों में सहेज कर जैसे दानापानी को सूक़्त की-सी पवित्रता से भर दिया है.
उनकी डायरी ही नहीं,उनकी कविताओं में भी मॉं के इंदराज बहुत हैं. ‘घर घर घूमा’ में मां पर कई कविताऍं हैं. मॉं दिन भर हमारे इंतजार में रहती है, मां की एक गहरी आराम भरी नींद के लिए और ‘एक मां का होना’ —इनमें हम एक कवि की नहीं,संसार भर की मॉंओं का चेहरा देख सकते हैं. उनकी डायरी \’दाना पानी\’ में तो मॉं की सीखें उनकी उपस्थितियॉं जगह ब जगह भरी हैं,चाहे \’अनार और मॉं\’ का प्रसंग हो,\’अमृत फल\’ का, \’जामुन कथा\’ का या \’जैसा अन्न वैसा मन\’ का. मंडलोई का जीवन सतपुड़ा की तलहटियों से होकर गुज़रा है तो नगरों-महानगरों की जनसंकुल आबादियों से भी. पर जो जीवन उसे बचपन में मिला, जैसे लोग मिले, जैसी स्त्रियॉं मिलीं—पहाड़ जैसे जीवन के एक एक दिन को अपनी ऊर्जा से ढकेलती हुई–जैसी मां मिली श्रम और पसीने का मोल समझने और समझाने वाली—वैसा अनिंद्य और समुज्ज्वल वक्त बाद में न रहा. विपन्नता तो थी, पर मन का ऑंगन खुशहाली से रोशन रहा. एक बार उनका एक संस्मरण किसी पत्रिका में \’ब्वायलर में बचपन\’ शीर्षक से छपा. मैंने पूछा जब बात ब्वायलर में बचपन से शुरू होकर कोयला खदानों के गहरे अंधेरे विवर में जाकर कहीं गुम हो जाती हो तो उसे कुरेदने में एक घाव को कुरेदने जैसा क्षोभ होता है: बतर्ज़, मेरे दिल की राख कुरेद मत. फिर भी इस बचपन को आज किस तरह याद करते हैं? वे बोले, ओम, \’\’बचपन ने मुझे लड़ने-जूझने की जिजीविषा प्रदान की और ताकत, उनसे मुझे कुछ चीजें उपहारस्वरूप मिल गईं. पहली चीज़ थी मनुष्य बने रहने का वरदान, दूसरी चीज थी अभावों में आनन्द ढूँढ लेने की तरक़ीबें और तीसरी भविष्य के सपने. मैं बार-बार उसमें लौटता हूँ सिर्फ़ अपने अतीत के उत्खनन से ऊर्जा बटोरने नहीं बल्कि उन अनेक लोगों के अतीत से कुछ और-और पाने के लिए जिनका संघर्ष शायद हमसे अधिक विकट था. मैंने जो ‘ब्वायलर में बचपन’ लिखा उसमें मुझ सरीखे और दोस्त थे. परसादी, जुग्गू, भुप्पी, मेरे बड़े भाई आदि.
मेरा वह संस्मरण ‘हम’ की बात करता है ‘मैं’ की नहीं. हमारा बचपन अमूल्य धरोहर है. वह अमोल है. हम भाग्यशाली हैं कि हमें ऐसा बचपन मिला. उस जीवन के अनेक संस्मरण हैं. अनगिनत आलोकित कण. इस तरह की स्मृतियों में जाते हुए कई लेखक या तो हकलाने लगते हैं या चालाक ढंग से ग्लोरीफाई करते हैं. मैं इस मामले में खासा सेलफिश हूँ. मैं उन स्मृतियों की पूंजी का निवेश जीवन के अनेक रूपों में करता हूँ. इस ख़जाने के खाली होने से, मैं बहुत भयभीत होता हूँ.\’\’ पर बचपन भी कहां टिक कर रह पाता है. यह समय धीरे धीरे हाथ से खिसकता गया. शहरी चालाकियों से बच निकलने की सिफत हर कवि को नहीं आती. इन चालाकियों का शिकार मंडलोई भी हुए. मंडलोई के उदास दिन उनकी डायरी में शब्दबद्ध हैं. यहां प्रभु जोशी को याद करना प्रासंगिक होगा, जिसने ‘दाना पानी’ की भूमिका में लिखा है: \’यों मंडलोई से मिलने वाले को लगेगा कि उसके पास हँसी का एक अमोघ अस्त्र है, लेकिन यह
भी डायरी पढ़कर ही जाना कि किसी को भी तो पता नहीं कि उसके पास आंसू हैं और खास तौर पर अंधेरे और एकांत में वीर-बहूटियों की तरह चमकते हैं. यों इन पृष्ठों में शब्द जहॉं तहॉं भूगर्भ जल की तरह उसके अंतर में जमे अवसाद को उलीच कर भी फैला देते हैं, जो पढते हुए रस रस करते दुख का ऐसा अहसास कराते हैं,जैसे हमने अचीन्हीं तहों के नीचे दबे खजाने को सहसा बरामद कर लिया है.\’ उनका यह कहना भी कवि को समझने की कुंजी है कि \’ कभी कभी तो लगता है कि सताई हुई नींद से छिटक कर गिरे स्वप्न की किरच को बटोरने में लहू लुहान हुए शब्दों की इमदाद से लिखी गयी कोई ऐसी पटकथा है,जिसमें वे \’सफरिंग्स\’ हैं जो शायद पश्चिम में काफ्का के भीतर अपने को \’जान लेने\’ से पैदा हुई थीं.\’
वैसे तो डायरी नितांत वैयक्तिक होती है. व्यक्ति के आंसुओं, सपनों, सफलताओं विफलताओं और व्यथाओं का जैसे एक एकांतिक वृत्तांत . पर एक कवि की डायरी में उसकी रचनात्मकता के भी पर्याप्त सबूत होते हैं. मुक्तिबोध और शमशेर मंडलोई के पसंदीदा कवियों में हैं. मुक्तिबोध ने लिखा था: ‘छोटी-सी निज ज़िंदगी में जी ली हैं ज़िन्दगियॉं अनगिन/ ज़िन्दगी हरेक ज्वलित ईंधन का चंदन है’ अपनी साठ-साला ज़िन्दगी में मंडलोई ने अपनी शासकीय सफलताऍं देखीं हैं जब वे मंडी हाउस की दूरदर्शन की सबसे ऊँची मंजिल पर बैठते थे तो जि़न्दगी के अनेक उतार चढ़ावों से होकर भी गुज़रे हैं. \’पीर पराई\’ बूझने के लिए उन्होंने केवल पराये अनुभवों का सहारा नहीं लिया बल्कि निज के पैरों की बिवाई की पीड़ा भी झेली है. लेकिन पीड़ा के इस आलोड़न में भी एक कवि के रूप में मंडलोई ने धीरज नहीं खोया और अपने प्रतिकारों, प्रतिरोधों और स्वप्नों के साथ कविता में अपनी जगह मुकम्मल करते रहे. ‘मगर एक आवाज़’ में यह पीड़ा अपनी मंद लय में उपनिबद्ध है तो ‘काल बॉंका तिरछा’ में यह पराई पीर बन कर स्मृति पर छा जाती है. काल बॉंका तिरछा—मुक्तिबोध का ही पद है तो जाहिर है अपने परिवेश के दुख दर्द को दर्ज करते हुए वे मुक्तिबोध की तरह ही अवसन्न भी होते हैं. एक बार दूरदर्शन के उनके कक्ष में बातचीत के क्रम में एक सवाल किया कि मंडी हाउस के शिखर से दिल्ली की दुनिया बड़ी रोमांचक लगती है. कभी सोचा था, इस जगह से दिल्ली को निहारने का सुख मिलेगा.
वे बोले, \’दिल्ली की खूबसूरती शिखर में नहीं दीखती. दिल्ली धँसने में समझ आती है. पुरानी दिल्ली, निजामुद्दीन इलाका, दिल्ली के भीतर के गाँव, सादतपुर, पहाड़गंज जैसे कुछेक इलाकों में गाहे-ब-गाहे निकल जाता हूँ एकदम अकेला. चुपचाप. और थोड़ी-सी दिल्ली मेरे हिस्से आ जाती है. कुछ कविताएँ, कुछ गद्य के टुकड़े इसी आवारगी की देन है.\’
किसी भी कवि को कोई न कोई रोल माडल होता है. एक कवि के रूप में मुक्तिबोध उन्हें लुभाते रहे हैं. इस मायने में छत्तीसगढ़ और रायपुर में उनका होना काफी काम आया. यह मुक्तिबोध का ही जादू था कि वे श्रीमती मुक्तिबोध से मिले और उनके पुत्र दिवाकर जी से भी. मुक्तिबोध को समझने की कोशिश मन ही मन चलती रही. कविता की उलझी हुई लटों को सुलझाने और कविता में आये बीहड़ बिम्बों को समझने में अक्सर विभु कुमार जी मदद करते. कविता में मुक्तिबोध की न हारने वाले योद्धा की आइडेंटिटी ने उन्हें प्रतिकृत किया और जताया कि एक कवि के रूप में अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाना क्या होता है. उन्हें मुक्तिबोध की लंबी कविता ‘अँधेरे में’ की ये पंक्तियॉं अक्सर याद आती हैं: \’ खोजता हूँ पहाड़…प्रस्तर-समुंदर/जहाँ मिल सके मुझे/मेरी वह खोयी हुई/ परम अभिव्यक्ति अनिवार/आत्म संभवा.\’ जब भी कोई कवि इस तरह अपने पूर्वज कवि से अपने को आइडेंटीफाई करता है, इससे उसके कवि की विश्वसनीयता और दृढ़ होकर सामने आती है. यह मुक्तिबोध का ही असर था कि उन्होंने आगे चल कर अपने एक कविता संग्रह का नाम उनकी पदावली काल बॉंका तिरछा पर आधारित किया.
मुक्तिबोध की जिस काव्यात्मक पदावली से लीलाधर मंडलोई ने अपने संग्रह ‘काल बॉंका-तिरछा’ का नामकरण किया है, वह इस अर्थ में उनके कल्पनाशील कवित्व को चरितार्थ करता है कि यहॉं मुक्तिबोध की तरह ही जीवन की तलछट में समाए सौंदर्य शास्त्र को अपने अनुभव के आकाश में उतारने की भरसक चेष्टा दिखती है. मंडलोई ने अपने लेखकीय जीवन की वर्णमाला अभावों और संघर्षों की पाठशाला से सीखी है.इसलिए उनकी कविताओं में जन जातियों के बे-आवाज़ उल्लास के साथ हाशिए पर फेंके गए समाज के आत्मसंघर्ष को सेंट्रल स्प्रेड देने की कोशिश मिलती है. घर-घर घूमा, रात-बिरात और मगर एक आवाज़ के बाद काल बॉंका-तिरछा की कविताएं इसे समय की बॉंक पर रचे गए समाज विमर्श में बदल देती हैं. वस्तुनिष्ठता और संवेदना के सहमेल से रचे इस काव्यात्मक विमर्श में दुनिया-जहान के दुखों की सांवली छाया कवि के अंत:करण को कचोटती है. इसलिए उसके इस कहे में भी एक अप्रत्यक्ष संताप दर्ज है जो उसके सरोकारों को संजीदा और अर्थवान बनाता है. मैंने एक कुबड़े यथार्थ को कंधा दिया इस देश में—कहना उस यथार्थ को जानना और पाना है, जिस पर समय की अपार धूल अटी है.
दिल का किस्सा में खुद मंडलोई ने अपनी प्रारंभिक जीवन यात्रा को जिन खदानों, श्रमिकों और ठेकेदारों के बीच गुज़रते देखा है उसकी थकी, ठहरी और उदास खनक से ही यह संग्रह शुरू होता है. खखरे का टोप मंडलोई के जेहन में समाई यादों का एक पार्श्व चित्र है, जिसे कैनवस पर उतारते हुए वे पैंतीस साल पहले के यथार्थ की गहरी खाईं में उतर जाते हैं, और याद करते हैं—वह जगह जहाँ बचपन में ढोई उन्होंने मिट्टी, कुँवर ठेकेदार ने दिए रोजनदारी में दस आने. भूले हुए अतीत का ही एक और पन्ना खोलती है —पुकारते तासे की डगर शीर्षक कविता, जहाँ वे रुच्चा, कत्वारू और सुक़्का के बेटे-बेटियों का अता-फता फूछते हैं, पर कोई सुराग नहीं मिलता. अलबत्ता एकाध को उनकी पहचान जरूर कौंधती है—आप तो गुढी वाले लछमन के बेटे हैं न. पर इसी बीच कहीं से उभरता तासे(मॄत्यु के समय बजने वाला शोक वाद्य) का रुदन उन्हें शोकार्त कर देता है. कवियों के भव्य अतीत की तुलना में भले ही मंडलोई का अतीत एक कुबड़े यथार्थ का ही पर्याय हो, फर वहाँ निश्चय ही जीवन की साझा उजास है.
दिव्य, भव्य और देदीप्यमान जीवन की सुखद और निरुद्यमी दिनचर्या से अलग रोज़-ब-रोज़ के संघर्षशील जीवन और नियति से मुठभेड़ करती अस्मिताओं की विनिर्मितियॉं मंडलोई के कवि-मन को अपनी मार्मिकता से सींचती हैं. वे गरबीली गरीबी में साँस लेते मानव की आस्तित्व-हीनता की उस दुर्लभ अनुभूतियों से रु-ब-रू होते हैं, जिनसे गुज़रते हुए सुचिकक़्कन जीवन शैली के अभ्यस्त कवियों को संकोच होता है. वे कविता को सुभाषितों और उद्धरणीयता में बदलने की बजाय किस्सागोई की प्रचलित सरणि अपनाते हुए नैरेटिव का एक ऐसा शिल्प अख्तियार करते हैं जो उनकी जीवन-दृष्टि को प्रखर और समावेशी बनाता है.
कविताओं के बीच फैली-बिखरी कवि-चिंताओं पर ध्यान दें तो वह सरकारी आंकड़ों के इस छद्म से वाकिफ है जो यह बताता है कि कालाहांडी में पानी बरस रहा है जरूरत से अधिक और फसलें लहलहा रही हैं हर बरस—उन्हें क्षोभ होता है कि वह कविता या एक टिप्पणी भर लिख कर अपनी भूमिका से संतुष्ट हो जाता है जो कि बुद्धिजीवियों के लिए एक आसान विकल्प है. याद आती है राजेश जोशी की वह कविता जिसमें वे कहते हैं कि जब तक अपील जारी होती है, उसकी जरूरत खत्म हो चुकी होती है. एक कविता में कवि ठूँठ की तरफ पांव बढ़ाते हुए सोचता है कि सूख चुका बहुत अधिक जहाँ/ पक्षी जल के अलावा चाहिए होना मनुष्य जल कुछ. वह कन्हर-कान्हा अभयारण्य में नर और मादा चीता की जिस अद्भुत मिथुन मुद्रा का अवलोकन करता है, वह नरेश सक़्सेना के शब्दों में – स्पेस की संपूर्णता में समाहित एक निजी स्पेस है. सृष्टि के इस अपूर्व दृश्य को पहाड़ी पर आरूढ़ होते सूर्य बिम्ब की तरह महसूसता कवि अपने भीतर की आत्महीनता के अंधकार से तुलना करता है और यह कहने में संकोच नहीं करता कि–मैंने उस रोज अपना अंधकार देखा. कवि का यह अहं-विसर्जन न केवल प्रकॄति के पक्ष में है, बल्कि यह प्रकॄति के साथ कवि का मनुहार है. इसी तरह नई सड़क(किताबों की मंडी) पर किताब मिल जाने के बाद गाँव से आई एक स्त्री की कोमल खिस्स हँसी पर कवि न्योछावर हो उठता है–वह हँसी निश्चय ही नगर-कन्यायों की नकली मुस्कानों के मुकाबले नैसर्गिक है.
कवि के सरोकारों का तेज अन्य जिन कविताओं में प्रखर है, उनमें कुछ चोखेलाल–सीरीज़ की कविताएं हैं जो आम आदमी का प्रातिनिधिक चरित्र है, मॄत्यु का भय, कस्तूरी, पराजयों के बीच, अनुपस्थिति, मैं इतना अपढ़ जितनी सरकार , उन पर न कोई कैमरा, आपको क्यूँ नहीं दीखता, झाँकने को है एक अजन्मा फूल और अमर कोली प्रमुख हैं. मॄत्यु का भय से अचानक धूमिल की वह कविता कौंधती है जिसमें नौकरी छूटने वाले व्यक्ति की पीड़ा का बयान है. कस्तूरी में एक स्त्री की संभावनाओं का दुखद अंत ही नही है, मानवीय सभ्यता की हिलती हुई शहतीरों फर प्रहार भी है. पर इन सब कविताओं के कथ्य के फीछे कवि की एक अंतर्दृष्टि सक्रिय है, जिसका संकेत पराजयों के बीच में मिलता है. यह कविता जैसे कवि का अपना मेनीफेस्टो है, जहाँ वह मुखर और प्रखर होते हुए कहता है–ईश्वर के भरोसे छोड़ नहीं सकता मैं यह दुनिया. उसके लिए छोटी-सी चींटी भी उम्मीद का दूसरा नाम है. वह कौल उठाता है —मुमकिन है टूट पड़े कानून का कहर/ कम से कम मैं एक ऐसा समाचार तो बन ही सकता हूँ/ कि बंद फलकों में एकक सही हरकत दर्ज़ हो/ बंद कपाटों में ऐसी हलचल कि सोचना शुरू हो .
मंडलोई की कविता में भावुकता के विनियोग के मुकाबले तथ्यात्मकता का निवेश ज्यादा है. अनुपस्थिति में भी उपस्थित बहुत कुछ को भाँप लेने की उनकी कविता अनुपस्थिति कुँवर नारायण काफ्का के प्राहा मेंशीर्षक कविता के साथ-साथ पढ़ी जा सकती है. कुँवर जी जहाँ कहते हैं, एक उपस्थिति से कहीं ज्यादा उपस्थित हो सकती है कभी कभी उसकी अनुपस्थिति , मंडलोई अनुपस्थिति की भयंकरता का अहसास दिलाते हुए कहते हैं, मुझे होना चाहिए था संसद में/ मेरी अनुपस्थिति से अव वहाँ अपराधी/ अनुपस्थिति का शाप इतना भयानक/ मंदिर में इन दिनों कब्जा शैतानों का. उनके सामने भूख से लड़ने के लिए जारी शताधिक कल्याणकारी योजनाओं की हकीकत है, भूखों की पहुँच से बाहर बहते पैसे से मनाए जाते अकाल-उत्सव हैं—और ऐसे बुद्धजीवी गण जो महज एक टिप्पणी लिख कर ही अपनी भूमिका से संतुष्ट हो जाते हैं. अनेक मानवीय उपस्थितियाँ कवि को कैमरे के फोकस से बाहर नज़र आती हैं जब वह देखता है—
मॄत्यु सिर्फ उफभोक़्ता खबर है दृश्य में
पहुँचती नहीं उन तक जो कभी भी तोड़ सकते हैं
अपनी आखिरी साँस अटकी जो उम्मीद में कहीं.
(उन पर न कोई कैमरा)
उनकी दो और महत्वपूर्ण कविताएं हैं—आपको क्यूँ नहीं दीखता और अमर कोली. तबेले में पशुवत जीवन जीते हुए मवेशियों के हालात का चित्र खींचते हुए मंडलोई ने दुधारु पशुओं के प्रति क्रूरता काका मार्मिक उदाहारण कविता के रूप में रखा है जो हमारी उत्तर आधुनिक हो रही सम्यता की अचूक स्वार्थपरता का तीखा उदाहरण है. आश्चर्य है कि इस दुधारू-बाजारू सभ्यता में जहाँ प्राणि-प्रजातियाँ दिनों दिन लुप्त हो रही हैं, हमने अपने फालतू पशुओं को ही व्यापारिक हितों की बलिवेदी पर चढ़ा दिया है. इसी तरह अमर कोली की आत्महत्या का रूपक रचते हुए मंडलोई ने हमारे समय की मानवीय क्रूरताओंऔर संकीर्णताओं का जिस लहजे में खुलासा किया है, उससे यह पता लगता है कि मनुष्य मनुष्य के ही विरुद्ध किन किन स्तरों फर व्यूह – रचना में निमग्न है.
मंडलोई की काव्य-भाषा कविता की प्रचलित सौंदर्याभिरूचि से थोड़ा अलग है. वह कई बार अनगढ़ सी दिखती और ऐसे स्थानिक शब्दों के प्रति अपनेपन का रवैया अफनाती है, जिसे देख कर सुगढ़ शिल्प के ख्वाहिशमंद पाठकों को किंचित भिन्न काव्यास्वाद का बोध हो सकता है. दूसरी बात यह कि मंडलोई की कविता में आंतरिक संगति तो है फर वह संगीत नहीं, जिसकी जरूरत आज की कविता को कदाचित सबसे ज्यादा है. एजरा पाउंड ने कहा था, कविता जब संगीत से बहुत दूर निकल जाती है तो दम तोड़ने लगती है. अपने विपुल कथ्य, भावप्रवण संवेदन और वस्तुनिष्ठता के बावजूद मंडलोई कविता में जिस चीज़ को सबसे ज्.यादा तवज्जो देते जान पड़ते हैं, वह है, कविता का आंतरिक संगीत. मंडलोई में मातृक या वर्णिक छंद भले ही क्षीण हो, पर विचारों का एक अविरल संगीत तो है ही जो सूक्तियों, मित कथनों में उतरता और परवान चढ़ता है.
पढे-लिखे और सुसाक्षर समाज की चीज समझी जाने वाली कविता की यथार्थवादी ताकत जितनी मजबूत हुई है,उसकी भीतरी संवेदना उत्तरोत्तर क्षीण हुई है. इसीलिए कविताओं के अंबार में मनुष्य की
संवेदना को छू लेने वाली कविता आज भी विरल ही लिखी जा रही है, जिसके चुम्बकीय आकर्षण से पाठक-श्रोता खिंचे-बिंधे चले आते हों. लीलाधर मंडलोई ने गत कुछ वर्षों में ऐसे प्रयोग किए है, खास तौर पर अपने अपने जीवनानुभवों को भाषा के अनुभवों में बदलने के स्तर पर, जिन्हें पढ़ते हुए लगता है, कहीं-कहीं हर खासो-आम की संवेदना के लिए उनकी कविता में पर्याप्त जगह है. जहाँ लंबी कहानी, लंबी कविताओं का फैशन फिर चलन में आ रहा हो, यथार्थ की जटिलता के नाम पर कथ्य और शिल्प की बारीकियों और एक खास अंदाजेबयाँ में कविता को रचने बुनने की कवायद चल रही हो, लीलाधर मंडलोई ने हिंदी और हिंदुस्तानी जबान के परस्पर रसायन से कविता की एक ऐसी किस्म तैयार की है जो पाठकों में कविता की सुरुचि जगाने में तो सफल रही ही है, अकादेमिक हल्के में भी जिसने पर्याप्त समर्थन हासिल किया है.
लिखे में दुक्ख, एक बहुत कोमल तान व महज शरीर नहीं पहन रखा था उसने के बाद मनवा बेपरवाह की छोटी – बड़ी 109 कविताओं के साथ मौजूद लीलाधर मंडलोई ने कविता को बोलचाल की भाषा के बहुत करीब लाने का जतन किया है. इस अर्थ में मीडिया और जनमानस के बीच जिस तरह की वाचिक भाषा-भंगिमा का उदय इधर हुआ है, उसे कविता जैसी संवेदी अभिव्यक्ति के केंद्र में रखते हुए मंडलोई ने कविता के अभ्यस्त वाचिक संसार को एक नए स्वरूप में बरतने में सफलता फाई है. रहीम के जिस सुपरिचित दोहे से मनवा बेपरवाह का शीर्षक उठाया गया है, उसके मूल में ही यह कथ्य निहित है कि जिन्हें न कोई चाह है, न चिंता, मन बेपरवाह, कुछ भी जिन्हें नहीं चाहिए, शहंशाह वे ही हैं. इस अर्थ में मंडलोई ने अपने परिष्कृत उदारचरित चित्त का फरिचय देते हुए यहाँ प्रकाशित छोटी बड़ी कविताओं में अक्सर मार्मिक और गहरे कथ्य की छानबीन की है. कहना न होगा कि हिंदी और उर्दू जबान से भाषा के जिस दोआब का सॄजन उन्होंने किया है—कुछ कुछ शमशेर से सीख लेते हुए, उसके बारे में फज़ल ताबिश की इस बात पर सहमति जताई जा सकती है कि आजादी के बाद भाषा के इस दोआब में जीने का फलसफा ही समाज में एका पैदा कर सकता है.
हिंदी में हाइकू और सानेट इत्यादि लिखने की कोशिशें अवश्य हुईं पर वे कामयाब नहीं हो सकीं, जबकि मंडलोई ने छोटी कविताएं लिख कर खासी लोकप्रियता आर्जित की है. इस संग्रह को उनके फिछले संग्रह लिखे में दुक़्ख के साथ पढ़ते हुए उनके इस कौल को नहीं भूला जा सकता, जिसमें वे अपने लेखन में सबके दुखों का सहकार अनिवार्य मानते हैं. जब इस सरोकार के साथ कोई रचना में उतरता है तब ही ऐसी कविता जन्म लेती है–अस्थियों को कहा होगा जिसने फूल/ देखा होगा उसी ने /मनुष्य के भीतर का फूल. लेकिन विडंबना यह है कि हम अपने ही भीतर के फूल और सुगंध से अनजान हैं. मंडलोई मनुष्यता की सबसे निचली पायदान पर जीवन यापन के लिए जद्दोजेहद करते इन्सान से कुछ इस तरह अपना नाता जोड़ते हैं–बार बार कुचले जाने पर भी खड़ी होकर / अपने होने की घोषणा करती है/ जैसे दूब/ हम उसी कुल के हैं. हद तो यह कि उनकी कविता बाजदफा अपने पर भी फटकार लगाती है–यह खुदगर्जी से अधिक मक़्कारी है/ मैने नहीं सुना/भूखे का रुदन. उनकी कविता धीरे से एक कसक की तरह उभरती है, जो कवि से कहलवाती है–मैं ही था अपना जासूस/ मैंने ही सुना टूटना/ यह आत्मा की आवाज़ थी. –भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने तो मनुष्य से उसकी मॄत्यु का बोध तक छीन लिया है, नतीजतन राज्यसत्ता को किसानों के बलात वध में आत्महत्या के वरण की स्वतंत्रता दीख पड़ती है. मंडलोई की कविता इस विडंबना को इस तरह अवलोकित करती है–एक किसान और मर गया/ इसे आत्महत्या कहना अपमान होगा/ मरने के समय / वह बैंक का दरवाज़ा खटखटा रहा था. हैरतनाक तो यह कि किसानो की आत्महत्या के इस दौर से सरकार इस कदर विमुख है कि उसे ऑंकड़ो का उत्तरोत्तर बढ़ता ग्राफ कतई चिंता में नहीं डालता.
मनवा बेपरवाह और लिखे में दुक्ख की कविताओं में दुनियावी दुश्चिंताओं में लुटते पिटते आम आदमी की कराह सुन पड़ती है है. मंडलोई ने जीवन की दुश्वारियों को नजदीक से देखा है. यहाँ भव्य जीवन की उपस्थितियों के बीच चीथड़े होते सपनों की गाथाएं हैं. जब दुनिया में छल और कपट का कारोबार शिखर पर हो तो कविता ही अंतःकरण की वह आवाज है जो सच को सच कहने का साहस रखते हुए जीवन की नीच ट्रेजेडी के हर पहलू पर नज़र रखती है. यहाँ तक कि वह शास्त्र-वर्जित अप्रिय सत्य से भी मुँह नहीं मोड़ती. मंडलोई की कविताओं में ये लक्षण शुरू से ही प्रभावी रहे हैं. इसलिए वे किसी लालित्य और सरसता के मोह में न पड़कर दो टूक लहजे और ठेठ अभिधा में अफनी बात कहते हैं. इसी संग्रह की अनेक छोटी कविताओं में उनकी लेखकीय दृढता उजागर होती है. एक ऐसी ही कविता में हम उनके मिजाज को परख सकते हैं–
जीवन के कुछ ऐसे शेयर थे
बाजार में
जो घाटे के थे लेकिन ख़रीदे मैंने
लाभ के लिए नहीं दौड़ा मैं
मैं कंगाल हुआ और खुश हूँ
मेरे शेयर सबसे कीमती थे
जिन लोगों ने धूमिल की कविता लोहे का स्वादपढ़ी है, उन्हें इसी शीर्षक से मंडलोई की कविता अवश्य फढ़नी चाहिए. यह धूमिल से आगे की कविता है . धूमिल लिखते हैं लोहे का स्वाद लुहार से नहीं उस घोड़े से पूछो, ,जिसके मुँह में लगाम है. मंडलोई की कविता आगे बढ़ कर संशय करती है कि घोड़े के लिए सरकारी लगाम हो और नाल कहीं आत्मा में ठुकी हो तो? यह कविता बताती है कि कैसे विधि पत्रों की दुर्गंध को कुचलते हुए बूट बेसुरे हो जाते हैं और किताब में एक इन्सान एक नए किरदार में न्याय की अधूरी पंक्तियॉं जोड़ रहा होता है. मंडलोई उत्सवी संगीत के पीछे के मानवीय रूदन को भाँप लेते हैं तथा कामयाबी के बदलते नुस्खों को भी . तभी तो कवि को महसूस होता है कि सफेद बालों से दिखते तजुर्बे और ईमानदारी की आज कोई कीमत नहीं क़्योंकि कामयाबी जिन वजहों से कदम चूमती है, वह उसके पास नहीं.
मंडलोई की कविता जीवन की बारीकियों में धँसती है, वह परिस्थितियों के हर पहलू को बारीकी से टटोलती है. उनकी एक कविता में एक सुंदर स्त्री अपने वजूद से नफरत करने के बावजूद हर बार बूढी मॉ और अपने से भी ज्यादा खूबसूरत बहन को सामने पाकर आत्महत्या के निर्णय मुल्तवी कर देती है. एक अन्य कविता– फाँस– में गले में जंजीर पहने भौकते एक कुत्ते की तकलीफ यानी ज़िल्लत की रोटी जैसे गले में पड़ी फाँस की तरह चुभती है. डर, भय, संताप, जुल्म, जंजीर, ताकततंत्र,सामाजिक बुराइयों और लगातार असहज और असहाय होती मनुष्यता की नियति की बातें करने वाली ये कविताएं केवल दुखों का रोजनामचा ही प्रस्तुत नहीं करतीं, बल्कि एक उम्दा खबर की तरह जीवन की डेस्क फर आसन भी जमाती हैं. वे अंत तक शब्दों में भरोसा नहीं खोतीं—यह कहती हुई कि कठिन है गुज़रती सदी फिर भी छूकर देखो तो सही—शब्दों में सोया पड़ा भरोसेदार ताप और एक रोमांच से भर देती धूपिया हँसी के साथ वे इस नोट फर समाप्त होती हैं कि—
सब कुछ बंद के जनतंत्र में
पकने को हैं लेकिन धान की बालियाँ
अमरूद पर तोते की पहली चोंच से उभरती लाली में
खोलता है जीवन का असमाप्त गीत बंद फलक (मैं हँसा)
मनवा बेपरवाह की कविताओ में कहीं कविता का-सा आस्वाद है तो कहीं नज्मों की-सी छटा. मंडलोई की काव्य भाषा शुरु से ही हिंदुस्तानी जबान की पक्षधर रही है. मीडिया से जुड़ने का का प्रभाव भी उनकी कविता पर पड़ा है. उसमें अनुभूति की शुद्धता तो है किन्तु उनकी कविता भाषिक शुचिता की हामी नहीं है. इसीलिए आज शुद्ध कविता की खोज से ज्यादा अनुभूति की शुद्धता पर ज्यादा बल है. मंडलोई की कविता ने उर्दू जबान से पड़ोस का रिश्ता कायम किया है. इन दिनो जिस भाषायी दोआब और अंदाजे बयॉ की आमदरफ्त उनकी कविताओ में है, शायर कविता उसका एक मौजूँ उदाहरण है–ये लाफानी हवा/ ये बदमस्त दरिया/ ये बेफैज़ अँधेरा/ ये आइने बेअक़्स/ ये सायों की सरगोशियाँ/ ये निग़हबानी पागल चाँद की/ और आरजुओं की नाव पे सवार/ वो जो गुज़र रहा है बेखौफ/….कोई शायर है शायद. इन पंक्तियों में नुमायाँ बेफिक्री कहीं-न-कहीं मंडलोई के कवि-स्वभाव में भी मौजूद है. इन्सानी मुहब्बत का जज्बा उनमें इतना कूट कूट कर भरा है कि उनके जैसा कवि ही इस यकीन के साथ कह सकता है–भटकती रूह है यह/इसकी कहॉ कोई मंजिल/ तुम्हारे पास क्या आया/ फिर कहीं जाना न हुआ. आज जब किसी भी कला या रचनात्मक विधा का मूल्यांकन सामाजिक सरोकारों की कसौटी पर किया जा रहा है, मंडलोई की कविता कोई क्यों नहीं आता यहाँ बाज़ार के असर को नज़रन्दाज करके नहीं चलती. वह बाजार की आहटों को कुछ इस तरह दर्ज करती है-
इस शहर में जब भी खोलता हूँ दरवाजा
वह सीधे खुलता है बाजार में
देखता हूँ मैं शहर एक आधुनिक अखबार की तरह
फैलता जा रहा है जीवन भर
संपादकीयों की जगह
हँस रहा है एक बड़ा-सा विज्ञापन
मंडलोई की कविता संवादमयता के गुण सूत्रों से रची-बुनी है जिसकी आमद इन दिनों कविता में कम दिखाई देती है.
मंडलोई की कविता में एक साथ अनेक रंग देखे जा सकते हैं. वे किसानों की आत्महत्याओं पर गौर
फरमाते हैं तो दूसरी ओर आस-पास की दुनिया फर गहरी नजर डालते हुए कठिनाइयों और शिद्दत के साथ जिये जा रहे जीवन के एक-एक कतरे को वे अपनी कविता के प्रशस्त अंतःकरण में भर लेना चाहते हैं. उनके यहॉ ऐसे भी लोग दिखते हैं जो मनुष्य होते हुए भी पशु-सरीखा जीवन जी रहे है. वंचितो के लिए उनकी कविता गहरी सहानुभूति रखती है. वह यतीमों के रोने तक को अपने हृदय में दर्ज करती है और हँसी के स्याह रंग को भी. वह उन ताकतो से भी बाखबर है जो दुनिया को अपने तरीके से नियंत्रित करने की रणनीति में मुाब्तिला हैं. उनकी कविताओ से गुजरते हुए लगता है, हम जीवन की ऊबड़-खाबड पगडंडियों पर चल रहे हैं, हम जिन मनुष्यों से मिल रहे हैं, जिन अनुभवों से रू बरू हो रहे हैं वे सब बदले और बदलते हुए समय की गवाही देते हैं. किन्तु परिस्थितियों और पारिास्थितिकी के पेचीदा अनुभवों को ही वे अपनी कविता का विषय नहीं बनाते, बाल्कि कोमल अहसासों से वे कविता की रेशमी अनुभूतियों को भी सजल बनाते हैं. उनकी कविता जीवन के खुशमिजाज लम्हों से मुँह नहीं मोड़ती ऐसी अनेक कविताएं यहाँ हैं जो जीवनानुराग से भरी और मीठी थपकियों की तरह चित्त चुरा लेती-सी लगती हैं. कविता पर वे अनावश्यक बौद्धिकता का भार नहीं लादते बाल्कि संवेदना के करघे पर शब्दों का धड़कता हुआ प्रतिबिंब रचते हैं. उनके एक संस्मरणात्मक निबंधों का संग्रह है दिल का किस्सा. सच कहें तो वे कविताएं भी दिल के किस्से की तरह ही लिखते हैं. अच्छी कविता वही होती है जो हर बार पढ़ने फर नया अर्थ दे और हर बार कुछ न कुछ छूट जाए. मंडलोई की कविता इस अहसास को चरितार्थ करती है.
मंडलोई जब कविताओं के छोटे फार्म की ओर मुखातिब हुए थे तो मझोले आकार की कविता के दौर में यह एक जोखिम उठाने जैसा था,पर विष्णु नागर ने ठीक लक्ष्य किया है कि इन कविताओं ने उनके पाठकों के मन में एक आत्मीय जगह बनाई और वे खासा चर्चित हुईं. इन कविताओं पर उनका यह कहना था कि ‘इसमें पत्थर की कोमलता है और दरख़्त के रोने की आवाज़ भी है. इस कविता में दुक्ख है और सबका है.\’ मंडलोई ने इन छोटी छोटी कविताओं में भी जमाने-भर का रुदन और जमाने भर की विडंबनाऍं दर्ज की हैं. यहॉं कर्ण के प्रति कुंती की निष्करुण ममता पर कटाक्ष है तो कर्ज के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्याओं पर एक कवि का विक्षोभ भी. तलाक के कारण एक स्त्री के जीवन में जो स्थगन आता है, उस दुख की बारीक बीनाई भी उनके यहां है. सच यह कि उनका कवि जीवन-जगत की बारीक से बारीक घटनाओं व विचलनों पर नज़र रखता है तथा थोड़े-से शब्दों में भी अपरिमित अर्थ का संधान कर लेता है.
एक कवि ने उनकी कविताओं में यह ठीक ही लक्ष्य किया है कि उनके यहां निजी और सामाजिक घुल-मिल गए हैं. उसका दुख औरों के दुखों से एकात्म हो उठा है. यहॉं आत्मालाप जैसा एकांतिक आलाप नहीं है, बल्कि वह अपने समय से संवाद है. भले ही उनकी कविताओं में राजनीति की धमक न सुन पड़ती हो पर वे आम ज़िन्दगी का रोज़नामचा जरूर प्रस्तुत करती हैं. उनकी कविता गुरु गंभीर शब्दों, बिम्बों और प्रत्ययों की झड़ी लगाने वाली कविता नहीं है. वे लोगों के लाचार ऑंसुओं को जैसे अपने भाल पर रखने का बीड़ा उठाते हैं तथा मानवीय रागात्मकता और जद्दोजेहद-भरे जीवन में कोमलता को बचाने वाले कवियों में हैं. आखिर जीवन-संघर्ष में पगा मंडलोई जैसा कवि ही कह सकता है: मेरी परछाईं धूप में जल रही है.
मंडलोईयथार्थवादी कवि तो हैं ही, शब्दों को बच्चों की तरह दुलारने वाले कवि भी हैं. \’हत्यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में\’ भूमंडलीकरण के दौर में प्राकृतिक संपदा और जल संसाधन का दोहन करने वाली शक्तियों के ध्रुवीकरण की एक ऐसी कविता है जो यह जताती है कि धीरे धीरे हमारे जीवन के सबसे जरूरी तत्व पानी पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कुटिल दृष्टि है. जिस तरह से इधर के वर्षों में ज़मीन और ज़मीन के नीचे खनिज तत्वों की लूट मची है,अचरज नहीं कि दिनों दिन खिसकते जलस्तर और पारिस्थितिकी के असंतुलन से कभी सूखे, कभी उफान का शिकार प्राकृतिक जल-स्रोतों पर इन शक्तियों का आधिपत्य हो जाए और मानव जीवन संकट से घिर जाए. एक सपने या कि एक दु:स्वप्न में घटित इस वृत्तांत की कुछ पंक्तियों से आप कवि की चिंता और साम्प्रतिक संकट का अंदाजा लगा सकते हैं:
पानी के बाहर हो कोई सुरक्षित जगह
तो भाग जाओ रक्त–रंजित!
हम हत्यारे हैं
हमारे भीतर कुछ शेष नहीं, दया, ममता, करुणा, सहानुभूति आदि.
सब कुछ खरीद लिया गया
यहां तक कि आत्मा जो तुम्हारे आदेश की गुलाम
अभी वह बंधक है
मार दी जाएगी एक दिन
एक दिन तुम भी मार दिए जाओगे
हमें नहीं लगता हत्याओं का पाप
जघन्य अपराधी हैं हम
हमें किसी भी कीमत पर चाहिए पानी
फिर उसके लिए तुम्हारी हत्या सहीं
भगवन् भागो हत्यारे उतर चुके हैं क्षीर सागर में
…………………
भागो भगवन, हत्यारों ने आपको घेर लिया है
बस इस सपने से बाहर निकलने हुए आपकी मृत्यु का समाचार होगा
या फिर आपके एक और झूठे अवतार की कहानी
जिसे हत्यारे सुना रहे होंगे भगवा वस्त्रों में
…..और इस बार सपने में भी नहीं होगा
पानी के घर में तुम्हारी मृत्यु का सजीव प्रसारण देखेगी दुनिया
और भूल जाएगी एक दिन कि विष्णु नाम का कोई देवता था पानी में.
(समकालीन भारतीय साहित्य, जुलाई-अगस्त,2011)
यों तो मंडलोई हिंदुस्तानी जबान के कवि हैं, इसलिए अनायास ही उनकी कविताओं से सादाबयानी टपकती है किन्तु यह कविता अपनी गद्य-संरचना के कारण अलग से लक्षित किए जाने योग्य है. अचरज नहीं कि इस कविता में उत्तराखंड त्रासदी जैसी भयावह भावी त्रासदियों की चेतावनी छिपी है और पानी के लिए विश्वयुद्ध के बर्बर संकेत भी. इस कविता में उन्होंने आज के बाज़ारवाद की तह में जाकर हमारे समय के सफेद-स्याह को एक कवि की निगाह से देखा है. एक सयानी अंतर्दृष्टि से उन्होंने कवि के उत्तरदायित्व को जैसे कविता का कार्यभार समझ कर निबाहा है. \’हत्यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में\’ लीलाधर मंडलोई की कविताओं का श्रेष्ठ चयन है जिनमें न केवल उनके समूचे कवि-व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य उजागर होता है बल्कि आज के समय को भी इन शब्दों में चीन्हा और रेखांकित किया जा सकता है.
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डॉ.ओम निश्चल
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